महाभारतम्-08-कर्णपर्व-076
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कर्णेन योद्धुंनिर्गच्छतोऽर्जुनस्य शुभनिमित्तप्रादुर्भावः।। 1 ।।
श्रीकृष्णेनार्जुनस्य प्रोत्साहनम्।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-76-1x |
प्रसाद्य धर्मराजानं प्रहृष्टेनान्तरात्मना। सम्पूज्य देवताः सर्व ब्राह्मणान्स्वस्ति वाच्य च। सुमङ्गलं स्वस्त्ययनमारुरोह रथोत्तमम्।। | 8-76-1a 8-76-1b 8-76-1c |
तस्य राजा महाप्राज्ञो धर्मराजो युधिष्ठिरः। आशिषोऽयुङ्क्त परमाः युक्तं कर्णरथं प्रति।। | 8-76-2a 8-76-2b |
तमायान्तं महेष्वासं दृष्ट्वा भूतानि भारत। निहतं मेनिरे कर्णं पाण्डवेन महात्मना।। | 8-76-3a 8-76-3b |
बभूवुर्विमलाः सर्वा दिशो राजन्समन्ततः। चाषाश्च शतपत्राश्च क्रौञ्चाश्चैव जनेश्वर। प्रदक्षिणमकुर्वन्त तदा वै पाण्डुनन्दनम्।। | 8-76-4a 8-76-4b 8-76-4c |
बहवः पक्षिणो राजन्पुन्नामानः शुभाः शिवाः। त्वरयन्तोऽर्जुनं युद्धे हृष्टरूपा ववाशिरे।। | 8-76-5a 8-76-5b |
कङ्का गृध्रा बकाः श्येना वायसाश्च विशाम्पते। अग्रतस्तस्य गच्छन्ति भक्ष्यहेतोर्भयानकाः।। | 8-76-6a 8-76-6b |
निमित्तानि च धन्यानि पाण्डवस्य शशंसिरे। विनाशमरिसैन्यानां कर्णस्य च वधं तथा।। | 8-76-7a 8-76-7b |
प्रयातस्याथ पार्थस्य महान्स्वेदो व्यजायत। चिन्ता च विपुला जज्ञे कथं चेदं भविष्यति।। | 8-76-8a 8-76-8b |
विषण्णं तु ततो ज्ञात्वा सव्यसाचिनमच्युतः। सञ्चोदयति तेजस्वी मधुहा वानरध्वजम्।। | 8-76-9a 8-76-9b |
ततो गाण्डीवधन्वानमब्रवीन्मधुसूदनः। दृष्ट्वा पार्थं तथायान्तं चिन्तापरिगतं तदा।। | 8-76-10a 8-76-10b |
गाण्डीवधन्वन्सङ्ग्रामे ये त्वया धनुषा जिताः। न तेषां मानुषो जेता त्वदन्य इह विद्यते।। | 8-76-11a 8-76-11b |
एते हि बहवः शूराः शक्रतुल्यपराक्रमाः। त्वां प्राप्य समरे शूरं प्रयाताः परमां गतिम्।। | 8-76-12a 8-76-12b |
को हि द्रोणं च भीष्मं च भगदत्तं च मारिष। विन्दानुविन्दावावन्त्यौ काम्भोजं च सुदक्षिणम्।। | 8-76-13a 8-76-13b |
श्रुतायुं चाश्रुतायुं च शतायुं च महारथम्। प्रत्युद्गम्य भवेत्क्षेमी यो न स्यात्त्वद्विधः प्रभुः।। | 8-76-14a 8-76-14b |
तव ह्यस्त्राणि दिव्यानि लाघवं बलमेव च। असम्मोहश्च युद्धेषु विज्ञानस्य च सन्नतिः। वेधः पातश्च लक्षेषु योगश्चैव तथार्जुन।। | 8-76-15a 8-76-15b 8-76-15c |
भवान्देवान्सगन्धर्वान्हन्यात्सर्वांश्च राक्षसान्। पृथिव्यां तु रणे पार्थ न योद्धा त्वत्समः पुमान्।। | 8-76-16a 8-76-16b |
धनुर्गृह्मन्ति ये केचित्क्षत्रिया युद्धदुर्मदाः। आत्मनस्तु समं तेषां न पश्यामि शृणोमि च।। | 8-76-17a 8-76-17b |
ब्रह्मणा हि प्रजाः सृष्टा गाण्डीवं च महद्धनुः। येन त्वं युध्यसे पार्थ तस्मान्नास्ति त्वया समः।। | 8-76-18a 8-76-18b |
अवश्यं तु मया वाच्यं यत्पथ्यं तव पाण्डव। मावमंस्था महाबाहो कर्णमाहवशोभिनम्।। | 8-76-19a 8-76-19b |
कर्णो हि बलवान्दृप्तः कृतास्त्रश्च महारथः। कृती च चित्रयोधी च देशकालस्य कोविदः।। | 8-76-20a 8-76-20b |
बहुनात्र किमुक्तेन संक्षेपाच्छृणु पाण्डव। त्वत्समं त्वद्विशिष्टं वा कर्णं मन्ये महारथम्। परमं यत्नमास्थाय त्वया वध्यो महाहवे।। | 8-76-21a 8-76-21b 8-76-21c |
तेजसा वह्निसदृशो वायुवेगसमो जवे। अन्तकप्रतिमः क्रोधे सिंहसंहननो बली।। | 8-76-22a 8-76-22b |
अष्टरत्निर्महाबाहुर्व्यूढोरस्कः सुदुर्जयः। अभिमानी च शूरश्च प्रवीरः प्रियदर्शनः।। | 8-76-23a 8-76-23b |
सर्वयोधगुणैर्युक्तो मित्राणामभयङ्करः। सततं पाण्डवद्वेषी धार्तराष्ट्रहिते रतः।। | 8-76-24a 8-76-24b |
सर्वैरवध्यो राधेयो देवैरपि सवासवैः। ऋते त्वामिति मे बुद्धिस्तदद्य जहि सूतजम्।। देवैरपि हि संयत्तैर्बिभ्रद्भिर्मांसशोणितम्। अशक्यः स रथो जेतुं सर्वैरपि युयुत्सुभिः।। | 8-76-25a 8-76-25b 8-76-26c 8-76-26d |
दुरात्मानं पापवृत्तं नृशंसं दुष्टप्रज्ञं पाण्डवेयेषु नित्यम्। हीनस्वार्थं पाण्डवेयैर्विरोधे हत्वा कर्णं निश्चितार्थो भवाद्य।। | 8-76-27a 8-76-27b 8-76-27c 8-76-27d |
तं सूतपुत्रं रथिनां वरिष्ठं निष्कालिकं कालवशं नयाद्य। तं सूतपुत्रं रथिनां वरिष्ठं हत्वा प्रीतिं धर्मराजे कुरुष्व।। | 8-76-28a 8-76-28b 8-76-28c 8-76-28d |
जानामि ते पार्थं वीर्यं यथाव-- द्दुर्वारणीयं च सुरासुरैश्च। सदावजानाति हि पाण्डुपुत्रा-- नसौ दर्पात्सूतपुत्रो दुरात्मा।। | 8-76-29a 8-76-29b 8-76-29c 8-76-29d |
आत्मानं मन्यते वीरं येन पापः सुयोधनः। तमद्य मूलं पापानां जहि सौतिं धनञ्जय।। | 8-76-30a 8-76-30b |
खङ्गजिह्वं धनुरास्यं शरदंष्ट्रं तरस्विनम्। दृप्तं पुरुषशार्दूलं जहि कर्णं धनञ्जय।। | 8-76-31a 8-76-31b |
अहं त्वामनुजानामि वीर्येण च बलेन च। जहि कर्णं रणे शूरं मातङ्गमिव केसरी।। | 8-76-32a 8-76-32b |
यस्य वीर्येण वीर्यं ते धार्तराष्ट्रोऽवमन्यते। तमद्य पार्थ सङ्ग्रामे कर्णं वैकर्तनं जहि।। | 8-76-33a 8-76-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे षट्सप्ततितमोऽध्यायः।। 76 ।। |
8-76-23 रत्निस्त्वेकविंशत्यङ्गुलः। अष्टानां रत्नीनां अष्टषष्ट्यधिकं शतं अङ्गुलानि च भवन्ति।। 8-76-28 निष्कालिकं निर्गतः कालयिता जेतास्येति तम्।। 8-76-76 षट्सप्ततितमोऽध्यायः।।
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