महाभारतम्-08-कर्णपर्व-012
दिखावट
← कर्णपर्व-011 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-012 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-013 → |
|
भीमाश्वत्थाम्नोर्युद्धम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-12-1x |
भीमसेनं ततो द्रौणी राजन्विव्याध पत्रिणा। परया त्वरया युक्तो दर्शयन्नस्त्रलाघवम्।। | 8-12-1a 8-12-1b |
अथैनं पुनराजघ्ने नवत्या निशितैः शरैः। सर्वमर्माणि सम्प्रेक्ष्य मर्मज्ञो लघुहस्तवत्।। | 8-12-2a 8-12-2b |
भीमसेनः समाकीर्णो द्रौणिना निशितैः शरैः। रराज समरे राजन्रश्मिवानिव भास्करः।। | 8-12-3a 8-12-3b |
ततः शरसहस्रेण सुप्रयुक्तेन पाण्डवः। द्रोणपुत्रमवच्छाद्य सिंहनादममुञ्चत।। | 8-12-4a 8-12-4b |
शरैः सरांस्ततो द्रौणिः संवार्य युधि पाण्डवम्। ललाटेऽभ्याहनद्राजन्नाराचेन स्मयन्निव।। | 8-12-5a 8-12-5b |
ललाटस्थं ततो बाणं धारयामास पाण्डवः। यथा शृङ्गं वने दृप्तः खङ्गो धारयते नृप।। | 8-12-6a 8-12-6b |
ततो द्रौणिं रणे भीमो यतमानं पराक्रमी। त्रिभिर्विव्याध नाराचैर्ललाटे विस्मयन्निव।। | 8-12-7a 8-12-7b |
ललाटस्थैस्ततो बाणैर्ब्राह्मणोऽसौ व्यशोभत। प्रावृषीव यथा सिक्तस्त्रिशृङ्गः पर्वतोत्तमः।। | 8-12-8a 8-12-8b |
ततः शरशतैर्द्रौणिरर्दयामास पाण्डवम्। न चैनं कम्पयामास मातरिश्वेव पर्वतम्।। | 8-12-9a 8-12-9b |
तथैव पांण्डवो युद्धे द्रौणिं शरशतैः शितैः। नाकम्पयत संहृष्टो वार्योध इव पर्वतम्।। | 8-12-10a 8-12-10b |
तावन्योन्यं शरैर्घोरैश्छादयानौ महारथौ। रथवर्यगतौ वीरौ शुशुभाते बलोत्कटौ।। | 8-12-11a 8-12-11b |
आदित्याविव सन्दीप्तौ लोकक्षयकरावुभौ। स्वरश्मिभिरिवान्योन्यं तापयन्तौ शरोत्तमैः।। | 8-12-12a 8-12-12b |
ततः प्रविकृते यत्नं कुर्वाणौ तौ महारणे। कृतप्रतिकृते यत्तौ शरसङ्घैरभीतवत्।। | 8-12-13a 8-12-13b |
व्याघ्राविव च सङ्ग्रामे चेरतुस्तौ नरोत्तमौ। शरदंष्ट्रौ दुराधर्षौ चापवक्रौ भयङ्करौ।। | 8-12-14a 8-12-14b |
अभूतां तावदृश्यौ च शरजालैः समन्ततः। मेघजालैरिव च्छनौ गगने चन्द्रभास्करौ।। | 8-12-15a 8-12-15b |
चकाशेते मुहूर्तेन ततस्तावप्यरिन्दमौ। विमुक्तावभ्रजालेन अङ्गारकबुधाविव।। | 8-12-16a 8-12-16b |
अथ तत्रैव सङ्ग्रमे वर्तमाने सुदारुणे। अपसव्यं ततश्चक्रे द्रौणिस्तत्र वृकोदरम्।। | 8-12-17a 8-12-17b |
किरञ्छरशतैरुग्रैर्धाराभिरिव पर्वतम्। न तु तन्ममृषे भीमः शत्रोर्विजलक्षणम्।। | 8-12-18a 8-12-18b |
प्रतिचक्रे ततो राजन्पाण्डवोऽप्यपसव्यतः। मण्डलानां विभागेन गतप्रत्यागतेन च।। | 8-12-19a 8-12-19b |
बभूव तुमुलं युद्धं तयोः पुरुषसिंहयोः। चरित्वा विविधान्मार्गान्मण्डलस्थानमेव च।। | 8-12-20a 8-12-20b |
शरैः पूर्णायतोत्सृष्टैरन्योन्यमभिजघ्नतुः। अन्योन्यस्य वधे चैव चक्रतुर्यत्नमुत्तमम्।। | 8-12-21a 8-12-21b |
ईषतुर्विरथं चैव कर्तुमन्योन्यमाहवे। ततो द्रौणिर्महास्त्राणि प्रादुश्चक्रे महारथः।। | 8-12-22a 8-12-22b |
तान्यस्त्रैरेव समरे प्रतिजघ्नेऽथ पाण्डवः। ततो घोरं महाराज अस्त्रयुद्धमवर्तत।। | 8-12-23a 8-12-23b |
ग्रहयुद्वं यथा घोरं प्रजासंहरणे ह्यभूत्। ते वाणाः समसज्जन्त मुक्तास्ताभ्यां तु भारत।। | 8-12-24a 8-12-24b |
द्योतग्रन्तो दिशः सर्वास्तव सैन्यं समन्ततः। बाणसङ्घैर्वृतं घोरमाकाशं समपद्यत।। | 8-12-25a 8-12-25b |
उल्कापातावृतं युद्धं प्रजानां संक्षये नृप। बाणाभिघातात्सञ्जज्ञे तत्र भारत पावकः।। | 8-12-26a 8-12-26b |
सविस्फुलिङ्गो दीप्तार्चिर्योऽदहद्वाहिनीद्वयम्। तत्र सिद्धा महाराज सम्पतन्तोऽब्रुवन्वचः।। | 8-12-27a 8-12-27b |
युद्धानामति सर्वेषां युद्धमेतदिति प्रभो। सर्वयुद्धानि चैतस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। | 8-12-28a 8-12-28b |
नेदृशं च पुनर्युद्धं भविष्यति कदाचन। अहो ज्ञानेन सम्पन्नावुभ ब्राह्मणक्षत्रियौ।। | 8-12-29a 8-12-29b |
अहो शौर्येण सम्पन्नावुभौ चोग्रपराक्रमौ। अहो भीमबलो भीम एतस्य च कृतास्त्रता।। | 8-12-30a 8-12-30b |
अहो वीर्यस्य सारत्वमहो सौष्ठवमेतयोः। स्थितावेतौ हि समरे कालान्तकयमोपमौ।। | 8-12-31a 8-12-31b |
रुद्रौ द्वावि सम्भूतौ यथा द्वाविव भास्करौ। यमौ वा पुरुषव्याघ्रौ घोररूपावुभौ रणे।। | 8-12-32a 8-12-32b |
इति वाचः स्म श्रूयन्ते सिद्धानां वै मुहुर्मुहुः। सिंहनादश्च सञ्जज्ञे समेतानां दिवौकसाम्।। | 8-12-33a 8-12-33b |
अद्भुतं चाप्यचिन्त्यं च दृष्ट्वा कर्म तयो रणे। सिद्वचारणसङ्घानां विस्मयः समपद्यत।। | 8-12-34a 8-12-34b |
प्रशंसन्ति तदा देवाः सिद्वाश्च परमर्षयः। साधु द्रौणे महाबाहो साधु भीमेति चाब्रुवन्।। | 8-12-35a 8-12-35b |
तौ शूरौ समरे राजन्परस्परकृतागसौ। परस्परमुदीक्षेतां क्रोधादुद्वृत्य चक्षुषी।। | 8-12-36a 8-12-36b |
क्रोधरक्तेक्षणौ तौ तु क्रोधात्प्रस्फुरिताधरौ। क्रोधात्संदष्टदशनौ तथैव दशनच्छदौ।। | 8-12-37a 8-12-37b |
अन्योन्यं छादयन्तौ स्म शरवृष्ट्या महारथौ। शराम्बुधारो समरे शस्त्रविद्युत्प्रकाशिनौ।। | 8-12-38a 8-12-38b |
तावन्यन्यं ध्वजं विद्व्वा सारथिं च महारणे। अन्योन्यस्य हयान्विद्वा बिभिदाते परस्परम्।। | 8-12-39a 8-12-39b |
ततः क्रुद्धौ महाराज बाणौ गृह्य महाहवे। उभौ चिक्षिपतुस्तूर्ममन्योन्यस्य वधैषिणौ।। | 8-12-40a 8-12-40b |
तौ सायकौ महाराज द्योतमानौ चमूमुखे। आजघ्नतुः समासाद्य वज्रवेगौ दुरासदौ।। | 8-12-41a 8-12-41b |
तौ परस्परवेगाच्च शराभ्यां च भृशाहतौ। निपेततुर्महावीर्यौ रथोपस्थे तयोस्तदा।। | 8-12-42a 8-12-42b |
ततस्तु सारथिर्ज्ञात्वा द्रोणपुत्रमचेतनम्। अपोवाह रणाद्राजन्सर्वसैन्यस्य पश्यतः।। | 8-12-43a 8-12-43b |
तथैव पाण्डवं राजन्विह्वलन्तं मुहुर्मुहुः। अपोवाह रथेनाजौ विशोकः शत्रुतापनम्।। | 8-12-44a 8-12-44b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि षोडशदिवसयुद्धे द्वादशोऽध्यायः।। 12 ।। |
8-12-6 खङ्गः पण्डकः।। 8-12-13 कृतप्रतिकृते अन्योन्यास्नप्रतिघाते।। 8-12-22 ईषतुः इच्छां चक्रतुः।। 8-12-26 उत्कानामन्योन्या भिमुखं पातास्तैरावृतमिवेति लुप्तोपमा।। 8-12-37 तथैव दशनच्छदौ क्रोधात्सन्दष्टोष्टौ।। 8-12-12 द्वादशोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-011 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-013 |