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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-028

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अष्टमपर्व
महाभारतम्-08-कर्णपर्व-028
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दुर्योधनेन कर्णसारथ्ये शङ्कमानं शल्यम्प्रति परशुरामचरित्रकीर्तनपूर्वकं कर्णस्य तदन्तेवासित्वादिगुणवत्तया तत्सारथ्य करणे दोषाभावप्रतिपादनम्।। 1 ।।

दुर्योधन उवाच। 8-28-1x
इमं चाप्यपरं भूय इति हासं निबोध मे।
पितुर्मम सकाशे वै ब्राह्मणः प्राह धर्मवित्।।
8-28-1a
8-28-1b
श्रुत्वा चैतद्वचश्चित्रं हेतुकार्यार्थतत्त्ववित्।
कुरु शल्य विनिश्चित्य मा भूदत्र विचारणा।।
8-28-2a
8-28-2b
भार्गवाणां कुले जातो जमदग्निर्महातपाः।
तस्य रामेति विख्यातः पुत्रस्तेजोगुणान्वितः।।
8-28-3a
8-28-3b
स तीव्रं तप आस्थाय सम्प्रसादितवान्भवम्।
अस्त्रहेतोः प्रसन्नात्मा नियतः संयतेन्द्रियः।।
8-28-4a
8-28-4b
तस्मै तुष्टो महादेवो भक्त्या च प्रशमेन च।
हृद्गतं चास्य विज्ञाय दर्शयामास शङ्करः।
प्रत्यक्षेण महादेवः स्वां तनुं सर्वशङ्करः।।
8-28-5a
8-28-5b
8-28-5c
शङ्कर उवाच। 8-28-6x
राम तुष्टोऽस्मि भद्रं ते विदितं तव चेप्सितम्।
कुरुष्व पूतमात्मानं सर्वमेतदवाप्स्यसि।।
8-28-6a
8-28-6b
दास्यामि ते तदाऽस्त्राणि यदा पूतो भविष्यसि।
अपात्रमसमर्थं च दहन्त्यस्त्राणि भार्गव।।
8-28-7a
8-28-7b
इत्युक्तो जामदग्न्यस्तु देवदेवेन शूलिना।
प्रत्युवाच महात्मानं शिरसाऽवनतः प्रभुम्।।
8-28-8a
8-28-8b
यदा जानासि देवेश पात्रं मामस्त्रधारणे।
तदा शुश्रूषतेऽस्त्राणि भवान्मे दातुमर्हति।।
8-28-9a
8-28-9b
ततः स तपसा चैव व्रतेन नियमेन च।
पूजोपहारबलिभिर्होममन्त्रपुरस्कृतैः।।
8-28-10a
8-28-10b
समाराधितवाञ्शर्वं बहुवर्षगणांस्तदा।
प्रसन्नश्च महादेवो भार्गवस्य महात्मनः।।
8-28-11a
8-28-11b
असकृच्चाब्रवीत्तस्य गुणान्देव्याः सकाशतः।
भक्तिमानेष सततं मयि रामो दृढव्रतः।।
8-28-12a
8-28-12b
एवमस्य गुणान्प्रीतो बहुशो कथयद्विभुः।
देवतानां पितॄणां च समक्षमरिसूदन।।
8-28-13a
8-28-13b
एतस्मिन्नेव काले तु दैत्या ह्यासन्महाबलाः।
तैस्तदा दर्पमोहाद्वै अबाध्यन्त दिवौकसः।।
8-28-14a
8-28-14b
ततः सम्भूय विबुधास्तान्हन्तुं कृतनिश्चयाः।
चक्रुः शत्रुवधे यत्नं दैत्याञ्चेतुमशक्नुवन्।।
8-28-15a
8-28-15b
अभिगम्य ततो देवा महेश्वरमुमापतिम्।
प्रासादयंस्तदा भक्त्या जहि शत्रुगणानिति।।
8-28-16a
8-28-16b
प्रतिज्ञाय ततो देवो देवतानां रिपुक्षयम्।
रामं भार्गवमाहूय सोऽभ्यभाषत शङ्करः।।
8-28-17a
8-28-17b
रिपून्भार्गव देवानां जहि सर्वान्समागतान्।
लोकानां हितकामार्थं मत्प्रियार्थं तथैव च।।
8-28-18a
8-28-18b
परशुराम उवाच। 8-28-19x
का शक्तिर्मम देवेश अकृतास्त्रस्य संयुगे।
निहन्तुं दानवान्सर्वान्कृतास्त्रान्युद्धदुर्मदान्।।
8-28-19a
8-28-19b
ईश्वर उवाच। 8-28-20x
गच्छ त्वं मदनुज्ञानान्निहनिष्यसि शात्रवान्।
विजित्य च रिपून्सर्वान्गुणान्प्राप्स्यसि पुष्कलान्।।
8-28-20a
8-28-20b
दुर्योधन उवाच। 8-28-21x
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं प्रतिगृह्य च सर्वशः।
रामः कृतस्वस्त्ययनः प्रययौ दानवान्प्रति।।
8-28-21a
8-28-21b
ततोऽजयद्देवशत्रून्महादर्पबलान्वितान्।
वज्राशनिसमस्पर्शैः प्रहारैरेव भार्गवः।।
8-28-22a
8-28-22b
स दानवैः क्षततनुर्जामदग्न्यो नृपोत्तम।
संस्पृष्टः स्थाणुना सद्यो निर्व्रणः समपद्यत।।
8-28-23a
8-28-23b
प्रीतश्च भगवान्देवः कर्मणा तेन तस्य वै।
वरान्प्रादाद्बहुविधान्भार्गवाय महात्मने।।
8-28-24a
8-28-24b
उक्तश्च प्रीतियुक्तेन देवदेवेन शूलिना।। 8-28-25a
निपातात्तव शस्त्राणां शरीरे याऽभवद्रुजा।
तया ते मानुषं कर्म व्यपोहं भृगुनन्दन।
गृहाणास्त्राणि दिव्यानि मत्सकाशाद्यथेप्सितं।।
8-28-26a
8-28-26b
8-28-26c
ततोऽस्त्राणि समग्राणि वरांश्च मनसेप्सितान्।
लब्ध्वा बहुविधान्रामः प्रणम्यशिरसा शिवम्।
अनुज्ञां प्राप्य देवेशाज्जगाम स महातपाः।।
8-28-27a
8-28-27b
8-28-27c
एवमेतत्पुरावृत्तं तथा कथितवानृषिः।। 8-28-28a
भार्गवोऽपि ददौ सर्वं धनुर्वेदं महात्मने।
कर्णाय पुरुषव्याघ्रः सुप्रीतेनान्तरात्मना।।
8-28-29a
8-28-29b
वृजिनं न भवेत्किञ्चिदस्य कर्णस्य पार्थिव।
सूतेन वर्धितो नित्यं न सूतो नृप एव सः।।
8-28-30a
8-28-30b
विशुद्धयोनिं विज्ञाय दिव्यान्यस्त्राण्यदाद्भृगुः।
नापि सूतकुले जातं मन्ये कर्णं कथञ्चन।
देवपुत्रमदं मन्ये क्षत्रियाणां कुलोद्भवम्।।
8-28-31a
8-28-31b
8-28-31c
विसृष्टमविबोधार्थं कुलस्येंति मतिर्मम।
सर्वथा न ह्यसो शल्य कर्णः सूतकुलोद्भवः।।
8-28-32a
8-28-32b
सकुण्डलं सकवचं दीर्घबाहुमरिन्दमम्।
कथमादित्यसङ्काशं मृगी सिंहं प्रसूयते।।
8-28-33a
8-28-33b
पश्य ह्यस्य भुजौ पीनौ नागराजकरोपमौ।
वक्षः पश्य विशालं च सर्वशस्त्रसहं रणे।।
8-28-34a
8-28-34b
न त्वेव प्राकृतः कश्चित्कर्णो वैकर्तनो वृषा।
महात्माह्येष राजेन्द्र रामशिष्यः प्रतापवान्।।
8-28-35a
8-28-35b
।। इति श्रीमन्महाभारते
कर्णपर्वणि अष्टविंशोऽध्यायः।। 28 ।।
कर्णपर्व-027 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-029