महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-031

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परशुरामंप्रति तत्पितृभिः क्षत्रियवधान्निवर्तनायालर्कोपाख्यानकथनम्।। 1 ।। रामेण तच्छ्रवणाद्धिंसातो निवर्त्य तपश्चरणम्।। 2 ।।

पितर ऊचुः। 14-31-1x
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
श्रुत्वा च तत्तथा कार्यं भवता द्विजसत्तम।।
14-31-1a
14-31-1b
अलर्को नाम राजर्षिरभवत्सुमहातपाः।
धर्मज्ञः सत्यवादी च महात्मा सुदृढव्रतः।।
14-31-2a
14-31-2b
स सागरान्तां धनुषा विनिर्जित्य महीमिमाम्।
कृत्वा सुदुष्करं कर्म मनः सूक्ष्मे समादधे।।
14-31-3a
14-31-3b
स्थितस्य वृक्षमूलेऽथ तस्य चिन्ता बभूव ह।
उत्सृय सुमहद्राज्यं सूक्ष्मं प्रति महामते।।
14-31-4a
14-31-4b
अलर्क उवाच। 14-31-5x
मनसो मे बलं जातं मनो जित्वा ध्रुवो जयः।
अन्यत्र बाणानस्यामि शत्रुभिः परिवारितः।।
14-31-5a
14-31-5b
यदिदं चापलात्कर्म सर्वान्मर्त्यांश्चिकीर्षति।
मनः प्रति सुतीक्ष्णाग्रानहं मोक्ष्यामि सायकान्।।
14-31-6a
14-31-6b
मन उवाच। 14-31-7x
नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।
तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि।।
14-31-7a
14-31-7b
अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि।
तत्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत्।।
14-31-8a
14-31-8b
आघ्राय सुबहून्गन्धांस्तानेव प्रतिगृध्यति।
तस्माद्ध्राणं प्रति शरान्प्रतिमोक्ष्याम्यहं शितान्।।
14-31-9a
14-31-9b
घ्राण उवाच। 14-31-10x
नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।
तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि।।
14-31-10a
14-31-10b
अन्यान्याणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि।
तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत्।।
14-31-11a
14-31-11b
इयं स्वादून्रसान्भुक्त्वा तानेव प्रति गृध्यति।
तस्माज्जिह्वां प्रति शरान्प्रतिमोक्ष्याम्यहं शितान्।।
14-31-12a
14-31-12b
जिह्वोवाच। 14-31-13x
नेमे वाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।
तवैव मर्म भेत्स्यन्ति ततो हास्यसि जीवितम्।।
14-31-13a
14-31-13b
अन्यान्वाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि।
तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत्।।
14-31-14a
14-31-14b
स्पृष्ट्वा त्वग्विविधान्स्पर्शांस्तानेव प्रतिगृध्यति।
तस्मात्त्वचं पाटयिष्ये विविधैः कङ्कपत्रिभिः।।
14-31-15a
14-31-15b
त्वगुवाच। 14-31-16x
नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।
तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि।।
14-31-16a
14-31-16b
अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि।
तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत्।।
14-31-17a
14-31-17b
श्रुत्वा तु विविधाञ्शब्दांस्तानेव प्रतिगृध्यति।
तस्माच्छ्रोत्रं प्रति शरान्प्रति मुञ्चाम्यहं शितान्।।
14-31-18a
14-31-18b
श्रोत्रमुवाच। 14-31-19x
नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।
तवैव मर्म भेत्स्यन्ति ततो हास्यति जीवितम्।।
14-31-19a
14-31-19b
अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि।
तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत्।।
14-31-20a
14-31-20b
दृष्ट्वा रूपाणि बहुशस्तान्येव प्रतिगृध्यति।
तस्माच्चक्षुर्हनिष्यामि निशितैः सायकैरहम्।।
14-31-21a
14-31-21b
चक्षुरुवाच। 14-31-22x
नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।
तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि।।
14-31-22a
14-31-22b
अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यति
तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत्।।
14-31-23a
14-31-23b
इयं निष्ठा बहुविधा प्रज्ञया त्वद्यवस्यति।
तस्माद्बुद्धिं प्रति शरान्प्रतिमोक्ष्याम्यहं शितान्।।
14-31-24a
14-31-24b
बुद्धिरुवाच। 14-31-25x
नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।
तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि।
अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि।।
14-31-25a
14-31-25b
14-31-25c
पितर ऊचुः। 14-31-26x
ततोऽलर्कस्तपो घोरं तत्रैवास्थाय दुष्करम्।
नाध्यगच्छत्परं शक्त्या बाणमेतेषु सप्तसु।।
14-31-26a
14-31-26b
सुसमाहितचेतास्तु स ततोऽचिन्तयत्प्रभुः।
स विचिन्त्य चिरं कालमलर्को द्विजसत्तम।
नाध्यगच्छत्परं श्रेयो योगान्मतिमतांवरः।।
14-31-27a
14-31-27b
14-31-27c
स एकाग्रं मनः कृत्वा निश्चलो योगमास्थितः।
इन्द्रियाणि जघानाशु बाणेनैकेन वीर्यवान्।।
14-31-28a
14-31-28b
योगेनात्मानमाविश्य सिद्धिं परमिकां गतः।
विस्मितश्चापि राजर्षिरिमां गाथां जगाद ह।।
14-31-29a
14-31-29b
अहो कष्टं यदस्माभिः सर्वं बाह्यमनुष्ठितम्।
भोगतृष्णासमायुक्तैः पूर्वं राज्यमुपासितम्।
इति पश्चान्मया ज्ञातं योगान्नास्ति परं सुखम्।।
14-31-30a
14-31-30b
14-31-30c
इति त्वमनुजानीहि राम मा क्षत्रियान्वधीः।
तषो घोरमुपातिष्ठ ततः श्रेयोऽभिपत्स्यसे।।
14-31-31a
14-31-31b
इत्युक्तः पितृभिः सोथ तपो घोरं समास्थितः।
जामदग्न्यो महाभागे सिद्धिं च परमां गतः।।
14-31-32a
14-31-32b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अनुगीतापर्वणि एकत्रिंशोऽध्यायः।। 31 ।।

[सम्पाद्यताम्]

14-31-1 अत्र हिंसाया अकार्यत्वे। 1 ।। 14-31-5 अन्यत्र बाह्यशत्रुभ्य इति शेषः। शत्रुभिरिन्द्रियाख्यवैरिभिः।। 5 ।।

आश्वमेधिकपर्व-030 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-032