सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-08-कर्णपर्व-039

विकिस्रोतः तः
← कर्णपर्व-038 महाभारतम्
अष्टमपर्व
महाभारतम्-08-कर्णपर्व-039
वेदव्यासः
कर्णपर्व-040 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101

शल्यकर्णयोः संवादः।। 1 ।। सेनाद्वयस्य परस्परमेलनम्।। 2 ।।

सञ्जय उवाच। 8-39-1x
ततः परानीकभिदं व्यूहमप्रतिमं कृतम्।
समीक्ष्य कर्णः पार्थानां धृष्टधुम्नाभिरक्षितम्।।
8-39-1a
8-39-1b
प्रययौ रथघोषेण सिंहनादरवेण च।
वादित्राणां च निनदैः कम्पयन्निव मेदिनीम्।।
8-39-2a
8-39-2b
सञ्जय उवाच। 8-39-3x
ततः प्रयान्तं राधेयं मद्रराजः स्मयन्निव।
अवधूय इदं वाक्यमब्रवीत्कुरुसन्निधौ।।
8-39-3a
8-39-3b
चमूं तवेमां विपुलां समृद्वा--
मसङ्खेयामश्वनराकुलां च।
तथा प्रवेष्टा समरे धनञ्जयः
कक्षं दहन्दीप्त इवाश्रयाशी।।
8-39-4a
8-39-4b
8-39-4c
8-39-4d
रथे स्तितौ वीरवरौ वरेण्यौ
सिंहस्कन्धौ लोहितपद्मनेत्रौ।
द्रष्टा भवानद्य विना प्रयत्ना--
त्तथाहि मे शकुना वेदयन्ति।।
8-39-5a
8-39-5b
8-39-5c
8-39-5d
अद्य द्रष्टाऽसि तं वीरं श्वेताश्वं कृष्णसारथिम्।
निघ्नन्तं शात्रवान्सङ्ख्ये यं कर्ण परिपृच्छसि।।
8-39-6a
8-39-6b
अद्य तौ पुरुषव्याघ्रौ लोहिताक्षौ परन्तपौ।
वासुदेवार्जुनौ कर्ण द्रष्टाऽस्यमितविक्रमौ।।
8-39-7a
8-39-7b
सारथिर्यस्य गोविन्दो गाण्डीवं यस्य कार्मुकम्।
तं चेद्वन्ताऽसि राधेय त्वं नो राजा भविष्यसि।।
8-39-8a
8-39-8b
प्रवात्येष महावायुरभितस्तव वाहिनीम्।
क्रव्यादा व्याहरन्त्येते मृगाः कुर्वन्ति भैरवम्।।
8-39-9a
8-39-9b
पश्य कर्ण महाघोरं भयं वै रोमहर्षणम्।
अर्कं जीमूतसङ्काशः कबन्धो वार्य तिष्ठति।।
8-39-10a
8-39-10b
पश्य यूथं मृगशतं मृगाणां सर्वतोदिशम्।
ररास दीप्तलाङ्गूलमादित्यामभि संस्थितम्।।
8-39-11a
8-39-11b
पश्य काकांश्च गृध्रांश्च समवेतान्सहस्रशः।
आदित्यमभिवीक्षन्ते ह्यशिवाः कर्ण सस्वराः।।
8-39-12a
8-39-12b
श्वेतवाजिसमायुक्ते तव कर्ण महारथे।
पताकाः प्रज्वलन्त्येता ध्वजश्चातीव कम्पते।।
8-39-13a
8-39-13b
उदीर्यतो हयान्पश्य महाकायान्महाजवान्।
प्लवमानान्महावीर्यानाकाशे गरुडानिव।।
8-39-14a
8-39-14b
ध्रुवमेषु निमित्तेषु भूमिमावृत्य पार्थिवाः।
स्वप्स्यन्ति निहताः कर्ण शतशोऽथ सहस्रशः।।
8-39-15a
8-39-15b
शङ्खानां तुमुलः शब्दः श्रूयते रोमहर्षणः।
आनकानां च राधेय मृदङ्गानां च हन्यताम्।।
8-39-16a
8-39-16b
शृणु शब्दान्बहुविधान्नराश्वरथवाजिनाम्।
ज्यातलत्रेषुशब्दांश्च शृणु कर्ण महात्मनाम्।।
8-39-17a
8-39-17b
हेमरूप्यप्रमृष्टानां वाससां शिल्पिनिर्मिताः।
सहेमचन्द्रताराभाः पताकाः किङ्गिणीयुताः।।
8-39-18a
8-39-18b
नानावर्णा रणे भान्ति श्वसनेन प्रकम्पिताः।
पश्य कर्णार्जुनस्यैताः सौदामिन्य इवाम्बुदे।।
8-39-19a
8-39-19b
ध्वजाः कणकणायन्ते वातेनातिसमीरिताः।
सपताकरथाश्चापि पाञ्चालानां महात्मनाम्।।
8-39-20a
8-39-20b
एष रेणुः समुद्भूतो दिवमावृत्य तिष्ठति।
गजवाजिप्रणुन्ना च कम्पते कर्ण मेदिनी।।
8-39-21a
8-39-21b
श्रूयते मेघसङ्काशो रथनेमिस्वनस्तथा।
पश्य कुन्तीसुतं वीरं बीभत्सुमपराजितम्।
प्रहरिष्यन्तमायान्तं कपिप्रवरकेतनम्।।
8-39-22a
8-39-22b
8-39-22c
गजाश्वरथपत्त्योघांस्तावकान्युधि निघ्नतः।
ध्वजाग्रं दृश्यते तस्य ज्याशब्दश्चैव श्रूयते।।
8-39-23a
8-39-23b
एष संशप्तकान्भूयस्तानेवाभिमुखो गतः।
करोति कदनं चैष सङ्गामे द्विषतां बली।।
8-39-24a
8-39-24b
सञ्जय उवाच। 8-39-25x
इति ब्रुवाणं मद्रेशं कर्णः प्रोवाच मन्युमान्।। 8-39-25a
पश्य संशप्तकैः क्रुद्धैः समन्तात्समभिद्रुतः।
एष सूर्य इवाम्भोदैश्छन्नः पार्थो न दृश्यते।
एष दान्तोऽर्जुनः शल्य निमग्नः शोकसागरे।।
8-39-26a
8-39-26b
8-39-26c
शल्य उवाच। 8-39-27x
वरुणं कोऽम्भसा हन्यादिन्धनेन च कोऽनलम्।
कोवाऽनिलं निगृह्णीयात्पिबेद्वा को महार्णवम्।।
8-39-27a
8-39-27b
ईदृग्रूपमहं मन्ये पार्थस्य युधि निर्जयम्।
न हि शक्योऽर्जुनो जेतुं युधि देवासुरैरपि।।
8-39-28a
8-39-28b
अथैघं परितोषस्ते वाग्भिस्त्वं सुमाना भव।
न हि शक्यो युधा जेतुमन्यं कुरु मनोरथम्।।
8-39-29a
8-39-29b
बाहुभ्यामुद्धरेद्भूमिं दहेत्क्रुद्ध इमाः प्रजाः।
पातयेत्त्रिदिवाद्देवान्नार्जुनं समरे जयेत्।।
8-39-30a
8-39-30b
पश्य कुन्तीसुतं भीमं वीरमक्लिष्टकारिणम्।
प्रहरन्तं महाबाहुं स्थितं मेरुमिवाचलम्।।
8-39-31a
8-39-31b
अमर्षी पुरुषव्याघ्रः सदा वैरमनुस्मरन्।
एष भीमो जयप्रेप्सुर्युधि तिष्ठति वीर्यवान्।।
8-39-32a
8-39-32b
एष धर्मभृतां श्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
तिष्ठत्यसुकरः सङ्ख्ये परैः परपुरञ्जयः।।
8-39-33a
8-39-33b
एतौ च पुरुषव्याघ्रावाश्विनेयौ महारथौ।
नकुलः सहदेवश्च तिष्ठतो युधि दुर्जयौ।।
8-39-34a
8-39-34b
एते तिष्ठन्ति कार्ष्णेयाः पञ्च पञ्चाचला इव।
योत्स्यमाना महावीर्या भीमार्जुनसमा युधि।।
8-39-35a
8-39-35b
एते द्रुपदपुत्राश्च धृष्टद्युम्नपुरोगमाः।
हीनाः सत्यजिता वीरास्तिष्ठन्ति परमौजसः।।
8-39-36a
8-39-36b
यत्र कृष्णार्जुनौ वीरौ यत्र राजा युधिष्ठिरः।
तत्र धर्मश्च सत्यं च यतो धर्मस्ततो जयः।।
8-39-37a
8-39-37b
इति संवदतोरेव तयोः पुरुषसिंहयोः।
ते सेने समसज्जेतां ङ्गायमुनवद्भृशम्।।
8-39-38a
8-39-38b
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः।। 39 ।।
कर्णपर्व-038 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-040