महाभारतम्-08-कर्णपर्व-047
दिखावट
← कर्णपर्व-046 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-047 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-048 → |
|
सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-47-1x |
क्षत्रियास्ते महाराज परस्परवधैषिणः। अन्योन्यं समरे जघ्नुः कृतवैरा महौजसः।। | 8-47-1a 8-47-1b |
रथौघाश्च हयौघाश्च नरौघाश्च समन्ततः। गजौघाश्च महाराज संसक्ताश्च परस्परम्।। | 8-47-2a 8-47-2b |
गदानां परिघाणां च शक्तीनां च परस्परम्। प्रासानां भिण्डिपालानां मुसुण्ठीनां च सर्वशः।। | 8-47-3a 8-47-3b |
सम्पातं चानुपश्याम सङ्ग्रामे भृशदारुणे। शलभा इव सम्पेतुः शरवृष्ट्यः समन्ततः।। | 8-47-4a 8-47-4b |
नागान्नागाः समासाद्य व्यधमन्त परस्परम्। हया हयांश्च समरे रथिनो रथिनस्तथा।। | 8-47-5a 8-47-5b |
पत्तयः पत्तिसङ्घांश्च हयसङ्घांश्च पत्तयः। पत्तयो रथमातङ्गान्रथा हस्त्यश्वमेव च। नागाश्च समरे त्र्यङ्गं ममृदुः शीघ्रगा नृप।। | 8-47-6a 8-47-6b 8-47-6c |
वध्यतां तत्र शूराणां क्रोशतां च परस्परम्। घोरमायोधनं जज्ञे पशूनां घातने यथा।। | 8-47-7a 8-47-7b |
रुधिरेण समास्तीर्णा बभौ भारत मेदिनी। शक्रगोपगणाकीर्णा प्रावृषीव वसुन्धरा।। | 8-47-8a 8-47-8b |
यथा वा वाससी शुक्ले महारजनरञ्जिते। बिभ्रती युवती श्यामा तद्वदासीद्वसुन्धरा।। | 8-47-9a 8-47-9b |
`बद्वचूडामणिधरैः शिरोभिश्चारुकुण्डलैः। उज्झितैर्वृषभाक्षाणां भ्राजते स्म वसुन्धरा'।। | 8-47-10a 8-47-10b |
शशशोणितदिग्धेव शातकुम्भमयीव च। `भूर्बभौ भरतश्रेष्ठ शान्तार्चिर्भिरिवानलैः।।' | 8-47-11a 8-47-11b |
छिन्नानां चोत्तमाङ्गानां बाहूनां चोरुभिः सह। कुण्डलानां पिनद्धानां भूषणानां च भारत।। | 8-47-12a 8-47-12b |
निष्काणां हेमसूत्राणां शरीराणां च धन्विनाम्। चर्मणां सपताकानां सङ्घास्तत्रापतन्भुवि। | 8-47-13a 8-47-13b |
`प्रावृट्काले महाराज मेघा इव सविद्युतः'।। | 8-47-14e |
स्यन्दमाना यथा भान्ति पर्वता धातुमण्डिताः। `तथा रेजू रणे नागा रुधिरेण समाप्लुताः'।। | 8-47-15a 8-47-15b |
तोमरान्सादिभिर्मुक्तान्प्रतिमानस्थितान्बहून्। हस्तैरुद्धृत्य तान्नागा बभञ्जुश्चापरे रणे।। | 8-47-16a 8-47-16b |
नाराचैश्छिन्नवर्माणो भ्राजन्ते स्म गजोत्तमाः। हिमागमे यथा राजन्व्यभ्रा इव महीधराः।। | 8-47-17a 8-47-17b |
शरैः कनकपुङ्खैश्च चिता रेर्जुर्गजोत्तमाः। उल्काभिः सम्प्रदीप्ताग्राः पर्वता इव भारत।। | 8-47-18a 8-47-18b |
केचिदभ्याहता नागैर्नागा नगवरोपमाः। न चेलुः समरात्तस्माच्छिन्नपक्षा इवाद्रयः।। | 8-47-19a 8-47-19b |
अपरे प्राद्रवन्नागाः शरार्ता व्रणपीडिताः। प्रतिमानैश्च कुम्भैश्च पेतुरुर्व्यां महाहवे।। | 8-47-20a 8-47-20b |
निषेदुः सिंहवच्चान्ये नदन्तो भैरवान्रवान्। वेमुश्च बहवो राजंश्चुक्रुशुश्चापरे गजाः।। | 8-47-21a 8-47-21b |
हयाश्च निहता बाणैर्हेमभाण्डविभूषिताः। निषेदुश्चैव मम्लुश्च बभ्रमुश्च दिशो दश।। | 8-47-22a 8-47-22b |
अपरे क्लिश्यमानाश्च व्यवेष्टन्त महीतले। भावान्बहुविधांश्चक्रुस्ताडिताः शरतोमरैः।। | 8-47-23a 8-47-23b |
नरास्तु निहता भूमौ कूजन्तस्तत्र मारिप। दृष्ट्वा च बान्धवानन्ये पितॄनन्ये पितामहान्।। | 8-47-24a 8-47-24b |
धावमानान्परांश्चान्ये दृष्ट्वान्ये तत्र भारत। ख्यातानि गोत्रनामानि शशंसुरितरेतरम्।। | 8-47-25a 8-47-25b |
तेषां छिन्ना महाराज भुजाः कनकभूषणाः। उद्वेष्टन्ते विवेष्टन्ते भ्रमन्ति ह्युत्पतन्ति च।। | 8-47-26a 8-47-26b |
निपतन्ति तथैवान्ये स्फुरन्ति च सहस्रशः। वेगांश्चान्ये रमे चक्रुः पञ्चास्या इव पन्नगाः।। | 8-47-27a 8-47-27b |
ते भुजा भोगिभोगाभाश्चन्दनाक्ता विशाम्पते। लोहितार्द्रा भृशं रेजुस्तपनीयध्वजा इव।। | 8-47-28a 8-47-28b |
वर्तमाने तथा घोरे सङ्कुले सर्वतो दिशम्। अविज्ञाताः स्म युध्यन्ते विनिघ्नन्तः परस्परम्।। | 8-47-29a 8-47-29b |
भौमेन रजसाकीर्णे शस्त्रसम्पातसङ्कुले। नैव स्वे न परे राजन्व्यज्ञायन्त तमोवृताः।। | 8-47-30a 8-47-30b |
तथा तदभवद्युद्धं घोररूपं भयानकम्। लोहितोदा महानद्यः प्रसस्रुस्तत्र चासकृत्।। | 8-47-31a 8-47-31b |
शीर्षपाषाणसञ्छन्नाः केशशैवलशाद्वलाः। अस्थिमीनसमाकीर्णा धनुःशरगदोडुपाः।। | 8-47-32a 8-47-32b |
मांसशोणितपङ्किन्यो घोररूपाः सुदारुणाः। नदीः प्रवर्तयामासुः सोणितौघविवर्धिनीः।। | 8-47-33a 8-47-33b |
भीरुवित्रासकारिण्यः शूराणां हर्षवर्धनाः। ता नद्यो घोररूपास्तु नयन्त्यो यमसादनम्।। | 8-47-34a 8-47-34b |
अवगाढान्मज्जयन्त्यः क्षत्रस्याजनयन्भयम्। क्रव्यादानां नरव्याघ्र नर्दतां तत्रतत्र ह।। | 8-47-35a 8-47-35b |
घोरमायोधनं जज्ञे प्रेतराजपुरोपमम्। उत्थितान्यगणेयानि कबन्धानि समन्ततः।। | 8-47-36a 8-47-36b |
नृत्यन्ति वै भूतगणाः सुतृप्ता मांसशोणितैः। पीत्वा च शोणितं तत्र वसां भुक्त्वा च भारत।। | 8-47-37a 8-47-37b |
मेदोमज्जावसामत्तास्तृप्ता मांसस्य चैव ह। धावमानाः स्म दृश्यन्ते काकगृघ्रबकास्तथा।। | 8-47-38a 8-47-38b |
शूरास्तु समरे राजन्भयं त्यक्त्वा सुदुस्त्यजम्। योधव्रतसमाख्याताश्चक्रुः कर्माण्यभीतवत्।। | 8-47-39a 8-47-39b |
शरशक्तिसमाकीर्णे क्रव्यादगणसङ्कुले। व्यचरन्त रणे शूराः ख्यापयन्तः स्वपौरुषम्।। | 8-47-40a 8-47-40b |
अन्योन्यं श्रावयन्ति स्म नामगोत्राणि भारत। पितृनामानि च रणे गोत्रनामानि वा विभो।। | 8-47-41a 8-47-41b |
श्रावयाणाश्च बहवस्तत्र योधा विशाम्पते। अन्योन्यमवमृद्रन्तः शक्तितोमरपट्टसैः।। | 8-47-42a 8-47-42b |
वर्तमाने तथा युद्धे घोररूपे सुदारुणे। व्यषीदत्कौरवी सेना भिन्ना नौरिव सागरे।। | 8-47-43a 8-47-43b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः।। 47 ।। |
8-47-4 वृष्ट्यः वृष्टयः।। 8-47-47 सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-046 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-048 |