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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-015

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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-015
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कर्णनकुलयोर्युद्धम्।। 1 ।। कर्णेन नकुलस्य पराभावनपूर्वकं सोपहासमधिक्षेपः।। 2 ।।

सञ्जय उवाच। 8-15-1x
नकुलं रभसं युद्धे द्रावयन्तं वरूथिनीम्।
कर्णो वैकर्तनो राजन्वारयामास वै रुषा।।
8-15-1a
8-15-1b
नकुलस्तु ततः कर्णं प्रहसन्निदमब्रवीत्।।
चिरस्य बत दृष्टोऽहं दैवतैः सौम्यचक्षुषा।
8-15-2a
8-15-2b
यस्य मे त्वं रणे पाप चक्षुर्विषयमागतः।।
त्वं हि मूलमनर्थानां वैरस्य कलहस्य च।
8-15-3a
8-15-3b
त्वद्दोषात्कुरवः क्षीणाः समासाद्य परस्परम्।
त्वामद्य समरे हत्वा कृतकृत्योऽस्मि विज्वरः।।
8-15-4a
8-15-4b
एवमुक्तः प्रत्युवाच नकुलं सूतनन्दनः।
सदृशं राजपुत्रस्य धन्विनश्च विशेषतः।।
8-15-5a
8-15-5b
प्रहरस्व च मे वीर पश्यामस्तव पौरुषम्।
कर्म कृत्वा रमे शूर ततः कत्थितुमर्हसि।।
8-15-6a
8-15-6b
अनुक्त्वा समरे तात शूरा युध्यन्ति शक्तितः।
प्रयुध्यस्व मया शक्त्या हनिष्ये दर्पमेव ते।।
8-15-7a
8-15-7b
इत्युक्त्वा प्राहरत्तूर्णं पाण्डुपुत्राय सूतजः।
विव्याध चैनं समरे त्रिसप्तत्या शिलीमुखैः।।
8-15-8a
8-15-8b
नकुलस्तु ततो विद्वः सूतपुत्रेण भारत।
अशीत्याऽऽशीविषप्रख्यैः सूतपुत्रमविध्यत।।
8-15-9a
8-15-9b
तस्य कर्णो धनुश्छित्त्वा स्वर्णपुङ्खैः शिलाशितैः।
त्रिंशता परमेष्वासः शरैः पाण्डवमर्दयत्।।
8-15-10a
8-15-10b
ते तस्य कवचं भित्त्वा पपुः शोणितमाहवे।
आशीविषा यथा नागा भित्त्वा गां सलिलं पपुः।।
8-15-11a
8-15-11b
अथान्यद्वनुरादाय हेमपृष्ठं दुरासदम्।
कर्णं विव्याध सप्तत्या सारथिञ्च त्रिभिः शरैः।।
8-15-12a
8-15-12b
ततः क्रुद्धो महाराज नकुलः परवीहा।
क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन कर्णस्य धनुराच्छिनत्।।
8-15-13a
8-15-13b
अथैनं छिन्नधन्वानं सायकानां शतैस्त्रिभिः।
आजघ्ने प्रहसन्वीरः सर्वलोकमहारथम्।।
8-15-14a
8-15-14b
कर्णमभ्यर्दितं दृष्ट्वा पाण्डुपुत्रेण मारिष।
विस्मयं परमं जग्मुर्ऋषयः सह दैवतैः।।
8-15-15a
8-15-15b
अथान्यद्वनुरादाय कर्णो वैकर्तनस्तदा।
नकुलं पञ्छभिर्बाणैर्जत्रुदेशे समार्पयत्।।
8-15-16a
8-15-16b
उरस्थैरथ तैर्बाणैर्माद्रीपुत्रो व्यरोचत।
स्वरश्मिभिरिवादित्यो भुवने विसृजन्प्रभाम्।।
8-15-17a
8-15-17b
नकुलस्तु ततः कर्णं विद्व्वा सप्तभिराशुगैः।
अथास्य धनुषः कोटिं पुनश्चिच्छेद मारिष।।
8-15-18a
8-15-18b
सोऽन्यत्कार्मुकमादाय समरे वेगवत्तरम्।
नकुलस्य ततो बैणैः समन्ताच्छादयद्दिशः।।
8-15-19a
8-15-19b
सञ्छाद्यमानः सहसा कर्णचाप्युतैः सरैः।
चिच्छेद स शरांस्तूर्णं शरैरेव महारथः।।
8-15-20a
8-15-20b
ततो बाणमयं जालं विततं व्योम्न्यदृश्यत।
खद्योतानामिव व्रातैः सम्पतद्भिर्यथा नभः।।
8-15-21a
8-15-21b
तैर्विमुक्तैः शरशतैश्छादितं गगनं तदा।
शलभानां यथा व्रातैस्तद्वदासीद्विशाम्पते।।
8-15-22a
8-15-22b
ते शरा हेमविकृताः सम्पन्तौ मुहुर्मुहुः।
श्रेणीकृता व्यकाशान्त क्रौञ्चाः श्रेणीकृता इव।।
8-15-23a
8-15-23b
बाणजालवृते व्योम्नि च्छादिते च दिवाकरे।
न स्म सम्पतते भूतं किञ्चिदप्यन्तरिक्षगम्।।
8-15-24a
8-15-24b
निरुद्वे तत्र मार्गे च शरसङ्घैः समन्ततः।
व्यरोचेतां महात्मानौ कालसूर्याविवोदितौ।।
8-15-25a
8-15-25b
कर्णचापच्युतैर्बाणैर्वध्यमानास्तु सोमकाः।
अवालीयन्त राजेन्द्र वेदनार्ता भूशार्दिताः।।
8-15-26a
8-15-26b
नकुलस्य तथा बाणैर्हन्यमाना चमूस्तव।
व्यशीर्यत दिशो राजन्वातनुन्ना इवाम्बुदाः।।
8-15-27a
8-15-27b
ते सेने हन्यमाने तु ताभ्यां दिव्यैर्महाशरैः।
शरपातमपाक्रम्य तस्थतुः प्रेक्षिके तदा।।
8-15-28a
8-15-28b
प्रोत्सारितजने तस्मिन्कर्णपाण्डवयोः शरैः।
अविध्येतां महात्मानावन्योन्यं शरवृष्टिभिः।।
8-15-29a
8-15-29b
विदर्शयन्तौ दिव्यानि शस्त्राणि रणमूर्धनि।
छादयन्तौ च सहसा परस्परवधैषिणौ।।
8-15-30a
8-15-30b
नकुलेन शरा मुक्ता कङ्कबर्हिणवाससः।
सूतपुत्रमवच्छाद्य व्यतिष्ठन्त यथाऽम्बरे।।
8-15-31a
8-15-31b
तथैव सूतपुत्रेण प्रेषिताः परमाहवे।
पाण्डुपुत्रमवच्छाद्य व्यतिष्ठन्ताम्बरे शराः।।
8-15-32a
8-15-32b
शरवेश्मप्रविष्टौ तौ ददृशाते न कैश्चन।
सूर्याचन्द्रमसौ राजञ्छाद्यमानौ घनैरिव।।
8-15-33a
8-15-33b
ततः क्रुद्धो रणे कर्णः कृत्वा घोरतरं वपुः।
पाण्डवं छादयामास समन्ताच्छरवृष्टिभिः।।
8-15-34a
8-15-34b
सोऽतिच्छन्नो महाराज सूतपुत्रेण पाण्डवः।
न चकार व्यथां राजन्भास्करो जलदैर्यथा।।
8-15-35a
8-15-35b
ततः प्रहस्याधिरथिः शरजालानि मारिष।
प्रेषयामास समरे शतशोऽथ सहस्रशः।।
8-15-36a
8-15-36b
एकच्छायमभूत्सर्वं तस्य बाणैर्महात्मनः।।
अभ्रच्छायेव सञ्जज्ञे सम्पतद्भिः शरोत्तमैः।।
8-15-37a
8-15-37b
ततः कर्णो महाराज धनुश्छित्त्वा महात्मनः।
सारथिं पातयामास रथनीडाद्वसन्निव।।
8-15-38a
8-15-38b
ततोऽश्वांश्छतुरश्चास्य चतुर्भिर्निशितैः शरैः।
यमस्य भवनं तूर्णं प्रेषयामास भारत।।
8-15-39a
8-15-39b
अथास्य तं रथं दिव्यं तिलशो व्यधमच्छरैः।
पताकां चक्ररक्षांश्च गदां खङ्गं च मारिष।।
8-15-40a
8-15-40b
शतचन्द्रं च तच्चर्म सर्वापकरणानि च।
`सुवर्णविकृतं तच्च धनुः शरमाहवे'।।
8-15-41a
8-15-41b
हताश्वो विरथश्चैव विवर्मा च विशाम्पते।
अवतीर्य रथात्तूर्णं परिघं गृह्य धिष्ठितः।।
8-15-42a
8-15-42b
तमुद्यतं महारघोरं परिघं तस्य सूतजः।
व्यहनत्सायकै राजन्सुतीक्ष्णैर्भारसाधनैः।।
8-15-43a
8-15-43b
व्यायुधं चैनमालक्ष्य शरैः सन्नतपर्वभिः।
आर्पयद्बहुभिः कर्णो न चैनं समपीडयत्।।
8-15-44a
8-15-44b
स हन्यमानः समरे कृतास्त्रेण बलीयसा।
प्राद्रवत्सहसा राजन्नकुलो व्याकुलेन्द्रियः।।
8-15-45a
8-15-45b
तमभिद्रुत्य राधेयः प्रहसन्वै पुनःपुनः।
सज्यमस्य धनुः कण्ठे व्यवासृजत भारत।।
8-15-46a
8-15-46b
ततः स शुशुभे राजन्कण्ठासक्तमहाधनुः।
परिवेषमनुप्राप्तो यथा स्याद्व्योम्नि चन्द्रमाः।।
8-15-47a
8-15-47b
यथैव चासितो मेघः शक्रचापेन शोभितः।
`अशोभत महाराज पाण्डुपुत्रस्तथा रणे'।।
8-15-48a
8-15-48b
तमब्रवीत्ततः कर्णो व्यर्थं व्याहृतवानसि।
वदेदानीं पुनर्हृष्टो वध्यमानः पुनःपुनः।।
8-15-49a
8-15-49b
मा योत्सीः कुरुभिः सार्धं बलवद्भिश्च पाण्डव।
सदृशैस्तात युध्यस्व व्रीडां मा कुरु पाण्डव।।
8-15-50a
8-15-50b
गृहं वा गच्छ माद्रेय यत्र वा कृष्णफल्गुनौ।
एवमुक्त्वा महाराज विससर्ज स तं तदा।।
8-15-51a
8-15-51b
वधप्राप्तं तु तं शूरो नाहनद्वर्मवित्तदा।
स्मृत्वा कुन्त्या वचो राजंस्तत एनं व्यसर्जयत्।।
8-15-52a
8-15-52b
विसृष्टः पाण्डवो राजन्सूतपुत्रेण धन्विना।
व्रीडन्निव जगामाथ युधिष्ठिररथं प्रति।।
8-15-53a
8-15-53b
आरुरोह रथं चापि सूतपुत्रप्रतापितः।
निःश्वसन्दुःखसन्तप्तः कुम्भक्षिप्त इवोरगः।।
8-15-54a
8-15-54b
तं विजित्याथ कर्णोऽपि पाञ्चालांस्त्वरितो ययौ।
रथेनातिपताकेन चन्द्रवर्णहयेन च।।
8-15-55a
8-15-55b
तत्राक्रन्दो महानासीत्पाण्डवानां विशाम्पते।
दृष्ट्वा सेनापतिं यान्तं पाञ्चालानां रथव्रजान्।।
8-15-56a
8-15-56b
तत्राकरोन्महाराज कदनं सूतनन्दनः।
मध्यं प्राप्ते दिनकरे चक्रवद्विचरन्प्रभुः।।
8-15-57a
8-15-57b
भग्नचक्रै रथैः कैश्चिच्छिन्नध्यवजपताकिभिः।
हताश्वैर्हतसूतैश्च भग्नाक्षैश्चैव मारिष।
हियमाणानपश्याम पाञ्चालानां रथव्रजान्।।
8-15-58a
8-15-58b
8-15-58c
तत्रतत्र च सम्भ्रान्ता विचेरुरथ कुञ्जराः।
दावाग्न्यभिपरीताङ्गा यथैव स्युर्महावने।।
8-15-59a
8-15-59b
भिन्नकुम्भाः सरुधिराश्छिन्नहस्ताश्च वारणाः।
छिन्नगात्रावराश्चैव च्छिन्नवालधयोऽपरे।
छिन्नाभ्राणीव सम्पेतुर्हन्यमाना महात्मना।।
8-15-60a
8-15-60b
8-15-60c
अपरे त्रासिता नागा नाराचशरतोमरैः।
तमेवाभिमुखं जग्मुः शलभा इव पावकम्।।
8-15-61a
8-15-61b
अपरे निष्टनन्तश्च व्यदृश्यन्त महाद्विपाः।
क्षरन्तः शोणितं गात्रैर्नगा इव जलस्रवाः।।
8-15-62a
8-15-62b
उरश्छदैर्वियुक्तांश्च वालबन्धैश्च वाजिनः।
राजतैश्च तथा कांस्यैः सौवर्णैश्चैव भूषणैः।।
8-15-63a
8-15-63b
हीनांश्चाभरणैश्चैव खलीनैश्च विवर्जितान्।
चामरैश्च कुथाभिश्च तूणीरैः पतितैरपि।।
8-15-64a
8-15-64b
निहतैः सादिभिश्चैव शूरैराहवशोभितैः।
अपश्याम रणे तत्र भ्राम्यमाणान्हयोत्तमान्।।
8-15-65a
8-15-65b
प्रासैः खङ्गैश्च रहितानृष्टिभिश्चापि भारत।
हयसादीनपश्याम कञ्चुकोष्णीषधारिणः।।
8-15-66a
8-15-66b
निहतान्वध्यमानांश्च वेपमानांश्च भारत।
नागाङ्गावयवैर्हीनांस्तत्रतत्रैव भारत।।
8-15-67a
8-15-67b
रथान्हेमपरिष्कारान्संयुक्ताञ्जवनैर्हयैः।
भ्राम्यमाणानपश्याम हतेषु रथिषु द्रुतम्।।
8-15-68a
8-15-68b
भग्नाक्षकूबरान्कांश्चिद्भग्नचक्रांश्च भारत।
विपताकध्वजांश्चान्याञ्छिन्नेषादण्डबन्धुरान्।।
8-15-69a
8-15-69b
विहीनान्रथिनस्तत्र धावमानांस्ततस्ततः।
सूतपुत्रशरैस्तीक्ष्णैर्हन्यमानान्विशाम्पते।।
8-15-70a
8-15-70b
विशस्त्रांश्च तथैवान्यान्सशस्त्रांश्च हतान्बहून्।
तारकाजालसञ्छन्नान्वरघण्टाविशोभितान्।।
8-15-71a
8-15-71b
नानावर्णविचित्राभिः पताकाभिरलङ्कृतान्।
वारमआननुपश्याम धावमानान्समन्ततः।।
8-15-72a
8-15-72b
शिरांसि बाहूनूरूंश्च च्छिन्नानन्यांस्तथैव च।
कर्णचापच्युतैर्बाणैरपश्याम समन्ततः।।
8-15-73a
8-15-73b
महान्व्यतिकरो रौद्रो योधानामन्वपद्यत।
कर्णसायकनुन्नानां युध्यतां च शितैः शरैः।।
8-15-74a
8-15-74b
ते वध्यमानाः समरे सूतपुत्रेण सृञ्जयाः।
तमेवाभिमुखं यान्ति पतङ्गा इव पावकम्।।
8-15-75a
8-15-75b
तं दहन्तमनीकानि तत्रतत्र महारथम्।
क्षत्रिया वर्जयामासुर्युगान्ताग्निमिवोल्बणम्।।
8-15-76a
8-15-76b
हतशेषास्तु ये वीराः पाञ्चालानां महारथाः।
तान्प्रभग्रान्दुतान्वीरः पृष्ठो विकिऱञ्छरैः।
अभ्यधावत तेजस्वी विशीर्णवचनध्वजान्।।
8-15-77a
8-15-77b
8-15-77c
तापयामास तान्बाणैः सूतपुत्रो महाबलः।
मध्यन्दिनमनुप्राप्तो भूतानीव तमोनुदः।।
8-15-78a
8-15-78b
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
षोडशदिवसयुद्धे पञ्चदशोऽध्यायः।। 15 ।।

8-15-1 रभसं रणोत्सुकम्।। 8-15-11 आशीविषा यथा राजन्भित्त्वा गां सलिलं भृशम्। इति क.ख.ट.पाठः।। 8-15-25 बालसूर्याविवोदितौ इति ख.पाठः।। 8-15-37 एकबाणमभूत्सर्वं इति क.ट.पाठः।। 8-15-58 म्रियमाणान्पश्याम इति क.ख.ट.पाठः।। 8-15-67 नागाङ्गावयवैरित्यर्धं झ.पुस्तकएव दृश्यते।। 8-15-15 पञ्चदशोऽध्यायः।।

कर्णपर्व-014 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-016