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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-056

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महाभारतम्-08-कर्णपर्व-056
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अश्वत्थाम्ना पाण्ड्यवधः।। 1 ।।

धृतराष्ट्र उवाच। 8-56-1x
प्रोक्तस्त्वया पूर्वमेव प्रवीरो लोकविश्रुतः।
न त्वस्य कर्म सङ्ग्रामे त्वया सञ्जय कीर्तितम्।।
8-56-1a
8-56-1b
तस्य विस्तरशो ब्रूहि प्रवीरस्याद्य विक्रमम्।
शिक्षां प्रभावं वीर्यं च प्रमाणं दर्पमेव च।।
8-56-2a
8-56-2b
सञ्जय उवाच। 8-56-3x
भीष्मद्रोणकृपद्रौणिकर्णार्जुनजनार्दनान्।
समाप्तविद्यान्धनुषि श्रेष्ठान्यान्सप्त मन्यसे।।
8-56-3a
8-56-3b
यो ह्याक्षिपति वीर्येण सर्वानेतान्महारथान्।
न मेने चात्मना तुल्यं कञ्चिदेव नरेश्वरम्।।
8-56-4a
8-56-4b
तुल्यतांद्रोणभीष्माभ्यामात्मनो यो न मृष्यते।
वासुदेवार्जुनाभ्यां च न्यूनतां नैच्छतात्मनि।।
8-56-5a
8-56-5b
स पाण्ड्योऽर्थपतिश्रेष्ठः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
कर्णस्यानीकमहनत्पाशहस्त इवान्तकः।।
8-56-6a
8-56-6b
तदुदीर्णरथाश्वेभं पत्तिप्रवरसङ्कुलम्।
कुलालचक्रवद्धान्तं पाण्ड्येनाभ्याहतं बलात्।।
8-56-7a
8-56-7b
व्यश्वसूतध्वजरथान्विप्रयुक्तयुगान्रथान्।
सम्यगस्तैः शरैः पाण्ड्यो वायुर्मेघानिवाक्षिपत्।।
8-56-8a
8-56-8b
द्विरदान्प्रवरारोहान्विपताकायुधध्वजान्।
स पादरक्षानहनद्वज्रेणाद्रीनिवाद्रिहा।।
8-56-9a
8-56-9b
स शक्तिप्रासतूणीरानश्वारोहान्हयानपि।
पुलिन्दखसबाह्लीकनिषादान्ध्रककुन्तलान्।।
8-56-10a
8-56-10b
दाक्षिणात्यांश्च भोजांश्च शूरान्सङ्ग्रामकर्कशान्।
विशस्त्रकवचान्बाणैः कृत्वा पाण्ड्योऽकरोद्व्यसून्।।
8-56-11a
8-56-11b
चतुरङ्गं बलं बाणैर्निघ्नन्तं पाण्डयमाहवे।
दृष्ट्वा द्रौणिरसम्भ्रान्तमसम्भ्रान्तस्ततोऽभ्ययात्।।
8-56-12a
8-56-12b
आभाष्य चैनं मधुरमभीतं तमभीतवत्।
प्राह प्रहरतां श्रेष्ठः स्मितपूर्वं समाह्वयत्।।
8-56-13a
8-56-13b
राजन्कमलपत्राक्ष प्रधानायुधवाहन।
वज्रसंहननप्रख्य प्रख्यातबलपौरुष।।
8-56-14a
8-56-14b
मुष्टिक्लिष्टाङ्गुलिभ्यां च व्यायताभ्यां महद्धनुः।
दोर्भ्यां विस्फारयन्भासि महाजलदवद्भृशम्।।
8-56-15a
8-56-15b
शरवर्षैर्महावेगैरमित्रानभिवर्षतः।
मदन्यं नानुपश्यामि प्रतिवीरं तवाहवे।।
8-56-16a
8-56-16b
रथद्विरदपत्त्यश्वानेकः प्रमथसे बहून्।
मृगसङ्घानिवारण्ये विभीर्भीमबलो हरिः।।
8-56-17a
8-56-17b
महता रथघोषेण दिवं भूमिं च नादयन्।
वर्षान्ते सस्यां सूर्यो भाभिरादीपयन्निव।।
8-56-18a
8-56-18b
संस्पृशानः शरैः पूर्णौ तूणी चाशीविषोपमैः।
मयैवैकेन युध्यस्व त्र्यम्बकेनान्धको यथा।।
8-56-19a
8-56-19b
एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा प्रमथ्यैनं स पार्थिवः।
कर्णिना द्रोणतनयं विव्याध मलयध्वजः।।
8-56-20a
8-56-20b
मर्मभेदिभिरत्युग्रैर्बाणैरग्निशिखोपमैः।
मर्मस्वभ्यहनद्द्रौणिः पाण्ड्यमाचार्यनन्दनः।।
8-56-21a
8-56-21b
ततोऽपरान्नवांस्तूर्णं नाराचान्कङ्कवाससः।
गत्या दशम्या संयुक्तानश्वत्थामाऽप्यवासृजत्।।
8-56-22a
8-56-22b
तानच्छिनत्तदा पाण्ड्यश्चतुर्भिरपरैः शरैः।
चतुरोऽभ्याहनच्चाश्वानाशु ते व्यसवोऽभवन्।।
8-56-23a
8-56-23b
अथ द्रोणसुतस्येषूंस्ताञ्छित्त्वा निशितैः शरैः।
धनुर्ज्यां विततां पाण्ड्यश्चिच्छेदादित्यतेजसः।।
8-56-24a
8-56-24b
दिव्यं धनुरथाधिज्यं कृत्वा द्रौणिरमित्रहा।
प्रेक्ष्य चाशु रथे युक्तान्नरैरन्यान्हयोत्तमान्।।
8-56-25a
8-56-25b
ततः शरसहस्राणि प्रेषयामास वै द्विजः।
इषुसम्बाधमाकाशमकरोद्दिश एव च।।
8-56-26a
8-56-26b
ततस्तानस्यतः सर्वान्द्रौणेर्बाणान्महात्मनः।
जानानोप्यक्षयान्पाण्ड्यो शातयत्पुरुषर्षभः।।
8-56-27a
8-56-27b
प्रयुक्तांस्तान्प्रयत्नेन छित्त्वा द्रौणेरिषूनरिः।
चक्ररक्षौ रणे तस्य प्राणुदन्निशितैः शरैः।।
8-56-28a
8-56-28b
अथ तल्लाघवं दृष्ट्वा मण्डलीकृतकार्मुकः।
प्रास्यद्द्रोणसुतो बाणान्वृष्टिं पूषानुजो यथा।।
8-56-29a
8-56-29b
अष्टावष्टगवान्यूहुः शकटानि यदायुधम्।
अह्नस्तदष्टभागेन द्रौणिश्चिक्षेप मारिष।।
8-56-30a
8-56-30b
तमन्तकमिव क्रुद्धमन्तकालान्तकोपमम्।
ये ये ददृशिरे रूपं विसंज्ञाः प्रायशोऽभवन्।।
8-56-31a
8-56-31b
आचार्यपुत्रस्तां सेनां बाणवृष्ट्या व्यवीवृषत्।
पर्जन्य इव घर्मान्ते वृष्ट्या साद्रिद्रुमां महिम्।।
8-56-32a
8-56-32b
द्रौणिपर्जन्यमुक्तां तां बाणवृष्टिं सुदुःसहाम्।
वायव्यास्त्रेण स क्षिप्रं विद्ध्वा पाण्ड्यातिलोऽनदत्।।
8-56-33a
8-56-33b
तस्य नानदतः केतुं चन्दनागुरुरूषितम्।
मलयप्रतिमं द्रौणिश्छित्त्वाश्वांश्चतुरोऽहनत्।।
8-56-34a
8-56-34b
सूतमेकेषुणा हत्वा महाजलदनिःस्वनम्।
धनुश्छित्त्वाऽर्धचन्द्रेण तिलशो व्यधमद्रथम्।।
8-56-35a
8-56-35b
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य छित्त्वा सर्वायुधानि च।
प्राप्तमप्यहितं द्रौणिर्नाहनद्युद्धतृष्णया।।
8-56-36a
8-56-36b
हतेश्वरो दन्तिवरः सुकल्पित--
सत्वराभिसृष्टः प्रतिशब्दगो बली।
तमाद्रवद्द्रौणिशराहतस्त्वरन्
जवेन कृत्वा प्रतिहस्तिगर्जितम्।।
8-56-37a
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8-56-37c
8-56-37d
तं वारणं वारणयुद्धकोविदो
द्विपोत्तमं पर्वतसानुसन्निभम्।
सम्भ्यतिष्ठन्मलयध्वजस्त्वर--
न्यथाऽद्रिशृङ्गं हरिरुन्नदंस्तथा।।
8-56-38a
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8-56-38d
स तोमरं भास्कररश्मिवर्चसं
बलास्त्रसर्गोत्तमयत्नमन्युभिः।
ससर्ज शीघ्रं परिपीडयन्गजं
गुरोः सुताय द्रविडेश्वरो नदन्।।
8-56-39a
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8-56-39d
मणिप्रवेकोत्तमवज्रहाटकै--
रलङ्कृतं चांशुकमाल्यमौक्तिकैः।
हतो मयासीत्यसकृन्मुदा नद--
न्पराभिनद्द्रौणिवराङ्गभूषणम्।।
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8-56-40d
तदर्कचन्द्रग्रहपावकत्विषं
भृशाभिघातात्पतितं विघूर्णितम्।
महेन्द्रवज्राभिहतं महास्वनं
यथाऽद्रिशृङ्गं भरणीतले तथा।।
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ततः प्रजज्वाल परेण मन्युना'
पादाहतो नागपतिर्यथा तथा।
समाददे चान्तकदण्डसन्निभा--
निषूनमित्रान्तकरांश्चतुर्दश।।
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8-56-42d
द्विपस्य पादाग्रकरान्स पञ्चभि--
र्नृपस्य बाहू च शिरोऽथ च त्रिभिः।
जघान पड्भिः पडृतूपमत्विषः
स पाण्ड्यराजानुचरान्महारथान्।।
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सुदीर्घवृत्तौ वरचन्दनोक्षितौ
सुवर्णमुक्तामणिवज्रभूषणौ।
भुजौ धरायां पतितौ नृपस्य तौ
विचेष्टतुस्तार्क्ष्यहताविवोरगौ।।
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शिरश्च तत्पूर्णशशिप्रभाननं
सरोषताम्रायतनेत्रमुन्नसम्।
क्षितावपि भ्राजति तत्सकुण्डलं
विशाखयोर्मध्यगतः शशी यथा।।
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[स तु द्विपः पञ्चभिरुत्तमेषुभिः
कृतः षडंशश्चतुरो नृपस्त्रिभिः।
कृतो दशांशः कुशलेन युध्यता
यथा हविस्तद्दश दैवतं तथा।।
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स पादशो राक्षसभोजनान्बहून्
प्रदाय पाण्ड्योऽश्वमनुष्यकुञ्जरान्।
स्वधामिवाप्य ज्वलनः पितृप्रिय--
स्ततः प्रशान्तः सलिलप्रवाहतः]।।
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8-56-47d
समाप्तविद्यं तु गुरोः सुतं नृपः
समाप्तकर्माणमुपेत्य ते सुतः।
सुहृद्वृतोऽत्यर्थमपूजयन्मुदा
जिते बलौ विष्णुमिवामरेश्वरः।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
सप्तदशदिवसयुद्धे षट्‌पञ्चाशोऽध्यायः।। 56 ।।

8-56-10 पाण्ड्यः व्यसूनकरोदिति द्वयोः सम्बन्धः।। 8-56-13 अनुस्मृत्य ह्याभीतवत् इति ख.पाठः। अनुसृत्य हि भीतवत् इति क.ङ.पाठः।। 8-56-16 वर्षतः मत् मत्तः।। 8-56-17 प्रमथसे प्रमथ्नासि।। 8-56-20 मलयवत् कृत्रिमो ध्वजो यस्य। मलयध्वज इति प्रवीरस्यैव नामान्तरं वा।। 8-56-22 गत्या दशम्या। उन्मुख्यभिमुखी तिर्यङ् मन्दा गोमूत्रिका ध्रुवा। स्खलित यमकाक्रान्ता क्रुष्टेतीषुगतीर्विदुः। दशमीगतिस्तु शिरसा सह दूरपातिनी अतिकुष्टानाम। तया गत्या।। 8-56-29 पूषानुजः पर्जन्यः।। 8-56-30 अष्टवृषभवाह्यानि अष्टौ शकटानि यादयुधसम्भारं ऊहुः वहन्ति तत्सर्वं अह्नोऽष्टमभागेन यामार्धेन क्षीणगित्यर्थः।। 8-56-37 हतेश्वरो यः कश्चित् तं पाण्ड्यम्।। 8-56-38 मलयध्वजः पाप्डस्तं यदृच्छयागतं वारणं समभ्यतिष्ठत्।। 8-56-39 बलेन अस्त्रसर्गे य उत्तमो यत्नस्तेन मन्युना च तैः। परिपीडयन् अङ्कुशेन कोपयन्।। 8-56-40 द्रौणेः वराङ्गभूष किरिटम्।। 8-56-42 इषून् समाददे द्रौणिरिति शेषः।। 8-56-46 चतुरः चतुरंशः। एवं स गजो दशधाभक्तो यथा दशहविष्कायामिष्टौ पिष्टपिण्डो दशधा क्रियते तथेत्यर्थः।। 8-56-47 पाण्ड्योऽश्वादीन् पादशः प्रदाय खण्डयित्वा प्रशान्तः द्रौणिबाणैरिति शेषः। यथा स्वधां प्रेतशरीररूपं हविः प्राप्य पितृप्रियो ज्वलनः श्मशानाग्निः जलेन शाम्यति तद्वदित्यर्थः।। 8-56-48 समाप्तविद्यं सम्यगाप्तविद्यम्। समाप्तकर्माणं कृतकृत्यम्।। 8-56-56 षट्पञ्चाशोऽध्यायः।।

कर्णपर्व-055 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-057