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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-101

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अष्टमपर्व
महाभारतम्-08-कर्णपर्व-101
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कर्णवधानन्तरमर्जुनेन युधिष्ठिराभिवादनम्।। 1 ।। तेन कृष्णार्जुनप्रशंसनम्।। 2 ।। कृष्णयुधिष्ठिरसंवादः।। 3 ।।

सञ्जय उवाच। 8-101-1x
हते वैकर्तने कर्णे कुरवो भयपीडिताः।
वीक्षमाणा दिशः सर्वाः पलायन्त सहस्रशः।।
8-101-1a
8-101-1b
रावणं निहतं दृष्ट्वा राक्षसा राघवेण वा।
दिशो भीता द्रवन्नेव तावका भयपीडिताः।।
8-101-2a
8-101-2b
ततो महारवं चक्रुर्योधा राजन्समन्ततः।
वार्यमाणा भृशोद्विग्नास्तव पुत्रेण भारत।।
8-101-3a
8-101-3b
तेषां तु मतमाज्ञाय पुत्रस्ते भरतर्षभ।
अवहारं ततश्चक्रे शल्यस्यानुमतेन च।।
8-101-4a
8-101-4b
कृतवर्मा रणे तूर्णं वृतो भारत तावकैः।
नारायणावशिष्टैश्च शिबिरायैव दुद्रुवे।।
8-101-5a
8-101-5b
अश्वत्थामा ततः शूरो विनिश्वस्य मुहुर्मुहुः।
पाण्डवानां जयं दृष्ट्वा शिबिरायैव दुद्रुवे।।
8-101-6a
8-101-6b
कृपः शारद्वतो राजन्नागानीकेन भारत।
महता मेघकल्पेन शिबिरायैव दुद्रुवे।।
8-101-7a
8-101-7b
गान्धाराणां सहस्रेण शकुनिः परिवारितः।
सुशर्मा च ययौ राजन्वीक्षमाणो भयार्दितः।।
8-101-8a
8-101-8b
दुर्योधनोऽपि स ययौ ह्वतसर्वस्व आतुरः।
ज्ञातिशोकसमापन्नश्चिन्तयित्वा मुहुर्मुहुः।।
8-101-9a
8-101-9b
छिन्नध्वजेन शल्यस्तु रथेन रथिनां वरः।
प्रययौ शिबिरायैव वीक्षमाणो दिशो दश।।
8-101-10a
8-101-10b
ततोऽपरे सुबहुशो भारतानां महारथाः।
व्यद्रवन्त दिशो भीता भयविह्वलचेतसः।।
8-101-11a
8-101-11b
अश्रूपूर्णा भयोद्विग्ना वेपमाना भयातुराः।
कुरवः प्राद्रवन्सर्वे दृष्ट्वा कर्णं निपातितम्।।
8-101-12a
8-101-12b
प्रशंसन्तोऽर्जुनं केचित्केचित्कर्णं महारथाः।
प्राद्रवन्त रणे भीताः कुरवः कुरुसत्तम।।
8-101-13a
8-101-13b
तेषां योधसहस्राणां तावकानां महामृधे।
नासीत्तत्र पुमान्कश्चिद्यस्तु युद्धे मनो दधे।।
8-101-14a
8-101-14b
कर्णे हते महाराज निराशाः कुरवोऽभवन्।
जीवनेषु च राज्येषु दारेषु च धनेषु च।।
8-101-15a
8-101-15b
तान्समानीय पुत्रस्ते यत्नेन महता विभो।
निवेशाय मनो दध्रे दुःखशोकसमन्वितः।।
8-101-16a
8-101-16b
तस्याज्ञां शिरसा दीनाः प्रतिगृह्य विशाम्पते।
विषण्णमनसो भीत्या न्यविशन्त महारथाः।।
8-101-17a
8-101-17b
चिन्तयन्तो वधं घोरं सूतपुत्रस्य संयुगे।
अर्जुनस्य जयं युद्धे चिन्तयानाः पुनःपुनः।।
8-101-18a
8-101-18b
पाण्डवाश्च महेष्वासा न्यविशन्त परन्तपाः।
प्रहृष्टमनसः सर्वे जित्वा शत्रुं महारथाः।।
8-101-19a
8-101-19b
ततो युधिष्ठिरं तत्र निविष्टं वै मुदान्वितम्।
समेत्य सर्वे पाञ्चाला वर्धयन्तो यथाविधि।।
8-101-20a
8-101-20b
अर्जुनस्तु रथात्तूर्णमवरुह्य महायशाः।
धर्मराजस्य चरणौ पीडयामास हृष्टवत्।।
8-101-21a
8-101-21b
तमुत्थाप्य महाराज धर्मपुत्रः प्रतापवान्।
सस्वजे भरतश्रेष्ठमुपजिघ्रन्नुपस्पृशन्।।
8-101-22a
8-101-22b
नकुलः सहदेवश्च पाण्डवश्च वृकोदरः।
अभिवाद्य महाराजमस्वजन्त स्म फल्गुनम्।।
8-101-23a
8-101-23b
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च पाण्डवानां च ये रथाः।
वर्धयन्ते स्म राजानं निहते सूतनन्दने।।
8-101-24a
8-101-24b
ततः कृष्णो महाराज सात्यकिश्चापि सात्वतः।
वर्धयन्ते स्म राजानं निहते सूतनन्दने।।
8-101-25a
8-101-25b
वासुदेवश्च कौन्तेयं प्रणयादिदमब्रवीत्।
अद्य राजन्हताः सर्वे धार्तराष्ट्राः सराजकाः।
हते वैकर्तने कर्णे रथानां प्रवरे रथे।।
8-101-26a
8-101-26b
8-101-26c
यदि लोकास्त्रयः सर्वे योधयेयुः सवासवाः।
तथापि दुर्जयः सूतस्तव कोपात्तु सूदितः।।
8-101-27a
8-101-27b
एवमुक्तः प्रत्युवाच धर्मराजो जनार्दनम्।। 8-101-28a
तव प्रसादाद्ग्रोविन्द हतः कर्णो महायशाः।
पाण्डवाश्च जयं प्राप्या नाशिताश्चापि शत्रवः।।
8-101-29a
8-101-29b
त्वं हि शक्तो भयात्त्रातुं यस्य कस्यचिदाहवे।
त्वमस्य जगतो गोप्ता पाण्डवानां च सर्वदा।।
8-101-30a
8-101-30b
त्वां समासाद्य शक्रोऽपि मोदते दिवि नित्यशः।
त्वं पाता पाण्डुपुत्राणां यथैव जगतस्तथा।।
8-101-31a
8-101-31b
अनाश्चर्यो जयस्तेषां भक्तिर्येषां त्वयि प्रभो।। 8-101-32a
त्वया नाथेन गोविन्द नाथवन्तो वयं युधि।
यथेन्द्रेण पुरा देवास्त्वया चापि जनार्दन।।
8-101-33a
8-101-33b
स्वप्स्याम्यद्य सुखं कृष्णनिद्रां लप्स्ये त्वहं क्षपाम्।
विगतं हि भयं मेऽद्य त्वत्प्रसादान्न संशयः।।
8-101-34a
8-101-34b
एवमुक्तस्तु पार्थेन केशवः प्राह पाण्डवम्।
निमित्तमात्रं हि वयं तवाप्यस्मिन्मुदागमे।।
8-101-35a
8-101-35b
यस्य ते भ्रातरः शूरा भीमसेनादयो नृप।
सम्बन्धिनश्चेन्द्रवीर्याः पार्षतप्रमुखास्तथा।।
8-101-36a
8-101-36b
अर्हते च भवान्नित्यं प्रियं नित्यं च मद्वितम्।
प्रियो हि मे त्वमेतेन वचनेन नरोत्तम।।
8-101-37a
8-101-37b
इत्युक्तो धर्मराजस्तु स्वरथं हेमभूपितम्।
दन्तवर्णैर्हयैर्युक्तं कालवालैर्महीपतिः।।
8-101-38a
8-101-38b
आस्थाय पुरुषव्याघ्रः स्वबलेनापि संवृतः।
प्रययौ बहुवृत्तान्तं द्रष्टुमायोधनं प्रति।।
8-101-39a
8-101-39b
सम्भाषमाणौ तौ वीर उभौ माधवपाण्डवौ।। 8-101-40a
स ददर्श रणे कर्णं शयानं पुरुषर्षभम्।
गाण्डीवमुक्तैर्विशिखैः सर्वतः सन्निपीडितम्।।
8-101-41a
8-101-41b
सपुत्रं निहतं दृष्ट्वा कर्णं राजा युधिष्ठिरः।
प्रशशंस नरव्याघ्रावुभौ माधवपाण्डवौ।।
8-101-42a
8-101-42b
अद्य राजाऽस्मि सर्वस्यां पृथिव्यां मधुसूदन।
दिष्ट्या जयसि गोविन्द दिष्ट्याशत्रुर्निपातितः।।
8-101-43a
8-101-43b
एवं सुबहुशो राजन्प्रशशंस जनार्दनम्।
अर्जुनं च कुरुश्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरः।।
8-101-44a
8-101-44b
दृष्ट्वा च निहतं कर्णं स पुत्रं पार्थसायकैः।
पुनर्जातमिवात्मानं मेने कुरुकुलोद्वहः।।
8-101-45a
8-101-45b
समेत्य च कुरुश्रेष्ठं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
वर्धयन्ति स्म राजानो हर्षयुक्ता महारथाः।।
8-101-46a
8-101-46b
सञ्जय उवाच। 8-101-47x
एवमेष क्षयो वृत्तः सुमहान्रोमहर्षणः।
तव दुर्मन्त्रिते राजन्दिष्ट्या त्वमनुशोचसि।।
8-101-47a
8-101-47b
वैशम्पायन उवाच। 8-101-48x
श्रुत्वैतदप्रियं राजा धृतराष्ट्रो महीपतिः।
पपात भूमौ निश्चेष्टः कौरव्यः परमासनात्।
तथा सत्यव्रता देवी गान्धारी दिव्यदर्शना।।
8-101-48a
8-101-48b
8-101-48c
ततस्तूर्णं तु विदुरस्तं नृपं सञ्जयस्तथा।
पर्याश्वासयतां चैतावुभावेव तु भूमिपम्।।
8-101-49a
8-101-49b
तथैवाश्वासयामासुर्गान्धारीं कुरुयोषितः।। 8-101-50a
स दैवं परमं मेने भवितव्यं च भारत।
ताभ्यामाश्वासितो राजा तूष्णीमास्ते विशाम्पते।।
8-101-51a
8-101-51b
एवमाख्याय राज्ञे च सञ्जयो राजसत्तम।
जगाम शिबिरं भूयो हते कर्णे महात्मनि।।
8-101-52a
8-101-52b
स दृष्ट्वा निहतं शल्यं राजानं च सुयोधनम्।
शकुनिं सुबहून्राजन्सैनिकांश्च सहस्रशः।।
8-101-53a
8-101-53b
तथैव पाण्डवीं सेनां निहतां प्रेक्ष्य सञ्जयः।
सौप्तिके द्रौणिना राजन्हतवाजिनरद्विपाम्।।
8-101-54a
8-101-54b
स हि दृष्ट्वा हतान्सर्वान्समन्ताद्युधि सञ्जयः।
प्रयातो हास्तिनपुरं शोकार्तो भयविह्वलः।।
8-101-55a
8-101-55b
हतेषु पुनरेतेषु प्रभूतगजवाजिषु।
योधैश्च तैर्महाराज नानादेशसमुद्भवैः।।
8-101-56a
8-101-56b
कुरुक्षेत्रं तु तत्सर्वं शून्यमासीद्विशाम्पते।
निहतैः पाण्डवेयैश्च धार्तराष्ट्रैश्च संयुगे।।
8-101-57a
8-101-57b
यथाहि विषयं वृत्तं धार्तराष्ट्रस्य संञ्जयः।
निवेदयति तत्सर्वं यथावृत्तं यथाविधि।।
8-101-58a
8-101-58b
एवं महायुद्धमिदं महात्मनो
धनञ्जयस्याधिरथेश्च यः पठेत्।
स सम्यगिष्टस्य मखस्य यत्फलं
तदाप्नुयाद्यः शृणुयाच्च नित्यशः।।
8-101-59a
8-101-59b
8-101-59c
8-101-59d
मखो हि विष्णुर्भगवान्सनातनो
वहन्ति यं चाप्यनिलेन्दुभानवः।
अतोऽनसूयुः शृणुयात्पठेच्च यः
स सर्वलोकांश्च जयेत्सुखी भवेत्।।
8-101-60a
8-101-60b
8-101-60c
8-101-60d
।। इति श्रीमन्महाभारते शतसाहस्रिकायां संहितायां
वैयासिक्यां कर्णपर्वणि एकाधिकशततमोऽध्यायः।। 101 ।।
।। कर्णपर्व समाप्तम्।। 8 ।।

8-101-1a अतः परं शल्यपर्व भविष्यति। 8-101-1b तस्यायमाद्यः श्लोकः।। 8-101-2x जनमेजय उवाच। 8-101-2a एवं निपातिते कर्णे समरे सव्यसाचिना। 8-101-2b अल्पावशिष्टाः कुरवः किमकुर्वत वै द्विज।।

कर्णपर्व-100 पुटाग्रे अल्लिखितम्। शल्यपर्व