महाभारतम्-08-कर्णपर्व-087
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भीमेन राज्ञां समक्षं दुःशासनवक्षसो रक्तपानम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-87-1x |
सर राजपुत्रेण समार्च्छदुग्र-- दुःशासनेन निकृतो निकृत्या।। | 8-87-1a 8-87-1b |
तत्राकरोद्दुष्करं राजपुत्रो दुःशासनः कुरुवीरो महात्मा। यद्भीमसेनं प्रतियोधयद्रणे जम्भो यथा शक्रमुदारवीर्यम्।। | 8-87-2a 8-87-2b 8-87-2c 8-87-2d |
धनुच्छित्त्वा भीमसेनस्य सङ्ख्ये षड्भिः शरैः सारथिमभ्यविध्यत्। ततोऽविध्यत्त्रिंशता भीमसेनं वरेषुभिर्वन्यमिव द्विपेन्द्रम्।। | 8-87-3a 8-87-3b 8-87-3c 8-87-3d |
स कार्मुकं गृह्य तु भारसाधनं भीमस्तदा राजपुत्रं ह्यविध्यत्। पञ्चाशतैर्बाणगणैः स्तनानन्तरे तोत्रैर्यथा तीव्रवेगं द्विपेन्द्रम्।। | 8-87-4a 8-87-4b 8-87-4c 8-87-4d |
ततस्तु राजन्विरथं महात्मा दुःशासनो भीमसेनं चकार। निहत्य सङ्ख्ये चतुरोऽस्य बाहा-- ञ्छित्त्वा रथेषां पुनरेव चाक्षिपत्।। | 8-87-5a 8-87-5b 8-87-5c 8-87-5d |
ततः क्षितिस्वो ह्यबरुह्य याना-- द्वृकोदरो मदया तस्य वाहान्। यमक्षयं प्रेषयित्वा महात्मा रथं समाकर्पत राजसूनोः।। | 8-87-6a 8-87-6b 8-87-6c 8-87-6d |
तस्मादवप्लुत्य रथात्ससर्ज दुःशासनस्तोमरमुग्रवेगम्। स तेन विद्धो ह्युरसि ह्यप्रमेयो गदां तस्मै विससर्जाप्रमेयाम्।। | 8-87-7a 8-87-7b 8-87-7c 8-87-7d |
ततः क्रोधाद्भीमसेनः कृतानि सर्वाणि दुःखान्यनुसंस्मरन्वै। संस्मृत्य संस्मृत्य तथा प्रतिज्ञा-- मुग्रामसौ राजपुत्रौ व्यषीदत्।। | 8-87-8a 8-87-8b 8-87-8c 8-87-8d |
सञ्चिन्तितं रोषमतीव वेगा- त्त्रयोदशाब्दं पुरुषप्रवीरः। प्रगृह्य वज्राशनितुल्यवेगां गदां करेणाथ वृकोदरो रुषा।। | 8-87-9a 8-87-9b 8-87-9c 8-87-9d |
निपातयित्वा पृथिवीतले भृशं स ताजयामा वृकोदरो बली। अतीव सन्ताडितभिन्नगात्रो दुःशासनो वै निपपात भूमौ।। | 8-87-10a 8-87-10b 8-87-10c 8-87-10d |
आक्रम्य कण्ठे युधि राजपुत्रं संरक्तनेत्रो ह्यब्रवीद्धार्तराष्ट्रम्। तद्ब्रूहि किं त्वं परिमार्गमाणो ह्यस्मान्पराभूय इहागतः पुनः।। | 8-87-11a 8-87-11b 8-87-11c 8-87-11d |
दिदीपयंस्तद्भृशदीपितं मे चिरार्जितं रोषमतिप्रदीप्तम्। मधु प्रपास्ये तव कोष्टभाजना-- दित्यब्रवीद्भीमसेनस्तरस्वी।। | 8-87-12a 8-87-12b 8-87-12c 8-87-12d |
दुःशासनं कण्ठदेशे प्रमृद्रं-- स्ततः क्रूरं भीमसेनश्चकार। कतं व्यंसयित्वा सहसा ससार बलादसौ धार्तराष्ट्रस्तरस्वी।। | 8-87-13a 8-87-13b 8-87-13c 8-87-13d |
भीमोऽभिदुद्राव सुतं त्वदीयं सपत्रतां दर्शयन्धार्तराष्ट्रे। मृगं मुहुः सिंहशिशुर्यथा वने तथाश्वभिद्रुत्य महाबलं बली।। | 8-87-14a 8-87-14b 8-87-14c 8-87-14d |
निगृह्य चैनं परमेण कर्मणा उत्क्षिप्य चोत्क्षिप्य च तूर्णमेनम्। भूमौ तदा निष्पिपेषाथ वीर असिं विकोशं विमलं चकार।। | 8-87-15a 8-87-15b 8-87-15c 8-87-15d |
तं पातयित्वा तु वृकोदरोऽथ जगर्ज हर्षेण विनादयन्दिशः। नादेन तेनाखिलपार्श्ववर्तिनो मूर्च्छाकुलाः पतितास्त्वाजमीढ।। | 8-87-16a 8-87-16b 8-87-16c 8-87-16d |
दुःशासनं तत्र समीक्ष्य राज-- न्भीमो महाबाहुरचिन्त्यकर्मा। स्मृत्वा च केशग्रहणं च देव्या वस्त्रापहारं च रजस्वलायाः।। | 8-87-17a 8-87-17b 8-87-17c 8-87-17d |
अनागसो भर्तृपराङ्मुखाया दुःखानि दत्तान्यपि विप्रचिन्त्या। जज्वाल कोपादथ भीमसेन आज्यप्रसिक्तो हि यथा हुताशः।। | 8-87-18a 8-87-18b 8-87-18c 8-87-18d |
तत्राह कर्णं च सुयोधनं च कृपं द्रौणिं कृतवर्माणमेव। निहन्मि दुःशासनमद्य पापं संरक्ष्यतामद्य समस्तयोधाः।। | 8-87-19a 8-87-19b 8-87-19c 8-87-19d |
सुयोधनस्याधिरथेः समक्षम्।। | 8-87-20f |
असिं समुद्यम्य सितं सुधारं कण्ठे पदाक्रम्य च वेपमानम्। उवाच तद्गौरिति यद्ब्रुवाणो हृष्टोऽवदः कर्णसुयोधनाभ्याम्।। | 8-87-21a 8-87-21b 8-87-21c 8-87-21d |
ये राजसूयावभृथे पवित्रा जाताः कछा याज्ञसेन्या दुरात्मन्। ते पाणिना कतरेणावकृष्टा-- स्तद्ब्रूहि त्वां पृच्छति भीमसेनः।। | 8-87-22a 8-87-22b 8-87-22c 8-87-22d |
जगाद भीमं परिवृत्तनेत्रः।। | 8-87-23f |
अयं करिकराकारः पीनस्तनविमर्दनः। गोसहस्रप्रदाता च क्षत्रियान्तकरः करः।। | 8-87-24a 8-87-24d |
अनेन याज्ञसेन्या मे भीम केशा विकर्षिताः। पश्यतां कुरुमुख्यानां युष्माकं च सभासदाम्।। | 8-87-25a 8-87-25b |
एवं त्वसौ राजसुतं निशम्य ब्रुवन्तमाजौ विनिपीड्य वक्षः। भीमो बलात्तं प्रतिगृह्य दोर्भ्या-- मुच्चैर्ननादाथ समस्तयोधान्।। | 8-87-26a 8-87-26b 8-87-26c 8-87-26d |
उवाच यस्यास्ति बलं स रक्ष-- त्वसौ भवेदद्य निरस्तबाहुः। दुःशानं जीवितं प्रोत्सृजन्त-- माक्षिप्य योधांस्तरसा महाबलः।। | 8-87-27a 8-87-27b 8-87-27c 8-87-27d |
एवं क्रुद्धो भीमसेनः करेण उत्पाटयामास भुजं महात्मा। दुःशासनं तेन स वीरमध्ये जघान वज्राशनिसन्निभेन।। | 8-87-28a 8-87-28b 8-87-28c 8-87-28d |
कण्ठे समाक्रम्य च वेपमानं कृत्वाऽनु रूपं परमं सुघोरम्। कालान्तकाभ्यां सदृशं तदानीं विदार्य वक्षश्च महारथस्य।। | 8-87-29a 8-87-29b 8-87-29c 8-87-29d |
दुःशासनस्य निपुशासनस्य उद्धृत्य वक्षः पतितस्य भूमौ। ततोऽपिबच्छोणितमस्य कोष्ण-- मास्वाद्य चास्वाद्य च वीक्षमाणः।। | 8-87-30a 8-87-30b 8-87-30c 8-87-30d |
क्रुद्धः प्रहृष्टो निजगाद वाक्यं स्तन्यस्य मातुः पयसोऽमृतस्य। माध्वीकजस्येव रसस्य तस्य मधोश्च पानाद्यवकस्य पानात्।। | 8-87-31a 8-87-31b 8-87-31c 8-87-31d |
पयोदधिभ्यां मथिताच्च मुख्या-- त्तथेक्षुसारस्य मनोहरस्य। सर्वेभ्य एवाभ्यधिको रसोऽस्य मतो ममाद्याहितलोहितस्य।। | 8-87-32a 8-87-32b 8-87-32c 8-87-32d |
एवं ब्रुवाणं पुनरुत्थितं त-- मास्फोट्य वल्गन्तमतिप्रहृष्टम्। ये भीमसेनं ददृशुस्तदानीं प्रायेण तेऽपि व्यथिता निपेतुः।। | 8-87-33a 8-87-33b 8-87-33c 8-87-33d |
ये चापि नासन्पतिता मनुष्या-- स्तेषां करेभ्यः पतितं तु शस्त्रम्। भयाच्च सञ्चुक्रुशुरस्वरैस्तदा निमीलिताक्षा मुमुहुश्च तत्र।। | 8-87-34a 8-87-34b 8-87-34c 8-87-34d |
ये तत्र भीमं रुधिरं पिबन्तं दुःशासनस्य ददृशुः प्रपन्नाः। नायं मनुष्यस्त्विति भाषमाणाः सर्वेऽपलायन्त भयाभिपन्नाः।। | 8-87-35a 8-87-35b 8-87-35c 8-87-35d |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे सप्तशीतितमोऽध्यायः।। 87 ।। |
8-87-27 योधानाक्षिप्य उवाचेत्यन्वयः।। 8-87-32 अहितस्य शत्रोःदुःशासनस्य लोहितस्य रक्तस्य।। 8-87-87 सप्ताशीतितमोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-086 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-088 |