महाभारतम्-08-कर्णपर्व-014
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सहदेवेन दुःशासनपराजयः।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-14-1x |
सहदेवं तथा क्रुद्धं निघ्नन्तं तव वाहिनीम्। दुःशासनो महाराज भ्राता भ्रातरमभ्ययात्।। | 8-14-1a 8-14-1b |
तौ समेतौ महाराज दृष्ट्वा तत्र महारथाः। सिंहनादरवांश्चक्रुर्वासांस्यादुधुवुश्च ह।। | 8-14-2a 8-14-2b |
ततो भारत रुष्टेन तव पुत्रेण धन्विना। पाण्डुपुत्रस्त्रिभिर्बाणैर्वक्षस्यभिहतो बली।। | 8-14-3a 8-14-3b |
सहदेवस्ततो राजन्नाराचेन तवात्मजम्। विद्व्वा विव्याध सप्तत्या सारथिं च त्रिभिः शरैः।। | 8-14-4a 8-14-4b |
दुःशासनस्ततश्चापं छित्त्वा राजन्महाहवे। सहदेवं त्रिसप्तत्या बाहोरुरसि चार्पयत्।। | 8-14-5a 8-14-5b |
सहदेवस्तु सङ्क्रुद्धः खङ्गं गृह्य महाहवे। आविध्य प्रासृजत्तूर्णं तव पुत्रथं प्रति।। | 8-14-6a 8-14-6b |
समार्गणगुणं चापं छित्त्वा तस्य महानसिः। निपपात ततो भूमौ च्युतः सर्प इवाम्बरात्।। | 8-14-7a 8-14-7b |
अथान्यद्धनुरादाय सहदेवः प्रतापवान्। दुःशासनाय चिक्षेप बाणमन्तकरं ततः।। | 8-14-8a 8-14-8b |
तमापतन्तं विशिखं यमदण्डोपमत्विषम्। खङ्गेन शितधारेण द्विधा चिच्छेद कौरवः।। | 8-14-9a 8-14-9b |
ततस्तं निशितं खङ्गमाविध्य युधि सत्वरः। धनुश्चान्यत्समादाय शरं जग्राह वीर्यवान्।। | 8-14-10a 8-14-10b |
तमापतन्तं सहसा निस्त्रिंशं निशितैः शरैः। पातयामास समरे सहदेवो हसन्निव।। | 8-14-11a 8-14-11b |
ततो बाणांश्चतुः षष्टिं तव पुत्रो महारणे। सहदेवरथं तूर्णं प्रेषयामास भारत।। | 8-14-12a 8-14-12b |
ताच्छरान्समरे राजन्वेगेनापपतो बहून्। एकैकं पञ्चभिर्बाणैः सहदेवो न्यकृतन्तत।। | 8-14-13a 8-14-13b |
सन्निवार्य महाबाणान्सहदेवः प्रतापवान्। अथास्मै सुबहून्बाणान्प्रेषयामास संयुगे।। | 8-14-14a 8-14-14b |
तान्वाणांस्तव पुत्रोऽपि छित्त्वैकैकं त्रिभिः शरैः। ननाद सुमहानादं नादयानो वसुंधराम्।। | 8-14-15a 8-14-15b |
ततो दुःशासनो राजन्द्वाभ्यां पाण्डुसुतं रणे। सारथिं नवभिर्बाणैर्माद्रोयस्य समाचिनोत्।। | 8-14-16a 8-14-16b |
ततः क्रुद्धो महाराज सदहेवः प्रतापवान्। समाधत्त शरं घोरं मृत्युकालान्तकोपमम्।। | 8-14-17a 8-14-17b |
विकृष्य बलवच्चापं तव पुत्राय सोऽसृजत्। स तं निर्भिद्य वेगेन भित्त्वा च कवचं महत्।। | 8-14-18a 8-14-18b |
प्राविशद्वरणीं राजन्वल्मीकमिव पन्नगः। ततः सम्मुमुहे राजंस्तव पुत्रो महारथः।। | 8-14-19a 8-14-19b |
मूढं चैनं समालोक्य सारथिस्त्वरितो रथम्। अपोवाह भृशं त्रस्तो वध्यमानं शितैः शरैः।। | 8-14-20a 8-14-20b |
पराजित्य रणे तं तु कौरव्यं पाण्डुनन्दनः। दुर्योधनबलं दृष्ट्वा प्रममाथ समन्ततः।। | 8-14-21a 8-14-21b |
पिपीलिकपुटं राजन्यथा मृद्गन्नरो रुषा। तथा सा कौरवी सेना मृदिता तेन भारत।। | 8-14-22a 8-14-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि षोडशदिवसयुद्धे चतुर्दशोऽध्यायः।। 14 ।। |
8-14-1 आदुधुषुः भ्रामितवन्तः।। 8-14-22 पिपीलिकपुटं पिपीलिकावासपटलम्।। 8-14-14 चतुर्दशोऽध्यायः।।
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