महाभारतम्-08-कर्णपर्व-077
दिखावट
← कर्णपर्व-076 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-077 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-078 → |
|
कृष्णेनार्जुनम्प्रति भीष्मादियुद्धनिधनप्रकारानुवादपूर्वकं तेषां वधे तस्यैव मुख्यकारणत्वकथनम्।। 1 ।।
वाल्यात्प्रभूति दुर्योधनापनयानुस्मराणपूर्वकं सर्वत्र कर्णस्यैव मूलतया महापराधित्वद्योतनेन तस्यावश्यं हननविधानम्।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-77-1x |
ततः पुनरमेयात्मा केशवोऽर्जुनमब्रवीत्। कृतसङ्कल्पमायान्तं वधे कर्णस्य भारत।। | 8-77-1a 8-77-1b |
अद्य सप्तदशाहानि वर्तमानस्य नित्यशः। विनाशस्यातिघोरस्य नरवारणवाजिनाम्।। | 8-77-2a 8-77-2b |
भूत्वा हि विपुला सेना तावकानां परैः सह। अन्योन्यं समरं प्राप्य किञ्चिच्छेषा विशाम्पते।। | 8-77-3a 8-77-3b |
भूत्वा वै कौरवाः पार्थ प्रभूतगजवाजिनः। त्वां वै शत्रुं समासाद्य विनष्टा रणमूर्धनि।। | 8-77-4a 8-77-4b |
एते ते पृथिवीपालाः सृञ्जयाश्च समागताः। त्वां समासाद्य दुर्धर्षं पाण्डवाश्च व्यवस्थिताः।। | 8-77-5a 8-77-5b |
पाञ्चालैः पाण्डवैर्मात्स्यैः कारूशैश्चेदिभिः सह। `मगधैः पारिजातैश्च दाक्षिणात्यैः सकेरलैः'। त्वया गुप्तैरमित्रघ्नैः कृतः शत्रुगणक्षयः।। | 8-77-6a 8-77-6b 8-77-6c |
को हि शक्तो रणे जेतुं कौरवांस्तात संयुगे। अन्यत्र पाण्डवाद्युद्धे श्वेताश्वाद्वानरध्वजात्।। | 8-77-7a 8-77-7b |
शक्तस्त्वं हि रणे जेतुं ससुरासुरमानुषान्। त्रींल्लोकान्समरे युक्तान्किं पुनः कौरवं बलम्।। | 8-77-8a 8-77-8b |
भगदत्तं च राजानं कोऽन्यः शक्तस्त्वया विना। जेतुं पुरुषशार्दूल योऽपि स्याद्वासवोपमः।। | 8-77-9a 8-77-9b |
तथेमां विपुलां सेनां गुप्तां पार्थ त्वयाऽनघ। न शेकुः पार्थिवाः सर्वे चक्षुर्भिरपि वीक्षितुम्।। | 8-77-10a 8-77-10b |
तथैव सततं पार्थ रक्षिताभ्यां त्वया रणे। धृष्टद्युम्नशिखण्डिभ्यां द्रोणभीष्मौ निपातितौ।। | 8-77-11a 8-77-11b |
को हि शक्तो रणे पार्थ भारतानां महारथौ। भीष्मद्रोणौ युधा जेतुं शक्रतुल्यपराक्रमौ।। | 8-77-12a 8-77-12b |
को हि शान्तनवं भीष्मं द्रोणं वैकर्तनं कृपम्। द्रौणिं च सौमदत्तिं च कृतवर्माणमेव च।। | 8-77-13a 8-77-13b |
सैन्धवं मद्रराजं च राजानं च सुयोधनम्। वीरान्कृतास्त्रान्समरे सर्वानेवानिवर्तिनः।। | 8-77-14a 8-77-14b |
अक्षौहिणीपतीनुग्रान्संहतान्युद्धदुर्मदान्। त्वामृते पुरुषव्याघ्र जेतुं शक्तः पुमानिह।। | 8-77-15a 8-77-15b |
श्रेण्यश्च बहुलाः क्षीणाः प्रदीर्णाश्वरथद्विपाः। नानाजनपदाश्चोग्राः क्षत्रियाणाममर्षिणाम्।। | 8-77-16a 8-77-16b |
गणाश्च दासमीयानां वसातीनां च भारत। प्राच्यानां वाटधानानां भोजानां चाभिमानिनाम्। | 8-77-17a 8-77-17b |
उदीर्णाश्वगजा सेना सर्वक्षत्रस्य भारत। त्वां समासाद्य निधनं गता भीमं च भारत।। | 8-77-18a 8-77-18b |
उग्राश्च भीमकर्माणस्तुषारा यवनाः खशाः। दार्वाभिसारा दरदाः शका माठरतङ्कणाः।। | 8-77-19a 8-77-19b |
आन्ध्रकाश्च पुलिन्दाश्च किराताश्चोग्रविक्रमाः। म्लेच्छाश्च पर्वतीयाश्च सागरानूपवासिनः।। | 8-77-20a 8-77-20b |
संरम्भिणो युद्धशौण्डा बलिनो दण्डपाणयः।। | 8-77-21a |
एते सुयोधनस्यार्थे संरब्धाः कुरुभिः सह। न शक्या युधि निर्जेतुं त्वदन्येन परन्तप।। | 8-77-21a 8-77-21b |
एते सुयोधनस्यार्थे संरब्धाः कुरुभिः सह। न शक्या युधि निर्जेतुं त्वदन्येन परन्तप।। | 8-77-22a 8-77-22b |
धार्तराष्ट्रमुदग्रं हि व्यूढं दृष्ट्वा महद्बलम्। यदि त्वं न भवेस्त्राता प्रतीयात्को नु मानवः।। | 8-77-23a 8-77-23b |
तत्सागरमिवोद्वूतं रजसा संवृतं बलम्। विदार्य पाण्डवैः क्रुद्धैस्त्वया गुप्तैर्हतं विभो।। | 8-77-24a 8-77-24b |
मागधानामधिपतिर्जयत्सेनो महाबलः। अद्य सप्तैव चाहानि हतः सङ्ख्येऽभिमन्युना।। | 8-77-25a 8-77-25b |
ततो दशसहस्राणि गजानां भीमकर्मणाम्। जघान गदया भीमस्तस्य राज्ञः परिच्छदम्।। | 8-77-26a 8-77-26b |
तथान्येऽभिहता नागा रथाश्च शतशो बलात्। तदेवं समरे पार्थ वर्तमाने महाभये।। | 8-77-27a 8-77-27b |
भीमसेनं समासाद्य त्वां च पाण्डव कौरवाः। सवाजिरथमातङ्गा मृत्युलोकमितो गताः।। | 8-77-28a 8-77-28b |
तथा सेनामुखे तत्र निहते पार्थ पाण्डवैः। भीष्मः प्रासृजदुग्राणि शरतालानि मारिष।। | 8-77-29a 8-77-29b |
सचेदिकाशिपाञ्चालान्करूशान्मात्स्यकेकयान्। शरैः प्रच्छाद्य निधनमनयत्परमास्त्रवित्।। | 8-77-30a 8-77-30b |
तस्य चापच्युतैर्बाणैः परदेहविदारणैः। पूर्णमाकाशमभवद्रुक्मपुह्खैरजिह्मगैः।। | 8-77-31a 8-77-31b |
हन्याद्रथसहस्राणि एकैकेनैव मुष्टिना। लक्षं नरद्विपान्हत्वा समेतान्समहाबलान्।। | 8-77-32a 8-77-32b |
गत्या दशम्या ते गत्वा जघ्नुर्वाजिरथद्विपान्। हित्वा नवगतीर्दुष्टाः स बाणानाहवेऽत्यजत्।। | 8-77-33a 8-77-33b |
दिनानि दश भीष्मेण निघ्नता तावकं बलम्। शून्याः कृता रथोपस्था हताश्च गजवाजिनः।। | 8-77-34a 8-77-34b |
`दशमेऽहनि सम्प्राप्ते कृत्वा घोरं पराक्रमम्'। दर्शयित्वाऽऽत्मनो रूपं रुद्रोपेन्द्रसमं युधि।। | 8-77-35a 8-77-35b |
पाण्डवानामनीकानि प्रविगाह्य विशाम्पते। विनिघ्नन्पृथिवीपालांश्चेदिपाञ्चालकेकयान्।। | 8-77-36a 8-77-36b |
अहनत्पाण्डवीं सेनां रथाश्वगजसङ्कुलाम्। मज्जन्तमप्लुवे मन्दमुज्जिहीर्षुः सुयोधनम्।। | 8-77-37a 8-77-37b |
तथा चरन्तं समरे तपन्तमिव भास्करम्। पदातिकोटिसाहस्राः प्रवरायुधपाणयः।। | 8-77-38a 8-77-38b |
न शेकुः सृञ्जया द्रष्टुं तथैवान्ये महीक्षितः। विचरन्तं तथा तं तु सङ्ग्रमे जितकाशिनम्।। | 8-77-39a 8-77-39b |
सर्वोद्यमेन महता पाण्डवान्समभिद्रवत्। स तु विद्राव्य समरे पाण्डवान्सृञ्जयानपि। एक एव रणे भीष्म एकवीरत्वमागतः।। | 8-77-40a 8-77-40b 8-77-40c |
तं शिखण्डी समासाद्य त्वया गुप्तो महाव्रतम्। जघान पुरुषव्याघ्रं शरैः सन्नतपर्वभिः।। | 8-77-41a 8-77-41b |
स एष पतितः शेते शरतल्पे पितामहः। त्वां प्राप्य पुरुषव्याघ्रं वृत्रः प्राप्येव वासवम्।। | 8-77-42a 8-77-42b |
द्रोणः पञ्चदिनान्युग्रो विधम्य रिपुवाहिनीम्। कृत्वा व्यूहमभेद्यं च पातयित्वा महारथान्।। | 8-77-43a 8-77-43b |
जयद्रथस्य समरे कृत्वा रक्षां महारथः। अन्तकप्रतिमश्चोग्रो रात्रियुद्धेऽदहत्प्रजाः।। | 8-77-44a 8-77-44b |
दग्ध्वा योधाञ्छरैर्वीरो भारद्वाजः प्रतापवान्। धृष्टद्युम्नं समासाद्य स गतः परमां गतिम्।। | 8-77-45a 8-77-45b |
यदि वाऽद्य भवान्युद्धे सूतपुत्रमुखान्रथान्। नावारयिष्यः सङ्ग्रामे न स्म द्रोणो व्यनङ्क्ष्यत।। | 8-77-46a 8-77-46b |
भवता तु बलं सर्वं धार्तराष्ट्रस्य वारितम्। ततो द्रोणो हतो युद्धे पार्षतेन धनञ्जय।। | 8-77-47a 8-77-47b |
कश्च शक्तो रणे कर्तुं त्वदन्यः पुरुषब्रुवः। यादृशं ते कृतं पार्थ जयद्रथवधं प्रति।। | 8-77-48a 8-77-48b |
निवार्य सेनां महतीं हत्वा शूरांश्च पार्थिवान्। निहतः सैन्धवो राजा त्वयाऽस्त्रबलतेजसा।। | 8-77-49a 8-77-49b |
आश्चर्यं सिन्धुराजस्य वधं जानन्ति पार्थिवाः। अनाश्चार्यं हि तत्त्वत्तस्त्वं हि पार्थ महारथः।। | 8-77-50a 8-77-50b |
त्वां हि प्राप्य रणे क्षत्रमेकाहादिति भारत। नश्यमानमहं युक्तं मन्येयमिति मे मतिः।। | 8-77-51a 8-77-51b |
सेयं पार्थ चमूर्घोरा धार्तराष्ट्रस्य संयुगे। हतसर्वस्वभूयिष्ठा भीष्मद्रोणौ हतौ यथा।। | 8-77-52a 8-77-52b |
शीर्णप्रवरयोधाढ्या हतवाजिरथद्विपा। हीना सूर्येन्दुनक्षत्रैर्द्यौरिवाभाति भारती।। | 8-77-53a 8-77-53b |
विध्वस्ता हि रणे पार्थ सेनेयं भीमविक्रम। आसुरीव महासेना देवराजपराक्रमैः।। | 8-77-54a 8-77-54b |
तेषां हतावशिष्टास्तु सन्ति पञ्च महारथाः। द्रौणिश्च कृतवर्मा च कर्णो मद्राधिपः कृपः।। | 8-77-55a 8-77-55b |
तांस्त्वमद्य नरव्याघ्र हत्वा पञ्च महारथान्। हतामित्रः प्रयच्छोर्वी राज्ञे सद्वीपपत्तनाम्।। | 8-77-56a 8-77-56b |
साकाशजलपातालां सपर्वतमहावनाम्। प्रयच्छामितवीर्याय पार्थायाद्य वसुन्धराम्।। | 8-77-57a 8-77-57b |
एतां पुरा विष्णुरिव हत्वा दैतेयदानवान्। प्रयच्छ मेदिनीं राज्ञे शक्रायैव हरिर्यथा।। | 8-77-58a 8-77-58b |
अद्य मोदन्तु पाञ्चाला निहतेष्वरिषु त्वया। विष्णुना निहतेष्वेव दानवेयेषु देवताः।। | 8-77-59a 8-77-59b |
यदि वा द्विपदां श्रेष्ठं द्रोणं मानयतो गुरुम्। अश्वत्थाम्नि कृपा तेऽस्ति कृपे वाचार्यगौरवात्।। | 8-77-60a 8-77-60b |
अत्यन्तापचितान्बन्धून्मानयन्मातृबान्धवान्। कृतवर्माणमासाद्य न नेष्यासि यमक्षयम्।। | 8-77-61a 8-77-61b |
भ्रातरं मातुरासाद्य शल्यं मद्रजनाधिपम्। यदि त्वमरविन्दाक्ष दयावान्न जिघाससि।। | 8-77-62a 8-77-62b |
एतत्ते सुकृतं कर्म नात्र किञ्चन विद्यते। वयमप्यनुजानीमो नात्र दोषोऽस्ति कश्चन।। | 8-77-63a 8-77-63b |
इमं पापमतिं क्षुद्रमत्यन्तं पाण्डवान्प्रति। कर्णमद्य नरश्रेष्ठ जहि पार्थ शितैः शरैः।। | 8-77-64a 8-77-64b |
दहने यत्सपुत्राया निशि मातुस्तवानघ। द्यूतार्थे यच्च युष्मासु प्रावर्तत सुयोधनः। तस्य सर्वस्य दुष्टात्मा कर्णो वै मूलमित्युत।। | 8-77-65a 8-77-65b 8-77-65c |
प्रोत्साहयति दुष्टात्मा धार्तराष्ट्रं सुदुर्मतिम्। समितौ गदते कर्णस्तमद्य जहि भारत।। | 8-77-66a 8-77-66b |
यश्च युष्मासु पापं वै धार्तराष्ट्रः प्रयुक्तवान्। तस्य सर्वस्य दुर्बुद्धिः कर्णो मूलमिहार्जुन।। | 8-77-67a 8-77-67b |
कर्णं हि मन्यते त्राणं नित्यमेव सुयोधनः। ततो मामपि संरब्धो निग्रहीतुं पराक्रमात्।। | 8-77-68a 8-77-68b |
स्थिता बुद्धिर्नरेन्द्राणां धार्तराष्ट्रस्य चोभयोः। कर्णः पार्थान्रणे सर्वान्नाशयिष्यति सायकैः।। | 8-77-69a 8-77-69b |
कर्णमाश्रित्य कौन्तेय धार्तराष्ट्रस्य विग्रहः। रुचितो भवता सार्धं जानतोऽपि बलं तव।। | 8-77-70a 8-77-70b |
कर्णो जल्पति वै नित्यमहं पार्थान्समागतान्। वासुदेवं च दाशार्हं विजेष्यामि महारणे। समितौ वल्गते कर्णस्तमद्य जहि फल्गुन।। | 8-77-71a 8-77-71b 8-77-71c |
यच्च युष्मासु पापं वै धार्तराष्ट्रः प्रतापवान्। सभायां कृतवान्नित्यं कर्णमाश्रित्य वै पुरा।। | 8-77-72a 8-77-72b |
यच्च तं धार्तराष्ट्राणां षड्भिः शूरैर्महारथैः। पश्यतां संवृतं शूरं सौभद्रमपराजितम्।। | 8-77-73a 8-77-73b |
द्रोणद्रौणिकृपान्वीरान्कम्पयानं महेषुभिः। विधमन्तमनीकानि प्रमथन्तं महारथान्।। | 8-77-74a 8-77-74b |
मनुष्यवाजिमातङ्गान्प्रेषयन्तं यमक्षयम्। शरैः सौभद्रमायान्तं दहन्तमरिवाहिनीम्।। | 8-77-75a 8-77-75b |
निर्मनुष्याश्च मातङ्गा विरथाश्च महारथाः। प्रद्रवन्ति स्म समरे दिशो भीताऽभिमन्यवे।। | 8-77-76a 8-77-76b |
विगतासूंश्च तुरगान्पत्तीन्व्यायुधजीवितान्। कुर्वन्तमृषभस्कन्धं कुरुवृष्णियशस्करम्। तन्मे दहति गात्राणि सखे सत्येन ते शपे।। | 8-77-77a 8-77-77b 8-77-77c |
यत्तदासीत्सुदुष्टात्मा कर्णो विनिहतः प्रभुः। न शक्तो ह्यभिमन्योस्तु कर्णः स्थातुं रणाग्रतः।। | 8-77-78a 8-77-78b |
सौभद्रशरनिर्भिन्नो विसंज्ञः शोणितोक्षितः। निश्वसन्क्रोधसन्दीप्तो विमुखः सायकार्दितः।। | 8-77-79a 8-77-79b |
तस्थौ स विह्वलः सङ्ख्ये प्रहारजनितच्छविः। अपयानकृतोत्साहो निरुत्साहश्च भारत।। | 8-77-80a 8-77-80b |
दुर्योधनं रणे दृष्ट्वा लज्जमानो मुहुर्मुहुः। नापयासीत्तततः पार्थ सोऽभिमन्योर्महारणे।। | 8-77-81a 8-77-81b |
दृष्ट्वा द्रोणं वधोपायमभिमन्योश्च पृष्टवान्। श्रुत्वा द्रोणवचः क्रूरं ततश्चिच्छेद कार्मुकम्।। | 8-77-82a 8-77-82b |
ततश्छिन्नायुधं तेन दृष्ट्वा पञ्च महारथाः। स चैव निकृतिप्राज्ञः प्राहिणोच्छरवृष्टिभिः।। | 8-77-83a 8-77-83b |
प्रहसन्स तु दुष्टात्मा कर्णो राजा च कौरवः। यच्च कर्णोऽब्रवीत्कृष्णां सभायां परुषं वचः। प्रमुखे पाण्डवेयानां कुरूणां चैव पश्यताम्।। | 8-77-84a 8-77-84b 8-77-84c |
विनष्टाः पाण्डवाः कृष्णे शाश्वतं नरकं गताः। पतिमन्यं पृथुश्रोणि वृणीष्व मृदुभाषिणि।। | 8-77-85a 8-77-85b |
एषा त्वं धृतराष्ट्रस्य दासीभूता निवेशनम्। प्रविशारालपक्ष्माक्षि न सन्ति पतयस्तव।। | 8-77-86a 8-77-86b |
न पाण्डवाः प्रभवन्ति तव कृष्णे कथञ्चन। दासभार्या च पाञ्चालि स्वयं दासी च शोभने।। | 8-77-87a 8-77-87b |
अद्य दुर्योधनो राजा पृथिव्यां नृपतिः स्मृतः। सर्वे चास्य महिपाला योगक्षेममुपासते।। | 8-77-88a 8-77-88b |
पश्येदानीं यदा भद्रे निविष्टाः पाण्डवाः समम्। अन्योन्यं समुदीक्षन्ते धार्तराष्ट्रस्य तेजसा।। | 8-77-89a 8-77-89b |
व्यक्तं षण्डतिला ह्येते नरके च निमज्जिताः। प्रेष्यवच्चापि राजानमुपस्थास्यन्ति कौरवम्।। | 8-77-90a 8-77-90b |
उक्तवान्स च पातात्मा तथा परमदुर्मतिः। पापः पापवचः कर्णः पश्यतस्ते धनञ्जय।। | 8-77-91a 8-77-91b |
अस्य पापस्य तद्वाक्यं सुवर्णविकृताः शराः। शमयन्ति शिलाधौता नाशयन्तोऽस्य जीवितम्।। | 8-77-92a 8-77-92b |
अद्य कर्णं रणे ग्रस्तं पश्यन्तु कुरवस्त्वया। स्वर्गावतरणे यत्नं स्वर्गद्वारगतं यथा।। | 8-77-93a 8-77-93b |
अद्य ते समरे वीर्यं पश्यन्तु कुरुयोधिनः। सूतपुत्रे हते पार्थ जानन्तु त्वां महारथम्।। | 8-77-94a 8-77-94b |
अद्य काकवला गृध्रा वायसा जम्बुकास्तथा। विप्रकर्षन्तु गात्राणि सूतपुत्रस्य मारिष।। | 8-77-95a 8-77-95b |
अद्याधिरथिराक्षिप्तो निहतश्च त्वया रणे। कुरूणां शोकमाधत्तां पाण्वानां मुदं तदा।। | 8-77-96a 8-77-96b |
अद्य त्वां प्रतिमर्दन्तु पाञ्चालाः पाण्डवैः सह। यथा वृत्रवधे वृत्ते देवाः सर्वे शतक्रतुम्।। | 8-77-97a 8-77-97b |
अद्य कर्णं रणे हत्वा प्राप्य चैवोत्तमं यशः। विशोको विज्वरः पार्थ भव बन्धुपुरस्कृतः।। | 8-77-98a 8-77-98b |
नरसिंहवपुः कृत्वा यथा शस्तो महासुरः। हिरण्यकशिपुर्दैत्यो विष्णुना प्रभविष्णुना।। | 8-77-99a 8-77-99b |
तथा त्वमपि राधेयं घोरां कृत्वा महातनुम्। जहि युद्धे महाबाहो त्रायस्व च भयात्स्वकान्।। | 8-77-101a 8-77-101b |
कर्णं हाहाकृतं दीनं विषण्णं त्वच्छरार्दितम्। प्रपतन्तं महीं कर्णं पश्यन्तु वसुधाधिपाः।। | 8-77-102a 8-77-102b |
तं च स्वशोणिते मग्नं शयानं पतितं भुवि। अपविद्धायुकधं कर्णमद्य पश्यन्तु बान्धवाः।। | 8-77-103a 8-77-103b |
तच्चैवाद्य महत्कर्म गाण्डीवप्रेषितैः शरैः। रथोपस्थे विशीर्येत ताराराज इवाम्बरात्।। | 8-77-104a 8-77-104b |
आशु चाद्य शरास्तस्य सम्पतन्तो महाजवैः। त्वच्छरैः सन्निकृत्ताग्रा विशीर्यन्ते महीतले।। | 8-77-105a 8-77-105b |
त्वया चाद्य हते तस्य विक्रमे भरतर्षभ। विमुखाः सर्वराजानो भवन्तु गतजीविताः।। | 8-77-106a 8-77-106b |
तथा चाधिरथौ याते प्रयान्तु कुरवो दिशः। मन्वानास्तं रथश्रेष्ठं सर्वलोकेषु धन्विनाम्।। | 8-77-107a 8-77-107b |
स वै चाद्य भयात्त्यक्त्वा धार्तराष्ट्रो महाचमूम्। दुर्योधनो भयोद्विग्नो द्रवतु स्वं निवेशनम्।। | 8-77-108a 8-77-108b |
तथा चाद्य हतं श्रुत्वा धृतराष्ट्रो जनेश्वरः। क्षणेन निपतेद्भूमौ विसंज्ञो वै महीपतिः।। | 8-77-109a 8-77-109b |
अद्य जानन्तु ते पार्थ विक्रमं सर्वयोधिनः। यदुवाच सभामध्ये परुषं भारत त्वयि।। | 8-77-110a 8-77-110b |
यानि चान्यानि दुष्टात्मा पापानि कृतवांस्त्वयि। तान्यद्य भरतश्रेष्ठ नाशयन्तु शरास्तव।। | 8-77-111a 8-77-111b |
शान्तिं कुरु परिक्लेशा कृष्णायाः शत्रुपातन। हत्वा शत्रुं रणे श्लाघ्यं गर्जन्तमतिपौरुषम्।। | 8-77-112a 8-77-112b |
अद्य चाधिरथिर्वेद्धस्तव बाणैः समन्ततः। मन्यतां त्वां नरव्याघ्र प्रवरं सर्वधन्विनाम्।। | 8-77-113a 8-77-113b |
गाण्डीवप्रसृतान्वाणानद्य गात्रस्पृशः शरान्। यातु कर्णो रणे पार्थ श्वाविच्छललतो यथा।। | 8-77-114a 8-77-114b |
तं कथं कर्णमासाद्य विद्रवेयुर्महारथाः। यस्त्वेकः सर्वपाञ्चालानहन्यहनि नाशयन्। कालवच्चरते वीर पाञ्चालानां रथव्रजे।। | 8-77-115a 8-77-115b 8-77-115c |
तमप्यासाद्य समरे मित्रार्थे मित्रवत्सल। तथा ज्वलन्तमस्त्रैश्च शूरं सर्वधनुष्मताम्। निर्दहन्तं समारूढं दुर्धर्षं द्रोणमञ्जसा।। | 8-77-116a 8-77-116b 8-77-116c |
ते नित्यमुदिता जेतुं युधि शत्रुमरिन्दमाः। न चेदाधिरथेर्भीताः पाञ्चालाः स्युः पराङ्मुखाः।। | 8-77-117a 8-77-117b |
तेषामापततां शूरः पाञ्चालानां तरस्विनाम्। आदत्तासूञ्शरैः कर्णः पतङ्गानामिवानलः।। | 8-77-118a 8-77-118b |
एते द्रवन्ति पाञ्चाला द्राव्यन्ते योधिभिर्ध्रुवम्। कर्णेन भरतश्रेष्ठ पश्यपश्य तथाकृतान्।। | 8-77-119a 8-77-119b |
तान्समारोहतः शूरान्मित्रार्थे त्यक्तजीवितान्। निस्तारय महाबाहो कर्णास्त्रात्पावकोपमात्।। | 8-77-120a 8-77-120b |
अस्त्रं हिरामात्कर्णेन भार्गवादृषिसत्तमात्। यदवाप्तं तदा घोरं तस्य रूपमुदीर्यते।। | 8-77-121a 8-77-121b |
तापनं सर्वसैन्यस्य घोररूपं भयानकम्। यमाश्रित्य महासेना ज्वलते स्वेन तेजसा।। | 8-77-122a 8-77-122b |
एते चरन्ति सङ्ग्रामे कर्णचापच्युताः शराः। प्रभया इह शत्रूणां घातयन्तो जनान्प्रभो।। | 8-77-123a 8-77-123b |
एते भ्रमन्ति पाञ्चाला उत्क्रयन्ति च मारिष। कर्णास्त्रं समरे प्राप्य दुर्निवार्यं महात्मभिः।। | 8-77-124a 8-77-124b |
एष भीमो दृढक्रोधो वृतः पार्थ समन्ततः। सृञ्जयैर्योऽजयत्कर्णं पीड्यते निशितैः शरैः।। | 8-77-125a 8-77-125b |
पाञ्चालान्सृञ्जयांश्चैव पाण्डवांश्चैव भारत। उपेक्षितो दहेत्कर्णो रोगो देहमिवान्तकः।। | 8-77-126a 8-77-126b |
नान्यं त्वत्तो हि पश्यामि योधं यौधिष्ठिरे बले। यः समासाद्य राधेयं स्वस्तिमानाव्रजेद्गृहान्।। | 8-77-127a 8-77-127b |
तमद्य निशितैर्बाणैर्निहत्य भरतर्षभ। यथा प्रतिज्ञां त्व पार्थ तीर्त्वा कीर्तिमवाप्स्यसि।। | 8-77-128a 8-77-128b |
त्वं हि शक्तो रणे कर्णं विजेतुं सह पार्थिवैः। नान्यो युधि युधां श्रेष्ठ सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 8-77-129a 8-77-129b |
एतत्कृत्वा महत्कार्म हत्वा कर्णं महारथम्। कृतार्थः सफलः पार्थ सुखी भव नरोत्तम।। | 8-77-130a 8-77-130b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे सप्तसप्ततितमोऽध्यायः।। 77 ।। |
8-77-23 यदि त्वं त्राता न भवेस्तर्हि तद्धार्तराष्ट्रं बलं कोनु प्रतीयाद्गच्छेदिति सम्बन्धः।। 8-77-51 त्वांहीति। क्षणेन सर्वं भस्मीकर्तुं समर्थं त्वां प्राप्य एकाहान्नश्यमानं क्षत्रं युक्तं बलवत्तरं मन्येयं जानीयाम्। क्षणेन नाश्यमपि पूर्णैकाहपर्यन्तं स्थायित्वादिति भावः।। 8-77-111 परिक्लेशा परिक्लेशानाम्।। 8-77-77 सप्तसप्ततितमोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-076 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-078 |