महाभारतम्-08-कर्णपर्व-098
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पार्थाय धर्मानुवादकं कर्णंम्प्रति कृष्णेन तत्कृतदुष्कृतानुस्मारणपूर्वकं मर्मोद्धाटनम्।। 1 ।। कर्णेन स्वबाणाहतिनिर्विण्णेऽर्जुने तदन्तरे रथादवरुह्य तच्चक्रोद्धरणोद्यमः।। 2 ।। तदन्तरे कृष्णचोदनया पार्थेन कर्णशिरश्छेदः।। 3 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-98-1x |
अथाब्रवीद्वासुदेवो महात्मा राधेय दिष्ट्या स्मरसीह धर्मम्। `धर्मे हि बद्धा सततं हि पार्था-- स्तेभ्यस्ततो वृद्धिसौ ददाति।। | 8-98-1a 8-98-1b 8-98-1c 8-98-1d |
धर्मादपेताः परिपन्थिनस्ते तस्माद्गता वै कुरवो विनाशम्'। प्रायेण नीचा व्यसनेषु मग्ना निन्दन्ति दैवं न तु दुष्कृतं स्वम्।। | 8-98-2a 8-98-2b 8-98-2c 8-98-2d |
कृष्णां सभां कर्ण यदेकवस्त्रा-- मानीतवांस्त्वं च सुयोधनश्च। दुःशासनः शकुनिः सौबलश्च। धर्मस्तदा ते रुचितो न कस्मात्।। | 8-98-3a 8-98-3b 8-98-3c 8-98-3d |
यदा सभायां राजानमनक्षज्ञं युधिष्ठिरम्। आनीय जितवन्तो वै क्व ते धर्मस्तदा गतः।। | 8-98-4a 8-98-4b |
वनवासे व्यतीते च कर्ण वर्षे त्रयोदशे। न प्रयच्छसि यद्राज्यं क्व ते धर्मस्तदा गतः।। | 8-98-5a 8-98-5b |
यद्भीमसेनं सर्पैश्च विषयुक्तैश्च भोजनैः। आचरत्त्वन्मते राजा क्व ते धर्मस्तदा गतः।। | 8-98-6a 8-98-6b |
यद्वारणावते पार्थान्सुप्ताञ्जतुगृहे तदा। हन्तुकामास्तदा यूयं क्व ते धर्मस्तदा गतः।। | 8-98-7a 8-98-7b |
यदा रजस्वलां कृष्णां दुःशासनवशे स्थिताम्। सभायां प्राहसः कर्ण क्व ते धर्मस्तदा गतः।। | 8-98-8a 8-98-8b |
यदनार्यैः पुरा कृष्णां क्लिश्यमानामनागसम्। उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।। | 8-98-9a 8-98-9b |
विनष्टाः पाण्डवाः कृष्णे शाश्वतं नरकं गताः। पतिमन्यं वृणीष्वेति वदंस्त्वं गजगामिनीम्। उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।। | 8-98-10a 8-98-10b 8-98-10c |
राज्यलुब्धः पुनः कर्ण समाह्वयसि पाण्डवान्। यदा शकुनिमाश्रित्य क्व ते धर्मस्तदा गतः।। | 8-98-11a 8-98-11b |
यदाऽभिमन्युं बहवो युद्धे जघ्नुर्महारथाः। परिवार्य रणे बालं क्व ते धर्मस्तदा गतः।। | 8-98-12a 8-98-12b |
[यद्येष धर्मस्तत्र न विद्यते हि किं सर्वथा तालुविशोषणेन। अद्येह धर्म्याणि विधत्स्व सूत तथापि जीवन्न विमोक्ष्यसे हि।। | 8-98-13a 8-98-13b 8-98-13c 8-98-13d |
नलो ह्यक्षैर्निर्जितः पुष्करेण पुनर्यशो राज्यमवाप वीर्यात्। प्राप्तास्तथा पाण्डवा बाहुवीर्या-- त्सर्वैः समेताः परिवृत्तलोभाः।। | 8-98-14a 8-98-14b 8-98-14c 8-98-14d |
निहत्य शत्रून्समरे प्रवृद्धा-- न्ससोमका राज्यमवाप्नुयुस्ते। तथा गता धार्तराष्ट्रा विनाशं धर्माभिगुप्तैः सततं नृसिंहैः]।। | 8-98-15a 8-98-15b 8-98-15c 8-98-15d |
सञ्जय उवाच। | 8-98-16x |
एवमुक्तस्तदा कर्णो वासुदेवेन भारत। लज्जयावनतो भूत्वा नोत्तरं किञ्चिदुक्तवान्।। | 8-98-16a 8-98-16b |
क्रोधात्प्रस्फुरमाणौष्ठो धनुरुद्यम्य भारत। योधयामास वै पार्थं महावेगपराक्रमः।। | 8-98-17a 8-98-17b |
ततोऽब्रवीद्वासुदेवः फल्गुनं पुरुषर्षभम्। दिव्यास्त्रेणैव निर्भिद्य पातयस्व महाबल।। | 8-98-18a 8-98-18b |
एवमुक्तस्तु देवेन क्रोधमागात्तदाऽर्जुनः। मन्युमभ्याविशद्धोरं स्मृत्वा तत्तु धनञ्जयः।। | 8-98-19a 8-98-19b |
तस्य क्रुद्धस्य सर्वेभ्यः स्रोतोभ्यस्तेजसोऽर्चिषः। प्रादुरासंस्तदा राजंस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 8-98-20a 8-98-20b |
तत्समीक्ष्य ततः कर्णो ब्रह्मास्त्रेण धनञ्जयम्। अभ्यवर्षत्पुनर्यत्नमकरोद्रथसर्जने।। | 8-98-21a 8-98-21b |
ब्रह्मास्त्रेणव तं पार्थो कवर्ष शरवृष्टिभिः। तदस्त्रमस्त्रेणावार्य प्रजहार च पाण्डवः।। | 8-98-22a 8-98-22b |
ततोऽन्यदस्त्रं कौन्तेयो दयितं जातवेदसः। मुमोच कर्णमुद्दिश्य तत्प्रजज्वाल तेजसा।। | 8-98-23a 8-98-23b |
वारुणेन ततः कर्णः शमयामास पावक्रम्। जीमूतैश्च दिशः सर्वाश्चक्रे तिमिरदुर्दिनाः।। | 8-98-24a 8-98-24b |
पाण्डवेयस्त्वसम्भ्रान्तो वायव्यास्त्रेण वीर्यवान्। अपोवाह तदाऽभ्राणि राधेयस्य प्रपश्यतः।। | 8-98-25a 8-98-25b |
[ततः शरं महाघोरं ज्वलन्तिमिव पावकम्। आददे पाण्डुपुत्रस्य सूतपुत्रो जिघांसया।। | 8-98-26a 8-98-26b |
योज्यमाने ततस्तस्मिन्बाणे धनुषि पूजिते। चचाल पृथिवी राजन्सशैलवनकानना।। | 8-98-27a 8-98-27b |
ववौ सशर्करो वायुर्दिशश्च रजसा वृताः। हाहाकारश्च संवज्ञे सुराणां दिवि भारत।। | 8-98-28a 8-98-28b |
तमिगुं सन्धितं दृष्ट्वा सूतपुत्रेण मारिष। विषादं परमं जग्मुः पाण्डवा दीनचेतसः।। | 8-98-29a 8-98-29b |
स सायकः कर्णभुजप्रमुक्तः शक्राशनिग्रख्यरुचिः शिताग्रः। मुलान्तरं प्राप्य धनञ्जयस्य विवेश वल्मीकमिवोरमोत्तमः।। | 8-98-30a 8-98-30b 8-98-30c 8-98-30d |
स राढविद्धः समरे महात्मा विधूर्णमानः श्लथहस्तगाण्डिवः। चचाल वीभत्सुरमित्रमर्दनः क्षितेः प्रकम्पे च यथाऽचलोत्तमः।। | 8-98-31a 8-98-31b 8-98-31c 8-98-31d |
तदन्तरं प्राप्य वृषो महारथो रथाङ्गसुर्वीगतमुज्जिहीर्षुः। रथादवप्लुत्य निगृह्य दोर्भ्यां शशाक दैवान्न महाबलोऽपि।। | 8-98-32a 8-98-32b 8-98-32c 8-98-32d |
ततः किरीटि प्रतिलभ्य संज्ञां जग्राह बाणं यमदण्डकल्पम्। ततोऽर्जुनः प्राञ्जलिकं महात्मा ततोऽब्रवीद्वासुदेवोऽपि पार्थम्।। | 8-98-33a 8-98-33b 8-98-33c 8-98-33d |
महारथे रथचक्रे विमग्ने।। | 8-98-34f |
तं हस्तिकक्षाप्रवरं सुकेतुं सुवर्णमुक्तामणिवज्रजुष्टम्। कलाप्रकृष्टोत्तमशिल्पियत्नैः कृतं सुरूपं तपनीयचित्रम्।। | 8-98-35a 8-98-35b 8-98-35c 8-98-35d |
जयास्पदं तव सैन्यस्य नित्य--- ममित्रवित्रासनमीड्यरूपम्। विख्यातमादित्यसुतस्य लोके त्विषा समं पावकभानुचन्द्रैः।। | 8-98-36a 8-98-36b 8-98-36c 8-98-36d |
ततः क्षुरप्रेण सुसंशितेन सुवर्णपुङ्खेन हुताग्निवर्चसा। श्रिया ज्वलन्तं ध्वजमुन्ममाथ महारथस्याधिरथेः किरीटी।। | 8-98-37a 8-98-37b 8-98-37c 8-98-37d |
यशश्च दर्पश्च तथा प्रियाणि सर्वाणि कार्याणि च तेन केतुना। साकं कुरूणां हृदयानि चापतन् बभूव हाहेति च निःस्वनो महान्।। | 8-98-38a 8-98-38b 8-98-38c 8-98-38d |
द्वष्ट्वा ध्वजं पातितमाशुकारिणा कुरुप्रवीरेण निकृत्तमाहवे। नाशंसिरे सूतपुत्रस्य सर्वे जयं तदा भारत ये त्वदीयाः।। | 8-98-39a 8-98-39b 8-98-39c 8-98-39d |
अथ त्वरन्कर्णवधाय पार्थो महेद्रवज्रानलदण्डसन्निभम्। आदत्त चाथाञ्जलिकं निषङ्गा-- त्सहस्ररश्मेरिव रश्मिमुत्तमम्।। | 8-98-40a 8-98-40b 8-98-40c 8-98-40d |
मर्मच्छिदं शोणितमांसदिग्धं वैश्वानरार्कप्रतिमं महार्हम्। नराश्वनागासुहरं त्र्यरत्निं षड्वाजमञ्जोगतिमुग्रवेगम्।। | 8-98-41a 8-98-41b 8-98-41c 8-98-41d |
सहस्रनेत्राशनितुल्यवीर्यं कालानलं व्यात्तमिवातिघोरम्। पिनाकनारायणचक्रसन्निभं भयङ्करं प्राणभृतां विनाशनम्।। | 8-98-42a 8-98-42b 8-98-42c 8-98-42d |
जग्राह पार्थः स शरं प्रहृष्टो यो देवसङ्घैरपि दुर्निवार्यः। सम्पूजितो यः सततं महात्मा देवासुरान्यो विजयेन्महेषुः।। | 8-98-43a 8-98-43b 8-98-43c 8-98-43d |
तं वै प्रमृष्टं प्रसमीक्ष्य युद्धे चचाल सर्वं सचराचरं जगत्। कृत्स्नं जगत्स्वस्त्यृषयोऽभिचक्रु-- स्तमुद्यतं प्रेक्ष्य महाहवेषुम्।। | 8-98-44a 8-98-44b 8-98-44c 8-98-44d |
ततस्तु तं वै शरमप्रमेयं गाण्डीवधन्वा धनुषि व्ययोजयत्। युक्त्वा महास्त्रेण परेण चापं विकृष्य गाण्डीवमुवाच सत्वरम्।। | 8-98-45a 8-98-45b 8-98-45c 8-98-45d |
अयं हास्त्रप्रहितो महाशरः शरीरहृच्चासुहरश्च दुर्हृदः। तपोऽस्ति तप्तं गुरवश्च तोषिता मया यदीष्टं सुहुतं यदि श्रुतम्।। | 8-98-46a 8-98-46b 8-98-46c 8-98-46d |
अनेन सत्येन निहन्त्वयं शरः सुसंहितः कर्णमरिं ममोर्जितम्। इत्यूचिवांस्तं प्रमुमोच बाणं धनञ्जयः कर्णवधाय घोरम्।। | 8-98-47a 8-98-47b 8-98-47c 8-98-47d |
कृत्या ह्यथर्वाङ्गिरसी प्रचोदिता यथा तथा त्वं जहि शात्रवं मम। ब्रुवन्किरीटी तमतिप्रहृष्टो-- ऽसृजद्देवानां जयहेतुं महेषुम्।। | 8-98-48a 8-98-48b 8-98-48c 8-98-48d |
जिघांसुरर्केन्दुसमप्रभावः कर्णं वशी पाण्डवः क्षिप्रकारी। ततो विमुक्तो बलिना महेषुः प्रज्वालयामास नभो दिशश्च।। | 8-98-49a 8-98-49b 8-98-49c 8-98-49d |
सैन्यान्यनेकानि च विप्रमोह्य गाण्डीवमुक्तेन ततो महात्मा। तेनार्जुनस्तन्महनीयमस्य शिरोऽहरत्सूतपुत्रस्य राजन्।। | 8-98-50a 8-98-50b 8-98-50c 8-98-50d |
कायश्च पश्चाद्धरणीं जगाम।। | 8-98-51f |
तदुद्यतादित्यसमानतेजसं शरन्नभोमध्यगभास्करोपमम्। वराङ्गमुर्व्यामपतच्चमुमूखे दिवाकरोऽस्तादिव रक्तमण्डलः।। | 8-98-52a 8-98-52b 8-98-52c 8-98-52d |
ततोऽस्य देहं सततं सुखैधितं सुरूपमत्यर्थसुखं सुगन्धि च। परेण कृच्छ्रेण शिरः समत्यज-- द्गृहं महर्धीन्निवसन्निवेश्वरः।। | 8-98-53a 8-98-53b 8-98-53c 8-98-53d |
शरैर्विभिन्नं व्यसु तत्सुवर्चसः पपात कर्णस्य शरीमुच्छ्रितम्। स्रवद्व्रणं गैरिकतोयविस्रवं गिरेर्यथा वज्रहतं महाशिरः।। | 8-98-54a 8-98-54b 8-98-54c 8-98-54d |
देहाच्च कर्णस्य निपातितस्य तेजः सूर्यं खं वितत्याविवेश। तदद्भुतं सर्वमनुष्ययोधाः संदृष्टवन्तो निहते स्म कर्णे।। | 8-98-55a 8-98-55b 8-98-55c 8-98-55d |
ततः शङ्खान्पाण्डवा दध्मुरुच्चै-- र्दृष्ट्वा कर्णं पातितं फल्गुनेन। तथैव कृष्णश्च धनञ्जयश्च हष्टौ यमौ दध्मतुर्वारिजातौ।। | 8-98-56a 8-98-56b 8-98-56c 8-98-56d |
तं सोमकाः प्रेक्ष्य हतं शयानं सैन्यैः सार्धं सिंहनादान्प्रचक्रुः। तूर्याणि सञ्जघ्नुरतीव हृष्टा वासांसि चैवादुधुवुर्भुजांश्च।। | 8-98-57a 8-98-57b 8-98-57c 8-98-57d |
संवर्धयन्तश्च नरेन्द्र योधाः पार्थं समाजग्मुरतीव हृष्टाः। बलान्विताश्चापरे ह्यप्यनृत्य-- न्नन्योन्यमाश्लिष्य नदन्त ऊचुः।। | 8-98-58a 8-98-58b 8-98-58c 8-98-58d |
दृष्ट्वा तु कर्णं भुवि वा विपन्नं कृत्तं रथात्सायकैरर्जुनस्य। महानिलेनाद्रिमिवापविद्वं यज्ञावसानेऽग्निमिव प्रशान्तम्।। | 8-98-59a 8-98-59b 8-98-59c 8-98-59d |
तदाननं सूर्यसुतस्य राज-- न्विभ्राजते पद्मिवावनालम्। रराज कर्णस्य शिरो निकृत्त-- मस्तंगतं भास्करस्येव बिम्बम्।। | 8-98-60a 8-98-60b 8-98-60c 8-98-60d |
शरैराचितसर्वाङ्गः शोणितौघपरिप्लुतः। रराज देहः कर्णस्य स्वरश्मिभिरिवांशुमान्।। | 8-98-61a 8-98-61b |
प्रताप्य सेनामामित्रीं दीप्तैः शरगभस्तिभिः। बलिनार्जुनकालेन नीतोऽस्तं कर्णभास्करः।। | 8-98-62a 8-98-62b |
अस्तं गच्छन्यथाऽदित्यः प्रभामादाय गच्छति। तथा जीवितमाहाय कर्णस्येषुर्जगाम सः।। | 8-98-63a 8-98-63b |
अपराह्णेऽपराह्णस्य सूतपुत्रस्य मारिष। छिन्नमञ्जलिकेनाजौ सोत्सेधमपतच्छिरः।। | 8-98-64a 8-98-64b |
उपर्युपरि सैन्यानां विनिघ्नन्नितराञ्जनान्। शिरः कर्णस्य सोऽत्सेधमिषुः सोप्यहरद्द्रुतम्।। | 8-98-65a 8-98-65b |
कर्णं तु शूरं पतितं पृथिव्यां शराचितं शोणितदिग्धगात्रम्। दृष्ट्वा शयानं भुवि मद्रराज-- श्छिन्नध्वजेनाथ ययौ रथेन।। | 8-98-66a 8-98-66b 8-98-66c 8-98-66d |
हते कर्णे कुरवः प्राद्रवन्त भयार्दिता गाढविद्धाश्च सङ्ख्ये। अवेक्षमाणा मुहुरर्जुनस्य ध्वजं महान्तं वपुषा ज्वलन्तम्।। | 8-98-67a 8-98-67b 8-98-67c 8-98-67d |
तच्छिरो भरतश्रेष्ठ शोभयामास मेदिनीम्। यदृच्छयेव पतितं मण्डलं चाण्डदीधितेः।। | 8-98-68a 8-98-68b |
तं दृष्ट्वा समरविमर्द (बद्ध) लब्धनिद्रं दष्टोष्ठं रुधिरपीरतकातराक्षम्। राधेयं रथवरपृष्ठसन्निषण्णं हीनांशुर्दिवसकरो मुहूर्तमासीत्।। | 8-98-69a 8-98-69b 8-98-69c 8-98-69d |
निःशब्दतूर्यं हतयोधमुख्यं प्रशान्तदर्पं धृतराष्ट्रसैन्यम्। न शोभते सूर्यसुतेन हीनं वृन्दं ग्रहाणामिव चन्द्रहीनम्।। | 8-98-70a 8-98-70b 8-98-70c 8-98-70d |
सहस्रनेत्रप्रतिमानकर्मणः सहस्रपत्रप्रतिमाननं शुभम्। सहस्ररश्मिर्दिवसक्षये यथा तथाऽपतत्कर्णशिरो वसुन्धराम्।। | 8-98-71a 8-98-71b 8-98-71c 8-98-71d |
व्यूढोरस्कं कमलवदनं तप्तहेमावभासं कर्णं दृष्ट्वा भुवि निपतितं पार्थबाणाभितप्तम्। पांसुग्रस्तं मलिनमसकृत्पुत्रमन्वीक्षमाणो मन्दम्मन्दं व्रजति सविता मन्दिरं मन्दरश्मिः।। | 8-98-72a 8-98-72b 8-98-72c 8-98-72d |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे अष्टनवतितमोऽध्यायः।। 98 ।। |
8-98-64 अपराह्णे दिवसस्य पश्चिमे भागे। अपरं चरमम् अहः मरणदिनं यस्य।। 8-98-98 अष्टनवतितमोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-097 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-099 |