महाभारतम्-08-कर्णपर्व-067
दिखावट
← कर्णपर्व-066 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-067 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-068 → |
|
पार्थेनाश्वत्थाम्नि पराजिते कर्णेन भार्गवास्त्रप्रयोगात्पाण्डवसेनापीडनम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-67-1x |
द्रौणिस्तु रथवंशेन महता परिवारितः। अपतत्सहसा राजन्यत्र पार्थो व्यवस्थितः।। | 8-67-1a 8-67-1b |
तमापतन्तं सहसा शूरः शौरिसहायवान्। दधार समरे पार्थो वेलेव मकरालयम्।। | 8-67-2a 8-67-2b |
ततः क्रुद्धो महाराज द्रोणपुत्रः प्रतापवान्। अर्जुनं वासुदेवं च च्छादयामास सायकैः।। | 8-67-3a 8-67-3b |
अवच्छन्नौ ततः कृष्णौ दृष्ट्वा तत्र महारथाः। विस्मयं परमं गत्वा प्रैक्षन्त कुरवस्तदा।। | 8-67-4a 8-67-4b |
अर्जुनस्तु ततो दिव्यमस्त्रं चक्रे हसन्निव। तदस्त्रं वारयामास ब्राह्मणो युधि भारत।। | 8-67-5a 8-67-5b |
यद्यद्धि व्याक्षिपद्युद्धे फल्गुनोऽस्त्रं जिघांसया। तत्तदस्त्रैर्महेष्वासो द्रोणपुत्रो जघान ह।। | 8-67-6a 8-67-6b |
अस्त्रयुद्धे महाराज वर्तमाने महाभये। अपश्याम रणे द्रौणिं व्यात्ताननमिवान्तकम्।। | 8-67-7a 8-67-7b |
स दिशः प्रदिशश्चैव च्छादयित्वा ह्यजिह्मगैः। वासुदेवं त्रिभिर्बाणैरविध्यद्दक्षिणे भुजे।। | 8-67-8a 8-67-8b |
ततोऽर्जुनो रथान्सर्वान्हत्वा तस्य पदानुगान्। चकार समरे भूमिं शोणितौघपरिप्लुताम्। [सर्बलोकवहां रौद्रां परलोकवहां नदीम्]।। | 8-67-9a 8-67-9b 8-67-9c |
सरथा रथिनः पेतुः पार्थचापच्युतैः शरैः।। | 8-67-10a |
[द्रौणेरपहतान्सङ्खे ददृशु स च तां तथा। प्रावर्तयन्महाघोरां नदीं परवहां तदा।। | 8-67-11a 8-67-11b |
तयोस्तु व्याकुले युद्धे द्रौणेः पार्थस्य दारुणे। अमर्यादं योधयन्तः पर्यधावन्त पृष्ठतः।। | 8-67-12a 8-67-12b |
रथैर्हताश्वसूतैश्च हतारोहैश्च वाजिभिः। द्विरदैश्च हतारोहैर्महामात्रैर्हतद्विपैः।। | 8-67-13a 8-67-13b |
पार्थेन समरे राजन्कृतो घोरो जनक्षयः। निहता रथिनः पेतुः पार्थचापच्युतैः शरैः।।] | 8-67-14a 8-67-14b |
हयाश्च पर्यधावन्त मुक्तयोक्त्रास्ततस्ततः। तद्दृष्ट्वा कर्म पार्थस्य द्रौणिराहवशोभिनः।। | 8-67-15a 8-67-15b |
अर्जुनं जयतां श्रेष्ठं त्वरितोऽभ्येत्य वीर्यवान्। विधुन्वानो महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम्।। | 8-67-16a 8-67-16b |
अवाकिरत्ततो द्रौमिः समन्तान्निशितैः शरैः। भूयोऽर्जुनं महाराज द्रौणिरायम्य पत्रिणा।। | 8-67-17a 8-67-17b |
वक्षोदेशे भृशं पार्थं ताडयामास निर्दयम्। सोऽतिविद्धो रणे तेन द्रोणपुत्रेण भारत।। | 8-67-18a 8-67-18b |
गाण्डीवधन्वा प्रसभं शरवर्षैरुदारधीः। सञ्छाद्य समरे द्रौणिं चिच्छेदास्य च कार्मुकम्।। | 8-67-19a 8-67-19b |
स च्छिन्नधन्वा परिधं वज्रस्पर्शसमं युधि। आदाय चिक्षेप तदा द्रोणपुत्रः किरीटिने।। | 8-67-20a 8-67-20b |
तमापन्ततं परिघं जाम्बूनदपरिष्कृतम्। चिच्छेद सहसा राजन्प्रहसन्निव पाण्डवः।। | 8-67-21a 8-67-21b |
स पपात तदा भूमौ निकृत्तः पार्थसायकैः। विकीर्णः पर्वतो राजन्यथा वज्रेण ताडितः।। | 8-67-22a 8-67-22b |
ततः क्रुद्धो महाराज द्रोणपुत्रो महारथः। ऐन्द्रेण चास्त्रवेगेन बीभत्सुं समवाकिरत्।। | 8-67-23a 8-67-23b |
तस्येन्द्रजालावततं समीक्ष्य पार्थो राजन्गाण्डिवमाददे सः। ऐन्द्रं जालं प्रत्यहरत्तरस्वी वरास्त्रमादाय महेन्द्रसृष्टम्।। | 8-67-24a 8-67-24b 8-67-24c 8-67-24d |
विदार्य तज्जालमथेन्द्रमुक्तं पार्थस्ततो द्रौणिरथं क्षणेन। प्रच्छादयामास ततोऽभ्युपेत्य द्रौणिस्तदा पार्थशराभिभूतः।। | 8-67-25a 8-67-25b 8-67-25c 8-67-25d |
विगाह्य तां पाण्डवबाणवृष्टिं शरैः परं नाम ततः प्रकाश्य। शतेन कृष्णं सहसाभ्यविद्ध्या-- त्त्रिभिः शतैरर्जुनं क्षुद्रकाणाम्।। | 8-67-26a 8-67-26b 8-67-26c 8-67-26d |
ततोऽर्जुनः सायकानां शतेन गुरोः सुतं मर्मसु निर्बिभेद। अश्वांश्च सूतं च तथा धनुर्ज्या-- मवाकिरत्पश्यतां तावकानाम्।। | 8-67-27a 8-67-27b 8-67-27c 8-67-27d |
स विद्ध्वा मर्मसु द्रौणिं पाण्डवः परवीरहा। सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत्।। | 8-67-28a 8-67-28b |
स सङ्गृह्य स्वयं वाहान्कृष्णौ प्राच्छदयच्छरैः। तत्राद्भुतमपरश्याम द्रौणेराशु पराक्रमम्।। | 8-67-29a 8-67-29b |
संयच्छंस्तुरगान्यच्च फल्गुनं चाप्ययोधयत्। तदस्य समरे राजन्सर्वभूतान्यपूजयन्।। | 8-67-30a 8-67-30b |
`तेनास्य समरे योधास्तुष्टुवुः सर्व एव ते। यदा निजगृहे पार्थो द्रोणपुत्रेण धन्विना।। | 8-67-31a 8-67-31b |
तदा प्रहस्य बीभस्तुर्द्रोणपुत्रस्य संयुगे। क्षिप्रं रश्मीनथाश्वानां क्षुरप्रैश्चिच्छिदे जयः।। | 8-67-32a 8-67-32b |
प्राद्रवंस्तुरगास्तस्य शरवेगप्रपीडिताः। ततोऽभून्निनदो घोरस्तव सैन्यस्य भारत।। | 8-67-33a 8-67-33b |
पाण्डवास्तु जयं लब्ध्वा तव सैन्यं समाद्रवन्। समन्तान्निशितान्बाणान्विमुञ्चन्तो जयैषिणः।। | 8-67-34a 8-67-34b |
तावकी चतुरङ्गैषा पाण्डवैस्तु महाचमूः। पुनःपुनरथो वीरैः प्रभग्ना जितकाशिभिः।। | 8-67-35a 8-67-35b |
पश्यतां ते महाराज पुत्राणां चित्रयोधिनाम्। शकुनेः सौबलेयस्य कर्णस्य च विशाम्पते।। | 8-67-36a 8-67-36b |
वार्यमाणा महासेना पुत्रैस्तव जनेश्वर। न चातिष्ठत सङ्ग्रामे पीड्यमाना समन्ततः।। | 8-67-37a 8-67-37b |
ततो योधैर्महाराज पलायद्भिः समन्ततः। अभवद्य्वाकुलं भीतं पुत्राणां ते महद्बलम्।। | 8-67-38a 8-67-38b |
तिष्ठतिष्ठेति सततं सूतपुत्रस्य जल्पतः। नावतिष्ठति सा सेना वध्यमाना महात्मभिः।। | 8-67-39a 8-67-39b |
अथोत्क्रुष्टं महाराज पाण्डवैर्जितकाशिभिः। धार्तराष्ट्रबलं दृष्ट्वा विद्रुतं वै समन्ततः।। | 8-67-40a 8-67-40b |
ततो दुर्योधनः कर्णमब्रवीत्प्रणयादिव। पश्य कर्ण महासेनां पाण्डवैरर्दितां भृशम्।। | 8-67-41a 8-67-41b |
त्वयि तिष्ठति सन्त्रासात्समन्तात्प्रपलायते। एतज्ज्ञत्वा महाबाहो कुरु प्राप्तमरिन्दम।। | 8-67-42a 8-67-42b |
सहस्राणि च योधानां त्वामेव पुरुषोत्तम। क्रोशन्ते समरे वीर द्राव्यमाणानि पाण्डवैः।। | 8-67-43a 8-67-43b |
सञ्जय उवाच। | 8-67-44x |
एतच्छ्रुत्वा तु राधेयो दुर्योधनवचो महत्। मद्रराजमिदं वाक्यमब्रवीत्प्रहसन्निव।। | 8-67-44a 8-67-44b |
पश्य मे भुजयोर्वीर्यमस्त्राणां च जनेश्वर। अद्य हन्मि रणे सर्वान्पाञ्चालान्पाण्डुभिः सह।। | 8-67-45a 8-67-45b |
वाहयाश्वान्नरव्याघ्र मद्राधिप न संशयः। एवमुक्त्वा महाराज सूतपुत्रः प्रतापवान्।। | 8-67-46a 8-67-46b |
प्रगृह्य विजयं वीरो धनुःश्रेष्ठं पुरातनम्। सज्यं कृत्वा महाराज सम्मृज्य च पुनः पुनः।। | 8-67-47a 8-67-47b |
सन्निवार्य च तान्योधान्सत्येन शपथेन च। प्रायोजयदमेयात्मा भार्गवास्त्रं महाबलः।। | 8-67-48a 8-67-48b |
तस्माद्राजन्सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च। कोटिशश्च शरास्तीक्ष्णा निरगच्छन्महामृधे।। | 8-67-49a 8-67-49b |
ज्वलितैस्तैः शरैर्घोरैः कङ्कबर्हिणवाजितैः। सञ्चन्ना पाण्डवी सेना न प्राज्ञायत किञ्चन।। | 8-67-50a 8-67-50b |
हाहाकारो महानासीत्पाण्डवानां विशाम्पते। पीडितानां बलवता भार्गवास्त्रेण संयुगे।। | 8-67-51a 8-67-51b |
निपतद्भिर्गजै राजन्नश्वैश्चापि सहस्रशः। रथैश्चापि नरव्याघ्र नरैश्चैव समन्ततः।। | 8-67-52a 8-67-52b |
प्राकम्पत मही राजन्निहतैस्तैः समन्ततः। व्याकुलं सर्वमभवत्पाण्डवानां महद्बलम्।। | 8-67-53a 8-67-53b |
कर्णस्त्वेको युधां श्रेष्ठो विधूम इव पावकः। दहञ्शत्रून्नरव्याघ्रः शुशुभे स परन्तपः।। | 8-67-54a 8-67-54b |
ते वध्यमानाः कर्णेन पाञ्चालाश्चेदिभिः सह। तत्र तत्र व्यमुह्यन्त वनदाहे यथा द्विपाः।। | 8-67-55a 8-67-55b |
चुक्रुशुश्च नरव्याघ्र यथाप्राणं नरोत्तमाः। तेषां तु क्रोशतां दीनं भीतानां रणमूर्धनि।। | 8-67-56a 8-67-56b |
धावतां च ततो राजंस्त्रस्तानां च समन्ततः। | 8-67-57a 8-67-57b |
वध्यमानांस्तु तान्दृष्ट्वा सूतपुत्रेण मारिष।। वित्रेसुः सर्वभूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि।। | 8-67-58a 8-67-58b |
ते वध्यमाताः समरे सूतपुत्रेण सृञ्जयाः। अर्जुनं वासुदेवं च क्रोशन्ति च मुहुर्मुहुः। प्रेतराजपुरे यद्वत्प्रेतराजं विचेतसः।। | 8-67-59a 8-67-59b 8-67-59c |
श्रुत्वा तु निनदं तेषां वध्यतां कर्णसायकैः। अथाब्रवीद्वासुदेवं कुन्तीपुत्रो धऩञ्जयः। भार्गवास्त्रं महाघोरं दृष्ट्वा तत्र समीरितम्।। | 8-67-60a 8-67-60b 8-67-60c |
पश्य कृष्ण महाबाहो भार्गवास्त्रस्य विक्रमम्। नैतदस्त्रं हि समरे शक्यं हन्तुं कथञ्चन।। | 8-67-61a 8-67-61b |
सूतपुत्रं च संरब्धं पश्य कृष्ण महारणे। अन्तकप्रतिमं वीर्ये कुर्वाणं कर्म दारुणम्।। | 8-67-62a 8-67-62b |
अभीक्ष्णं चोदयन्नश्वान्प्रेक्षते मां मुहुर्मुहुः। नच शक्ष्यामि कर्णस्य संयुगेऽहं पलायितुम्।। | 8-67-63a 8-67-63b |
जीवन्प्राप्नोति पुरुषः सङ्ख्ये जयपराजयौ। मृतस्य तु हृपीकेश भङ्ग एव कुतो जयः।। | 8-67-64a 8-67-64b |
एष कर्णो रणे भाति मध्याह्न इव भास्करः। निवर्तय रथं कृष्ण जीवन्भद्राणि पश्यति।। | 8-67-65a 8-67-65b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तद्वशदिवसयुद्धे सप्तषष्टितमोऽध्यायः।। 67 ।। |
कर्णपर्व-066 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-068 |