महाभारतम्-08-कर्णपर्व-005
दिखावट
← कर्णपर्व-004 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-005 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-006 → |
|
धृतराष्ट्रेण कर्णगुणानुवर्णनपूर्वकं शोचनम्।। 1 ।।
जनमेजय उवाच। | 8-5-1x |
श्रुत्वा कर्णं हतं युद्वे पुत्रांश्चैव पलायिनः। नरेन्द्रः किञ्चिदाश्वस्तो द्विजश्रेष्ठ किमब्रवीत्।। | 8-5-1a 8-5-1b |
प्राप्तवान्परमं दुःखं पुत्रव्यसनजं महत्। तस्मिन्यदुक्तवान्काले तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः।। | 8-5-2a 8-5-2b |
वैशम्पायन उवाच। | 8-5-3x |
श्रुत्वा कर्णस्य निधनमश्रद्वेयमिवाद्भुतम्। भूतसम्मोहनं भीमं मेरोः संसर्पणं यथा।। | 8-5-3a 8-5-3b |
चित्तमोहमिवायुक्तं भार्गवस्य महामतेः। पराजयमिवेन्द्रस्य द्विषद्ध्यो भीमकर्मणः।। | 8-5-4a 8-5-4b |
दिवः प्रपतनं भानोरुरव्यामिव महाद्युतेः। संशोषणमिवाचिन्त्यं समुद्रस्याक्षयाम्भसः।। | 8-5-5a 8-5-5b |
महीवियद्दिगम्बूनां सर्वनाशमिवाद्भुतम्। कर्मणोरिव वैफल्यमुभयोः पुण्यपापयोः।। | 8-5-6a 8-5-6b |
सञ्चिन्त्य निपुणं बुद्ध्या धृतराष्ट्रो जनेश्वरः। नेदमस्तीति सञ्चिन्त्य कर्णस्य समरे वधम्।। | 8-5-7a 8-5-7b |
प्राणिनामेवमात्मत्वात्स्यादपीति विचार्य च। शोकाग्निना दह्यमानो धम्यमान इवाशये।। | 8-5-8a 8-5-8b |
विस्रस्ताङ्गः श्वसन्दीनो हाहेत्युक्त्वा सुदुःखितः। विललाप महाराज धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः।। | 8-5-9a 8-5-9b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 8-5-10x |
सञ्जयाधिरथिर्वीरः सिंहद्विरदविक्रमः। वृषभप्रतिमस्कन्धो वृषभाक्षगतिस्वरः।। | 8-5-10a 8-5-10b |
वृषभो वृषभस्येव यो युद्धे न निवर्तते। शत्रोरपि महेन्द्रस्य वज्रसंहननो युवा।। | 8-5-11a 8-5-11b |
यस्य ज्यातलशब्देन शरवृष्टिरवेण च। रथाश्वनरमातङ्गा नावतिष्ठन्ति संयुगे।। | 8-5-12a 8-5-12b |
यमाश्रित्य महाबाहुं द्विषत्सङ्घघ्नमच्युतम्। दुर्योधनोऽकरोद्वैरं पाण्डुपुत्रैर्महारथैः।। | 8-5-13a 8-5-13b |
स कथं रथिनां श्रेष्ठः कर्णः पार्थेन संयुगे। निहतः पुरुषव्याघ्रः प्रसह्यासह्यविक्रमः।। | 8-5-14a 8-5-14b |
यो नामन्यत वै नित्यमच्युतं च धनञ्जयम्। न वृष्मीन्सहितानन्यान्स्वबाहुबलदर्पितः।। | 8-5-15a 8-5-15b |
शार्ङ्गगाण्डीवधन्वानौ सहितावपराजितौ। अहं दिव्याद्रथादेकः पातयिष्यामि संयुगे।। | 8-5-16a 8-5-16b |
इति यः सततं मन्दमवोचल्लोभमोहितम्। दुर्योधनमवाचीनं राज्यकामुकमातुरम्।। | 8-5-17a 8-5-17b |
योऽजयत्सर्वकाम्भोजानावन्त्यान्केकयैः सह। गान्धारान्मद्रकान्मात्स्यांस्त्रिगर्तांस्तङ्कणाञ्शकान्। | 8-5-18a 8-5-18b |
पाञ्चालांश्च विदेहांश्च कुलिन्दान्काशिकोसलान् सूह्मानङ्गांश्च वङ्गांश्च निषादान्पुण्ड्रकीकटान्।। | 8-5-19a 8-5-19b |
वत्सान्कलिङ्गान्दरदानश्मकानृषिकानपि। `शबरान्हारहूणांश्च प्रघूणान्सरलानपि।। | 8-5-20a 8-5-20b |
म्लेच्छराष्ट्राधिपांश्चैव दुर्गानाटविकांस्तथा'। जित्वैतान्समरे वीरः प्रदीप्तैः कङ्कपत्रिभिः।। | 8-5-21a 8-5-21b |
करमाहारयामास जित्वा सर्वानरींस्तथा। दुर्योधनस्य वृद्ध्यर्थं राधेयो रथिनां वरः। दिव्यास्त्रविमन्हातेजाः कर्णो वैकर्तनो वृषः।। | 8-5-22a 8-5-22b 8-5-22c |
सेनागोपश्च स कथं शत्रुभिः परमास्त्रवित्। घातितः पाण्डवैः शूरैः समरे वीर्यशालिभिः।। | 8-5-23a 8-5-23b |
वृषो महेन्द्रो देवेषु वृषः कर्णो नरेष्वपि। तृतीयमन्यं लोकेषु वृषं नैवानुशुश्रुम।। | 8-5-24a 8-5-24b |
उच्चैः श्रवा वरोऽश्वानां राज्ञां वैश्रवणो वरः। वरो महेन्द्रो देवानां कर्णः प्रहरतां वरः।। | 8-5-25a 8-5-25b |
योऽजितः पार्थिवैः शूरैः समर्थैर्वीर्यशालिभिः। दुर्योधनस्य वृद्ध्यर्थं कृत्स्नामुर्वीमथाजयत्।। | 8-5-26a 8-5-26b |
यं लब्ध्वा मागधो राजा सांत्वमानोऽथ सौहृदैः। अरौत्सीत्पार्थिवं क्षत्रमृते यादवकौरवान्।। | 8-5-27a 8-5-27b |
तं श्रुत्वा निहतं कर्णं द्वैरथे सव्यसाचिना। शोकार्णवे निमग्नोऽहं भिन्ना नौरिव सागरे।। | 8-5-28a 8-5-28b |
तं वृषं निहतं श्रुत्वा द्वैरथे रथिनां वरम्। शोकार्णवे निमग्नोऽहमप्लुवः सागरे यथा।। | 8-5-29a 8-5-29b |
ईदृशैर्यद्यहं दुःखैर्न विनश्यामि सञ्जय। वज्राद्दृढतरं मन्ये हृदयं मम दुर्भिदम्।। | 8-5-30a 8-5-30b |
ज्ञातिसंबन्धिमित्राणामिमं श्रुत्वा पराभवम्। को मदन्यः पुमाँल्लोके न जह्यात्सूत जीवितम्।। | 8-5-31a 8-5-31b |
विषमग्निं प्रपातं च पर्वताग्रादहं वृणे। `महाप्रस्थानगमनं जलं प्रायोपवेशनम्'। न हि शक्ष्यामि दुःखानि सोढुं कष्टानि सञ्जय।। | 8-5-32a 8-5-32b 8-5-32c |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः।। 5 ।। |
8-5-1 पुत्रांश्चैव निपातितान् इति झ.पाठः।। 8-5-4 भार्गवस्य रामस्य शुक्रस्य वा।। 8-5-7 कर्णस्य वधं सञ्चिन्त्य मनस्यालोच्य इदं कृत्स्नं जगत्स्वसैन्यं वा नास्तीति सञ्चिन्त्य निश्चित्य विललापेति तृतीयेन सम्बन्धः।। 8-5-17 अवाचीनं चिन्तयाऽधोमुखम्।। 8-5-24 जलवर्षित्वाद्देवेषु महेन्द्रो वृषः। धनवर्षित्वान्मनुष्येषु कर्णोवृषः। तृतीयमेवमभितो वृष्टिकर्तारं वृषम्।। 8-5-29 नौकाहीनः।। 8-5-5 पञ्चमोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-004 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-006 |