महाभारतम्-08-कर्णपर्व-022

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कृष्णतुल्यसारथेरभावात्स्वस्यार्जुनान्न्यूनतां मन्यमानेन कर्णेन दुर्योधनं प्रति शल्यस्य सारथ्ये नियोजनचोदना।। 1 ।।

धृतराष्ट्र उवाच। 8-22-1x
स्वेन च्छन्देन नः सर्वानवधीद्व्यक्तमर्जुनः।
न ह्यस्य समरे मुच्येदन्तकोऽप्याततायिनः।।
8-22-1a
8-22-1b
पार्थो ह्येकोऽहरद्भद्रामेकश्चाग्निमतर्पयत्।
एकश्चेमां महीं जित्वा चक्रे बलिभृतो नृपान्।।
8-22-2a
8-22-2b
एको निवातकवचनानहनद्दिव्यकार्मुकः।
एकः किरातरूपेण स्थितं शर्वमयोधयत्।।
8-22-3a
8-22-3b
एको ह्यरक्षद्भरतानेको भवमतोषयत्।
तेनैकेन जिताः सर्वे मदीया ह्युग्रतेजसः।।
8-22-4a
8-22-4b
न ते निन्द्याः प्रशस्यास्ते यत्ते चक्रुर्ब्रवीहि तत्।
ततो दुर्योधनः सूत पश्चात्किमकरोत्तदा।।
8-22-5a
8-22-5b
सञ्जय उवाच। 8-22-6x
हतप्रहतविध्वस्ता विवर्मायुधवाहनाः।
दीनस्वरा दूयमाना मानिनः शत्रुनिर्जिताः।।
8-22-6a
8-22-6b
शिबिरस्थाः पुनर्मन्त्रं मन्त्रयन्ति स्म कौरवाः।
भग्नदंष्ट्रा हतविषाः पादाक्रान्ता इवोरगाः।।
8-22-7a
8-22-7b
तानब्रवीत्ततः कर्णः क्रुद्वः सर्प इव श्वसन्।
करं करेण निष्पीड्य प्रेक्षमाणस्तवात्मजम्।।
8-22-8a
8-22-8b
यत्तो दृढश्च दक्षश्च धृतिमानर्जुनः सदा।
सम्बोधयति चाप्येनं यथाकालमधोक्षजः।।
8-22-9a
8-22-9b
सहसाऽस्त्रविसर्गेण वयं तेनाद्य वञ्चिताः।
श्वस्त्वहं तस्य सङ्कल्पं सर्वं हन्ता महीपते।।
8-22-10a
8-22-10b
एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा सोऽनुजज्ञे नृपोत्तमान्।
तेऽनुज्ञाता नृपाः सर्वे स्वानि वेश्मानि भेजिरे।।
8-22-11a
8-22-11b
सुखोषितास्तां रजनीं हृष्टा युद्वाय निर्ययुः।
तेऽपश्यन्विहितं व्यूहं धर्मराजेन दुर्जयम्।
प्रयत्नात्कुरुमुख्येन बृहस्पत्युशनोमतात्।।
8-22-12a
8-22-12b
8-22-12c
अथ प्रतीपकर्तारं प्रवीरं परवीरहा।
सस्मार वृषभस्कन्धं कर्णं दुर्योधनस्तदा।।
8-22-13a
8-22-13b
पुरन्दरसमं युद्वे मरुद्गणसमं बले।
कार्तवीर्यसमं वीर्ये कर्णं राज्ञोऽगमन्मनः।।
8-22-14a
8-22-14b
सर्वेषां चैव सैन्यानां कर्णमेवागमन्मनः।
सूतपुत्रं महेष्वासं बन्धुमात्ययिकेष्विव।।
8-22-15a
8-22-15b
धृतराष्ट्र उवाच। 8-22-16x
ततो दुर्योधनः सूत पश्चात्किमकरोत्तदा।
यद्वोऽगमन्मनो मन्दाः कर्णं वैकर्तनं प्रति।।
8-22-16a
8-22-16b
अप्यपश्यत राधेयं शीतार्ता इव भास्करम्।
कृतेऽवहारे सैन्यानां प्रवृत्ते च रणे पुनः।।
8-22-17a
8-22-17b
`दुर्योधनं च तत्राजौ पाण्डवेन भृशार्दितम्।
पराक्रान्तान्पाण्डुसुतान्दृष्ट्वाऽपि भृशार्दितम्'।।
8-22-18a
8-22-18b
कथं वैकर्तनः कर्णस्तत्रायुध्यत सञ्जय।
कथं च पाण्डवाः सर्वे युयुधुस्तत्र सूतजम्।।
8-22-19a
8-22-19b
कर्णो ह्येको महाबाहुर्हन्यात्पार्थान्ससृञ्जयान्।
कर्णस्य भुजयोर्वीर्यं शक्रविष्णुसमं युधि।।
8-22-20a
8-22-20b
तस्य शस्त्राणि घोराणि विक्रमश्च महात्मनः।
कर्णमाश्रित्य सङ्ग्रामे मत्तो दुर्योधनो नृपः।।
8-22-21a
8-22-21b
दुर्योधनं ततो दृष्ट्वा पाण्डवेन भृशार्दितम्।
पराक्रान्तान्पाण्डुसुतान्दृष्ट्वा चापि महारथः।।
8-22-22a
8-22-22b
कर्णमाश्रित्य सङ्ग्रामे मन्दो दुर्योधनः पुनः।
जेतुमुत्सहते पार्थान्सपुत्रान्सहकेशवान्।।
8-22-23a
8-22-23b
`यः सौबलं तथा तात नीतिमानिति मन्यते।
कर्णं चाग्रतिमं युद्वे देवैरपि दुरुत्सहम्।।
8-22-24a
8-22-24b
मन्यतेऽभ्यधिकं पार्थादेवं चास्य हृदि स्थितम्।
विजेष्यति रणे कर्ण एकः पर्थान्ससोमकान्।
मम चैव सदा मन्दः शंसते नित्यमग्रतः'।।
8-22-25a
8-22-25b
8-22-25c
अहो बत महद्दुःखं यत्र पाण्डुसुतान्रणे।
नातरद्रभसः कर्णो दैवं नूनं परायणम्।।
8-22-26a
8-22-26b
अहो द्यूतस्य निष्ठेयं घोरा सम्प्रति वर्तते।। 8-22-27a
अहो तीव्राणि दुःखानि दुर्योधनकृतान्यहम्।
सोढा घोराणि बहुशः शल्यभूतानि सञ्जय।।
8-22-28a
8-22-28b
सौबलं च तदा तात नीतिमानिति मन्यते।
कर्णश्च रभसो नित्यं राजा त चाप्यनुव्रतः।।
8-22-29a
8-22-29b
यदेवं वर्तमानेषु महायुद्वेषु सञ्जय।
अश्रौषं निहतान्पुत्रान्नित्यमेव विनिर्जितान्।।
8-22-30a
8-22-30b
न पाण्डवानां समरे कश्चिदस्ति हतः किल।
स्त्रीमध्यमिव गाहन्ते दैवं तु बलवत्तरम्।।
8-22-31a
8-22-31b
सञ्जय उवाच। 8-22-32x
[राजन्पूर्वनिमित्तानि धर्मिष्ठानि विचिन्तय]। 8-22-32a
अतिक्रान्तं हि यत्कार्यं पश्चाच्चिन्तयते नरः।
तच्चास्य न भवेत्कार्यं चिन्तया च विनश्यति।।
8-22-33a
8-22-33b
तदिदं तव कार्यं तु दूरप्राप्तं विजानता।
न कृतं यत्त्वया पूर्वं प्राप्ताप्राप्तविचारणम्।।
8-22-34a
8-22-34b
उक्तोऽसि बहुधा राज्ञन्मा युध्यस्वेति पाण्डवैः।
न च तत्त्वग्रहीर्द्वेषात्पाण्डवेषु विशाम्पते।।
8-22-35a
8-22-35b
त्वया पापानि घोराणि समाचीर्णानि पाण्डुषु।
त्वत्कृते वर्तते घोरः पार्थिवानां जनक्षयः।।
8-22-36a
8-22-36b
तत्त्विदानीमतिक्रान्तं मा शुचो भरतर्षभ।
शृणु सर्वं यथावृत्तं घोरं वैशसमुच्यते।।
8-22-37a
8-22-37b
प्रभातायां रजन्यां तु कर्णो राजानमभ्ययात्।
समेत्य च महाबाहुर्दुर्योधनमथाब्रवीत्।।
8-22-38a
8-22-38b
कर्ण उवाच। 8-22-39x
अद्य राजन्समेष्यामि पाण्डवेन यशस्विना।
निहनिष्यामि तं वीरं स वा मां निहनिष्यति।।
8-22-39a
8-22-39b
बहुत्वान्मम कार्याणां तथा पार्थस्य भारत।
नाभूत्समागमो राजन्मम चैवार्जुनस्य च।।
8-22-40a
8-22-40b
इदं तु मे यथाप्रज्ञं शृणु वाक्यं विशाम्पते।
अनिहत्य रणे पार्थं नाहमेष्यामि भारत।।
8-22-41a
8-22-41b
हतप्रवीरे सैन्येऽस्मिन्मयि चावस्थिते युधि।
अभियास्यति मां पार्थः शक्रशक्तिविनाकृतम्।।
8-22-42a
8-22-42b
ततः श्रेयस्करं यच्च तन्निबोध जनेश्वर।
आयुधानां च मे वीर्यं दिव्यानामर्जुनस्य च।।
8-22-43a
8-22-43b
कार्यस्य महतो भेदे लाघवे दूरपातने।
सौष्ठवे चास्त्रपाते च सव्यसाची न मत्समः।।
8-22-44a
8-22-44b
प्राणे शौर्येऽथ विज्ञाने विक्रमे चापि भारत।
निमित्तज्ञानयोगे च सव्यसाची न मत्समः।।
8-22-45a
8-22-45b
सर्वायुधमहामात्रं विजयं नाम तद्वनुः।
इन्द्रार्थं प्रियकामेन निर्मितं विश्वकर्मणा।।
8-22-46a
8-22-46b
येन दैत्यगणान्राजञ्जितवान्वै शतक्रतुः।
यस्य घोषेण दैत्यानां व्यामुह्यन्त दिशो दश।।
8-22-47a
8-22-47b
तद्भार्गवाय प्रायच्छच्छक्रः परमसम्मतम्।
तद्दिव्यं भार्गवो मह्यमददद्वनुरत्तमम्।।
8-22-48a
8-22-48b
तेन योत्स्ये महाबाहुमर्जुनं जयतां वरम्।
यथेन्द्रः समरे सर्वान्दैतेयान्वै समागतान्।
`निजघान तथा सर्वाञ्जेष्यामि युधि पाण्डवान्'।।
8-22-49a
8-22-49b
8-22-49c
धनुर्घोरं रामदत्तं गाण्डीवात्तद्विशिष्यते।
त्रिस्सप्तकृत्वः पृथिवी धनुषा येन निर्जिता।।
8-22-50a
8-22-50b
धनुषो ह्यस्य कर्माणि दिव्यानि प्राह भार्गवः।
तद्रामो ह्यददन्मह्यं तेन योत्स्यामि पाण्डवम्।।
8-22-51a
8-22-51b
अद्य दुर्योधनाहं त्वां नन्दयिष्ये सबान्धवम्।
निहत्य समरे वीरमर्जुनं जयतां वरम्।।
8-22-52a
8-22-52b
सपर्वतवनद्वीपा हतवीरा ससागरा।
पुत्रपौत्रप्रतिष्ठा ते भविष्यत्यद्य पार्थिव।।
8-22-53a
8-22-53b
नाशक्यं विद्यते मेऽद्य त्वत्प्रियार्थं विशेषतः।
सम्यग्धर्मानुरक्तस्य सिद्विरात्मवतो यथा।।
8-22-54a
8-22-54b
न हि मे विक्रमं सोढुं स शक्तोऽग्निं तरुर्यथा।
अवश्यं तु मया वाच्यं येन हीनोऽस्मि फल्गुनात्।।
8-22-55a
8-22-55b
ज्या तस्य धनुषो दिव्या तथाऽक्षय्ये महेषुधी।
सारथिस्तस्य गोविन्दो मम तादृङ्ग विद्यते।।
8-22-56a
8-22-56b
तस्य दिव्यं धनुः श्रेष्ठं गाण्डीवमजितं युधि।
विजयं च महद्दिव्यं ममापि धनुरुत्तमम्।।
8-22-57a
8-22-57b
तत्राहमधिकः पार्थाद्वनुषा तेन पार्थिव।
येन चाप्यधिको वीरः पाण्डवस्तन्निबोध मे।।
8-22-58a
8-22-58b
रश्मिग्राहश्च दाशार्हः सर्वलोकनमस्कृतः।
अग्निदत्तश्च वै दिव्यो रथः काञ्चनभूषणः।।
8-22-59a
8-22-59b
अच्छेद्याः सर्वतो वीर वाजिनश्च मनोजवाः।
ध्वजश्च दिव्यो द्युतिमान्वानरोपि भयङ्करः।।
8-22-60a
8-22-60b
कृष्णश्च जगतः स्रष्टा रथं तमभिरक्षति।
एभिस्त्रिभिरहं हीनो युद्वुमिच्छामि पाण्डवम्।।
8-22-61a
8-22-61b
अयं तु सदृशः शौरेः शल्यः समितिशोभनः।
सारथ्यं यदि मे कुर्याद्द्रुवस्ते विजयो भवेत्।।
8-22-62a
8-22-62b
तस्य मे सारथिः शल्यो भवत्वसुकरः परैः।
नाराचान्गार्ध्रपत्रांश्च शकटानि वहन्तु मे।।
8-22-63a
8-22-63b
रथाश्च मुख्या राजेन्द्र युक्ता वाजिभिरुत्तमैः।
आयान्तु पश्चात्सततं मामेव भरतर्षभ।।
8-22-64a
8-22-64b
एवमभ्यधिकः पार्थाद्भविष्यामि गुणैरहम्।
शल्योप्यभ्यधिकः कृष्णादर्जुनादपिचाप्यहम्।।
8-22-65a
8-22-65b
यथाऽश्वहृदयं वेद दाशार्हः परवीरहा।
तथा शल्यो विजानीते हयज्ञानं महारथः।।
8-22-66a
8-22-66b
बाहुवीर्ये समो नास्ति मद्रराजस्य कश्चन।
तथाऽस्त्रे मत्समो नास्ति कश्चिदेव धनुर्धरः।।
8-22-67a
8-22-67b
तथा शल्यसमो नास्ति हयज्ञाने हि कश्चन।
सोऽयमभ्यधिकः कृष्णाद्भविष्यति रथो मम।।
8-22-68a
8-22-68b
एवं कृते रथस्थोऽहं गुणैरभ्यधिकोऽर्जुनात्।
विजयेयमहं सङ्ख्ये फल्गुनं कुरुसत्तम।।
8-22-69a
8-22-69b
समुद्यातुं न शक्ष्यन्ति देवा अपि सवासवाः।
एतत्कृतं महाराज त्वयेच्छामि परन्तप।।
8-22-70a
8-22-70b
क्रियतामेष कामो मे मा वः कालोऽत्यगादयम्।
एवं कृते कृतं मह्यं त्वया सर्वं भविष्यति।।
8-22-71a
8-22-71b
ततो द्रक्ष्यसि सङ्ग्रामे यत्करिष्यामि भारत।
सर्वथा पाण्डवान्सङ्ख्ये विजेष्ये वै समागतान्।।
8-22-72a
8-22-72b
न हि मे समरे शक्ताः समुद्यातुं सुरासुराः।
किमु पाण्डुसुता राजन्रणे मानुषयोनयः।।
8-22-73a
8-22-73b
सञ्जय उवाच। 8-22-74x
एवमुक्तस्तव सुतः कर्णेनाहवशोभिना।
सम्पूज्य सम्प्रहृष्टात्मा ततो राधेयमब्रवीत्।।
8-22-74a
8-22-74b
दुर्योधन उवाच। 8-22-75x
एवमेतत्करिष्यामि यथा त्वं कर्ण मन्यसे।
सोपासङ्गा रथाः साश्वाः स्वनुयास्यन्ति संयुगे।।
8-22-75a
8-22-75b
नाराचान्गार्ध्रपत्रांश्च शकटानि वहन्तु ते।
अनुयास्याम कर्ण त्वां वयं सर्वे च पार्थिवाः।।
8-22-76a
8-22-76b
सञ्जय उवाच। 8-22-77x
एवमुक्त्वा महाराज तव पुत्रः प्रतापवान्।
अभिगम्याब्रवीद्राजा मद्रराजमिदं वचः।।
8-22-77a
8-22-77b
।। इति श्रीमन्महाभारते
कर्णपर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः।। 22 ।।

[सम्पाद्यताम्]

8-22-1 स्वेन च्छन्देन इच्छया। आततायिनः शस्त्रपाणेः।। 8-22-2 भद्रां सुभद्राम्। बलिभृतः करदान्।। 8-22-4 अरक्षत घोषयात्रायाम्। भरतान्दुर्योधनादीन्।। 8-22-6 हतास्ताडिताः। प्रहताश्छिन्नावयवाः। विध्वस्ताः वाहनेभ्योऽधः पातिताः।। 8-22-10 सहसा अकस्मात् सहस्राक्षनिसृष्ट्या च शक्त्या तेन स्म वञ्चिताः इति ख. पाठः। सहस्राक्षनिसर्गेय शक्त्या तेन स्म वञ्चिताः इति ट.पाठः।। 8-22-12 वृहस्पत्युशनोमते इति झ.पाठः तत्र स्थितेनेति शेषः।। 8-22-13 प्रतीपकर्तारं शत्रूणां छेत्तारम्। प्रवीरं प्रकृष्टं वीरम्।। 8-22-15 आल्ययिकेषु प्राणसङ्कटेषु।। 8-22-17 अप्यपश्यत। अपिः प्रश्ने।। 8-22-27 निष्ठा विपाकः।। 8-22-29 कर्णश्च नीतिमानिति मन्यत इति पूर्वेणान्वयः।। 8-22-31 स्त्रीमध्यमिव गाहन्ते निर्भयाः सेनां मृद्रन्तीत्यर्थः।। 8-22-32 निमितानि द्यूतादीनि धर्मिष्ठानीतिविपरीतलक्षणा। अधर्मिष्ठानीत्यर्थः।। 8-22-34 प्राप्ताप्राप्तविचरणं युक्तायुक्तपरीक्षणं न कृतमित्यन्वयः।। 8-22-43 जीवानामर्जुनस्य चेति ख.ड.पाठः।। 8-22-44 कार्यस्य कर्तव्यस्य परकीयस्य भेदे विनाशे। लाघवे शैघ्र्ये। सौष्ठवे कौशले।। 8-22-45 प्राणे शारीरबले। शौर्ये मानसबले विज्ञाने अस्त्रशिक्षायाम्। विक्रमे फलोपधानेऽस्त्राणाम्। निमित्तज्ञानयोगे लक्षसम्बन्धावधारणे। प्राणस्थैर्ये च वीर्ये च इति क.ख.ङ.पाठः।। 8-22-46 महामात्रं श्रेष्ठम्।। 8-22-54 सिद्विर्मोक्षः। आत्मवतो जितचित्तस्य।। 8-22-55 न भीमो विक्रमं सोढुं इति क.ङ.पाठः।। 8-22-22 द्वाविंशोऽध्यायः।।

कर्णपर्व-021 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-023