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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-092

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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-092
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कर्णार्जुनसमाश्रयात् लोकक्षयभीरुणा प्रजापतिना ब्रह्माणं प्रति उभयोः साम्येन जयप्रार्थना।। 1 ।।

इन्द्रेण सकारणनिरूपणमर्जुनस्यैव जये प्रार्थिते ब्रह्मेशानाभ्यां तदङ्गीकारे देवैर्हर्षात्पुष्पवर्षणम्।। 2 ।।

सञ्जय उवाच। 8-92-1x
प्रजापतिस्तु तं दृष्ट्वा देवभागं समागतम्।
अब्रवीत्तु ततो राजन्पश्यतो वै स्वयंभुवः।।
8-92-1a
8-92-1b
उभावतिरथौ शूरावुभौ दृढपराक्रमौ।
उभौ सदृशकर्माणौ वज्रिचक्रायुधौपमौ।।
8-92-2a
8-92-2b
अहो बत महद्युद्धं कर्णार्जुनसमागमे।
भविष्यति महाघोरं वृत्रवासवयोरिव।।
8-92-3a
8-92-3b
प्रजापतिरथोक्त्वैवं स्वयम्भुवमचोदयत्।
समोऽस्तु विजयः काममुभयोर्नरसिंहयोः।।
8-92-4a
8-92-4b
कर्णार्जुनविवादेन मा नश्येदखिलं जगत्।
स्वयंभो ब्रूहि तद्वाक्यं समोऽस्तु विजयोऽनयोः।।
8-92-5a
8-92-5b
एवमुक्तस्तु भगवाञ्जये ताभ्यामनिश्चिते।
इत्यब्रवीन्महाराज महाब्रह्मा प्रजापतिम्।।
8-92-6a
8-92-6b
द्वावप्येतौ हि कृतिनौ द्वावप्यतिबलोत्कटौ।
भविष्यत्यनयोर्युद्धं त्रैलोक्यस्य भयावहम्।।
8-92-7a
8-92-7b
ततः प्रजापतिं तत्र सहस्राक्षोऽभ्यचोदयत्।
विजयो ध्रुव एवास्तु पाण्डवस्य महात्मनः।।
8-92-8a
8-92-8b
मनस्वी बलवाञ्शूरः कृतविद्यस्तपोधनः।
विभर्ति च महातेजा धनुर्वेदमशेषतः।।
8-92-9a
8-92-9b
पार्थः सर्वगुणोपेतो देवकार्यमिदं यतः।
क्लिश्यन्ते पाण्डवा नित्यं वनवासादिभिर्भृशं।।
8-92-10a
8-92-10b
सम्पन्नस्तपसा चैव पर्याप्तः पुरुषर्षभः।
अतिक्रामेच्च माहात्म्याद्दिष्टमप्यविचारयन्।।
8-92-11a
8-92-11b
अतिक्रमे च लोकानामभावो नियतो भवेत्।
नावस्थानं च पश्यामि क्रुद्धयोः कृष्णयोः क्वचित्।।
8-92-12a
8-92-12b
स्रष्टारौ जगतश्चैतौ ततश्च पुरुषर्षभौ।
नरनारायणावेतौ पुराणावृषिसत्तमौ।।
8-92-13a
8-92-13b
अनियम्यौ नियन्तारौ जगतः पुरुषर्षभौ।
[नैतयोस्तु समः कश्चिद्दिवि वा मानुषेषु वा।।
8-92-14a
8-92-14b
अनुगम्यास्त्रयो लोकाः सह देवर्षिचारणैः।
सर्वदेवगणाश्चापि सर्वभूतानि यानि च।
अनयोस्तु प्रभावेन वर्तते निखिलं जगत्।।]
8-92-15a
8-92-15b
8-92-15c
कामं तु सुकृताँल्लोकानाप्नोतु पुरुषर्षभः।
कर्णो वैकर्तनः शूरो विजयस्त्वस्तु कृष्णयोः।।
8-92-16a
8-92-16b
वसूनां समलोकत्वं मरुतां वासमाप्नुयात्।
सहितो द्रोणभीष्माभ्यां नाकपृष्ठे महीयताम्।।
8-92-17a
8-92-17b
`क्लेशितो हि वने पार्थो दिर्घकालं पितामह।
तस्मादेष जयेद्युद्धे तपसाऽभ्यधिकोऽर्जुनः।।
8-92-18a
8-92-18b
पूर्वं भगवता प्रोक्तः कृष्णयोर्विजयो ध्रुवः।
तत्तथास्तु नमस्तेऽस्तु प्रमो ब्रूहि पितामह।।
8-92-19a
8-92-19b
तत्सहस्राक्षवचनं निशम्य भगवान्प्रभुः।
नोवाच तज्जयं तुल्यं तयोः कर्णकिरीटिनोः।।
8-92-20a
8-92-20b
तस्मादाशां गतः शक्रस्तूष्णीम्भूते पितामहे।
विजयः पाण्डवेयस्य कर्णस्य च वधो भवेत्।।
8-92-21a
8-92-21b
ब्रह्मेशानौ ततो वाक्यमूचतुर्भुवनेश्वरम्।
विजयो ध्रुव एवास्तु पाण्डवस्य महात्मनः।।
8-92-22a
8-92-22b
मनस्वी जयतां शूरः कृतविद्यस्तपोधनः।
बिभर्ति च महातेजा धनुर्वेदमशेषतः।।
8-92-23a
8-92-23b
अतिक्रामेच्च माहात्म्याद्दिष्टमप्यविचारयन्।
अतिक्रमे च लोकानामभावो नियतो भवेत्।।
8-92-24a
8-92-24b
न च विद्म ह्यवस्थानं क्रुद्धयोः कृष्णयोः क्वचित्।
स्रष्टारौ जगतश्चैव सतश्च पुरुषर्षभौ।।
8-92-25a
8-92-25b
कामं तु सुकृताँल्लोकान्प्राप्नोत्वेष परन्तपः।
कर्णो वैकर्तनः शूरो विजयस्तु नरे ध्रुवः।।
8-92-26a
8-92-26b
तथोक्ते देवदेवाभ्यां सहस्राक्षोऽब्रवीद्वचः।
आमन्त्र्य सर्वभूतानि ब्रह्मेशानानुशासनात्।।
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8-92-27b
श्रुतं भवद्भिर्यत्प्रोक्तं भगवद्भ्यां जगद्धितम्।
तत्तथा व्येतु ते रोगः शमाप्नुत विमन्यवः।।
8-92-28a
8-92-28b
इति श्रुत्वेन्द्रवचनं सर्वभूतानि मानिष।
विस्मितान्यभवन्राजन्पूजयाञ्चक्रिरे तदा।
नोचुस्तदा जयं तुल्यं तयोः पुरुषसिंहयोः।।
8-92-29a
8-92-29b
8-92-29c
व्यसृजंश्च सुगन्धीनि पुष्पवर्षाणि हर्षिताः।
नानारूपाणि विबुधा देवतूर्याण्यवादयन्।।
8-92-30a
8-92-30b
दिदृक्षवश्चाप्रतिमं द्वैरथं नरसिंहयोः।
विस्मयोत्फुल्लनयना नान्या बुबुधिरे क्रियाः।।
8-92-31a
8-92-31b
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
सप्तदशदिवसयुद्धे द्विनवतितमोऽध्यायः।। 92 ।।

8-92-11 दिष्टमपि दैवविहितमपि।। 8-92-92 द्विनवतितमोऽध्यायः।।

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