महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-058
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उदङ्केनाभिज्ञाननिवेदनेनि मदयन्तीतः कुण्डलग्रहणपूर्वकं प्रतिनिवर्तनम्।। 1 ।। मध्येमार्गं क्षुधाविष्टेन तेन बिल्वतरुमारुह्य शाखायां कुण्डलासञ्जनपूर्वकं फलपातनाय शाखाचालनम्।। 2 ।। तत्र पतत्फलघट्टनेन कुण्डलयोरधःपतने केनचिदुरगवरेण तदपहृत्य नागलोकगमनम्।। 3 ।। तत इन्द्रसाहाय्याद्भूविदारणेन नागलोकंगतेनोदङ्केन तत्राश्ववचसा तदपानदेशधमने तन्निर्गतधूमपटलनिरुद्धैः सर्पैरुदङ्काय कुण्डलप्रत्यर्पणम्।। 4 ।। तत उदङ्केन गुरुपत्न्यै कुण्डलप्रदानम्।। 5 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 14-58-1x |
स मित्रसहमासाद्य अभिज्ञानमयाचत। तस्मै ददावभिज्ञानं स चेक्ष्वाकुवरस्तदा।। | 14-58-1a 14-58-1b |
सौदास उवाच। | 14-58-2x |
न चैवैषा गतिः क्षेम्या न चान्या विद्यते गतिः। एतन्मे तत्वमाज्ञाय प्रयच्छ मणिकुण्डले।। | 14-58-2a 14-58-2b |
इत्युक्तस्तामुदङ्कस्तु भर्तुर्वाक्यमथाब्रवीत्। श्रुत्वा च सा तदा प्रादात्ततस्ते मणिकुण्डले।। | 14-58-3a 14-58-3b |
अवाप्य कुण्डले ते तु राजानं पुनरब्रवीत्। किमेतद्गुह्यवचनं श्रोतुमिच्छामि पार्थिव।। | 14-58-4a 14-58-4b |
सौदास उवाच। | 14-58-5x |
प्रजाविसर्गाद्विप्रान्वै क्षत्रियाः पूजयन्ति ह। विप्रेभ्यश्चापि बहवो दोषाः प्रादुर्भवन्ति नः।। | 14-58-5a 14-58-5b |
सोहं द्विजेभ्यः प्रणतो विप्राद्दोषमवाप्तवान्। गतिमन्यां न पश्यामि मदयन्तीसहायवान्।। | 14-58-6a 14-58-6b |
न चान्यामपि पश्यामि गतिं गतिमतांवर। स्वर्गद्वारस्य गमने स्थाने चेह द्विजोत्तम।। | 14-58-7a 14-58-7b |
न हि राज्ञा विशेषेण विरुद्धेन द्विजातिभिः। शक्यं हि लोके स्थातुं वै प्रेत्य वा सुखमेधितुम्।। | 14-58-8a 14-58-8b |
तदिष्टे ते मया दत्ते एते स्वे मणिकुण्डले। यः कृतस्तेऽद्य समयः सफलं तं कुरुष्य मे।। | 14-58-9a 14-58-9b |
उदङ्क उवाच। | 14-58-10x |
राजंस्तथेह कर्तास्मि पुनरेष्यामि ते वशम्। प्रश्नं च कञ्चित्प्रष्टुं त्वां व्यवसिष्ये परंतप।। | 14-58-10a 14-58-10b |
सौदास उवाच। | 14-58-11x |
ब्रूहि विप्र यथाकामं प्रतिवक्तास्मि ते वचः। छेत्तास्मि संशयं तेऽद्य न मेऽत्राश्ति विचारणा।। | 14-58-11a 14-58-11b |
उदङ्क उवाच। | 14-58-12x |
प्राहुर्वाक्संयतं विप्रं धर्मनैपुणदर्शिनः। मित्रेषु यश्च विषमः स्तेन इत्येव तं विदुः।। | 14-58-12a 14-58-12b |
स बवान्मित्रतामद्य सम्प्राप्तो मम पार्थिव। स मे बुद्धिं प्रयच्छस्व सम्मतां पुरुषर्षभ।। | 14-58-13a 14-58-13b |
अवाप्तार्थोऽहमद्येह भवांश्च पुरुषादकः। भवत्सकाशमागन्तुं क्षमं मम न वेति वै।। | 14-58-14a 14-58-14b |
सौदास उवाच। | 14-58-15x |
क्षमं चेदिह वक्तव्यं मया द्विजवरोत्तम। मत्समीपं द्विजश्रेष्ट नागन्तव्यं कथञ्चन।। | 14-58-15a 14-58-15b |
एवं तव प्रपश्यामि श्रेयो भृगुकुलोद्वह। आगच्छतो हि ते विप्रि भवेन्मृर्त्युन संशयः।। | 14-58-16a 14-58-16b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-58-17x |
इत्युक्तः स तदा राजा क्षमं बुद्धिमता हितम्। अनुज्ञाप्य स राजानमहल्यां प्रति जग्मिवान्।। | 14-58-17a 14-58-17b |
गृहीत्वा कुण्डले दिव्ये गुरुपत्न्याः प्रियंकरः। जवेन महता प्रायाद्गौतमस्याश्रमं प्रति।। | 14-58-18a 14-58-18b |
यथा तयो रक्षणं च मदयन्त्याऽभिभाषितम्। तथा ते कुण्डले बध्वा तदा कृष्णाजिनेऽनयत्।। | 14-58-19a 14-58-19b |
स कस्मिंश्चित्क्षुधाविष्टः फलभारसमन्वितम्। बिल्वं ददर्श विप्रर्षिरारुरोह च तं ततः।। | 14-58-20a 14-58-20b |
शाखास्वासज्य तस्यैव कृष्णाजिनमरिंदम। पातयामास बिल्वानि तदा स द्विजपुङ्गवः।। | 14-58-21a 14-58-21b |
अथ पातयमानस्य बिल्वापहृतचक्षुषः। न्यपतंस्तानि बिल्वानि तस्मिन्नेवाजिने विभो।। | 14-58-22a 14-58-22b |
यस्मिंस्ते कुण्डले बद्धे तदा द्विजवरेण वै। बिल्वप्रहारैस्तस्याथ व्यशीर्यद्बन्धनं ततः।। | 14-58-23a 14-58-23b |
सकुण्डलं तदजिनं पपात सहसा तरोः। विशीर्णबन्धने तस्मिन्गते कृष्णाजिने महीम्।। | 14-58-24a 14-58-24b |
अपश्यद्भुजगः कश्चित्ते तत्र मणिकुण्डले। ऐरावतकुलोद्भूतः शीघ्रो भूत्वा तदा हि सः।। | 14-58-25a 14-58-25b |
विदश्यास्येन वल्मीकं विवेशाथ स कुण्डले। ह्रियमाणे तु दृष्ट्वा स कुण्डले भुजगेन ह।। | 14-58-26a 14-58-26b |
पपात वृक्षात्सोद्वेगो दुःखात्परमकोपनः। स दण्डकाष्ठमादाय वल्मीकमखनत्तदा।। | 14-58-27a 14-58-27b |
[अहानि त्रिंशदव्यग्रः पञ्च चान्यानि भारत।] क्रोधामर्षाभिसंतप्तस्तदा ब्राह्मणिसत्तमः।। | 14-58-28a 14-58-28b |
तस्य वेगमसह्यं तमसहन्ती वसुन्धरा। दण्डकाष्ठाभिनुन्नाङ्गी चचाल भृशमाकुला। ततः खनत एवाथ विप्रर्षेर्धरणीतलम् नागलोकस्य पन्थानं कर्तुकामस्य निश्चयात्।। | 14-58-29a 14-58-29b 14-58-29c 14-58-29d |
रथेन हरियुक्तेन तं देशमुपजग्मिवान्। वज्रपाणिर्महातेजास्तं ददर्श द्विजोत्तमम्।। | 14-58-30a 14-58-30b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-58-31x |
स तु तं ब्राह्मणो भूत्वा तस्य दुःखेन दुःखितः। उदङ्कमब्रवीद्वाक्यं नैतच्छक्यं त्वयेति वै।। | 14-58-31a 14-58-31b |
इतो हि नागलोको वै योजनानि सहस्रशः। न दण्डकाष्ठसाध्यं च मन्ये कार्यमिदं तव।। | 14-58-32a 14-58-32b |
उदङ्क उवाच। | 14-58-33x |
नागलोके यदि ब्रह्मन्न शक्ये कुण्डले मया। प्राप्तुं प्राणान्विमोक्ष्यामि पश्यतस्ते द्विजोत्तम।। | 14-58-33a 14-58-33b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-58-34x |
यदा स नाशकत्तस्य निश्चयं कर्तुमन्यथा। वज्रपाणिस्तदा दण्डं वज्रास्त्रेण युयोज ह।। | 14-58-34a 14-58-34b |
ततो वज्रप्रहारैस्तैर्दार्यमाणा वसुन्धर। नागलोकस्य पन्थानमकरोज्जनमेजय।। | 14-58-35a 14-58-35b |
स तेन मार्गेण तदा नागलोकं विवेश ह। ददर्श नागलोकं च योजनानि सहस्रशः।। | 14-58-36a 14-58-36b |
प्रकारनिचयैर्दिव्यैर्मणिमुक्तास्वलङ्कृतैः। उपपन्नं महाभाग शातकुम्भमयैस्तथा।। | 14-58-37a 14-58-37b |
वापीः स्फटिकसोपाना नदीस्च विमलोदकाः। ददर्श वृक्षांश्च बहून्नानाद्विजगणायुतान्।। | 14-58-38a 14-58-38b |
तस्य लोकस्य च द्वारं स ददर्श भृगूद्वहः। पञ्चयोजनविस्तारमायतं शतयोजनम्।। | 14-58-39a 14-58-39b |
नागलोकमुदङ्कस्तु प्रेक्ष्य दीनोऽभवत्तदा। निराशश्चाभवत्तत्र कुण्डलाहरणे पुनः।। | 14-58-40a 14-58-40b |
तत्र प्रोवाच तुरगस्तं कृष्णश्वेतवालधिः। ताम्रास्यनेत्रः कौरव्यः प्रज्वलन्निव तेजसा।। | 14-58-41a 14-58-41b |
धमस्वापानमेतन्मे ततस्त्वं विप्र लप्स्यसे। ऐरावतसुतेनेहि तव्रानीते हि कुण्डले।। | 14-58-42a 14-58-42b |
मा जुगुप्सां कृथाः पुत्र त्वमत्रार्थे कथञ्चन।। त्वयैतद्धि समाचीर्णं गौतमस्याश्रमे तदा।। | 14-58-43a 14-58-43b |
उदङ्ग उवाच। | 14-58-44x |
कथं भवन्तं जानीयामुपाध्यायाश्रमं प्रति। यन्मया चीर्णपूर्वं हि श्रोतुमिच्छामि तद्ध्यहम्।। | 14-58-44a 14-58-44b |
अश्व उवाच। | 14-58-45x |
गुरोर्गुरु मां जानीहि ज्वलन्तं जातवेदसम्। त्वया ह्यहं सदा विप्र गुरोरर्थेऽभिपूजितः।। | 14-58-45a 14-58-45b |
विधिवत्सततं विप्र शुचिना भृगुनन्दन। तस्माच्छ्रेयो विधास्यामि तवैवं कुरु माचिरम्।। | 14-58-46a 14-58-46b |
इत्युक्तस्तु तथाऽकार्षीदुदङ्कश्चित्रभानुना। ताम्रार्चिः प्रीतिमांश्चापि प्रजज्वाल दिधक्षया।। | 14-58-47a 14-58-47b |
ततोऽस्य रोमकूपेभ्यो ध्मायमानस्य भारत। घनः प्रादुरभूद्धूमो नागलोकभयावहः।। | 14-58-48a 14-58-48b |
तेन धूमेन महता वर्धमानेन भारत। नागलोके महाराज न प्राज्ञायत किञ्चन।। | 14-58-49a 14-58-49b |
हाहाकृतमभूत्सर्वमैरावतिनिवेशनम्। वासुकिप्रमुखानां च नागानां जनमेजय।। | 14-58-50a 14-58-50b |
न प्राकाशन्त वेश्मानि धूमरुद्धानि भारत। नीहारसंवृतानीव वनानि गिरयस्तथा।। | 14-58-51a 14-58-51b |
ते धूमरक्तनयना वह्नितेजोभितापिताः। आजग्मुर्निश्चयं ज्ञातुं भार्गवस्य महात्मनः।। | 14-58-52a 14-58-52b |
श्रुत्वा च निश्चयं तस्य महर्षेरतितेजसः। सम्भ्रान्तनयनाः सर्वे पूजां चक्रुर्यथाविधि।। | 14-58-53a 14-58-53b |
सर्वे प्राञ्जलयो नागा वृद्धबालपुरोगमाः। शिरोभिः प्रणिपत्योचुः प्रसीद भगवन्निति।। | 14-58-54a 14-58-54b |
प्रसाद्य ब्राह्मणं ते तु पाद्यमर्घ्यं निवेद्य च। प्रायच्छन्कुण्डले दिव्ये पन्नगाः परमार्चिते।। | 14-58-55a 14-58-55b |
ततः स पूजितो नागैस्तदोदङ्कः प्रतापवान्। अग्निं प्रदक्षिणं कृत्वा जगाम गुरुसद्म तत्।। | 14-58-56a 14-58-56b |
स गत्वा त्वरितो राजन्गौतमस्य निवेशनम्। प्रायच्छत्कुण्डले दिव्ये गुरुपत्न्यास्तदाऽनघ।। | 14-58-57a 14-58-57b |
वासुकिप्रमुकानां च नागानां जनमेजय। सर्वं शशंस गुरेव यथावद्द्विजसत्तमः।। | 14-58-58a 14-58-58b |
एवं महात्मना तेन त्रींलोकाञ्जनमेजय। परिक्रम्याहृते दिव्ये ततस्ते मणिकुण्डले।। | 14-58-59a 14-58-59b |
एवंप्रभावः स मुनिरुदङ्को भरतर्षभ। परेण तपसा युक्तो यन्मां त्वं परिपृच्छसि। | 14-58-60a 14-58-60b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि अष्टपञ्चासोऽध्यायः।। 58 ।। |
14-58-1 मित्रसहः सौदासः अभिज्ञानं श्लोकरूपं ज्ञापकम्। 14-58-2 एषा रक्षोयोनिरूपा। अन्या इतो मुक्तिरूपा।। 14-58-10 ततोदंकाय वै प्रादात्तस्मै ते मणिकुण्डले इति क.ट.थ.पाठः।। 14-58-12 निवृत्तिस्मि परं तपेति झ.पाठः।। 14-58-16 प्राप्तवान्सङ्गतिं मित्रं धर्मनैपुण्यदर्शनादिति क.ट.थ.पाठः।। 14-58-16 तत्रैव तु प्रवक्ष्यामि श्रेयो भृगुकुलोद्वहेति क.ट.थ.पाठः।। 14-58-26 आस्येन कुण्डले विदश्य धृत्वा वल्मीकं विवेशेति सम्बन्धः।।
आश्वमेधिकपर्व-057 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-059 |