महाभारतम्-08-कर्णपर्व-088
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दुःशासनवधक्रोधादात्मनामभिद्रुतदतां तदनुजानां भीमेन वधः।। 1 ।।
दुःशासनादिनिधनाद्बिश्यतः कर्णस्य शल्येन प्रोत्साहनम्।। 2 ।।
सङ्कुलयुद्धम्।। 3 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-88-1x |
स पीत्वा रुधिरं तस्य चरणौ गृह्य भारत। इत्युच्चैर्वचनं प्राह प्रतिनृत्यन्वृकोदरः।। | 8-88-1a 8-88-1b |
एष ते रुधिरं तीव्रं पिबामि पुरुषादवत्। वदेदानीं सुसंरब्धः पुनर्गौरिति गौरिति।। | 8-88-2a 8-88-2b |
ये चास्मान्प्रतिनृत्यन्ति तदा गौरिति गौरिति। तान्वयं प्रतिनृत्यामः पुनर्गौरिति गौरिति।। | 8-88-3a 8-88-3b |
प्रमाणकोट्यां शयने कालकूटकभोजनम्। दंशनं चाहिभिस्तीक्ष्णैर्दाहं जतुगृहे च यत्।। | 8-88-4a 8-88-4b |
द्यूते च दोषभूयस्त्वमरण्ये वसतिश्च या। इष्वस्त्राणि च सङ्ग्रामे अनिलानिलवेश्मसु।। | 8-88-5a 8-88-5b |
दुःखान्येवाभिजानीमो न सुखानि कदाचन। धृतराष्ट्रस्य दौरात्म्यात्सपुत्रस्य वयं सदा।। | 8-88-6a 8-88-6b |
इत्युच्चैर्वचनं प्रोच्य जयं प्राप्य वृकोदरः। पुनरेव महाराज तव सैन्यमभिद्रवत्।। | 8-88-7a 8-88-7b |
रक्तार्द्रपाणिस्तु ततो महात्मा गदापाणिः काल इवान्तकाले। विभीषयंस्तव पुत्रस्य सैन्य-- मितस्ततो धावति वाहिनीं ते।। | 8-88-8a 8-88-8b 8-88-8c 8-88-8d |
ततः क्षणाद्भारत शून्यमासी-- दायोधनं घोरतरं कुरूणाम्। यत्राजिमध्ये प्रापिबद्भीमसेनो दुःशासनस्य रुधिरं क्रोधदीप्तः।। | 8-88-9a 8-88-9b 8-88-9c 8-88-9d |
स हत्वा समरे राजन्राजपुत्रं महाबलम्। पूर्णकामो मदोदग्रः सिंहो रुरुमिवोत्कटः।। | 8-88-10a 8-88-10b |
रुधिरार्द्रो महाराज व्यशोभत परन्तपः। सपुष्पः किंशुक इव रक्तरक्ततरो बभौ।। | 8-88-11a 8-88-11b |
रुधिराक्तो घोरवेषः क्रुद्धो राजन्वचोऽब्रवीत्। ब्रूहीदानीं पापमते नृशंस पतितो ह्यसि।। | 8-88-12a 8-88-12b |
दुःशासने यादृशं संश्रुतं न-- स्तदवाप्तं पाण्डवैः सर्वमेव। अत्रैवमाप्स्याम्यपरं द्वितीयं दुर्योधनं यज्ञपशुं विशस्य।। | 8-88-13a 8-88-13b 8-88-13c 8-88-13d |
शिरो मृदित्वाऽस्य पुनश्च शान्तिं यास्याम्यहं कौरवाणां समक्षम्। या साऽपतिः सा सपतिर्हि जाता यास्ताः सपत्योऽपतयस्तु जाताः।। | 8-88-14a 8-88-14b 8-88-14c 8-88-14d |
पश्यन्तु चित्रं विविधं हि लोके ये वै तिलाः षण्डतिला बभूवुः। ते चेत्संसिद्धा निधनं गताः परे किं चित्ररूपं बत जीवलोके।। | 8-88-15a 8-88-15b 8-88-15c 8-88-15d |
एतावदुक्त्वा वचनं प्रहृष्टः प्राक्रोशदुच्चै रुधिरार्द्रवक्रः। ननर्त चैवातिबलो महात्मा वृत्रं निहत्येव सहस्रनेत्रः।। | 8-88-16a 8-88-16b 8-88-16c 8-88-16d |
दृष्ट्वा तु नृत्यन्तमुदग्रवीर्यं कालं यथा त्वन्तकाले प्रजानाम्। महद्भयं चाधिरथिं विवेश जये निराशाश्च सुतास्त्वदीयाः।। | 8-88-17a 8-88-17b 8-88-17c 8-88-17d |
दुःशासने तु निहते पुत्रास्तव महारथाः। महत्क्रोधविषं वीरा धारयन्तो महाबलाः। ते तु राजन्महावीर्या भीमं प्राच्छादयञ्छरैः।। | 8-88-18a 8-88-18b 8-88-18c |
निषङ्गी कवची खङ्गी दण्डधारो धनुर्धरः। अलम्बुर्जलसन्धश्च वातवेगसुवर्चसौ।। | 8-88-19a 8-88-19b |
एते समेत्य सहिता भ्रातृव्यसनकर्शिताः। भीमसेनं महाबाहुं पीडयामासुरञ्जसा।। | 8-88-20a 8-88-20b |
स वध्यमानो विशिखैः समन्तात्तैर्महारथैः। भीमः क्रोधाभिरक्ताक्षः क्रुद्धः काल इवाबभौ।। | 8-88-21a 8-88-21b |
ततः परिवृतो राजन्नवभिः शत्रुतापनैः। दुःशासनादवरजैः पुत्रैस्तव वृकोदरः।। | 8-88-22a 8-88-22b |
तांस्तु भल्लैर्महावेगैर्नवभिर्नव भारत। रुक्माङ्गदान्रुक्मपुङ्खैः पार्थो निन्ये यमक्षयम्।। | 8-88-23a 8-88-23b |
हतेषु तव पुत्रेषु बलं तद्विप्रदुद्रुवे। पश्यतः सूतपुत्रस्य पाण्डवस्य भयार्दितम्।। | 8-88-24a 8-88-24b |
ततः कर्णं महाराज प्रविवेश महद्भयम्। दृष्ट्वा भीमस्य विक्रान्तमन्तकस्य प्रजास्विव।। | 8-88-25a 8-88-25b |
तस्य त्वाकारभावज्ञः शल्यः समितिशोभनः। | 8-88-26a |
उवाच वचनं कर्णं प्राप्तकालं हितं तदा।। | 8-88-27a |
एते द्रवन्ति राजानो भीमसेनभयार्दिताः। दुर्योधनश्च सम्मूढो भ्रातृव्यसनकर्शितः।। | 8-88-28a 8-88-28b |
दुःशासनस्य रुधिरे पीयमाने महात्मना। व्यापन्नचेताः सहसा शोकोपहतचेतनः।। | 8-88-29a 8-88-29b |
उपासते त्वामेते हि परिवार्य महारथाः। कृपप्रभृतयः कर्ण हतशेषाः सहोदराः।। | 8-88-30a 8-88-30b |
पाण्डवा लब्धलक्षाश्च धनञ्जयपुरोगमाः। त्वामेवाभिमुखाः शूरा युद्धाय समुपस्थिताः।। | 8-88-31a 8-88-31b |
स त्वं पुरुषशार्दूल पौरुषे महति स्थितः। क्षत्रधर्मं पुरस्कृत्य प्रत्युद्याहि धनञ्जयम्।। | 8-88-32a 8-88-32b |
भारो हि धार्तराष्ट्रेण त्वयि सर्वः समाहितः। तमुद्वह महाबाहो यथाशक्ति यथाबलम्।। | 8-88-33a 8-88-33b |
जये स्याद्विपुला कीर्तिर्ध्रुवः स्वर्गः पराजये। वृषसेनश्च राधेय सङ्क्रुद्धस्तनयस्तव। त्वयि मोहं समापन्ने पाण्डवानभिधावति।। | 8-88-34a 8-88-34b 8-88-34c |
सञ्जय उवाच। | 8-88-35x |
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं शल्यस्यामिततोजसः। हृदि मानुष्यकं भावं कृत्वा युद्वाय सुस्थिरम्।। | 8-88-35a 8-88-35b |
ततः क्रुद्धो वृषसेनोऽभ्यधाव-- द्भीमं समायान्तममित्रसाहम्। बाणैः किरन्तं प्रतियाति चोग्रं व्यात्ताननं कालमिवापतन्तम्।। | 8-88-36a 8-88-36b 8-88-36c 8-88-36d |
तमभ्यधावन्नकुलः प्रवीर-- मारादमित्रं प्रतुदन्पृषत्कैः। कर्णस्य पुत्रं समरे प्रहृष्टं जिष्णुर्जिघांसुर्मघवेव जम्भम्।। | 8-88-37a 8-88-37b 8-88-37c 8-88-37d |
ततो ध्वजं स्फाटिकहेमचित्रं चिच्छेद धैर्यान्नकुलः क्षुरेण। कर्णात्मजस्येष्वसनं च चित्रं भल्लेन जाम्बूनदचित्रनद्धम्।। | 8-88-38a 8-88-38b 8-88-38c 8-88-38d |
अथान्यदादाय धनुः स शीघ्रं कर्णात्मजः पाण्डवमभ्यविध्यत्। दिव्यैरस्त्रैरभ्यवर्षत्तदैनं कर्णस्य पुत्रो नकुलं कृतास्त्रम्।। | 8-88-39a 8-88-39b 8-88-39c 8-88-39d |
ततः क्रुद्धो नकुलः कर्णपुत्रं शरैर्महोल्काभिरिवाभ्यपीडयत्। स कर्णपुत्रो नकुलस्य राज-- न्सर्वानस्त्रान्वारयदुत्तमास्त्रैः।। | 8-88-40a 8-88-40b 8-88-40c 8-88-40d |
आसीत्सुघोरं भरतप्रवीर युद्धं तदा कर्णजपाण्डवाभ्याम्।। | 8-88-41a 8-88-41b |
वनायुजान्सुकुमारान्सुशुभ्रा-- नलङ्कृताञ्जातरूपेण चित्रान्। जघान चाश्वान्नकुलस्य वीरो रणाजिरे सूतपुत्रस्य पुत्रः।। | 8-88-42a 8-88-42b 8-88-42c 8-88-42d |
ततो हताश्वादवरुह्य याना-- च्चर्माऽऽददे रुचिरं बर्हिचित्रम्। आकाशसङ्काशमसिं प्रगृह्य प्रकाशमानः खगवच्चचार।। | 8-88-43a 8-88-43b 8-88-43c 8-88-43d |
ततोऽस्य पक्षाननयद्यमाय द्विसाहस्रान्नकुलः क्षिप्रकारी। ते प्रापतन्नसिना वै विशस्ता यथाऽश्वमेधे पशवः शमित्रा।। | 8-88-44a 8-88-44b 8-88-44c 8-88-44d |
ततस्ततो विजिता युद्धशौण्डा नानादेश्याः सुहृदः सत्यसन्धाः। एकेन शीघ्रं नकुलेन नुन्नाः सारेप्सुनेवोत्तमचन्दनस्य।। | 8-88-45a 8-88-45b 8-88-45c 8-88-45d |
भूमौ चरन्तं नकुलं रथौघाः समन्ततः सायकैः प्रत्यगृह्णन्। स तुद्यमानो नकुलो विहङ्गै-- श्चचार सङ्ख्ये द्विषतो विनिघ्नन्।। | 8-88-46a 8-88-46b 8-88-46c 8-88-46d |
तं कर्णपुत्रोऽपि चरन्तमाजौ नराश्वमातङ्गरथप्रवीरान्। निघ्नन्तमष्टादशभिः पृषत्कै-- र्विव्याध वीरः स चुकोप विद्धः।। | 8-88-47a 8-88-47b 8-88-47c 8-88-47d |
ततोऽभ्यधावत्समरे जिघांसुः कर्णात्मजं पाण्डुसुतो नृवीरम्। तस्येषुभिर्वधमत्सूतपुत्रो महारणे वर्म सहस्रभारम्।। | 8-88-48a 8-88-48b 8-88-48c 8-88-48d |
तस्याथ कांस्यं सुशितं सुपीत-- मसिप्रवीरं गुरुभारासाहम्। द्विषच्छरीरापहरं सुघोर-- माधून्वतः सर्पमिवात्तकोशम्।। | 8-88-49a 8-88-49b 8-88-49c 8-88-49d |
क्षिप्रं शरैः षङ्भिरमित्रसाह-- श्चकर्त खङ्गं निशितैः सुधारैः। पुनश्च पार्थं निशितैः पृषत्कैः स्तनान्तरे क्षिप्रमिवात्यविध्यत्।। | 8-88-50a 8-88-50b 8-88-50c 8-88-50d |
स भीमसेनस्य रथं च गत्वा ववर्ष वै शरवर्षं सुघोरम्।। | 8-88-51a 8-88-51b |
नकुलमथ विदित्वा छिन्नबाणासनासिं विरथमरिभिरार्तं कर्णपुत्रास्त्रमग्नम्। पवनचलपताका ह्लादिनो वल्गिताश्वाः परपुरुषनियुक्ताः स्वै रथैः शीघ्रमीयुः।। | 8-88-52a 8-88-52b 8-88-52c 8-88-52d |
द्रुपदसुतवरिष्ठाः पञ्च शैनेयषष्ठा द्रुपददुहितृपुत्राः पञ्च चामित्रसाहाः। द्विरदरथनराश्वान्सूदयन्तस्त्वदीयान् भगवत इव रुद्राः सङ्ख्यया हेतिमन्तः।। | 8-88-53a 8-88-53b 8-88-53c 8-88-53d |
अथ तव रथमुख्यास्तान्प्रतीयुस्त्वरन्तः कृपहृदिकसुतौ च द्रौणिदुर्योधनौ च। शकुनिशुकवृकाश्च क्राथदेवावृधौ च द्विरदजलदघौषैः स्यन्दनैः कार्मुकैश्च।। | 8-88-54a 8-88-54b 8-88-54c 8-88-54d |
अथ तव रथवर्यास्तान्दशैकप्रवीरा-- निषुभिरशनिकल्पैस्ताडयन्तो न्यरुन्धन्। नवजलदसवर्णैर्हस्तिभिस्तान्स्म वव्रु-- र्गिरिशिखरनिकाशैर्भीमवेगैः कुणिन्दाः।। | 8-88-55a 8-88-55b 8-88-55c 8-88-55d |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे अष्टाशीतितमोऽध्यायः।। 88 ।। |
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