महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-017
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अर्जुनेन कृष्णंप्रति पूर्वोपदिष्टगीतार्थस्य विस्मरणोक्त्या पुनस्तदुपदेशप्रार्थना।। 1 ।। कृष्णेनार्जुनंप्रति स्वस्मै ब्राह्मणोक्तसिद्धकाश्यपसंवादानुवादः।। 2 ।।
जनमेजय उवाच। | 14-17-1x |
सभायां वसतोस्तत्र निहत्यारीन्महात्मनोः। केशवार्जुनयोः का नु कथा समभवद्द्विज।। | 14-17-1a 14-17-1b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-17-2x |
कृष्णेन सहितः पार्थः स्वं राज्यं प्राप्य केवलम्। तस्यां सभायां दिव्यायां विजहार मुदा युतः।। | 14-17-2a 14-17-2b |
तत्र कञ्चित्सभोद्देशं स्वर्गोद्देशसमं नृप। यदृच्छया तौ मुदितौ जग्मतुः स्वजनावृतौ।। | 14-17-3a 14-17-3b |
ततः प्रतीतः कृष्णेन सहितः पाण्डवोऽर्जुनः। निरीक्ष्य तां सभां रम्यामिदं वचनमब्रवीत्।। | 14-17-4a 14-17-4b |
विदितं मे महाबाहो सङ्ग्रामे समुपस्थिते। महात्म्यं देवकीपुत्र तच्च ते रूपमैश्वरम्।। | 14-17-5a 14-17-5b |
यत्तु तद्भवता प्रोक्तं पुरा केशव सौहृदात्। तत्सर्वं पुरुषव्याघ्र नष्टं मे व्यग्रचेतसः।। | 14-17-6a 14-17-6b |
मम कौतूहलं त्वस्ति तेष्वर्थेषु पुनः पुनः। भवांस्तु द्वारकां गन्ता नचिरादिव माधव।। | 14-17-7a 14-17-7b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-17-8x |
एवमुक्तस्तु तं कृष्णः फाल्गुनं प्रत्यभाषत। परिष्वज्य महातेजा वचनं वदतांवरः।। | 14-17-8a 14-17-8b |
वासुदेव उवाच। | 14-17-9x |
श्रावितस्त्वं मया गुह्यं ज्ञापितश्च सनातनम्। धर्मं स्वरूपिणं पार्त सर्वलोकांश्च शाश्वतान्।। | 14-17-9a 14-17-9b |
अबुद्ध्या यन्न गृह्णीतास्तन्मे सुमहदप्रियम्। न च साऽद्य पुनर्भूयः स्मृतिर्मे सम्भविष्यति।। | 14-17-10a 14-17-10b |
नूनमश्रद्दधानोऽसि दुर्मेधा ह्यसि पाण्डव। न च शक्यं पुनर्वक्तुमशेषेण धनंजय।। | 14-17-11a 14-17-11b |
स हि धर्मः सुपर्याप्तो ब्रह्मणः पदवेदने। न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः।। | 14-17-12a 14-17-12b |
परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया। इतिहासं तु वक्ष्यामि तस्मिन्नर्थे पुरातनम्।। | 14-17-13a 14-17-13b |
यथा तां बुद्धिमास्थाय गतिमग्र्यां गमिष्यसि। शृणु धर्मभृतांश्रेष्ठ गदतः सर्वमेव मे।। | 14-17-14a 14-17-14b |
आगच्छद्ब्राह्मणः कश्चित्स्वर्गलोकादरिंदम। ब्रह्मलोकाच्च दुर्धर्षः सोस्माभिः पूजितोऽभवत्।। | 14-17-15a 14-17-15b |
अस्माभिः परिपृष्ठश्च यदाह भरतर्षभ। दिव्येन विधिना पार्थ तच्छृणुष्वाविचारयन्।। | 14-17-16a 14-17-16b |
ब्राह्मण उवाच। | 14-17-17x |
मोक्षधर्मं समाश्रित्य कृष्ण यन्माऽनुपृच्छसि। भूतानामनुकम्पार्थं मन्मोहच्छेदनं विभो।। | 14-17-17a 14-17-17b |
तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि यथावन्मधुसूदन। शृणुष्वावहितो भूत्वा गदतो मम माधव।। | 14-17-18a 14-17-18b |
कश्चिद्विप्रस्तपोयुक्तः काश्यपो धर्मवित्तमः। आससाद द्विजं कंचिद्धर्माणामागतागमम्।। | 14-17-19a 14-17-19b |
गतागमं सुबहुशो ज्ञानविज्ञानपारगम्। लोकतत्त्वार्थकुशलं ज्ञातरं सुखदुःखयोः।। | 14-17-20a 14-17-20b |
जातिस्मरणतत्त्वज्ञं कोविदं पापपुण्ययोः। द्रष्टारमुच्चनीचानां कर्मभिर्देहिनां गतिम्।। | 14-17-21a 14-17-21b |
चरन्तं मुक्तवत्सिद्धं प्रशान्तं संयतेन्द्रियम्। दीप्यमानं श्रिया ब्राह्मया क्रममाणं च सर्वशः।। | 14-17-22a 14-17-22b |
अन्तर्धानगतिज्ञं च श्रुत्वा तत्त्वेन काश्यपः। तथैवान्तर्हितैः सिद्धैर्यान्तं चक्रधरैः सह।। | 14-17-23a 14-17-23b |
सम्भाषमाणमेकान्ते समासीनं च तैः सह। यदृच्छया च गच्छन्तमसक्तं पवनं यथा।। | 14-17-24a 14-17-24b |
तं समासाद्य मेधावी स तदा द्विजसत्तमः। चरणौ धर्मकामो वै स तस्य सुसमाहितः। प्रतिपदे यथान्यायं भक्त्या परमया युतः।। | 14-17-25a 14-17-25b 14-17-25c |
विस्मितश्चाद्भुतं दृष्ट्वा काश्यपस्तं द्विजोत्तमम्। परिचारेण महता गुरुं तं पर्यतोषयत्।। | 14-17-26a 14-17-26b |
उपपन्नं च तत्सर्वं श्रुतचारित्रसंयुतम्। भौमेनातोषयच्चैनं गुरुवृत्तिं समास्थितः।। | 14-17-27a 14-17-27b |
तस्मै तुष्टः स शिष्याय यत्प्रसन्नोऽब्रवीद्गुरुः। सिद्धिं परामभिप्रेक्ष्य शृणु मत्तो जनार्दन।। | 14-17-28a 14-17-28b |
सिद्ध उवाच। | 14-17-29x |
विविधैः कर्मभिस्तात पुण्ययोगैश्च केवलैः। गच्छन्तीह गतिं मर्त्या देवलोके च वा स्थितिम्।। | 14-17-29a 14-17-29b |
न क्वचित्सुखमत्यन्तं न क्वचिच्छाश्वती स्थितिः। स्थानाच्च महतो भ्रंशो दुःखलब्दात्पुनः पुनः।। | 14-17-30a 14-17-30b |
अशुभा गतयः प्राप्ताः कष्टा मे पापसेवनात्। काममन्युपरीतेन तृष्णया मोहितेन च।। | 14-17-31a 14-17-31b |
पुनः पुनश्च मरणं जन्म चैव पुनः पुनः। आहारा विविधा भुक्ताःपीता नानाविधाःस्तनाः।। | 14-17-32a 14-17-32b |
मातरो विविधा दृष्टाः पितरश्च पृथग्विधाः। सुखानि च विचित्राणि दुःखानि च मयाऽनघ।। | 14-17-33a 14-17-33b |
प्रियैर्विवासो बहुशः संवासश्चाप्रियैः सह। धननाशश्च सम्प्राप्तो लब्ध्वा दुःखेन तद्धनम्।। | 14-17-34a 14-17-34b |
अवमानाः सुकष्टाश्च परतः स्वजनात्तथा। शारीरा मानसा वाऽपि वेदना भृशदारुणाः।। | 14-17-35a 14-17-35b |
प्राप्ता विमाननाश्चोग्रा वधबन्धाश्च दारुणाः। पतनं निरये चैव यातनाश्च यमक्षये।। | 14-17-36a 14-17-36b |
जरारोगाश्च सततं व्यसनानि च भूरिशः। लोकेऽस्मिन्ननुभूतानि द्वन्द्वजानि भृशं मया।। | 14-17-37a 14-17-37b |
ततः कदाचिन्निर्वेदान्निकारान्निकृतेन च। लोकतन्त्रं परित्यक्तं दुःखार्तेन भृशं मया।। | 14-17-38a 14-17-38b |
लोकेऽस्मिन्ननुभूयाहमिमं मार्गमनुष्ठितः। ततः सिद्धिरियं प्राप्ता प्रसादादात्मनो मया। नाहं पुनरिहागन्ता लोकानालोकयाम्यहम्।। | 14-17-39a 14-17-39b 14-17-39c |
आसिद्धेराप्रजासर्गादात्मनोपि गतीः शुभाः। उपलब्धा द्विजश्रेष्ठ तथेयं सिद्धिरुत्तमा।। | 14-17-40a 14-17-40b |
इतः परं गमिष्यामि ततः परतरं पुनः। ब्रह्मणः पदमव्यक्तं मा तेऽभूतत्र संशयः।। | 14-17-41a 14-17-41b |
नाहं पुनरिहागन्ता मर्त्यलोकं परन्तप। प्रीतोस्मि ते महाप्राज्ञ ब्रूहि किं करवाणि ते।। | 14-17-42a 14-17-42b |
यदीप्सुरुपपन्नस्त्वं तस्य कालोऽयमागतः। अभिजाने च तदहं यदर्थं मामुपागतः।। | 14-17-43a 14-17-43b |
अचिरात्तु गमिष्यामि येनाहं त्वामचूचुदम्। भृशं प्रीतोस्मि भवतश्चारित्रेण विचक्षण।। | 14-17-44a 14-17-44b |
परिपृच्छ यावद्भवतो भाषे यद्यत्तवेप्सितम्।। | 14-17-45a |
बहुमन्ये च ते बुद्धिं भृशं सम्पूजयामि च। येनाहं भवता बुद्धो मेधावी ह्यसि काश्यप।। | 14-17-46a 14-17-46b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि सप्तदशोऽध्यायः।। 17 ।। |
14-17-19 आगतागमं प्राप्तशास्त्ररहस्यमूहापोहकुशलमित्यर्थः।। 14-17-43 बहुमन्ये भृशं पूजये। अहमन्तर्धानगतोऽपि यतस्त्वया ज्ञातः।।
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