महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-043
दिखावट
← आश्वमेधिकपर्व-042 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-043 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-044 → |
|
ब्रह्मणा महर्षीन्प्रति मनुष्येषु क्षत्रियाणां रजोगुणकार्यबलप्रधानतया तेषां सत्वप्रधानब्राह्मणरक्षणस्य कर्तव्यत्वकथनप्रसङ्गेन तत्तज्जातिश्रेष्ठवस्तुकथनम्।। 1 ।।
ब्रह्मोवाच। | 14-43-1x |
मनुष्याणां तु राज्यः क्षत्रियो मध्यमो गुणः। कुञ्जरो वाहनानां च सिंहश्चारण्यवासिनाम्।। | 14-43-1a 14-43-1b |
अविः पशूनां सर्वेषामहिस्तु बिलवासिनाम्। गवां गोवृषभश्चैव स्त्रीणां पुरुष एव च।। | 14-43-2a 14-43-2b |
न्यग्रोधो जम्बुवृक्षश्च पिप्पलः शाल्मलिस्तथा। शिंशपा मेषशृङ्गश्च तथा कीचकवेणवः।। | 14-43-3a 14-43-3b |
एते द्रुमाणां राजानो गणानां मरुतस्तथा। हिमवान्पारियात्रश्च सह्यो विन्ध्यस्त्रिकूटवान्।। | 14-43-4a 14-43-4b |
श्वेतो नीलश्च भासश्च राष्ट्रवांश्चैव पर्वतः। भृशस्कन्धो महेन्द्रश्च माल्यवान्पर्वतस्तथा।। | 14-43-5a 14-43-5b |
एते पर्वतराजानो गणानां मरुतस्तथा। सूर्यो ग्रहाणामधिपो नक्षत्राणां च चन्द्रमाः।। | 14-43-6a 14-43-6b |
यमः पितॄणामधिपः सरितामथ सागरः। अंभसां वरुणो राजा मरुतामिन्द्र उच्यते।। | 14-43-7a 14-43-7b |
अर्कोऽधिपतिरुष्णानां ज्योतिषामिन्दुरुच्यते। अग्निर्भूतपतिर्नित्यं ब्राह्मणानां बृहस्पतिः।। | 14-43-8a 14-43-8b |
ओषधीनां पतिः सोमो विष्णुर्बलवतां वरः। त्वष्टाऽधिनां पतिः सोमो विष्णुर्बलवतां वरः। | 14-43-9a 14-43-9b |
दक्षिणानां तथा यज्ञो वेदानामृच एव च। दिशामुदीची विप्राणां सोमो राजा प्रतापवान्।। | 14-43-10a 14-43-10b |
कुबेरः सर्वरत्नानां देवतानां पुरंदरः। एष भूताधिपः सर्गः प्रजानां च प्रजापतिः।। | 14-43-11a 14-43-11b |
सर्वेषामेव भूतानामहं ब्रह्ममयो महान्। भूतं परतरं मत्तो विष्णोर्वाऽपि न विद्यते।। | 14-43-12a 14-43-12b |
राजाधिराजः सर्वेषां विष्णुर्ब्रह्ममयो महान्। ईश्वरं तं विजानीमः स विभुः स प्रजापतिः।। | 14-43-13a 14-43-13b |
नरकिन्नरयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्। देवदानवनागानां सर्वेषामीश्वरो हि सः।। | 14-43-14a 14-43-14b |
भगदेवानुयातानां सर्वासां वामलोचना। माहेश्वरी महादेवी प्रोच्यते पार्वती हि सा।। | 14-43-15a 14-43-15b |
उमां देवीं विजानीध्वं नारीणामुत्तमां शुभाम्। रतीनां वसुमत्यस्तु स्त्रीणामप्सरसस्तथा।। | 14-43-16a 14-43-16b |
धर्मिकामाश्च राजानो ब्राह्मणा धर्मसेतवः। तस्माद्राजा द्विजातीनां प्रयतेतेह रक्षणे।। | 14-43-17a 14-43-17b |
राज्ञां हि विषये येषामवसीदन्ति साधवः। हीनास्ते स्वगुणैः सर्वैः प्रेत्यावाङ्मार्गगामिनः।। | 14-43-18a 14-43-18b |
राज्ञां हि विषये येषां साधवः परिरक्षिताः। तेऽस्मिँल्लोके प्रमोदन्ते प्रेत्य चानन्दमेव च।। | 14-43-19a 14-43-19b |
प्राप्नुवन्ति महात्मान इति वित्त द्विजर्षभाः। अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि नियतं धर्मलक्षणम्।। | 14-43-20a 14-43-20b |
अहिंसालक्षणो धर्मो हिंसा चाधर्मलक्षणा। प्रकाशलक्षणा देवा मनुष्याः कर्मलक्षणाः।। | 14-43-21a 14-43-21b |
शब्दलक्षणमाकाशं वायुस्तु स्पर्शलक्षणः। ज्योतिषां लक्षणं रूपमापश्च रसलक्षणाः।। | 14-43-22a 14-43-22b |
धारिणी सर्वभूतानां पृथिवी गन्धलक्षणा। स्वरव्यञ्जनसंस्कारा भारती शब्दलक्षणा।। | 14-43-23a 14-43-23b |
मनसो लक्षणं चिन्ता तथोक्ता बुद्धिरन्वयात्। मनसा चिन्तितानर्थान्बुद्ध्या चेह व्यवस्यति।। | 14-43-24a 14-43-24b |
बुद्धिर्हि व्यवसायेन लक्ष्यते नात्र संशयः। लक्षणं मनसो ध्यानमव्यक्तं साधुलक्षणम्।। | 14-43-25a 14-43-25b |
प्रवृत्तिलक्षणो योगो ज्ञानं संन्यासलक्षणम्। तस्माज्ज्ञानं पुरस्कृत्य संन्यसेदिह बुद्धिमान्।। | 14-43-26a 14-43-26b |
संन्यासी ज्ञानसंयुक्तः प्राप्नोति परमां गतिम्। अतीतो द्वन्द्वमभ्येति तमोमृत्युजरातिगः।। | 14-43-27a 14-43-27b |
धर्मलक्षणसंयुक्तमुक्तं वो विधिवन्मया। गुणानां ग्रहणं सम्यग्वक्ष्याम्यहमतः परम्।। | 14-43-28a 14-43-28b |
पार्तिवो यस्तु गन्धो वै घ्राणेन हि स गृह्यते। प्राणस्यश्च तथा वायुर्गन्धज्ञाने विधीयते।। | 14-43-29a 14-43-29b |
अपां धातू रसो नित्यं जिह्वया स तु गृह्यते। जिह्वास्थश्च तथा सोमो रसज्ञाने विधीयते।। | 14-43-30a 14-43-30b |
तेजसस्तु गुणो रूपं चक्षुषा तच्च गृह्यते। चक्षुःस्थश्च ततादित्यो रूपज्ञाने विधीयते।। | 14-43-31a 14-43-31b |
वायव्यस्तु सदा स्पर्शस्त्वचा प्रज्ञायते च सः। त्वक्स्थश्चैव सदा वायुः स्पर्सने स विधीयते।। | 14-43-32a 14-43-32b |
आकाशस्य गुणो घोषः श्रोत्रेण च स गृह्यते। श्रोत्रस्थाश्च दिशः सर्वाः शब्दज्ञाने प्रकीर्तिताः।। | 14-43-33a 14-43-33b |
मनसश्च गुणश्चिन्ता प्रज्ञया स तु गृह्यते। हृदिस्थश्चेतनो धातुर्मनोज्ञाने विधीयते।। | 14-43-34a 14-43-34b |
बुद्धिरध्यवसायेन ध्यानेन च महांस्तथा। निश्चित्य ग्रहणाद्व्यक्तमव्यक्तं नात्र संशयः।। | 14-43-35a 14-43-35b |
अलिङ्गग्रहणो नित्यः क्षेत्रज्ञो निर्गुणात्मकः। तस्मादलिङ्गः क्षेत्रज्ञः केवलं ज्ञानलक्षणः।। | 14-43-36a 14-43-36b |
अव्यक्तं क्षेत्रमुद्दिष्टं गुणानां प्रभवाप्ययम्। सदा पश्याम्यहं लीनं विजानामि शृणोमि च।। | 14-43-37a 14-43-37b |
पुरुषस्तद्विजानीते तस्मात्क्षेत्रज्ञ उच्यते। गुणवृत्तं तथा कृत्स्नं क्षेत्रज्ञः परिपश्यति।। | 14-43-38a 14-43-38b |
आदिमद्यावसानं तत्सृज्यमानमचेतनम्। न गुणा विदुरात्मानं सृज्यमानाः पुनःपुनः।। | 14-43-39a 14-43-39b |
न सत्यं वेद वै कश्चित्क्षेत्रज्ञस्त्वेव विन्दति। गुणानां गुणभूतानां यत्परं परतो महत्।। | 14-43-40a 14-43-40b |
तस्माद्गुणांश्च तत्वं च परित्यज्येह तत्ववित्। क्षीणदोषो गुणान्हित्वा क्षेत्रज्ञं प्रविशत्यथ।। | 14-43-41a 14-43-41b |
निर्द्वन्द्वो निर्नमस्कारो निःस्वधाकार एव च। अचलश्चानिकेतश्च क्षेत्रज्ञः स परो विधिः।। | 14-43-42a 14-43-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः।। 43 ।। |
14-43-2 आखुश्च बिलवासिनामिति क.थ.पाठः।। 14-43-7 राजासत्त्वानां मित्र उच्यत इति क.ट.थ.।। 14-43-8 उष्णानां देवानामिन्द्र उच्यत इति क.ट.थ.पाठः।। 14-43-15 भगदेवाः कामुकास्तैरनुयातानामनुसृतानां स्त्रीणां सर्वासां मध्ये माहेश्वरी वामलोचनेति सम्बन्धः।। भद्रादेवाभिजातानां सर्वेषां वारिजेक्षणेति क.ट.पाठः।। 14-43-16 रतीनां प्रीतिसुखानाम्। वसुमत्यः धनवत्यः। धनलाभगर्वितं यत्प्रीतिसुखं तदेव महदित्यर्थः।। 14-43-17 वर्णक्रमाश्च राजान इति क.ट.थ.पाठः।। 14-43-25 लक्षणं महतो ध्यानमिति क.पाठः।।
आश्वमेधिकपर्व-042 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-044 |