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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-006

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कर्णवधश्रवणानन्तरीयकधृतराष्ट्रप्रवृत्तिं पृष्टेन वैशम्पायनेन कर्णदुर्योधनस्तुतिनिन्दापूर्वकं सञ्जयम्प्रति कर्णार्जुनयुद्धकथनचोदनारूपधृतराष्ट्रप्रवृत्तिकथनम्।। 1 ।।

सञ्जय उवाच। 8-6-1x
श्रिया कुलेन यशसा तपसा च श्रुतेन च।
त्वामद्य सन्तो मन्यन्ते ययातिमिव नाहुषम्।।
8-6-1a
8-6-1b
श्रुते महर्षिप्रतिमः कृतकृत्योऽसि पार्थिव।
पर्यवस्थापयात्मानं मा विषादे मनः कृथाः।।
8-6-2a
8-6-2b
धृतराष्ट्र उवाच। 8-6-3x
दैवमेव परं मन्ये धिक्पौरुषमनर्थकम्।
यत्र सालप्रतीकाशः कर्णोऽहन्यत संयुगे।।
8-6-3a
8-6-3b
हत्वा युधिष्ठिरानीकं पाञ्चालानां रथव्रजान्।
प्रताप्य शरवर्षेण दिशः सर्वा महारथः।।
8-6-4a
8-6-4b
मोहियित्वा रणे पार्थान्वज्नहस्त इवासुरान्।
स कथं निहतः शेते वायुरुग्ण इव द्रुमः।।
8-6-5a
8-6-5b
शोकस्यान्तं न पश्यामि पारं जलनिधेरिव।
चिन्ता मे वर्धतेऽतीव मुमूर्षा चापि जायते।।
8-6-6a
8-6-6b
कर्णस्य निधनं श्रुत्वा विजयं फल्गुनस्य च।
अश्रद्धेयमहं मन्ये वधं कर्णस्य सञ्जय।।
8-6-7a
8-6-7b
वज्रसारमिदं नूनं हृदयं दुर्भिदं मम।
यच्छ्रुत्वा पुरुषव्याघ्रं हतं कर्णं न दीर्यते।।
8-6-8a
8-6-8b
आर्युर्नूनं सुदीर्घं मे विहितं दैवतैः पुरा।
यत्र कर्णं हतं श्रुत्वा जीवामीह सुदुःखितः।।
8-6-9a
8-6-9b
धिग्जीवितमिदं चैव सुहृद्वीनस्य सञ्जय।
अद्य चाहं दशामेतां गतः सञ्जय गर्हिताम्।
कृपणं वर्तयिष्यामि शोच्यः सर्वस्य मन्दधीः।।
8-6-10a
8-6-10b
8-6-10c
अहमेव पुरा भूत्वा सर्वलोकस्य सत्कृतः।
परिभूतः कथं सूत परैः शक्ष्यामि जीवितुम्।।
8-6-11a
8-6-11b
दुःखाद्दुःखतरं भन्ये प्राप्तवानस्मि सञ्जय।
भीष्मद्रोणवधेनैव कर्णस्य च महात्मनः।।
8-6-12a
8-6-12b
नावशेषं प्रपश्यामि सूतपुत्रे हते युधि।
सहि पारं महानासीत्पुत्राणां मम सञ्जय।।
8-6-13a
8-6-13b
युद्धे हि निहतः शूरो विसृजन्सायकान्बहून्।
को हि मे जीवितेनार्थस्तमृते पुरुषर्षभम्।।
8-6-14a
8-6-14b
रथादाधिरथिर्नूनं न्यपतत्सायकार्दितः।
पर्वतस्येव शिखरं व ज्रपाताद्विदारितम्।।
8-6-15a
8-6-15b
स शेते पृथिवीं नूनं शोभयन्रुधिरोक्षितः।
मातङ्ग इव मत्तेन मताङ्गेन निपातितः।।
8-6-16a
8-6-16b
यो बलं धार्तराष्ट्राणां पाण्डवानां यतो भयम्।
सोऽर्जुनेन हतः कर्णः प्रतिमानं धनुष्मताम्।।
8-6-17a
8-6-17b
स हि वीरो महेष्वासो मित्राणामभयङ्करः।
शेते विनिहतो वीरः शक्रेणेव पुरा बलः।।
8-6-18a
8-6-18b
पङ्गोरिवाध्वगमनं दरिद्रस्येव कामितम्।
दुर्योधनस्य लोभश्च समान्येतानि सञ्जय।।
8-6-19a
8-6-19b
अन्यथा चिन्तितं कार्यमन्यथा तत्तु जायते।
अहो नु बलवद्दैवं कालश्च दुरतिक्रमः।।
8-6-20a
8-6-20b
पलायमानः कृपणो दीनात्मा दीनपौरुषः।
कच्चिद्विनिहतः सूत पुत्रो दुःशासनो मम।।
8-6-21a
8-6-21b
कच्चिन्न दीनाचरितं कृतवांस्तात संयुगे।
कच्चिन्न निहतः शूरा यथाऽन्ये क्षत्रियर्षभाः।।
8-6-22a
8-6-22b
युधिष्ठिरस्य वचनं मा युद्धमिति सर्वदा।
दुर्योधनो नाभ्यगृह्णान्मूढः पथ्यमिवौषधम्।।
8-6-23a
8-6-23b
शतल्पे शयानेन भीष्मेण सुमहात्मना।
पानीयं याचितः पार्थः सोविध्यन्मेदिनीतलम्।।
8-6-24a
8-6-24b
जलस्य धारां जनितां दृष्ट्वा पाण्डुसुतेन च।
अब्रवीत्स महाबाहुस्तात संशाम्य पाण्डवैः।।
8-6-25a
8-6-25b
प्रशमाद्वि भवेच्छान्तिर्मदन्तं युद्धमस्तु वः।
भ्रातृभावेन पृथिवीं भुङ्क्ष्व पाण्डुसुतैः सह।।
8-6-26a
8-6-26b
अकुर्वन्वचनं तस्य नूनं शोचति पुत्रकः।
तदिदं समनुप्राप्त वचनं दीर्घदर्शिनः।।
8-6-27a
8-6-27b
अहं तु निहतामात्यो हतपुत्रश्च सञ्जय।
द्यूततः कृच्छ्रमापन्नो लूनपक्ष इव द्विजः।।
8-6-28a
8-6-28b
यथा हि शकुनिं गृह्य छित्त्वा पक्षौ च सञ्जय।
विसर्जयन्ति संहृष्टाः क्रीडमानाः कुमारकाः।।
8-6-29a
8-6-29b
लूनपक्षतया तस्य गमनं नोपपद्यते।
तथाहमपि सम्प्राप्तो लूनपक्ष इव द्विजः।।
8-6-30a
8-6-30b
क्षीणः सर्वार्थहीनश्च निर्ज्ञातिर्बन्धुवर्जितः।
कां दिशं प्रतिपत्स्यामि दीनः शत्रुवशं गतः।।
8-6-31a
8-6-31b
वैशम्पायन उवाच। 8-6-32x
इत्येवं धृतराष्ट्रोऽथ विलप्य बहुदुःखितः।
प्रोवाच सञ्जयं भूयः सोकव्याकुलमानसः।।
8-6-32a
8-6-32b
धृतराष्ट्र उवाच। 8-6-33x
योऽजयत्सर्वकाम्भोजानम्बष्ठान्कैकयैः सह।
गान्धारांश्च विदेहांश्च जित्वा कार्यार्थमाहवे।।
8-6-33a
8-6-33b
दुर्योधनस्य वृद्ध्यर्थं योऽजयत्पृथिवीं प्रभुः।
स जितः पाण्डवैः शूरैः समरे वाहुशालिभिः।।
8-6-34a
8-6-34b
तस्मिन्हते महेष्वासे कर्णे युधि किरीटिना।
के वीराः पर्यतिष्ठन्त तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।।
8-6-35a
8-6-35b
कच्चिन्नैकः परित्यक्तः पाण्डवैर्निहतो रणे।
उक्तं त्वया पुरा तात यथा वीरो निपातितः।।
8-6-36a
8-6-36b
भीष्ममप्रतियुध्यन्तं शिखम्डी सायकोत्तमैः।
पातयामास समरे सर्वशस्त्रभृतां वरम्।।
8-6-37a
8-6-37b
तथा द्रौपदिना द्रोणो न्यस्तसर्वायुधो युधि।
`धर्मराजवचः श्रुत्वा अश्वत्थामा हतस्त्विति'।।
8-6-38a
8-6-38b
युक्तयोगो महेष्वासः शरैर्बहुभिराचितः।
निहतः खङ्गमुद्यम्य धृष्टद्युम्नेन सञ्जय।।
8-6-39a
8-6-39b
अन्तरेण हतावेतौ छलेन च विशेषतः।
अश्रौषमहमेतद्वै भीष्मद्रोणौ निपातितौ।।
8-6-40a
8-6-40b
भीष्मद्रोणौ हि समरे न हन्याद्वज्रभृत्स्वयम्।
न्यायेन युध्यन्समरे तद्वै सत्यं ब्रवीमि ते।।
8-6-41a
8-6-41b
कर्णं त्वस्यन्तमस्त्राणि दिव्यानि च बहूनि च।
कथमिन्द्रोपमं वीरं मृत्युर्युद्वे समस्पृशत्।।
8-6-42a
8-6-42b
यस्य विद्युत्प्रभां शक्तिं दिव्यां कनकभूषणाम्।
प्रायच्छद्द्विषतां हन्त्रीं कुण्डलाभ्यां पुरन्दरः।।
8-6-43a
8-6-43b
यस्य सर्पमुखो दिव्यः शरः काञ्चनभूषणः।
अशेत निशितः पत्री समरेष्वरिसूदनः।।
8-6-44a
8-6-44b
भीष्मद्रोणमुखान्वीरान्योऽवमत्य महारथान्।
जामदग्न्यान्महाघोरं ब्राह्ममस्त्रमशिक्षत।।
8-6-45a
8-6-45b
यश्च द्रोणमुखान्दृष्ट्वा विमुखानर्दिताञ्शरैः।
सौभद्रस्य महाबाहुर्व्यधमत्कार्मुकं शितैः।।
8-6-46a
8-6-46b
यश्च नागायुतप्राणां वज्ररंहसमच्युतम्।
विरथं सहसा कृत्वा भीमसेनमपाहसत्।।
8-6-47a
8-6-47b
सहदेवं च निर्जित्य शरैः सन्नतपर्वभिः।
कृपया विरथं कृत्वा नाहनद्धर्मचिन्तया।।
8-6-48a
8-6-48b
यश्च मायासहस्राणि विकुर्वाणं जयैषिणम्।
घटोत्कचं राक्षसेन्द्रं शक्रशक्त्या निजघ्निवान्।।
8-6-49a
8-6-49b
एवांश्च दिवसान्यस्य युद्धे भीतो धनञ्जयः।
नागमद्द्वैरथं वीरः स कथं निहतो रणे।।
8-6-50a
8-6-50b
[संशप्तकानां योधा ये आह्वयन्त सदाऽन्यतः।
एतान्हत्वा हनिष्यामि पश्चाद्वैकर्तनं रणे।।
8-6-51a
8-6-51b
इति व्यपदिशन्पार्थो वर्जयन्सूतजं रणे।
स कथं निहतो वीरः पार्थेन परवीरहा।।]
8-6-52a
8-6-52b
रथभह्गो न चेत्तस्य धनुर्वा न व्यशीर्यत।
न चेदस्त्राणि नष्टानि स कथं निहतः परैः।।
8-6-53a
8-6-53b
को हि शक्तो रणे कर्णं विधुन्वानं महद्धनुः।
विमुञ्चन्तं शरान्घोरान्दिव्यान्यस्त्राणि चाहवे।
जेतुं पुरुषशार्दूलं शार्दूलमिव वेगिनम्।।
8-6-54a
8-6-54b
8-6-54c
ध्रवं तस्य धनुश्छिन्नं रथो वाऽपि महीं गतः।
अस्त्राणि वा प्रनष्टानि यथा शंससि मे हतम्।
न ह्यन्यदपि पश्यामि कारणं तस्य नाशने।।
8-6-55a
8-6-55b
8-6-55c
न हिन्मि फल्गुनं यावत्तावत्पादौ न धावये।
इति यस्य महाघोरं व्रतमासीन्महात्मनः।।
8-6-56a
8-6-56b
यस्य भीतो रमे निद्रां धर्मराजो युधिष्ठिरः।
त्रयोदशसमा नित्यं नाभजत्पुरुषर्षभः।।
8-6-57a
8-6-57b
यस्य वीर्यवतो वीर्यमुपाश्रित्य महात्मनः।
मम पुत्रः सभां भार्यां पाण्डूनां नीतवान्बलात्।।
8-6-58a
8-6-58b
तत्रापि च सभामध्ये पाण्डवानां च पश्यताम्।
दासभार्येति पाञ्चालीमब्रवीत्कुरुसन्निधौ।।
8-6-59a
8-6-59b
[न सन्ति तपयः कृष्णे सर्वे षण्डतिलैः समाः।
उपतिष्ठस्व भर्तारमन्यं वा वरवर्णिनि।।
8-6-60a
8-6-60b
इत्येवं यः पुरा वाचो रूक्षाः संश्रावयन्रुषा।
सभायां सूतजः कृष्णां स कथं निहतः परैः।।
8-6-61a
8-6-61b
यदि भीष्मो रणश्लाघी द्रोणो वा युधि दुर्मदः।
न हनिष्यति कौन्तेयान्पक्षपातात्सुयोधन।
सर्वानेव हनिष्यामि व्येतु ते मानसो ज्वरः।।
8-6-62a
8-6-62b
8-6-62c
किं करिष्यति गाण्डीवमक्षय्यौ च महेषुधी।
स्निग्धचन्दनदिग्धस्य मच्छरस्याभिधावतः।
स नूनमृषभस्कन्धो ह्यर्जुनेन कथं हतः।।]
8-6-63a
8-6-63b
8-6-63c
यश्च गाण्डीवमुक्तानां स्पर्शमुग्रमचिन्तयन्।
अपतिर्ह्यसि कृष्णेति ब्रुवन्पार्थानवैक्षत।।
8-6-64a
8-6-64b
यस्य नासीद्भयं पार्थात्सपुत्रात्सजनार्दनात्।
स्वबाहुबलमाश्रित्य मुहूर्तमपि सञ्जय।।
8-6-65a
8-6-65b
तस्य नाऽहं वधं मन्ये देवैरपि सवासवैः।
प्रतीपमभिघावद्भिः किं पुनस्तात पाण्डवैः।।
8-6-66a
8-6-66b
न हि ज्यां संसम्पृशानस्य तलत्रे वाऽपि गृह्णतः।
पुमानाधिरथेः स्थातुं कश्चित्प्रमुखतोऽर्हति।।
8-6-67a
8-6-67b
अपि स्यान्मेदिनी हीना सोमसूर्यप्रभांशुभिः।
न वध- पुरुषेन्द्रस्य संयुगेष्वपलायिनः।।
8-6-68a
8-6-68b
येन मन्दः सहायेन भ्रात्रा दुःशासनेन च।
वासुदेवस्य दुर्बुद्धिः प्रत्याख्यानमरोचत।।
8-6-69a
8-6-69b
स नूनं वृषभस्कन्धं कर्णं दृष्ट्वा निपातितम्।
दुःशासनं च निहतं मन्ये शोचति पुत्रकः।।
8-6-70a
8-6-70b
हतं वैकर्तनं दृष्ट्वा द्वैरथे सव्यसाचिना।
जयतः पाण्डवान्दृष्ट्वा किंस्विद्दुर्योधनोऽब्रवीत्।।
8-6-71a
8-6-71b
[दुर्मर्षणं हतं दृष्ट्वा वृषसेनं च संयुगे।
प्रभग्रं च बलं दृष्ट्वा वध्यमानं महारथैः।।
8-6-72a
8-6-72b
पराङ्मुखांश्च राज्ञस्तु पलायनपरायणान्।
विद्रुतान्रथिनो दृष्ट्वा मन्ये शोचति पुत्रकः।।
8-6-73a
8-6-73b
अनेयश्चाभिमानी च दुर्बुद्धिरजितेन्द्रियः।
हतोत्साहं बलं दृष्ट्वा किंस्विदुर्योधनोऽब्रवीत्।।
8-6-74a
8-6-74b
स्वयं वैरं महत्कृत्वा वार्यमाणः सुहृद्गणैः।
प्रधने हतभूयिष्ठैः किंस्विद्दुर्योधनोऽब्रवीत्।।
8-6-75a
8-6-75b
भ्रातरं निहतं दृष्ट्वा भीमसेनेन संयुगे।
रुधिरे पीयमाने च किंस्विद्द्रुर्योधनोऽब्रवीत्।।]
8-6-76a
8-6-76b
सह गान्धारराजेन सभायां यदभाषत।
कर्णोऽर्जुनं रणे हन्ता हते तस्मिन्किमब्रवीत्।।
8-6-77a
8-6-77b
द्यूतं कृत्वा पुरा हृष्ठो वञ्चयित्वा च पाण्‍डवान्।
शकुनिः सौबलस्तात हते कर्णे किमब्रवीत्।।
8-6-78a
8-6-78b
कृतवर्मा महेष्वासः सात्वतानां महारथः।
हतं वैकर्तनं दृष्ट्वा हार्दिक्यः किमभाषत।।
8-6-79a
8-6-79b
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या यस्य शिक्षामुपासते।
धनुर्वेदं चिकीर्षन्तो द्रोणपुत्रस्य धीमतः।।
8-6-80a
8-6-80b
युवा रूपेण सम्पन्नो दर्शनीयो महायशाः।
अश्वत्थामा हते कर्णे किमभाषत सञ्जय।।
8-6-81a
8-6-81b
आचार्यो यो धनुर्वेदे गौतमो रथसत्तमः।
कृपः शारद्वतस्तात हते कर्णे किमब्रवीत्।।
8-6-82a
8-6-82b
मद्रराजो महेष्वासः शल्यः समितिशोभनः।
दृष्ट्वा विनिहतं कर्णं सारथ्ये रथिनां वरः।
किमभाषत सौवीरो मद्राणामधिपो बली।।
8-6-83a
8-6-83b
8-6-83c
दृष्ट्वा विनिहतं सर्वे योधा वारणदुर्जयाः।
ये च केन राजानः पृथिव्यां योद्वुमागताः।
वैकर्तनं हतं दृष्टवा कान्यभाषन्त सञ्जय।।
8-6-84a
8-6-84b
8-6-84c
द्रोणे तु निहते वीरे रथव्याघ्रे नरर्षभे।
के वा मुखमनीकानामासन्सञ्जय भागशः।।
8-6-85a
8-6-85b
मद्रराजः कथं शल्यो नियुक्तो रथिनां वरः।
वैकर्तनस्य सारथ्ये तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।।
8-6-86a
8-6-86b
केऽरक्षन्दक्षिणं चक्रं सूतपुत्रस्य युध्यतः।
वामं चक्रं ररक्षुर्वा के वा वीरस्य पृष्ठतः।।
8-6-87a
8-6-87b
के कर्णं न जहुः शूराः के क्षुद्राः प्राद्रवंस्ततः।
कथं च वः समेतानां हतः कर्णो महारथः।।
8-6-88a
8-6-88b
पाण्डवाश्च स्वयं शूराः प्रत्युदीयुर्महारथाः।
सृजन्तः शरवर्षाणि वारिधारा इवाम्बुदाः।।
8-6-89a
8-6-89b
स च सर्पमुखो दिव्यो महेषुप्रवरस्तदा।
व्यर्थः कथं समभवत्तन्ममाचक्ष्व स़ञ्जय।।
8-6-90a
8-6-90b
मामकस्यास्य सैन्यस्य हतोत्सेधस्य सञ्जय।
अवशेषं न पश्यामि ककुदे मृदिते सति।।
8-6-91a
8-6-91b
तौ हि वीरौ महेष्वासौ मदर्थे त्यक्तजीवीतौ।
भीष्मद्रोणौ हतौ श्रुत्वा को न्वर्थो जीवितेन मे।।
8-6-92a
8-6-92b
पुनः पुनर्न मृष्यामि वधं कर्णस्य पाण्डवैः।
यस्य बाह्वोर्बलं तुल्यं कुञ्जराणां शतं शतम्।।
8-6-93a
8-6-93b
द्रोणे हते च यद्वृत्तं कौरवाणां परैः सह।
सङ्घामे नरवीराणां तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।।
8-6-94a
8-6-94b
यथा कर्णश्च कौन्तेयैः सह युद्धमयोजयत्।
तथा च द्विषतां हन्ता रणे शान्तस्तदुच्यताम्।।
8-6-95a
8-6-95b
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि षष्ठोऽध्यायः।। 6 ।।

8-6-37 अप्रतियुध्यन्तं शिखण्डिना प्रतियुद्धगनङ्गीकुर्वाणम्।। 8-6-38 द्रौपदिना द्रुपदपुत्रेण धृष्टद्युम्नेन।। 8-6-40 फलेन च विशेषतः इति क.ङ.पाठः। बलेन च विशेषतः इति ख. पाठः।। 8-6-43 कुण्डलाभ्यां सकवचाभ्यां। तादर्थ्ये चतुर्थी।। 8-6-44 अशेत निहतः पत्री समरेष्वरिसूदनः इति ख.पाठः। अशेत निहतः पत्री चन्दनेष्वरिसूदनः इति झ.पाठः।। 8-6-53 रथसङ्गो न चेत्तस्य इति क.ड.पाठः। अहंकांरो न चेत्तस्य इति ख. पाठः।। 8-6-66 प्रातिभठ्येन अभिधावद्भिः सर्वदिग्भ्यः समागतैः।। 8-6-67 आधिरथेः अधिरथपुत्रस्य।। 8-6-68 सोमसूर्यमहाचर्यात्प्रकर्षेण भातीति योगाच्च प्रभो वह्निस्तेषां त्रयाणामंशुभिर्मुयूखैः।। 8-6-69 मन्दो दुर्योधनः।। 8-6-74 अनेय अशिक्षणीयः। यतोऽभिमानी विद्वत्त्वाभिमानी। एतएव दुर्बुद्धिः हितमजानन्।। 8-6-75 प्रधने रणे।। 8-6-84 कानि वाक्यानीति शेषः।। 8-6-89 प्रत्युदीयुः कथमिति शेषः।। 8-6-91 हतोत्सेधस्य विनष्टोत्कर्षस्या।। 8-6-6 षष्ठोऽध्यायः।।

कर्णपर्व-005 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-007