महाभारतम्-08-कर्णपर्व-073
दिखावट
← कर्णपर्व-072 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-073 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-074 → |
|
युधिष्ठिराधिक्षेपादात्मवधोद्यतं पार्थं प्रति कृष्णेन तत्प्रतिनिधितया आत्मप्रशंसनचोदना।। 1 ।।
अर्जुनेनात्मप्रशंसनानन्तरं युधिष्ठिरक्षमापनम्।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-73-1x |
इत्येवमुक्तस्तु जनार्दनेन पार्थः प्रशस्याथ सुहृद्वचस्तत्। ततोऽब्रवीदर्जुनो धर्मराज-- मनुक्तपूर्वं परुषं प्रसह्य।। | 8-73-1a 8-73-1b 8-73-1c 8-73-1d |
मा त्वं राजन्व्याहरस्वाद्य पापं त्वं तिष्ठसि क्रोशमात्रे व्यपेत्य। भीमस्तु मामर्हति गर्हणाय यो युध्यते सर्वलोकप्रवीरैः।। | 8-73-2a 8-73-2b 8-73-2c 8-73-2d |
काले हि शत्रून्परिपीड्य वीरो हत्वा प्रवीरान्वसुधाधिपानाम्। रथप्रधानोत्तमनागमुख्या युधिप्रवीरा निहताश्च शूराः।। | 8-73-3a 8-73-3b 8-73-3c 8-73-3d |
सुदुष्करं कर्म करोति भीमः कर्तुं यथा नार्हति कश्चिदन्यः। रथादवस्कन्द्य गदां परामृशं-- स्तथा रणे हन्ति तथैव वारणान्।। | 8-73-4a 8-73-4b 8-73-4c 8-73-4d |
स कुञ्जराणामधिकं सहस्रं हत्वा नदंस्तुमुलं सिंहनादम्। काम्भोजवानायुजपार्वतीया-- नीहामृगाभान्विनिहत्य वाजिनः।। | 8-73-5a 8-73-5b 8-73-5c 8-73-5d |
महारथान्दविरदाञ्शैलकल्पा-- न्सहेत यः कुञ्जरान्वध्यमानान्। असौ भीमो धार्तराष्ट्रेषु मग्नः स मामुपालब्धुमरिन्दमोऽर्हति।। | 8-73-6a 8-73-6b 8-73-6c 8-73-6d |
वरासिना चाथ नराश्वकुञ्जरां-- स्तथा रथाङ्गैर्धनुषा च हन्त्यरीन्। प्रमृद्य पद्ध्यामहितांस्तु हन्ति पुनश्च दोर्भ्यां शतमन्युविक्रमः।। | 8-73-7a 8-73-7b 8-73-7c 8-73-7d |
महाबलो वैश्रवणान्तकोपमः प्रसह्य हर्ता द्विषतां यशांसि। स भीमसेनोऽर्हति गर्हणाय न त्वं नित्यं रक्ष्यमाणः सुहृद्भिः।। | 8-73-8a 8-73-8b 8-73-8c 8-73-8d |
कलिङ्गवङ्गाङ्गनिपादमागधा-- न्सदा महाशैलवलाहकोपमान्। निहन्ति यः शत्रुगणाननेकशः स मां हि वक्तुं प्रभवत्यमानगसम्।। | 8-73-9a 8-73-9b 8-73-9c 8-73-9d |
संयुक्तमास्थाय रथं हि काले धनुर्विधून्वञ्छरपूर्णमुष्टिः। सृजेच्च यो बाणसङ्घान्परेषु महाबलो मेघ इवाम्बुधाराः।। | 8-73-10a 8-73-10b 8-73-10c 8-73-10d |
शतान्यष्टौ वारणानामदर्शय-- द्विशातितैः कुम्भघटाग्रहस्तैः। यो भीमसेनो निहतारिसङ्घः स मामुपालब्धुमरिन्दमोऽर्हति।। | 8-73-11a 8-73-11b 8-73-11c 8-73-11d |
रथाश्च नागाश्च हयाश्च राज-- न्भीमेनाजौ निहताः सङ्घशोऽद्य। राजानश्च बहवो महाबलाः स मामुपालब्धुमरिन्दमोऽर्हति।। | 8-73-12a 8-73-12b 8-73-12c 8-73-12d |
धृतराष्ट्रपुत्रा बलिनश्च येन महाबला निहताः प्रायशो वै। शूरो युद्धे ह्यप्रतिवार्यवीर्यः स मामुपालब्धुमरिन्दमोऽर्हति।। | 8-73-13a 8-73-13b 8-73-13c 8-73-13d |
प्रतापयंस्तद्बलमुग्ररूपं योऽसौ रमे धार्तराष्ट्रस्य वीरः। एकः सहेताप्रतिसह्यपौरुष-- स्तेनास्मि वाच्यो न त्वया वै कदाचित्।। | 8-73-14a 8-73-14b 8-73-14c 8-73-14d |
महारथा यत्र यत्रैव युद्धे भिन्दन्ति सैन्यं तव कामतोऽद्य। तत्रैव तत्रैव रणे महात्मा दृढं भीमः परसङ्घानमृद्रात्।। | 8-73-15a 8-73-15b 8-73-15c 8-73-15d |
तेनास्मि वाच्यो न त्वया हं कदाचि-- न्मा मा वोचः क्रूरमिहाद्य पार्थ। नास्मद्विधो वै भवता तु वाच्यो यथा भवान्सर्वलोकस्य वाच्यः।। | 8-73-16a 8-73-16b 8-73-16c 8-73-16d |
एवं हि मा ते ब्रुवतो नरेन्द्र कथं न दीर्येच्छतधाऽद्य जिह्वा। अहो बतेदं सुनृशंसरूपं कामादवोचस्त्वमिहाद्य यद्वै।। | 8-73-17a 8-73-17b 8-73-17c 8-73-17d |
बलं न वाधिष्ठितं सत्तमानां यत्क्षत्रियाणां बहुलं वदन्ति। त्वं चाबलो भारत निष्ठुरोऽसि त्वमेव मां वेत्सि यथाविधोऽहम्।। | 8-73-18a 8-73-18b 8-73-18c 8-73-18d |
नकुलेन राजन्गजवाजियोधा हताश्च वीराः सहसा समेत्य। त्यक्त्वा प्राणान्समरे युद्धकाङ्क्षी स मामुपालब्धुमरिन्दमोऽर्हति।। | 8-73-19a 8-73-19b 8-73-19c 8-73-19d |
कृतं कर्म सहदेवेन दुष्करं यो युध्यते परसैन्यावमर्दी। न चाब्रवीत्किञ्चिदिहागतो बली पश्यान्तरं तस्य चेवात्मनश्च।। | 8-73-20a 8-73-20b 8-73-20c 8-73-20d |
धृष्टद्युम्नः सात्यकिर्द्रौपदेया युधामन्युश्चोत्तमौजाः शिखण्डी। एतेऽद्य युधि सम्प्रपीडिता-- स्ते मामुलपालब्धुमर्हन्ति न त्वम्।। | 8-73-21a 8-73-21b 8-73-21c 8-73-21d |
त्वन्मूलमस्माभिरिदं हि वैरं प्राप्तं तथा व्यसनं चातिघोरम्। द्यूप्रमत्तेन कृतं त्वयाऽसकृ-- त्कस्मादुपालब्धुमिहार्हसि त्वम्।। | 8-73-22a 8-73-22b 8-73-22c 8-73-22d |
त्वमेव राजन्सततं प्रमत्त-- स्त्वमेव मूढो भारतानामसाधुः। त्वां प्राप्य राज्यं च विनष्टमेत-- त्प्राप्ता महत्पाण्डवाश्चापि दास्यम्।। | 8-73-23a 8-73-23b 8-73-23c 8-73-23d |
त्वत्तः कृतोऽस्मकद्वनवासदुःखं राज्यस्य नाशो ह्यभिमन्योश्च घोरः। आत्मानमेवं सुनृशंसरूपं ज्ञात्वा किमर्थं गर्हसे माद्य वीर।। | 8-73-24a 8-73-24b 8-73-24c 8-73-24d |
लज्जस्व राजन्यदि तेऽस्ति लज्जा तूष्णीम्भूतः पश्य सर्वं कृतघ्नः। भीमो नित्यं समरस्य कर्ता दर्पस्य भेत्ता पुनरेव नित्यम्।। | 8-73-25a 8-73-25b 8-73-25c 8-73-25d |
स्वयं ह्यशक्तेन नरेन्द्र युद्धे नरेण कार्या सततं क्षमैव। बलं हि वाचि द्विजसत्तमानां क्षात्रं द्विजा बाहुबलं वदन्ति।। | 8-73-26a 8-73-26b 8-73-26c 8-73-26d |
त्वं वाग्बलो भारत निष्ठुरोऽसि त्वमेव मां वेत्सि यथाविधोऽहम्। घटामि नित्यं तव कर्तुमिष्टं दारैः सुतैर्जीवितेनात्मना च।। | 8-73-27a 8-73-27b 8-73-27c 8-73-27d |
एवञ्च मां वाक्छलाकैर्हिनत्सि त्वत्तः सुखं न वयं विद्म किञ्चित्। मा मामवंस्था द्रौपदीतल्पकसंस्थो महारथान्प्रतिहन्मि त्वदर्थे।। | 8-73-28a 8-73-28b 8-73-28c 8-73-28d |
सर्वातिशङ्की भवसि प्रमत्त-- स्त्वत्तः सुखं नाभिजानामि किञ्चित्। प्रोक्तः स्वयं सत्यसन्धेन मृत्यु-- स्तव प्रियार्थं नरदेव युद्धे।। | 8-73-29a 8-73-29b 8-73-29c 8-73-29d |
शिखण्डिनाम्ना प्रधने तवार्थे मयाभिगुप्तेन हतश्च भीष्मः। द्रोणो हतो यः सततोपकारी धृष्टद्युम्नेन स्यन्दनाद्विप्रकृष्टः।। | 8-73-30a 8-73-30b 8-73-30c 8-73-30d |
द्रौणिश्च रुद्धः सगणो महात्मा तथापि ते वै वचनं नृशंसवत्। दुःखं प्रियं ते नरदेव कर्तुं यस्य प्रियं ते न करोम्यहं वै।। | 8-73-31a 8-73-31b 8-73-31c 8-73-31d |
न युच्यते वै दिवि चेह यः पुमा-- न्यस्ते मदन्योऽप्रियमारभेत। न चाभिनन्दामि तथाहि राज्यं यतस्त्वमक्षेषु दृढं प्रसक्तः।। | 8-73-32a 8-73-32b 8-73-32c 8-73-32d |
स्वयं कृतं पापमनार्यजुष्ट-- मस्माभिराजौ व्यसनं तितीर्षसि।। अक्षेषु दोषा बहवो विधर्म्याः श्रुतास्त्वया सहदेवोऽब्रवीद्यान्।। | 8-73-33a 8-73-33b 8-73-33c 8-73-33d |
तान्नेच्छसि त्यक्तुमनार्यजुष्टा-- न्घोरे स्म सर्वे निरये त्वयाऽस्ताः। त्वं देविता त्वत्कृते राज्यनाशं-- स्त्वत्सम्भवं व्यसनं नो नरेन्द्र।। | 8-73-34a 8-73-34b 8-73-34c 8-73-34d |
मास्मान्क्रूरैर्षाक्प्रतोदैस्तुदस्त्वं भूयो राजन्कोपयस्यल्पबुद्ध्या।। | 8-73-35a 8-73-35b |
सञ्जय उवाच। | 8-73-36x |
एता वाचः परुषाः सव्यसाची स्थिरप्रतिज्ञः श्रावयित्वा नरेन्द्रम्। विनिः श्वसञ्ज्येष्ठमनिष्टमुक्त्वा ततस्तु कोशादसिमुद्वबर्ह।। | 8-73-36a 8-73-36b 8-73-36c 8-73-36d |
तमाह कृष्णः किमिदं पुनर्भवा-- न्विकोशमाकाशनिभं करोत्यसिम्। प्रब्रूहि सत्यं पुनरुत्तरं सखे वचः प्रवक्ष्याभि तवार्थसिद्धये।। | 8-73-37a 8-73-37b 8-73-37c 8-73-37d |
इतीव पृष्टः पुरुषोत्तमेन सुदुःखितः केशवमाह पार्थः। अहं हनिष्ये स्वशरीरमेत-- त्प्रसह्य येनाहितमुक्तवान्गुरुम्।। | 8-73-38a 8-73-38b 8-73-38c 8-73-38d |
निशम्य तत्पार्थवचोऽब्रवीदिदं जनार्दनो धर्मभृतां वरिष्ठः। प्रब्रूहि पार्थ स्वगुणानिहात्मन-- स्ततो हतात्मा भवसीति निश्चयः।। | 8-73-39a 8-73-39b 8-73-39c 8-73-39d |
तथा तु कृष्णस्य वचो निशम्य ततोऽर्जुनः प्राह धनुः प्रगृह्य। युधिष्ठिरं धर्मभृतां वरिष्ठं शृणुष्व राजन्निति दुर्वचः स्वयम्।। | 8-73-40a 8-73-40b 8-73-40c 8-73-40d |
अर्जुन उवाच। | 8-73-41x |
न मादृशोऽन्यो नरदेव विद्यते धनुर्धरो देवमृते पिनाकिनम्। अहं हि तेनानुमतो महात्मना क्षणेन हन्यां सचराचरं जगत्।। | 8-73-41a 8-73-41b 8-73-41c 8-73-41c |
मया हि राजन्सदिगीश्वरा दिशो विजित्य सर्वा भवतः कृता वशे। स राजसूयश्च समाप्तदक्षिणः सभा च दिव्या भवतो ममौजसा।। | 8-73-42a 8-73-42b 8-73-42c 8-73-42d |
पाणी पृषत्कालिखिताविमौ पुन-- र्धनुश्च सव्ये विततं सबाणम्। पादौ च मे लक्षणतः प्रशस्तौ न मादृशं युद्धगतं जयन्ति।। | 8-73-43a 8-73-43b 8-73-43c 8-73-43d |
हता उदीच्या निहताः प्रतीच्याः प्राच्या निरस्ता दाक्षिणात्या विशस्ताः। संशप्तकानां किञ्चिदेवावशिष्टं सर्वस्य लोकस्य हतं मयाऽर्धम्।। | 8-73-44a 8-73-44b 8-73-44c 8-73-44d |
शेते मया निहता शत्रुसेना छिन्नैर्गात्रैर्भूमितले स्खलन्ती। अनस्त्रज्ञान्नैव निहन्मि चास्त्रै-- स्तस्मान्न भस्मैव करोमि लोकान्।। | 8-73-45a 8-73-45b 8-73-45c 8-73-45d |
जैत्रं रथं भीममास्थाय कृष्ण यावच्छीघ्रं सूतपुत्रं निहन्तुम्। राजा भवत्वद्य सुनिर्वृतोऽयं कर्णं रणे नाशयितास्मि बाणैः।। | 8-73-46a 8-73-46b 8-73-46c 8-73-46d |
शरैरहत्वा कवचं विमोक्ष्ये।। | 8-73-47f |
सञ्जय उवाच। | 8-73-48x |
इत्येवमुक्त्वा पुनरेव पार्थो युधिष्ठिरं धर्मभृतां वरिष्ठम्। विमुच्य शस्त्राणि धनुर्विसृज्य कोशे च खङ्गं विनिधाय तूर्णम्।। | 8-73-48a 8-73-48b 8-73-48c 8-73-48d |
स व्रीडया नम्रशिराः किरीटी युधिष्ठिरं प्राञ्जलिरभ्युवाच। प्रसीद राजन्क्षम यन्मयोक्तं काले भवान्वेत्स्यति तन्नमस्ते।। | 8-73-49a 8-73-49b 8-73-49c 8-73-49d |
ततस्तु पादावुपगृह्य पार्थः समुत्थितो दीप्ततेजाः किरीटि। प्रसाद्य राजानममित्रसाहं स्थितोऽब्रवीच्चैनमभिप्रतप्तम्।। | 8-73-50a 8-73-50b 8-73-50c 8-73-50d |
याम्येष भीमं समराद्विमोक्तुं सर्वात्मना सूतपुत्रं च हन्तुम्। भवत्प्रियार्थं मम जीवितं हि ब्रवीमि सत्यं तदवेहि राजन्।। | 8-73-51a 8-73-51b 8-73-51c 8-73-51d |
नेदं चिरात्क्षिप्रमिदं भविष्य-- दावर्ततेऽसावभियामि चैनम्। अद्याप्यपुत्रा तेन हतेन राधा कुन्ती मया वा तदिदं विद्धि राजन्।। | 8-73-52a 8-73-52b 8-73-52c 8-73-52d |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।। 73 ।। |
8-73-29 सत्यसन्धेन भीष्मेण।। 8-73-73 त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-072 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-074 |