महाभारतम्-08-कर्णपर्व-063
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रणाय राज्ञां द्वन्द्वीभावः।। 1 ।।
कर्णेन शिखण्डिपराजयः।। 2 ।।
धृष्टद्युम्नदुःशासनयोर्युद्धम्।। 3 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 8-63-1x |
निवृत्ते भीमसेने च पाण्डवे च युधिष्ठिरे। वध्यमाने बले चापि मामके पाण्डुसृञ्जयैः।। | 8-63-1a 8-63-1b |
द्रवमाणे बलौघे च निराक्रन्दे मुहुर्मुहुः। `अवशेषं न पश्यामि मम सैन्येषु सञ्जय।। | 8-63-2a 8-63-2b |
अहो बत दशां प्राप्तो न हि शक्ष्यामि जीवितुम्। जयकाङ्क्षी कथं सूत पुत्राणामनिवर्तिनाम्।। | 8-63-3a 8-63-3b |
कथं जीवामि निहताञ्श्रुत्वा च मम सैनिकान्। बहुनाऽद्य किमुक्तेन दैवं तेषां परायणम्'।। | 8-63-4a 8-63-4b |
मामकाः किमकुर्वन्त तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 8-63-5a |
सञ्जय उवाच। | 8-63-6x |
दृष्ट्वा भीमं महाबाहुं तव पुत्रः प्रतापवान्। क्रोधरक्तेक्षणो राजन्भीमसेनमभिद्रवत्।। | 8-63-6a 8-63-6b |
`तिष्ठतिष्ठ पृथापुत्र पश्य मेऽद्य पराक्रमम्। अद्य त्वां प्रेषायष्यामि यमस्य सदनं प्राते। इत्युक्त्वा प्रययौ कर्णो यत्र भीमो व्यवस्थितः'।। | 8-63-7a 8-63-7b 8-63-7c |
तावकं तु बलं दृष्ट्वा भीमसेनात्पराङ्मुखम्। यत्नेन महता कर्णः पर्यवस्थापयद्बली।। | 8-63-8a 8-63-8b |
व्यवस्थाप्य महाबाहुस्तव पुत्रस्य वाहिनीम्। प्रत्युद्ययौ तदा कर्णः पाण्डवान्युद्धदुर्मदान्।। | 8-63-9a 8-63-9b |
प्रत्युद्ययुश्च राधेयं पाण्डवानां महारथाः। धुन्वानाः कार्मुकाण्याजौ विक्षिपन्तश्च सायकान्।। | 8-63-10a 8-63-10b |
भीमसेनः शिनेर्नप्ता शिखण्डी जनमेजयः। धृष्टद्युम्नश्च बलवान्सर्वे चापि प्रभद्रकाः।। | 8-63-11a 8-63-11b |
पाञ्चालानां नरव्याघ्राः समन्तात्त्व वाहिनीम्। अभ्यद्रवन्त सङ्क्रुद्धाः समरे जितकाशिनः।। | 8-63-12a 8-63-12b |
तथैव तावका राजन्पाण्डवानामनीकिनीम्। अभ्यद्रवन्त त्वरिता जिघांसन्तो महारथान्।। | 8-63-13a 8-63-13b |
रथनागाश्वकलिलं पत्तिध्वजसमाकुलम्। बभूव पुरुषव्याघ्र सैन्यमद्भुतदर्शनम्।। | 8-63-14a 8-63-14b |
शिखण्डी तु ययौ कर्णं धृष्टद्युम्नः सुतं तव। दुःशासनं महाराज महासेनः समभ्ययात्।। | 8-63-15a 8-63-15b |
नकुलो वृषसेनं तु चित्रसेनं युधिष्ठिरः। उलूकं समरे राजन्सहदेवः समभ्ययात्।। | 8-63-16a 8-63-16b |
सात्यकिः शकुनिं चापि द्रौपदेयाश्च कौरवान्। अर्जुनं च रणे यत्तो द्रोणपुत्रो महारथः।। | 8-63-17a 8-63-17b |
युधामन्युं महेष्वासं गौतमोऽभ्यपतद्रणे। कृतवर्मा च बलवानुत्तमौजसमाद्रवत्।। | 8-63-18a 8-63-18b |
भीमसेनः कुरून्सर्वान्पुत्रांश्च तव मारिष। सहानीकान्महाबाहुरेक एव न्यवारयत्।। | 8-63-19a 8-63-19b |
शिखण्डी तु ततः कर्णं विचरन्तमभीतवत्। भीष्महन्ता महाराज वारयामास पत्रिभिः।। | 8-63-20a 8-63-20b |
प्रतिरुद्धस्ततः कर्णो रोपात्प्रस्फुरिताधरः। शिखण्डिनं त्रिभिर्बाणैर्भ्रुवोर्मध्येऽभ्यताडयत्।। | 8-63-21a 8-63-21b |
धारयंस्तु स तान्वाणाञ्शिखण्डी बह्वशोभत। राजतः पर्वतो यद्वत्त्रिभिः शृङ्गैः समन्वितः।। | 8-63-22a 8-63-22b |
सोऽतिविद्धो महेष्वासः सूतपुत्रेण संयुगे। कर्णं विव्याध समरे नवत्या निशितैः शरैः।। | 8-63-23a 8-63-23b |
तस्य कर्णो हयान्हत्वा सारथिं च शरैः। उन्ममाथ ध्वजं चास्य क्षुरप्रेण महारथः।। | 8-63-24a 8-63-24b |
हताश्वात्तु ततो यानादवप्लुत्य महारथः। शक्तिं चिक्षेप कर्णाय सङ्क्रुद्धः शत्रुतापनः।। | 8-63-25a 8-63-25b |
तां छित्त्वा समरे कर्णस्त्रिभिर्भारत सायकैः। शिखण्डिनमथाविध्यन्नवभिर्निशितैः शरैः।। | 8-63-26a 8-63-26b |
कर्णचापच्युतान्बाणान्वर्जयंस्तु नरोत्तमः। अपयातस्ततस्तूर्णं शिखण्डी भृशविक्षतः।। | 8-63-27a 8-63-27b |
ततः कर्णो महाराज पाण्डुसैन्यान्यशातयत्। तूलराशिं समासाद्य यथा वायुर्महाबलः।। | 8-63-28a 8-63-28b |
धृष्टद्युम्नो महाराज तव पुत्रेण पीडितः। दुःशासनं त्रिभिर्बाणैः प्रत्यविध्यत्स्तनान्तरे।। | 8-63-29a 8-63-29b |
तस्य दुःशासनो बाहुं सव्यं विव्याध मारिष। स तेन रुक्मपुङ्खेन भल्लेन नतपर्वणा।। | 8-63-30a 8-63-30b |
धृष्टद्युम्नस्तु निर्विद्धः शरं घोरममर्षणः। दुःशासनाय सङ्क्रुद्धः प्रेषयामास भारत।। | 8-63-31a 8-63-31b |
आपतन्तं महावेगं धृष्टद्युम्नसमीरितम्। शरैश्चिच्छेद पुत्रस्ते त्रिभिरेव विशाम्पते।। | 8-63-32a 8-63-32b |
अथापरैः षोडशभिर्भल्लैः कनकभूषणैः। धृष्टद्युम्नं समासाद्य बाह्वोरुरसि चार्पयत्।। | 8-63-33a 8-63-33b |
ततः स पार्षतः क्रुद्धो धनुश्चिच्छेद मारिष। क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन तत उच्चुक्रुशुर्जनाः।। | 8-63-34a 8-63-34b |
अथान्यद्धनुरादाय पुत्रस्ते प्रहसन्निव। धृष्टद्युम्नं शरव्रातैः समन्तात्पर्यवारयत्।। | 8-63-35a 8-63-35b |
तव पुत्रस्य ते दृष्ट्वा विक्रमं सुमहात्मनः। व्यस्मयन्त रणे योधाः सिद्धाश्चाप्सरसस्तथा।। | 8-63-36a 8-63-36b |
धृष्टद्युम्नं तु पश्याम घटमानं महाबलम्। दुःशासनेन संरुद्धं सिंहेनेव महागजम्।। | 8-63-37a 8-63-37b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे त्रिषष्टितमोऽध्यायः।। 63 ।। |
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