महाभारतम्-08-कर्णपर्व-029

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दुर्योधनप्रार्थितेन शल्येन समयकरणपूर्वकं कर्णरथसारथ्यस्वीकरणम्।। 1 ।।

दुर्योधन उवाच। 8-29-1x
एवं स भगवान्देवः सर्वलोकपितामहः।
सारथ्यमकरोत्तत्र ब्रह्मा रुद्रोऽभवद्रथी।।
8-29-1a
8-29-1b
रथिनोऽभ्यधिको वीर कर्तव्यो रथसारथिः।
तस्मात्त्वं पुरुषव्याघ्र नियच्छ तुरगान्युधि।।
8-29-2a
8-29-2b
यथा देवगणैस्तत्र वृतो यत्नात्पितामहः।
तथाऽस्माभिर्भवान्यत्नात्कर्णादभ्यधिको वृतः।।
8-29-3a
8-29-3b
यथा देवैर्महाराज ईश्वरादधिको वृतः।
तथा देवैर्महाराज क्षिप्रं रुद्रस्यव पितामहः।
नियच्छ तुरगान्युद्वे राधेयस्य महाद्युते।।
8-29-4a
8-29-4b
8-29-4c
शल्य उवाच। 8-29-5x
मयाप्येतन्नरश्रेष्ठ बहुशो नरसिंहयोः।
कथ्यमानं श्रुतं दिव्यमाख्यानमतिमानुषम्।।
8-29-5a
8-29-5b
यथा च चक्रे सारथ्यं भवस्य प्रपितामहः।
यथाऽसुराश्च निहता इषुणैकेन भारत।।
8-29-6a
8-29-6b
कृष्णस्य चापि विदितं सर्वमेतत्पुरा ह्यभूत्।। 8-29-7a
यथा पितामहो जज्ञे भगवान्सारथिस्तदा।
अनागतमतिक्रान्तं वेद कृष्णोऽपि तत्त्वतः।।
8-29-8a
8-29-8b
एतदर्थं विदित्वाऽपि सारथ्यमुपजग्मिवान्।
स्वयम्भूरिव रुद्रस्य कृष्णः पार्थस्य भारत।।
8-29-9a
8-29-9b
यदि हन्याच्च कौन्तेयं सूतपुत्रः कथञ्चनः।
दृष्ट्वा पार्थं हि निहतं स्वयं योत्स्यति केशवः।।
8-29-10a
8-29-10b
शङ्खचक्रगदापाणिर्धक्ष्यते तव वाहिनीम्।
न चापि तस्य क्रुद्धस्य वार्ष्णेयस्य महात्मनः।
स्थास्यते प्रत्यनीकेषु कश्चिदत्र नृपस्तव।।
8-29-11a
8-29-11b
8-29-11c
सञ्जय उवाच। 8-29-12a
तं तथा भाषमाणं तु मद्रराजमरिन्दमः।
प्रत्युवाच महाबाहुरदीनात्मा सुतस्तव।।
8-29-12a
8-29-12b
मावमंस्था महाबाहो कर्णं वैकर्तनं रणे।
सर्वशस्त्रभृतां श्रेष्ठं सर्वशास्त्रार्थपरागम्।।
8-29-13a
8-29-13b
यस्य ज्यातलनिर्घोषं श्रुत्वा भयकरं महत्।
पाण्डवेयानि सैन्यानि विद्रवन्ति दिशो दश।।
8-29-14a
8-29-14b
प्रत्यक्ष ते महाबाहो यथा रात्रौ घटोत्कचः।
मायाशतानि कुर्वाणो हतो मायापुरस्कृतः।।
8-29-15a
8-29-15b
न चातिष्ठत बीभत्सुः प्रत्यनीके कथञ्चन।
एतांश्च दिवसान्सर्वान्भयेन महता वृतः।।
8-29-16a
8-29-16b
भीमसेनश्च बलवान्धनुष्कोट्याभिचोदितः।
उक्तश्च संज्ञया राजन्मूढ औदरिको यथा।।
8-29-17a
8-29-17b
माद्रीपुत्रौ तथा शूरौ येन जित्वा महारणे।
कमप्यर्थं पुरस्कृत्य न हतौ युधि मारिष।।
8-29-18a
8-29-18b
येन वृष्णिप्रवीरस्तु सात्यकिः सात्वतां वरः।
निर्जित्य समरे शूरो विस्थश्च बलात्कृतः।।
8-29-19a
8-29-19b
सृञ्जयाश्चेतरे सर्वे धृष्टद्युम्नपुरोगमाः।
असकृन्निर्जिताः सङ्ख्ये स्मयमानेन संयुगे।।
8-29-20a
8-29-20b
तं कथं पाण्डवा युद्वे विजेष्यन्ति महारथम्।
यो हन्यात्समरे क्रुद्वो वज्रहस्तं पुरन्दरम्।।
8-29-21a
8-29-21b
त्वं च सर्वास्त्रविद्वीरः सर्वविद्यास्त्रपारगः।
बाहुवीर्येण ते तुल्यः पृथिव्यां नास्ति कश्चन।।
8-29-22a
8-29-22b
त्वं शल्यभूतः शत्रूणामविषह्यः पराक्रमे।
ततस्त्वमुच्यसे राजञ्शल्य इत्यरिसूदन।।
8-29-23a
8-29-23b
तव बाहुबलं प्राप्य न शेकुः सर्वसात्वताः।
तव बाहुबलाद्राजन्किं नु कृष्णो बलाधिकः।।
8-29-24a
8-29-24b
यथा हि कृष्णेन बलं धार्यं वै फल्गुने हते।
तथा कर्णात्ययीभावे त्वया धार्यं महद्बलम्।।
8-29-25a
8-29-25b
किमर्थं समरे सैन्यं वासुदेवो न्यवारयत्।
किमर्थं च भवान्सैन्यं न हनिष्यति मारिष।।
8-29-26a
8-29-26b
त्वत्कृते पदवीं गन्तुमिच्छेयं युधि मारिष।
सोदराणां च वीराणां सर्वेषां च महीक्षिताम्।।
8-29-27a
8-29-27b
शल्य उवाच। 8-29-28x
यन्मां ब्रवीषि गान्धारे अग्रे सैन्यस्य मानद।
विशिष्टं देवकीपुत्रात्प्रीतिमानस्म्यहं त्वयि।।
8-29-28a
8-29-28b
एष सारथ्यमातिष्ठे राधेयस्य यशस्विनः।
युध्यतः पाण्डवाग्र्येण यथा त्वं वीर मन्यसे।।
8-29-29a
8-29-29b
समयश्च हि मे वीर कश्चिद्वैकर्तनं प्रति।
उत्सृजेयं यथाश्रद्वमहं वाचोऽस्य सन्निधौ।।
8-29-30a
8-29-30b
सञ्जय उवाच। 8-29-31x
तथेति राजन्पुत्रस्ते सह कर्णेन मारिष।
अब्रवीत्मद्रराजानं सर्वक्षत्रस्य सन्निधौ।।
8-29-31a
8-29-31b
सारथ्यस्याभ्युपगमाच्छल्येनाश्वासितस्तदा।
दुर्योधनस्तदा हृष्टः कर्णं तमभिषस्वजे।।
8-29-32a
8-29-32b
अब्रवीच्च पुनः कर्णं स्तूयमानः सुतस्तव।
जहि पार्थान्रणे सर्वान्महेन्द्रो दानवानिव।।
8-29-33a
8-29-33b
स शल्येनाभ्युपगते हयानां सन्नियच्छने।
कर्णो हृष्टमना भूयो दुर्योधनभाषत।।
8-29-34a
8-29-34b
नातिहृष्टमना ह्येष मद्रराजोऽभिभाषते।
राजन्मधुरया वाचा पुनरेनं ब्रवीहि वै।।
8-29-35a
8-29-35b
ततो राजा महाप्राज्ञः सर्वास्त्रकुशलो बली।
दुर्योधनोऽब्रवीच्छल्यं मद्रराजं महीपतिम्।।
8-29-36a
8-29-36b
पूरयन्निव घोषेण मेघगम्भीरया गिरा।
शल्य कर्णोऽर्जुनेनाद्य योद्वव्यमिति मन्यते।।
8-29-37a
8-29-37b
तस्य त्वं पुरुषव्याघ्र नियच्छ तुरगान्युधि।
कर्णो हत्वेतरान्सर्वान्फल्गुनं हन्तुमिच्छति।
तस्याभीषुग्रहे राजन्प्रयाचे त्वां पुनः पुनः।।
8-29-38a
8-29-38b
8-29-38c
पार्थस्य सचिवः कृष्णो यथाऽभीषुग्रहो वरः।
तथा त्वमपि राधेयं सर्वतः परिपालय।।
8-29-39a
8-29-39b
सञ्जय उवाच। 8-29-40x
ततः शल्यः परिष्वज्य सुतं ते वाक्यमब्रवीत्।
दुर्योधनममित्रघ्नं प्रीतो मद्राधिपस्तदा।।
8-29-40a
8-29-40b
शल्य उवाच। 8-29-41x
एवं चेन्मन्यसे राजन्गान्धारे प्रियदर्शन।
तस्मात्ते यत्प्रियं किञ्चित्तत्सर्वं करवाण्यहम्।।
8-29-41a
8-29-41b
यत्रास्मि भरतश्रेष्ठ योग्यः कर्मणि कर्हिचित्।
तत्र सर्वात्मना युक्तो वक्ष्ये कार्यं परन्तप।।
8-29-42a
8-29-42b
यत्तु कर्णमहं ब्रूयां हितकामः प्रियाप्रिये।
मम तत्क्षमतां सर्वं भवान्कर्णश्च सर्वशः।।
8-29-43a
8-29-43b
कर्ण उवाच। 8-29-44x
ईशानस्य यथा ब्रह्मा यथा पार्थस्य केशवः।
तथा नित्यं हिते युक्तो मद्रराज भवस्व नः।।
8-29-44a
8-29-44b
शल्य उवाच। 8-29-45x
आत्मनिन्दात्मपूजा च परनिन्दा परस्तवः।
अनाचरितमार्याणां वृत्तमेतच्चतुर्विधम्।।
8-29-45a
8-29-45b
यत्तु विद्वन्प्रवक्ष्यामि प्रत्ययार्थमहं तव।
आत्मनः स्तवसंयुक्तं तन्निबोध यथातथम्।।
8-29-46a
8-29-46b
अहं शक्रस्य सारथ्ये योग्यो मातलिवत्प्रभो।
अप्रमादात्प्रयोगाच्च ज्ञानविद्याचिकित्सनैः।।
8-29-47a
8-29-47b
ततः पार्थेन सङ्ग्रामे युध्यमानस्य तेऽनघ।
वाहयिष्यामि तुरगान्विज्वरो भव सूतज।।
8-29-48a
8-29-48b
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
एकोनत्रिंशोऽध्यायः।। 29 ।।

[सम्पाद्यताम्]

8-29-5 नरसिंहयोः कृष्णार्जुनयोः। अतस्तयोः साम्यं मम कीर्तिकरमेवेति भावः। सुरसिंहयोरिति पाठे रुद्रपितामहयोः।। 8-29-26 किमर्थमिति। सारथ्यामात्रं प्रतिज्ञाय प्रातिभट्यं चेत्कृष्णः कुर्यात्तर्हि त्वं युध्यन् तद्वन्मिथ्याप्रतिज्ञो न भविष्यसीति भावः।। 8-29-27 पदवीमानृण्यम्।। 8-29-42 वक्ष्ये वोढास्मि।। 8-29-45 आत्म निन्दापरस्तवावपि श्रेयस। निन्द्यौ किमुतात्मपूजापरनिन्दे। तदुभयमहं करोमीति भावः।। 8-29-47 अप्रमादोऽवधानम्। प्रयोगोऽश्वप्रेरणम्। ज्ञानमागामिदोषावेक्षणम्। विद्या तत्परिहारज्ञानम्। चिकित्सनं दोषपरिहारसामर्थ्यम्।। 8-29-29 एकोनत्रिंशोऽध्यायः।।

कर्णपर्व-028 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-030