महाभारतम्-08-कर्णपर्व-086
दिखावट
← कर्णपर्व-085 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-086 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-087 → |
|
सङ्कलयुद्धम्।। 1 ।।
भीमदुःशासनयोः समागमः संवादश्च।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-86-1x |
ततः कर्णः कुरुषु प्रद्रुतेषु वरूथिना श्वेतहयेन राजन्। पाञ्चालपुत्रान्व्यधमत्सूतपुत्रो महेषुमिर्वात इवाभ्रसङ्घान्।। | 8-86-1a 8-86-1b 8-86-1c 8-86-1d |
सूतं रथादञ्जलिकैर्निपात्य जघान चाश्वाञ्जनमेजयस्य। शतानीकं सुतसोमं च भल्लै-- रवाकिरद्धनुषी चाप्यकृन्तत्।। | 8-86-2a 8-86-2b 8-86-2c 8-86-2d |
धृष्टद्युम्नं निर्बिभेदाथ षड्भि-- र्जघानाश्वान्दक्षिणांस्तस्य सङ्ख्ये। हत्वा चाश्वान्सात्यकेः सूतपुत्रः कैकेयपुत्रं न्यवधीद्विशोकम्।। | 8-86-3a 8-86-3b 8-86-3c 8-86-3d |
तमभ्यधावन्निहते कुमारे सेनापतिः कैकयो मित्रवर्मा। शरैर्विधुन्वन्भृशमुग्रवेगैः कर्णात्मजं चाप्यहनत्सुदेवम्।। | 8-86-4a 8-86-4b 8-86-4c 8-86-4d |
तस्यार्धचन्द्रैस्त्रिभिरुच्चकर्त प्रहस्य बाहू च शिरश्च कर्णः। स स्यन्दनाद्गामगमद्गतासुः परश्वथैः साल इवावरुग्णः।। | 8-86-5a 8-86-5b 8-86-5c 8-86-5d |
हताश्वमञ्जोगमिभिः सुषेणः शिनिप्रवीरं निशितैः पृषत्कैः। प्रच्छाद्य नृत्यन्निव कर्णपुत्रः शैनेयबाणाभिहतः पपात।। | 8-86-6a 8-86-6b 8-86-6c 8-86-6d |
पुत्रे हते क्रोधपरीतयेताः कर्णः शिनीनां प्रवरं जिघांसुः। हतोऽसि हे सात्यक इत्युदीर्य व्यवासृजद्बाणममित्रसाहम्।। | 8-86-7a 8-86-7b 8-86-7c 8-86-7d |
तमस्य चिच्छेद शरं शिखण्डी त्रिभिस्त्रिभिश्च प्रतुतोद कर्णम्। शिखण्डिनः कार्मुकं च ध्वजं च च्छित्त्वा क्षुराभ्यां न्यहनत्सुजातः।। | 8-86-8a 8-86-8b 8-86-8c 8-86-8d |
शिखण्डिनं षड्भिरविध्यदुग्रो धार्ष्टद्युम्नेः स शिरश्चोच्चकर्त। ततोऽभिनत्सुतसोमं क्षुरेण सुसञ्झितेनाधिरथिर्महात्मा।। | 8-86-9a 8-86-9b 8-86-9c 8-86-9d |
अथाक्रन्दे तुमुले वर्तमाने धार्ष्टद्युम्ने निहते तत्र कृष्णः। अपाञ्चाल्यं क्रियते याहि पार्थ कर्णं जहीलाब्रवीद्राजसिंह।। | 8-86-10a 8-86-10b 8-86-10c 8-86-10d |
ततः प्रहस्याशु नरप्रवीरो रथं रथेनाधिरथेर्जगाम। भये तेषां त्राणमिच्छन्सुबाहु-- रभ्याहतानां रथयूथपेन।। | 8-86-11a 8-86-11b 8-86-11c 8-86-11d |
ततोऽपरे भारत दुष्प्रकम्प्याः पाञ्चालानां रथसङ्घाः समेताः। प्रतिश्रिता ह्यन्तरिक्षे ग्रहाभा धनुःप्रवीरास्तु रथप्रवीराः।। | 8-86-12a 8-86-12b 8-86-12c 8-86-12d |
विस्फार्य गाण्डीवमथोग्रघोषं ज्यया समाहत्य तले भृशं च। बाणान्धकारं सहसैव कृत्वा जघान नागाश्वरथध्वजांश्च।। | 8-86-13a 8-86-13b 8-86-13c 8-86-13d |
[प्रतिश्रुतः प्राचरदन्तरिक्षे गुहा गिरीणामपतन्वयांसि। यन्मण्डलज्येन विजृम्भमाणो रौद्रे मुहूर्तेऽभ्यपतत्किरीटी।।] | 8-86-14a 8-86-14b 8-86-14c 8-86-14d |
तं भीमसेनोऽनुययौ रथेन पृष्ठे रक्षन्पाण्डवमेकवीरः। तौ राजपुत्रौ त्वरितौ रथाभ्यां कर्णाय यातावरिभिर्विषक्तौ।। | 8-86-15a 8-86-15b 8-86-15c 8-86-15d |
तत्रान्तरे सुमहान्सूतपुत्र-- श्चक्रे युद्धं सोमकान्सम्प्रमथ्य। रथाश्वमातङ्गणाञ्जघान प्रच्छादयामास शरैर्दिशश्च।। | 8-86-16a 8-86-16b 8-86-16c 8-86-16d |
तमुत्तमौजा जनमेजयश्च क्रुद्धौ युधामन्युशिखण्डिनौ च। कर्णं बिभेदुः सहिताः पृषत्कैः सन्नर्दमानाः सह पार्षतेन।। | 8-86-17a 8-86-17b 8-86-17c 8-86-17d |
ते पञ्च पाञ्चालरथाः समेता वैकर्तनं कर्णमभिद्रवन्तः। तस्माद्रथाच्च्यावयितुं न शेकु-- र्धैर्यात्कृतात्मानमिवेन्द्रियार्थाः।। | 8-86-18a 8-86-18b 8-86-18c 8-86-18d |
तेषां धनूंषि ध्वजवाजिसूतां-- स्तूर्णं पताकाश्च निकृत्य बाणैः। तान्पाञ्चालानभ्यहनत्पृवत्कैः कर्णस्ततः सिंह इवोन्ननाद।। | 8-86-19a 8-86-19b 8-86-19c 8-86-19d |
तस्यास्यतस्तानभिनिघ्नतश्च ज्याबाणहस्तस्य धनुःस्वेनन। साद्रिद्रुमा स्यात्पृथिवी विशीर्णे-- त्यतीव मत्वा जनता व्यपीदत्।। | 8-86-20a 8-86-20b 8-86-20c 8-86-20d |
स शक्रचापप्रतिमेन धन्वना भृशायतेनाधिरथिः शरान्सृजन्। बभौ रणे दीप्तमरीचिमण्डलो यथांशुमाली परिवेषवांस्तथा।। | 8-86-21a 8-86-21b 8-86-21c 8-86-21d |
शिखण्डिनं द्वादशभिः पराभिन-- च्छितैः शरैः षड्भिरथोत्तमौजसम्। त्रिभिर्युधामन्युमविध्यदाशुगै-- स्त्रिभिस्त्रिभिः सोमकपार्षतात्मजौ।। | 8-86-22a 8-86-22b 8-86-22c 8-86-22d |
पराजिताः पञ्च महारथास्तु ते महाहवे सूतसुतेन मारिष। निरुद्यमास्तस्थुरमित्रनन्दना यथेन्द्रियार्थात्मवता पराजिताः।। | 8-86-23a 8-86-23b 8-86-23c 8-86-23d |
निमज्जतस्तानथ कर्णसागरे विपन्ननावो वणिजो यथार्णवे। उद्दध्रिरे नौभिरिवार्णवाद्रथैः सुकल्पितैर्द्रौपदिजाः स्वमातुलान्।। | 8-86-24a 8-86-24b 8-86-24c 8-86-24d |
ततः शिनीनामृषभः शितैः शरै-- र्निकृत्य कर्णप्रहितानिषून्वहून्। विदार्य कर्णं निशितैरयस्मयै-- स्तवात्मजं ज्येष्ठमविध्यदष्टमिः।। | 8-86-25a 8-86-25b 8-86-25c 8-86-25d |
कृपोऽथ भोजश्च तवात्मजस्तथा स्वयं च कर्णो निशितैरताडयत्। स तैश्चतुर्भिर्युयुधे यदूत्तमो दिगीश्वरैर्दैत्यपतिर्यथा तथा।। | 8-86-26a 8-86-26b 8-86-26c 8-86-26d |
समाततेनेष्वसनेन कूजता महास्वनेनाशनिपातदीधितिः। बभूव दुर्धर्षतरः स सात्यकिः शरन्नभोमध्यगतो यथा रविः।। | 8-86-27a 8-86-27b 8-86-27c 8-86-27d |
पुनः समास्थाय रथान्सुदंशिताः शिनिप्रवीरं जुगुपुः परन्तपाः। समेत्य पाञ्चालमहारथा रणे मरुद्रणाः शक्रमिवारिनिग्रहे।। | 8-86-28a 8-86-28b 8-86-28c 8-86-28d |
ततोऽभवद्युद्धमतीव दारुणं तवाहितानां तव सैनिकैः सह। रथाश्वमातङ्गविनाशनं तथा यथा सुराणामसुरैः पुराऽभवत्।। | 8-86-29a 8-86-29b 8-86-29c 8-86-29d |
रथा द्विपा वाजिपदातयस्तथा भ्रमन्ति नानाविधशस्त्रवेष्टिताः। परस्परेणाभिहताश्च चस्खलु-- र्विनेदुरार्ता व्यसवोऽपतंस्तथा।। | 8-86-30a 8-86-30b 8-86-30c 8-86-30d |
तथागतं भीममभीस्तवात्मजः ससार राजावरजः किरञ्शरैः। तमभ्यधावत्त्वरितो वृकोदरो महारुरुं सिंह इवाभिपेदिवान्।। | 8-86-31a 8-86-31b 8-86-31c 8-86-31d |
ततस्तयोर्युद्धमतीव दारुणं प्रदीव्यतोः प्राणदुरोदरं द्वयोः। परस्परेणाभिनिविष्टरोषयो-- रुदग्रयोः शम्बरशक्रयोर्यथा।। | 8-86-32a 8-86-32b 8-86-32c 8-86-32d |
शरैः शरीरार्तिकरैः सुतेजनै-- र्निजघ्नतुस्तावितरेतरं भृशम्। सकृत्प्रभिन्नाविव वासितान्तरे महागजौ दोर्भिरदीनघातिनौ।। | 8-86-33a 8-86-33b 8-86-33c 8-86-33d |
आलोक्य तौ चैव परस्परं ततः समं च शूरौ च ससारथी तदा। भीमोऽब्रवीद्याहि दुःशासनाय दुःशासनो याहि वृकोदराय।। | 8-86-34a 8-86-34b 8-86-34c 8-86-34d |
तयो रथौ सारथिसम्प्रचोदितौ समं रथौ तौ महसा समीयतुः। नानायुधच्छत्रपताकिकाध्वजौ दिवीव पूर्वं बलशक्रयो रणे।। | 8-86-35a 8-86-35b 8-86-35c 8-86-35d |
भीम उवाच। | 8-86-36x |
दिष्ट्याऽसि दुःशासन अद्य दृष्टः क्षणं प्रतीच्छे सहवृद्धि मूलम्। चिरोदितं यन्मया ते सभायां कृष्णाभिमर्शेन गृहाण मत्तः।। | 8-86-36a 8-86-36b 8-86-36c 8-86-36d |
स एवमुक्तस्तु ततो महात्मा दुःशासनो वाक्यमुवाच वीरः। सर्वं स्मरन्नेव विसंस्मरामि उदीर्यमाणं शृणु भीमसेन।। | 8-86-37a 8-86-37b 8-86-37c 8-86-37d |
स्मरामि चात्मप्रभवं चिराय यज्जातुषे वेश्मनि रात्र्यहानि। विश्वासहीना मृगयां चरन्तो वसन्ति सर्वत्र निराकृतास्तु।। | 8-86-38a 8-86-38b 8-86-38c 8-86-38d |
महाभयं रात्र्यहानि स्मरन्त-- स्तथोपभोगाच्च सुखाच्च हीनाः। वनेष्वटन्तो गिरिगह्वराणि पाञ्चालराजस्य पुरं प्रविष्टाः।। | 8-86-39a 8-86-39b 8-86-39c 8-86-39d |
मायां यूयं कामपि सम्प्रविष्टा यतो वृतः कृष्णया फल्गुनो वः। संभूय पापैस्तदनार्यवृत्तं कृतं तदा मातृकृतानुरूपम्।। | 8-86-40a 8-86-40b 8-86-40c 8-86-40d |
एका वृता पञ्चभिः साभिपन्ना। ह्यलज्जमानेश्च परस्परस्य। स्मरे सभायां सुबलात्मजेन दासीकृता यत्सह कृष्णया च।। | 8-86-41a 8-86-41b 8-86-41c 8-86-41d |
सञ्जय उवाच। | 8-86-42x |
इत्येवमुक्तस्तु तवात्मजेन पाण्डोः सुतः कोपवशं भृशं धनुः क्षुराभ्यां ध्वजमेव चाच्छिनत्। ललाटमप्यस्य बिभेद पत्रिणा | 8-86-42a 8-86-42b 8-86-42c 8-86-42d |
शिरश्च कायात्प्रजहार सारथेः।। स राजपुत्रोऽन्यदवाप्य कार्मुकं वृकोदरं द्वादशभिः पराभिनत्। स्वयं नियच्छंस्तुरगानजिह्मगैः | 8-86-43a 8-86-43b 8-86-43c 8-86-43d |
शरैश्च भीमं पुनरप्यवीवृषत्।। | 8-86-44a |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे षडशीतितमोऽध्यायः।। 86 ।। |
8-86-14 प्रतिश्रुतः प्रतिस्वनः।। 8-86-86 षडशीतितमोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-085 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-087 |