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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-011

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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-011
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प्रतिविन्ध्यश्रुतकर्मक्ष्यां चित्रचित्रसेनयोः संहारः।। 1 ।।

सञ्जय उवाच। 8-11-1x
श्रुतकर्मा ततो राजंश्चित्रसेनं महीपतिम्।
आजघ्ने समरे क्रुद्धः पञ्चाशद्भिः शिलीमुखैः।।
8-11-1a
8-11-1b
चित्रसेनस्तु तं राजन्नवभिर्नतपर्वभिः।
श्रुतकर्माणमाहत्य सूतं विव्याध पञ्चभिः।।
8-11-2a
8-11-2b
श्रुतकर्मा ततः क्रुद्धश्चित्रसेनं चमूमुखे।
नाराचेन सुतीक्ष्णेन मर्मदेशे समार्पयत्।।
8-11-3a
8-11-3b
सोऽतिविद्धो महाराज नाराचेन महात्मना।
मूर्च्छामभिययौ वीरः कश्मलं चाविवेश ह।।
8-11-4a
8-11-4b
एतस्मिन्नन्तरे चैनं श्रुतकीर्तिर्महायशाः।
नवत्या जगतीपालं छादयामास पत्रिभिः।।
8-11-5a
8-11-5b
प्रतिलभ्य ततः संज्ञां चित्रसेनो महारथः।
धनुश्चिच्छेद भल्लेन तं च विव्याध सप्तभिः।।
8-11-6a
8-11-6b
सोऽन्यत्कार्मुकमादाय वेगघ्नं रुक्मभूषितम्।
चित्ररूपधरं चक्रे चित्रसेनं शरोर्मिभिः।।
8-11-7a
8-11-7b
स शरैश्चित्रितो राजा चित्रमाल्यधरो युवा।
अशोभत महारङ्गे श्वाविच्छललो यथा।।
8-11-8a
8-11-8b
श्रुतकर्माणमथ वै नाराचेन स्तनान्तरे।
बिभेद तरसा शूरस्तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।।
8-11-9a
8-11-9b
श्रुतकर्माणि समरे नाराचेन समर्पितः।
सुस्राव रुधिरं तत्र गैरिकाम्बु यथाऽचलः।।
8-11-10a
8-11-10b
ततः स रुधिराक्ताङ्गो रुधिरेण कृतच्छविः।
रराज समरे वीरः सपुष्प इव किंशुकः।।
8-11-11a
8-11-11b
श्रुतकर्मा ततो राजञ्शत्रुणा समभिद्रुतः।
शत्रुसंवारणं क्रुद्धो द्विधा चिच्छेद कार्मुकम्।।
8-11-12a
8-11-12b
अथैनं छिन्नधन्वानं नाराचानां शतैस्त्रिभिः।
छादयन्समरे राजन्विव्याध च सुपत्रिभिः।।
8-11-13a
8-11-13b
ततोऽपरेण भल्लेन तीक्ष्णेन निशितेन च।
जहार सशिरस्त्राणं शिरस्तस्य महात्मनः।।
8-11-14a
8-11-14b
तच्छिरो न्यपतद्भूमौ चित्रसेनस्य दीप्तिमत्।
यदृच्छया यथा चन्द्रश्च्युतः स्वर्गान्महीतलम्।।
8-11-15a
8-11-15b
राजानं निहतं दृष्ट्वा तेऽभिसारं तु मारिष।
अभ्यद्रवन्त वेगेन चित्रसेनस्य सैनिकाः।।
8-11-16a
8-11-16b
ततः क्रुद्धो महेष्वासस्तत्सैन्यं प्राद्रवच्छरैः।
अन्तकाले यथा क्रुद्धः सर्वभूतानि प्रेतराट्।।
8-11-17a
8-11-17b
ते वध्यमानाः समरे तव पौत्रेण धन्विना।
व्यद्रवन्त दिशस्तूर्णं दावदग्धा इव द्विपाः।।
8-11-18a
8-11-18b
तांस्तु विद्रवतो दृष्ट्वा निरुत्साहान्द्विषज्जये।
द्रावयन्निषुभिस्तीक्ष्णैः श्रुतकर्मा व्यरोचत।।
8-11-19a
8-11-19b
प्रतिविन्ध्यस्ततश्चित्रं भित्त्वा पञ्चभिराशुगैः।
सारथिं च त्रिभिर्विद्व्वा ध्वजमेकेषुणापि च।।
8-11-20a
8-11-20b
तं चित्रो नवभिर्भल्लैर्बाह्वोरुरसि चार्पयत्।
स्वर्णपुङ्खैः प्रसन्नाग्नैः कङ्कबर्हिणवाजितैः।।
8-11-21a
8-11-21b
प्रतिविन्ध्यो धनुश्छित्त्वा तस्य बारत सायकेः।
पञ्चभिर्निशितैर्बाणैरथैनं स हि जघ्निवान्।।
8-11-22a
8-11-22b
ततः शक्तिं महाराज स्वर्णघण्टां दुरासदाम्।
प्राहिणोत्प्रतिविन्ध्याय विचिन्वन्तीमसूनिव।।
8-11-23a
8-11-23b
तामापतन्ती सहसा शक्तिमुल्कामिवाम्बरे।
द्विधा चिच्छेद समरे प्रतिविन्ध्यो हसन्निव।।
8-11-24a
8-11-24b
सा पपात द्विधा छिन्ना प्रतिविन्ध्यशरैः शितैः।
युगान्ते सर्वभूतानि त्रासयन्ती यथाऽशनिः।।
8-11-25a
8-11-25b
शक्तिं तां प्रहतां दृष्ट्वा चित्रो गृह्य महागदाम्।
प्रतिविन्ध्याय चिक्षेप रुक्मजालविभूषिताम्।।
8-11-26a
8-11-26b
सा जघान हयांस्तस्य सारथिं च महारणे।
रथं प्रमृद्य वेगेन धरमीमन्वपद्यत।।
8-11-27a
8-11-27b
एतस्मिन्नेव काले तु रथादाप्लुत्य भारत।
शक्तिं चिक्षेप चित्राय स्वर्णदण्डामलङ्कृताम्।।
8-11-28a
8-11-28b
तामापतन्तीं जग्राह चित्रो राजन्महामनाः।
ततस्तामेव चिक्षेप प्रतिविन्ध्याय पार्थिवः।।
8-11-29a
8-11-29b
समासाद्य रणे शूरं प्रतिविन्ध्यं महाप्रभा।
निर्भिद्य दक्षिणं बाहुं निपपात महीतले।
पतिताऽभासयश्चैव तं देशमशनिर्यथा।।
8-11-30a
8-11-30b
8-11-30c
प्रतिविन्ध्यस्ततो राजंस्तोमरं हेमभूषितम्।
प्रेषयामास सङ्क्रुद्धश्चित्रस्य वधकाङ्क्षया।।
8-11-31a
8-11-31b
स तस्य गात्रावरणं भित्त्वा हृदयमेव च।
जगाम धरणीं तूर्णं महोरग इवाशयम्।।
8-11-32a
8-11-32b
स पपात तदा राजा तोमरेण समाहतः।
प्रसार्य विपुलौ बाहू पीनौ पिघसन्निभौ।।
8-11-33a
8-11-33b
चित्रं सम्प्रेक्ष्य निहतं तावका रणशोभिनः।
अभ्यद्रवन्त वेगेन प्रतिविन्ध्यं समन्ततः।।
8-11-34a
8-11-34b
सृजन्तो विविधान्बाणाञ्शतघ्नीश्च सकिङ्किणीः।
तमवच्छादयामासुः सूर्यमभ्रगणा इव।।
8-11-35a
8-11-35b
तान्विधम्य महाबाहुः शरजालेन संयुगे।
व्यद्रावयत्तव चमूं वज्रहस्त इवासुरीम्।।
8-11-36a
8-11-36b
ते वध्यमानाः समरे तावकाः पाण्डवैर्नृप।
विप्रकीर्यन्त सहसा वातनुन्ना घना इव।।
8-11-37a
8-11-37b
विप्रद्रुते बले तस्मिन्वध्यमाने समन्ततः।
द्रौणिरेकोऽभ्ययात्तूर्णं भीमसेनं महाबलम्।।
8-11-38a
8-11-38b
तः समागमो घोरो बभूव सहसा तयोः।
यथा दैवासुरे युद्धे वृत्रवासवयोरिव।।
8-11-39a
8-11-39b
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
षोडशदिवसयुद्धे एकादशोऽध्यायः।। 11 ।।

8-11-2 आहत्य सन्ताज्य।। 8-11-4 मूर्च्छा अर्धनिद्राम्। कश्मलमचि त्तत्वम्।। 8-11-5 एवं श्रुतकर्माणम्।। 8-11-6 तं श्रुतकर्माणम्।। 8-11-11 कृतच्छविः आहितशोभः।। 8-11-13 सुपत्रिभिः शोभनपुङ्खव द्भिर्नाराचानां शतैः।। 8-11-17 प्रेतराट् यमः।। 8-11-18 दावो दावग्निस्तेन दग्धाः।। 8-11-32 गात्रावरणं कवचम्।। 8-11-11 एकादशोऽध्यायः।।

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