महाभारतम्-08-कर्णपर्व-039

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शल्यकर्णयोः संवादः।। 1 ।। सेनाद्वयस्य परस्परमेलनम्।। 2 ।।

सञ्जय उवाच। 8-39-1x
ततः परानीकभिदं व्यूहमप्रतिमं कृतम्।
समीक्ष्य कर्णः पार्थानां धृष्टधुम्नाभिरक्षितम्।।
8-39-1a
8-39-1b
प्रययौ रथघोषेण सिंहनादरवेण च।
वादित्राणां च निनदैः कम्पयन्निव मेदिनीम्।।
8-39-2a
8-39-2b
सञ्जय उवाच। 8-39-3x
ततः प्रयान्तं राधेयं मद्रराजः स्मयन्निव।
अवधूय इदं वाक्यमब्रवीत्कुरुसन्निधौ।।
8-39-3a
8-39-3b
चमूं तवेमां विपुलां समृद्वा--
मसङ्खेयामश्वनराकुलां च।
तथा प्रवेष्टा समरे धनञ्जयः
कक्षं दहन्दीप्त इवाश्रयाशी।।
8-39-4a
8-39-4b
8-39-4c
8-39-4d
रथे स्तितौ वीरवरौ वरेण्यौ
सिंहस्कन्धौ लोहितपद्मनेत्रौ।
द्रष्टा भवानद्य विना प्रयत्ना--
त्तथाहि मे शकुना वेदयन्ति।।
8-39-5a
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8-39-5d
अद्य द्रष्टाऽसि तं वीरं श्वेताश्वं कृष्णसारथिम्।
निघ्नन्तं शात्रवान्सङ्ख्ये यं कर्ण परिपृच्छसि।।
8-39-6a
8-39-6b
अद्य तौ पुरुषव्याघ्रौ लोहिताक्षौ परन्तपौ।
वासुदेवार्जुनौ कर्ण द्रष्टाऽस्यमितविक्रमौ।।
8-39-7a
8-39-7b
सारथिर्यस्य गोविन्दो गाण्डीवं यस्य कार्मुकम्।
तं चेद्वन्ताऽसि राधेय त्वं नो राजा भविष्यसि।।
8-39-8a
8-39-8b
प्रवात्येष महावायुरभितस्तव वाहिनीम्।
क्रव्यादा व्याहरन्त्येते मृगाः कुर्वन्ति भैरवम्।।
8-39-9a
8-39-9b
पश्य कर्ण महाघोरं भयं वै रोमहर्षणम्।
अर्कं जीमूतसङ्काशः कबन्धो वार्य तिष्ठति।।
8-39-10a
8-39-10b
पश्य यूथं मृगशतं मृगाणां सर्वतोदिशम्।
ररास दीप्तलाङ्गूलमादित्यामभि संस्थितम्।।
8-39-11a
8-39-11b
पश्य काकांश्च गृध्रांश्च समवेतान्सहस्रशः।
आदित्यमभिवीक्षन्ते ह्यशिवाः कर्ण सस्वराः।।
8-39-12a
8-39-12b
श्वेतवाजिसमायुक्ते तव कर्ण महारथे।
पताकाः प्रज्वलन्त्येता ध्वजश्चातीव कम्पते।।
8-39-13a
8-39-13b
उदीर्यतो हयान्पश्य महाकायान्महाजवान्।
प्लवमानान्महावीर्यानाकाशे गरुडानिव।।
8-39-14a
8-39-14b
ध्रुवमेषु निमित्तेषु भूमिमावृत्य पार्थिवाः।
स्वप्स्यन्ति निहताः कर्ण शतशोऽथ सहस्रशः।।
8-39-15a
8-39-15b
शङ्खानां तुमुलः शब्दः श्रूयते रोमहर्षणः।
आनकानां च राधेय मृदङ्गानां च हन्यताम्।।
8-39-16a
8-39-16b
शृणु शब्दान्बहुविधान्नराश्वरथवाजिनाम्।
ज्यातलत्रेषुशब्दांश्च शृणु कर्ण महात्मनाम्।।
8-39-17a
8-39-17b
हेमरूप्यप्रमृष्टानां वाससां शिल्पिनिर्मिताः।
सहेमचन्द्रताराभाः पताकाः किङ्गिणीयुताः।।
8-39-18a
8-39-18b
नानावर्णा रणे भान्ति श्वसनेन प्रकम्पिताः।
पश्य कर्णार्जुनस्यैताः सौदामिन्य इवाम्बुदे।।
8-39-19a
8-39-19b
ध्वजाः कणकणायन्ते वातेनातिसमीरिताः।
सपताकरथाश्चापि पाञ्चालानां महात्मनाम्।।
8-39-20a
8-39-20b
एष रेणुः समुद्भूतो दिवमावृत्य तिष्ठति।
गजवाजिप्रणुन्ना च कम्पते कर्ण मेदिनी।।
8-39-21a
8-39-21b
श्रूयते मेघसङ्काशो रथनेमिस्वनस्तथा।
पश्य कुन्तीसुतं वीरं बीभत्सुमपराजितम्।
प्रहरिष्यन्तमायान्तं कपिप्रवरकेतनम्।।
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8-39-22c
गजाश्वरथपत्त्योघांस्तावकान्युधि निघ्नतः।
ध्वजाग्रं दृश्यते तस्य ज्याशब्दश्चैव श्रूयते।।
8-39-23a
8-39-23b
एष संशप्तकान्भूयस्तानेवाभिमुखो गतः।
करोति कदनं चैष सङ्गामे द्विषतां बली।।
8-39-24a
8-39-24b
सञ्जय उवाच। 8-39-25x
इति ब्रुवाणं मद्रेशं कर्णः प्रोवाच मन्युमान्।। 8-39-25a
पश्य संशप्तकैः क्रुद्धैः समन्तात्समभिद्रुतः।
एष सूर्य इवाम्भोदैश्छन्नः पार्थो न दृश्यते।
एष दान्तोऽर्जुनः शल्य निमग्नः शोकसागरे।।
8-39-26a
8-39-26b
8-39-26c
शल्य उवाच। 8-39-27x
वरुणं कोऽम्भसा हन्यादिन्धनेन च कोऽनलम्।
कोवाऽनिलं निगृह्णीयात्पिबेद्वा को महार्णवम्।।
8-39-27a
8-39-27b
ईदृग्रूपमहं मन्ये पार्थस्य युधि निर्जयम्।
न हि शक्योऽर्जुनो जेतुं युधि देवासुरैरपि।।
8-39-28a
8-39-28b
अथैघं परितोषस्ते वाग्भिस्त्वं सुमाना भव।
न हि शक्यो युधा जेतुमन्यं कुरु मनोरथम्।।
8-39-29a
8-39-29b
बाहुभ्यामुद्धरेद्भूमिं दहेत्क्रुद्ध इमाः प्रजाः।
पातयेत्त्रिदिवाद्देवान्नार्जुनं समरे जयेत्।।
8-39-30a
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पश्य कुन्तीसुतं भीमं वीरमक्लिष्टकारिणम्।
प्रहरन्तं महाबाहुं स्थितं मेरुमिवाचलम्।।
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अमर्षी पुरुषव्याघ्रः सदा वैरमनुस्मरन्।
एष भीमो जयप्रेप्सुर्युधि तिष्ठति वीर्यवान्।।
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एष धर्मभृतां श्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
तिष्ठत्यसुकरः सङ्ख्ये परैः परपुरञ्जयः।।
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एतौ च पुरुषव्याघ्रावाश्विनेयौ महारथौ।
नकुलः सहदेवश्च तिष्ठतो युधि दुर्जयौ।।
8-39-34a
8-39-34b
एते तिष्ठन्ति कार्ष्णेयाः पञ्च पञ्चाचला इव।
योत्स्यमाना महावीर्या भीमार्जुनसमा युधि।।
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एते द्रुपदपुत्राश्च धृष्टद्युम्नपुरोगमाः।
हीनाः सत्यजिता वीरास्तिष्ठन्ति परमौजसः।।
8-39-36a
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यत्र कृष्णार्जुनौ वीरौ यत्र राजा युधिष्ठिरः।
तत्र धर्मश्च सत्यं च यतो धर्मस्ततो जयः।।
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8-39-37b
इति संवदतोरेव तयोः पुरुषसिंहयोः।
ते सेने समसज्जेतां ङ्गायमुनवद्भृशम्।।
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8-39-38b
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः।। 39 ।।
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