महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-092
← आश्वमेधिकपर्व-091 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-092 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-093 → |
|
नकुलेन युधिष्ठिरादीन्प्रति सकुटुम्बस्योञ्छवृत्तेर्ब्राह्मणस्य धर्मपुरुषाय सक्तुप्रस्तदानमहिमवर्णनपूर्वकंपुनस्तत्रैवान्तर्धानम्।। 1 ।।
नकुल उवाच। | 14-92-1x |
हन्त वः कथयिष्यामि दानस्य फलमुत्तमम्। न्यायलब्धस्य सूक्ष्मस्य विप्रदत्तस्य यद्द्विजाः।। | 14-92-1a 14-92-1b |
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे धर्मज्ञैर्बहुभिर्वृते। उञ्छवृत्तिर्द्विजः कश्चित्कापोतिरभवत्पुरा।। | 14-92-2a 14-92-2b |
सभार्यः सहपुत्रेण सस्नुषस्तपसि स्थितः। बभूव शुक्लवृत्तः स धर्मात्मा नियतेन्द्रियः।। | 14-92-3a 14-92-3b |
षष्ठे काले सदा विप्रो भुङ्क्ते तैः सह संवृतः।। | 14-92-4a |
षष्ठे काले कदाचित्तु तस्याहारो न विद्यते। भुङ्क्तेऽन्यस्मिन्कदाचित्स षष्ठे काले द्विजोत्तमः।। | 14-92-5a 14-92-5b |
कपोतधर्मिणस्तस्य दुर्भिक्षे सति दारुणे। नाविद्यत तदा विप्राः संचयस्तन्निबोधत।। | 14-92-6a 14-92-6b |
क्षीणाषैदिसमावापो द्रव्यहीनोऽभवत्तदा। कालेकालेऽस्य सम्प्राप्ते नैव विद्येत भोजनम्।। | 14-92-7a 14-92-7b |
क्षुधापरिगताः सर्वे प्रातिष्ठन्त तदा तु ते। उञ्छं तदा शुक्लपक्षे मध्यं तपति भास्करे।। | 14-92-8a 14-92-8b |
उष्णार्तश्च क्षुधार्तश्च विप्रस्तपसि संस्थितः। उञ्छमप्राप्तवानेव ब्राह्मणः क्षुच्छ्रमान्वितः।। | 14-92-9a 14-92-9b |
स तथैव क्षुधाविष्टः सार्धं परिजनेन ह। क्षपयामास तं कालं कृच्छ्रप्राणो द्विजोत्तमः।। | 14-92-10a 14-92-10b |
अथ षष्ठे गते काले यवप्रस्थमुपार्जयन्। यवप्रस्थं तु तं सक्तूनकुर्वन्त तपस्विनः।। | 14-92-11a 14-92-11b |
कृतजप्याह्निकास्ते तु हुत्वा चाग्निं यथाविधि। कुडवंकुडवं सर्वे व्यभजन्त तपस्विनः।। | 14-92-12a 14-92-12b |
अथागच्छद्द्विजः कश्चिदतिथिर्भुञ्जतां तदा। ते तं दृष्ट्वाऽतिथिं प्राप्तं प्रहृष्टमनसोऽभवन्।। | 14-92-13a 14-92-13b |
तेऽभिवाद्य सुखप्रश्नं पृष्ट्वा तमतिथिं तदा। विशुद्धमनसो दान्ताः श्रद्धादमसमन्विताः।। | 14-92-14a 14-92-14b |
अनसूया गतक्रोधाः साधवो वीतमत्सराः। त्यक्तमानमदक्रोधा धर्मज्ञा द्विजसत्तमाः।। | 14-92-15a 14-92-15b |
सब्रह्यचर्यं गोत्रं ते तस्य ख्यात्वा परस्परम्। कुटीं प्रवेशयामासुः क्षुधार्तमतिथिं तदा।। | 14-92-16a 14-92-16b |
इदमर्घ्यं च पाद्यं च बृसी चेयं तवानघ। शुचयः सक्तवश्चेमे नियमोपार्जिताः प्रभो। प्रतिगृह्णीष्व भद्रं ते मया दत्ता द्विजर्षभ।। | 14-92-17a 14-92-17b 14-92-17c |
इत्युक्तः प्रतिगृह्याथ सक्तूनां कुडवं द्विजः। भक्षयामास राजेन्द्र न च तुष्टिं जगाम सः।। | 14-92-18a 14-92-18b |
स उञ्छवृत्तिस्तं प्रेक्ष्य क्षुधापरिगतं द्विजम्। आहारं चिन्तयामास कथं तुष्टो भवेदिति।। | 14-92-19a 14-92-19b |
तस्य भार्याऽब्रवीद्वाक्यं मद्भागो दीयतामिति। गच्छत्वेष यथाकामं परितुष्टो द्विजोत्तमः।। | 14-92-20a 14-92-20b |
इति ब्रुवन्तीं तां साध्वीं भार्यां स द्विजसत्तमः। क्षउधापरिगतां ज्ञात्वा तान्सक्तून्नाभ्यनन्दत।। | 14-92-21a 14-92-21b |
आत्मानुमानतो विद्वान्स तु विप्रर्षभस्तदा। जानन्वृद्धां क्षुधार्तां च श्रान्तां ग्लानां तपस्विनीम्। त्वगस्थिभूता वेपन्तीं ततो भार्यामुवाच ह।। | 14-92-22a 14-92-22b 14-92-22c |
अपि कीटपतङ्गानां मृगाणां चैव शोभने। स्त्रियो रक्ष्याश्च पोष्पाश्च न त्वेवं वक्तुमर्हसि।। | 14-92-23a 14-92-23b |
अनुकंप्यो नरः पत्न्या पुष्टो रक्षित एव च। प्रपतेद्यशसो दीप्तात्स च लोकान्न चाप्नुयात्।। | 14-92-24a 14-92-24b |
धर्मकामार्थकार्याणि शुश्रूषाकुलसंततिः। दारेष्वदीनो धर्मस्च पितॄणामात्मनस्तथा।। | 14-92-25a 14-92-25b |
न वेत्ति कर्मतो भार्यारक्षणे योऽक्षमः पुमान्। अयशो महदाप्नोति नारकांश्चैव गच्छति।। | 14-92-26a 14-92-26b |
इत्युक्ता सा ततः प्राह धर्मार्थौ नौ समौ द्विज। सक्तुप्रस्थचतुर्भागं गृहाणेमं प्रसीद मे।। | 14-92-27a 14-92-27b |
सत्यं रतिश्च धर्मश्च स्वर्गश्च गुणनिर्जितः। स्त्रीणां पतिसमाधीनं काङ्क्षितं च द्विजर्षभ।। | 14-92-28a 14-92-28b |
ऋतुर्मातु पितुर्बीजं दैवतं परमं पतिः। भर्तुः प्रसादान्नारीणां रतिपुत्रफलं तथा।। | 14-92-29a 14-92-29b |
पालनाद्धि पतिस्त्वं मे भर्ताऽसि भरणाच्च मे। पुत्रप्रदानाद्वरदस्तस्मात्सक्तून्प्रयच्छ मे।। | 14-92-30a 14-92-30b |
जरापरिगतो वृद्धः क्षुधार्तो दुर्बलो भृशम्। उपवासपरिश्रान्तो यदा त्वमपि कर्शितः।। | 14-92-31a 14-92-31b |
इत्युक्तः स तया सक्तून्प्रगृह्येदं वचोऽब्रवीत्। द्विजि सक्तूनिमान्भूयः प्रतिगृह्णीष्व सत्तम।। | 14-92-32a 14-92-32b |
स तान्प्रगृह्य भुक्त्वा च न तुष्टिमगमद्द्विजः। तमुञ्छवृत्तिरालक्ष्य ततश्चिन्तापरोऽभवत्।। | 14-92-33a 14-92-33b |
पुत्र उवाच। | 14-92-34x |
सक्तूनिमान्प्रगृह्य त्वं देहि विप्राय सत्तम। इत्येव सुकृतं मन्ये तस्मादेतत्करोम्यहम्।। | 14-92-34a 14-92-34b |
भवान्हि परिपाल्यो मे सर्वदैव प्रयत्नतः। साधूनां काङ्क्षितं यस्मात्पितुर्वृद्धस्य पालनम्।। | 14-92-35a 14-92-35b |
पुत्रार्थो विहितो ह्येष वार्धके परिपालनम्।। श्रुतिरेषा हि विप्रर्षे त्रिषु लोकेषु शाश्वती।। | 14-92-36a 14-92-36b |
प्राणाधारणमात्रेण शक्यं कर्तुं तपस्त्वया। प्राणो हि परमो धर्मः स्थितो देहेषु देहिनाम्।। | 14-92-37a 14-92-37b |
पितोवाच। | 14-92-38x |
अपि वर्षसहस्री त्वं बाल एव मतो मम। उत्पाद्य पुत्रं हि पिता कृतकृत्यो भवेत्सुतात्।। | 14-92-38a 14-92-38b |
बालानां क्षुद्बलवती जानाम्येतदहं प्रभो। वृद्धोऽहं धारयिष्यामि त्वं बली भव पुत्रक।। | 14-92-39a 14-92-39b |
जीर्णेन वयसा पुत्र न मां क्षुद्बाधतेऽपि च। दीर्घकालं तपस्तप्तं न मे मरणतो भयम्।। | 14-92-40a 14-92-40b |
पुत्र उवाच। | 14-92-41x |
अपत्यमस्मि ते पुंसस्त्राणात्पुत्र इति स्मृतः। आत्मा पुत्रः स्मृतस्तस्मात्त्राह्यात्मानमिहात्मना।। | 14-92-41a 14-92-41b |
पितोवाच। | 14-92-42x |
रूपेण सदृशस्त्वं मे शीलेन च दमेन च। परीक्षितश्च बहुधा सक्तूनादद्मि ते सुत।। | 14-92-42a 14-92-42b |
इत्युक्त्वाऽऽदाय तान्सक्तून्प्रीतात्मा द्विजसत्तमः। प्रहसन्निव विप्राय स तस्मै प्रददौ तदा।। | 14-92-43a 14-92-43b |
भुक्त्वा तानपि सक्तून्स नैव तुष्टो बभूव ह। उच्छवृत्तिस्तु धर्मात्मा व्रीडामनुजगाम ह।। | 14-92-44a 14-92-44b |
तं वै वधूः स्थिता साध्वी ब्राह्मणिप्रियकाम्यया। सक्तूनादाय संहृष्टा श्वशुरं वाक्यमब्रवीत्।। | 14-92-45a 14-92-45b |
संतानात्तव संतानं मम विप्र भविष्यति। सक्तूनिमानतिथये गृहीत्वा सम्प्रयच्छ मे।। | 14-92-46a 14-92-46b |
तव प्रसादान्निर्वृत्ता मम लोकाः किलाक्षयाः। पुत्रेण तानवाप्नोति यत्र गत्वा न शोचति।। | 14-92-47a 14-92-47b |
धर्माद्या हि यथा त्रेता वह्नित्रेता तथैव च। तथैव पुत्रपौत्राणां स्वर्गस्त्रेता किलाक्षयः।। | 14-92-48a 14-92-48b |
पितॄणात्तारयति पुत्र इत्यनुशुश्रुम। पुत्रपौत्रैश्च नियतं सादुलोकानुपाश्नुते।। | 14-92-49a 14-92-49b |
श्वशुर उवाच। | 14-92-50x |
वातातपविशीर्णाङ्गीं त्वां विवर्णां निरीक्ष्य वै। कर्शितां सुव्रताचारे क्षुधाविह्वलचेतसम्।। | 14-92-50a 14-92-50b |
कथं सक्तून्ग्रहीष्यामि भूत्वा धर्मोपघातकः। कल्याणवृत्ते कल्याणि नैव त्वं वक्तुमर्हसि।। | 14-92-51a 14-92-51b |
षष्ठे काले व्रतवतीं शौचशीलतपोन्विताम्। कृच्छ्रवृत्तिं निराहारां द्रक्ष्यामि त्वां कथं शुभे।। | 14-92-52a 14-92-52b |
बाला क्षुधार्ता नारी च रक्ष्या त्वं सततं मया। उपवासपरिश्रान्ता त्वं हि बान्धवनन्दिनी।। | 14-92-53a 14-92-53b |
स्नुषोवाच। | 14-92-54x |
गुरोर्मम गुरुस्त्वं वै यतो दैवतदैवतम्। देवातिदेवस्तस्मात्त्वं सक्तूनादत्स्व मे प्रभो।। | 14-92-54a 14-92-54b |
देहः प्राणश्च धर्मश्च शुश्रूषार्थमिदं गुरोः। तव विप्र प्रसादेन लोकान्प्राप्स्यामहे शुभान्।। | 14-92-55a 14-92-55b |
अवेक्ष्या इति कृत्वाऽहं दृढभक्तेति वा द्विज। चिन्त्या ममेयमिति वा सक्तूनादानुमर्हसि।। | 14-92-56a 14-92-56b |
श्वशुर उवाच। | 14-92-57x |
अनेन नित्यं साध्वी त्वं शीलवृत्तेन शोभसे। या त्वं धर्मव्रतोपेता गुरुवृत्तिमवेक्षसे।। | 14-92-57a 14-92-57b |
तस्मात्सक्तून्ग्रहीष्यामि वधु नार्हसि वञ्चनाम्। गणयित्वा महाभागे त्वां हि धर्मभृतां वरे।। | 14-92-58a 14-92-58b |
इत्युक्त्वा तानुपादाय सक्तून्प्रादाद्द्विजातये। ततस्तुष्टोऽभवद्विप्रस्तस्य साधोर्महात्मनः।। | 14-92-59a 14-92-59b |
प्रीतात्मा स तु तं वाक्यमिदमाह द्विजर्षभम्। वाग्मी तदा द्विजश्रेष्टो धर्मः पुरुषविग्रहः।। | 14-92-60a 14-92-60b |
शुद्धेनि तव दानेन न्यायोपात्तेन धर्मतः। यथाशक्ति विसृष्टेन प्रीतोस्मि द्विजसत्तम।। | 14-92-61a 14-92-61b |
अहो दानं घुष्यते ते स्वर्गे स्वर्गनिवासिभिः। गगनात्पुष्पवर्षं च पश्येदं पतितं भुवि।। | 14-92-62a 14-92-62b |
सुरर्षिदेवगन्धर्वा ये च देवपुरःसराः। स्तुवन्तो देवदूताश्च स्थिता दानेन विस्मिताः।। | 14-92-63a 14-92-63b |
ब्रह्मर्षयो विमानस्था ब्रह्मलोकचरश्च ये। काङ्क्षन्ते दर्शनं तुभ्यं दिवं व्रज द्विजर्षभ।। | 14-92-64a 14-92-64b |
पितृलोकगताः सर्वे तारिताः पितरस्त्वया। अनागताश्च बहवः सुबहूनि युगान्युत।। | 14-92-65a 14-92-65b |
ब्रह्मचर्येण दानेन यज्ञेनि तपसा तथा। अगह्वरेण धर्मेण तस्माद्गच्च दिवं द्विज।। | 14-92-66a 14-92-66b |
श्रद्धया परया यरत्वं तपश्चरसि सुव्रत। तस्माद्देवास्तवानेन प्रीता ब्राह्मणसत्तम।। | 14-92-67a 14-92-67b |
सर्वमेतद्धि यस्मात्ते दत्तं शुद्धेन चेतसा। कृच्छ्रकाले ततः स्वर्गो विजितः कर्मणा त्वया।। | 14-92-68a 14-92-68b |
क्षुधा निर्णुदति प्रज्ञां धर्मबुद्धिं व्यपोहति। क्षुधापरिगतज्ञानो धृतिं त्यजति चैव ह।। | 14-92-69a 14-92-69b |
बुभुक्षां जयते यस्तु स स्वर्गं जयते ध्रुवम्। यदा दानरुचिः स्याद्वै तदा धर्मो न सीदति।। | 14-92-70a 14-92-70b |
अनवेक्ष्य सुतस्नेहं कलत्रस्नेहमेव च। धर्ममेव गुरं ज्ञात्वा तृष्णा न गणिता त्वया।। | 14-92-71a 14-92-71b |
द्रव्यागमो नृणां सूक्ष्मः पात्रे दानं ततः परम्। कालः परतरो दानाच्छ्रद्धा चैव ततः परा।। | 14-92-72a 14-92-72b |
स्वर्गद्वारं सुसूक्ष्मं हि नरैर्माहान्नि दृश्यते। सङ्गर्गलं लोभकीलं रागगुप्तं दुरासदम्।। | 14-92-73a 14-92-73b |
तं तु पश्यन्ति पुरुषा जितदक्रोधा जितेन्द्रियाः। ब्राह्मणास्तपसा युक्ता यथाशक्ति प्रदायिनः।। | 14-92-74a 14-92-74b |
सहस्रशक्तिश्च शतं शतशक्तिर्दशापि च। दद्यादपश्च यः शक्त्या सर्वे तुल्यफलाः स्मृताः।। | 14-92-75a 14-92-75b |
रन्तिदेवो हि नृपतिरपः प्रादादकिंचनः। शुद्धेन मनसा विप्र नाकपृष्ठं ततो गतः।। | 14-92-76a 14-92-76b |
न धर्मः प्रीयते तात दानैर्दत्तैर्महाफलैः। न्यायलब्धैर्यथा सूक्ष्मैः श्रुद्धापूतैः स तुष्यति।। | 14-92-77a 14-92-77b |
गोप्रदानसहस्राणि द्विजेभ्योऽदान्नृगो नृपः। एकां दत्त्वा स पारक्यां नरकं समपद्यत।। | 14-92-78a 14-92-78b |
आत्ममांसप्रदानेन शिबोरौशीनरो नृपः। प्राप्य पुण्यकृताँल्लोकान्मोदत दिवि सुव्रतः।। | 14-92-79a 14-92-79b |
विभवेन नृणां पुण्यं यच्छत्त्या स्वार्जितं न तत्। न यज्ञैर्विविधैर्विप्र यथान्यायेन संचितैः।। | 14-92-80a 14-92-80b |
क्रोधाद्दानफलं हन्ति लोभात्स्वर्गं न गच्छति। न्यायवृत्तिर्हि तपसा दानवित्स्वर्गमश्नुते।। | 14-92-81a 14-92-81b |
न राजसूयैर्बहुभिरिष्टा विपुलदक्षिणैः।। न चाश्वमेधैर्बहुभिः फलं सममिदं तव।। | 14-92-82a 14-92-82b |
सक्तुप्रस्थेन विजितो ब्रह्मलोकस्त्वयाऽक्षयः। विरजो ब्रह्मसदनं गच्छ विप्र यतासुखम्।। | 14-92-83a 14-92-83b |
सर्वेषां वो द्विजश्रेष्ठ दिव्यं यानमुपस्थितम्। आरोहत यथाकामं धर्मोस्मि द्विज पश्य माम्।। | 14-92-84a 14-92-84b |
बाधितो हि त्वया देहो लोके कीर्तिः स्थिरा च ते। सभार्यः सहपुत्रश्च सस्नुषश्च दिवं व्रज।। | 14-92-85a 14-92-85b |
इत्युक्तवाक्ये धर्मे तु यानमारुद्य स द्विजः। सदारः ससुतश्चैव सस्नुषश्च दिवं गतः।। | 14-92-86a 14-92-86b |
तस्मिन्विपरे गते स्वर्गं ससुते सस्नुषे तदा। भार्याचतुर्थे धर्मज्ञे ततोऽहं निःसृतो बिलात्।। | 14-92-87a 14-92-87b |
ततस्तु सक्तुगन्धेन क्लेदेन सलिलस्य च। दिव्यपुष्पविमर्दाच्च साधोर्दानलवैश्च तैः।। | 14-92-88a 14-92-88b |
विप्रस्य तपसा तस्य शिरो मे काञ्चनीकृतम्। तस्य सत्याभिसन्धस्य सक्तुदानेन चैव ह।। | 14-92-89a 14-92-89b |
शरीरार्धं च मे विप्राः शातकुंभमयं कृतम्। पश्यतेमं सुविपुलं तपसा तस्य धीमतः।। | 14-92-90a 14-92-90b |
कथमेवंविधं स्याद्वै पार्श्वमन्यदिति द्विजाः। तपोवनानि यज्ञांश्च हृष्टोऽभ्योमि पुनः पुनः। | 14-92-91a 14-92-91b |
यज्ञं त्वहमिमं श्रुत्वा रुरुराजस्य धीमतः। आशया परया प्राप्तो न चाहं काञ्चनीकृतः।। | 14-92-92a 14-92-92b |
ततो मयोक्तं तद्वाक्यं प्रहस्य ब्राह्मणर्षभाः। सक्तुप्रस्थेन यज्ञोऽयं संमितो नेति सर्वथा।। | 14-92-93a 14-92-93b |
सक्तुप्रस्थलवैस्तैर्हि तदाऽहं काञ्चनीकृतः। न हि यज्ञो महानेष सदृशस्तैर्मतो मम।। | 14-92-94a 14-92-94b |
इत्युक्त्वा नकुलः सर्वान्यज्ञे द्विजवरांस्तदा। जगामादर्सनं तेषां विप्रास्ते च ययुर्गृहान्।। | 14-92-95a 14-92-95b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं मया परपुरंजय। यदाश्चर्यमभूत्तत्र वाचिमेधे महाक्रतौ।। | 14-92-96a 14-92-96b |
न विस्मयस्ते नृपते यज्ञे कार्यः कथञ्चन। ऋषिकोटिसहस्राणि तपोभिर्ये दिवं गताः।। | 14-92-97a 14-92-97b |
अद्रोहः सर्वभूतेषु संतोषः शीलमार्जवम्। तपो दमश्च सत्यं च प्रदानं चेति संमितम्।। | 14-92-98a 14-92-98b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि द्विनवतितमोऽध्यायः।। 92 ।। |
१४.९३ 14.90
नकुल उवाच॥
हन्त वो वर्तयिष्यामि दानस्य परमं फलम् |
न्यायलब्धस्य सूक्ष्मस्य विप्रदत्तस्य यद्द्विजाः ॥१॥14.90.23
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे धर्मज्ञैर्बहुभिर्वृते |
उञ्छवृत्तिर्द्विजः कश्चित्कापोतिरभवत्पुरा ॥२॥
सभार्यः सह पुत्रेण सस्नुषस्तपसि स्थितः |
वधूचतुर्थो वृद्धः स धर्मात्मा नियतेन्द्रियः ॥३॥
षष्ठे काले तदा विप्रो भुङ्क्ते तैः सह सुव्रतः |
षष्ठे काले कदाचिच्च तस्याहारो न विद्यते ॥४॥
भुङ्क्तेऽन्यस्मिन्कदाचित्स षष्ठे काले द्विजोत्तमः ॥४॥
कपोतधर्मिणस्तस्य दुर्भिक्षे सति दारुणे |
नाविद्यत तदा विप्राः सञ्चयस्तान्निबोधत ॥५॥
क्षीणौषधिसमावायो द्रव्यहीनोऽभवत्तदा ॥५॥
काले कालेऽस्य सम्प्राप्ते नैव विद्येत भोजनम् |
क्षुधापरिगताः सर्वे प्रातिष्ठन्त तदा तु ते ॥६॥
उञ्छंस्तदा शुक्लपक्षे मध्यं तपति भास्करे |
उष्णार्तश्च क्षुधार्तश्च स विप्रस्तपसि स्थितः ॥७॥
उञ्छमप्राप्तवानेव सार्धं परिजनेन ह ॥७॥
स तथैव क्षुधाविष्टः स्पृष्ट्वा तोयं यथाविधि |
क्षपयामास तं कालं कृच्छ्रप्राणो द्विजोत्तमः ॥८॥
अथ षष्ठे गते काले यवप्रस्थमुपार्जयत् |
यवप्रस्थं च ते सक्तूनकुर्वन्त तपस्विनः ॥९॥
कृतजप्याह्विकास्ते तु हुत्वा वह्निं यथाविधि |
कुडवं कुडवं सर्वे व्यभजन्त तपस्विनः ॥१०॥
अथागच्छद्द्विजः कश्चिदतिथिर्भुञ्जतां तदा |
ते तं दृष्ट्वातिथिं तत्र प्रहृष्टमनसोऽभवन् ॥११॥
तेऽभिवाद्य सुखप्रश्नं पृष्ट्वा तमतिथिं तदा |
विशुद्धमनसो दान्ताः श्रद्धादमसमन्विताः ॥१२॥
अनसूयवो गतक्रोधाः साधवो गतमत्सराः |
त्यक्तमाना जितक्रोधा धर्मज्ञा द्विजसत्तमाः ॥१३॥
सब्रह्मचर्यं स्वं गोत्रं समाख्याय परस्परम् |
कुटीं प्रवेशयामासुः क्षुधार्तमतिथिं तदा ॥१४॥
इदमर्घ्यं च पाद्यं च बृसी चेयं तवानघ |
शुचयः सक्तवश्चेमे नियमोपार्जिताः प्रभो ॥१५॥
प्रतिगृह्णीष्व भद्रं ते मया दत्ता द्विजोत्तम ॥१५॥
इत्युक्तः प्रतिगृह्याथ सक्तूनां कुडवं द्विजः |
भक्षयामास राजेन्द्र न च तुष्टिं जगाम सः ॥१६॥
स उञ्छवृत्तिः तं प्रेक्ष्य क्षुधापरिगतं द्विजम् |
आहारं चिन्तयामास कथं तुष्टो भवेदिति ॥१७॥
तस्य भार्याब्रवीद्राजन्मद्भागो दीयतामिति |
गच्छत्वेष यथाकामं सन्तुष्टो द्विजसत्तमः ॥१८॥
इति ब्रुवन्तीं तां साध्वीं धर्मात्मा स द्विजर्षभः |
क्षुधापरिगतां ज्ञात्वा सक्तूंस्तान्नाभ्यनन्दत ॥१९॥
जानन्वृद्धां क्षुधार्तां च श्रान्तां ग्लानां तपस्विनीम् |
त्वगस्थिभूतां वेपन्तीं ततो भार्यामुवाच ताम् ॥२०॥
अपि कीटपतङ्गानां मृगाणां चैव शोभने |
स्त्रियो रक्ष्याश्च पोष्याश्च नैवं त्वं वक्तुमर्हसि ॥२१॥
अनुकम्पितो नरो नार्या पुष्टो रक्षित एव च |
प्रपतेद्यशसो दीप्तान्न च लोकानवाप्नुयात् ॥२२॥
इत्युक्ता सा ततः प्राह धर्मार्थौ नौ समौ द्विज |
सक्तुप्रस्थचतुर्भागं गृहाणेमं प्रसीद मे ॥२३॥
सत्यं रतिश्च धर्मश्च स्वर्गश्च गुणनिर्जितः |
स्त्रीणां पतिसमाधीनं काङ्क्षितं च द्विजोत्तम ॥२४॥
ऋतुर्मातुः पितुर्बीजं दैवतं परमं पतिः |
भर्तुः प्रसादात्स्त्रीणां वै रतिः पुत्रफलं तथा ॥२५॥
पालनाद्धि पतिस्त्वं मे भर्तासि भरणान्मम |
पुत्रप्रदानाद्वरदस्तस्मात्सक्तून्गृहाण मे ॥२६॥
जरापरिगतो वृद्धः क्षुधार्तो दुर्बलो भृशम् |
उपवासपरिश्रान्तो यदा त्वमपि कर्शितः ॥२७॥
इत्युक्तः स तया सक्तून्प्रगृह्येदं वचोऽब्रवीत् |
द्विज सक्तूनिमान्भूयः प्रतिगृह्णीष्व सत्तम ॥२८॥
स तान्प्रगृह्य भुक्त्वा च न तुष्टिमगमद्द्विजः |
तमुञ्छवृत्तिरालक्ष्य ततश्चिन्तापरोऽभवत् ॥२९॥
पुत्र उवाच॥
सक्तूनिमान्प्रगृह्य त्वं देहि विप्राय सत्तम |
इत्येवं सुकृतं मन्ये तस्मादेतत्करोम्यहम् ॥३०॥
भवान्हि परिपाल्यो मे सर्वयत्नैर्द्विजोत्तम |
साधूनां काङ्क्षितं ह्येतत्पितुर्वृद्धस्य पोषणम् ॥३१॥
पुत्रार्थो विहितो ह्येष स्थाविर्ये परिपालनम् |
श्रुतिरेषा हि विप्रर्षे त्रिषु लोकेषु विश्रुता ॥३२॥
प्राणधारणमात्रेण शक्यं कर्तुं तपस्त्वया |
प्राणो हि परमो धर्मः स्थितो देहेषु देहिनाम् ॥३३॥
पितोवाच॥
अपि वर्षसहस्री त्वं बाल एव मतो मम |
उत्पाद्य पुत्रं हि पिता कृतकृत्यो भवत्युत ॥३४॥
बालानां क्षुद्बलवती जानाम्येतदहं विभो |
वृद्धोऽहं धारयिष्यामि त्वं बली भव पुत्रक ॥३५॥
जीर्णेन वयसा पुत्र न मा क्षुद्बाधतेऽपि च |
दीर्घकालं तपस्तप्तं न मे मरणतो भयम् ॥३६॥
पुत्र उवाच॥
अपत्यमस्मि ते पुत्रस्त्राणात्पुत्रो हि विश्रुतः |
आत्मा पुत्रः स्मृतस्तस्मात्त्राह्यात्मानमिहात्मना ॥३७॥
पितोवाच॥
रूपेण सदृशस्त्वं मे शीलेन च दमेन च |
परीक्षितश्च बहुधा सक्तूनादद्मि ते ततः ॥३८॥
इत्युक्त्वादाय तान्सक्तून्प्रीतात्मा द्विजसत्तमः |
प्रहसन्निव विप्राय स तस्मै प्रददौ तदा ॥३९॥
भुक्त्वा तानपि सक्तून्स नैव तुष्टो बभूव ह |
उञ्छवृत्तिस्तु सव्रीडो बभूव द्विजसत्तमः ॥४०॥
तं वै वधूः स्थिता साध्वी ब्राह्मणप्रियकाम्यया |
सक्तूनादाय संहृष्टा गुरुं तं वाक्यमब्रवीत् ॥४१॥
सन्तानात्तव सन्तानं मम विप्र भविष्यति |
सक्तूनिमानतिथये गृहीत्वा त्वं प्रयच्छ मे ॥४२॥
तव प्रसवनिर्वृत्या मम लोकाः किलाक्षयाः |
पौत्रेण तानवाप्नोति यत्र गत्वा न शोचति ॥४३॥
धर्माद्या हि यथा त्रेता वह्नित्रेता तथैव च |
तथैव पुत्रपौत्राणां स्वर्गे त्रेता किलाक्षया ॥४४॥
पितॄंस्त्राणात्तारयति पुत्र इत्यनुशुश्रुम |
पुत्रपौत्रैश्च नियतं साधुलोकानुपाश्नुते ॥४५॥
श्वशुर उवाच॥
वातातपविशीर्णाङ्गीं त्वां विवर्णां निरीक्ष्य वै |
कर्शितां सुव्रताचारे क्षुधाविह्वलचेतसम् ॥४६॥
कथं सक्तून्ग्रहीष्यामि भूत्वा धर्मोपघातकः |
कल्याणवृत्ते कल्याणि नैवं त्वं वक्तुमर्हसि ॥४७॥
षष्ठे काले व्रतवतीं शीलशौचसमन्विताम् |
कृच्छ्रवृत्तिं निराहारां द्रक्ष्यामि त्वां कथं न्वहम् ॥४८॥
बाला क्षुधार्ता नारी च रक्ष्या त्वं सततं मया |
उपवासपरिश्रान्ता त्वं हि बान्धवनन्दिनी ॥४९॥
स्नुषोवाच॥
गुरोर्मम गुरुस्त्वं वै यतो दैवतदैवतम् |
देवातिदेवस्तस्मात्त्वं सक्तूनादत्स्व मे विभो ॥५०॥
देहः प्राणश्च धर्मश्च शुश्रूषार्थमिदं गुरोः |
तव विप्र प्रसादेन लोकान्प्राप्स्याम्यभीप्सितान् ॥५१॥
अवेक्ष्या इति कृत्वा त्वं दृढभक्त्येति वा द्विज |
चिन्त्या ममेयमिति वा सक्तूनादातुमर्हसि ॥५२॥
श्वशुर उवाच॥
अनेन नित्यं साध्वी त्वं शीलवृत्तेन शोभसे |
या त्वं धर्मव्रतोपेता गुरुवृत्तिमवेक्षसे ॥५३॥
तस्मात्सक्तून्ग्रहीष्यामि वधूर्नार्हसि वञ्चनाम् |
गणयित्वा महाभागे त्वं हि धर्मभृतां वरा ॥५४॥
इत्युक्त्वा तानुपादाय सक्तून्प्रादाद्द्विजातये |
ततस्तुष्टोऽभवद्विप्रस्तस्य साधोर्महात्मनः ॥५५॥
प्रीतात्मा स तु तं वाक्यमिदमाह द्विजर्षभम् |
वाग्मी तदा द्विजश्रेष्ठो धर्मः पुरुषविग्रहः ॥५६॥
शुद्धेन तव दानेन न्यायोपात्तेन यत्नतः |
यथाशक्ति विमुक्तेन प्रीतोऽस्मि द्विजसत्तम ॥५७॥
अहो दानं घुष्यते ते स्वर्गे स्वर्गनिवासिभिः |
गगनात्पुष्पवर्षं च पश्यस्व पतितं भुवि ॥५८॥
सुरर्षिदेवगन्धर्वा ये च देवपुरःसराः |
स्तुवन्तो देवदूताश्च स्थिता दानेन विस्मिताः ॥५९॥
ब्रह्मर्षयो विमानस्था ब्रह्मलोकगताश्च ये |
काङ्क्षन्ते दर्शनं तुभ्यं दिवं गच्छ द्विजर्षभ ॥६०॥
पितृलोकगताः सर्वे तारिताः पितरस्त्वया |
अनागताश्च बहवः सुबहूनि युगानि च ॥६१॥
ब्रह्मचर्येण यज्ञेन दानेन तपसा तथा |
अगह्वरेण धर्मेण तस्माद्गच्छ दिवं द्विज ॥६२॥
श्रद्धया परया यस्त्वं तपश्चरसि सुव्रत |
तस्माद्देवास्तवानेन प्रीता द्विजवरोत्तम ॥६३॥
सर्वस्वमेतद्यस्मात्ते त्यक्तं शुद्धेन चेतसा |
कृच्छ्रकाले ततः स्वर्गो जितोऽयं तव कर्मणा ॥६४॥
क्षुधा निर्णुदति प्रज्ञां धर्म्यां बुद्धिं व्यपोहति |
क्षुधापरिगतज्ञानो धृतिं त्यजति चैव ह ॥६५॥
बुभुक्षां जयते यस्तु स स्वर्गं जयते ध्रुवम् |
यदा दानरुचिर्भवति तदा धर्मो न सीदति ॥६६॥
अनवेक्ष्य सुतस्नेहं कलत्रस्नेहमेव च |
धर्ममेव गुरुं ज्ञात्वा तृष्णा न गणिता त्वया ॥६७॥
द्रव्यागमो नृणां सूक्ष्मः पात्रे दानं ततः परम् |
कालः परतरो दानाच्छ्रद्धा चापि ततः परा ॥६८॥
स्वर्गद्वारं सुसूक्ष्मं हि नरैर्मोहान्न दृश्यते |
स्वर्गार्गलं लोभबीजं रागगुप्तं दुरासदम् ॥६९॥
तत्तु पश्यन्ति पुरुषा जितक्रोधा जितेन्द्रियाः |
ब्राह्मणास्तपसा युक्ता यथाशक्तिप्रदायिनः ॥७०॥
सहस्रशक्तिश्च शतं शतशक्तिर्दशापि च |
दद्यादपश्च यः शक्त्या सर्वे तुल्यफलाः स्मृताः ॥७१॥
रन्तिदेवो हि नृपतिरपः प्रादादकिञ्चनः |
शुद्धेन मनसा विप्र नाकपृष्ठं ततो गतः ॥७२॥
न धर्मः प्रीयते तात दानैर्दत्तैर्महाफलैः |
न्यायलब्धैर्यथा सूक्ष्मैः श्रद्धापूतैः स तुष्यति ॥७३॥
गोप्रदानसहस्राणि द्विजेभ्योऽदान्नृगो नृपः |
एकां दत्त्वा स पारक्यां नरकं समवाप्तवान् ॥७४॥
आत्ममांसप्रदानेन शिबिरौशीनरो नृपः |
प्राप्य पुण्यकृताँल्लोकान्मोदते दिवि सुव्रतः ॥७५॥
विभवे न नृणां पुण्यं स्वशक्त्या स्वर्जितं सताम् |
न यज्ञैर्विविधैर्विप्र यथान्यायेन सञ्चितैः ॥७६॥
क्रोधो दानफलं हन्ति लोभात्स्वर्गं न गच्छति |
न्यायवृत्तिर्हि तपसा दानवित्स्वर्गमश्नुते ॥७७॥
न राजसूयैर्बहुभिरिष्ट्वा विपुलदक्षिणैः |
न चाश्वमेधैर्बहुभिः फलं सममिदं तव ॥७८॥
सक्तुप्रस्थेन हि जितो ब्रह्मलोकस्त्वयानघ |
विरजो ब्रह्मभवनं गच्छ विप्र यथेच्छकम् ॥७९॥
सर्वेषां वो द्विजश्रेष्ठ दिव्यं यानमुपस्थितम् |
आरोहत यथाकामं धर्मोऽस्मि द्विज पश्य माम् ॥८०॥
पावितो हि त्वया देहो लोके कीर्तिः स्थिरा च ते |
सभार्यः सहपुत्रश्च सस्नुषश्च दिवं व्रज ॥८१॥
इत्युक्तवाक्यो धर्मेण यानमारुह्य स द्विजः |
सभार्यः ससुतश्चापि सस्नुषश्च दिवं ययौ ॥८२॥
तस्मिन्विप्रे गते स्वर्गं ससुते सस्नुषे तदा |
भार्याचतुर्थे धर्मज्ञे ततोऽहं निःसृतो बिलात् ॥८३॥
ततस्तु सक्तुगन्धेन क्लेदेन सलिलस्य च |
दिव्यपुष्पावमर्दाच्च साधोर्दानलवैश्च तैः ॥८४॥
विप्रस्य तपसा तस्य शिरो मे काञ्चनीकृतम् ॥८४॥
तस्य सत्याभिसन्धस्य सूक्ष्मदानेन चैव ह |
शरीरार्धं च मे विप्राः शातकुम्भमयं कृतम् ॥८५॥
पश्यतेदं सुविपुलं तपसा तस्य धीमतः ॥८५॥
कथमेवंविधं मे स्यादन्यत्पार्श्वमिति द्विजाः |
तपोवनानि यज्ञांश्च हृष्टोऽभ्येमि पुनः पुनः ॥८६॥
यज्ञं त्वहमिमं श्रुत्वा कुरुराजस्य धीमतः |
आशया परया प्राप्तो न चाहं काञ्चनीकृतः ॥८७॥
ततो मयोक्तं तद्वाक्यं प्रहस्य द्विजसत्तमाः |
सक्तुप्रस्थेन यज्ञोऽयं संमितो नेति सर्वथा ॥८८॥
सक्तुप्रस्थलवैस्तैर्हि तदाहं काञ्चनीकृतः |
न हि यज्ञो महानेष सदृशस्तैर्मतो मम ॥८९॥
वैशम्पायन उवाच॥
इत्युक्त्वा नकुलः सर्वान्यज्ञे द्विजवरांस्तदा |
जगामादर्शनं राजन्विप्रास्ते च ययुर्गृहान् ॥९०॥
एतत्ते सर्वमाख्यातं मया परपुरञ्जय |
यदाश्चर्यमभूत्तस्मिन्वाजिमेधे महाक्रतौ ॥९१॥
न विस्मयस्ते नृपते यज्ञे कार्यः कथञ्चन |
ऋषिकोटिसहस्राणि तपोभिर्ये दिवं गताः ॥९२॥
अद्रोहः सर्वभूतेषु सन्तोषः शीलमार्जवम् |
तपो दमश्च सत्यं च दानं चेति समं मतम् ॥९३॥
14-92-2 कपोतवदेकैकं कणमादत्ते स कापोतिः।। 14-92-8 उंछं कणश आदानं कर्तुमिति शेषः। शुक्लस्य ज्येष्ठस्य पक्षे।। 14-92-56 अवेक्ष्या पालनीया। चिन्त्या परीक्षणीया।। 14-92-58 हे वरे श्रेष्ठे महाभागे त्वां धर्मभृतां मध्ये गणयित्वा सक्तून् ग्रहीष्यामीत्यन्वयः।। 14-92-84 तारितो हि त्वयेति झ.पाठः।।
आश्वमेधिकपर्व-091 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-093 |