महाभारतम्-08-कर्णपर्व-093
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शल्यकर्णयोः सँलापः।। 1 ।। कृष्णार्जुनयोः सँलापः।। 2 ।। अर्जुनेन कृष्णम्प्रति स्वसामर्थ्यकथनम्।। 3 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-93-1x |
रथौ तयोः श्वेतहयौ दिव्यौ युक्तौ महास्वनौ। समास्थितौ लोकवीरौ शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथकम्। वासुदेवार्जुनौ वीरौ कर्णशल्यौ च भारत।। | 8-93-1a 8-93-1b 8-93-1c |
तद्भीरुसन्त्रासकरं युद्धं समभवत्तदा। अन्योन्यस्पांधेनोरुग्रं शक्रशम्बरयोरिव।। | 8-93-2a 8-93-2b |
तयोर्ध्वजौ हि विमलौ शुशुभाते रथे स्थितौ। राहुकेतू यथाऽऽकाशे उदितौ जगतः क्षये।। | 8-93-3a 8-93-3b |
कर्णस्याशीविषनिभा रत्नसारमयी दृढ़ा। पुरन्दरधनुः प्रख्या हस्तिकक्ष्या विराजते।। | 8-93-4a 8-93-4b |
कपिश्रेष्ठस्तु पार्थस्य व्यादितास्य इवान्तकः। दंष्ट्राभिर्भीषयन्भाभिर्दुर्निरीक्ष्यो रविर्यथा।। | 8-93-5a 8-93-5b |
युद्धाभिलाषुको भूत्वा ध्वजो गाण्डीवधन्वनः। कर्णध्वजमुपातिष्ठत्स्वस्थानाद्वेगवान्कपिः।। | 8-93-6a 8-93-6b |
उत्पत्य च महावेगः कक्ष्यामभ्याहनत्तदा। नखैश्च दशनैश्चैव गरुडः पन्नगं यथा।। | 8-93-7a 8-93-7b |
सा किङ्किणीकाभरणा कालपाशोपमा तदा। अभ्यद्रवत्सुसंरब्धा हस्तिकक्ष्याऽथ तं कपिम्।। | 8-93-8a 8-93-8b |
तयोर्घोरतरे युद्धे द्वैरथे द्यूत आहिते। प्राकुर्वतां ध्वजौ युद्धं पूर्वं पूर्वतरं तदा।। | 8-93-9a 8-93-9b |
हया हयानभ्यहेषन्स्पर्धमानाः परस्परम्। अविध्यत्पुण्डरीकाक्षः शल्यं नयनसायकैः। शल्यश्च पुण्डरीकाक्षं तथैवाभिसमैक्षत।। | 8-93-10a 8-93-10b 8-93-10c |
तत्राजयद्वासुदेवः शल्यं नयनसायकैः। कर्णं चाप्यजयदृष्ट्या कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।। | 8-93-11a 8-93-11b |
अयाब्रवीत्सूतपुत्रः शल्यमाभाष्य सस्मितम्।। | 8-93-12a |
यदि पार्थो रणे हन्यादद्य मामिह कर्हिचित्। किं करिष्यसि सङ्घामे शल्य सत्यमथोच्यताम्।। | 8-93-13a 8-93-13b |
शल्य उवाच। | 8-93-14x |
यदि कर्ण रणे हन्यादद्य त्वां श्वेतवाहनः। उभावेकरयेनाहं हन्यां माधवपाण्डवौ।। | 8-93-14a 8-93-14b |
सञ्जय उवाच। | 8-93-15x |
एवमेव तु गोविन्दमर्जुनः प्रत्यभाषत। तं प्रहस्याब्रवीत्कृष्णः पार्थं परमिदं वचः।। | 8-93-15a 8-93-15b |
पतेद्दिवाकरः स्थानाच्छीर्येद्भूमिरनेकधा। शैल्यमग्निरियान्न त्वां हन्यात्कार्णो धनञ्जय।। | 8-93-16a 8-93-16b |
यदि चैतत्कथञ्चित्स्याल्लोकपर्यसनं भवेत्। हन्यां कर्णं तथा शल्यं बाहुभ्यामेव संयुगे।। | 8-93-17a 8-93-17b |
इति कृष्णवचः श्रुत्वा प्रहसन्कपिकेतनः। अर्जुनः प्रत्युवाचेदं कृष्णमक्लिष्टकारिणम्।। | 8-93-18a 8-93-18b |
मम तावदपर्याप्तौ कर्णशल्यौ जनार्दन। सपताकध्वजं कर्णं सशल्यरथवाजिनम्।। | 8-93-19a 8-93-19b |
सच्छत्रकवचं चैव सशक्तिशरकार्मुकम्। द्रष्टाऽस्यद्य रणे कृष्ण शरैश्छिन्नमनेकधा।। | 8-93-20a 8-93-20b |
अद्यैव सरथं साश्वं सशक्तिकवचायुधम्। सञ्चूर्णितमिवारण्ये वृक्षं पश्याद्य दन्तिना।। | 8-93-21a 8-93-21b |
अद्य राधेयभार्याणां वैधव्यं समुपस्थितम्। ध्रुवं स्वप्नेष्वनिष्टानि ताभिर्दृष्टानि माधव।। | 8-93-22a 8-93-22b |
द्रष्टासि ध्रुवमद्यैव विधवाः कर्णयोषितः। न हि मे शाम्यते मन्युर्यदनेन पुरा कृतम्।। | 8-93-23a 8-93-23b |
कृष्णां सभागतां दृष्ट्वा मूढेनादीर्घदर्शिना। अस्मांस्तथाऽवहसता क्षिपता च पुनःपुनः।। | 8-93-24a 8-93-24b |
अद्य द्रष्टासि गोविन्द कर्णमुन्मथितं मया। वारणेनेव मत्तेन पुष्पितं गजतीरुहम्।। | 8-93-25a 8-93-25b |
अद्य ता मधुरा वाचः श्रोतासि मधुसूदन। दिष्ट्या जयसि वार्ष्णेय इति कर्णे निपातिते।। | 8-93-26a 8-93-26b |
अद्याभिमन्युजननीं प्रहृष्टः सांत्वयिष्यसि। कुन्तीं पितृष्वसारं च प्रहृष्टः सन् जनार्दन।। | 8-93-27a 8-93-27b |
अद्य बाष्पमुखीं कृष्णां सान्त्वयिष्यसि माधव। वाग्भिश्चामृतकल्पाभिर्धर्मराजं च पाण्डवम्।। | 8-93-28a 8-93-28b/८७.११७ |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे त्रिनवतितमोऽध्यायः।। 93 ।। |
8-93-6 क्रुद्धोऽभिलषितं गत्वा इति ख.ट.पाठः।। 8-93-9 द्यत आह्वये इति ख.ट.पाठः।। 8-93-93 त्रिनवतितमोऽध्यायः।।
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