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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-052

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अष्टमपर्व
महाभारतम्-08-कर्णपर्व-052
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संशप्तकैर्युध्यमानस्य पार्थस्याश्वत्थाम्नाऽऽह्नानम्।। 1 ।।
तयोर्युद्धम्।। 2 ।।

धृतराष्ट्र उवाच। 8-52-1x
कथं संशप्तकैः सार्धमर्जुनस्याभवद्रणः।
सूतपुत्रस्य पाञ्चालैः कथं युद्धं प्रवर्तितम्।।
8-52-1a
8-52-1b
अश्वत्थाम्नस्तु यद्युद्धमर्जुनस्य च सञ्जय।
अन्येषां च मदीयानां पाण्डवैस्तद्ब्रवीहि मे।।
8-52-2a
8-52-2b
सञ्जय उवाच। 8-52-3x
शृणु राजन्यथावृत्तं सङ्ग्रामं ब्रुवतो मम।
वीराणां शत्रुभिः सार्धं देहपाप्मविनाशनम्।।
8-52-3a
8-52-3b
पार्थः संशप्तकबलं प्रविश्यार्णवसन्निभम्।
व्यक्षोभयदमित्रघ्नो महावात इवार्णवम्।।
8-52-4a
8-52-4b
पूर्णचन्द्राभवक्राणि स्वक्षिभ्रूदशनानि च।
शिरांस्युन्मथ्य वीराणां शितैर्भल्लैर्धनञ्जयः।
सन्तस्तार क्षितिं क्षिप्रं विनालैर्नलिनैरिव।।
8-52-5a
8-52-5b
8-52-5c
सुवृत्तानायतान्पुष्टांश्चन्दनागुरुभूषितान्।
सायुधान्सतलत्रांश्च पञ्चास्योरगसन्निभान्।
बाहून्क्षुरैरमित्राणां चिच्छेद समरेऽर्जुनः।।
8-52-6a
8-52-6b
8-52-6c
धुर्यान्धुर्योतरान्सूतान्ध्वजांश्चापानि सायकान्।
पाणीन्नितान्तनिशितैर्भल्लैश्चिच्छेद पाण्डवः।।
8-52-7a
8-52-7b
रथान्द्विपान्हयांश्चैव सारोहानर्जुनो युधि।
शरैरनेकसाहस्रैर्निन्ये राजन्यमक्षयम्।।
8-52-8a
8-52-8b
तं प्रवीराः सुसंरब्धा नर्दमाना इवर्षभाः।
वासितार्थमिव क्रुद्धमभिद्रुत्य महोत्कटाः।
निघ्न्तमभिजघ्नुस्ते शरैः शृङ्गैरिवर्षभाः।।
8-52-9a
8-52-9b
8-52-9c
तस्य तेषां च तद्युद्वमभवद्रोमहर्षणम्।
त्रैलोक्यविजये यद्वद्दैत्यानां सह वज्रिणा।।
8-52-10a
8-52-10b
अस्त्रैस्त्राणि संवार्य द्विषतां सर्वतोऽर्जुनः।
इषुभिर्बहुभिस्तूर्णं विद्व्वा प्राणाञ्जहार सः।।
8-52-11a
8-52-11b
छिन्नत्रिवेणुचक्राक्षान्हतयोधान्ससारथीन्।
विध्वस्तायुधतूणीरान्समुन्मथितकेतनान्।।
8-52-12a
8-52-12b
सञ्छिन्नयोक्ररश्मीषान्वित्रिवेणून्विकूबरान्।
विस्रस्तबन्धुरयुगान्विस्रस्ताक्षप्रमण्डलान्।।
8-52-13a
8-52-13b
रथान्विशकलीकुर्वन्महाभ्राणीव मारुतः।। 8-52-14a
विस्मापकं प्रेक्षकाणां द्विषतां भयवर्धनम्।
महारथसहस्रस्य समं कर्माकरोज्जयः।।
8-52-15a
8-52-15b
सिद्धदेवर्षिसङ्घाश्च चारणाश्चापि तुष्टुवुः।। 8-52-16a
देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवर्षाणि चापतन्।
केशवार्जुनयोर्मूर्ध्नि प्राह वाक्वाशरीरिणी।।
8-52-17a
8-52-17b
चन्द्राग्न्यनिलसूर्याणां कान्तिदीप्तिबलद्युतीः।
यौ सदा बिभ्रतुर्वीराविमौ तौ केशवार्जुनौ।।
8-52-18a
8-52-18b
ब्रह्मेशानाविव पुरा वीरावेकरथे स्थितौ।
सर्वभूतवरौ वीरौ नरनारायणाविमौ।।
8-52-19a
8-52-19b
इत्येतन्महदाश्चर्यं दृष्ट्वा श्रुत्वा च भारत।
अश्वत्थामा सुसङ्क्रुद्धः कृष्णावभ्यद्रवद्रणे।।
8-52-20a
8-52-20b
अथ पाण्डवमस्यन्तममित्रान्तकराञ्छरान्।
सेषुणा पाणिनाऽऽहूय प्रहसन्द्रौणिरब्रवीत्।।
8-52-21a
8-52-21b
यदि मां मन्यसे वीर प्राप्तमर्हमिहातिथिम्।
ततः सर्वात्मना त्वद्य युद्वातिथ्यं प्रयच्छ मे।।
8-52-22a
8-52-22b
एवमाचार्यपुत्रेण समाहूतो युयुत्सया।
बहुमेनेऽर्जुनोऽऽत्मानमिति चाह जनार्दनम्।।
8-52-23a
8-52-23b
संशप्तकाश्च मे वध्या द्रौणिराह्वयते च माम्।
यदत्रानन्तरं प्राप्तं शंस मे तद्वि माधव।।
8-52-24a
8-52-24b
आतिथ्यकर्माभ्युत्थाय दीयतां यदि मन्यसे।
एवमुक्तोऽवहत्पार्थं कृष्णोद्रोणात्मजान्तिके।।
8-52-25a
8-52-25b
शैक्ष्येण विधिनाऽऽहूतं वायुरिन्द्रमिवाध्वरे।
तमामन्त्र्यैकमनसं केशवो द्रौणिमब्रवीत्।।
8-52-26a
8-52-26b
अश्वत्थामन्स्थिरो भूत्वा प्रहराशु सहस्व च।
निर्वेष्टुं भर्तृपिण्डं हि कालोऽयमुपजीविनाम्।।
8-52-27a
8-52-27b
सूक्ष्मो विवादो विप्राणां सूक्ष्मौ क्षास्त्रौ जयाजयौ।। 8-52-28a
नहि संक्षमसे मोहाद्दिव्यां पार्थस्य सत्क्रियाम्।
समाप्तिमिच्छन्युध्यस्व स्यिरो भूत्वाऽद्य पाण्डवं।।
8-52-29a
8-52-29b
इत्युक्तो वासुदेवेन तथेत्युक्त्वा द्विजोत्तमः।
विव्याध केशवं षष्ट्या नाराचैरर्जुनं त्रिभिः।।
8-52-30a
8-52-30b
तस्यार्जुनः सुसङ्क्रुद्धस्त्रिभिर्बाणैः शरासनम्।
चिच्छेदाथान्यदादत्त द्रौणिर्घोरतरं धनुः।।
8-52-31a
8-52-31b
सज्यं कृत्वा निमेषाच्च विव्याधार्जुनकेशवौ।
त्रिभिः शतैर्वासुदेवं सहस्रेण च पाण्डवम्।।
8-52-32a
8-52-32b
ततः शरसहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
ससृजे द्रौणिरायस्तः स्तम्भयामास चार्जुनम्।।
8-52-33a
8-52-33b
इषुधेर्धनुषो ज्यायास्त्वङ्गुलिभ्यश्च मारिष।
बाह्वोः कराभ्यामुरसो वदनाद्व्राणनेत्रतः।।
8-52-34a
8-52-34b
कर्णाभ्यां शिरसोऽङ्गेभ्यो लोमवर्मभ्य एव च।
रथध्वजाभ्यां च शरा निष्पेतुर्ब्रह्मवादिनः।।
8-52-35a
8-52-35b
शरजालेन महता बद्ध्वा माधवपाण्डवौ।
ननाद सुदितो द्रौणिर्महामेघौघनिःस्वनम्।।
8-52-36a
8-52-36b
`तैः पतद्भिर्महाराज द्रौणिमुक्तैः समन्ततः।
सञ्छादितौ रथस्थौ तावुभौ कृष्णधनञ्जयौ।।
8-52-37a
8-52-37b
ततः शरशतैस्तीक्ष्णैर्भारद्वाजः प्रतापवान्।
निश्चेष्टा तावुभौ चक्रे रणे माधवपाण्डवौ।।
8-52-38a
8-52-38b
महाकृतमभूत् सर्वं स्थावरं जङ्गमं तथा ।
चराचरसा मोप्तारौ दृष्ट्वा सञ्छादितौ शरैः।।
8-52-39a
8-52-39b
सिद्धचारxxxxxश्च संपेतुर्शै समन्ततः।
अपि xxxxxxxx लोकानामिति चाब्रुवन्।।
8-52-40a
8-52-40b
न मया xxxxxxxxxx राजन्दृष्टपृर्वः पराकमः।
xxxxxxxxxxxx कृष्णो छादयतो रणे।।
8-52-41a
8-52-41b
xxxxxxxxxxxशब्दं रथानां त्रासनं रणे।
xxxxxxxxxx राजन्सिंहस्य नदतो यथा।।
8-52-42a
8-52-42b
चरतो युद्धे सव्यं दक्षिणमस्यतः।
विद्युदम्भोधरस्येव भ्राजमाना व्यदृश्यत।।
8-52-43a
8-52-43b
स तदा क्षिप्रकारी च दृढहस्तश्च पाण्डवः।
प्रमोहं परमं गत्वा प्रेक्षन्नास्ते धनञ्जयः।।
8-52-44a
8-52-44b
विक्रमं चरतो युद्धे सव्यं दक्षिणमस्यतः।
विक्रमं च हृतं मेने आत्मनस्तेन संयुगे।।
8-52-45a
8-52-45b
अथास्य समरे राजन्वपुरासीत्सुदुर्दृशम्।
द्रौणेस्तत्कुर्वतः कर्म यादृग्रूपं पिनाकिनः।।
8-52-46a
8-52-46b
वर्धमाने ततस्तत्र द्रोणपुत्रे विशाम्पते।
हीयमाने च कौन्तेये कृष्णं रोषः समाविशत्।।
8-52-47a
8-52-47b
स रोषान्निश्वसन्राजन्निर्दहन्निव चक्षुषा।
द्रौणिं ददर्श सङ्ग्रामे फल्गुनं च मुहुर्मुहुः।।
8-52-48a
8-52-48b
ततः कृष्णोऽब्रवीत्क्रुद्धः पार्थं सप्रणयं वचः।। 8-52-49a
अत्यद्भुततमिदं पार्थ त्वयि पश्यामि संयुगे।
यत्त्वां विशेषयत्याजौ द्रोणपुत्रोऽद्य भारत।।
8-52-50a
8-52-50b
कच्चित्ते गाण्डिवं हस्ते मुष्टिर्वा न व्यशीर्यत।
कच्चिद्वीर्यं यथापूर्वं भुजयोर्वा बलं तव।।
8-52-51a
8-52-51b
उदीर्यमाणं हि रणे पश्यामि द्रौणिमाहवे।
गुरुपुत्र इति ह्येनं मानयन्पाण्डवर्षभ।
उपेक्षां मा कृथाः पार्थ नायं काल उपेक्षितुम्'।।
8-52-52a
8-52-52b
8-52-52c
अर्जुन उवाच। 8-52-53x
पश्य माधव दौरात्म्यं गुरुपुत्रस्य मां प्रति।
वधं प्राप्तौ मन्यते नौ प्रावेश्य शवरेश्मनि।
एषोस्मि हन्मि सङ्कल्पं शिक्षया च बलेन च।।
8-52-53a
8-52-53b
8-52-53c
`एवमुक्त्वाऽस्य चिच्छेद भल्लैः कर्मारमार्जितैः।
धनुश्छत्रं पताकां च रथशक्तिं गदां वराम्'।।
8-52-54a
8-52-54b
अश्वत्थाम्नः शरानस्ताञ्छित्त्वैकैकं त्रिधा त्रिधा।
व्यधमद्भरतश्रेष्ठो नीहारमिव मारुतः।।
8-52-55a
8-52-55b
ततः संशप्तकान्भूयः साश्वसूतरथद्विपान्।
ध्वजपत्तिगणानुर्ग्रैर्बाणैर्विव्याध पाण्डवः।।
8-52-56a
8-52-56b
ये ये ददृशिरे तत्र यद्यद्रूपास्तदा जनाः।
ते ते तत्र शरैर्व्याप्तं मेनिरेऽऽत्मानमात्मना।।
8-52-57a
8-52-57b
ते गाण्डीवप्रमुक्तास्तु नानारूपाः पतत्रिणः।
क्रोशे साग्रे स्थिताञ्जघ्नुर्द्विपांश्च पुरुषान्रणे।।
8-52-58a
8-52-58b
भल्लैश्छिन्नाः कराः पेतुः करिणां मदवर्षिणाम्।
यथा वने परशुभिर्निकृत्ताः शाल्मलिद्रुमाः।।
8-52-59a
8-52-59b
पश्चात्तु शैलवत्पतुस्ते गजाः सह सादिभिः।
वज्रिवज्रावमथिता यथैवाद्रिचयास्तथा।।
8-52-60a
8-52-60b
गन्धर्वनगराकारान्रथांश्चैव सुकल्पितान्।
विनीतैर्जवनैर्युक्तानास्थितान्युद्वदुर्मदैः।।
8-52-61a
8-52-61b
शरैर्विशकलीकुर्वन्नमित्रानभ्यवीवृषत्।
स्वलङ्कृतानश्वसादीन्पत्तींश्चाहन्धनञ्जयः।।
8-52-62a
8-52-62b
धनञ्जययुगान्तार्कः संशप्तकमहार्णवम्।
व्यशोषयत दुःशोषं तीक्ष्णैः शरगभस्तिभिः।।
8-52-63a
8-52-63b
पुनर्द्रौणिमहाशैलं नाराचैर्वज्रसन्निभैः।
निर्बिभेद महावेगैस्त्वरन्वज्रीव पर्वतम्।।
8-52-64a
8-52-64b
तमाचार्यसुतः क्रुद्धः साश्वयन्तारमाशुगैः।
युयुत्सुरागमद्योद्धुं पार्थस्तानच्छिनच्छरान्।।
8-52-65a
8-52-65b
ततः परमसङ्क्रुद्धः काण्डकोशमवासृजत्।
अश्वत्थामाभिरूपाय गृहानतिथये यथा।।
8-52-66a
8-52-66b
अथ संशप्तकांस्त्यक्त्वा पाण्डवो द्रौणिमभ्ययात्।
अपाङ्क्तेयानिव त्यक्त्वा दाता पाङ्क्तेयमर्थिनम्।।
8-52-67a
8-52-67b
`स्थिताः संशप्तका राजन्दृष्ट्वा युद्वं महात्मनोः'।। 8-52-68a
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
सप्तदशदिवसयुद्धे द्विपञ्चाशोऽध्यायः।। 52 ।।

8-52-1 वासिता पुष्पवती गौस्तदर्थम्।। 8-52-12 त्रिवेणुः उभयतः-- काष्ठद्वयसहितो धूर्दण्डः। अक्षश्चक्राधारदण्डः।। 8-52-13 योक्राणि बन्धनरज्जवः। रश्मयः प्रग्रहाः। कूबरस्त्रिवेणोरग्रभागः। बन्धुरं रथतल्पः युगं धूरग्रकाष्ठम्। अक्षप्रमण्डलं रथनीडाक्षयोः सन्धानकाष्ठजातम्।। 8-52-14 विशकलीकुर्वन् विशेषेण शकलीकुर्वन्।। 8-52-15 चन्द्रादीनां कान्त्यादीन् यथासंख्यं विभ्रतुः।। 8-52-22 अर्हं पूजयितुं योग्यम्।। 8-52-24 अनन्तरं प्रथमम्।। 8-52-26 जैत्रेण विधिना इति झ.पाठः।। 8-52-33 अयन्तः यत्नवान्।। 8-52-34 इषुषिप्रभृतिभ्यः शराः पेतुः लोमभ्योऽपि च चेतुस्तत्र हेतुः ब्रह्मवादिनः योगबलवत इत्यर्थः।। 8-52-64 महत् शैलं शिलासमूहो यस्मिन् तं महाशैलं पर्वतमिव।। 8-52-66 काण्डकोशं बाणनिषङ्गम्।। 8-52-52 द्विपञ्चाशोऽध्यायः।। 52 ।।

कर्णपर्व-051 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-053