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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-050

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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-050
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सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।
अश्वत्थाम्ना युधिष्ठिरपराजयः।। 2 ।।

सञ्जय उवाच। 8-50-1x
द्रौणिर्युधिष्ठिरं दृष्ट्वा शैनेयेनाभिरक्षितम्।
द्रौपदेयैस्तथा शूरैरभ्यवर्तत हृष्टवत्।।
8-50-1a
8-50-1b
किरन्निषुगणान्घोरान्हेमपुङ्खाञ्शिलाशितान्।
दर्शयन्विविधान्मार्गाञ्शिक्षया लघुहस्तवान्।।
8-50-2a
8-50-2b
खं पुरयञ्शरैस्तीक्ष्णैर्वेगवद्भिः समन्ततः।
युधिष्ठिरस्य समरे दिशः सर्वाः समावृणोत्।।
8-50-3a
8-50-3b
भारद्वाजशरैश्छन्नं न प्राज्ञायत किञ्चन।
बाणभूतमभूत्सर्वमायोधनशिरो महत्।।
8-50-4a
8-50-4b
बाणजालं दिविष्ठं तत्स्वर्णपुङ्खविभूषितम्।
शुशुभे भरतश्रेष्ठ विमानमिव विष्ठितम्।।
8-50-5a
8-50-5b
तेन च्छन्ने रणे राजन्बाणजालेन भास्वता।
अभ्रच्छायेव सजज्ञे हृतरश्मिस्तमोनुदः।।
8-50-6a
8-50-6b
तदद्भुतमपश्याम बाणभूते नभस्थले।
न स्म सम्पतते भूतं द्रौणेर्दृष्ट्वा पराक्रमम्।।
8-50-7a
8-50-7b
सात्यकिर्यतमानस्तु धर्मराजस्तु पाण्‍डवः।
तथेतराणि सैन्यानि न स्म चक्रुः पराक्रमम्।।
8-50-8a
8-50-8b
लाघवं द्रोणपुत्रस्य दृष्ट्वा तत्र महारथाः।
व्यस्मयन्त महाराज न चैनं प्रत्युदीक्षितुम्।।
8-50-9a
8-50-9b
शेकुस्ते सर्वराजानस्तपन्तमिव भास्करम्।
वध्यमाने ततः सैन्ये द्रौपदेया महारथाः।।
8-50-10a
8-50-10b
सात्यकिर्धर्मराजश्च पाञ्चालाश्चापि सङ्गताः।
त्यक्त्वा मृत्युभयं घोरं द्रौणायनिभुपाद्रवन्।।
8-50-11a
8-50-11b
सात्यकिः सप्तविंशत्या द्रौणिं विद्ध्वा शिलीमुखैः।
पुनर्विव्याध नाराचैः सप्तभिः स्वर्णभूषितैः।।
8-50-12a
8-50-12b
युधिष्ठिरस्त्रिसप्तत्या प्रतिविन्ध्यश्च सप्तभिः।
श्रुतकर्मा त्रिभिर्वाणैः श्रुतकीर्तिश्च सप्तभिः।
8-50-13a
8-50-13b
सुतसोमस्तु नवभिः शतानीकश्च सप्तभिः।
अन्ये च वहवः शूरा विव्यधुस्तं समन्ततः।।
8-50-14a
8-50-14b
स तु क्रुद्धस्ततो राजन्नाशीविप इव श्वसन्।
सात्यकिं पञ्चविंशत्या प्राविध्यत शिलीमुखैः।।
8-50-15a
8-50-15b
श्रुतकीर्तिं च नवभिः सुतसोमं च पञ्चभिः।
अष्टभिः श्रुतकर्माणं प्रतिबिन्ध्यं त्रिभिः शरैः।।
8-50-16a
8-50-16b
शतानीकं च नवभिर्धर्मपुत्रं च पञ्चभिः।
तथेतरांस्ततः शूरान्द्वाभ्यां द्वाभ्यामताडयत्।
श्रुतकीर्तेस्तथा चापं चिच्छेद निशितैः शरैः।।
8-50-17a
8-50-17b
8-50-17c
अथान्यद्वनुरादाय श्रुतकीर्तिर्महारथः।
द्रौणायनिं त्रिभिर्विद्व्वा विव्याधान्यैः शितैः शरैः।।
8-50-18a
8-50-18b
ततो द्रौणिर्महाराज शरवर्षेण भारिष।
छादयामास तत्सैन्यं समन्ताद्भरतर्षभ।।
8-50-19a
8-50-19b
ततः पुनरमेयात्मा धर्मराजस्य कार्मुकम्।
द्रौणिश्चिच्छेद विहसन्विव्याध च शरैस्त्रिभिः।।
8-50-20a
8-50-20b
ततो धर्मसुतो राजन्प्रगृह्यान्यन्महद्धनुः।
द्रोणपुत्रं त्रिपष्टxx ततु बाह्वोरुरसि चार्पययत्।।
8-50-21a
8-50-21b
सात्यकिस्तु ततः क्रुद्धो द्रौणेः प्रहरतो रणे।
अर्धचन्द्रेणतीक्ष्णेन धनुश्छित्त्वाऽनदद्भृशम्।।
8-50-22a
8-50-22b
छिन्नधन्वा ततो द्रौणिः शक्त्या शक्तिमतां वरः।
सारथिं पातयामास शैनेयस्य रथाद्रुतम्।।
8-50-23a
8-50-23b
अथान्यद्वनुरादाय द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
शैनेयं शरवर्षेण च्छादयामास भारत।।
8-50-24a
8-50-24b
तस्याश्वाः प्रद्रुताः सङ्ख्ये पतिते रथसारथौ।
तत्रतत्रैव धावन्तः समदृश्यन्त भारत।।
8-50-25a
8-50-25b
युधिष्ठिरपुरोगास्तु द्रौणिं शस्त्रभृतां वरम्।
अभ्यवर्षन्त वेगेन विसृजन्तः शिताञ्छरान्।।
8-50-26a
8-50-26b
सहसा पततस्तान्वै क्रुद्वरूपान्परन्तपः।
प्रहसन्प्रतिजग्राह द्रोणपुत्रो महारणे।।
8-50-27a
8-50-27b
ततः शरशतज्वालः सेनाकक्षं महारणे।
द्रौणिर्ददाह समरे कक्षमग्निरिवोत्थितः।।
8-50-28a
8-50-28b
तद्बलं पाण्डुपुत्रस्य द्रोणपुत्रप्रतापितम्।
चुक्षुभे भरतश्रेष्ठ तस्मिन्नेव चमूमुखे।।
8-50-29a
8-50-29b
तद्बलं पाण्डवेयस्य द्रोणपुत्रः शरार्चिषा।
तापयन्भरतश्रेष्ठ गभस्तिभिरिवांशुमान्।।
8-50-30a
8-50-30b
तत्पच्यमानं मर्षेण ब्राह्मणस्य च सायकैः।
क्षुभ्यते पाण्डवं सैन्यं तिमिनेव नदीमुखम्।।
8-50-31a
8-50-31b
दृष्ट्वा चैव महाराज द्रोणपुत्रपराक्रमम्।
सर्वान्दुर्योधनः पार्थान्हतान्युद्वेऽभ्यमन्यत।।
8-50-32a
8-50-32b
युधिष्ठिरस्तु त्वरितो द्रौणिं पीड्य महारथम्।
अब्रवीद्द्रोणपुत्रं स रोषामर्षसमन्वितः।।
8-50-33a
8-50-33b
`जानामि त्वां युधि श्रेष्ठ वीर्यवन्तं बलान्वितम्।
कृतास्त्रं कृतिनं चैव तथा लघुपराक्रमम्।।
8-50-34a
8-50-34b
बलमेतद्भवान्सर्वं पार्षते यदि दर्सयेत्।
ततस्त्वां बलवन्तं च कृतविद्यं च विद्महे।।
8-50-35a
8-50-35b
न हि वै पार्पतं दृष्ट्वा समरे शत्रुसूदनम्।
भवेत्तव बलं किञ्चिद्ब्रवीमि त्वां न तु द्विजम्'।।
8-50-36a
8-50-36b
नैव नाम तव प्रीतिर्नैव नाम कृतज्ञता।
यतस्त्वं पुरुषव्याघ्र मामेवाद्य जिघांससि।।
8-50-37a
8-50-37b
ब्राह्मणेन तपः कार्यं शमश्च दमएव च।
क्षत्रियेण धनुर्नाभ्यं स भवान्ब्राह्मणब्रुवः।।
8-50-38a
8-50-38b
मिषतस्ते महावाहो युधि जेष्यामि कौरवान्।
कुरुष्व समरे कर्म ब्रह्मबन्धे यथेष्टतः।।
8-50-39a
8-50-39b
एवमुक्तो महाराज द्रोणपुत्रः सयन्निव।
युक्त तत्त्वं च सञ्चिन्त्य नोत्तरं किञ्चिदब्रवीत्।।
8-50-40a
8-50-40b
अनुक्त्वा च ततः किञ्चिच्छरवर्षेण पाण्डवम्।
छादयामास समरे क्रुद्धोऽन्तक इव प्रजाः।।
8-50-41a
8-50-41b
स च्छाद्यमानस्तु तदा द्रोणपुत्रेण मारिष।
पार्थोऽपयातः शीघ्रं वै प्रगृह्य महतीं चमूम्।।
8-50-42a
8-50-42b
अपयाते ततस्तस्मिन्धर्मपुत्रे युधिष्ठिरे।
द्रोणपुत्रः स्थितो राजन्प्रत्यादेशान्महात्मनः।।
8-50-43a
8-50-43b
ततो युधिष्ठिरो राजंस्त्यक्त्वा द्रौणिं महाहवे।
प्रययौ तावकं सैन्यं युक्तः क्रुराय कर्मणे।।
8-50-44a
8-50-44b
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
सप्तदशदिवसयुद्धे पञ्चाशोऽध्यायः।। 50 ।।
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