महाभारतम्-08-कर्णपर्व-051
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सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-51-1x |
भीमसेनं सपाञ्चालं चेदिकेकयसंवृतम्। सेनापतिः स्वयं क्रुद्धो वारयामास सायकैः।। | 8-51-1a 8-51-1b |
ततस्तु चेदिकारूशान्सृढ्जयांश्च महारथान्। कर्णो जघान समरे भीमसेनस्य पश्यतः।। | 8-51-2a 8-51-2b |
भीमसेनस्ततः कर्णे विहाय रथसत्तमम्। प्रययौ कौरवं सैन्यं कक्षमग्निरिव ज्वलन्।। | 8-51-3a 8-51-3b |
सूतपुत्रोऽपि समरे पाञ्चालान्केकयांस्तथा। सृञ्जयांश्च महेष्वासान्निजघानं सहस्रशः।। | 8-51-4a 8-51-4b |
संशप्तकेषु पार्थश्च कौरवेषु वृकोदरः। पाञ्चालेषु तथा कर्णः क्षयं चक्रुर्महारथाः।। | 8-51-5a 8-51-5b |
ते क्षत्रिया दह्यामानास्त्रिभिस्तैः पावकोपमैः। जग्मुर्विनाशं समरे राजन्दुर्मन्त्रिते तव।। | 8-51-6a 8-51-6b |
ततो दुर्योधनः क्रुद्दो नकुलं नवभिः शरैः। विव्याध भरतश्रेष्ठ चतुरश्चास्य वाजिनः।। | 8-51-7a 8-51-7b |
ततः परममेयात्मा तव पुत्रो जनाधिप। क्षुरेण सहदेवस्य ध्वजं चिच्छेद काञ्चनम्।। | 8-51-8a 8-51-8b |
नकुलस्तु ततः क्रुद्धस्तव पुत्रं च सप्तभिः। जघान समरे राजन्सहदेवश्च पञ्चभिः।। | 8-51-9a 8-51-9b |
तावुभौ भरतश्रेष्ठौ ज्येष्ठौ सर्वधनुष्मताम्। विव्याधोरसि सङ्क्रुद्धः पञ्चभिः पञ्चभिः शरैः।। | 8-51-10a 8-51-10b |
ततोऽपराभ्यां भल्लाब्यां धनुषी समकृन्तत। यमयोः प्रसभं वीरो विव्याधाशु त्रिभिस्त्रिभिः।। | 8-51-11a 8-51-11b |
तावन्ये धनुषी श्रेष्ठे शक्रचापनिभे शुभे। प्रगृह्य रेजतुः शूरौ देवपुत्रसमौ युधि।। | 8-51-12a 8-51-12b |
ततस्तौ रभसौ युद्धे भ्रातरौ भ्रातरं युधि। शरैर्ववर्षतुर्घोरैर्महामेघौ यथाऽचलम्।। | 8-51-13a 8-51-13b |
ततः क्रुद्धो महाराज तव पुत्रो महारथः। पाण्डुपुत्रौ महेष्वासौ वारयामास पत्रिभिः।। | 8-51-14a 8-51-14b |
धनुर्मण्डलमेवास्य ददृशे युधि भारत। सायकाश्चाप्यदृश्यन्त निश्चरन्तः समन्ततः।। | 8-51-15a 8-51-15b |
`तस्य सायकसञ्छन्नौ माद्रेयौ न विरेजतुः। मेघच्छन्नौ यथा व्योम्नि चन्द्रसूर्यौ गतप्रभौ।। | 8-51-16a 8-51-16b |
ते तु बाणा महाराज स्वर्णपुङ्खाः शिलाशिताः'। आच्छादयन्दिशः सर्वाः सूर्यस्येव मरीचयः।। | 8-51-17a 8-51-17b |
वाणभूते ततस्तस्मिन्सञ्छन्ने च नभस्तले। राज्ञस्तु ददृशे रूपं कालान्तकयमोपमम्।। | 8-51-18a 8-51-18b |
पराक्रमं तु तं दृष्ट्वा तव सूनोर्महारथाः। मृत्योरुपान्तिकं प्राप्तौ माद्रीपुत्रौ स्म मेनिरे।। | 8-51-19a 8-51-19b |
ततः सेनापती राजन्पाण्डवानां महारथः। पार्षतः प्रययौ तत्र यत्र राजा सुयोधनः।। | 8-51-20a 8-51-20b |
माद्रीपुत्रौ ततः शूरौ व्यतिक्रम्य महारथौ। धृष्टद्युम्नस्तव सुतं पीडयामास सायकैः।। | 8-51-21a 8-51-21b |
तमविध्यदमेयात्मा तव पुत्रो ह्यमर्पणः। पाञ्चाल्यं पञ्चविंशत्या प्रहस्य पुरुषर्षभः।। | 8-51-22a 8-51-22b |
ततः पुनरमेयात्मा तव पुत्रो ह्यमर्षणः। विद्ध्वा ननाद पाञ्चाल्यं षष्ट्या पञ्चभिरेव च।। | 8-51-23a 8-51-23b |
तथास्य सशरं चापं मुष्टिदेशे विशाम्पते। क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन राजा चिच्छेद संयुगे।। | 8-51-24a 8-51-24b |
तदपास्य धनुश्छिन्नं पाञ्चाल्यः शत्रुकर्शनः। अन्यदादत्त वेगेन धनुर्भारसहं नवम्।। | 8-51-25a 8-51-25b |
क्रोधाद्रुधिररक्ताक्षः संरम्भात्प्रज्वलन्निव। अशोभत महेष्वासो धृष्टद्युम्नः कृतव्रणः।। | 8-51-26a 8-51-26b |
स पञ्चदश नाराचाञ्श्वसतः पन्नगानिव। जिघांसुर्भरतश्रेष्ठं धृष्टद्युम्नो व्यपासृजत्।। | 8-51-27a 8-51-27b |
ते वर्म हेमविकृतं भित्त्वा राज्ञः शिलीमुखाः। विविशुर्वसुधां वेगात्कङ्कबर्हिणवाससः।। | 8-51-28a 8-51-28b |
सोऽतिविद्धो महाराज पुत्रस्तेऽतिव्यराजत। वसन्तकाले सुमहान्प्रफुल्ल इव किंशुकः।। | 8-51-29a 8-51-29b |
स च्छिन्नवर्मा नाराचप्रहारैर्झर्झरीकृतः। धृष्टद्युम्नस्य भल्लेन क्रुद्धश्चिच्छेद कार्मुकम्।। | 8-51-30a 8-51-30b |
अथैनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महीपतिः। सायकैर्दशभी राजन्भ्रुवोर्मध्ये समार्पयत्।। | 8-51-31a 8-51-31b |
तस्य तेऽशोभयन्वक्त्रं कर्मारपरिमार्जिताः। प्रफुल्लं पङ्कजं यद्वद्धमरा मधुलिप्सवः।। | 8-51-32a 8-51-32b |
तदपास्य धनुश्छिन्नं दृष्टद्युम्नो महामनाः। अन्यदादत्त वेगेन धनुर्भल्लांश्च षोडश।। | 8-51-33a 8-51-33b |
ततो दुर्योधनस्याश्वान्हत्वा सूतं च पञ्चभिः। धनुश्चिच्छेद भल्लेन जातरूपपरिष्कृतम्।। | 8-51-34a 8-51-34b |
रथं सोपस्करं छत्रं शक्तिं खङ्गं गदां ध्वजम्। भल्लैश्चिच्छेद दशभिः पुत्रस्य तव पार्षतः।। | 8-51-35a 8-51-35b |
तपनीयाङ्गदं छत्रं नागं मणिमयं शुभम्। ध्वजं कुरुपतेश्छिन्नं ददृशुः सर्वपार्थिवाः।। | 8-51-36a 8-51-36b |
दुर्योधनं तु विरथं छिन्नवर्मायुधध्वजम्। भ्रातरं समुदैक्षन्त सोदरा भरतर्षभ।। | 8-51-37a 8-51-37b |
तमारोप्य रथे राजन्कुण्डधारो महारथम्। अपाहरदसम्भ्रान्तो धृष्टद्युम्नस्य पश्यतः।। | 8-51-38a 8-51-38b |
कर्णस्तु सात्यकिं हित्वा राजगृघ्नुरमर्षणः। द्रोमहन्तारमुग्रेषुं ससाराभिमुखो रणे।। | 8-51-39a 8-51-39b |
तं पृष्ठतोऽन्वयात्तूर्णं शैनेयोऽभिहतः शरैः। वारणं जघनोपान्ते विषाणाभ्यामिव द्विपः।। | 8-51-40a 8-51-40b |
स भारतपुरोगानां राज्ञां च सुमहात्मनाम्। कर्णपार्षतयोर्युद्वे सङ्क्रद्धानां महारणे।। | 8-51-41a 8-51-41b |
न पाण्डवानां नास्माकं कश्चिदासीत्पराङ्मुखः। प्रत्यदृश्यत यत्कर्णः पाञ्चालांस्त्वरितो ययौ।। | 8-51-42a 8-51-42b |
तस्मिन्क्षणे नरश्रेष्ठ गजवाजिरथक्षयः। प्रादुरासीदुभयतो राजन्मध्यगतेऽहनि।। | 8-51-43a 8-51-43b |
पाञ्चालास्तु महाराज त्वरिता विजिगीषवः। सर्वतोऽभ्यद्रवन्कर्णं पतत्त्रिण इव द्रुमम्।। | 8-51-44a 8-51-44b |
तेषामाधिरथिः क्रुद्धः प्रधानान्वै तरस्विनः। विचिन्वन्निव बाणौघैः समासादयदग्रतः।। | 8-51-45a 8-51-45b |
व्याघ्रकेतुः सुशर्मा च शुक्रश्चित्रायुधः क्रतुः। दुर्जयो रोचमानश्च सिंहसेनस्तथाऽष्टमः। महता रथवंशेन परिवव्रुर्नरोत्तमम्।। | 8-51-46a 8-51-46b 8-51-46c |
सृजन्तः सायकांस्तूर्णं कर्णमाहवशोभिनम्। यतमानांस्तु ताञ्शूरान्मनुजेन्द्रः शितैः शरैः। अष्टाभिरष्टौ राधेयः पाञ्चालान्न्यहनद्रणे।। | 8-51-47a 8-51-47b 8-51-47c |
अथापरान्महाराज सूतपुत्रः प्रतापवान्। जघान बहुसाहस्रान्योधान्युद्वविशारदान्।। | 8-51-48a 8-51-48b |
विष्णुं च विष्णुवर्माणं देवापिं भद्रमेव च। दण्डधारं च समरे चित्रं चिंत्रायुधं हरिम्।। | 8-51-49a 8-51-49b |
सिंहकेतुं रोचमानं शलभं च महारथम्। निजघान सुसङ्क्रुद्वश्चेदीनां च महारथान्।। | 8-51-50a 8-51-50b |
तेषामाददतः प्राणानासीदाधिरथेर्वपुः। शोणिताभ्युक्षिताङ्गस्य रुद्रस्यैवातिभैरवम्।। | 8-51-51a 8-51-51b |
तत्र भारत कर्णेन मातङ्गास्ताडिताः शरैः। सर्वतोऽभ्यद्रवन्भीताः कुर्वन्तो महदाकुलम्।। | 8-51-52a 8-51-52b |
निपेतुरुर्व्यां समरे कर्णसायकताडिताः। कुर्वन्तो विविधान्नादान्वज्रनुन्ना इवाचलाः।। | 8-51-53a 8-51-53b |
गजवाजिमनुष्यैश्च निपतद्भिः समन्ततः। रथैर्भग्नैर्ध्वजैश्चैव समास्तीर्यत मेदिनी।। | 8-51-54a 8-51-54b |
नैवं भाष्मो न च द्रोणो नान्ये युधि च तावकाः। चक्रुः स्म तादृशं कर्म यादृशं कृतवान्रणे।। | 8-51-55a 8-51-55b |
मृगमध्ये यथा सिंहो दृश्यते निर्भयश्चरन्। पाञ्चालानां तथा मध्ये कर्णोऽचरदभीतवत्।। | 8-51-56a 8-51-56b |
सूतपुत्रोऽथ नागेषु हयेषु च रथेषु च। नरेषु च नरव्याघ्रश्चकार कदनं महत्।। | 8-51-57a 8-51-57b |
यथा मृगगणांस्त्रस्तान्सिंहो द्रावयते दिशः। पाञ्चालानां रथव्रातान्कर्णो व्यद्रावयत्तथा।। | 8-51-58a 8-51-58b |
सिंहं स्म हि यथा प्राप्य न जीवन्ति मृगाः क्वचित्। तथा कर्णमनुप्राप्ता न जीवन्ति स्म सृञ्जयाः।। | 8-51-59a 8-51-59b |
वैश्वानरमुखं प्राप्य दह्यन्ते शलभा यथा। कर्णाग्रिं समरे प्राप्य दग्धा भारत सृञ्जयः।। | 8-51-60a 8-51-60b |
चेदिष्वेकेन कर्णेन पाञ्चालेषु च भारत। वेश्राव्य नाम निहता बहवः शूरसम्पताः।। | 8-51-61a 8-51-61b |
मम चासीन्मती राजन्दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम्। नैकोऽप्याधिरथेर्जीवन्पाञ्चाल्यो मोक्ष्यते युधि।। | 8-51-62a 8-51-62b |
सङ्ख्ये विमर्द्य पाञ्चालान्सूतपुत्रः पुनः पुनः। अभ्यधावत्सुसङ्क्रुद्धः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।। | 8-51-63a 8-51-63b |
धृष्टद्युम्नश्च राजानं द्रौपदेयाश्च मारिष। परिवव्रुरमित्रघ्नं शतशश्चापरे जनाः।। | 8-51-64a 8-51-64b |
शिखण्डी सहदेवश्च नकुलो नाकुलिस्तथा। जनमेजयः शिनेर्नप्ता बहवश्च प्रभद्रकाः।। | 8-51-65a 8-51-65b |
एते पुरोगमा भूत्वा धृष्टद्युम्नश्च संयुगे। कर्णमस्यन्तमिष्वस्त्रैस्ततक्षुरमितौजसम्।। | 8-51-66a 8-51-66b |
तांस्तत्राधिरथिः सङ्ख्ये चेदिपाञ्चालपाण्डवान्। एको बहूनभ्यपतद्गरुत्मानिव पन्नगान्।। | 8-51-67a 8-51-67b |
तैः कर्णस्याभवद्युद्धं घोररूपं विशाम्पते। तादृग्यादृक्पुरावृत्तं देवानां दानवैः सह।। | 8-51-68a 8-51-68b |
तान्समेतान्महेष्वासाञ्शरवर्षौधवर्षिणः। एको व्यधमदव्यग्रस्तमांसीव दिवाकरः।। | 8-51-69a 8-51-69b |
भीमसेनस्तु संसक्ते राधेये पाण्डवैः सह। सर्वतोऽभ्यहनत्क्रुद्धो यमदण्डनिभैः शरैः।। | 8-51-70a 8-51-70b |
बाह्लीकान्केकयान्मात्स्यान्वासात्यान्मद्रसैन्धवान्। एकः सङ्ख्ये महेष्वासो योधयन्बह्वशोभत।। | 8-51-71a 8-51-71b |
तत्र मर्मसु भीमेन नाराचैस्ताडिता गजाः। प्रपतन्तो हतारोहाः कम्पयन्ति स्म मेदिनीम्।। | 8-51-72a 8-51-72b |
वाजिनश्च हतारोहाः पत्तयश्च गतासवः। अशेरत महाराज वमन्तो रुधिरं बहु।। | 8-51-73a 8-51-73b |
ताडिताः सहसा नागा भीमसेनेन मारिष। निपतन्ति महावेगा वज्ररुग्णा इवाचलाः।। | 8-51-74a 8-51-74b |
पतितैस्तैर्महाराज वेगवद्भिर्महारथैः। शुशुभे वसुधा राजन्विकीर्णैरिव पर्वतैः।। | 8-51-75a 8-51-75b |
सहस्रशश्च रथिनः पत्तयः पतितायुधाः। अक्षताः समदृश्यन्त भीमाद्भीता गतासवः।। | 8-51-76a 8-51-76b |
रथिभिः सादिभिः सूतैः पादातैर्वाजिभिर्गजैः। भीमसेनशरैश्छिन्नैराच्छन्ना सुधाभवत्।। तत्स्तम्भितमिवातिष्ठद्भीमसेनभयार्दितम्। | 8-51-77a 8-51-77b 8-51-77c |
दुर्योधनबलं सर्वं निरुत्साहं कृतं रणे। निश्चेष्टं तुमुलं दीनं बभौ तस्मिन्महारणे।। | 8-51-78a 8-51-78b |
प्रसन्नसलिले काले यथा स्यात्सागरो नृप। तद्वत्तव बलं तद्वै निश्चलं समवस्थितम्।। | 8-51-79a 8-51-79b |
मन्युवीर्यबलोपेतं दर्पात्प्रत्यवरोपितम्। अभवत्तव पुत्रस्य तत्सैन्यं निष्प्रभं तदा।। | 8-51-80a 8-51-80b |
ते बले भरतश्रेष्ठ वध्यमाने परस्परम्। रुधिरौघपरिक्लिन्ने रुधिरार्द्रे बभूवतुः।। | 8-51-81a 8-51-81b |
सूतपुत्रोऽवधीत्क्रुद्वः पाण्डवानामनीकिनीम्। भीमसेनः कुरूणां च त्रिगर्तानां धनञ्जयः।। | 8-51-82a 8-51-82b |
वर्तमाने तथा रोद्रे सङ्ग्रामेऽद्भुतदर्शने। निहत्य पृतनामध्यं संशप्तकगणान्बहून्। अर्जुनो जयतां श्रेष्ठो वासुदेवमथाब्रवीत्।। | 8-51-83a 8-51-83b 8-51-83c |
प्रभग्नं बलमेतद्धि योत्स्यमानं मया सह। एते धावन्ति सगणाः संशप्तकमहारथाः।। | 8-51-84a 8-51-84b |
`दुर्जया ह्येव समरे देवैरपि सवासवैः'। अपारयन्तो मद्बाणान्सिंहशब्दं मृगा इव।। | 8-51-85a 8-51-85b |
दीर्यते च महत्सैन्यं सृञ्जयानां महारणे। `कुरवश्चाभिधावन्ति भीमसेनभयार्दिताः'।। | 8-51-86a 8-51-86b |
हस्तिकक्ष्यो ह्यसौ कृष्ण केतुः कर्णस्य धीमतः। दृश्यते राजसैन्यस्य मध्ये विचरतो मुहुः।। | 8-51-87a 8-51-87b |
न च कर्णं रणे शक्ता जेतुमेते महारथाः। जानीते हि भवान्कर्णं वीर्यवन्तं पराक्रमे।। | 8-51-88a 8-51-88b |
तत्र याहि यतः कर्णो द्रावयत्येष नो बलम्। त्रिगर्तान्वर्जयन्याहि सूतपुत्रं महारथम्। एतन्मे रोचते कृष्ण यथा वा तव रोचते।। | 8-51-89a 8-51-89b 8-51-89c |
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य गोविन्दः प्रहसन्निव। अब्रवीदर्जुनं तूर्णं कौरवान्याहि पाण्डव।। | 8-51-90a 8-51-90b |
ततस्तव महासैन्यं गोविन्दप्रेरिता हयाः। हंसवर्णा विशंस्तूर्णं वहन्तोऽर्जुनमाहवे।। | 8-51-91a 8-51-91b |
केशवप्रेरितैरश्वैः श्वेतैः काञ्चनभूषणैः। प्रविशद्भिस्तव बलं चतुर्दिशमदीर्यत।। | 8-51-92a 8-51-92b |
मेघस्तनितनिर्हादः स रथो वानरध्वजः। चलत्पताकस्तां सेनां विमानं द्यामिवाविशत्।। | 8-51-93a 8-51-93b |
तौ विदार्य महासेनां प्रविष्टौ केशवार्जुनो। क्रुद्धौ संरम्भरक्ताक्षौ विभ्राजेतां महाद्युती।। | 8-51-94a 8-51-94b |
युद्धशौण्डौ समाहूतावागतौ तौ रणाध्वरम्। यज्वभिर्विधिना हूतौ मखं देवाविवाश्विनौ।। | 8-51-95a 8-51-95b |
`क्रोधताम्रेक्षणौ शूरौ शुशुभाते महाबलौ। मदोत्कटौ यथा नागौ दृष्टिसञ्चारचारिणौ'।। | 8-51-96a 8-51-96b |
क्रुद्धौ तौ तु नरव्याघ्रो योगवन्तौ बभूवतुः। तलशब्देन रुषितौ महानागाविवोत्कटौ।। | 8-51-97a 8-51-97b |
विगाह्य तु रथानीकमश्वसङ्घांश्च फल्गुनः। व्यचरत्पृतनामध्ये पाशहस्त इवानत्कः।। | 8-51-98a 8-51-98b |
तं दृष्ट्वा युधि विक्रान्तं सेनायां तव भारत। संशप्तकगणान्भूयः पुत्रस्ते समचूचुदत्।। | 8-51-99a 8-51-99b |
ततो रथसहस्रेण द्विरदानां त्रिभिः शतैः। चतुर्दशसहस्रैस्तु तुरगाणां महाहवे। द्वाभ्यां शतसहस्राभ्यां पदातीनां च धन्विनाम्।। | 8-51-100a 8-51-100b 8-51-100c |
शूराणां लब्धलक्षाणां विदितानां समन्ततः। अभ्यवर्तन्त कौन्तेयं छादयन्तो महारथाः।। | 8-51-100a 8-51-100b |
शरवर्षैर्महाराज सर्वतः पाण्डुनन्दनम्। स च्छाद्यमानः समरे शरैः परबलार्दनः।। | 8-51-101a 8-51-101b |
दर्शयन्रौद्रमात्मानं पाशहस्त इवान्तकः। निघ्नन्संशप्तकान्पार्थः प्रेक्षणीयतरोऽभवत्।। | 8-51-102a 8-51-102b |
ततो विद्युत्प्रभैर्बाणैः कार्तस्वरविभूषितैः। निरन्तरमिवाकाशमासीच्छन्नं किरीटिना।। | 8-51-103a 8-51-103b |
किरीटिचापनिर्मुक्तैः सम्पतद्भिर्महाशरैः। समाच्छन्नं बभौ सर्वं काद्रवेयैरिव प्रभो।। | 8-51-104a 8-51-104b |
रुक्मपुङ्खाञ्शरान्घोरान्प्रसन्नान्नतपर्वणः। अवासृजदमेयात्मा दिक्षु सर्वासु पाण्डवः।। | 8-51-105a 8-51-105b |
मही वियद्दिशः सर्वाः समुद्रा गिरयोऽपि वा। स्फुटन्तीति जना जज्ञुः पार्थस्य तलनिःस्वनात्।। | 8-51-106a 8-51-106b |
हत्वा दशसहस्राणि पार्थिवानां महारथः। संशप्तकानां कौन्तेयः प्रपक्षं त्वरितोभ्ययात्।। | 8-51-107a 8-51-107b |
प्रपक्षं च समासाद्य पार्थः काम्भोजरक्षितम्। प्रममाथ बलं भल्लैर्दानवानिव वासवः।। | 8-51-108a 8-51-108b |
प्रचिच्छेदाशु भल्लेन द्विषतामाततायिनाम्। शस्त्रपाणींस्तथा बाहूंस्तथापि च शिरांस्युत।। | 8-51-109a 8-51-109b |
अङ्गांङ्गावयवैश्छिन्नैर्व्यायुधास्तेऽपतन्भुवि। विष्वग्वाताभिसम्भग्ना बहुशाखा इव द्रुमाः।। | 8-51-110a 8-51-111b |
हस्त्यश्वरथपत्तीनां व्रातान्निघ्नन्तमर्जुनम्। सुदक्षिणादवरजः शरवृष्ट्याभ्यवीवृषत्।। | 8-51-112a 8-51-112b |
तस्यास्यतोऽर्धचन्द्राभ्यां स बाहू परिघोपमौ। पूर्णचन्द्राभवक्त्रं च क्षुरेणापाहरच्छिरः।। | 8-51-113a 8-51-113b |
तत्पपात ततो वेगात्स्वलोहितपरिष्कृतम्। मनः शिलागिरेः शृङ्गं व्ज्रेणेवावदारितम्।। | 8-51-114a 8-51-114b |
सुदक्षिणादवरजं काम्भोजा ददृशुर्हतम्। प्रांशुं कमलपत्राक्षमत्यर्थं प्रियदर्शनम्। काञ्चनस्तम्भसदृशं भिन्नं हेमगिरिं यथा।। | 8-51-115a 8-51-115b 8-51-115c |
ततोऽभवत्पुनर्युद्धं घोरमत्यर्थमद्भुतम्। नानावस्थाश्च योधानां बभूवुस्तत्र युध्यताम्।। | 8-51-116a 8-51-116b |
पार्थेषुनिहतैरश्वैः काम्भोजैर्यवनैः शकैः। शोणिताक्तैस्तदा रक्तं सर्वामासीद्विशां पते।। | 8-51-117a 8-51-117b |
रथैर्हताश्वसूतैश्च हतारोहैश्च वाजिभिः। द्विरदैश्च हतारोहैर्महामात्रैर्हतद्विपैः।। | 8-51-118a 8-51-118b |
अन्योन्येन महाराज विनाशः पृथिवीक्षिताम्। आसीत्क्रुद्वेऽर्जुने कर्णे भीमसेने च दारुणम्।। | 8-51-119a 8-51-120b |
तस्पिन्प्रपक्षे पक्षे च वध्यमाने मदोत्कटः। अर्जुनं जयतां श्रेष्ठं त्वरितो द्रौणिरभ्ययात्।। | 8-51-120a 8-51-121b |
विधुन्वानो महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम्। आददानः शरान्घोरान्स्वरश्मीनिव भास्करः।। | 8-51-121a 8-51-121b |
तयोरासीन्महद्युद्धं धर्मभ्रात्रोरनैष्ठिकम्। विस्मापयिषतोर्लोकं यशश्चोत्तममिच्छतोः।। | 8-51-122a 8-51-122b |
संशप्तकांस्तु कौन्तेयः कुरूंश्चापि वृकोदरः। सूतपुत्रस्तु पाञ्चालांस्त्रयोऽघ्नंस्त्वरिताः शरैः।। | 8-51-123a 8-51-123b |
एवमेष महाराज विनाशः पृथिवीक्षिताम्। युद्वं घोरं तथा त्वासीत्त्रिधाभूते चमूमुखे।। | 8-51-124a 8-51-124b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे एकपञ्चाशोऽध्यायः।। 51 ।। | |
*.एतदनन्तरं झ.पुस्तके विद्यमाना कथा अस्मिन्पाठे---57–58 तमाध्याययोर्वर्तते। |
कर्णपर्व-050 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-052 |