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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-054

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अष्टमपर्व
महाभारतम्-08-कर्णपर्व-054
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अर्जुनेन दण्डदण्डधारयोर्वधः।। 1 ।।

सञ्जय उवाच। 8-54-1x
अथोत्तरेण पाण्डूनां सेनायां ध्वनिरुत्थितः।
रथनागाश्वपत्तीनां दण्डधारेण वध्यताम्।।
8-54-1a
8-54-1b
निवर्तयित्वा तु रथं केशवोऽर्जुनमब्रवीत्।
वाहयन्नेव तुरगान्गरुडानिलरंहसः।।
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8-54-2b
मागधोऽसावतिक्रान्तो द्विरदेन प्रमाथिना।
भगदत्तादनवमः शिक्षया च बलेन च।।
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8-54-3b
एनं हत्वा निहन्ताऽसि पुनः संशप्तकानिति।
वाक्यान्ते प्रापयत्पार्थं दण्डधारगजं प्रति।।
8-54-4a
8-54-4b
स मागधानां प्रवरो महाबलोऽ--
शुभग्रहो योधगणैः समन्वितः।
सपत्नसेनां प्रममाथ दारुणो
भीमं समग्रां बलवानिव ग्रहम्।।
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सुकल्पितं दानवनागसन्निभं
महाभ्रनिर्हादसमस्वनं रणे।
समास्थितो नागवरं नरेश्वरो
रथाश्वमातङ्गनरप्रमाथिनम्।।
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स नागयन्तॄन्समरे महारथा--
न्सपत्तिसङ्घांस्तुरगान्ससादिनः।
द्विपांश्च बाणैर्निजघान वीर्यवा--
न्समन्ततो घ्नन्निव कालचक्रवत्।।
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नरांस्तु कांस्यायसवर्मभूषणा--
न्निपात्य साश्वानपि पत्तिभिः सह।
व्यपोथयद्दन्तिवरेण शुष्मिणा
सशब्दवत्स्थूलनलं यथा तथा।।
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अथार्जुनो ज्यातलनेमिनिःस्वने
मृदङ्गभेरीबहुशङ्खनादिते।
रथाश्वमातङ्गसहस्रनादिते
रथोत्तमेनाभ्यपतद्द्विपोत्तमम्।।
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ततोऽर्जुनं द्वादशभिः शरोत्तमै--
र्जनार्दनं षोडशभिः समार्पयत्।
स दण्‍डधारस्तुरगांस्त्रिभिस्त्रिभि---
स्ततो ननाद प्रजहास चासकृत्।।
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ततोऽस्य पार्थः सगुणेषुकार्मुकं
चकर्त भल्लैर्ध्वजमप्यलङ्कृतम्।
पुनर्नियन्तॄन्सहपादगोप्तृभि--
स्ततः स चुक्रोध गिरिव्रजेश्वरः।।
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ततोऽर्जुनं भिन्नकटेन दन्तिना
घनाघनेनानिलतुल्यरंहसा।
अतीव चुक्रोधयिषुर्जनार्दनं
घनञ्जयं चाभिजघान तोमरैः।।
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अथास्य बाहू द्विपहस्तसन्निभौ
शिरश्च पूर्णेन्दुनिभाननं त्रिभिः।
क्षुरैः प्रचिच्छेद सहैव पाण्डव--
स्ततो द्विपं बाणशतैः समर्पयत्।।
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स पार्थबाणैस्तपनीयभूषणैः
समावृतः काञ्चनवर्मभृद्द्विपः।
भृशं चकाशे निशि पर्वतो यथा
दावाग्निना प्रज्वलितौषधिद्रुमः।।
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स वेदनार्तोऽम्बुदनिस्वनो नदं--
श्चरन्भ्रमन्प्रस्स्वलितान्तरोऽद्रवत्।
पपात रुग्णः सनियन्तृकस्तथा।।
यथा गिरिर्वज्रविदारितस्तथा।।
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हिमावदानेन सुवर्णमालिना
हिमाद्रिकूटप्रतिमेन दन्तिना।
हते रणे भ्रातरि दण्ड आव्रज--
ज्जिघांसुरिन्द्रावरजं धनञ्जयम्।।
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सतोमरैरर्करप्रभैस्त्रिभि--
र्जनार्दनं पञ्चभिरर्जुनं शितैः।
समर्पयित्वा विननाद चार्दयं--
स्ततोऽस्य बाहू निचकर्त पाण्डवः।।
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क्षुरप्रकृत्तौ विपुलौ सतोमरौ
शुभाङ्गदौ चन्दनरूषितौ भुजौ।
गजात्पतन्तौ युगपद्विरेजतु--
र्यथोरगौ पर्वतशृङ्गवन्महीम्।।
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अथाऽर्धचन्द्रेण हतं किरीटिना
पपात दण्डस्य शिरः क्षितिं द्विपात्।
स शोणितार्द्रो निपतन्विरेजे
दिवाकरोऽस्तादिव पश्चिमां दिशम्।।
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अथ द्विपं श्वेतनगाग्रसन्निभं
दिवाकरांशुप्रतिमैः शरोत्तमैः।
बिभेद पार्थः स पपात नादयन्
हिमाद्रिकूटं कुलिशाहतं यथा।।
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ततोऽपरं तत्प्रतिमा गजोत्तमा
जिगीषवः संयति सव्यसाचिना।
तथा कृतास्तेऽपि यथैव तौ द्विपौ
ततः प्रभग्नं सुमहद्रिपोर्बलम्।।
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गजा रथाश्वाः पुरुषाश्च सङ्घशः
परस्परघ्नाः परिपेतुराहवे।
परस्परं प्रस्खलिताः समाहता
भृशं च तत्तद्बहुभाषिणो हताः।।
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अथार्जुनं स्वे परिवार्य सैनिकाः
पुरन्दरं देवगणा इवाब्रुवन्।
अभैष्म यस्मान्मरणादिव प्रजाः
स वीर दिष्ट्या निहतस्त्वया रिपुः।।
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न चेत्परित्रास्यदिमाञ्जनान्भया--
द्द्विषद्भिरेवं बलिभिः प्रपीडितान्।
तथाऽभविष्यद्द्विषतां प्रमोदनं
यथा हतेष्वेष्विह नोऽरिसूदन।।
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इतीव भूयश्च सुहृद्भिरीडिता
निशम्य वाचः सुमनास्तदाऽर्जुनः।
यथाऽनुरूपं प्रतिपूज्य तं जनं
जगाम संशप्तकसङ्घहा पुनः।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
सप्तदशदिवसयुद्धे चतुःपञ्चाशोऽध्यायः।। 54 ।।

8-54-1 उत्तरेण उत्तरतः। वध्यतां वध्यमानानाम्।। 8-54-3 अनवमः अहीनः।। 8-54-5 स मागधानां प्रवरोऽङ्कुशग्रहे ग्रहेऽप्रसह्यो विकचो यथा ग्रहः। सपत्नसेनां प्रममाथ दारुणो महीं समग्रां विकचो यथा ग्रहः। इति झ.पाठः। तत्र इत्यर्थः। अङ्कुशग्रहे अङ्कुशधारमे हङ्कियुद्धे इत्यर्थः। ग्रहे आदित्यादिग्रहसमूहे युद्धपरिग्रहे च अप्रसह्यः। विकचः कचोपलक्षितशिरोरहितः केतुरूपी ग्रह इव। विकचो विस्तीर्णो ग्रहो धूमकेतुरूपी उत्पातग्रहः।। 8-54-8 शुष्मिणा बलवता। स्थूलसुषिरं नलं तृणविशेषम्।। 8-54-11 सगुणेषुकार्मुकं मौर्वीबाणसहितं धनुः। नियन्तॄन् नियन्तारम्।। 8-54-12 धनाधनो घतुकमत्तदन्तिनोरिति विश्वः।। 8-54-13 सहैव युगपत्।। 8-54-15 स्खलितान्तरः मध्येस्खलतित्यर्थः।। 8-54-16 इन्द्रावरजं कृष्णम्।। 8-54-19 अस्तात् अत्वाचलात्।। 8-54-21 तौ दण्डधारतद्भ्रात्रोर्द्विपौ यथा साध्यक्षौ कृत्तौ छिन्नौ तथा तेपि कृताः।। 8-54-54 चतुःपञ्चाशोऽध्यायः।।

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