महाभारतम्-08-कर्णपर्व-016
दिखावट
← कर्णपर्व-015 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-016 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-017 → |
|
युयुत्सूलूकयोर्युद्धम्।। 1 ।। शकुनिसुतसोमयोर्युद्धम्।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-16-1x |
युयुत्सं तव पुत्रस्य द्रावयन्तं बलं महत्। उलूको न्यपतत्तूर्णं तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 8-16-1a 8-16-1b |
युयुत्सुश्च ततो राजञ्शितधारेण पत्रिणा। उलूकं ताडयामास वज्रेणेव महाबलम्।। | 8-16-2a 8-16-2b |
उलूकस्तु ततः क्रुद्धस्तव पुत्रस्य संयुगे। क्षुरप्रेण धनुश्छित्त्वा ताडयामास कर्णिना।। | 8-16-3a 8-16-3b |
तदपास्य धनुश्छिन्नं युयुत्सर्वेगवत्तरम्। अन्यदादत्त सुमहच्चापं संरक्तलोचनः।। | 8-16-4a 8-16-4b |
शाकुनिं तु ततः षष्ट्या विव्याध भरतर्षभ। सारथिं त्रिभिरानर्च्छत्तं च भूयो व्यविध्यत।। | 8-16-5a 8-16-5b |
उलूकस्तं तु विंशत्या विद्व्वा स्वर्णविभूषितैः। अथास्य समरे क्रुद्धो ध्वजं चिच्छेद काञ्चनम्।। | 8-16-6a 8-16-6b |
स च्छिन्नयष्टिः सुमहाञ्शीर्यमाणो महाध्वजः। पपात प्रमुखे राजन्युयुत्सोः काञ्चनध्वजः।। | 8-16-7a 8-16-7b |
ध्वजमुन्मथितं दृष्ट्वा युयुत्सुः क्रोधमूर्च्छितः। उलूकं पञ्चभिर्बाणैराजघान स्तनान्तरे।। | 8-16-8a 8-16-8b |
उलूकस्तस्य समरे तैलधौतेन मारिष। शिरश्चिच्छेद भल्लेन यन्तुर्भरतसत्तम।। | 8-16-9a 8-16-9b |
तच्छिन्नमपतद्भूमौ युयुत्सोः सारथेस्तदा। तारारूपं यथा चित्रं निपपात महीतले।। | 8-16-10a 8-16-10b |
जघान चतुरोऽश्वांश्च तं च विव्याध पञ्चभिः। सोऽतिविद्वो बलवता प्रत्यपायाद्रथान्तरम्।। | 8-16-11a 8-16-11b |
तं निर्जित्य रणे राजन्नुलूकस्त्वरितो ययौ। पाञ्चालान्सृञ्जयांश्चैव विनिघ्नन्निशितैः शरैः।। | 8-16-12a 8-16-12b |
शतानीकं महाराज श्रुतकर्मा सुतस्तव। व्यश्वसूतरथं चक्रे निमेषार्धादसम्भ्रमः।। | 8-16-13a 8-16-13b |
हताश्वे तु रथे तिष्ठञ्शतानीको महारथः। गदां चिक्षेप सङ्क्रुद्धस्तव पुत्रस्य मारिष।। | 8-16-14a 8-16-14b |
सा कृत्वा स्यन्दनं भस्म हयांश्चैव ससारथीन्। पपात धरणीं तूर्णं दारयन्तीव भारत।। | 8-16-15a 8-16-15b |
तावुभौ विरथौ वीरौ कुरूणां कीर्तिवर्धनौ। व्यपाक्रमेतां युद्वात्तु प्रेक्षमाणौ परस्परम्।। | 8-16-16a 8-16-16b |
पुत्रस्तु तव सम्भ्रान्तो विविंशो रथमारुहत्। शतानीकोऽपि त्वरितः प्रतिविन्ध्यरथं गतः।। | 8-16-17a 8-16-17b |
सुतमोमं तु शकुनिर्विद्व्वा तु निशितैः शरैः। नाकम्पयत सङ्क्रुद्वो वार्योघ इव पर्वतम्।। | 8-16-18a 8-16-18b |
सुतसोमस्तु तं दृष्ट्वा पितुरत्यन्तवैरिणम्। शरैरनेकसाहस्रैश्छादयामास भारत।। | 8-16-19a 8-16-19b |
ताञ्शराञ्शकुनिस्तूर्णं चिच्छेदान्यैः पतत्रिभिः। लघ्वस्त्रश्चित्रयोधी च जितकाशी च संयुगे।। | 8-16-20a 8-16-20b |
निवार्य समरे चापि शरांस्तान्निशितैः शरैः। आजघान सुसङ्क्रुद्धः सुतसोमं त्रिभिः शरैः।। | 8-16-21a 8-16-21b |
`नाकम्पयत सङ्क्रुद्धो वार्योघ इव पर्वतम्'। तस्याश्वान्केतनं सूतं तिलशो व्यधमच्छरैः। श्यालस्तव महाराज तत उच्चुक्रुशुर्जनाः।। | 8-16-22a 8-16-22b 8-16-22c |
हताश्वो विरथश्चैव छिन्नकेतुश्च मारिष। धन्वी धनुर्वरं गृह्य रथाद्भूमावतिष्ठत।। | 8-16-23a 8-16-23b |
व्यसृजत्सायकांश्चैव स्वर्णपुङ्खाञ्शिलाशितान्। छादयामासुरथ ते तव श्यालस्य तं रथम्। शळभानामिव व्राताः शरव्राता महारथम्।। | 8-16-24a 8-16-24b 8-16-24c |
सञ्छाद्यमानोऽपि दृढं विव्यथे नैव सौबलः। प्रममाथ शरांस्तस्य शरव्रातैर्महायशाः।। | 8-16-25a 8-16-25b |
तत्रातुष्यन्त योधाश्च सिद्वाश्चापि दिवि स्थिताः। सुतसोमस्य तत्कर्म दृष्ट्वाऽश्रद्वेयमद्भुतम्। रथस्थं शकुनिं यत्तु पदातिः समयोधयत्।। | 8-16-26a 8-16-26b 8-16-26c |
तस्य तीक्ष्णैर्महावेगैर्भल्लैः सन्नतपर्वभिः। व्यहनत्कारामुकं राजंस्तूणीरांश्चैव सर्वशः।। | 8-16-27a 8-16-27b |
स च्छिन्नधन्वा विरथः खङ्गमुद्यम्य चानदत्। वैदूर्योत्पलवर्णाभं दन्तिदन्तमयत्सरुम्।। | 8-16-28a 8-16-28b |
भ्राम्यमाणं ततस्तं तु विमलाम्बरवर्चसम्। कालदण्डोपमं मेने सुतसोमस्य धीमतः।। | 8-16-29a 8-16-29b |
सोऽचरत्सहसा खङ्गी मण्डलानि सहस्रशः। चतुर्दश महाराज शिक्षाबलसमन्वितः।। | 8-16-30a 8-16-30b |
भ्रान्तमुद्धान्तमाविद्धमाप्लुतं विप्लुतं सृतम्। सम्पातसमुदीर्णे च दर्शयामास संयुगे।। | 8-16-31a 8-16-31b |
सौबलस्तु ततस्तस्य शरांश्चिक्षेप वीर्यवान्। तानापतत एवाशु चिच्छेद परमासिना।। | 8-16-32a 8-16-32b |
ततः क्रुद्धो महाराज सौबलः परवीरहा। प्राहिणोत्सुतसोमाय शरानाशीविषोपमान्।। | 8-16-33a 8-16-33b |
चिच्छेद तांस्तु खङ्गेन शिक्षया च बलेन च। दर्शयँल्लाघवं युद्धे तार्क्ष्यतुल्यपराक्रमः।। | 8-16-34a 8-16-34b |
तस्य सञ्चरतो राजन्मण्डलावर्तने तदा। क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन खङ्गं चिच्छेद सुप्रभम्।। | 8-16-35a 8-16-35b |
स च्छिन्नः सहसा भूमौ निपपात महानसिः। अधर्मस्य स्थितं हस्ते सुत्सरोस्तत्र भारत।। | 8-16-36a 8-16-36b |
छिन्नमाज्ञाय निस्त्रिंशमवप्लुत्य पदानि षट्। प्राविध्यत ततः शेषं सुतसोमो महारथः।। | 8-16-37a 8-16-37b |
तच्छित्त्वा सगुणं चापं रणे तस्य महात्मनः। पपात धरणीं तूर्णं स्वर्णवज्रविभूषितम्।। | 8-16-38a 8-16-38b |
सुतसोमस्ततोऽगच्छच्छ्रुतकीर्तेर्महारथम्। सौबलोऽपि धनुर्गृह्य घोरमन्यत्सुदुर्जयम्।। | 8-16-39a 8-16-39b |
अभ्ययात्पाण्डवानीकं निघ्नञ्शत्रुगणान्बहून्। तत्र नादो महानासीत्पाण्डवानां विशाम्पते।। | 8-16-40a 8-16-40b |
सौबलं समरे दृष्ट्वा विचरन्तमभीतवत्। तान्यनीकानि दृप्तानि शस्त्रवन्ति महान्ति च। द्राव्यमाणान्यदृश्यन्त सौबलेन महात्मना।। | 8-16-41a 8-16-41b 8-16-41c |
यथा दैत्यचमूं राजन्देवराजो ममर्द ह। तथैव पाण्वीं सेनां सौबलेयो व्यनाशयत्।। | 8-16-42a 8-16-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि षोडशदिवसयुद्धे षोडशोऽध्यायः।। 16 ।। |
8-16-35 मण्डलानामावर्तने अनुलोमविलोमाभ्यासे।। 8-16-36 असेः सुत्सरोः शोभनमुष्टेः।। 8-16-16 षोडशोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-015 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-017 |