सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-08-कर्णपर्व-075

विकिस्रोतः तः
← कर्णपर्व-074 महाभारतम्
अष्टमपर्व
महाभारतम्-08-कर्णपर्व-075
वेदव्यासः
कर्णपर्व-076 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101

अर्जुनेन स्वावमानितस्य युधिष्ठिरस्य प्रसादनम्।। 1 ।।
अर्जुनेन युधिष्टिराग्रे कर्णवधप्रतिज्ञानम्।। 2 ।।

सञ्जय उवाच। 8-75-1x
इति स्म कृष्णवचनात्प्रत्युच्चार्य युधिष्ठिरम्।
बभूव विमनाः पार्थः किञ्चित्कृत्वेव पातकम्।।
8-75-1a
8-75-1b
ततोऽब्रवीद्वासुदेवः प्रहसन्निव पाण्डवम्।
कथं नाम भवेदेतद्यदि त्वं पार्थ धर्मजम्।।
8-75-2a
8-75-2b
असिना तीक्ष्णधारणे हन्या धर्मे व्यस्थितम्।
त्वमित्युक्त्वाथ राजानमेवं कश्मलमाविशः।।
8-75-3a
8-75-3b
हत्वा तु नृपतिं पार्थ करिष्यसि किमुत्तरम्।
एवं हि दुर्विदो धर्मो मन्दप्रज्ञैर्विशेषतः।।
8-75-4a
8-75-4b
स भवान्धर्मभीरुत्वाद्धवं यायान्महत्तमः।
नरकं घोररूपं च भ्रातुर्ज्येतुस्य वै वथात्।।
8-75-5a
8-75-5b
स त्वं धर्मभृतां श्रेष्ठं राजानं धर्मसंहितम्।
प्रसादय कुरुश्रेष्ठमेतदत्र मतं मम।।
8-75-6a
8-75-6b
प्रसाद्य भक्त्या राजानं प्रीते चैव युधिष्ठिरे।
प्रयावस्त्वरितौ योद्धुं सूतपुत्ररथं प्रति।।
8-75-7a
8-75-7b
हत्वा तु समरे कर्णं त्वमद्य निशितैः शरैः।
विपुलां प्रीतिमाधत्स्व धर्मपुत्रस्य मानद।।
8-75-8a
8-75-8b
एतदत्र महाबाहो प्राप्तकालं मतं मम।
एवं कृते कृतं चैव तव कार्यं भविष्यति।।
8-75-9a
8-75-9b
सञ्जय उवाच। 8-75-10x
ततोऽर्जुनो महाराज लज्जपा वै समन्वितः।
धर्तराजस्य चरणौ प्रपद्य शिरसा नतः।।
8-75-10a
8-75-10b
उवाच भरतश्रेष्ठं प्रसीदेति पुनः पुनः।
क्षमस्व राजन्यत्प्रोक्तस्त्वं मया धर्मभीरुणा।।
8-75-11a
8-75-11b
पादयोः पतितं दृष्ट्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
धनञ्जयममित्रघ्नं रुदन्तं भरतर्षभम्।।
8-75-12a
8-75-12b
उत्थाप्य भ्रातरं राजा धर्मराजो धनञ्जयम्।
समाश्लिष्य च सस्नेहं प्ररुरोद महीपतिः।।
8-75-13a
8-75-13b
रुदित्वा सुचिरं कालं भ्रातरौ सुमहाद्युती।
कृतशौचौ महाराज प्रीतिमन्तौ बभूवतुः।।
8-75-14a
8-75-14b
तत आश्लिष्य तं प्रेम्णा मूर्ध्नि चाघ्राय पाण्डवः।
प्रीत्या परमया युक्तो विस्मयंश्च पुनःपुनः।
अब्रवीत्तं महेष्वासं धर्मराजो धनञ्जयम्।।
8-75-15a
8-75-15b
8-75-15c
कर्णेन मे महाबाहो सर्वसैन्यस्य पश्यतः।
कवचं च ध्वजं चैव धनुः शक्तिर्हयाः शराः।
शरैः कृत्ता महेष्वास यतमानस्य संयुगे।।
8-75-16a
8-75-16b
8-75-16c
सोऽहं दृष्ट्वा रणे तस्य कर्ण कर्णस्य फल्गुन।
व्यवसीदामि दुःखेन न तु मे जीवितं प्रियम्।।
8-75-17a
8-75-17b
न चेदद्य हि तं वीरं निहनिष्यसि संयुगे।
प्राणानेव परित्यक्ष्ये जीवितार्थो हि को मम।।
8-75-18a
8-75-18b
एवमुक्तः प्रत्युवाच विजयो भरतर्षभ।। 8-75-19a
सत्येन ते शपे राजंस्त्वत्पादेन तथैव च।
भीमेन च नरश्रेष्ठ यमाभ्यां च महीपते।।
8-75-20a
8-75-20b
`अहमेनं नरश्रेष्ठ सामात्यं च महीपते'।
यथाद्य समरे कर्णं हनिष्यामि हतोपि वा।
महीतले पतिष्यामि सत्येनायुधमालभे।।
8-75-21a
8-75-21b
8-75-21c
एवमाभाष्य राजानमब्रवीन्माधवं वचः।
अद्य कर्णं रणे कृष्ण सूदयिष्ये न संशयः।
त्वमनुध्याहि भद्रं ते वधं तस्य दुरात्मनः।।
8-75-22a
8-75-22b
8-75-22c
एवमुक्तोऽब्रवीत्पार्थं केशवो राजसत्तम।
शक्तोऽसि भरतश्रेष्ठ यत्नं कर्तुं यदात्थ माम्।।
8-75-23a
8-75-23b
एष चापि हि मे कामो नित्यमेव महारथ।
कथं भवान्रणे कर्णं निहन्यादिति सत्तम।।
8-75-24a
8-75-24b
एवमुक्तस्ततो राजन्पार्थो वचनमब्रवीत्।
हन्यते द्वैरथे भूयो युज्यन्तां वै रथोत्तमे।।
8-75-25a
8-75-25b
उपावृत्ताश्च तुरगाः शिक्षिताश्चाश्वसादिभिः।
रथोपकरणैः सर्वैः सत्वरं यातु मे रथः।।
8-75-26a
8-75-26b
एवमुक्तो महाराज फल्गुनेन महात्मना।
उवाच दारुकं कृष्णः कुरु सर्वं यदब्रवीत्।
अर्जुनो भारतश्रेष्ठः श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम्।।
8-75-27a
8-75-27b
8-75-27c
आज्ञप्तस्त्वथ कृष्णेन दारुको राजसत्तम।
योजयामास च रथं वैयाघ्नं शत्रुतापनम्।
सज्जं निवेदयामास पाण्डवस्य महात्मनः।।
8-75-28a
8-75-28b
8-75-28c
युक्तं तु रथमास्थाय दारुकेण महात्मना।
उपस्थितं रथं दृष्ट्वा पद्मनाभो रणान्तकृत्।
भूयश्चोवाच मतिमान्माधवो धर्मनन्दनम्।।
8-75-29a
8-75-29b
8-75-29c
युधिष्ठिरेमं बीभत्सुं त्वं सान्त्वयितुमर्हसि।
अनुज्ञातुं च कर्णस्य वधायाद्य दुरात्मनः।।
8-75-30a
8-75-30b
श्रुत्वा ह्यावां महासंख्ये त्वां कर्णशरपीडितम्।
प्रवृत्तिं ज्ञातुमायाताविहावां पाण्डुनन्दन।।
8-75-31a
8-75-31b
दिष्ट्यासि राजन्विरुजो दिष्ट्या न ग्रहणं गतः।
परिसान्त्वय बीभत्सुं जयमाशाधि चानघ।।
8-75-32a
8-75-32b
युधिष्ठिर उवाच। 8-75-33x
एह्येहि पार्थ बीभत्सो मां परिष्वज पाण्डव।
वक्तव्यमुक्तोस्म्यहितं त्वया क्षान्तं च तन्मया।।
8-75-33a
8-75-33b
अहं त्वामनुजानामि जहि कर्णं धनञ्जय।
मन्युं च मा कृथाः पार्थ यन्मयोक्तोऽसि दारुणं।।
8-75-34a
8-75-34b
सञ्जय उवाच। 8-75-35x
ततो धनञ्जयो राजञ्शिरसा प्रणतस्तदा।
पादौ जग्राह पाणिभ्यां भ्रातुर्ज्येष्ठस्य मारिष।।
8-75-35a
8-75-35b
तमुत्थाप्य ततो राजा परिष्वज्य च पीडितम्।
मूर्ध्नुपाघ्राय चैवैनमिदं पुनरुवाच ह।।
8-75-36a
8-75-36b
धनञ्जय महाबाहो मानितोऽस्मि दृढं त्वया।
माहात्म्यं विजयं चैवं भूयः प्राप्नुहि शाश्वतम्।।
8-75-37a
8-75-37b
अर्जुन उवाच। 8-75-38x
अद्य तं पापकर्माणं सानुबन्धं रणे शरैः।
नयाम्यन्तं समासाद्य राधेयं बलगर्वितम्।।
8-75-38a
8-75-38b
येन त्वं पीडितो बाणैर्दृढमायम्य कार्मुकम्।
तस्याद्य कर्मणः कर्णः फलमाप्स्यति दारुणम्।।
8-75-39a
8-75-39b
अद्य त्वामुपयास्यामि कर्णं हत्वा महीपते।
सभाजये त्वामाक्रन्दादिति सत्यं ब्रवीमि ते।।
8-75-40a
8-75-40b
नाहत्वा विनिषर्तिष्ये कर्णमद्य रणाजिरात्।
इति सत्येन ते पादौ स्पृशामि जगतीपते।।
8-75-41a
8-75-41b
सञ्जय उवाच। 8-75-42x
इति ब्रुवाणं सुमनाः किरीटिनं
युधिष्ठिरः प्राह वचो बृहत्तरम्।
यशोऽक्षयं जीवितमीप्सितं ते
जयं सदा वीर्यमरिक्षयं तदा।।
8-75-42a
8-75-42b
8-75-42c
8-75-42d
प्रयाहि वृद्धिं च दिशन्तु देवता
यथाहमिच्छामि तवास्तु तत्तथा।
प्रयाहि शीघ्रं जहि कर्णमाहवे
पुरन्दरो वृत्रमिवात्मवृद्वये।।
8-75-43a
8-75-43b
8-75-43c
8-75-43d
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
सप्तदशदिवसयुद्धे पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः।। 75 ।।
कर्णपर्व-074 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-076