ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः ४
ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः ४ ब्रह्मगुप्तः १९५२ |
A board of Editors headed by Samskrit. Research Publishe&by Indian Institute of Astronomical and Sanskrit Research 2239, Gurudwara Road, Karol Bagh, New Delhi-5. (India) Aided by Ministry of Education, Government of India Editorial Board Shri Ram Swamp Sharma r^|tfjrtfl£r yirector of the Institute. ■ Mitybura ishScharya Daya Shankar Dikshita Jyotishacharya Shri On Datt Sharma, Shastri M.A., M.O.L. Copy rights reserved by publishsers 1966 Price Rs. 60.00
Printed by Padam Shree Prakashan & Printers Chamelian Road, Delhi. श्रीब्रह्मगुप्ताचार्य-विरचित:
- ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः
(संस्कृत-हिन्दी भाषायां वासनाविज्ञानभाष्याभ्यां समलंकृतः सोपपत्तिकः)
- चतुर्थो-भागः
प्रधानस्सम्पादक
आचार्यवर पण्डित रामस्वरूप शर्मा
(सञ्चालक-इंडियन इंस्टीटयट प्राफ अस्ट्रानौमिकल एण्ड संस्कृत रिसर्च)
प्रकाशक :
इंडियन इंस्टीट्यूट आफ़ अस्ट्रानौमिकल एण्ड संस्कृत रिसर्च
गुरुद्वारा रोड, करौल बाग्रा, न्यू देहली-५ । प्रकाशक- इंडियन इंस्टीटयूट प्राफ़ अस्ट्रानौमिकल एण्ड संस्कृत रिसर्च २२३९, गुरुद्वारा रोड, करौल बारा, नई दिल्ली-५ (भारत)
भारत सरकार के शिक्षा मन्त्रालय द्वारा प्रदत्त अनुदान से प्रकाशित ।
सम्पादक मण्डल- श्री रामस्वरुप शर्मा
प्रधान् सम्पादक, सञ्चालक
श्री मुकुन्दमिश्र
ज्योतिषाचार्य
श्री विश्वनाथ झा
ज्योतिषाचार्य
श्री दयाशंकर दीक्षित
ज्योतिषाचार्य
श्री ओम्बत्त शर्मा शास्त्री
एम. ए., एम. ओ. एल
प्रथम संस्करण १९६६
मूल्य रु० ६०.००
मुद्रक : पक श्री प्रकाशन एण्ड प्रिण्टर्स १२, चमेलियन रोड, दिल्ली
समर्पण :
श्रीयुत एस० के० पाटिल
यूनियन मिनिस्टर फ़ार रेल्वेज़
को
सादर समर्पित
Dedicated to
Shri S. K. Patil
Union Minister for Railways
भूमिका
ब्रह्मगुप्त और ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त
श्रीचापवशतिलके श्रीव्याघ्रमुखे नृपे शकनृपाणाम्। |
जन्म काल : ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के संज्ञाध्याय में आचार्यों की इस उक्ति के अनुसार ५२० शाकवर्षे में आचार्यं ब्रह्मगुप्त का जन्म हुआ । तीस वर्ष की आयु में ही उन्होंने ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त नामक ज्योतिष के इस महान् सिद्धान्त ग्रन्थ का प्रणयन किया। इनके जन्म काल नाम के अन्त में लग 'गुप्त' शब्द प्रकट करत है कि इनका जन्म वैश्य कुल के एक संपन्न परिवार में हुआ था। ज्योतिषशास्त्र कें यह प्रकाण्ड पण्डित थे—इसी से रीवां नरेश व्याघभटेश्वर ने इन्हें अपना प्रधान ज्योतिषी बनाकर सम्मानित किया।
जन्म स्थान : इनके जन्म स्थान के सम्बन्ध में कोई मत विभिन्नता नहीं। पाश्चात्य विद्वानों की इस दिशा में खोज की जो उपलब्धि हुई है, उसके अनुसार इनका जन्म गुर्जर देशान्तवर्त भिनमाल नामक गाँव में हुआ। गुर्जर प्रदेश के ज्योतिषियों की जन्म स्थान सुखकथा से भी इस बात का समर्थन होता है। गुर्जर प्रदेश की उत्तर सीमा में मालव (मारवाड़) देश से दक्षिण दिशा की ओर आबू पर्वत और गुण नदी के मध्यवर्ती पर्वत से वायुकोण में भिनमाल नरम का गाँव अब भी स्थित है।
ब्रह्मोक्त ग्रहगणितं महता कालेन यत् खिलीभूतम्। |
रचना : आचार्य की इस उक्ति से स्पष्ट ज्ञात होता है कि नलिकादि से वेधद्वारा दृग्गणितैषय (वेघागत और गणितागत प्रहादिकों की तुल्यता) कारक प्रहादि समथन के कारण विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अन्तर्गत अति प्राचीन सिद्धान्त को ही अगम मानकर उसका संशोधन करके आचार्यं ब्रह्मगुप्त ने नवीन प्राह्मस्फुट सिद्धान्त की रचना की।
इस (ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त) की चतुर्वेदाचार्यं कृत 'तिलक' नाम की टीका प्रसिद्ध थी—वह इख समय संपूर्ण उपलब्ध नहीं है। 'कोलब्रुक' नामक पाश्चात्य विद्वान् को वह ( २ )
सम्पूर्ण टीका उपलब्ध थी । इसी कारण उसके आधार पर इस ग्रन्थ के वारहवें (व्यक्त) अध्याय और अठारहवें (अव्यक्तगणित) अध्याय का कोलब्रूक महाशय कृत, आङ्गल भाषा में अनुवाद सन् १८१७ (१७३९ शाकवर्ष) ई० में ही उपलब्ध हो गया था।
ग्रन्थ का विषय विभाजन : इस ग्रन्थ (ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त ) में १००८ श्लोक (आर्यावृत्त ) हैं। पूर्वार्ध और उत्तरार्ध नामक दो भागों में बंटा हुआ है । पूर्वार्ध में (१) मध्यगति (२) स्फुटगति (३) त्रिप्रश्नाध्याय (४) चन्द्रग्रहणाध्याय (५) सूर्यग्रहणाध्याय, (६) उदयास्तमयाध्याय, (७) चन्द्रशृंगोन्नत्यध्याय, (८) चन्द्राच्छायाध्याय, ( ९ ) ग्रहयुत्यध्याय और (११) भग्रहयुत्यध्याय, ये दस अध्याय हैं। उत्तरार्ध में (१) तन्त्र परीक्षाध्याय, (२) गणिताध्याय, (३) मध्यमत्युत्तराध्याय, (४) स्फुटगत्युत्तराध्याय (५) त्रिप्रश्नोत्तराध्याय, (६) ग्रहणोत्तराध्याय, (७) छेद्यकाध्याय, (८) श्रृंगोन्नत्युत्तराध्याय, (8) कुट्टाकाराध्याय, (१०) छन्दश्वित्युत्तराध्याय, (११) गोलाध्याय, (१२) यन्त्राध्याय, (१३) मानाध्याय और (१४) संज्ञाध्याय - ये चौदह अध्याय हैं । दोनों पूर्वार्ध और उत्तरार्ध को मिला कर १० + १४ इस ग्रन्थ में कुल चौबीस अध्याय हैं ।
इन अध्यायों में तन्त्रपरीक्षाध्याय बहुत बिचारणीय हैं क्योंकि इस अध्याय में आचार्य ने और अनेक आचार्यो के नामों और उनके मतों का उल्लेख किया है।
- लाटात् सूर्यशशाङ्कौ मध्याविन्दू च चन्द्रपातौ च ।
- कुजबुध शीघ्रबृहस्पतिसितशीघ्र शनैश्चरान् मध्यान् ॥
- युगपातवर्षभगणान् वासिष्ठाद्विजयनन्दिकृतपादात् ।
- मन्दोच्चपरिधिपातस्पष्टीकरणाद्यमार्यभटात् ॥
- श्रीषेणेन गृहीत्वा रक्षोच्चयरोमकः कृतः कन्था ।
- एतानेव गृहीत्वा वासिष्ठो विष्णुचन्द्रेण ॥
- अनयोर्न कदाचिदपि ग्रहणादिषु भवति दृष्टिगणितैक्यम् ।
- यद्भवति तद्घुणाक्षरमतोऽस्फुटाभ्यां किमेताभ्याम् ॥
इन श्लोकों के द्वारा श्रीषेणाचार्यकृत ‘रोमकसिद्धान्त' है और विष्णुचन्द्रकृत 'वासिष्ठसिद्धान्त' दोनों के दोष कहते हैं, यह टीकाकार चतुर्वेदाचार्य का कथन है। ‘पञ्चसिद्धान्तिका' में श्रीषेण और विष्णुचन्द्र के नामों का उल्लेख नहीं है । इससे मालूम होता है कि वराहमिहिराचार्य के बाद और ब्रह्मगुप्त से पूर्व ४२६ और ५५० शाकवर्ष के मध्य इन दोनों आचायों (श्रीषेण और विष्णुचन्द्र) ने ज्यौतिषसिद्धान्त के विशाल ग्रन्थों की रचना की। इस बात को स्वयं वेध द्वारा स्थिर करके आचार्य ने ‘यद् भवति तद्घुणाक्षरम्’ इत्यादि प्रौढोक्ति से पुष्ट किया है। आर्यभट के मत का खण्डन : आर्यभट के सिद्धान्त सर्वथा दोषपूर्ण हैं, यह कहते हुए आचार्य ने उनकी उक्तियों का नाना प्रकार से खण्डन करने के लिए इस ग्रन्थ की रचना की। आचार्य भूभ्रमणखण्डन में कहते हैं
- यः प्राणेनैति कलां भूर्यदि तर्हि कुतो ब्रजेत् कमध्वानम् ।
- आवर्तनमुर्व्याश्चेन्न पतन्ति समुच्छ्रयाः कस्मात् ॥
आर्यभट तो पृथिवी के चलत्व और भगणों के स्थिरत्व को स्वीकार कर अहोरात्रासु में पृथिवी के भ्रमण को अपने अक्ष के ऊपर मानते हैं, परन्तु ब्रह्मगुप्त ने आवर्त्तनमुर्व्याश्चेदित्यादि उक्ति के द्वारा, तथा अन्यत्र अनेक अत्युक्तियों द्वारा भूभ्रमण का जो खंडन किया है वह दुराग्रहपूर्ण और केवल वाग्बल है।
- स्वयमेव नाम यत्कृतमार्यभटेन स्फुटं स्वगणितस्य ।
- सिद्धं तदस्फुटत्वं ग्रहणादीनां विसंवादात् ॥
- जानात्येकमपि यतो नार्यभटो गणितकाल गोलानाम् ।
- न मया प्रोक्तानि ततः पृथक् पृथक् दूषणान्येषाम् ।।
- आर्यभटदूषणानां संख्या वक्तु न शक्यते यस्मात् ।
- तस्मादयमुद्देशो बृद्धिमताऽन्यानि योज्यानि ॥
जिस रीति से, जिन शब्दों द्वारा ब्रह्मगुप्त ने आर्यभट के मत का खण्डन किया है, उसी रीति से उन्हीं शब्दों में वटेश्वराचार्य ने वटेश्वर सिद्धान्त में ब्रह्मगुप्त के मत का खण्डन किया है। इसके विस्तृत विवरण के लिए वटेश्वर सिद्धान्त का अवलोकन अपेक्षित है।
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त : ग्रहग्रहणादि के वेधकर्ता ब्रह्मगुप्त स्वयं तो प्राचीनाचार्यो की अपेक्षा अनेक विशिष्ट ग्रहादिसाधन विधियों का, तथा गणित के सत्य और असत्य की परीक्षा के लिए वेध विधियों का अपने ग्रन्थ में प्रौढोक्ति के साथ प्रतिपादन करते हैं।
- ज्ञातं कृत्वा मध्यं भूयोऽन्यदिने तदन्तरं भुक्तिः ।
- त्रैराशिकेन भुक्त्या कल्पग्रहमण्डलानयनम् ॥
- यदि भिन्नाः सिद्धान्ता भास्करसंक्रान्तयोऽपि भेदसमाः ।
- स स्पष्टः पूर्वस्यां विषुवत्यर्कोदयो यस्य ॥
इत्यादि वास्तव विचारों में प्रवृत्त विशिष्ट विवेचनायुक्त सिद्धान्त ग्रन्थ की रचना सबसे पहले ब्रह्मगुप्त ही ने की। यह बात इस समय उपलब्ध ज्यौतिष सिद्धान्तों के ग्रन्थों से विदित होती है। ‘कृती जयति जिष्णुणो गणकचक्रचूडामणिः' इस उक्ति द्वारा भास्कराचार्य ने अपने सिद्धान्त शिरोमणि के गणिताध्याय के प्रारम्भ में आचार्य ब्रह्मगुप्त को अभिवादन किया । उसके पश्चात् अनेक स्थानों पर ब्रह्मगुप्त के मत का उल्लेख करते हुए भास्कराचार्य ने लिखा-
- यथाऽत्र ग्रन्थे ब्रह्मगुप्त स्वीकृतागमोऽङ्गीकृतः ।
इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भास्कराचार्य ने अपने ग्रन्थ में ब्रह्मगुप्त का ही अनुकरण किया । ब्रह्मगुप्त को अयन चलन की उपलब्धि नहीं हुई, यह बात ‘ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त' से समझी जाती है। अत एव ब्रह्मगुप्तकृत अयन चलोपलब्धि का खण्डन देखा जाता है। तन्त्रपरीक्षाध्याय में ब्रह्मगुप्त ने कहा है-
- परमाल्पा मिथुनान्ते द्युरात्रिनाडयोऽर्क गतिवशादृतवः ।
- नायनयुगमयनवशात् स्थिरमयनद्वितयमपि तस्मात् ॥
वराह मिहिराचार्य अयनचलन के विषय में सन्दिहान थे । इसीलिए उन्होंने 'नूनं कदाचिदासीद्येनोक्तं पूर्वशास्त्रेषु' कहा है। उस समय अश्विन्यादि में क्रान्तिपात था इसलिए अश्विन्यादि से नक्षत्रों की गणना प्रवृत्त हुई। ब्रह्मगुप्त के पश्चात् आज तक गणना की यही प्रक्रिया प्रचलित है। क्रान्तिपात पश्चिम दिशा में प्रायः ६५ वर्ष में एक अंश चलता है। अत: उसका ज्ञान अल्पसमय में असम्भव प्राय है। इसीलिए तो ब्रह्मगुप्त भी अयनचलन की उपलब्धि नहीं कर सके। आर्यभट का विरोधी होकर भी ब्रह्मगुप्त ने ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त की रचना की ।
३७ वर्ष की अवस्था में ब्रह्मगुप्त ने 'खण्डखाद्यक' नाम के करण ग्रन्थ का प्रणयन किया । उसके प्रारंभ में ही ग्रह्मगुप्त ने लिखा-
- प्रणिपत्य महादेवं जगदुत्पत्ति स्थितिप्रलयहेतुम् ।
- वक्ष्यामि खण्डखाद्यकमाचार्यभटतुल्यफलम् ॥
- प्रायेणार्यभटेन व्यवहारः प्रतिदिनं यतोऽशक्यः ।
- उद्वाहजातकादिषु तत्समफल लघुतरोक्तिरतः ॥
यह उनके ग्रन्थ की पर्यालोचन से समझा जाता है कि सर्वत्र मनुष्यों के व्यवहारों में प्रचलित आर्यभट मत का निराकरण करना अत्यन्त कठिन था । इसलिए आर्यभट मतानुसार व्यवहार करते हुए मनुष्यों के उपकारार्थ व्यावहारिक ‘खण्डखाद्यक’ नामक करण ग्रन्थ की रचना ब्रह्मगुप्त ने की । जिस प्रकार उपलब्ध प्राचीन ज्यौतिषसिद्धान्त ग्रन्थों में ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त एक आदर्श ग्रन्थ माना जाता है उसी प्रकार सब करणग्रन्थों में सर्वप्रथम आदर्श आज से तेरह सौ वर्ष पूर्व लिखित यही ‘खण्डखाद्यक’ है। ( ५ )
भारतीय ज्योतिषियों में आर्यभट ही सब से पहले दिन और रात्रि के कारणस्वरूप पृथिवी के आवर्तन को कहते हैं। जैसे गीतिकापाद के प्रथम श्लोक में एक महायुग (४३२००००० ) में भूमि के १५८२२३७५०० भगण होते हैं। पहले इसको कह कर दृष्टान्त द्वारा भूभ्रमण को निम्नलिखित उक्ति से दृढ़ करते हैं।
- अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत् ।
- अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लङ्कायाम् ॥
परन्तु यहाँ विचित्रता देखने में आती है कि आर्यभटीय टीकाकार परमेश्वर ने इस श्लोक की व्याख्या के समय- "भूमेः प्राग्गमनं नक्षत्राणां गत्यभावश्चेच्छन्ति केचित्तन्मिथ्याज्ञानवशादुत्पन्नां प्रत्यग्गमनप्रतीतिमङ्गीकृत्य भूमेः प्राग्गतिरभिधीयते । परमार्थत्तस्तु स्थिरैव भूमिः" - कहा है। अर्थात् कोई-कोई पृथिवी के पूर्वाभिमुख चलन और नक्षत्रों के गत्यभाव (अर्थात् नक्षत्रों की गति नहीं है) कहते हैं वह मिथ्या अज्ञानवश पश्चिमाभिमुख चलन-की प्रतीति स्वीकार कर पृथिवी की पूर्वाभिमुख गति को कहते हैं। वस्तुतः पृथिवी स्थिर ही है।
- उदयास्तमयनिमित्तं नित्यं प्रवहेण वायुना क्षिप्तः ।
- लङ्कासमपश्चिमगो भपञ्जरः स ग्रहो भ्रमति ॥
इससे स्वयं आर्यभटाचार्य भी भू भ्रमण को अस्वीकार करते हैं। आर्यभटाचार्य के मन में यह निश्चय नहीं था कि पृथिवी चलती है या नहीं ! ऐसा उनके लेख से प्रतीत होता है । अस्तु ।
‘ब्रह्माह्वय श्रीधरपद्मनाभबीजानि यस्मादति विस्तृतानि' अपने बीजगणित में भास्कराचार्य की इस उक्ति से मालूम होता है कि ब्रह्मगुप्त का बहुत बड़ा बीजगणित का ग्रन्थ था, परन्तु वह ग्रन्थ आज प्राप्य नहीं है।
श्रीपति द्वारा द्वारा अनुकरण : ब्रह्मगुप्त ही औरों की अपेक्षा श्रीपति का श्रेष्ठतर आदर्श है। ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त और सिद्धान्तशेखर की पर्यालोचना से ज्ञात होता है कि ब्रह्मगुप्त रचित सार्थक आर्याओं (इस नाम का श्लोक ) का ही ब्रह्मगुप्त का श्रीपति ने बड़े-बड़े छन्दों में अनुवाद किया है । वस्तुतः ब्रह्मगुप्तोक्त ग्रहगणित को ही सत्य परन्तु दुरूह समझ कर श्रीपति ने उसे अपनी सुन्दर रचना द्वारा सुगमतर ग्रन्थान्तर (सिद्धान्तशेखर) के रूप में हमारे सन्मुख रखा । इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है । ग्रन्थ रचना के विषय में लल्लाचार्य ही श्रीपति के विशेष रूप से श्रेष्ठ आदर्श है। जो विषय ब्रह्मगुप्त ने नहीं कहा है वह लल्लाचार्य ने कह दिया है । उन सभी विषयों को उसी प्रकार श्लोका( ६ )
न्तरों से श्रीपति ने कह दिया है। सारांश यह है कि श्रीपति ने दोनों (ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त और शिष्यधीवृद्धिद) ग्रन्थों का परिशीलन करने के पश्चात् ही सिद्धान्तशेखर की रचना की ।
ब्रह्मगुप्त का नतकर्म : ब्रह्मगुप्त ने एक बहुत विलक्षण विषय को अपनी रचना में स्थान दिया है । यह है ‘नतकर्म' । मन्दफल शीघ्रफल भुजान्तरादि संस्कार करने से जो स्पष्टग्रह आते हैं वे स्वगोलीय (ग्रहगोलीय) स्पष्ट ग्रह होते हैं। उन स्वगोलीय स्पष्ट ग्रहों को हम लोग जहां देखते हैं वे हम लोगों के लिए स्पष्ट ग्रह होते हैं। स्वगोलीय स्पष्टग्रह में जितना संस्कार करने से हम लोगों के स्पष्टग्रह होते हैं उसी संस्कार का नाम ‘नतकर्म' है। ब्रह्मगुप्त से पूर्व किसी भी अन्य प्राचीनचार्य ने कुछ भी नहीं लिखा । नतकर्म साधन की बात तो दूर रही, उसके नाम तक का भी किसी ने उल्लेख नहीं किया । भास्कराचार्य ने सिद्धान्तशिरोमणि (गणिताध्याय) के स्पष्टाधिकार में इस नतकर्म के साधन का प्रकार लिखा है । ‘मुहुः स्फुटाऽतो ग्रहणे रवीन्द्वोस्तिथिस्त्विदं जिष्णुसुतो जगाद’ भास्कर का इस उक्ति से स्पष्ट ज्ञात होता है-कि इस ‘नतकर्म' के आविष्कर्त्ता ब्रह्मगुप्त ही हैं । सिद्धान्त शिरोमणि (गणिताध्याय) के स्पष्टाधिकार में भास्कराचार्य ने ‘भोग्यखण्डस्पष्टीकरण' में जो लिखा है उसका मूल भी ब्रह्मगुप्तकृत ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के ध्यान ग्रहोपदेशाध्याय में ही है। और आचार्यो ने इस विषय में कुछ नहीं लिखा है। सिद्धान्ततत्वविवेक में कमलाकर ने भास्करोक्त भोग्यखण्डस्पष्टीकरण प्रकार का खण्डन किया है। वस्तुत: यह खण्डन कमलाकर का दुराग्रह ही है। अत: यह खण्डन ठीक नहीं है।
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के त्रिप्रश्नाधिकार में दिक्साधन में-
- पूर्वापरयोर्विन्दू तुल्यच्छायाग्रयोर्दिगपराद्यः ।
- पूर्वान्यः क्रान्तिवशात् तन्मध्याच्छङ्कुतलमितरे ॥
यहाँ क्रान्तिवश से दिक्साधन में कैसे भेद उत्पन्न होता है इसके लिए चतुर्वेदाचार्य ने कर्णवृत्ताग्रान्तर का जो साधन किया है उसी को ‘छाया निर्गमन प्रवेश समयार्कक्रान्तिजीवान्तरं’ आदि द्वारा श्रीपति ने कहा है। उसके पश्चात् ‘तत्कालापमजीवयोस्तु विवरात्' इत्यादि से सिद्धान्तशिरोमणि में भास्काचार्य ने कहा है। सूर्यसिद्धान्त आदि प्राचीन ग्रन्थों में इस विषय का उल्लख नहीं है।
'मन्दफलानयन' के लिए मन्दकर्णानुपात ही आवश्यक साधन है। यद्यपि इस विषय में भास्कराचार्य ने अपना कुछ भी मत व्यक्त नहीं किया है, तथापि चन्द्रग्रहणाधिकार में स्फुट रवि चन्द्रकर्णसाधन में ‘मन्दश्रुतिर्द्राक् श्रुतिवत्प्रसाध्या' इत्यादि से ब्रह्मगुप्त ही के मत को स्वीकार किया है। यह भी ब्रह्मगुप्त की उक्ति की ही विलक्षणता है। ( ७ ) लल्लाचार्य ने वलन और दृक्कर्म के आनयन को उत्कमज्या द्वारा किया है। ब्रह्मगुप्त की उक्ति में चतुर्वेदाचार्य की ‘अत्रज्याशब्देनोत्क्रमज्या ग्राह्या' व्याख्या को लक्ष्य कर भास्कराचार्य ने ‘ब्रह्मगुप्तकृतिरत्र सुन्दरी साऽन्यथा तदनुगैर्विचार्यते' कहा है । ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के बहुत से स्थलों में वर्णन की स्थूलता अवश्य है, तथापि इसमें नाना प्रकार के विषयों का अपूर्वं समावेश है। अतएव ‘ाह्मस्फुटसिद्धान्त' सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त ग्रन्थ है, इस कथन में किसी प्रकार की विप्रतिपत्ति (विरोध) प्रतीत नहीं होती है। इस ग्रन्थ में ‘छन्दश्चित्युत्तराध्याय' नाम का एक अध्याय है। इसके अन्तर्गत श्लोकों की उपपति तो दूर की बात है, आज तक किसी विद्वान् ने इनकी व्याख्या तक नहीं की । प्रश्नाध्याय का जैसा क्रम इस ग्रन्थ में है वैसा अन्य ग्रन्थों में नहीं है। इसमें मध्य गति आदि (मध्यगत्युत्तराध्याय-स्पष्टगत्युत्तराध्याय-त्रिप्रश्नाध्याय-ग्रहणाध्याय तथा शृङ्गो न्नत्युत्तराध्याय) पाच अध्याय म पृथक्-पृथक् उत्तर सहित प्रश्नों प्रश्नाध्याय का विवेचन किया गया है। इसके अभ्यास से छात्रवृन्द सिद्धान्त विषय में निपुणता प्राप्त कर सकते हैं । सिद्धान्त शिरोमणि की भूमिका में ‘जीवा साधनं विनैव यद् भुजज्यानयनं कृतवान् श्रीपतिस्तत्त्वपूर्वमेव स्यात् यथा तत्प्रकारो विदां विनोदाय प्रदश्र्यते दोः कोटि भागरहिताभिहृताः खनागचन्द्रास्तदीयचरणेन शरार्कदिग्भिः । ते व्यासखण्डगुणिता विहृताः फलं तु ज्याभिविनापि भवतो भुजकोटिजीवे । इति केनापि लिखितमस्ति तन्नैव युक्तियुक्तम् ।। कहने का भाव यह है कि शिद्धान्त शिरोमणि की भूमिका में जीवासाधन विना ही श्रीपति ने जो भुजज्यानयन किया है वह अपूर्व ही है, उनके प्रकार को पंडितों के बिनोद के लिए दशतेि हैं ‘दोः कोटि भागरहिताः’ इत्यादि ही उनका सिद्धान्त शिरोमणि प्रकार है । भूसिका लेखक का यह उक्त लेख ठीक नहीं हैं, तथा सिद्धान्तशेखर क्योंकि ज्याविना भुजज्या और भुजकोटिज्या का आनयन और ज्या द्वारा चापानयन सर्वप्रथम ब्रह्मगुप्त ही ने किया है । ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त में कथित प्रकार अधोलिखित है भुजकोटय'शोनगुणा भार्धाशास्तच्चतुर्थभागोनैः । पञ्चद्वीन्दुखचन्द्रविभाजिता व्यासदलगुणिता ।। तज्ज्ये परमफलज्या सङ्गुणिता तत्फले विना ज्याभिः । इष्टोच्चनीचवृत्तव्यासार्ध परमफलजीवा ।। इष्टज्या से चापानयन्न प्रकार इष्टज्या संगुणिताः पञ्चकयमलैकशून्यचन्द्रमसः । इष्टज्या पादयुतव्यासार्धविभाजिता लब्धम् । ( ८ ) नवतिकृतेः प्रोह्य पदं नवतेः संशोध्य शेष भागकलाः । एवं धनुरिष्टाया भवति ज्याया विना ज्याभिः । बहुत पहले से ज्याविना भुजज्या और भुजकोटिज्या का आनयन ‘दोः कोटिभाग रहिताभिहताः' इत्यादि प्रकार से श्रीपति द्वारा कथित है, यह बात ज्योतिषियों में प्रसिद्ध है। इसी का अवलम्बन करके ‘ग्रहलाघव' नामक अपने करणग्रन्थ में विस्तार से लिखा है । परन्तु वस्तुत: यह प्रकार ब्रह्मगुप्त ही का है। उनके उपर्युक्त श्लोकों से यह बात सर्वथा स्पष्ट हो गई है। अब यह सन्देह का निषय नहीं रहा । वटेश्वर सिद्धान्त में वटेश्वराचार्य ने भी ब्रह्मगुप्तोक्त इसी प्रकार को श्लोकान्तरों में लिख दिया है । सिद्धान्तशेखर में सर्वत्र श्रीपति का अपना निजी थोड़ा ही है, उन्होंने भी ब्रह्मगुप्तोक्त प्रकार की ही प्रकार श्लोकान्तरों में वणित किया है। उदाहरण को लिए देखिये सिद्धान्तशेखर के सूर्यग्रहणा तिथ्यन्तात् स्थितिखण्डहीनसहितात् प्राग्वत्ततो लम्बनं । कुर्यात् प्रग्रहमोक्षयोः स्थितिदलं युक्तं विधायासकृत् । तन्मध्यग्रहणोत्थलम्बनभुवा विश्लेषणानेहसा । मदधोंनयुतातिथेरपि तथा संमीलनोन्मीलने ।। अधिकमृणयोराद्य मध्यात्तथाऽन्त्यमिहाल्पकं । भवति धनयोश्चाद्य हीनं यदाऽधिकमन्तिमम् । नमनविवरेणैवं कुर्याद्विहीनमतोऽन्यथा । स्थितिदलमृणस्वस्थे भेदे तदैक्ययुतं पुनः । यह श्रीपत्युक्त प्रकार ब्रह्मगुप्त के अधोलिखित प्रकार के सर्वथा अनुरूप ही है प्राग्वल्लम्बनमसकृत् तिथ्यन्तात् स्थितिदलेन हीनयुतात् । अधिकोनं तन्मध्यादृष्णयोरूनाधिकं धनयोः ।। यद्यधिकं स्थित्यर्ध तदाऽन्तरेणान्यथीनमृणमेकम् । अन्यद्धनं तदैक्येनाधिकमेवं विमदधे । इसी प्रकार प्रकारान्तर से कहा गया श्रीपत्युक्त स्फुटस्थिति दल साधन प्रकार स्थित्यधनयुतात् परिस्फुटतिथेः स्याल्लम्बनं पूर्ववत् । तन्मध्यग्रहव च मध्यमतिथो ततस्तु तिथौ ।। स्थित्यर्धेन परिस्फुटेषु जनितेनोनाधिकाद्वाऽसकृत् । तत्तिथ्यन्तरनाडिकाः स्थितिदलेस्तः स्पर्शमुक्त्योः स्फुटे । ( ९ ) इस श्लोक का द्वितीयचरण शुद्ध नहीं है। यह प्रकार ब्रह्मगुप्त के अधोलिखित प्रकार के अनुरूप ही है । स्फुटतिथ्यन्ताल्लम्बनमसकृत् स्थित्यर्धहीनयुक्ताद्वा । तत्स्फुटविक्षेपकृतस्थित्यधनयुततिथ्यन्तात् । तत्स्पष्टतिथिछेदान्तरे स्फुटे दिनदले विहीनयुतात् । स्वविमर्दाधनासकृदेवं स्पष्टे विमदधे ॥ सिद्धान्तशिरोमणि में भी भास्कराचार्य ने अधोलिखित शब्दों में तिथ्यन्ताद् गणितागतात् स्थितिदलेनोनाधिकाल्लम्बन तत्कालोत्थनतीषु संस्कृतिभवस्थित्यर्धहीनाधिके । दशन्तेि गणितागते धनमृष्णं वा तद्विधायासकृज्ज्ञेयौ प्रग्रहमोक्षसंज्ञसमयावेवं क्रमात् प्रस्फुटौ ॥ ब्रह्मगुप्तोक्त प्रकार का ही वर्णन किया है। इसी प्रकार सिद्धान्तशेखरे के सूर्यग्रहणा ध्याय के उपसहार म स्फुटं भवति पञ्चजीवया लम्बनं न हि यतस्ततः कृतम् । युक्तियुक्तमिति जिष्णुसूनुना तन्मयाऽपि कथितं परिस्फुटम् ।। कथित आशय ब्रह्मगुप्त की अधोलिखित उक्ति के सट्टश ही है दृग्गणितैक्यं न भवति यस्मात् पञ्चज्यया रविग्रहणे । तस्माद्यथा तदैक्य तथा प्रवक्ष्यामि तिथ्यन्ते । मध्यगत्यध्याय से ग्रन्थसमाप्ति पर्यन्त सादृश्य की यही स्थिति है । यह बात दोनों ग्रन्थों (ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त और सिद्धान्तशेखर) के अवलोकन से स्पष्ट हो जाती है। केवल श्रीपति ने ही अपने पूर्ववर्ती आचार्यो के ग्रन्थों से उनके कथित विषयों को श्लोकान्तरों द्वारा अपने ग्रन्थ में अपनी उक्ति के रूप में लिखा है, सो नहीं है अपितु उनके पूर्ववर्ती प्राचार्यो की भी यही रीति रही है । श्रीपति के परवर्ती भास्कराचार्य आदि विद्वानों ने भी उसी रीति को अपनाया है । उदाहरणार्थ भास्कराचार्य द्वारा-गणिताध्याय के मध्यमाधिकार में सिद्धान्त लक्षण-वेद के अंग ज्योति:शास्त्र का निरूपण-वेदांगों में ज्योतिःशास्त्र की प्रधानता-वेद वेदांग पढ़ने का द्विजों (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) का ही अधिकार-शूद्रादिकों का नहीं-भचक्रचलन-कालप्रवृत्ति-कालमानों की परिभाषाए -ग्रहों का भगणपाठ-युगों तथा मन्वादि के नाम-तथा ब्रह्मा के गत वर्षादि के प्रयोजनाभाव इत्यादि मंध्यमाधिकारोक्त सब विषयों का निरूपण श्रीपति कृत साधनाध्यायोक्त श्लोकों का श्लोकांतर मात्र है। ज्यौतिष शास्त्र के पाठकों को दोनों ग्रन्थों का अवलोकन करना ( १० ) चाहिए जिससे उनके सादृश्य की जानकारी हो सके । प्राचीनोक्त विषयों का आश्रय लेकर अनेक विशिष्ट विषयों को कहने के लिए श्रीपति ने प्रथम साधनाध्याय, तथा ग्रहभगणा ध्याय की रचना की । उसके पश्चात् मध्यमाध्याय में-सात प्रकार से अहर्गणानयन-वार प्रवृत्ति के विषय में विभिन्न आचार्यो के मत का प्रतिपादन-तद्गत दोष निरूपण करके अपने मतानुसार वार प्रवृत्ति का प्रतिपादन-मध्यम ग्रह साधन के लिए नाना प्रकार का नूतन प्रकारान्तर वर्णन-तथा रवि आदि सब ग्रहों के राश्यादिमन्दोच्च का प्रतिपादन आदि नाना प्रकार के विषयों का दिग्दर्शन श्रीपति के सिद्धान्तशेखर में मिलता है । ब्राह्म स्फुट सिद्धान्त में अहर्गणानयन बहुत प्रकार से किया गया है, उन प्रकारों का अनुकरण श्रीपति ने किया है। प्राचार्य ने लघ्वहर्गणानयन भी किया है परन्तु श्रीपति ने उसकी चर्चा नहीं की । अहर्गण से अभीष्ट वार ज्ञान के लिए अहर्गण में एक जोड़ना चाहिए यह बात ब्रह्मगुप्त ने लिखी हैं। उसके पश्चात् सिद्धान्तशेखर में भी श्रीपति ने उनका अनुकरण किया है । सिद्धान्तशिरोमणि में भास्कराचार्य ने अहर्गण से अभीष्टवार ज्ञानार्थ अहर्गण में सैक निरेक करना लिखा है यथा अभीष्टवारार्थमहर्गणश्चेत्सैको निरेकस्थितयोऽपि तद्वत् । ब्रह्मगुप्त ने अहर्गण में निरेक करण की चर्चा क्यों नहीं की, नहीं कहा जा सकता । वटेश्वर सिद्धान्त में भी नाना प्रकार से अहर्गणानयन और लघ्वहर्गणानयन किया गया है । ब्रह्मगुप्त द्वारा अनेक प्रकार से किये गये अहर्गणानयन को देख कर वटेश्वराचार्य ने भी उन्हीं के मार्ग का अवलम्बन किया है । अर्वाचीन आचार्यो (भास्कराचार्य-कमलाकर आदि) के ग्रन्थों में अनेक प्रकार से साधित अहर्गणानयन देखने में नहीं आता है । यद्यपि लघ्वहर्गणानयन में स्थूलता है, तथापि एक अपूर्वं वस्तु का प्रतिपादन किया गया है। वटे श्वराचार्यकृत लघ्वहर्मणानयन भी स्थूलरूप में कहा गया है। इन आचायों के अतिरिक्त और किसी प्राचार्य के ग्रन्थ में लध्वहर्गणानयन के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा गया है। सिद्धान्त तत्व विवेक में कमलाकर ने भास्करोक्त लध्वहर्गणानयन में वार गणना का खण्डन किया है। स्फुटगत्यध्याय में आर्यभट-ब्रह्मगुप्त-लल्ल आदि आचायों ने वृत्त परिधि के चतु थांश (नवत्यंश) में दो सौ पच्चीस कलावृद्धि से चौबीस क्रमज्या और उत्क्रमज्याँ का साधन किया है। आर्यभट और लल्ल की त्रिज्या=३४३८, ब्रह्मगुप्त मत स्फुटगत्यध्याय में त्रिज्या ३२७०, इन सर्वोों से भिन्न श्रीपति की त्रिज्या=३४१५, ब्रह्मगुप्तोक्त भूपरिधि=५००० । ‘पादोन गोऽक्षधृतिभूमितयोजनानि' इन भास्करोक्ति से ग्रहों की योजनात्मक गति=११८५८॥४५, ‘गतियोजनतिथ्यंशः कुदलस्य ( ११ ) यतो मितिः’ से भूव्यांस=१५८१, भू परिधि=४९६७ । यही बात ‘प्रोक्तो योजनसंख्या कुपरिधिः सप्ताङ्गनन्दाब्धयस्तद्व्यासः कुभुजङ्गसायकभुवः’ से भास्कराचार्य ने कही है । भास्कराचार्य ने बहुत से स्थलों में ब्रह्मगुप्त के मत का ही अनुसरण किया है । परन्तु ब्रह्मगुप्तोक्त त्रिज्या से भिन्न त्रिज्या स्वीकार करने में उनका क्या अभिप्राय है सो नहीं कह सकते हैं । ब्रह्मगुप्तोक्त भुजान्तर कर्म के अनुसार ही सिद्धान्तशेखर और सिद्धान्त शिरोमणि में भी कहा गया है। इसके अतिरिक्त ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के स्फुटगत्यध्याय में और भी अनेक विषय वणित हैं जो दर्शनीय और पढ़ने के योग्य हैं । त्रिप्रश्नाधिकार में रवि के मध्याह्न कालिक नतांश जान कर, उसके आधार पर रवि के आनयन के लिए पहले क्रान्तिज्या का ज्ञान होता है। तव त्रिप्रश्नाधिकार अनुपात से रवि के भुजांश का ज्ञान होता हैं । भुजांश से राश्यादि रवि का ज्ञान पदाधीन है। किसी भी प्राचीनाचार्य ने पदज्ञान के लिए विधि नहीं लिखी है । यहाँ प्राचार्य ने क्रान्तिव्यसार्धगुणा जिनभागज्याहृता धनुरजादौ कक्र्यादौ चक्राधत्प्रोह्य तुलादौ स चक्रार्धम् । चक्रार्धात् प्रोह्य मृगादौ स्फुटो सकृत् व्यस्तमृष्णं धन मध्यम् । अर्कोऽस्मात्’ इत्यादि से रवि का आनयन किया है । लेकिन यह सावित रवि किस पद का है इसके ज्ञान के लिए कोई युक्ति नहीं लिखी है। सिद्धान्तशेखर में श्रीपति ने ‘अजतुलादिगतस्य विवस्वतो दिनदल प्रभयोयुतिरधिता । भवति वैषुती निजदेशजेति से पलभा के मान का पता लगाकर आद्ये पदेऽपचयिनी पलभाऽल्पिका स्यात् छायाल्पिका भवति वृद्धिमती द्वितीये । छायादिका भवति वृद्धिमती ततीये तुर्ये पुनः क्षयवती तदनल्पिका च । वृद्धि प्रयान्ती यदि दक्षिणाग्रच्छाया तथापि प्रथमं पदं स्यात् । हासं ब्रजन्तीमथ तां विलोक्य रचेविजानीहि पदं द्वितीयम् ।। से गोल युक्ति िसद्ध पद का ज्ञान किया है यहाँ भास्कराचार्य ने कान्तिज्या त्रिज्याघ्नी जिनभागज्योद्धृता दोज्य । तद्धनुराद्ये चरणे वर्षस्यार्कः प्रजायतेऽन्येषु । भार्धाच्युतः सभाध भगणात्पतैितोऽब्द चरणानाम् । ऋतुचिह्नज्ञानं स्याहतु चिह्नान्यग्रतो वक्ष्ये । ( १२ ) से आचार्योक्तवत् ही कहा है। केवल ‘ऋतुवर्णनम्’ नामक एक अधिकार सिद्धान्त शिरोमणि के गोलाध्याय में लिखा है । भास्काराचार्य के पश्चवतीं और कमलाकर के पूर्व वतीं सब आचार्यो ने ऋतुवर्णन को ज्यौतिष सिद्धान्त का एक अङ्ग समझकर अपने अपने सिद्धान्तग्रन्थ में निशिचित रूप से ‘ऋतुवर्णनाध्याय' नाम देकर लिखा हैं । सिद्धान्त नत्व विवेक में—‘प्राद्ये पदेऽपचयिनी पलभाल्पिका स्यात्' इत्यादि श्रीपत्युक्त पदज्ञानबोधक श्लोकः द्वय को लिख कर कमलाकर ने ऋतुचिह्नरिदं पूर्वेरुक्त सर्वत्र तन्नहि । केवलं कूकविप्रीत्यै पदज्ञप्त्यै न तद्रवेः ।। से भास्करोक्त ऋतुवर्णन की निन्दा की है । वस्ततः कमलाकर का कथन ठीक है । भिन्न भिन्न देशों में ऋतु भिन्न भिन्न होती है; इसलिए ऋतुचिह्न से पदज्ञान ठीक नहीं हो सकता है। परन्तु-आद्य पदेऽपचयिनी पलभाल्पिका स्यात्' इत्यादि पदज्ञानबोधक पद्य ठीक सिद्धान्तशेखर में हैं। इसको कमला कर ने अपने नाम से लिखा है । जब तक सिद्धान्त शेखर उपलब्ध नहीं था, तब तक लोग यही समझते थे कि यह पदज्ञान प्रकार कमलाक रोक्त ही है। परन्तु अब वह बात नहीं रही । वस्तुत: यह प्रकार श्रीपत्युक्त ही है। कमला कर को अपनी रचना में यह मानना चाहिए था कि यह प्रकार श्रीपति कथित है । वास्तविक बात यह है कि प्राचीन आचार्य ने पदज्ञान के लिए कोई प्रकार नहीं लिखा है । इस स्थिति में श्रीपति ही इस प्रकार को लिखने के कारण ज्योतिषियों के प्रशंसापात्र हैं, यह बात अवश्य ही नि:सन्दिग्ध है। आश्चर्य की बात तो यह है कि झीपतिकृत गोलयुक्ति युक्त पद ज्ञान को छोड़कर भास्कराचार्य ने जो काव्यमय ऋतुवर्णन किया है वह बिल्कुल असंगत है । आचार्य ब्रह्मगुप्त ने चन्द्र ग्रहणाध्याय में रवि, चन्द्र औरपृथिवी का योजनबिम्ब, रवि और वन्द्र के योजनात्मक कर्ण का स्पष्टीकरण, भूभा बिम्बानयन, ग्रासभानाद्यानयन तथा परिलेख प्रकार लिखा है। श्रीपति और भास्कराचार्य चन्द्रग्रहणाध्याय ने भी कथनक्रम को लेकर विशेष रूप से वैसा ही अनुवाद किया है। ब्रह्मगुप्तकृत सम्पूर्ण सूर्यग्रहणाध्याय को श्रीपति ने प्राय: अपने श्लोकान्तरों द्वारा किया है, उदयास्तमयाध्याय में प्राचार्य ने आयन दृक्कमनियन किया है, परन्तु वह ठीक नहीं है । श्रीपति ने आयन दृक्कर्मानयन करके खनभोधृतिभिः समाहतं प्रथमं दृक्फलमायनाह्वयम् । द्युचराश्रितभोदयासुभिर्विहृतं स्पष्टमिह प्रजायते ॥ से उनका स्पष्टीकरण किया हैं। इसको देख कर भास्कराचार्य ने 'आयनं वलनम स्फुटेषुणा संगुणम्' इत्यादि से उसके अनुसार ही कहा है । चन्द्राध्याय में आचार्य ने अनेक विषयों का प्रतिपादन किया है । परन्तु श्रीपति ने केवल वराह ब्रह्मगुप्त तथा लल्लाचार्य के वहुत से श्लोकों का अनुवादमात्र ही किया है। अपनी ओर से कोई विशेष बात नहीं लिखी । केवल चन्द्र के स्पष्ट चरानयन में तथा परिलेख सूत्र प्रमाणानयन में बहुत ही प्रकारान्तर से प्रतिपादन किया है । आचार्ये वराह ब्रह्मगुप्त और लल्लाचार्य ने ग्रहयुत्यध्याय (ग्रहयुद्धाध्याय ग्रहयुत्यध्याय या ग्रहयोगाध्याय) में उदयान्तर कार्य के बिषय में कुछ भी नहीं कहा है । परन्तु ( १३ ) अन्त्यभ्रमेण गुणिता रविबाहुजीवाऽभीष्टभ्रमेण विहृता फलकार्मुकेण । बाहोः कलासु रहिता रहितास्ववशेषकं ते यातासवो युगयुजोः पदयोर्धनर्णम् ।। तथा के द्वारा श्रीपत्युक्त दृग्गणितैक्यकारक कर्म ही को भास्कराचार्य ने 'उदयान्तर कर्म' नाम से कहा है । जब तक सिद्धान्तशेखर उपलब्ध नहीं था तब तक आधुनिक गणकों को यही विश्वास था कि यह उदयान्तरकर्म सर्वप्रथम भास्कराचार्य ने ही लिखा है।. परन्तु इस उदयान्तर को दृष्टि में रख कर सर्व प्रथम श्रीपति ने ही अपने विचार व्यक्त किये थे । त्रिभविरहितचन्द्रोच्चेन भास्वद् भुजज्या गगननपविनिघ्नी भत्रयज्याविभक्ता । भवति चर फलाख्यं तत् पृथक्स्थं शरघ्नं हृतमुडुपतिकर्णत्रिज्ययोरन्तरेण ॥१॥ परमफलमवाप्तं तद्धनर्ण पृथक्रस्थे तुहिनकिरणकरणे त्रिज्यकोनाधिकेऽथ । स्फुटदिनकर हीनादिन्दुतो या भुजज्या स्फुट परमफलघ्नी भाजिता त्रिज्ययाऽऽप्तम् ।।२॥ शशिनि चरफलाख्यं सूर्यहीनेन्दुगोलात् तदृणमुत धनं चेन्दूच्चहीनार्क गोलम् । यदि भवति हि साम्यं व्यस्तमेतद्विधेयं स्फुटगणितदृगैक्य कत्तुमिच्छभिरत्र ।॥३॥ इन तीनों श्लोकों के द्वारा श्रीपति ने द्वग्गणितैक्य के लिए चन्द्र में संस्कार विशेष को कहा है । किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में यह संस्कार नहीं लिखा है । यद्यपि इन्दूच्चोनार्ककोटिघ्ना गत्यंशा विभचा विधोः । गुणो व्यर्केन्दुदोः कोटयोरूप पञ्चाप्तयोः क्रमात् ।। फले शशाङ्कतद्गत्योलिप्ताद्य स्वर्णयोर्वधे । ऋणं चन्द्र धतं भुक्तौ स्वर्णसाम्यवधेऽन्यथा ।। के द्वारा इसी प्रकार (श्रीपत्युक्त चन्द्रसंस्कार की भांति) के चन्द्रसंस्कार का उल्लेख ‘लघुमानस' नामक करण ग्रन्थ में मुञ्जालाचार्य ने किया है। परन्तु इन दोनों में सादृश्या भाव के कारण, श्रीपति ने वेधद्वारा देख कर उस (लघुमानसोक्त ) से भिन्न कहा है, ऐसा ज्ञात होता है। भास्कराचार्य ने इस श्रीपत्युक्त संस्कार को बार-बार देख कर विचार करने से उपलब्ध ज्ञान के विस्तार पूर्वक प्रतिपादन के लिए सिद्धान्त शिरोमणि ग्रन्थ की रचना की । इस रचना के एक वर्ष पश्चात् ५९ श्लोकों का ‘बीजोपनय ' नामक ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि की भांति ‘वासना भाष्य' सहित बनाया । जैसा कि निम्नोक्ति मे सिद्ध है ( १४ ) मयाथ बीजोपनये यदन्ते सूर्योक्तमाद्य परमं रहस्यम् । प्रकाशये गोप्यमपीह देवं प्रणम्य बीजं जगतां हितार्थम् ॥१॥ यद्यपि पूर्वमपीदं संक्षेपादुक्तमागमोक्तदिशा । नैतावतैव कश्चित् दृङ्करणैक्याय कल्पते गणक ॥२॥ इकूरणैक्यविहीनाः खेटाः स्थूला न कर्मणामहः । अत इह तदर्हतायै तात्कालिकबीजविस्तरं वक्ष्ये ॥३॥ पाता रवेस्तामसकीलकाख्यास्तेषां समाकर्षणतः शशाङ्कः । तत्तुङ्गशक्तिश्च निजस्वभावं विहाय नित्यं विषमत्वमेति ॥४॥ चद्राच्च तद्योगवियोगतश्च साध्यं हि भाद्य विषमं यतः स्यात् । तस्माद्विधोरत्र विशुद्धिशुद्धघ विस्तार्यते बीजफलक्रियेयम् ॥५॥ एकेन पुसा निखिलग्रहाणामन्तं प्रबोधो न हि शक्यतेऽतः । व्यासात्समासाच्च यथोपलब्धं प्रोक्त भयेत्यादरणीय मेतत् ॥६॥ भग्रहयोगाध्याय 1 । भग्रहृयोगाध्याय में कृत्वापि दृष्टिकर्म श्रीषेणार्यभटविष्णुचन्द्रोक्तम् । प्रतिदिनमुदयेऽस्ते वा न भवति दृग्गणितयोरैक्यम् ॥१॥ भमुनिमृगव्याधानां यतस्ततो दृष्टिकर्म वक्ष्यामि । दृग्गणितसमं देयं शिष्याय विरोषितायेदम् ॥२॥ ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के उत्तरार्ध में-परिकर्म विंशति (सङ्कलित, व्यवकलित, गुग्न, भागहार, वर्ग, वर्गभूल, पञ्चजाति, त्रैराशिक, व्यस्तत्रराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, एकादशराशिक, भाण्डप्रतिभाण्ड (अदला बदली)-आदि ब्राह्मस्फुटसिद्धांत का विषयों का उल्लेख है । प्रत्येक स्थान में चतुर्वेदचार्योक्त उदाहरण हैं। सिद्धान्त शेखर में भी परिकर्म विशति (भिन्नाङ्कों के छः गुणन, भजन, वर्ग, वर्गमूल, धन तथा घनमूल; भिन्नाङ्कों के योग, अन्तर, गुणन, भजन, वर्ग, वर्गमूल छ:; भाग, प्रभाग, भागानुबंध, भागापवाह जातिचतुष्टय; विलोमकर्म, त्रराशिक, व्यस्तत्रराशिक और उत्तर ( १५ ) पञ्चराशिक) । ब्रह्मगुप्त और श्रीपति के बीस कर्मो के विषय वर्णन में बहुत भेद है । उन बीस परिकमों के नामों में भी बहुधा भिन्नता है । भास्कर द्वारा प्रकीर्ण विषय (योगान्तर से लेकर भाण्ड प्रतिभाण्ड पर्यन्त) जिस स्पष्टता के साथ प्रतिपादित हैं। वैसी स्पष्टता ब्रह्मगुप्त और श्रीपति द्वारा प्रतिपादित परिकर्म विशति में नहीं पाई जाती । जहां तक विषयों का सम्बन्ध है वहां तक तीनों आचार्य-ब्रह्मगुप्त, श्रीपति तथा भास्कर समान हैं। केवल विषयों के प्रतिपादन की रीति में भिन्नता है। इसके अतिरिक्त मिश्रक व्यवहार, श्रेढी व्यवहार, क्षेत्र व्यवहार, खात व्यवहार , चितिव्यवहार, क्राकचिक व्यवहार राशिव्यवहार, और छाया व्यवहार ये आठ व्यवहार ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त, सिद्धान्त शेखर तथा भास्करीय लीलावती में वर्णित हैं । इन आठों व्यवहारों के प्रतिपादन में असादृश्य पाया जाता है। इन' व्यवहारों में से ब्रह्मगुप्त और श्रीपति की अपेक्षा भास्कर ने अधिक विषयों का प्रतिपादन किया है, और अपेक्षा कृत अधिक स्पष्टता के साथ । यह बात उक्त तीनों को देखने से स्फुट हो जाती है । इसके पश्चात् प्रश्नाध्याय में मध्यमगत्युत्तराध्याय, स्पष्टगत्युत्तराध्याय, त्रिप्रश्नो त्तराध्याय, ग्रहणोत्तराध्याय, शृगोन्नत्युत्तराध्याय-इन पांचवीं उत्तराध्यायों में सोत्तर प्रश्न समूह का समावेश है । प्रश्न सभी विलक्षण हैं। इनके अभ्यास से पाठक लोग ज्यौतिष के सिद्धान्त ग्रन्थों में प्रतिशय निपुण हो सकते हैं । ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के प्रत्येक अध्याय में प्रदर्शित इस प्रकार के सोत्तर प्रश्नक्रम का लेखै कुछ-कुछ सिद्धान्त शेखर और बटेश्वर सिद्धान्त में भी दृष्टिगोचर होता है । सिद्धान्त शिरोमणि आदि ग्रन्थों में यह क्रम नहीं है । ब्रह्मगुप्तोक्त कुट्टाकाराध्याय में बहुत से ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तरों से चित्त प्रसन्न हो जाता हैं। श्रीपति और भास्कर की अपेक्षा ब्रह्मगुप्त ने कुट्टाध्याय में अधिक विषयों का समावेश किया है । किन्तु विषय के प्रतिपादन की स्फुटता भास्करोक्ति में ही है। धन ऋण आदि के सङ्कलित व्यवकलितादि विषय भास्करोक्ति के सदृश ही ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त और सिद्धान्त शेखर में भी विद्यमान हैं। उसके पश्चात् एक समीकरण बीज है। यह भास्करोक्त एक वर्ण समीकरण बीज की अपेक्षा छोटा है । तत्पश्चात् ब्रह्मगुप्तोक्त अनेक वर्ण समीकरण बीज है । यह बहुत ही विलक्षण है। इसमें विषय भी बहुत अधिक है। भास्करोक्त अनेकवर्ण समीकरण बीज में भी बहुत विषय हैं । परन्तु सिद्धान्तशेखर में बहुत कम विषयों का उल्लेख है। ब्रह्मगुप्त की अपेक्षा भास्कर ने भावितबीज का अपने ग्रन्थ में अधिक समावेश किया है परन्तु श्रीपति ने कुछ कम । तो भी इन सवके विषयों में कोई विशेष अन्तर नहीं है, केवल भास्करोक्ति में अधिक वैशद्य है। इसके पश्चात् वर्ग प्रकृनि का वर्णन है, यहाँ ब्रह्मगुप्त ते कनिष्ठ, ज्येष्ठ और क्षेप की योग भावना और अन्तरभवना का प्रतिपादन किया है । सिद्धान्तशेखर में श्रीपति ने तथा भास्कराचार्य ने अपने बीजगणित में यहीं से लैकर केवल श्लोकान्तरों में रख दिया ( १६ ) है। गणित क्रिया एक ही हैं। श्रीपति ने भावना का स्वरूप नहीं कहा है। वर्गात्मक प्रकृनि में कनिष्ट और ज्येष्ठ के आनयन को ब्रह्मगुप्त ही से लेकर भास्कराचार्य ने अपने बीज गणित में ‘इष्टभक्तो द्विधाक्षेप इष्टोनाढयो दलीकृत:’ आदि श्लोकों द्वारा कहा है । परन्तु श्रीपति ने इसके विषय में कुछ भी नहीं लिखा है । ब्रह्मगुप्तोक्त ‘शङ्कुच्छायादि ज्ञानाध्याय अपूर्व है। इस अध्याय में जो विषय प्रतिपादित है वह सिद्धान्त शेखर और भास्करीय सिद्धान्तशिरोमणि में नहीं है। वस्तुतः यह अध्याय दर्शनीय और पठनीय है । छन्दश्चिन्यु त्तराध्याय ऐसा विचित्र है; कि इसमें लिखित श्लोकों की उपपत्ति की बात तो अलग रही उनकी तो साधारण व्याख्या भी अभी तक किसी ने नहीं की। गोलाध्याय में भूगोन्न संस्थान, देवासुरसंथान, चक्रभ्रमणव्यवस्था देवादिकों की रविभ्रमण स्थिति, देों और दैत्यों का राशि संस्थान, देवादिकों का रवि दर्शन काल, भूगोल में लङ्का और अवन्ती का स्थान, आदि आदि विषय वणित हैं । भूपरिधि तुर्यभागे लङ्का भूमस्तकात् क्षितितलाच्च । लङ्कोत्तरतोऽवन्ती भूपरिधेः पञ्चदश भागे ।। . के द्वारा लङ्का से भूपरिधि के पञ्चदशांश पर अवन्ती की स्थिति को आचार्य ने बतलाया हैं । परन्तु आचार्य के अनुयायी भास्कराचार्य ने सिद्धान्त शिरोमणि के गोलाध्याय में ‘निरक्षदेशात् क्षितिषोडशांशे भवेदवंतीं गणितेन यस्मात्' कहा है । चतुर्वेदाचार्य सम्मन पाठ ‘पञ्चदशभागे' ही है । सिद्धान्त शेखर में ‘सत्र्यंशरामाग्निगुणैरवन्त्याः स्याद्योजनैर्द क्षिणतो हि लङ्का' कहा गया है । श्रीपति के मत से उज्जयिनी (अवन्ती) का अक्षांश= २४° तथा भूपरिधिमान = ५००० है, अत: ३३३ एतत्तुल्य लङ्का और १५ अवन्ती के मध्य में योजनात्मक दूरी हुई । यहां भूपरिधेरष्टयशेऽवन्ती स्यात् सौम्यदिग्भागे' लल्ल की इस उक्ति से तथा भास्कर की पूर्वोक्ति से उज्जयिनी का अक्षांश =२२।३०' है, वराहमिहिराचार्य के मत से अक्षांश परमक्रान्त्यंश के बराबर = २४ है । पञ्च सिद्धान्तिका में प्रोद्यद्रविरमराणां भ्रमत्यजादौ कुवृत्तगः सव्यम् । उपरिष्टाल्लङ्कायां प्रतिलोमश्चामरारीणाम् ।। मिथुनान्ते च कुवृत्तादंश चतुर्विशतिं विहायोच्चैः । भ्रमति हि रविरमराणां समोपरिष्टात्तदाऽवन्त्याम् ।। श्रीपति के मत से अवन्ती का अक्षांश =२४, इसके आधार पर योजमान = ३३३३ योजना होता है। आचार्योक्त के अनुसार ही श्रीपति के मत से भी लङ्का, उज्जयिनी के दक्षिण में परिधि के पञ्चदशांश पर स्थित है । लल्लाचार्य और भास्कराचाय के मत से लङ्का, अवन्ती के दक्षिण में भूपरिधि के षोडशांश पर स्थित सिद्ध होती है। इस अध्याय के बहुत से विषय सूर्यासिद्धान्त के गोलाध्याय में वणित विषयों के सदृश ही हैं। बीच बीच में दोनों ब्राह्मस्फुटीय गोल अध्याय तथा सूर्य सिद्धान्तीय भूगोलाध्याय में कुछ विषायान्तर भी है। सिद्धान्त शेखर के गोलाघ्याम में श्रीपति ने भी कितने ही विषय आचार्योक्त विषयों के सदृश ही कहे हैं। ‘यन्मूलं तद्व्यासो मण्डललिताकृतेर्दशहृतायाः द्वारा श्रीपति ने भी ‘व्यासः स्यात् परिधेर्वर्गाद् दिग्भक्ताच्च पदंत्विह प्रकार के अनुकूल ३४१५ त्रिज्या स्वीकार की है । भास्कराचार्य ने ‘व्यासे भनन्दाग्निहते विभक्त खवा सूर्यः” के द्वारा परिध्यानयन का विस्तार से प्रतिपादन किया है। इसके विलोम द्वारा परिधि से व्यासानयन होता है। परन्तु व्यास से परिध्यानयन या परिधि से व्यासानयन किसी का भी ठीक नहीं है। क्योंकि व्यास और परिधि का सम्बन्ध स्थिर नहीं है । ज्या प्रकरण में जैसे चापार्धांशज्या आदि का आनयन आचार्य ने किया है वैसे ही सिद्धान्त शेखर में और सिद्धान्त शिरोमणि के गोलाध्याय में किया गया है। ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त में चापार्धांशज्यानयनप्रकार ( १७ ) सिद्धान्तशेखर में तुल्यक्रमोत्क्रमज्यासमखण्डक वर्ग युति चतुर्भागम् । व्यासार्धवर्गतस्तत्पदे प्रथमम् ।। तद्दलखण्डानि तदूनजिनसमानि द्वितीयमुत्पत्तौ । कृतयमलैक दिगीशेषु सप्तरसगुणनवादीनाम् । उत्क्रमक्रमसमानसमज्या खण्डवर्गयुतिवेदविभागम् । व्यासखण्डकृतितस्तमनष्टं शोधयेदथ पदे भवतो ये ।। सिद्धान्तशिरोमणि में श्राद्यमूलमिह तद्दलसंख्यं तद्विहीन जिनसम्मितमन्यत् । ज्यार्धमेवमपराणि समेभ्यो ज्यादलानि न भवन्त्यसमेम्यः ॥ क्रमोत्क्रमज्या कृतियोगमूलाद्दलं तदर्धाशकशिञ्जिनी स्यात् । इस प्रकार प्रकारान्तर से भी चापाधfज्यानयन प्रकार तीनों ग्रन्थों (ब्राह्मस्फुट तसिद्धान्त-सिद्धान्तशेखर-सिद्धान्तशिरोमणि ) में समान ही है। भास्करीय अन्त्यज्योत्पत्ति में अनेक विषयों का विशिष्ट प्रतिपादन देखने में प्राता है । मन्द फल साधन में भी कणनुपात से जो फल होता है वही स्फुटगतिवासना समीचीन होता है, तब कर्णानुपात न करने का कारण क्या है ? यह बात अधोलिखित उक्ति से प्रकट होती है त्रिज्याभक्तः परिधिः कर्णगुणो बाहुकोटिगुणकारः । असकृन्मान्दे तत्फलमाद्यसमं नात्र करणोंऽस्मात् ।। सिद्धान्त शेखर में ( १८ ) त्रिज्याहृतः श्रुतिगुणः परिधिर्यतो दोः कोटयोगुणीमृदुफलानयनेऽसकृत्स्यात् । स्यान्मन्दमाद्यसममेव फलं ततश्च कर्णः कृतो न मृदुकर्मणि तन्त्रकारैः ।। यह श्रीपत्युक्त श्लोक आचार्योक्त श्लोक का ही अनुवाद है । भास्कराचार्य ने भी स्वल्पान्तरत्वान्मृदुकर्मणीह कर्णः कृतो नेति वदन्ति केचित् । त्रिज्योद्धृतः कर्णगुणः कृतेऽपि करणे स्फुटः स्यात्परिधिर्यतोऽत्र । तेनाद्यतुल्यं फलमेति तस्मात् कर्णः कृतो नेति च केचिदूचुः । नाशङ्कनीयं न चले किमित्थं यतो विचित्रा फल वासनाऽत्र । यहाँ कर्ण से जो फल आता है वही समीचीन है । मन्द कर्म में स्वल्पान्तर से करण नुपात नहीं किया गया है, यह कहते हैं मन्दकर्म में मन्दकर्ण तुल्य व्यासार्ध से जो वृत्त होता वह कक्षावृत्त है। जो पाठ पठित मन्द परिधि है वह त्रिज्या परिणत है। अत: उसको कर्ण व्यासार्ध में परिणामन करते हैं, यदि त्रिज्यावृत्त में यह पाठ पठित परिधि पाते हैं, तो कर्णवृत्त में क्या इससे स्फुट परिधि होती है। ‘तत्र स्वेनाहते परिधिना भुजकोटिजीवे' इत्यादि से जो फल होता है उसको त्रिज्या से गुणा कर कर्ण से भाग देने जो उपलब्ध होता है तो वह पूर्व फल के तुल्य ही होता है। यह आचार्य ब्रह्मगुप्त का मत है । यदि इस कणनुपात से परिधि की स्फुटता होती है तो शीघ्रकर्म में क्यों नहीं किया जाता है ? यहाँ चतुर्वेदाचार्य कहते हैं कि ब्रह्मगुप्त ने औरों को ठगने के लिग ऐसा कहा है, परन्तु यह ठीक नहीं है। शीन्नकर्म में क्यों नहीं किया जाता, यह आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि फल की उपपत्ति विचित्र है । छादक का निर्णय करके राहुकृत ग्रहण नहीं होता हैं । यह आचार्य ने प्रथम वराह मिहिरादिकों के मत का प्रतिपादन किया फिर संहितामत ग्रहणवासना का अवलम्बन कर, उस (वराहमिहिरादिक) मत का निराकरण किया है । राहुकृतं ग्रहणद्वयमागोपालाङ्गनादिसिद्धमिदम् । बहुफलमिदमपि सिद्धं जपहोमस्नानफलमत्र । इसे लोक प्रथा बताकर राहुकृत ग्रहण के समर्थन में आचार्य ने वेद और स्मृति के बाक्यों का उल्लेख किया है । युक्ति से राहुकृत ग्रहण सिद्ध नहीं होता है, परन्तु वेदों में, ( १९ ) स्मृतियों में और युराणों में राहुकृत ग्रहण का प्रतिपादन विद्यमान है। अत: दोनों मतों का समन्वय करते हुए प्राचार्य ने कहा है राहुस्तच्छादयति प्रविशति यच्छुक्लपञ्चदश्यन्ते । भूछाया तमसीन्दोर्वरप्रदानात् कमलयोनेः । चन्द्रोऽम्बुमयोऽधःस्थो यदग्निमयभास्करस्य मासान्ते । छादयति शमिततापो राहुश्छादयति तत् सवितुः । सिद्धान्तशिरोमणि के गोलाध्याय में भी अधोलिखित भास्करोक्ति दिग्देशकालावरणादि भेदान्न छादको राहुरिति ब्रवन्ति । यन्मानिनः केवलगोलविद्यास्तत्संहिता वेदपुराणबाह्यम् । राहुः कुभामण्डलगः शशाङ्क शशाङ्कगश्छादयतीव बिम्बम् । शम्भुवरप्रदानात् न् । से समन्वय किया गया है। सिद्धान्तशेखर में राहुकृत ग्रहण के खण्डनार्थ ‘राहुनिरा करणाध्याय' नाम का एक अध्याय रक्खा गया है । इसमें श्रीपति ने भी निम्नलिखित श्लोकों ने समन्वय क्रिया है विष्णुलूनशिरसः किल पङ्गोर्दत्तवान् वरमिमं परमेष्ठी । होमदानविधिना तवतृप्तिस्तिग्मशीतमहसोरुपरागे ।। भूमेश्छायां प्रविष्टः स्थगयति शशिनं शुक्लपक्षावसाने । राहुब्रह्मप्रसादात् समधिगतवरस्ततमो व्यासतुल्यः । ऊध्र्वस्थं भानुबिम्बं सलिलमयतनोरप्यधोवति बिम्बम् । संसृत्यैवं च मासव्युपरतिसमये स्वस्य साहित्यहेतोः ।। गोलबन्धाधिकार में मह दृवृत्तों (पूर्वापरवृत्त, याम्योत्तरवृत्त, क्षितिजवृत्त आदि) की रचना तथा लघुवृत्तों (मेषादिक द्वादश राशियों के अहोरात्रवृत्त) की रचना करके परमलम्वन-नति का स्वरूप प्रतिपादन कर प्राचार्य ने टङ्कर्म का प्रानयन किया गोलाध्याय है । ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त में प्राचार्य ने जैसे गोलबन्ध कहा है वैसे ही सिद्धान्त शेखर में श्रीपति और सिद्धान्त शिरोमणि के गोलाध्याय में भास्कराचार्य ने कहा है । ग्रहगोल और नक्षत्रगील में पांच स्थिरवृत्त (पूर्वोपरवृत्त, क्षितिजवृत्त, याम्योत्तरवृत्त,उन्मण्डल, विषुवद्वृत्त) कहे हैं। ये सब कक्षा मण्डल के बराबर हैं । तथा ग्रहों के चलवृत्त मन्दनीचोच्छवृत्त-=७, भौमादि ग्रहों के शीघ्र नीचोच्चवृत्त=५ । मन्दप्रतिवृत्त =७ , शीघ्रप्रतिवृत्त=५ । सात ग्रहों के दृग्मण्डल दृकक्षेप मण्डल, कक्षामण्डल=२१ चन्द्रादि ग्रहों के विमण्डल= ६, सबों का योग ५१ एकावन् चलवृत्तों की संख्या है। सिद्धान्तशेखर में भी ऐसा ही है मन्दोचनीचवलयानि भवन्ति सप्तशैघ्रयाणि, पञ्च च तथा प्रतिमण्डलानि । दृक्क्षेप दृष्टयपमजानि च खेचराणामर्क विनैव खलु पट् च विमण्डलानि । पञ्चाशदेकसहितानि च मण्डलानि पूर्वापरं वलयमुत्तरदक्षिग्गं च । क्ष्माजं तथा विषुवदुद्वलयाभिधाने पञ्चस्थिराणि कथितान्युडुखेचराग्गाम् ।। यन्त्राध्यायः ( २० ) सप्तदश कालयन्त्राण्यतो धनुस्तुर्यगोलक चक्रम् । यष्टिः शङ्कुर्घटिका कपालक कर्तरी पीठम् ।। सलिलं भ्रमोऽवलम्बः कर्णश्छायादिनार्धमकॉऽक्षः । नतकालज्ञानार्थ तेषां संसाधनान्यष्टौ ।। इससे घनुर्यन्त्र, तुरीयूयन्त्र, चक्रयन्त्र, यष्टियन्त्र, शङ्कुयन्त्र, घटी यन्त्र, कपालयन्त्र, कर्तरीयन्त्र, पीटसंज्ञक (प लक) यन्त्र, सलिल (जल), भ्रम (शाण), अवलम्बसूत्र, छाया कर्ण, शङ्कुछाया, दिनार्धमान, सूर्य, श्र क्षर (अक्षांश), ये नतकाल के लिए सत्रह काल यन्त्र हैं । इन यन्त्रों में सलिल आदि आठ यन्त्र रचना के उपकरण हैं ! सिद्धान्त शेखर में गोलश्चक्रे कार्मुकं कर्तरी च कालज्ञाने यन्त्रमन्यत्कपालम् । पीठं शङ्कुः स्याद्घटी यष्टिसंज्ञ गन्त्री यन्त्राण्यत्र दिक्संमितानि । इससे गोलयन्त्र, चक्रयन्त्र, धनुर्यन्त्र, कर्तरी नामक यन्त्र, कपालयन्त्र, पीठ (फलक) यन्त्र, शङ्कुनामक यन्त्र, घटी नामक-यन्त्र, यष्टियन्त्र, गन्त्री (शकट) ये श्रीपति द्वारा वणित दस यन्त्र हैं। शिष्यधीवृद्धिदतन्त्र में अधो लिखित बारह यन्त्रों का उल्लेख है गोलो भगणश्चक्र धनुर्घटी शङ्कुशकटकत्र्तर्यः । पीठकपालशलाका द्वादशयन्त्राणि सहयष्टंया । कर्णश्छाया द्युदलं रविरक्षो लम्बको भ्रमः सलिलम् । स्युर्यन्त्रसाधनानि प्रज्ञा च समुद्यमाश्चैवम् ।। भास्कराचार्य ने गोलाध्याय में केवल दस यन्त्र कहे हैं गोलो नाडीवलयं यष्टिः शङ्कुर्घटीचक्रम् । चापं तुर्यं फलकं धीरेकं पारमार्थिक यन्त्रम् । सूर्य सिद्धान्त में अधो लिखित यन्त्र विवरण है मानाध्याय ( २१ ) तुङ्गबीजसमायुक्तं गोलयन्त्रं प्रसाधयेत् । गोप्यमेतत्प्रकाशोक्तं सर्वगम्यं भवेदिह ।। कालसंसाधनार्थाय तथा यन्त्राणि साधयत् । एकाकी योजयेद्बीजं यन्त्रे विस्मय कारिणि । शङ कुयष्टि धनुश्चकैश्छायायन्त्रैरनेकधा । गुरुपदेशाद्विज्ञेयं कालज्ञानमतन्द्रितै तोययन्त्रकपालाचैर्मयूरनरवानरै ससूत्ररेणुगभैश्च सम्यक्कालं प्रसाधयेत् ।। परदाराम्बुसूत्राणि शुल्वतैलजलानि च । बीजानि पांसवस्तेषु प्रयोगास्तेऽपि दुर्लभाः ।। ताम्रपात्रमधाश्छद्र ' न्यस्त कुण्डऽमलाम्भास । षष्टिर्मज्जत्यहोरात्रे स्फुटं यन्त्र' कपालकम् ।। नरयन्त्र' तथा साधु दिवा च विमले रवौ । छाया ससाधनः प्रोक्तं कालसाधनमुत्तमम् । मानानि सौरचान्द्राक्षसावनानि ग्रहानयनमेभिः । मानैः पृथक् चतुर्भिः संव्यवहारोऽत्र लोकस्य । इससे सौरमान, चान्द्रमान, नाक्षत्रमान और सावनमान, ये चार प्रकार के मान कहे गये हैं। इन्हीं चारों मानों से लोगों के सब व्यवहार होते हैं। किस किस मान से कौन कौन पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं यह सब प्रति पादित है। ब्राह्म, दिव्य, पित्र्य, श्राजापत्य बार्हस्पत्य, सौर, सावन, चान्द्र, नाक्षत्र ये नौ मान हैं। इन मानों में से मनुष्यलोक में केवल सौर, चान्द्र, सावन और नाक्षत्र इन चार मानों की ही प्रधानता है । क्योंकि इन्हीं मानों से मनुष्यों के सब व्यवहार सम्पन्न होते हैं। सूर्यसिद्धान्त, सिद्धान्तशेखर, सिद्धान्त शिरोमणि आदि सब ग्रन्थों में मानों के विषय में समान रूप से कहा गया है। ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के इस अध्याय में भूभादैध्र्य के भी साधन है । संज्ञाध्याय में संज्ञा कहने के कारण दशयेि हैं । सिद्धान्त इसका एक ही है । किस अंश में सूर्यसिद्धान्तादि भिन्न हैं। इसका प्रतिपादन कर आचार्य ने अपने सिद्धान्त के उत्तरार्ध में अनुक्रमणिका कही है । सूर्यसिद्धान्त, सिद्धान्तशेखर आदि संज्ञाध्याय अन्य सिद्धान्तग्रन्थों में संज्ञाध्याय नहीं हैं वस्तुतः इसकी आवश्यकता भी नहीं है । अध्याय के उपसंहार से पूर्व एक विशेष प्रश्न ( २२ ) आग्नेये नैऋत्ये वेष्टदिने संस्थितस्य योऽर्कस्य । शङ्कुच्छाये कथयति वर्षादपि वेत्ति सूर्य सः ।। रक्खा हुआ है । इसका उत्तर कोणशङ्कु के आनयन से स्फुट है । ध्यान ग्रहोपदेशाध्याय-मूल ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त का अंग नहीं है। ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त तो चौबीसवें (संज्ञाध्याय) अध्याय पर समाप्त हो जाता ध्यानग्रहोपदेशाध्यात्र है। ध्यान ग्रहोपदेशाध्याय भी ब्रह्मगुप्त की ही एक कृति हैं । अतः परिशिष्ट के रूप इसे यहाँ संलग्न कर दिया गया है। इसके चैत्रादि में मासगणानयन, चैत्रादि में दिनादिक, तिथिाध्रुवसाधन, इद्रमासादि में रवि के आनयन प्रकार, प्रतिमास में चन्द्रकेन्द्र, तिधि घ्रवक्षेप के आनयन का प्रतिपादन है । प्रतिदिन चालन, चन्द्रसाधन, औदयिक रविसाधन, ज्याखण्ड तथा केन्द्रज्या साधन का वर्णन है त्रिंशत्सनवरसेन्दुजिनतिधिविषयागृहार्धचापानाम् । अर्धज्याखण्डानि ज्याभुक्तैक्यं स गतभोग्यखण्डकान्तर दलविकलवधाच्छतैर्नवभिराप्तैः । तद्युतिदलं युतोन भोग्यादूनाधिकं भोग्यम् । यह प्राचार्योक्त भोग्यखण्ड स्पष्टीकरण है। भास्कराचार्य ने इसी को सिद्धान्तशिरो मणि के स्पष्टाधिकार में “यातैष्ययोः खण्डकयोविशेषः शेषांशनिघ्नः' इत्यादि द्वारा लिग्वा है । भास्कराचार्य ने १२० त्रिज्या ग्रहण की हैं । यहाँ आचार्य ब्रह्मगुप्त ने १५० त्रिज्या ग्रहण को हैं । यहाँ यह बात बड़ी चित्रित्र लगती है कि प्राचार्योक्त विषयों को ही सिद्धान्त शेखर में श्रीपति ने सर्वत्र श्लोकान्तरों में लिखा है, परन्तु पता नहीं क्यों उन्होंने आचार्योक्त इस अपूर्व भोग्य खण्ड स्पष्टीकरण की चर्चा तक नहीं की । चन्द्र में भुजफल संस्कार, तिथि फलसंस्कार आदि सभी विषय विलक्षण है। प्राचार्य ने इस अध्याय में जो विषय लिख दिये हैं, सूर्यसिद्धान्त-सिद्धान्तशेखर-तथा सिद्धान्त शिरोमणि में वे नही हैं । ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त में जिन आचार्यो के नाम आये हैं। उनके सम्बन्ध में कुछ विचार करते हैं। सव सिद्धान्तों में आदिम या सबसे प्राचीन सिद्धान्त ब्रह्मसिद्धान्त ही है । इसी को लोग पितामह सिद्धान्त के नाम से भी कहते हैं । पञ्चसिद्धान्त में वराहमिहिर ने का बारहवें अध्याय को जिसमें केवल पांच आर्याएँ हैं, पैतामह सिद्धान्त के नाम से पुकारते हैं, रविशशिनोः पञ्चयुग वर्षाणि पितामहोपदिष्टानि । अधिमासस्त्रिशदुभिर्मासैरवमस्त्रिषष्टयाऽलुम् ॥१॥ ( २३ ) द्वयन शकेन्द्रकालं पञ्चभिरुद्धृत्य शेषवर्षाणाम् । द्विगुणमाद्यसिताद्य कुर्याद् द्युगणं तदह्वयुदयात् ॥२॥ सैकषष्टय'शे गणे तिथिर्भमार्क नवाहतेऽक्ष्यकैः । दिग्रसभागैः सप्तभिरूनं शशिभ धनिष्ठाद्यम् ॥३॥ द्वयग्निनगेषत्तरतः स्वमितमेष्यदिनमपि याम्यायनस्य । द्विघ्नं शशिरसभक्त द्वादशहीनं दिनसमानम् ॥५॥ इसके अनुसार एक युग में सौर वर्ष=५, सौरमाह ५X १२=६०, अधिमास =२, चान्द्रमास ='६२, इसे तीस से गुणा करते से तिथि= १८६०, अवम=३०, तिथियों में से इसे घटाने पर अहर्गण=१८३० ॥ आचार्य वराहमिहिर विक्रमादित्य के प्रसिद्ध नव रत्नों में से एक थे । इनके द्वारा बने ग्रन्थ ‘लघुजातक, बृहज्जातक, विवाहपटल, बृहद्योगयात्रा, बृहत्संहिसा, समास संहिता और पञ्चसिद्धान्तिका है । पौलिश सिद्धान्त, रोमक सिद्धान्त, वासिष्ठ सिद्धान्त, सौर (सूर्य) सिद्धान्त, और पैतामह सिद्धान्त, इन पाञ्च सिद्धान्तों के सार का संकलन रूप ‘पञ्चसिद्धान्तिका' है । इस ग्रन्थ को को वराहमिहिराचार्य ‘ताराग्रह कारिका तन्त्र' के नाम से पुकारते हैं। इस ग्रन्थ (पञ्चसिद्धान्तका) में ‘पौलिश सिद्धान्त'नाम का एक अध्याय है। पौलिश सिद्धान्त के रचयिता के सम्बन्ध में बहुत मतमतान्तर हैं । वराहोक्त पौलिशसिद्धान्त में यवनपुर से उज्जयिनी का और वाराणसी का देशान्तर उल्लिखित है, जैसे यवनाचरजा नाडयः सप्तावन्त्यां त्रिभागसंमिश्राः । वाराणस्यां त्रिकृतिः साधनमन्यत्र वक्ष्यामि । शाकल्य सैहितोक्त ब्रह्मसिद्धान्त में पौलिश सिद्धान्त का उल्लेख तथा पुलिशाचार्य के उज्जयिनी रोहीतक कुरुयमुना हिमनिवासमेरूणाम् । देशान्तरं न कार्य तल्लेखामध्यसंस्थदेशेषु । आदि विचार से ‘पौलिश सिद्धान्त' सर्वमान्य था । परन्तु यह सिद्धान्त अभी उप लब्ध नहीं है । सूर्य सिद्धान्त ही प्राचीनतम सिद्धान्त ग्रन्थ है, यह बहुत विद्वानों का मत है ।
- प्रागधे पर्व यदा तदोत्तराऽतोऽन्याय तिथिः प्रव ।
अर्कध्ने व्यतिपाताद्युगणे पञ्चाम्बरहुताशैः ॥४॥ ( २४ ) केचित् प्रत्यक्षसूर्याच्च भिन्नोऽयमिति यद्वलात् । वदन्ति मूढवादस्याप्रामाण्यात्तदसद्ध्रुवम् ।। कमलाकर की इस उक्ति से स्वयं भगवान् सूर्य ही इस के रचयिता सिद्ध होते हैं । आश्चर्य तो इस बात का है कि ‘सूर्यसिद्धान्त में त्रिंशत्कृत्यो युगे भानां चक्र प्राक् परिलम्बते । तद्गुणाद्भूदिनैर्भक्ताद् द्युगणाद्यदवाप्यते । तद्दोस्त्रिध्ना दशाप्तांशा विज्ञेया अयनाभिधाः । तत्संस्कृताद् ग्रहात् क्रान्तिच्छायाचरदलादिकम् ।। आदि से अयांशानय किया गया है, परन्तु सूर्य सिद्धान्त के पश्चात् ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त के रचयिता आचायं ब्रह्मगुप्त ने उसकी कोई चर्चा ही नहीं की । इस चर्चा न करने का कोई कारण भी समझ में नहीं आता है। सूर्यसिद्धान्त के उदयास्ताधिकार में “अभिजिद् ब्रह्म हृदयं स्वाती वैष्णव वासवाः ” इत्यादि से भगवान् सूर्य को सदोदित नक्षत्र बतलाया गया हैं। इस श्लोक की सुधार्वार्षिणीं टीका में जी देशज्ञानं बिना सदोदितनक्षत्राणां ज्ञानं न भवति, निरक्षे च सौम्य श्रवोऽप्य दृश्योऽतः केनचिदू गोलानभिज्ञेनायं श्लोक प्रक्षिप्त इति लिखा गया है, सो ठीक नहीं है । श्राद्यन्तकालयोर्मध्यः कालोज्ञ योऽतिदारुणः । प्रज्वलज्ज्वलनाकारः सर्वकर्मसु गर्हितः ।। यावदर्केन्द्वोर्मण्डलान्तरम् । सम्भवस्तावदेवास्य सर्वकर्म विनाशकृत् स्नानदानजपश्राद्धव्रतहोमादिकर्मभि प्राप्यते सुमहच्छयस्तत्कालज्ञानतस्तथा । इत्यादि से पातस्थितिकाल सब कमों का विनाशकारक कहा गया है। प्रातकाल में स्नान, दान, जप,श्राद्ध, ब्रत, होम आदि कायों से लोग कल्याण लाभ करते हैं। तथा-- रवीन्द्वोस्तुल्यता कान्त्योर्विषुवत्सन्निधौ यदा । द्विर्भवेद्धि तदा पातः स्यादभावो विपर्ययात् ।। से अपूर्व विषयों का प्रति पादन हुआ है । अर्थात् रविगोल-संधि सभीप में जब रवि और चन्द्र का क्रान्तिसाम्य हो तब अल्प समय में ही दो बार पात होता है । जब रवि की अयनसन्धि समीप में क्रान्ति साम्याभाव होता तब बहुत कालपर्यन्त क्रान्ति साभ्याभाव होता है, ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त में भी पालस्थिति काल फल सूर्य सिद्धान्त में कथित के अनु ( २५ ) ही कहा गया है । श्रीषेण, आर्यभट तथा विष्णुचन्द्र के विषय में संक्षेरूप से पहले लिख चुके हैं ! इलाहाबाद विश्वविद्यालय के रसायन विभाग के अध्यक्ष डाक्टर सत्य प्रकाश जी डी. एस. सी महोदय का मैं अत्यन्त अनुगृहीत हूं, जिन्होंने आंगल भाषा में इस ग्रन्थ की प्रस्तावना लिख कर कृतार्थ किया । सम्पादक मण्डल के अन्य सहयोगी ज्योतिषाचार्य श्री मुकुन्दमिश्र, श्री विश्वनाथ झा, श्री दयाशंकर दीक्षित एवं श्री ओोंदत्तशम शास्त्री एम. ए. एम. ओील. भी धन्यवाद के पात्र हैं जिनके सहयोग के बिना इस महान् ग्रन्थ का सम्पादन अति कठिन था । नव प्रिंटर्स पद्म श्री प्रकाशन के स्वामी श्री रमेशचन्द्र जी का परिश्रम भी सराहनीय है। इसके अतिरिक्त उन सभी लोगों के प्रति मैं अपना हार्दिक आभार प्रदर्शन करता हूं जिन्होंने अल्पमात्र भी सहयोग देकर मुझे कृतार्थ किया । भृगु-आश्रम ३०-३-१९६६ } विदुषामनुचर १७. श्रृंगोन्नत्युत्राध्यायः विषयानुक्रमणिका प्रश्नकथनम् परिलेखकथनम् प्रकारान्तरेण परिलेखकथनम् फलके परिलेखकथनम् विशेषकथनम् १८• कुट्टकाध्यायः कुट्टकारंभप्रयोजनम् कुट्टकादीनां प्रशंसाकथनम् कुट्टककथनम् कुट्टके विशेषकथनम् भगणादिशेषतोऽहर्गणानयनम् विशेषकथनम स्थिरकुट्टककथनम् स्थिरकुट्टकादहर्गणकथनम् स्थिरकुट्टके विशेषकथनम् लोमगणितकथनम् प्रश्नकथनम् अन्यप्रश्नकथनम् अन्य प्रश्नकथनम् पूर्वप्रश्नोत्तरकथनम अपरप्रश्नकथनम् पूर्वप्रश्नस्योत्तरकथनम् ११३६-४६ ११४९१-२९.१ ११३९. ११३९. ११४३ ११४४ ११४५ ११४६ ११४९. ११४९ ११५० ११५५ ११५६ ११५९ ११६१ ११६३ ११६९ ११७१ ११७२ ११७४ ११७५ ११७६ ११७६ ११७७ ११७७ विशेषकथनमा अन्यप्रश्नकथनम् पूर्वप्रश्नस्योत्तरकथनम् अन्यप्रश्नकथनम् अन्यप्रश्नकथनम् धनर्णशून्यानां सङ्कलनम् गुणने करणसूत्रकथनम् भागहारे करणसूत्रद्वयकथनम् समद्विबाहुत्रिभुजे भुजयोर्वर्णनम् करणीयोगान्तरे गुणनकथनम् करणभागहारे करणसूत्रकथनम् करण ीमूलानयनार्थकथनम् अव्यक्तसंकलित यवकलि तयोः करणसूत्रकथनम् अव्यक्तगुणने सूत्रकथनम् वर्गसमीकरणकथनम् वर्गसमीकरणेऽयक्तमानानयनम् अन्यप्रश्नकथनम् अन्यप्रश्नकथनम् अनेकवरणेसमीकरणम् प्रश्नकथनम अन्यप्रश्नकथनम् अन्यप्रश्ननिरूपणम् अन्यप्रश्नकथनम् अन्यप्रश्नद्वयस्थापनम् प्रन्यप्र अन्यप्रश्नकथनम् ११८० ११८१ ११८६ ११८९ ११९० ११९२ ११९३ ११९४ ११९६ ११९८ १२० १ १२०२ १२०४ १२०५ १२०७ १२०८ १२०९ १२११ १२१२ १२१३ १२१४ १२१५ १२१७ १२१८ १२२१ १२२३ १२२४ ६२२५ १२२७ १२३१ भावितविषये सूत्रम् प्रश्ननिरूपणम् भाविते प्रकारान्तरकथनम् वज्त्राभ्यासतोऽनेककनिष्ठज्येष्ठानयनम् भाविते विशेषकथनम् चतुःक्षेपकनिष्ठज्येष्ठाभ्यां रूपक्षेपे कनिष्ठज्येष्ठानयनमः ऋणात्मकचतुःक्षेपकनिष्ठज्येष्ठाभ्याँ रूपक्षेपे कनिष्ठज्येष्ठानयनम् वर्गात्मकप्रकृतौ कनिष्ठज्येष्ठानयनम् प्रश्नविशेषस्योत्तरकथनम प्रश्नान्तरविशेषस्योत्तरकथनम प्रश्नान्तरविशेषस्योत्तरकथनम अन्यप्रश्नकथनम अन्यप्रश्नद्वयनिरूपणम प्रश्नद्वयनिरूपणम उद्दिष्टाहर्गणे ये ग्रहयोर्भगणादिशेषे ते पुनः कस्मिन्नहर्गणे इत्यस्योत्तरकथनम् अन्यप्रश्नकथनम प्रथम प्रश्नस्योत्तरकथनम अवमशेषात् तिथ्यानयनम सोत्तरं प्रदनान्तरकथनम सोत्तरं प्रश्नान्तरकथनम शेषयोर्वर्गयोगकथनमः योगाम्यां च तयो रानयनम प्रश्नान्तरस्योत्तरकथन १२३२ १२३५ १२३६ १२३८ १२४० १२४१ १२४३ १२४५ १२४८ १२५२ १२५३ १२५५ १२५८ १२६ १२६३ १२६४ १२६५ १२६७ १२६८ १२६8 १२७१ १२७३ १२७४ १२७४ १२७७ १२७८ १२८० १२८२ १२८४ १२८५ १२८७ १२८७ १२८८ अध्यायोपसंहारः कुच्छायादिज्ञानाध्यायः प्रथमप्रश्नकथनम अन्यप्रश्नस्थापनम् अन्यप्रश्ननिरूपणम अन्यप्रश्नस्थापनम. प्रश्न न्म २०० छन्दश्चित्युचाराध्यायः १२8५-१३१५ १२ && प्रथमप्रश्नस्योत्तरकथनम् उदयान्तर-प्रस्तान्तरघटिकाभिरितिप्रश्नद्वयस्योत्तरकथनम १३०१ मध्यगतेरन्तरसाधनं तदुत्तरकथनंच १३०२ रविशशाङ्कमाननिरूपणम १३०२ दीपशिखौच्याच्छंकुतलांतरभूमिज्ञाने छायानयनस्योत्तरकथनमः १३०४ छाया द्वितीयभाग्रान्तरविज्ञानेनेत्यादिप्रश्नोत्तरकथनम् १३०५ छायातो गृहादीनामौच्यानयनम् १३०८ इष्टगृहौच्यज्ञो यइतिप्रश्नस्योत्तरसम्पादनम . गृहपुरुषान्तरसलिले यो दृष्ट्वेत्यादि प्रश्नोत्तरकथनम् १३१ बीक्ष्य गृहाग्रं सलिले प्रसार्थेति प्रश्नोत्तरकथनम् १३११ १३१४ १३१8-२० १२९०७ १२९१ १२९९५. १३०९ गोलाध्याय १३२३-१४१६ १३२४ भूगालसस्थानकथनम् देवासुरसंस्थानवर्णनम् देवदैत्ययोर्भचक्रभ्रमणव्यवस्थापनम् १३२७ चक्रभ्रमरणव्यवस्थाकथनम् दैवादीनां रविभ्रमणस्थितिवर्णनम् १३२८ देवदैत्ययोः राशिसंस्थानम १३२६. देवदैत्ययो: पितृमानवयोश्च दिनप्रमाणनिरूपणम् भूगोले लङ्कावन्त्योः संस्थानम् १३३४ निरक्षस्वदेशान्तरयोजनाकथनम् १३३६ १३३७ १३२५ १३२८ १३३० कियद्योजनभ्रमणमितिकथनम् शनैश्चराद्यानां शीघ्रत्वकारणकथनम् परिधेव्यसानयनम वृत्तपरिधेव्यसस्य प्रतिपादनम् गणितेन ज्याधनियनम् अधशज्यानयनम् विशेषकथनम् प्रकारान्तरेणार्धाशज्यानयनम् स्पष्टीकरणे छेद्यककथनम् नीचोच्चवृत्तभङ्गिकथनम् नीचोच्चवृत्तभङ्गया शीघ्रफलसाधनम् ग्रहणे राहोरदर्शनकथनम् अत्र निर्गलितार्थकथनम् पूर्वापरयाम्योत्तरक्षितिजवृत्तकथनम् उन्मण्डलसंस्थाननिरूपणम् विषुवन्मण्डलससंस्थानकथनम् अक्रान्तिमण्डलसंस्थानदर्शनम् विमण्डलानां कथनम् डग्मण्डलाभिनिवेशकथनम् टक्क्ष पवृत्तकथनम् ३: , १३४० १३४४
- १३४५
१३४८ १३५२ १३५३ १३५५ १३५९ विशेषकथनम् १३७१ स्फुटयोजनात्मककरणनियनम् भूरविचन्द्राणां योजनव्यासकथनम् १३७३ भूभाबिम्बानयनम् कलात्मकबिम्बकथनम् १३८० छादकनिरूपणम् १३८२ राहुकृतं रवीन्द्वोर्नग्रहणमिति वराहमिहिरादीनां मतप्रतिपादनम् १३८५ संहितामतेन वराहादीनां निराकरणम् १३८६ लोकप्रथाप्रतिपादनम् १३८७ राहुकृतं ग्रहणमित्यत्र स्मृतिवाक्यम् १३८७ राहुकृतग्रहणे वेदवाक्यम् १३८८ स्वोक्तिप्रदर्शनम् १३८८ १३६६ १३९१ १३९१ १३९४ चराग्रयोः संस्थानकथनम् शंकुदृग्ज्ययोः संस्थानकथनम् प्रकारान्तरण तयाः सस्थान २ाकुतलस्य च कथनम् दृग्गोलस्य दृश्यादृश्यत्वं लम्बनावनत्युत्पत्तौ च कारणदर्शनम् क्षगोलयोः स्थिरवृत्तकथनम् ग्रहाणां चलवृत्तकथनम अध्यायोपसंहार २२. यन्त्राध्यायः गोलप्रशंसाकथनम् स्वगोलग्रथने कारणाम गणितगोलयोः प्रशंसाकथनम् यन्त्रारम्भप्रयोजनकथनम् तन्त्रारणा प्रातपादनम् सलिलादीनां प्रयोजनकथनम् धनुयन्त्रकथनम् सूर्याभिमुखे यन्त्रधारणम् इष्टघटिकायाः धनुषश्चस्वरूपकथनम् यन्त्रेरणा नृतोन्नतकालज्ञानम यन्त्रादेव नतोन्नकालज्ञानम् धनुर्यन्त्रे विशेषकथनम् तुर्यगोलप्रतिपादनम् यष्ट्या शंक्वादिकथनम् प्रकारान्तरेण घटिकानयनम् यष्टियन्त्रेण वेधेन रवि चन्द्रान्तररांशकथनम् प्रकारान्तरेणांशानयनम् यष्टियन्त्रेण दिक्साधनम् भुजकोटिसाधनकथनम् यष्टियन्त्रेण पलभाज्ञानम् भुजद्वयतः पलभाज्ञानम् १४०० १४०२ १४०६ १४०६ १४०७ १४०९ १४१० १४१२ १४१५ १४१५ १४१६ १४१९ १४२ १४२० १४२१ १४२३ १४२६ १४२७ १४२८ १४३० १४३१ १४३२ १४३३ १४३५ १४३८ १४४२ १४४६ १४४६ १४४९ १४५० १४५२ १४५३ १४५४ . रविज्ञानकथनम् यष्टया गृहाद्यौच्यानयनम् प्रकारान्तरेण गृहादौच्यानयनम् गृहादिमूलभेदेन भूमिज्ञानम् भूमिज्ञाने वंशौच्यज्ञानम् प्रकारान्तरेण भूम्यौच्चानयनम् प्रकारान्तरेण गृहौच्यानयनम् परमतस्य खण्डनम् शकुयन्त्ररण कालज्ञानम् घटीयन्त्रकथनम् कपालयन्त्रकथनम् पीठयन्त्रकथनम् यन्त्रान्तरकथनम् पुनयन्त्रान्तरकथनम विशेषकथनम् पुनर्विशेषकथनम स्वयवहयन्त्रवरणनम् पुनर्विशेषकथनमः अध्यायोपसंहार २३. मानाध्यायः पदार्थानां मानकथनम् मानानां नामकथनम् विशेषकथनम् नक्षत्रसावनप्रशासनम नवमानवणनम् ऋतुवर्णनम् भूभादध्य भूभामानकथनम् प्रकारान्तरेण तत्साधनमः प्रकारान्तरेण भूभामानकथनम् अध्यायोपसंहार १४५५ १४५७ १४५७. १४६२ १४६२ १४६५ १४७० १४७१ १४७२ १४७४ १४७६ १४७७ १४८० १४८२ १४८४ १४८५ १४८७ १४९१ १४९५ '१४९६ १५७३ १५०४ १५०५ १५०७ १५०८ २४. साध्यायः प्रारम्भप्रयोजनकथनम एकसिद्धान्तवर्णनम् सूर्यसिद्धान्तादीनां भिन्नत्वकथनम सिद्धान्तस्योत्तराधेऽध्यायसंख्यावर्णनम करणग्रन्थवत् गणितलाघवेन फलसाधनं नेति कारणवर्णनम ग्रन्थे श्लोकसंख्याकथनमम् सूर्यग्रहणे चन्द्रशङ्कोरभावप्रतिपादनम अध्यायोपसंहार ध्यानग्रहोघदेशाध्यायः चैत्रादौ मासगणानयनम चैत्रादौ दिनादिकं तिथिश्ध्रुवसाधनकथनम् चन्द्रकन्द्रसाधनम इष्टमासादौ रव्यानयनमः प्रतिमासं शशिकेन्द्र तिथिाध्रुवक्षेपयोः कथनम प्रतिदिनचालनकथनमः चन्द्ररव्योः साधनम रविचन्द्रकेन्द्राणां राशिमानुकथनम. ज्याखण्डकेन्द्रज्यासाधनयोः कथनम रविचन्द्रयोः मन्दफलानयनमः चन्द्र भुजफलसंस्कारकथनम तिथौ फलसंस्कारकथनमः केन्द्रत एव तिथिसंस्कारयोग्यमन्दफलकथनम भौमसाधनम बुधशीघ्रानयनम १५१५ १५१६ १५१८ १५१८ १५१९ १५२० १५२१ १५२१ १५२१ १५२३ १५२७-१५8.८ १५२७ १५२९ १५३० १५३२ १५३३ १५३५ १५३५ १५३७ १५३६ १५४० १५४४ १५४७ १५४९ १५५ १५५० १५५२ गुरोरानयम ग्रहानयने विशेषकथनम प्रकारान्तरेण भौमानयनम् बुधानयनम गुरुशनिराह्वानयनम भौमादीनां मन्दोच्चांशकथनमः भौमादीनां मन्दफलानयन्म स्फुटग्रहार्थ संस्कारकथनम विश्वमिते गतपिण्डे विशेषकथनमः भौमस्य चतुर्दशपिण्डकथनमः बुधपिण्डकथनम् गुरोः पिण्डकथनम् शुक्रस्य पिण्डकथनम शनिपिण्डकथनम भौमादीनां मध्यमृदुगतिवर्णनम चरखण्डवर्णनम् दिनरात्रिमानकथनम् इष्टकालिकग्रहवर्णनम् १५५५ १५५८ १५६ १५६२ १५६४ १५६६ १५६८ १५७० १५७१ १५७२ १२७३ १५७३ १५७४ १५७५ १५७८ १५८० १५८५ १५९२ १५8३ इष्टकाले स्थूलछायाकर्णयोश्च वर्णनम. अध्यायोपसंहारः कस्मै न दातव्यमितिकथनम परिशिष्ट ध्यानग्रहोपदेशाध्याये क्षेपसाधनम् गोलाध्यायः-वासनाभाष्यम् अकारादिक्रमेण श्लोकानुक्रमणिका १५९५ १५९६ १५९७ १८५९७ १५६८ १५९८-१६०८ १६०९-१६५१ १६५२-१६६७ ब्रहस्टभिडन्तः अन्नन्दुराध्यः ब्राह्मरुपफटसिद्धान्तः अथ शृङ्गोन्नत्युत्तराध्यायः प्रारभ्यते । अथ प्रश्नमाह । भुजकोटिकर्णशशिमानशुक्लसितसूत्रपरिलेखात् । प्रतिदिवसं प्रतिघटिक यो वेत्ति स तन्त्रहृदयज्ञ ॥१॥ सु. भा-शृङ्गोन्नतौ प्रतिदिवसं वा प्रतिघटिक यो भुजं कोटिं कर्ण शशि माने चन्द्रबिम्बे शुल्क सितसूत्रं स्वभासूत्रं परिलेखं च वेत्ति स एव तन्त्रहृदयज्ञः सिद्धान्तग्रन्थमर्मज्ञ इति ।। १ ।। वि. भा-प्रतिदिनं प्रतिघटिकं भुज कोटिं कर्ण चन्द्रबिम्बे शुक्लं सितसूत्र (स्वभासूत्रं) परिलेखं च शृङ्गोन्नतौ यो जानाति स सिद्धान्तग्रन्थमर्मज्ञ इति । शृङ्गोन्नत्यधिकारे पूर्व भुजादयः साधिता एवातः परिलेखमत्र कथयूति ॥१॥ अब शृङ्गोन्नत्युत्तराध्याय प्रारम्भ किया जाता है। अब प्रश्न को कहते हैं । हेि. भा-प्रत्येक दिन में प्रत्येक घटी में भुज-कोटि-करणों को चन्द्रबिम्ब में शुक्ल को, स्वभा सूत्र को, परिलेख को, शृङ्गोन्नति में जो जानते हैं वे सिद्धान्तग्रन्थ के मर्मज्ञ हैं इति । शृङ्गोन्नत्यधिकार में पहले भुजादि साधित ही हैं। इसलिये यहां परिलेख ही को कहते हैं ।१।। इदानीं परिलेखमाह । प्राच्यपरा विगभिमुखं शुक्लेतरपक्षयोर्लिखे भूमौ । अपवत्यैकेनेष्टेन राशिना कोटिभुजेकणन् ॥२॥ ११४० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते परिकल्प्यार्क बिन्दु तस्माद्वाहुं यथादिशं दत्त्वा । बाह्वागूत् प्राच्यपरां कोटिं तिर्यक् स्थितं कर्णम् ॥३॥ करणग्रि चन्द्रमसं परिलिख्य सितं प्रवेश्य करणेन । शशिबिम्बे शुक्लागूात् परिलेखसमेन सूत्रेण ॥४॥ कर्णभतिस्थे नैशेो शुक्ले परिलिख्य पश्चिमाभिमुखम् । राशिषु मेषतुलादिषु संशोध्य दिवाकरं चन्द्रात् ॥५॥ पूर्वाभिमुखं कर्कटमकरादिषु भवति शुक्लसंस्थानम् । एवं वा संस्थानं परिलिख्येन्दु प्रसाध्य दिशिः ॥६॥ पु. मा.-एकेनेष्टेन राशिना प्रथमं कोटिभुजकणनपवत्र्य भूमौ शुक्लकृष्ण पक्षयोः प्राच्यपरादिगभिमुखं लिखेत् । कथं लिखेदित्याह-परिकल्प्यार्क बिन्दु मिति-इष्टं बिन्दुमर्क परिकल्प्य तस्माद्यथादिशं बाहु बाह्वग्राद्यथादिशं प्राच्यपरां कोटिं तयोर्मध्ये तिर्यक् करणं च दत्त्वा कर्णाग्रे चन्द्रमसं परिलिख्य तत्र करणेन करणैमार्गेण शशिबिम्बे सितं शुक्लं प्रवेश्य दत्त्वा ततः शुक्लाग्रात् परिलेखसमेन सूत्रेण स्वभासमेन मानेन कणऽङ्कनं कृत्वा तत् केन्द्रात् स्वभया वृत्तं परिलिख्य कर्णगतिस्थे नैशे रात्रिसम्बन्धिनि शुक्ले शुक्लसंस्थानं भवति । शुक्लागू कस्यां दिशि कर्णसूत्रे दत्त्वा परिलेखं कुर्यादित्याशङ्कयाह राशिषु मेषतुलादिष्विति । चन्द्राद्दिवाकरं विशोध्य शेषं कार्यम् । मेषादिराशित्रये तुलादिराशित्रये च शेषे पश्चिमाभिमुखं कर्कटादिरराशित्रये मकररादिरराशित्रये च शेषे पूर्वाभिमुखं शुक्लं देयमिति । एवं वा संस्थानमित्यस्याग संबंधः । अत्रोपपत्तिः । ‘यद्याम्योदकतपनशशिनोरन्तरं सोऽत्र बाहुः’-इत्यादिना ‘सूत्रेण बिम्बमुडुपस्य षडङ्गुलेन'-इत्यादिना च भास्करविधानेन ज्ञेया । यदा ऽन्तरं राशित्रयाल्पं तदा शुक्लमानं च चन्द्रबिम्बाधदिल्पमतः शुक्लाङ गुलं पश्चिमाभिमुखं कर्णसूत्रे दत्त्वा तस्मात् स्वभासूत्रेण परिलेखवृत्ते कृते शुक्लेन्दु खण्डाकृतिरुत्पद्यते । यदा तदन्तरं तुलादित्रये तदा कृष्णं बिम्बाधदल्पं तद्वशेनापि पश्चिमाभिमुखं युक्तम् । एवं कर्कटादित्रयेऽपि कृष्णेन्दुखण्डाकृतिर्मकरादिषु च मासस्य तुर्यचरणे शुक्लश्शृङ्गोन्नतिरुत्पद्यते तत्र पूर्वाभिमुखं शुक्ल संस्थानं भवति । अत्र का का स्थलता वास्तवपरिलेखसाधनं च कथमित्येतदर्थ मत्कृता वास्तवचन्द्र शृङ्गोन्नतिद्रष्टव्या ।। २-६ ।। वि. भा-एकेनेष्टेन राशिना कोटिभुजकणनिपवत्र्य भूमौ शुक्लकृष्ण पक्षयोः पूर्वापरदिगभिमुखं लिखेत्, कथं लिखेदिति कथयति । इष्ट बिन्दुरविं परि कल्प्य तस्माद्भुजं दत्वा भुजाग्राब्रथा दिशं पूर्वोपरां कोटिं तयोर्मध्ये तिर्यक् कर्णच दत्वा कर्णाग्रे चन्द्रबिम्बं विलिख्य तत्र कर्णमार्गेण चन्द्रबिम्बे शुक्लं दत्वा शुक्ला शृङ्गोन्नत्युत्तराध्याय स्या सम्बन्धः । ग्रात् परिलेखतुल्येन सूत्रेण (स्वभा) समेन मानेन करणेऽङ्कनं कृत्वा तत्केन्द्रात् स्वभया वृत्तं परिलिख्य कर्णगतिस्थे रात्रिसम्बन्धिनि शुक्ले शुक्ल संस्थानं भवति शुक्लाग्र कस्यां दिशि कर्णसूत्रे दत्वा परिलेखं कुर्यादित्याह। चन्द्रात्सूर्य विशोध्य शेष ग्राह्यम् । मेषादिराशित्रये तुलादिराशिन्नये व शेषे पश्चिमाभिमुखं कर्कटादिराशित्र ये मकरादिराशित्रये च शेषे पूर्वाभिमुखं शुक्लं देयमिति । एवं वा संस्थान मित्य ११४१ यदा रविचन्द्रयोरन्तरं राशित्रयाल्पं तदा शुक्लमानं च चन्द्र बिम्बाधदिल्पमत शुक्लाङ्गुलं कर्णसूत्रे पश्मिाभिमुखं दत्वा तस्मात् स्वभासूत्रेण परिलेखवृत्ते कृते शुक्लचद्र खण्डाकृतिजयिते । यदा तदन्तरंतुलादिराशित्रये तदा कृष्णं बिम्बाधदल्पं तद्वशेनापि पश्चिमाभिमुखं युक्तम् । एवं कर्कटादित्रयेऽपि कृष्णचन्द्रखण्डाकृति मकरादिषु मासस्य चतुर्थचरणे शुक्लश्रृंङ्गोन्नतिरुत्पद्यते तत्र पूर्वाभिमुखं शुक्ल संस्थानं भवतीति । सिद्धान्तशेखरे “आदशदरसोदरेऽवनितले बिन्दु प्रकल्योष्णगु स्वाशायां भुजमुत्तरेतरदिशं कोटिं तदग्रात्तत प्राकचन्द्रोऽपरदिङ्मखीमपरगे पूर्वायतां दापयेत् दोः कोट्यग्रगतां श्रुति शशिवपुः कोटिश्रवः संयुतौ । शुक्लं च श्रुति सूत्रगाम्यपरतः शुक्लेऽसिते पूर्वतः कृष्णं व्यत्ययतोऽल्पकेन कृतयोः कार्य परी लेखनम् । शुक्लाग्रात् परिलेखसूत्रविहिते वृत्तम्रमे जायते संस्थानं नभसः स्थले प्रतिदिशं चण्डीशचूड़ामणेः ॥” अस्यार्थ :-आनीतं शुक्लमानं शुक्लपक्षे पश्चिम ' मध्ये न्यूनपरिमाणेन परिलेखनं कार्यम् । शुक्लकृष्णयोर्मध्ये योऽल्पस्तेनैव शृङ्गोन्न तिज्ञानार्थ परिलेखः कर्तव्य इति । शुक्लाग्रात् परिलेखसूत्रेण कृते वृत्ते चन्द्रस्य प्रतिदिशमाकाशस्य संस्थानं भूमौ ज्ञायते । शिष्यधीवृद्धिद तन्त्रे “यचिह्न समभुवि भानुमान् स तस्मात् दातव्यः स्वदिशि भुजस्ततोऽपि कोटिः। प्रागिन्दावपरककुप्मुखी प्रतीच्यां प्रागग्रा दिनकरचिह्नतश्च कर्णः । श्रवणकोटियुतौ शशिमण्डलं श्रवणसूत्र मिहापरपूर्वकम् । झषवशेन च शेषदिशौ ततः खटिकया सुपरिस्फुटमालिखेत् ।। अपरतः श्रवणेन सितं नयेदसितमप्यसिते सितदीधितौ । धनददिग्भवदक्षिण दिग्भवैः परिधिभिर्जनयेच्च झषद्वयम् ॥ तिमिभवमुखपुच्छसक्तरज्ज्वोर्भवति च यत्र समागमः प्रदेशे । तत उडुपतिशुक्लचिन्हलग्नं समभिलिखेत् सितसिद्धये सुवृत्तम् ।।' लल्लोक्त प्रकार ईदृशोऽस्ति । सर्वेषां ब्रह्मगुप्त-लल्ल-श्रीपति-भास्करा चार्याणां शृङ्गोन्नति परिलेखः समान एव । सूर्य सिद्धान्ते “दत्वाऽर्क संज्ञितं बिन्दु ततो बाहु स्वदिङ्मुखम् । ततः पश्चान्मुखीं कोटिं कर्ण कोट्यग्रमध्यगम् ।। कोटिः कर्ण युताद्विन्दोबिम्बं तात्कालिकं लिखेत् । कर्णसूत्रेण दिक् सिद्धिं प्रथमं परिकल्प ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते येत् । शुक्लं कर्णेन तद्विम्बयोगादन्तमुखं नयेत् । शुक्लाग्रयाम्योत्तरयोर्मध्ये मत्स्यौ प्रसाधयेत् । तन्मध्यसूत्रसंयोगाद्विन्दुत्रिस्पृग् लिखेद्धनुः । प्रागुबिम्बं यादृगेव स्यात् तादृक् तत्र दिने शशी । कोट्यादिक् साधनात् तिर्यक् सूत्रान्ते शृङ्ग मुन्नतम् । दर्शयेदुन्नतां कोटिं कृत्वा चन्द्रस्य साकृतिः ॥ कृष्णेषड्भयुतं सूर्य विशो ध्येन्दोस्तथा सितम् । दद्याद्वामं भुजं तत्र पश्चिमं मण्डलं विधोः ।।” ईदृशः परिलेख विधिरस्ति । अत्रोपपत्तिः । रविकेन्द्राद्याम्योत्तरवृत्तधरातले लम्बं कृत्वा लम्बमूले रविः कल्पितः । एवं चन्द्रकेन्द्राद्याम्योत्तरवृत्तधरातले यो लम्बस्तन्मूले चन्द्रः क्रल्पितः। ततो याम्योत्तर वृत्तधरातले कल्पितरविचन्द्रयोर्याम्योत्तरमन्तरं तद् भुजयोः संस्कारात् स्पष्ट भुजतुल्यम् । सूर्यस्यास्तकाले क्षितिजे स्थितत्वात् कल्पितरवियाम्योत्तरवृत्तधरातले याम्योत्तररेखायामेव भविष्यत्यतस्तयोरूध्र्वाधरमन्तरं कोटिरूपं चन्द्रशङ्कुसमम् । तत्र परिलेखे लाघवार्थ शङ्कुद्वादशांशेन शङ्कुभुजस्तद्वर्गयोगमूलसमः कर्णश्चा पबत्तितः । अतो रविबिन्दुतो भुजं दत्वा तदग्रादूध्र्वाधररूपां कोटिं दत्वा कोटयग्र रविबिन्दुगतं कर्णसूत्र दत्तम् । कोटयग्रे कल्पितचन्द्रबिम्बं तत्र कल्पितरविः कणमागरण शुक्लं ददाति । अतस्तत्सूत्रे शुक्लं दत्तम् । कर्णरेखोपरि या याम्योत्तरा तिर्यग्रेखा तया छिन्नमर्ध बिम्बं रविणा शुक्लं भवति । अतो दृश्यवृत्ते तत्प्रान्तयोश्च शुक्लम् । अतस्तद्विन्दुत्रयोपरिगतेन वृत्तखण्डेन चन्द्रखण्डाकृतिरुत्पद्यते । अत्र कोट्यूध्वर्वाधररेखोपरि या तिर्यग्रेखा तद्वशतो भुजान्यदिशि शृङ्गमुन्नतं भवति । एवमेव परिलेखो' भास्कराचार्यस्याप्यस्ति । परन्तु केषामपि प्राचीनाचार्याणां शृङ्गोन्नतिपरिलेख: समीचीनो नास्तीति॥२-६॥ अब परिलेख को कहते हैं । हेि. भा.-एक किसी इष्ट राशि से भुज कोटि और कर्ण को अपवर्तन देकर भूमि में शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष में पूर्व पश्चिम दिशा की तरफ लिखना चाहिये । कैसे लिखना चाहिये सो कहते हैं। इष्ट बिन्दु को रवि कल्पना कर उससे भुज देकर भुजाग्र से यथादिक् पूर्वापर कोटि देकर उन दोनों के मध्य में तिर्यक् कर्ण को देकर कर्ण में चन्द्र को लिखकर वहाँ कर्णमार्ग से चन्द्रबिम्ब में शुक्ल देकर शुक्लाग्र से परिलेख तुल्य सूत्र (स्वभातुल्यसूत्र) से कर्ण में अङ्कित कर उस बिन्दु को केन्द्रमान कर स्वभाव्यासार्ध से वृत्त लिखकर कर्णगतिस्थ रात्रि सम्बन्धी शुक्ल में शुक्ल संस्थान होता है । . कर्ण सूत्र में शुक्लाग्र को किस दिशा में देकर पंरिलेख करना चाहिये सो कहते हैं। वन्द्र में सूर्य को घटा कर जो शेष रहे उसको ग्रहण करना चाहिये । मेषादि तीन राशियों में और तुलादि तीन राशियों में शेष में पश्चिमाभिमुख शुक्ल देना चाहिये । तथा कर्कटादि तीन राशियों में और मकररादि तीन राशियों में शेष में पूर्वाभिमुख शुक्ल देना चाहिये ।। इति । शृङ्गोन्नत्युत्तराध्याय उपपत्ति । ११४३ जब रवि और चन्द्र का अन्तर तीन राशि से अल्प होता है तब शुक्लमान भी चन्द्र बिम्बार्ध से अल्प होता है अत: कर्ण सूत्र में शुक्लाङ्गुल को पश्चिमाभिमुख देकर वहां से स्वभासूत्र व्यासार्ध से परिलेख वृत्त करने से शुक्ल चन्द्रखण्डाकृति बनती है । जब वह अन्तर तुलादि तीन राशि में हो तब कृष्ण बिम्बर्धाल्प होता है उसके वश से पश्चिमाभिमुख युक्त है। एवं कक्यदि तीन राशियों में भी कृष्णचन्द्र खण्डाकृति होती है। मकररादि तीन राशियों में मास के चतुर्थचरण में शुक्ल शृङ्गोन्नति बनती है। वहां पूर्वाभिमुख शुक्ल संस्थान होता है। सिद्धान्त शेखर में ‘श्रादशदर सोदरेऽवनितले बिन्दु प्रकल्प्योष्णगु स्वाशायां' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से श्रीपति ने परिलेख प्रकार लिखा है । शिष्यधीवृद्धिद तन्त्र में ‘यच्चिह्न समभुवि भानुमान् स तस्मात् दातव्यः स्वदिशि भुजः’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोकों से लल्लाचार्योक्त प्रकार भी आचार्यो (ब्रह्मगुप्त)क्त प्रकार और श्रीपत्युक्त प्रकार तथा भास्करोक्त शृङ्गोन्नति प्रकार के समान ही है । सूर्य सिद्धान्त में ‘दत्वाऽर्क संज्ञितं बिन्दु ततो बाहु स्वदिङ मुखम्' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोकों से सूर्य सिद्धान्तकार ने परिलेख प्रकार लिखा है इसी तरह के परिलेख भास्करोक्त भी हैं लेकिन कोई भी प्राचीनाचार्योक्त प्रकार समीचीन नहीं है इति ॥२-६॥ इदानीं प्रकारान्तरेण परिलेखमाह । बाहुज्येन्दुदलगुणा कर्णबिभक्ता भुजान्यदिक् चन्द्र । करणभुजाग्रतश्चन्द्रमध्यतः पूर्ववच्छेषम् ॥७॥ सु. भा.-वा एवं वक्ष्यमाणं संस्थानं शुक्लसस्थानं ज्ञेयं । अभीष्टस्थाने केन्द्र प्रकल्प्य चन्द्रबिम्बं परिलिख्य दिशश्च प्रसाध्य ततः पूर्वश्ङ्गोन्नत्यध्यायविधिना बाहुज्या भुजा साध्या सा चन्द्रदलेन चन्द्रबिम्बाधेन गुणा कर्णेन विभक्ता सा चन्द्र चन्द्रबिम्बेऽन्यदिक् भुजा भवति । ततश्चन्द्रमध्यतश्चन्द्र केन्द्राद्भुजायतश्च कर्णसंस्थानं ज्ञेयम् । ज्ञाते कर्ण'संस्थाने शेषं पूर्ववत् ज्ञेयम् । अत्रोपपत्तिः । अत्र रवेर्यद्दिक् चन्द्रः स प्रथमं भुजः साधितो भुजाग्राञ्चन्द्र केन्द्रगता रेखा कोटिः । कोटिसूत्रमेव चन्द्रबिम्बे पूर्वापररेखा । कर्णसूत्रं च चन्द्र बिम्बपरिधौ कोटिसूत्राद् भुजविपरीतदिशि लग्नं तत्स्थानज्ञानार्थ चन्द्रबिम्बाधे भुज परिणीतस्ततः कर्णसंस्थानज्ञान सुगमम् ॥ ७ ॥ वि. भा-पूर्वोक्तपरिलेखश्लोकानामन्ते ‘एवं वा संस्थानम्’ इत्यस्ति एतस्यार्थ वा एवमग्रे कथितं शुक्लसंस्थानं बोध्यम् । इष्टस्थाने कमपि बिन्दु केन्द्र' मत्वा चन्द्रबिम्बं विलिख्य दिक्साधनं कृत्वा शृङ्गोन्नत्यध्यायोक्तविधिना भुजज्या (भुजा) साध्या सा चन्द्रबिम्बाधेन गुणा कर्णेन भक्ता तदा चन्द्र बिम्बेऽन्यदिक् ११४४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते भुजा भवति । ततश्चन्द्रकेन्द्राद् भुजाग्रतश्च कर्णसंस्थानं ज्ञेयम् । अवशिष्टं पूर्ववदेव बोद्धव्यम् । रवेर्यस्यां दिशि चन्द्रस्तत्र प्रथमंभुजः साधितः । भुजाग्राञ्चन्द्रबिम्बकेन्द्रग्रता रेखाकोटिः । इयमेव कोटिरेखा चन्द्रबिम्बे पूर्वापररेखा । कर्णसूत्रं च चन्द्रबिम्ब परिधौ कोटिसूत्राद् भुजविपरीतदिशि लग्नं तत्स्थानज्ञानार्थ चन्द्रबिम्बाधं भुजः परिणतः कृतस्ततः कर्णसंस्थानज्ञानं सुलभम् ॥७॥ अब प्रकारान्तर से परिलेख को कहते हैं । हेि. भा.-अभीष्ट स्थान में केन्द्र मान कर चद्र बिम्ब को लिखकर दिशाओं का ज्ञान करना चाहिये तब पूर्वश्ङ्गोन्नत्यध्यायोक्त विधि से भुजज्या साधन करना उसका चन्द्र बिम्बार्ध से गुणाकर कण से भाग देने से फल चन्द्र बिम्ब में अन्य दिशा की भुजज्या होती है। तब चन्द्र केन्द्र से और भुजाग्र से कर्ण संस्थान समझना चाहिये। अवशिष्ट विषय पूर्ववत् समझना चाहिये इति । रवि से जिस दिशा में चन्द्र है वहाँ पहले भुज साधित है। भुजाग्र से चन्द्रकेन्द्र गत रेखा कोटि है। कोटि रेखा ही चन्द्रबिम्ब में पूर्वापर रेखा है । कर्णसूत्र चन्द्रबिम्ब परिधि में कोटिसूत्र से भुज विपरीत दिशा में लगता है उस स्थान के ज्ञान के लिये बन्द्र बिम्बार्ध में भुज को परिणत किया गया, तब कर सस्थानज्ञान सुलभ ही है इति ॥७॥ इदानीं फलके परिलेखमाह । प्राच्यपरे विपरीते फलकेऽन्यत् सर्वमुक्तबच्छेषम् । शृङ्गोन्नतिपरिलेखाश्चत्वारः शीतकिरणस्य ॥८॥ सु. भा-फलके गृहणपरिलेखवत् प्राच्यपरे दिशौ विपरीते कायें । अन्य त्सर्वं शेषमवशिष्टं कर्मोक्तवत् कार्यम् । एवं शीतकिरणस्य चन्द्रस्य शृङ्गोन्नति परिलेखाश्चत्वारो भवन्ति । भूमौ प्रकारद्वयं तद्वशतः फलके प्रकारद्वयमिति चत्वार परिलेखप्रकारा भवन्तीति । अत्रोपपत्तिः । ग्रहण परिलेखवत् फलक परिवत्र्याकाशे संस्थाप्य सर्वा दिशो वास्तवा बोध्या इति ।। ८ ।। वि. भा.-फलके पर्वापरे दिशौ विपरीते कायें । अन्यत् सर्वं शेषं कमॉक्तवत् कर्त्तव्यम् । एवं चन्द्रस्य शृङ्गोन्नति परिलेखाश्चत्वारो भवन्ति । प्रकारद्वयं भूमौ तद्वशतः प्रकारद्वयं फलके इति परिलेखस्य चत्वारः प्रकारा भवन्तीति ॥ ११४५ पूर्व २-६ श्लोकोक्तपरिलेखोपपत्तौ सूर्यसिद्धान्तोक्तप्रकारो योऽस्ति स फलके परिलेखप्रकारोऽस्ति तेनैव फलके परिलेखचमत्कतिज्ञतव्येति ॥८॥ अब फलक में परिलेख को कहते हैं । हेि. भा.-फलक में पूर्वदिशा और पश्चिम दिशा को विपरीत करना चाहिये। अन्य सब अवशिष्ट कर्म पूर्ववत् करना चाहिये। इस तरह चन्द्र का शृङ्गोन्नतिपरिलेख चार प्रकार का होता है। दो प्रकार भूमि पर और उसके वश से दो प्रकार फलक पर ये चार प्रकार परिलेख के होते हैं इति । इदानीं विशेषमाह । ग्रहयोगेन्दुच्छायाग्रहोदयांमयभग्रहमुनीनाम् तत्क्रान्तिज्याप्रश्नोत्तराणि भग्रहयुतौ न पृथक, ॥९॥ सु. भा.-अत्र मध्यगति-स्पष्टगति-त्रिप्रश्न-ग्रहण-शृङ्गोन्नत्यध्यायेषु पंचस्वे वोत्तराधिकारा प्राचार्येणोक्ता अन्येषु किमु नेत्याशङ्कयाह-ग्रहयोगेन्दुच्छायेति ग्रहयोगो ग्रहयुतिः । इन्दुच्छाया चन्द्रच्छायासाधनम् । ग्रहोदयास्तमयाधिकारः । भानां गृहस्य लुब्धकस्य मुनेरगस्त्यस्य चोदयास्तादिसाधनम् । एतेषां तथा भगृह युत्यधिकारे च मया पृथक्-पृथक् तत्क्रान्तिज्या प्रश्नोत्तराणि तेषां क्रान्तिज्या दिभिर्ये प्रश्नास्तथोत्तराणि च नोक्तानि तत्प्रश्नोत्तराणां पूर्वप्रतिपादितपञ्चाध्याय प्रश्नोत्तरान्तर्गतत्वादित्याचार्याशय इति ॥ ९ ॥ वि. भा.-ग्रहयुतिः । चन्द्रच्छायासाधनम् । ग्रहाणामुदयास्ताधिकारः । नक्षत्राणां ग्रहस्य लुब्धकस्य मुनेरगस्त्यचोदयास्तादि साधनम् । एतेषां तथा भग्रह युत्यधिकारे पृथक् पृथक् तत् क्रान्तिज्या प्रश्नोत्तराणि तेषां क्रान्तिज्यादिभिर्ये प्रश्नास्तथोत्तराणि च न कथितानि, अधोलिखितपञ्चाध्यायप्रश्नोत्तरान्तर्गतत्वात् मध्यगति-स्पष्टगति-त्रिप्रश्न-ग्रहण-श्रृंङ्गोन्नत्यध्यायेषु पञ्चस्वेवोत्तराधिकारा प्राचार्येण कथिताः ॥९॥ अब विशेष कहते हैं। हेि. भा.-ग्रहयुति, चन्द्रच्छाया साधन, ग्रहों के उदयास्ताधिकार, नक्षत्रों के ग्रह के ११४६ लुब्धक मुनि, अगस्त्य के उदयास्तादि साधन । इन सबों के तथा भग्रहयुत्यधिकार में पृथक् पृथक् क्रान्तिज्यादि से प्रश्न और उत्तर नहीं कहा गया है, क्योंकि वे अधो लिखित पांच अध्यायों के प्रश्नोत्तरान्तर्गत है । मध्यगति-स्पष्टगति-त्रिप्रश्न-ग्रहण-शृङ्गोन्नति इन पांच अध्यायों में ही उत्तराधिकार को प्राचार्य ने कहा है इति ॥९॥ इदा नीमध्यायोपसंहारमाह । इति परिलेखाध्यायः श शशिशृङ्गोन्नत्युत्तरमार्यादशकेन सप्तदशः ॥१०॥ सु. भा.-इति भुजाद्येषु साधनेषु शशिशृङ्गोन्नत्युत्तरं नाम शशिशृङ्गोन्नते: परिलेखाध्याय आयदशकेन सप्तदशो जात इति ।। १० ।। मधुसूदनसूनुनोदितो यस्तिलकः श्रीपृथुनेह जिष्णुजोक्त । हृदितं विनिध्याय नूतनोऽयं, रचितः शृङ्गविधौ सुधाकरेण । इति श्रीकृपालुदत्तसूनुसुधाकरद्विवेदिविरचिते ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तनूतनतिलके शृङ्गोन्नत्युत्तराध्यायः सप्तदश ।। १७ ।। वि. भा-इति भुजाद्येषु साधनेषु चन्द्रशृङ्गोन्नत्युत्तरं नाम चन्शृङ्गोन्नतेः परिलेखाध्याय आर्यादशकेन सप्तदशः समाप्तो जात इति ॥१०॥ इति ब्राह्मस्फुट सिद्धान्ते चन्द्रश्शृङ्गोन्नत्युत्तराध्यायः सप्तदशः ॥१७॥ अब अध्याय के उपसंहार को कहते हैं। हेि. भा.-भुजादि साधनों में चन्द्रशृङ्गोन्नति का चन्द्रश्ङ्गोन्नत्युत्तरनामक दश आर्याओं से युक्त सत्रहवां अध्याय समाप्त हुआ इति ।॥१७॥ इति ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त में चन्द्रशृङ्गोन्नति का उत्तराध्याय (सत्रहवा श्रध्याय) समाप्त हुआ । ब्रह्मस्पटसन्तः कुलह यः ब्राह्मस्फटसिद्धान्तः अथ कुट्टकाध्यायः कुट्टकाध्यायः प्रारभ्यते । तदारम्भप्रयोजनं कथ्यते । प्रायेण यतः प्रश्नाः कुट्टाकारादृते न शक्यन्ते । ज्ञातु वक्ष्यामि ततः कुट्टाकारं सह प्रश्नैः ॥१॥ सु. भा-कुट्टाकारादृते विना यः प्रायेण बाहुल्येन गणकैः प्रश्ना ज्ञातुं न शक्यन्ते ततः प्रश्नैः सह कुट्टाकारं वक्ष्यामीति।। १ ।। वि. भा.-यतः प्रायेण (बाहुल्येन) कुट्टाकारं (कुट्टक) बिना गाणितिकैः प्रश्ना ज्ञातु न शक्यन्ते ततः (तस्मात्कारणात्) प्रश्नैः सह कुट्टाकारं कथया मीति ॥१॥ अब कुट्टकाध्याय प्रारम्भ किया जाता है । उसके आरम्भ करने के प्रयोजन को कहते हैं । हेि. भा.-क्योंकि प्रायः कुट्टाकार बिना गणक प्रश्नों को समझने में समर्थन नही होते हैं इसलिये प्रश्नों के साथ कुट्टाकार (कुट्टक) को कहता हूं इति ॥१॥ इदानीं कुट्टकादीनां प्रशंसामाह । कुट्टकखर्णधनाव्यक्तमध्यहरणैकवर्णभावितकैः । प्राचार्यस्तन्त्रविदां ज्ञातैर्वगप्रकृत्या च ॥२॥ सु. भा.-कुट्टकेन । खेन शून्यसङ्कलनादिना । ऋणधनयोः सङ्कलनादिना । अव्यक्तसङ्कलनादिना । मध्यहरणेन. मध्यमाहरणेन वर्गसमीकरणेन । एकवर्ण समीकरणेन । भावितेन । एतैज्ञतैर्वर्गप्रकृत्या व ज्ञातया तन्त्रविदां मध्ये गणक श्राचार्यो भवत्यतस्तेषां ज्ञानमावश्यकमिति ॥ २ ॥ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते वि. भा-कुट्टकेन गणितेन, खेन (शून्ययोगान्तरादिना) ऋणधनयोयों गान्तरादिना, अव्यक्तानां योगान्तररादिना, मध्यमाहरणेन, एकवर्णसमीकरणेन, भावितसंज्ञकगणितेनएतैज्ञतैिर्वर्गप्रकृत्था चज्ञातया ज्योतिर्विदां मध्ये गणक आचार्यो भवतीति । सिद्धान्तशेखरे “वस्वर्णकुट्टककृतिप्रकृति प्रभेदानव्यक्तवर्णसदृशे च बीजे । ते मध्यमाहरणभावितके च बुद्ध वा निःसंशयं भवति दैवविदां गुरुत्वम् ।” श्रीपतिनाऽप्यव्यक्तगणितभेदास्तत्प्रशंसा च कृतेति ॥२॥ ११५० अब कुट्टक आदियों की प्रशंसा को कहते हैं। हिं. भा.-कुट्टकगणित, शून्य के सङ्कलनादि, ऋण और धन के सङ्कलनादि, अव्यक्तों के सङ्कलनादि, मध्यमाहरण, एक वर्णसमीकरण, भवितगणित, वर्ग प्रकृति इन सबों के समझदार गणक ज्योति:शास्त्रज्ञों के मध्य में आचार्य होते हैं । सिद्धान्तशेखर में ‘वस्वरणे कुट्टककृतिप्रकृतिप्रभेदान्’ इत्यादि वि. भा. में लिखितश्लोक से श्रीपति ने अव्यक्त गणित के भेद और उनकी प्रशंसा की हैं इति ॥२॥ इदानीं कुट्टकमाह । अधिकाग्रभागहारादूनाग्रच्छेदभाजिताच्छेषम् । यत्तत् परस्परहृतं लब्धमधोऽधः पृथक् स्थाप्यम् ॥३॥ शेषं तथेष्टगुणितं यथाग्रयोरन्तरेण संयुक्तम् । शुध्यति गुणकः स्थाप्यो लब्धं चान्त्यादुपान्त्यगुणः ॥४॥ स्वोध्र्वोऽन्त्ययुतोऽग्रान्तो हीनाग्रच्छेदभाजितः शेषम् । अधिकाग्रच्छेदहृतमधिकाग्रयुतं भवत्यग्रम् ॥५॥ सु. भा.--यत्र कोऽपि राशिरेकेन हरेण हृतोऽयं शेषः स एव राशिरपरेण हरेण हृतोऽयं शेष इति छेदद्वयं शेषद्वयं चोद्दिश्य तं राशि कोऽपि पृच्छति तत्राधिः कागूभागहारादधिकशेषसंबंधिहारात् किं विशिष्टादूनागूच्छेदभाजितादल्पशेषसंबं धिहारहृताच्छेष यत् यत् परस्परहृतं लब्धं च पृथगधोऽधः स्थाप्यम् । एतदुक्त भवति । अधिकागूभागहारेऽल्पागूभागहारेण हृते यच्छेषं तेनाल्पागूभागहारो विभक्तो यदत्र शेषं तेन प्रथमशेषं. भक्त पुनरत्र यच्छेषं तेन द्वितीयशेषं भक्तमेवं यथेच्छं कर्म कर्तव्यम् । फलानि चाधोऽधः स्थाप्यानि । एवमभीष्टं शेषं तथा केना पीष्टेन गुणितं यथाऽगूयोरन्तरेण संयुक्त तद्भाजकेनोपान्तिमशेषेण हृतं शुध्यति । एवं सति स गुणकः पूर्वस्थापितफलानामधः स्थाप्यो लब्धव च गुणकस्याध स्थाप्यम् । ततोऽन्त्यात् कर्म कर्तव्यम् । कथमित्याहोपान्त्यगुण इति स्वोध्र्व उपा न्त्यगुणोऽन्त्ययुतस्ततस्तदन्त्यं त्यजेदेवमगूान्तोऽन्ये य ऊध्र्वरराशिः स हीनागृच्छेद भाजित ऊनशेषसम्बन्धिहरेण भक्तस्तत्र यच्छेषं तदधिकशेषहरेण गुणितमधिकशेष युतं सराशिर्भवति । स एव छेदवधस्यागू भवति इति-अग्मिसूत्रेण सम्बंधः । अत्रैतदुक्त भवति । यदि स राशिश्छेदयोर्वधसमेन हरेण भक्तस्तदा तद्धराल्पत्वात् स राशिरेव शेषं भवतीति । यथा मदुक्तमुदाहरणम् चतुस्त्रिशद्धतो द्वयः पंक्तयगूो विश्वभाजित तं राशि शीघ्रमाचक्ष्व यदि जानासि कुट्टकम् ।। अत्र ३४ छेदस्य शेषम् २॥१३ छेदस्य शेषम् १० । अतोऽधिकागूभागहारः ३४ ॥ अनेनाधिकागूभागहारे हृते शेषम् । ततः परस्परहृते १३)३४(२ २६ ८) १३(१ ५) ८(१ ११५१ ३)५(१ १४ अत्रैतावत् कर्मकृत्वा प्राप्तं शेषं २ यदीष्टद्वयेन गुण्यते तदा गुणनफलम्=४। इदमगृान्तरेणा ८ नेन युक्तम् =१२ । इदं तद्धरेणा ३ नेन भक्त लब्धं निरगृम्=४ अतः फलानामधो गुणकस्तदधो लब्धं च संस्थाप्योपान्तिमेन स्वोध्र्वे हतेन्त्येन युते तदन्त्यं त्यजेदित्यादिनाऽग्रान्तः=३६ । अग्र' हीनाग्रच्छेदेना ३४ नेन भाजितो जातं शेषम्=२ । इदमधिकाग्रभागहारहतमधिकाग्रयुतं जातो राशिः=३६ । अयं यदि हारेणा-३४X१३=४४२नेन विभज्यते तदा शेषं राशिसममेव भवति । यदि वल्ली समा स्यात् तदैवं कर्म कर्तव्यं यदि विषमा तदा गुणकाधो यल्लब्धं स्थापितं तट्टणं प्रकल्प्य बीजप्रक्रियया योगान्तरन्तादि कर्म कर्तव्यम् इदं वक्ष्यति चाचार्योऽग्रे १३ सूत्रेणेति । अभीष्टशेष केन गुणमगूान्तरयुतं तद्धरभक्त शुध्यतीत्यत्र यदि शेषं रूपसमं भवेत् तदा तच्छेषमग्रान्तरसमेन गुणकेन गुणमगूः न्तरमेवातस्तत्रागूान्तरशोधनेन तद्धरभक्तन लब्धं निरगू शून्यं लाघवेन विदितं भवेदतो भास्कराचार्येण ‘मिथो भजेत् तौ दृढ़भाज्यहारौ यावद्विभाज्ये भवतीह रूपम्’-इत्युक्तमिति सर्वं मत्कृतकुट्टकोपपत्त्या स्फुटम् । (द्रष्टव्ये मच्छोधिते अत्रोपपत्तिः । कल्प्यतेऽधिकागूम्=शे, तद्धरश्च=ह. । ऊनागूम्=शे. । ११५२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते तद्धरश्च=ह । अथ यथाऽधिकागूतद्धाराभ्यामालापो घटते तथा कल्पितं राशि मानम्=हा, का+-शे, । इदमूनागूहारेण भक्त लब्धं नीलकं तद्गुणितहरस्तच्छेष युतो जातः पूर्वराशिसमः । ह. नी+-शे=ह, का+-शे, । ह, का + (शे,-शे) समशोधनादिना नीलकमानमभिन्नम्= नी= अत्र ह१, हर भाज्यहाराभ्यां यदि कुट्टकक्रिया क्रियते तदा यद्राशियुग्मं स्यात् तत्रा धरो राशिरेवाचार्यस्यागूान्तः स ह अनेनोनागूहरेण तष्टः शेषं कालकमानं ‘ते भाज्यभाजकमाने भवतः' इति भास्करबीजेन कालकमानमूनागूहराल्पं जातं तद धिकागूहारेण हतं तच्छेषयुतं राशिमानं स्यादिति । अथ परमं कालकमानम्=ह. १ । इद-ह, मनेन गुणं शे, युतं जातम्=ह, ह-ह.+-शे,=ह, ह (ह,-शे,) । अत्र प्रश्नानुसारेण ह,>शे, । अत ह,–शे, इदं धनात्मकं तेन पूर्वागतं राशिमानं सर्वदा-ह, ह१ ऽस्मादल्पमतश्छेदवधहरेण भक्त राशिमानं शेष राशि मानसममेवेत्युपपन्नं छेदवधस्य भवत्यगृमिति ।। ३-५ ।। वि. भा-कश्चित् भाज्यः केनचिद्धरेण भक्तोऽयं शेषः स एव भाज्योऽपरेण हरेण भक्तश्चायं शेष इति हरद्वयं शेषद्वयं चोक्त्वा स भाज्यः क इति प्रश्ने जायमाने अधिकशेषसम्बन्धिहरमल्पशेषसम्बन्धिहरेण विभज्यावशेषं परस्परं विभजेत्। अयमर्थः-अधिकशेष हरेऽल्पशेषहरेण भक्त यच्छेषं तेनाल्पशेषहरे भक्त यच्छेषं तेन प्रथम शेषे भक्त यच्छेषं तेन द्वितीयशेषं भजेदिति क्रिया वारंवारं कार्या फलानि चाधोऽधः स्थाप्यानि । एवमभीष्टं शेषं तथा केनापीष्टेन गुणितं यथा शेषयोरन्तरेण युतं तद्धरेणोपान्तिमशेषेण भक्त शुध्यति । एवं सति स गुणकः पूर्वस्थापितफलानामधः स्थाप्यः । लब्धं च गुणकस्याधः स्थाप्यम् । ततोऽन्त्यात्कर्म कर्तव्यम् । स्वोध्र्व उपान्त्यगुणोऽन्त्ययुतस्तदन्त्यं त्यजेत् । एवमन्ये य ऊध्र्वराशिः स हीनशेषसम्बन्धिहरेण भक्तो यच्छेषं तदधिकशेषेण गुणितं—अधिकशेषयुतं तदा स राशिर्भवति । स एव छेदवधस्याग्र' भवतीत्यस्याग्रिमसूत्रेण सम्बन्धः । अत्रोदाहरणं म. म. सुधाकरद्विवेद्युक्तम् । चतुस्त्रिशद्धतोद्वयग्रः पङ्क्तयग्रो विश्वभाजितः । तं राशि शीघ्रमाचक्ष्व यदि जानासि कुट्टकम् । अत्र ३४ हरस्य शेषम्=२ । तथा १३ हरस्य शेषम्=१० अतोऽधिकशेषहरः=१३ । अल्पशेषहरः=३४ । अनेनाधिकशेषहरे भक्त शेषम् =१३, ततः परस्परभजनेन जाता वल्ली उपान्तिमेन स्वोध्र्वे हतेऽन्त्येन युते तदन्त्यं २ । ३६ त्यजेदित्यादिनाऽग्रान्तः=३६ प्रयं हीनाग्रच्छेदेना (हीनशेषहरेण) ऽनेन १ | १४ भक्तो जातं शेषम्=२ । इदमधिकाग्रभागहार (अधिक शेषहर) गुणित १ | ८ मधिकशेषयुतं जातो राशिः=३६ अयं यदि हरयोघांतसमेन हरेरणा २ । ६ ३४x १३=४४२ नेन विभज्यते तदा शेष राशिसममेव भवति । एवं वल्ली' यदि समा स्यात् तदैवं कर्म कर्तव्यम् । यदि च विषमा तदा गुणकाधो यल्लब्धमस्ति तद्दणं प्रकल्प्य बीजक्रियया योगान्तरादि कर्म कर्तव्यम् । अभीष्ट शेषं केन गुणमग्रान्तर (शेषान्तर) युतं तद्धरभक्त शुध्यतीत्यत्र यदि शेष रूपसमं भवेत् तदा तच्छेष शेषान्तरसमेन गुणकेन गुणं शेषान्तरमेवातस्तत्र शेषान्तर शोधनेन तद्धरभक्त न लब्ध निरग्र' शून्यं विदितं भवेदतो मिथो भजेत्तौ दृढ़भाज्य हारौ यावद्विभाज्ये भवतीह रूपम्’ भास्कराचार्येण कथितम् । सिद्धान्तशेखरे ‘अल्पाग्रहृत्या बृहदग्रहारं छित्वाऽवशेषं विभजेन्मिथोऽतः । अग्रान्तरं तत्र युर्ति प्रकल्प्य प्राग्वद्गुणः स्यादधिकाग्रहारः । तेनाहृतः स्वाग्रयुतस्तदग्र' छेदाहृतिः । श्रीपत्युक्तप्रकारोऽयमाचायक्तप्रकारानुरूप एव । बीजगणिते लीलावत्यां च “भाज्यो हारः क्षेपकश्चापत्र्य' इत्यादिना आचार्योक्तापेक्षयाऽतीवस्पष्टरूपेण भास्कराचार्येण प्रदिपादितोऽस्तीति । कल्प्यतेऽधिक शेषम्=शे । तद्धरश्च=ह । अल्पशेषम्=शे । तद्धरश्च= ह, यदाऽधिकशेषतद्धराभ्यामालापो घटते तथा कल्पितं राशिमानम्=ह. क-+शे इदमल्पशेषहरेण भक्त लब्ध' न तद्गुणितहरस्तच्छेषयुतो जातः पूर्वराशिसमः । ह. न+-शे=ह. क-+-शे समशोधनादिना न मानमभिन्नम्=न = ह. क+(शे-शे) अत्र ह, ह भाज्यहाराभ्यां यदि कुट्टकक्रिया क्रियते तदा यद्राशिद्वयं तत्राधो हैं अनेन अल्पशेषहरेण भक्तः शेषं गुणकरूपं क मानमल्पशेषहराल्पं जातं तदधिक शेषहरेण गुणं तच्छेषयुतं राशिमानं भवति । अथ परमं क मानम्=ह-१ इदं-ह अनेन गुणितं शे युतं जातम्=ह. ह-ह--शे=ह. ह--(ह-शे) । अथ प्रश्नानु सारेण ह>शे अतः ह-शे इदं धनात्मकं तेन पूर्वागतं राशिमानं सर्वदा -ह, हँ अस्मादल्पमतो हरघातहरेण भक्त राशिमानंशेष राशिमानसममेव ।'अधिग्रकाभागः हारं छिन्द्यादूनाग्रभागहारेण । शेषपरस्परभक्त मतिगुणमग्रान्तरे क्षिप्तम् ।। अध उपरिगुणितमन्त्ययुगूनाग्रच्छेदभाजिते शेषम् । अधिकाग्रच्छेदगुणं द्विच्छेदाग्र मधिकाग्रयुतम् ।।' इत्यार्यभटोक्तप्रकारस्यैव ब्रह्मगुप्तश्रीपत्योः प्रकारश्धपुनरूपा दनांमात ॥३-५॥ ११५४ ब्रास्फटसिद्धान्ते अब कुट्टक को कहते हैं। हेि. भा.-किसी राशि को एक हर से भाग देने से जो शेष रहता हैं वही उसी राशि को दूसरे हर से भाग देने से रहता है। तब यह राशि क्या है। अधिक शेष सम्बन्धी हर में अल्पशेष सम्बन्धी हर से भाग देने से जो शेष रहता है उसको परस्पर भाग देने से लब्ध को पृथक् अधोऽधः स्थापन करना। अधिकशेष सम्बन्धी हर में अल्पशेष सम्बन्धी हर से भाग देने से जो शेष रहता है उससे अल्पशेष सम्बन्धी हार को भाग देने से जो शेष रहता है उससे प्रथम शेष को भाग देना । फिर यहां जो शेष रहे उससे द्वितीय शेष को भाग देना। इस तरह बराबर कर्म करना चाहिये । फलों को अघोऽधः स्थापन करना। इस तरह अभीष्ट शेष को किसी इष्ट से गुणा कर दोनों शेषों को जोड़ना जिससे वह भाजक (हर) उपान्तिम शेष से शुद्ध हो । इस तरह वह गुणक पूर्वस्थापित फलों के अधः स्थापन करना । तब अन्त से कर्म करना चाहिये । कैसे सो कहते हैं। ऊध्र्वाङ्क को उपान्त्य से गुणाकर अन्त्य को जोड़ देना चाहिये, उस अन्त्य को त्याग देना चाहिये । इस तरह अन्त्य में जो ऊध्र्व राशि होता है उसको अल्प शेष सम्बन्धी हर से भाग देने से जो शेष रहे उसको अधिक शेष सम्बन्धी हर से गुणाकर अधिक शेष को जोड़ने से राशि होता है। यहां म. म. सुधाकर द्विवेदी का उदाहरण है। हेि. भा.- किसी राशि को चौंतीस से भाग देने से दो शेष रहता है और तेरह से भाग देने से दश शेष रहता है उस राशि को कहो । यहाँ ३४ हर का शेष=२ है। १३ हर का शेष = १० हैं । इसलिये अधिक शेष सम्बन्धी हर=१३ अल्प शेष सम्बन्धी हरः= ३४ है। इससे अधिक शेष सम्बन्धी हर को भाग भाग देने से शेष= १३ तब परस्पर भाग देने से वल्ली | ३६ ‘उपान्तिमेन स्वोध्र्वे हतेऽत्येन युतं तदन्त्यं त्यजेत्' इत्यादि से अग्रान्त=३६ इसको १ १४ | अल्प शेष सम्बन्धी ३४ इस हर से भाग देने से शेष =२, इसको अधिक शेष २ | ६ सम्वन्धी हर से गुणाकर अधिक शेष को जोड़ने से राशि =३६, इसकी यदि दोनों हरों के घात के बराबर हर ३४x १३=४४२ से भाग देने से शेष राशि के बराबर होता है। यदि वल्ली सम रहे तब ही इस तरह कर्म करना । यदि वल्ली विषम रहे तब गुणक के नीचे जो लब्ध स्थापित है उसको ऋण कल्पना कर बीज़ क्रिया से योग अन्तर आदि कर्म करना चाहिये । इष्ट शेष को किस से गुणाकर दोनों शेषों के अन्तर को जोड़कर हर से भाग देने से शुद्ध होता है यहां यदि शेष रूप १ के बराबर हो तब शेष को शेष द्वय के अन्तर तुल्य गुणक से गुणा करने से शेषद्वय का अन्तर ही रहता है इसलिये उसमें शेषान्तर को घटाकर हर से भाग देने से लब्ध निःशेष शून्य होता है अतः लीलावती में ‘मिथो भजेत्तौ दृढ़भाज्य हारौ' इत्यादि भास्कराचार्य ने कहा है। अभिन्नात्मक-ह. क+(-शे) कुट्टकाध्याय --- उपपत्ति । कल्पना करते हैं अधिक शेष =शे । उसका हर=ह । अल्प शेष =शे, इसका हर
ह जिस तरह अधिक शेष और उसके हर से आलाप घटे वैसे कल्पित राशिमान
[सम्पाद्यताम्]ह. क-+-शे इसको अल्प शेष सम्बन्धी हर से भाग देनेसे लब्ध न तद्गुणित हर में शेष जोड़ने से पूर्व राशि के समान हुआ ह. क+-शे= ह. न-+-शे समशोधन आदि करने से न मानं ११५५
८ यहाँ ह, ह इन भाध्य और हर से यदि कुट्टक क्रिया की
जाती है तो जो राशिद्वय होता है उनमें नीचे की राशि ही आचार्य का अग्रान्त है उसको ह इस अल्प शेष हार से भाग देने से शेष क मान होता है ते भाज्य तद् भाजक वर्णमाने' इस भास्करोक्ति से क मान अल्प शेष सम्बन्धी हर से अल्प हुआ । उसको अधिक शेष सम्बन्धी हर से गुणाकर शेष जोड़ने से राशिमान होता है। परम क मान=ह-१ इसको-ह से गुणाकर शे जोड़ने से ह. ह -ह-+शे=ह ह-(ह-शे) । यहाँ प्रश्न के अनुसार ह>शे इसलिये ह-शे यह धनात्मक है । अतः पूर्वागत राशिमान सदा-ह, ह इससे अल्प होगा इसलिये शेष घात तुल्य हर से राशि मान को भाग देने से शेष राशिमान के बराबर ही होता है इति ॥३-५॥ इदानीं विशेषमाह छेदवधस्य द्वियुगं छेद्वधो युगगतं द्वयोरग्रम् । कुट्टाकारेणैव त्र्यादिग्रहयुगगतानयनम् ॥ ६ ॥ सु. भा-छेदबधस्य पूर्वेश्लोकेन सम्बन्धः पूर्वं प्रतिपादितः । द्वियुगं द्वयोग हयोर्योगश्छेदयोर्वधो भवति तथा युगगतमन्तिमयोगाद्यद्गतं तदुद्वयोश्छेदयोरगू शेषं भवति । एवं कुट्टाकारेण त्र्यादिगृहयुगतानयनं कार्यम् । अत्रैतदुक्त भवति । यथैको गृहो दिन चतुस्त्रिशता ऽन्यश्च त्रयोदशदिनैरेकं भगणं भुक्त । तयोरन्तिम युतेर्दशदिनानि व्यतीतानि तदा कल्पात् कियन्ति दिनानि व्यतीतानीति प्रश्ने को राशिश्चतुस्त्रिशद्धतो दशशेषस्त्रयोदशाहृतंश्च दशशेष इति प्रश्नोत्तरेणैवोत्तरसिद्धिः । अत्रागृयोः समत्वादधिकागूहरश्चतुस्त्रिशदेव कल्पितस्ततः पूर्वप्रकारेणागूयोरन्तरं शून्यं गृहीत्वा गुणकार शून्यं प्रकल्प्यागूान्तः शून्यसमो वा ि द्वितीयहारसमस्तदा राशिः=ह, ह+-शे, अयमगृश्छेदवधश्च छेदं इत्येकस्य प्रकल्प्यान्यस्यैक भगण कालस्तद्धरस्तदगूश्च पूर्वशेषसमः=शे, इति प्रकल्प्य पुनः कुट्टाकारेणैव विधिना ११५६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ‘गूहत्रयान्तिमयुतेर्दशदिनानि व्यतीतानि तदा कल्पगतं कि' मिति प्रश्नोत्तरमा नेयम् । एवं त्र्यादिगृहयुगगतानयनं कार्यम् ।। ६ ।। वि. भा-छेदवधस्यैतस्य पूर्वेश्लोकेन सम्बन्धः । द्वियुगं (द्वयोग्रहयोर्योगः) छेदवधो भवति । युगगतं (अन्तिमयोगाद्यद्गतं) तत् द्वयोश्छेदयोरग्र' (शेषं) भवति, एवं कुद्दाकारेण त्र्यादिग्रहयुगगतानयनं कार्यम् । यथैको ग्रहो दिनचतुस्त्रिंशता ऽन्यच्च त्रयोदशदिनैरेकं भगणं भुङ्क्त तयोरन्तिमयुतेर्दशदिनानि व्यतीतानि तदा कल्पात् कियन्ति दिनानि व्यतीतानीति प्रश्ने को राशिश्चतुस्त्रिशद् भक्तो दशशेषस्त्रयोदशभक्तश्त्र दशशेष इति प्रश्नोत्तरेणैव तदुत्तरसिद्धिः । अत्र शेषयोः समत्वादधिकशेषसम्बन्धिहरश्चतुस्त्रिशदेव कल्पितः । ततः पूर्वप्रकारेण शेष योरन्तरं शून्यं गृहीत्वा गुणकारं शून्यं प्रकल्प्याग्रान्तः शून्यसमो वा द्वितीयहार समस्तदा राशिः=ह. ह--श अय शषा हरघातश्च हर इत्यकस्य प्रकल्प्यान्यस्यक भगणकालस्तद्धरस्तच्छेषश्च पूर्वशेषसमः=शे इति प्रकल्प्य पुनः , कुट्टाकारेणैव ग्रहान्तिमयुतेर्दशदिनानि व्यतीतानि तदा कल्पगतं किमिति प्रश्नोत्तरमानेयम् । एवं त्र्यादिग्रह युगतानयंनं कर्तव्यमिति ।। ६ ।। अब विशेष कहते हैं । हेि. भा.-दो ग्रहों का योग छेदवध (हर घात) होता है अन्तिम योग से जो गत है वह दोनों हर का शेष होता है। एवं कुट्टाकार से व्यादि ग्रहयुगगतानयन करना चाहिये । जैसे एक ग्रह चौंतीस दिन में अन्य ग्रह तेरह दिन में एक भगण को भोग करता है। दोनों का अन्तिम योग से दश दिन का समय व्यतीत हुआ तब कल्प से कितने दिन व्यतीत हुए इस प्रश्नमें कौन राशि है-जिस को चौंतीस से भाग देने से दस शेष रहता है। तेरह से भाग देने से दस शेष रहता है इस प्रश्न के उत्तर ही से उसकी उत्तर सिद्धि होती है। यहां शेषद्वय के समत्व से अधिक शेष सम्बन्धी हर चौंतीस ही कल्पना किया गया । तब पूर्व प्रकार से दोनों शेषों के अन्तर को शून्य मानकर गुणकार को शून्य कल्पना करं एक भगण काल-उसका हर और शेष पूर्वशेष शे के बराबर कल्पनाकर पुन: कुट्टक से ग्रह के अन्तिम योगसे दश दिन व्यतीत हुए तब कल्पगत क्या है इस प्रश्न का उत्तर लाना चाहिये । इस तरह तीन आदि ग्रहों का युग गतानयन करना चाहिये ।। ६ ।। इदानीं भगणादिशेषतो ऽहर्गणानयनमाह । भगणादिशेषमग्र' छेदहृतं खं च दिनजशेषहृतम् । अनयोरग्र' भगणादि दिनजशेषोद्धतं थुगणः ॥ ७ ॥ सु. मा-भगणादिशेषं छेदहृतमगू भवति । खं शून्यं दिनजशेषहृतमेकदिन संबन्धि यद्भगणादिशेषं तद्दिनजशेषं तेन हृतं द्वितीयमगू कल्प्यम् । भगणादिशेष मेकमगू तच्छेदो दृढ़कुदिनादि । शून्यमपरमगू तच्छेदो दिनजशेषमिति प्रकल्प्यान योश्छेदयोर्वधसमे छेदे पूर्वोक्तकुट्टाकारेणागू साध्यं तद्भगणादि दिनजशेषोद्धतं द्युगणोऽहर्गणः स्यादिति । अत्रोपपत्तिः । अहर्गणप्रमाण या । इदं कल्पभगणगुणं कुदिनहृतं लब्धं गतभगणाः का। शेषं कल्प्यते भशे । ततो जातं समीकरणम् । कभ. या= ककु. का-+-भशे । ककु. का+-भशे
- या =
भ ११५७ अत्र ककु, कभ भाज्यहाराभ्यां यौ राशी तत्राधरः कभ तष्टः शेषं कालकमा नम् । परन्तु यद्यधिकागूम्-भशे, तच्छेदः=ककु । ऊनागूम्=० तच्छेदश्च दि जभगणशेषम्=कभ । तदाऽऽचार्योक्त कुट्टाकारेण छेदवधच्छेदेऽगृमानम्=का. ककु +-भशे । अत इदमगू दिनजशेषहृतं लब्धं यावत्तावन्मानमहर्गणः स्यादिति एवं राश्यादिशेषेऽपि तत्तच्छेदाभ्यां छेदवधच्छेदेऽगूमानीय तदगू' तद्दिनजशेषहृतं लब्धमहर्गणो भवतीत्युपपन्नमिति । अत्र कोलबू कानुवादानुसारेण प्रश्नरूपार्यायास्त्रुटिः सा च (इष्टभगणशेषाद्वा राश्यंशकलाविलिप्तिकाशेषात् । आनयति द्युगणं यः कुट्टाकारं स जानाति ॥ ९ ॥ एवं भवितुमर्हति । इयमार्या च स्पष्टार्था ।। ९ ।। वि. भा:- भगणादिशेषं (भगणशेषम्। राशिशेषम् । कलाशेषम्। विकला शेषम् । तत् षष्ट्यशादि शेषं छेदहृतं (छेदेन कुदिनात्मकेन भक्त) अग्र' (शेषं) भवति । दिनजशेषेण (एकदिनसम्बन्धिभगणदिशेषेरण) खं (शून्यं) भक्त द्वितीय शेषं कल्प्यम् । अत्रायमर्थः-भगणादिशेषमेकमग्र (शेषं) तच्छेदो (हरः) दृढ़ कुदिनानि । शून्यं द्वितीयमग्र' तच्छेदो दिनजशेषमिति. प्रकल्प्य अनयोश्छेदाहृति तुल्ये छेदे पूर्वोक्तकुट्टकरीत्याऽग्र (शेष) साध्यं तद्भगणशेषेण भक्त लब्धमहर्गणो भवेदिति । अत्रोपपत्तिः । अत्र कल्प्यते ऽहर्गणमानम्=य । तदा ऽनुपातो यदि कल्पकुदिनैः कल्प भगणा लभ्यन्ते तदाऽहर्गणेन किमित्यनुपातेन समागच्छन्ति गतभगणाः, भगण शेषं च, तदाऽनुपातस्वरूपम् x य ककु =भशे पक्षौ (कल्पभ) भक्तौ तदा य= ककु x गभगण +भशे ककुxगभगण-+- अत्र ककु, कल्पभ भाज्यहाराभ्यां यौ राशी तत्राधरः कल्पभभक्तः शेषं गतभगण मानम् । परन्तु यद्यधिक् शे=भशे, तद्धरः=ककु, अल्पशेषं = ०, तद्धरः=कभगण तदा कुट्टकविधिना छेदवध (हरघात) समे हरे शेष मानम्=गतभगण. ककु+-भशे अत इदं शेषमानं कल्पभगणभक्त लब्ध य मानं भवेद्राश्यादिशेषेऽपि तत्तच्छेदाभ्यां छेदघातसमे छेदेऽग्र (शेष) मानीय तत्कल्पभगणभक्तमहर्गणो भवतीति । सिद्धान्त शेखरे “चक्रक्षभागकलिका विकलादिशेषमग्र ' स्वहारविहृतं भगणादि भक्तम् । न्यूनाग्रमत्र हि फलं भगणादिनाप्तं लब्धं भवेद्दिनगणस्त्वपवर्त्तिते स्यात् ।” श्रीपत्युक्तोऽयं प्रकार प्राचार्योक्तिप्रकार सम एवेति ॥७॥। अत्र कोलजू कानुवादानुसारेण प्रश्नरूपार्यायास्त्रुटिर्वतते सा च ‘इष्ट भगणशेषाद्वा राश्यंश कलाविलिप्तिकाशेषात् । आनयति द्युगणं यः कुट्टाकारं स जानाति एवं भवि तुमर्हतीति ॥९॥ अब भगणादि शेष से अहर्गणानयन कहते हैं । हेि. भा.-भगणादि शेष (भगण शेष,राशिशेष, कलाशेष, विकलाशेष, उसके षष्टय' (६०) शादि शेष) को छेद (दृढ़कुदिन) से भाग देने से अग्र (शेष) होता है। एक दिन सम्बन्धी भगणादिशेष (दिनज शेष) से शून्य को भाग देने से द्वितीयशेष होता है। अर्थात् भगणादि शेष एक अग्र (शेष) उसका छेद (हर) दृढ़ कुदिन । और शून्य द्वितीय अग्र उसका छेद दिनज शेष कल्पना कर दोनों छेदों के घात तुल्य छेद में कुट्टक रीति से अग्र(शेष)साधन करना उसको भगणशेष से भाग देने से लब्ध अहर्गण होता है। यहां कोलब्रक साहब के अनुवादानुसार प्रश्नरूप प्रार्था की त्रुटि है वह संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक के सदृश होना चाहिये ॥९॥ उपपत्ति । कल्पना करते हैं अहर्गण प्रमाण=य तब अनुपात करते हैं यदि कल्प कुदिन में कल्प भगण पाते हैं तो अहर्गण में क्या इस अनुपात से आते हैं गतभगण और भगणशेष ! तब = गतभ-+ ':' , छेदगम से कल्पभ. य=ककु. गतभ-- भशे, दोनों पक्षों को कल्पभ भाग देने से य = ककु. गतभ +-भशे कम और हार से जो दो राशिप्रमाण होता है उसमें अघर (नीचे की) राशि को ‘कल्पभ' से भाग देन से शेष गतभगण का मान होता है। परन्तु यदि अधिकाग्र =भशे, उसकी हर=ककु, अल्पाग्र=०, उसका हर= कभगण । तब कुट्टक विधि से छेदवध तुल्य छेद में शेषमान=गत कुट्टाध्यायः ११५९ भगण. ककु+-भशे इसलिये इस शेषमान को कल्पभगण से भाग देने से लब्ध य मान होता है। राश्यादिशेष में भी तत् तत् शेष के छेदद्वय से छेदद्वय घात तुल्य छेद में अग्र (शेष) को लाना चाहिये, उसको कल्पभगण से भाग देने से प्रहर्गण होता है। सिद्धान्तशेखर में “चक्रक्षभाग कलिका विकलादिशेष' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से, श्रीपति ने आचार्योक्त प्रकार के सदृश ही कहा है इति ।। ९ ।। इदानीं विशेषमाह । दिनजभगणादि शेषं येन गुणं मण्डलादिशेषकयोः । सदृशाच्छेदोद्धतयोस्तद्धातमहर्गणाद्यमतः ॥८॥ सु.भा.-उद्दिष्टं मण्डलादिभगणादिशेषं यदि येन केनापीष्टेन गुणं भवेत्। तदा द्वे शेषे सदृशच्छेदे च कृत्वा ततस्तयोः शेषकयोः सदृशच्छेदोद्धतयोश्च कृत्वा ‘भगणादिशेषमगू छेदहृत'मित्यादिविधिना तद्घातसम्बन्ध्यगू साध्यं तदा तदगू तज्जातीयं कल्पगतं भवेदतोऽहर्गणाद्य भवति । यथा कस्मिन् घटिकात्मके कल्पगते चन्द्रस्य भगणशेष ४१०५ भवेत् । यदि १३७ ि देदनैश्चन्द्रभगणाः पञ्च ५ भवन्ति । अत्र यदि दिनानि १३७ षष्टिगुणानि कृत्वा १३७-६०=८२२० अयं हरः कल्प्यते तदा सच्छेदमुद्दिष्टभगणशेषम् =***५. । िदनजभगणशेषं पूर्ववत् ५ । ततः ‘खं ८२२० च िदनजशेषहृत' भित्यादिनोनागू सच्छेदम्= । अथ सच्छेदे शेषे ४ *५ - । अत्र शेषयोः सच्छेदयोः पञ्चभिरपवत्र्य जाते नूतने सच्छेदे शेषे – ३१ १६४४ ९ । अधिकागूभागहारा दूनागूछेदभाजिताच्छेषमित्यादिना प्रथमशेषम् = ० । तच्छेदः=१ । शून्येनेष्टेन गुणकारेण गुणितं प्रथमशेषं लब्धमगुान्तरेण युतं ८२१ तच्छेदेन १ हृतं लब्धं निरगूम्=८२१ । अत्र पूर्वलब्ध्यभावाद्वल्ली छ३ } अगूान्तः ० । ऊनायूच्छेदभाजितः शेषम्=० । अधिकागुच्छेदहतमिदमधिकागूयुतं जातो राशिः ८२१ । इदं घटयात्मक कल्पगतं तत् षष्टिहृतं जातं कल्पगतं दिनादि १३ ॥ ४१ ॥ अत्रोपपत्तिः । ‘भगणादिशेष'मित्यादि पूर्वसूत्रान्तर्गतैव ।। ८ ।। वि. भा.-मण्डलादि (भगणादि) शेषं येन केनापीष्टेन यदि गुणं भवेत्तदा। द्वेशेषे सदृशच्छेदे च कृत्वा तयोः शेषयोः सद्दशच्छेदभक्तयोः कृत्वा ‘भगणादिशेष मग्र ' छेदहृत'मित्यादिना तद्धातसम्बन्ध्यग्रसाध्यं ब्रदा तदग्र तज्जातीयं कल्पगतं भवेत्ततो ऽहर्गणाद्य भवतीति । ११६० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते यथा कस्मिन् घटिकात्मके कल्पगते चद्रस्य भगणशेष ४१०५ भवेत् । यदि १३७ दिनैश्चन्द्रभगणाः पञ्च ५ भवन्ति । अत्र यदि दिनानि x६०= १३७x६० ४१०५ =८२० कृत्वा हरः कल्प्यते तदा सच्छेदमुदृिष्टभगणाशेषम्= , पूर्ववत् दि ८२२ नज भगणशेषम्=५। ततः खेच दिनज शेषहृत' मित्यादिना ऽल्पाग्र' सच्छेदम् = ६ । अथ सच्छेदे शेषे ४१०५ , ६ अत्र शेषयोः सच्छेदयोः पञ्चभिरपवत्र्य जाते ८२२० ५ नवीने सच्छेदेशेषे ८२१ अधिकाग्रभागहारादूनाग्रच्छेद भाजितादित्या दना प्रथमशेषम्=० । तच्छेदः=१, शून्येनेष्टेन गुणकारेण गुणितं प्रथमशेषं लब्धं शेषान्तरेणयुतं ८२१ तच्छेदेन १ हृतं लब्धं निरग्रम् =८२१ अत्र पूर्वलब्ध्यभावात् इदं घटयात्मकंकल्पगतं तत् षष्टिभक्त कल्पगतं दिनादि ।॥१३॥४१॥ अत्रोपपत्तिः । ‘भगणादिशेषमग्र' छेदहृतं खं च दिनजशेषहृत'मित्यादेरुपपत्तिदर्शनस्फुटेति ।८।। अब विशेष कहते हैं। हेि. भा-भगणादि शेष को यदि जिस किसी इष्ट से गुणा करते हैं तो दो शेष और (सदृशच्छेदों) को करके सदृशच्छेद से भक्त उन दोनों शेषों को करके ‘भगणादि शेष मग्र' छेदहृतं’ इत्यादि से उसका घात सम्बन्धी अग्र (शेष) साधन करना चाहिये तब वह अग्र तज्जातीय कल्पगत होता है उससे अहर्गणादि होता है जैसे किसी घटिकात्मक कल्पगत में चन्द्र का भगण शेष ४१०५ होता है। यदि १३७ दिनों में चन्द्र भगण ५ होता है। यहां यदि इनको दिन १३७x६०=८२२० करके हरकल्पना की जाय तब सच्छेद (छेदसहित) ४१०५ उद्दिष्ट भगण शेष = , पूर्ववत् दिनज भगण शेष =५ तब ‘खं च दिनजशेषहृतं ’ .८२२० इत्यादि से सच्छेद अल्पाग्र= ८२२० ५ ८२१ पांच से अपवत्र्तन देने से नवीन छेद सहित शेषद्वय .. * - ‘ अधिकाग्रभागहारा दूनाग्र च्छेद भाजितात्’ इन्यादि से प्रथम शेष= १० । उसका छेद =१, शून्य इष्ट गुणकार से गुणित प्रथम शेष में शेषान्तर ८२१ को जोड़ देने से जो होता है उसको छेद से भाग देने से लब्ध निरग्र = ८२१, यहां पूर्वलब्धि के प्रभाव के कारण वल्ली --, यह ८२१ घटयात्मक कल्प गत है इसको साठ से भाग देने से कल्पगत दिनादि ।॥ १३॥४१ इति । है ॥८॥ कुट्टकाध्यायः “भगणादि शेषमग्र छेदहृतं खं च दिनजशेषहृतम्’ इत्यादि की उपपति देखने से स्फुट इदानीं स्थिरकुट्टकमाह । हृतयोः परस्परं यच्छेषं गुणकारभागहारकयोः । तेन हृतौ निश्छेदौ तावेव परस्परं हृतयोः ॥९॥ लब्धमधोऽधः स्थाप्यं तथेष्टगुणकारसङ गुण शेषम् । शुध्यति यथैकहीनं गुणकः स्थाप्यः फलं चान्त्यात् ।।१०।। अग्रान्तमुपान्त्येन स्वोध्व गुणितोऽन्त्यसंयुतोभक्तम् । निःशेषभागहारेणैवं स्थिरकुट्टके शेषम् ॥११॥ सु. भा-यो राशिः केनचिदुद्दिष्टेन गुणकेन गुणित एकहीन उद्दिष्टभाग हारेण भक्तः शुध्यति स क इति प्रश्नोत्तरार्थं प्रथमं गुणभागहारयोर्महत्तमा पवर्तनमानीयते । परस्परं हृतयोर्गुणकारभागहारकयोरन्ते यच्छेषं तेन हृतौ तौ गुणभागहारौ निश्छेदौ दृढ़ौ भवत इति । ततस्तयोढयोर्गुणभागहारयोः परस्पर हृतयोर्लब्धमधोऽधः स्थाप्यं पूर्वप्रतिपादितकुट्टाकारविधिना । एवमिदं कर्म यथे च्छशेषपर्यन्तं कर्तव्यम् । ततस्तच्छेषं तथा केनापीष्टगुणकारेण गुणितं रूपेण हीनं तच्छेषसम्बन्धिच्छेदेन हृतं यथा शुध्यति । एवं सतीष्टगुणकारः पूर्वाधोऽधः स्थापित फलानामधः स्थाप्यस्तदन्त्याच फलं स्थाप्यम् । एवं सम्पन्नायां वल्ल्यामुपान्त्येन स्वोध्व गुणितोऽन्त्येन संयुत एवं कुट्टाकारविधिनैवागूान्तं कर्म कर्तव्यम् । तत् निःशेषभागहारेण दृढभागहारेण भक्त शेषमेवं स्थरकुट्टकां भवतात । अत्र प्रथम गुणकारेण भागहारो विभाज्यः । अत्रोपपत्तिः । ‘परस्पर भाजितयोर्ययोर्यः शेषस्तयोः स्यादपवर्तनं स : इत्यादि भास्करविधिना स्फुटा इहाचार्येण रूपबिशुद्धौ गुण एव साधितोऽतो ऽत्राधरराशिरेवागूान्तो दृढभागाहारेण तष्ट इति सर्व भास्करकुट्टकप्रकरणेन स्फुटम् ।। ९-११ ।। अत्रकोलबू कानुवादानुसारेण प्रश्नरूपाययास्त्रुटिः सा च । (भगणादिशेषतोऽर्कस्यान्येषां वा दिवागणार्थं त्वम् । स्थिरकुट्टक प्रचक्ष्व कुट्टार्णव पारगोऽसि यदि ।। १४।।) एवं भवितुमर्हति । वि. भा-यो राशिः केनचिदुद्दिष्टेन गुणकेन गुणितः, एकहीनः, उद्दिष्ट ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते हरेण भक्तः शुध्यति स राशिः कः । प्रथमं गुणहरयोर्महत्तमापवर्तनमानीयते । परस्पर भक्तयोगुणहरयोरन्ते यच्छेषं तेन भक्तौ तौ (गुणहरौ भवतः) दृढ़ौ गुण हरौ भवतः । ततो दृढ़योगुणहरयोः परस्परं भक्तयोर्लब्धान्यधोऽधः स्थाप्यानि, पूर्वप्रदर्शिातकुट्टकनियमेन । इदं कर्म तावत्पर्यन्तं कर्तव्यं यावदन्ते रूपं शेषं तिष्ठेत् । तच्छेषं तथा केनापि गुणकेन गुणितं रूपेण हीनं तच्छेषसम्बन्धिहरेण भक्त शुध्यति । सत्येवं गुणकः पूर्वाधोऽधः स्थापितकलानामधः स्थाप्यः, तदन्तात्फल स्थाप्यम् । एवं जातायां वल्यां उपान्तिमेन स्वाध्व गुणितोऽन्त्येन युत इति कुट्टक विधिना शेषान्तं यावत्कर्म कर्तव्यम् । तत् दृढ़भागहारेण (दृढ़हरेण) भक्त शेषमेव स्थिरकुट्टको भवतीति । अथ महत्तमापवर्तनार्थ कल्प्यते । भाज्यः=य ।. भाजकः=क, भाजकेन भक्तभाज्ये लब्धं= न शेषम्=प । पुनः प अनेन स्वहारे क भक्त लब्धं=ल, शेषम्=ह, पुनरनेन शेषेण स्वहारे प भक्त लब्ध=र, शेषम्=० तदाऽवश्यमेव य, क माने ह अनेन निः शेषौ भवेताम् । हरलब्ध्योघतः शेषयुतो भाज्यसभी भवतीति तेन. य=क. न+-प । क=प. ल+ह। प=ह. र एतत् समीकरणत्रयाव लोकनेन स्फुटमवसीयते यत् प अयं ह अनेन निः शेषः स्यात् । ततः क अयमपि तेनैव निः शेषो भवेत् । एवं क, प अनयोनिःशेषत्वात् य अयमपि ह अनेन निः शेषो भवेदेवेति । एतावता 'हृतयोः परस्पर यच्छेषं गुणकार भागहारकयो' रित्या चार्योक्तमुपपन्नम् । सिद्धान्तशेखरे “परस्पर भाजितयोस्तु शेषकं तयोद्वयोरप्यप वर्तनं भवेत् । तदुद्धतच्छेदविभाजकौ क्रमादभीष्टनिघ्नौ तु गुणाप्तयोः क्षिपेत् श्रीपत्युक्तमिदमाचार्योक्तानुरूपमेवास्ति, तथा लीलावत्यां “परस्पर भाजितयोर्य योर्यः शेषस्तयोः स्यादपवर्तनं सः तेनापवत्र्तेन विभाजितौ यौ तौ भाज्यहारौ दृढ़संज्ञकौ स्तः ।' इति भास्करोक्तमपि-प्राचीयक्तानुरूपमेवास्ति । प्राचार्येणात्र रूपशुद्धौ गुणक एव साधितोऽतोऽत्राधरराशिरेवाग्रान्तो दृढ़भागहारेण भक्त इति ॥९-११॥ कोलबू कानुवादानुसारेण प्रश्नरूपार्यायास्त्रटिरस्ति सा च ‘भगणादिशेष तोऽर्कस्यान्येषां वा दिवा गणार्थ त्वम् । स्थिरकुट्टकं प्रचक्ष्व कुट्टार्णवपारगोऽसि यदि' ,॥१४॥ एवं भवितुमर्हति । अथ स्थिर कुट्टक को कहते हैं। हेि. मा.–जिस राशि को किसी उद्दिष्ट गुणक से गुणाकर एक धटा कर उद्दिष्ट हर से भाग देने से शुद्ध होता है वह राशि क्या है। पहले गुणक और हर का महत्तमाप वर्तन लाते हैं। परस्पर गुणक और हर को भाग देने से अन्त में जो शेष रहता है उससे कुट्टकाध्याय गुणक और हर को भाग देने से दृढ़ संज्ञक गुणक और हर होता है तब दृढ़ गुणक और हर को परस्पर भाग देने से जो लब्धियाँ हो उन्हें अधोऽधः स्थापन करना चाहिये । पूर्वं प्रदर्शित कुट्टक नियम से इस कर्म को तब तक करना चाहिये जब तक अन्त में रूप शेष रह जाय । उस को किसी गुणक से गुणाकर रूप को घटा कर उस शेष सम्बन्धी हर से भाग देने से शुद्ध हो जाय । इस तरह पूर्वाधोऽधः स्थापित फलों के नीचे गुणक को स्थापन करना चाहिये । अन्त में फल स्थापन करना चाहिये । इस तरह वल्ली सम्पन्न होने पर उपान्त्य से ऊध्र्वाङ्क को गुणाकर अन्त्य को जोड़ना । इस कुट्टक विधि से अग्रान्तपर्यन्त कर्म करना चाहिये । उसको दृढ़ भाग हार से भाग देने से शेष ही स्थिर कुट्टक होता है। उपपत्ति । महत्तमापवर्तन के लिये कल्पना करते हैं भाज्य-=य । भाजक=क, भाज्य में भाजक से भाग देने से लब्ध=न, शेष=प । पुनः प इससे अपने हर क को भाग देने से लब्ध=ल, शेष=ह । पुनः इस शेष से अपने हर प में भाग देने से लब्ध=र, शेष=० तब अवश्य ही य, क, का मान ह इससे निः शेष होगा, हर और लब्धि के घात में शेष को जोड़ देने से भाज्य के के बराबर होता है इसलिये य=क. न +-प। क=प. ल+-ह। प=-ह. र इन तीनों समीकरणों को देखने से स्फुट समझ में आता है कि प यह ह इससे निः शेष होगा, तब क यह भी उसी से निः शेष होगा इस तरह क, और प के निःशेषत्व से य यह भी ह इससे निःशेष होगा ही । इससे 'हृतयोः परस्परं यच्छेषं भाग-भागहारकयोः' इत्यादि आचार्योक्त उपपन्न हुआ । आचार्य ने रूप शुद्धि में गुणक ही साधन किया है इसलिये यहां अधर राशि ही को दृढ़ भाग हार से भाग दिया गया है। सिद्धान्तशेखर में ‘परस्पर भाजितयोस्तु शेषकं तयोर्द्धयोरप्य पवर्तनं भवेत्' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से श्रीपति ने आचार्योक्त के अनुरूप ही कहा है । तथा लीलावती में ‘परस्परं भाजितयोर्ययोर्यः शेषः' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित पद्य से भास्कराचार्य ने भी प्राचार्योक्त के अनुरूप ही कहा है ॥९-११॥ कोलजूक साहिब के अनुवाद के अनुसार प्रश्नरूप आर्या की त्रुटि है वह संस्कृतोपपत्ति में लिखित पद्य के अनुसार होना चाहिये ॥१४॥ इदानीं स्थिरकुट्टकादहर्गणमाह । इष्टभगणादिशेषात् स्वकुट्टकगुणात् स्वभागहारहृतात् । शेषं छुगणो गतनिरपवत्तगुणभागहारयुतः ॥१२॥ सु. भा:-यदि भगणशेषमिष्टं तदा कल्पभगणा गुणकारः । यदा राशि शेषमिष्टं तदा द्वादशगुणाः कल्पभगणा गुणकारः । भागहारस्तु सर्वदैव कल्प कुदिनानि ज्ञेयानि । एक गुणकारभागहाराभ्यां स्थिर स्वकुट्टकं विधाय तत इष्टभगणादिशेषात् किं विशिष्टात् स्वकुट्टकगुणात् पुनः किं विशिष्टात् स्वभागहार ११६४ हृताद्यच्छेषं स द्युगणोऽहर्गणो भवति स गत निरपवर्त्तगुणभागहारयुतोऽनेकधा भवति । गतः प्राप्तो निरपवत्र्तेन येनापवत्र्तेन गुणसम्बन्धी यो भागहारस्तेनार्थाद् दृढभागहारेण युतोऽनेकधा भवतीति । अत्रोपपत्तिः । ‘क्षेपं विशुद्धि परिकल्प्य रूपं पृथक् तयोर्ये गुणकारलब्धी' इति भास्करविधिना स्फुटा ।। १२ ।। वि. भा.--यदि भगणशेषमिष्टं तदा कल्प भगणा गुणकारः । यदि च राशि शेषमिष्ट तदा द्वादशगुणाः कल्पभगणा गुणकारः । भागहरस्तु सदैव कल्पकुदिनानि ज्ञातव्यानि । एवं गुणकहाराभ्यां स्थिरं स्वकुट्टक विधाय स्वकुट्टकगुणात्-स्वभाग हारभक्तादिष्टभगणाद्विशेषाद्यच्छेषं सोऽहर्गणो भवति । निरपवत्र्तन गुणसम्बन्धी गतः (प्राप्तः) यो भागहारस्तेनार्थाद् दृढ़भागहारेण युतोऽनेकधा भवतीति ॥ भाज्य. गु-१ ल अत्र कुट्टकयुक्तया ये गुणलब्धी ते ऋणात्मकक्षेपे । ततः ऋणात्मकरूपक्षेपे यदि समागतगुणलब्धी तदेष्ट ऋणात्मकक्षेपे किं ये गुणलब्धी ते स्वहारभक्त तदा वास्तवगुणलब्धी भवेताम् । लीलावत्यां ‘क्षेपं विशुद्धि परिकल्प्य रूपं पृथक् तयोर्ये गुणकारलब्धी' इत्यादि भास्करोक्तमप्येतादृशमेव सर्वत्रैव भास्करोक्तौ यादृशीं विषयप्रतिपादने स्पष्टता न तादृशी-श्राचार्योक्ताविति अब स्थिर कुट्टक के लिये अहर्गण को कहते हैं । हेि. भा.-यदि भगण शेष इष्ट है तो कल्प भगण गुणकार होता है। यदि राशि शेष इष्ट है तो बारह गुणित कल्प भगण गुणकार होता है। भाग हार सदा कल्प कुदिन होता है। इस तरह गुणकार और भाग हार से स्थिर स्वकुट्टक करके स्वकुट्टक गुणित और स्वभाग हार से भक्त इष्ट भगणादि शेष से जो शेष हो वह अहर्गण होता है दृढ़ भाग हार को जोड़ने से अनेकधा होता है इति । भाज्य-*=ल । यहाँ कुट्टक नियम से जो गुणक और लब्धी आती है वे गु ऋणात्मक रूपक्षेप में । तब अनुपात करते हैं यदि ऋणात्मक रूपक्षेप में ये गुणक और लब्धि तौ इष्ट ऋणात्मक क्षेप में क्या इससे जो गुणक और लब्धी ही उन्हें अपने हर से भाग देने से वास्तव गुणक और लब्धि होती हैं। लीलावती में 'क्षेपं विशुद्धिं परिकल्प्य रूपं’ इत्यादि भास्करौक्त भी इसी तरह है इति ॥१२॥ कुट्टकाध्याय ११६५ स्थिरकुट्टकेन विकलादिशेषाद् गृहाहर्गणयोरानयनं ब्रह्मगुप्तेन भास्करा चार्येण चोक्त, प्राचीनैः प्राधान्येन विकलादिशेषादहर्गणानयनार्थमेव कुट्टकविधि रुक्तः । भास्कराचार्येण च लीलावत्यां ‘अस्य गणितस्य ग्रहगणिते महानुपयोग स्तदर्थ किञ्चिदुच्यते' इत्युक्त्वा तद्विधिश्च “कल्प्याथशुद्धिर्विफलावशेषं षष्टिश्च भाज्यः कुदिनानि हारः । तज्जं फलं स्युर्विकला गुणस्तु लिप्ताग्रमस्माच्च कलालवाग्रम् । एवं तदूध्वं च तथाधिमासावमाग्रकाभ्यां दिवसा रवीन्द्वोः ॥” विधिरुक्त: । ग्रहस्य विकलाशेषाद्ग्रहाहर्गणयोरानयनम् । तद्यथा । तत्र षष्टिभज्यः । कुदिनानि हारः । विकलावशेषं शुद्धिरिति प्रकल्प्य गुणलब्धी साध्ये तत्र लब्धिर्विकलाः स्युः । गुण कलाशेषम् । एवं कलावशेष शुद्धिः । षष्टिर्भाज्यः । कुदिनानि हारः । लब्धिः कलाः गुणो भाग (अंश) शेषम् । भागशेषं शुद्धिः । त्रिंशद्भाज्यः । कुदिनानि हारः फलं भागाः । गुणो राशिशेषम् । एवं राशिशेषं शुद्धिः । द्वादशभाज्यः । कुदिनानि हारः । फलं गतराशयः । गुणो भगणशेषम् । कल्पभगणा भाज्यः । कुदिनानि हारः । भगण शेषं शुद्धिः । फलं गतभगणाः । गुणोऽहर्गणः स्यात् । अहर्गणज्ञानेन ग्रहज्ञानं सुगम मेव । यद्यपि श्रीपतिना कुट्टकाध्यायेऽयं विषयो (विकलादि शेषाद्ग्रहाहर्गणयोरान यनं) नोक्तस्तथापि प्रश्नाध्याये-एतद्विषयक प्रश्नो विलिखितो यथा “यो राशिशे षादथ भागशेषाल्लिप्ताविलिप्तोद्भवशेषतो वा । अहोगतं तत्परशेषतोऽपि जानाति खेटं च स कुट्टकज्ञः ॥” अर्थात् भगणादि ग्रहानयने यो राशिशेषस्तस्मात् । भागशेषात् भगणादि ग्रहानयन एव योंऽशशेषस्तस्मात् । भगणादिगृहानयने कलाशेषाद्वि कलाशेषाद्वा । खेटं (गृहं) तत्परशेषतोऽपि कला विकलादीनां पष्टयशेषु मुहुर्वर्धि तेषु तत्परतोऽपि यः शेषस्तस्मादपि च यो गणको गतमहर्गणं जानाति स कुट्टकज्ञो स्तीति । अस्योपपत्तिः । कल्पकुदिनैः कल्पभगणा लभ्यन्ते तदाऽहर्गणेन किमिति त्रैरा शिकेनाऽभीष्टदिने भगणादिगृहानयनं क्रियते । तत्र पूर्वोक्तानुपातेन लब्धा भगणाऽव शिष्ट भगणशेषम् । तच्च भगणशेषं द्वादशगुणं कल्पकुदिनैर्भक्त लब्धा राशयः । शेष राशिशेषं भवति । पुना राशिशेषं त्रिंशद्गुणितं कल्पकुदिनैर्भक्त लब्धा अंशाः शेषं चांशशेष भवति । तदंशशेषं षष्ट्या गुणितं कल्पकुदिनैर्भक्त लब्धाः कलाः शेषं च कलाशेषम् । कलाशेषमपि षष्ट्या गुणितं कल्पकुदिनैर्भक्त लब्धा विकला भवन्ति शेषं विकलाशेषमिति भगणादिशेषाणां परिभाषा । अतोऽत्रराश्यादिशेषात् गृहानयने कुट्टकगणितानुसारेण सम्भवे सति भाज्यहारक्षेपाः केनाप्यङ्कनापवत्त नीयाः । ततः पूर्वकथितरीत्या कलाशेषस्य गुणकः षष्टिः हारो दृढ़कुदिनानि । अथ येन गुणकेन गुणितश्छेदो विकलाशेषयुतः स्वगुणकेन षष्ट्या भक्तो निः शेषो भवति स गुणको गृहविकला भवन्ति फलं च कलांशेषम् । एवं कलाशेषात् कला अंशशेषं च भवति । एवमन्ते भगणशेषज्ञानं भवेत् तस्मादहर्गणज्ञानं च भवति । ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते यथा कलाशेषं षष्टिगुणं दृढ़कुदिनभक्त लब्धं गृहविकलाः शेषं च विकलाशेष मिति । हरलब्ध्योघतः क्षेपयुतो भाज्यराशिसमः ६०x कशे=गृविx दृकु+विशे कशे-गुविxदृदृकु +विशे अतो दृढ़कुदिनमानं येन गुण विकलाशेषयुतं षष्टि भक्त निरगू भवति । स गुणको गृहविकलाः । फल च कलाशेषमिति । एवं स्वस्वशेषगुरच्छेदाभ्यां तत्तच्छेषमाने भवत इति । भगणादिशेषादहर्गणानयन विधिरार्यभटीये महासिद्धान्ते भगणाद्यगूाणि स्युः क्षेपा ऋण संज्ञकाः क्वहाश्छेदः । भगणादीनां भाज्याभगणायंखा' गना तना तेना ।। विकलाशेषोत्पन्नं फलं विलिप्ता गुणः कलाशेषम् । लिप्तागूोत्पन्न फलं लिप्तागुणकोंऽशशेषं स्यात् । लवशेषजफलमंशा गुणको राश्यगूकं भवति । राश्यगूोत्पन्नफलं गृहाणि गुणको भवेद् भगणशेषम् । मण्डलशेषप्रभवं फलं च चक्राण्यहर्गणो गुणकः ।।' इति । स्थिर कुट्टक से ग्रहानयन और विकलादिशेष से अहर्गणानयन ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्यने किया है। विकलादिशेष से अहर्गणानयन को ही प्राचीनाचार्य प्रधानरूप से कुट्टक विधि कहते हैं। भास्कराचार्य ने लीलावती में ‘अस्य गणितस्य ग्रहगणिते महानुपयोग स्तदर्थं किञ्चिदुच्यते’ यह कहकर उसकी विधि “कल्प्याथ शुद्धिर्विकलावशेष षष्टिश्च भाज्यः कुदिनानि हारः” तज्जं फलं स्युर्विकला गुणारतु लिप्ताग्रमस्माच्च कलालवाग्रम् । एवं तदूध्र्व च तथा इत्यादि से भास्कराचार्य ने विधि कही है। ग्रह के विकलाशेष से ग्रहानयन अहर्ग रणानयन करते हैं । जैसे-साठ भाज्य । कुदिन हर, विकलावशेष शुद्धि ये कल्पना कर गुणक और लब्धि साधन करना चाहिये, यहाँ लब्धि विकला होती है। और गुणक कलाशेप । एवं कलाशेष शुद्धि । साठ भाज्य । कुदिन हर इससे लब्धि कला होती है और गुणक भाग (अंश) शेष होता है । भागशेष शुद्धि, तीस भाज्य, कुदिनहर इससे लब्धि गतराशि प्रमाण होता है । गुणक भगणशेष होता है। कल्पभगण भाज्य । कुदिन हर, भगणशेष शुद्धि इससे लब्धि गतभगण होता है। गुणक अहर्गण होता है । अहर्गण ज्ञान से ग्रहानयन सुगम ही है। यद्यपि श्रीपति ने कुट्टकाध्याय में इस विषय को (विकलादिशेष से ग्रहानयन और अहर्गणा नयन) नहीं कहा है । तथापि प्रश्नाध्याय में एतद्विषयक प्रश्न लिखे हैं जैसे ‘यो राशिशेषादथ भागशेषा'दित्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से स्पष्ट किया है । अर्थात् भगणादि ग्रहानयन में जो राशि शेष है उससे, भगणादिग्रहानयन में ही जो अंश शेष है उससे भगणादि ग्रहानयन में कलाशेष से या विकलाशेष से ग्रह को और अहर्गण को जो गणक जानते हैं वे कुट्टकज्ञ हैं । (१) यंखा-१२ । गना= ३० । तना=६० । तेना= ६० द्वितीयार्यभटकृते महा
सिद्धान्ते एवमेव केरलमतानुसारी सवत्रैव संख्यापाठोऽस्तीति ।इसकी उपपत्ति ।
यदि कल्प कुदिन में कम्पभगण पाते हैं तो अहर्गण में क्या इस त्रैराशिक से अभीष्ट दिन में भगणादि ग्रहानयन करते हैं । उपर्युक्तानुपात से लब्ध भगण होता है और शेष भगण शेष है । इस भगण शेष को बारह से गुणा कर कल्प कुदिन से भाग देने से लब्ध राशिप्रमाण होता है । शेष राशि शेष है । रात्रि शेष को तीस से गुणाकर कल्प कुदिन से भाग देने से लब्ध अंश होता है । शेष अंश शेष होता है। इस अंश शेष को साठ से गुणा कर कल्पकुदिन से भाग देने से लब्धि कला होती है । और शेष कला शेष होता है । कला शेष को साठ से गुणाकर कल्पकुदिन से भाग देने से लब्धि विकला होती है । शेष विकला शेष होता है । यही भगणादिशेषों की परिभाषा है । अतः यहां राश्यादि शेष से प्रहानयन में छुट्टक गणितानुसार सम्भव रहने पर किसी अङ्क से भाज्य हार-क्षेपों को अपवर्तन देना चाहिये । तब पूर्वकथित रीति से कलाशेष के गुणक साठहार दृढ़कुदिन, जिस गुणक से गुणित छेद में विकलाशेष जोड़कर अपने गुणक साठ से भाग देने से नि:शेष हो वह गुणक ग्रहविकला होती है । लब्धिकला शेष होता है । कलाशेष से कला अ श शेष होता है । इस तरह अन्त में भगणशेष ज्ञान होता है । उससे अहर्गणानयन भी होता है । जैसे कलाशेष को साठ से गुणाकर दृढ़ कुदिन से भाग देने से लब्धि ग्रहविकला होती है और शेष विकला शेष होता है । हर और लब्धि के घात में होप को जोड़ने से भाज्य के बराबर होता है।
∴ ६० x कशे = ग्रवि. दृकु + विशे ∴ ग्रवि. दृकु + विशे = कशे अतः दृढ़कुदिन मानं
जिस गुणक से गुणाकर विकला शेष को जोड़कर साठ से भाग देने से निरग्र (नि:शेष) हो वह गुणक ग्रहविकला होती है । और लब्धि कलाशेष होता है । भगणादि शेष से अहर्गाणा नयन की विधि आर्यभटीय महासिद्धान्त में है जैसे-
'भगणाद्यग्राणि स्युः क्षेप ऋण संज्ञकाः कुट्टाछेदः । भगणादीनां भाज्या भगणा यंखा[१] गना तना तेन ।' |
इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोकों से स्फुट है इति ।।
भास्कराचार्येण ‘कल्प्याथ शुद्धिविकलावशेषमित्यादौ कथ्यते यदस्य गणितस्य ग्रहगणिते महानुपयोगस्तदुपयोगित्वसम्बन्धे विचार्यते । यथा भगणादिशेषतो ऽहर्गणानयनार्थं दृढ़भगणशेषं चक्रविकलाभिर्गणितं दृढकुदिनैर्भक्त लब्धं विकलात्मकग्रहः शेषं विकलाशेषं तत्स्वरूपम् = विग्र + छेदगमेन दृभशे x चवि = इकृदि. विग्र + विशे अतः दृभशे
दृभशे xचवि
दृकुदि खेद ११६८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते = दृकुदि. विग्र-+विशे , विग्र=विकलात्मकगृह । विशे = विकलाशेष । चवि चवि =चक्रविकला। अत्र यदि चक्रविकलातो विकलाशेषमल्पं तदाऽस्मिन् दृकुदि. विग्र स्वरूपेऽपि शेषेणावश्यं भवितव्यम् यतो दृढभगणस्वरूपे दृढ़कुट्टकावसरः । कुट्टकस्य सार्वदिक दृढ़त्वमस्त्येवातो विकलाशेषस्य शेषस्य च योगश्चक्रविकलासमः । अन्यथा दृढत्वाभावापत्तिः । अथ यदि लब्धिः=ल तदा भशे= - ल. चवि + शे -- विशे अर्थात् ल-+- विशेो - च,ि िवशे परन्त्वत्र शे < <चविपरञ्च दृढभगणशेषं शे-+-विशे निरवयवमतः शे-+विशे=चवि अतः –= १ । तेन ल+१= दृभशे चवि अन्यथा दृढ़त्वाभावात्कुट्टकस्याव्याप्तिः । अतः चवि-शे=विशे, यदि शे=० तदा विशे=चवि । यदि चवि-शे> दृकु स्यात्तदा ‘येनच्छिन्नौ भाज्यहारावित्यादि युक्तया खिलोद्दिष्टत्वात् दृढभगणशेषमपि खिलम् । अखिलोदाहरणसत्वे ‘कल्प्याथ शुद्धिर्विकलावशेष'मित्यादिना ऽहर्गणः साध्यः । अथ पूर्वानीतभगणशेषस्वरूपे छेदगमादिना दृभशे:विविशे = विगू अत्र कुट्टकयुक्तया ऽहर्गणज्ञानं सुलभम् । परञ्चोक्तस्वरूप एव भशे. चवि-विगू. दृकुः=विशे, अस्मिन् इ. चवि योजनेन तुल्य गुणक पृथक् करणेन च (दृभशे. इ) चवि-विगृ=विशे-+इ. चवि अत्र यदि विशे-+इ. चवि-इकु तदा दृभगशे.+इ.=भगशे-विशे-+इ. चवि =विशे अस्मादपि कल्प्याथ शुद्धिर्विकलावशेषमित्यादिना ऽहर्गणः साध्य इति । भास्कराचार्य लीलावती में ‘कल्प्याथ शुद्धि विकलावशेषं' इत्यादि कहते हैं कि ‘अस्य गणितस्य ग्रहगणिते महानुपयोगः' अर्थात् इस गणित के ग्रहगणित में बहुत उपयोगिता है । उसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में विचार करते हैं। यथा भगणादिशेष से अहर्गणानयन के लिये दृढ़भगणशेष को चक्र विकला से गुणाकर दृढ़कुदिन से भाग देने से लब्ध विकलात्मक ग्रह होता है शेषविकला शेष रहता है उसका स्वरूप := **************–= विग्र +- दृकुदि छेदगम से दृभशे. चवि=दृकुदि.विग्र-+विशे । अतः इकुदि. विग्र-+विशे =विकलात्मकग्र, विशे=विकलाशेष, चवि=चक्रविकला, यहाँ यदि चक्रविकला से विकला शेष अल्प है तब दृकु.िवि.इस स्वरूप में भी शेष अवश्य होना चाहिये, क्योंकि दृढ़भगः रणस्वरूप में दृढ़ कुट्टक का अवसर है । कुट्टक का सार्वदिक दृढ़त्व है ही इसलिये विकलाशेष कुट्टकाध्यायः और शेष का योग चक्र विकला के समान है। अन्यथा दृढ़त्वाभाव रूप आपत्ति होगी । यदि लब्धि = ल तब भशे = ल. चवि+शे+विशे अर्थात् ल +- शे-+विशे परन्तु यहां शे <चवि, विशे < चवि लेकिन दृढ़ भगण शेष निरवयव है इसलिये शे + विशे = चवि शे –+ विशे १, इसलिये ल + १ = दृभशे अन्यथा दृढ़त्व के अभाव से कुट्टक की अव्याप्ति होगी, अतः चवि-शे = विशे, यदि श =० तब विशे = चवि, यदि चविः शे > दृकुदि तब येनच्छिन्नौ भाज्यहारौ' इत्यादि युक्ति से उदाहरण के खिलत्व से दृढ़भग णशेष भी खिल होगा । अखिल उदाहरण के रहने से ‘कल्प्याथशुद्धिर्विकलावशेषं' इत्यादि भास्करोक्त से अंहर्गण साधन करना, पूर्वानीत भगणशेषस्वरूप में छेदगमादि से द्वभशे. चवि-विशे = विग्र । यहाँ कुट्टक की युक्ति से अहर्गणज्ञान सुलभ है। परञ्च उक्त स्वरूप ही में भशे. चवि-विग्र. दृकु=विशे इसमें इ. चवि जोड़ने से और तुल्य गुणक पृथक् करने से (दृभश.इ) चवि-विग्र = विशे + इ. चवि । यहां यदि विशे-+इ. चवि-दृकुदि तब द्वभश +- इ = भगशे x विशे + इ. चवि=विशे, इससे भी ‘कल्प्याथ शुद्धि विकलावशेष' इत्यादि से अहर्गण साघन करना चाहिए इति ।। १२ ॥ इदानीं स्थिरकुट्टके विशेषमाह । एवं समेषु विषमेष्वृणं धनं धनमृण्यं यदुक्त तत् । ऋणधनयोव्र्यस्तत्वं गुण्यप्रक्षेपयोः कार्यम् ॥१३॥ सु. भा-एवं पूर्वागतवल्लीस्थफलेषु समेषु कर्म भवति । विषमेषु फलेषु च। यदिष्टगुणकारतो लब्धं भवेत् तत्तत्र यद्धन वा ऋणमुक्त स्यात् तत् क्रमेण ऋण धनं कार्यम् । एवमृणधनयोर्गुण्यप्रक्षेपयोश्च व्यस्तत्वं कार्यम् । अत्रैतदुक्त भवति । यदि गुणो धनः क्षेपश्च क्षयस्तत्र धनगुणक्षेपाभ्यां कर्म कर्तव्यम् । यत्र च गुणो ऽधनः क्षेपश्च धनस्तन्न धनेन गुणेन ऋणक्षेपे कुट्टकः कर्तव्य इति । अत्रोपपत्तिः । एवं तदैवात्र यदा समास्ताः' इत्यादिभास्करविधिना स्फटा । इहाचार्येण प्रथमं गुणकारेण भागहारो विभाजितोऽतोऽत्र द्वितीय लब्धितौ वल्ली सम्पन्ना तेन समायां वल्ल्यामृणक्षेपेऽन्यथा धनक्षेपे भवतीति । ऋणभाज्ये धनक्षेपे' इत्यादिविधिना शेषोपपत्तिः स्फुटेति ॥ १३ ॥ वि. भा.–विषमेषु फलेषु यदिष्टगुणकारतो लब्धं भवेत्तत्तत्र यद्धनं वा ऋण मुक्त तत् क्रमेण ऋणं धन कार्यम् । एवमृणधनयोगुण्यप्रक्षेपयोश्च व्यस्तत्वं कार्यम् । यदि गुणो घनः क्षेपश्चर्ण तत्र धनगुणक्षेपभ्यां कर्म कार्यम् । यत्र च गुणो ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ऋणात्मकः क्षेपश्च धनात्मकस्तत्र घनात्मकगुणेन ऋणक्षेपे कुट्टकः कर्तव्य इति । ११७० अत्रोपपत्तिः । भा. गु+-क्षे भा. गु-+-क्ष=हा. ल इ. भा. हा-=इ. भा. हा************(ख) (ख) अत्र समीकरणे (क) समीकरणं विशोध्यते तदा इ. भा. हा (भा. गु+-क्षे)=इ. भा. हा-हा. ल =इ. भा. हा-भा. गु-क्षे=भा (इ. हा -गु)-क्षे=हा (इ. भा-ल) । अत्र यदि इ= १ तदा भा (हा-गु)-क्षे=हा (भा-ल) अतः भा (हा-गु)-क्षे भा—ल अत्र यदि हा-गु=गु । भा-ल भा. ग-क्षे ल तदा ल, लीलावत्यां ‘यदा गतौ लब्धिगुणौ विशोध्यौ स्वतक्ष णाच्छेमितौ तु तौ स्त’ इति भास्करोक्तमप्याचार्योक्त सदृशमेव । अथ भा. गु+-क्षे =हा. ल, उभयत्रापि इ. भा. हा योजनेन भा. गु+क्षे-+ह. भा. हा=हा. ल+इ. भा. हा=भा (गु+इ. हा)+क्षे=हा (ल+इ. भा) अत्र यदि गु+इ. हा=गु, ल-+इ. भा=ल तदा भा. गु-+ क्षे=हा. ले एतावताऽऽचार्योक्तमुपपन्नम् । सिद्धान्त शेखरे “तदुद्धतच्छेदविभाज्यकौ क्रमादभीष्टनिघ्नौ तु गुणाप्तयोः क्षिपेत्” श्रीपत्यु क्तमिदमाचार्योक्तानुरूपमेवेति ॥१३॥ अब स्थिर कुट्टक में विशेष कहते हैं । हिं. भा.-इस तरह पूर्वागत वल्लीस्थ फल में कर्म होता है। विषम फल में इष्ट गुणकार से जो लब्ध हो वह वहां जो धन वा ऋण कथित है वह क्रम से ऋण और धन करना चाहिये । एवं ऋण गुण्य और धन क्षेप को विलोमत्व करना चाहिये । यदि गुणक घन हो और क्षेप ऋण हो वहाँ घनात्मक गुणक और क्षेप से कर्म करना चाहिये । जहां गुणक ऋण हो और क्षेप घन हो वहां धनात्मक गुणक से ऋण क्षेप में कुट्टक करना चाहिये इति । ल. अतः भा. गु-+क्षे=हा. ल ३. भा. हा==इ. भा. हा ******************(ख) (ख) समीकरण में से (क) समीकरण को घटाने से इ. भा. हा-(भा. गु-+क्षे) = इ. भा. हा-हा. ल=इ. भा: हा-भा. गु-क्षे=भा (इ. हा-गु)-क्षे=हा (इ. भा-ल ) । यहां यदि इ=१ तब भा (हा-गु) -क्षे=हा (भा-ल) अतः भा (हा-गु)-क्षे =भा-ल, यहां यदि हा-गु=गु । भा-ल=ल तब भा. गु-क्षे =ल, लीलावती में ‘यदा गतौ लब्धिगुणौ विशोध्यौ' इत्यादि भास्करोक्त इससे उपपन्न होता है जो कि आचार्योक्त के सदृश ही है। भा. गु-+क्षे=हा. ल दोनों में इ. भा. हा जोड़ने से भा. गु-+-क्षे-+इ. भा. हा=हा. ल-+इ. भा. हा=भा (गु-+इ. हा) +-क्षे=हा (ल-+इ. भा) यहां यदि गु-+इ. हा =गु । ल+इ. भा=ल तब भा. गु-+क्षे=हा. ल इससे आचा यक्त उपपन्न होता है। सिद्धान्तशेखर में ‘तदुद्धतच्छेदविभाजकौ क्रमादभीष्टनिघ्नौ' इत्यादि श्रीपत्युक्त भी उपपन्न हुआ जो कि आचार्योक्त के अनुरूप है इति ॥१३॥ इदानीं विलोमगणितमाह। गुणकश्छेदो छेदो गुणको धनमृणमृणं धनं कार्यम् । वर्गः पदं पदं कृतिरन्त्याद्विपरीतमाद्य' तत् ॥१४॥ ११७१ सु. भा.-अन्त्याद् दृश्याद्विपरीतं कार्य तदाऽऽद्यमाद्यराशिमानं भवेत् । शेषं स्पष्टाथम् । ‘छेद गुण गुण छेद वग मूल पद कृतिम्-इत्यादि भास्करोक्त मेतद नुरूपमव ॥ १४ ॥ वि. भा-अन्त्यात् (दृश्यात्) गुणको हरः । छेदोहरः गुणकः । धनं ऋणं, ऋणं धनं, वगों मूलं, मूलं वर्गः, इति सर्व दृश्ये कार्य तदाऽऽद्यराशिमानं भवेत् । सिद्धान्तशेखरे “गुणो हरो हरो गुणः पदे कृतिः कृतिः पदम् । क्षयो धनं धनं क्षयः प्रतीपकेन दृश्यके ।” श्रीपत्युक्तमिदं “गुणकारा भागहरा भागहरा ये भवन्ति गुणकाराः । यः क्षेपः सोऽपचयोऽपचयः क्षेपश्च विपरीते ।।'इत्यार्यभटोक्तस्यानुरूप मेव आचार्यो (ब्रह्मगुप्त) क्तमप्यार्यभटोक्तानुरूपमेव । गुणकारा भागहरा इत्यादे गणितार्थमार्यभटीयटीकाकारस्य परमेश्वरस्योदाहरणम् । कस्त्रिघ्नः पञ्चभि भर्भक्तः षड्भिर्युक्तः पदीकृतः । एकोनो वर्गितो वेदसंख्यः स गणक उच्यताम् ।। छेदं गुणं गुणं छेदं वर्ग मूलं पदं कृतिम् । ऋणं स्वमित्यादि भास्करोक्तमाचार्योक्तानु रूपमेवास्ति । गणेशदैवज्ञोक्तमुदाहरणम् । राशेर्यस्य कराहतस्य च पदं स्वाष्टांश युग्वर्गितं रामाप्तं च निजैस्त्रिभिर्नवलवैरूनं स नूनः पुनः। शिष्टं वेदमितं विलोम विधिना तं ब्रहि राशि सखे चेत् पाटीगणिताटवीप्रकटितं शार्दूलविक्रीड़ितम् ।। ' अब विलोम गणित को कहते हैं। हेि. भा.-अन्त्य (दृश्य) से गुणक को हर, हर को गुणक, धन को ऋण, ऋण ११७२ को धन, वर्ग को मूल, मूल को वर्ग यह सब कर्म दृश्य में करना चाहिये तब प्राद्यराशि मान होता है ॥१४॥ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते राशि में जिन कर्मों को करने से दृश्य के बराबर हौ, दृश्य में उन्हीं कम की विलोम क्रिया से इष्ट राशि मान होता है। सिद्धान्तशेखर में ‘गुणो हरो हरो गुणः पदं कृतिः' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से श्रीपति ने आचार्य के अनुरूप ही कहा है। ‘गुणकारा भाग हरा भागहरा ये भवन्ति गुणकारा' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित आर्यभटोक्त प्रकार के अनुरूप ही आचार्यो (ब्रह्मगुप्त) क्तप्रकार भी है । लीलावती में ‘छेदं गुणं गुणं छेदं वर्ग मूल पदं कृतिम्’ – इत्यादि भास्करोक्त भी प्राचायक्त के अनुरूप ही है इति ।॥१४॥ उपपत्ति । र. इदानीं प्रश्नमाह । यो जानाति युगादिग्रहयुगयातैः पृथक् पृथक् कथितैः । द्वित्रिचतुःप्रभृतीनां कुट्टाकारं स जानाति ॥१५॥ सु. भा.-द्विचतुःप्रभृतीनां पृथक्-पृथक् कथितैग्रहयुगयातैय युगादि जानाति स कुट्टाकार जानातीत्यहं मन्ये । अस्योत्तर’ ‘छेदवधस्य द्वियुग’ मिति षष्ठसूत्रेण स्फुटम् । कोलबकसाहबेन यत्पुस्तकादस्याङ्गलभाषायामनुवादः कृतस्त स्मिन्नयं सप्तमः श्लोकः ॥ १५ ॥ अत्रोदाहरणं चतुर्वेदाचार्येण कल्पे रविभगणाः ३० ! चन्द्रभगणाः ४०० । कुजभ. १६ । बुभ. १३० । गुभ. ३ । शुभ. ५० । शभ. १ । चै. उ. भ* ४ । व. पाः भ.२ । भदिनानि १०९९० । सौरमासाः ३६० । चान्द्रमासाः ३७० । अधिमासाः १० । सौरदिनानि १०८०० । चान्द्रदिनानि १११०० । क्षयाहाः १४० । सावनदिनानि १०९६० ! एकस्मिन् दिनै भगणात्मिका गतिश्च । चं. भौ. बु. उ. गु. शु. उ. श. च. उ. कल्पिता । इति सर्व कोलङ्गकानुवादतो ज्ञायते । चतुर्वेदटीकाऽस्याध्यायस्य नोपलब्धाऽस्माभिः ।। १५ ।। च. पा. वि. भा.-द्वित्रिचतुः प्रभृतीनां (द्वित्र्यादीनां) पृथक् पृथक् कथितैग्रहयुग-. यातैर्यो युगादि जानाति स कुट्टाकारं (कुट्टकगणितं) जानातीति । पूर्वोक्त ‘अधिकागूभागहारादूनागृच्छेद भाजिताच्छेषम् । यत् तत् परस्पर हृतं लब्धमधोऽधः पृथक् स्थाप्यम्, इत्यादिश्लोकेषु श्रीमतां म. म. सुधाकरद्विवेदिम होदयानामुदाहरणम् । चतुस्त्रिशद्धतोद्वयग्रः पंक्तयग्रोविश्वभाजितः । तं राशि शीघ्रमाचक्ष्व यदि जानासि कुट्टकम्। एतदनुसारेण “यद्येको ग्रहो दिनचतुस्त्रिंश ताऽन्यश्च त्रयोदशदिनैरेकं भगणं भुक्त तयोरन्तिमयुतेर्दश दिनानि व्यतीतानि तदा कल्पात् कियन्ति दिनानि व्यतीतानीति” प्रश्ने को राशिश्चतुस्त्रिशद्धतोदशशेष स्त्रयोदशाहृतश्च दशशेष इति प्रश्नोत्तरेणैवोत्तरसिद्धिः । एवं त्र्यादिग्रहाणामपि युगतानयनं भवति । अत्रोदाहणार्थ चतुर्वेदाचार्येण कल्पे रविभगंणाः=३०, चन्द्रभगणाः=४००, कुजभगणाः=१६, बुधभगणाः = १३०, गुरुभगणाः=३, शुक्र भगणाः=५० । शनि भगणाः=१, चन्द्रोच्च भगणाः=४, चन्द्रपातभगणौ=२ भदिनानि =१०९९०, सौरमासाः=३६०, चान्द्रमासाः=३७०, अधिमासाः=१०, सौरदिनानि=१०८००, चान्द्रदिनानि=१११००, क्षयाहाः=१४०, सावन दिनानि =१०९६०, एकस्मिन् दिने भगणात्मिका गतिश्च । राशौ येन कर्मणा द्वश्यतुल्यो भवेत्तद्विलोमेनैव तेनैव कर्मणा दृश्ये ि क्रियाकरणेनेष्टराशिर्भवेत्। र ३ | || च ५ | || म १ | || बुञ्ज | कुट्टकाध्याय १३ || गु ३ | शुउ : २ा १०९६ | १३७ || ६८५ | १०९६ | १०९६० | १०९६ | १०९६० | २७४० ! ५४८० उपपत्ति । | चउ | चपा कल्पिता, इतिसर्व कोलब्र कानुवादतो ज्ञायत इति ॥१५॥ अब प्रश्न को कहते हैं । हेि. भा-दो तीन आदि ग्रहों के अलग-अलग कथित ग्रह गतयुग से जो युगादि को जानते हैं वे कुट्टक को जानते हैं। इसके उत्तर के लिये पूर्वोक्त ‘अधिकाग्रभागहारादूनाग्रच्छेद भाजिताच्छेषम्' इत्यादि श्लोकों में म. म. श्रीमान् सुधाकर द्विवेदी जी के उदाहरण हैं, जैसे किसी राशि को चौंतीस से भाग देने से दो शेष रहता है, तथा तेरह से भाग देने से दस शेष रहता है उस राशि को कहो । इसके अनुसार यदि एक ग्रह चौंतीस दिनों में और अन्य ग्रह तेरह दिनों में एक भगण को भोग ११७४ करते हैं दोनों की अन्तिम युति (योग) से दश दिन व्यतीत हुए तब कल्प से कितने नि व्यतीत हुए ? इस प्रश्न में ‘कौन राशि है जिसको चौंतीस से भाग देने से दस शेष रहता है, तथा उसी राशि को तेरह से भाग देने से भी दस शेष रहता है इस प्रश्न के उत्तर ही से उत्तर सिद्धि होती है। इस तरह तीन आदि ग्रहों का भी युगगतानयन होता है। यहां उदाहरण के लिये चतुर्वेदाचार्य ने, कल्प में रवि भगण=३०, चन्द्रभगण =४००, कुजभगण = १६ , बुधभगण=१३०, गुरुभगण=३, शुक्रभगण=५०, शनिभगण=१, चन्द्रोचभगणः=४, चन्द्रपातभगण=२, भदिन=१०९९०, सौरमास=३६०, चान्द्रमास ३७०, अधिमास = १०, सौरदिन=१०८००, चान्द्रदिन = १११००, क्षयाह = १४०, सावनदिन= १०९६०, तथा एक दिन में भगणात्मक गति की संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) के अनुसार कल्पना की । यह सब कोलब्रक साहेब के अनुवाद से विदित होता हैं इति ॥१५॥ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते भगणाद्यमिष्टशेषं कदेन्दुदिवसे रवेगुरुदिने वा । ज्ञदिने राशीन् कथयति कुट्टाकारं स जानाति ॥१६॥ सु. भा.-रवेर्भगणाद्यमिष्टशेषं भगणादिशेषमिष्टं कदा चन्द्रदिने वा गुरुदिने ज्ञदिने भवतीति विज्ञाय यश्च रवे राशीन् राश्यादिरविं कथयति स कुट्टाकार जानातीत्यहं मन्ये । प्रथद्भिगणशेषादहर्गणमानयेति प्रश्नः । इदानीमन्यं प्रश्नमाह । अस्योत्तरं १२ सूत्रेण स्फुटम् । अत्रकुट्टके तावद्धरएकादिगुणः क्षेप्यो यावद भीष्टो वारो भवेदिति ॥ १६ ॥ वि. भा-रवेरिष्टं भगणादिशेषं कदा चन्द्रदिने वा गुरुदिने वा बुधदिने भवतीति ज्ञात्वा राश्यादिरविं यः कथयति स कुट्टाकारं जानातीति, अर्थाद् भगण शेषादहर्गणमानयेति प्रश्नः । उपपत्तिः पूर्वं प्रदर्शिताऽपि सौकर्यार्य विलिख्यते । कल्प्यतेऽहर्गणमानम्=य, तदा कल्पकुदिनैः कल्पभगणा लभ्यन्ते तदा ऽहगैणेनकिं लब्धगतभगणाः शेषं कल्प्यते छेदगमेन कल्पभ . य ककु. गभ+-भशे। ततः ककु. गभ-+भश= य । अत्र ककु, कल्पभ भाज्यहाराभ्यां यौ राशी तत्राधरः कभ भक्तः शेषं गभमानम् । परन्तु यद्यधिकाग्रम् =भशे । तच्छेदः ककु । ऊताग्रम्=०, तच्छेदः-कभ तदाऽऽचार्योक्तकुट्टकप्रकारेण' छेदवधच्छेदेऽ (१) अधिकाग्रभागहारादूनाग्रच्छेदभाजिताच्छेषमित्यादिना कल्पभ ग्रमानम्=गभ. ककु+-भशे, अत इदमगू’ कल्पभगणभक्त लब्धं य मानं स्यादर्थाद हर्गणो भवेत् । ततो रविज्ञानं सुगममेव ॥१६॥ अब अन्य प्रश्न को कहते हैं। हेि. भा.-रवि के इष्ट भगणादिशेष कब चन्द्रदिन में वा गुरुदिन में वा बुधदिन में होता है इसको जानकर जो राश्यादिरवि को कहते हैं वे कुट्टक को जानते हैं। अर्थात् भगणशेष से अहर्गणानयन के लिये प्रश्न है । कल्पना करते हैं अहर्गणमान=य । तब अनुपात करते हैं कल्पकुदिन में कल्पभगण पाते हैं तो अहर्गण में क्या इससे लब्ध गतभगण, शेष भगणशेष होता है इसका स्वरूप=**** ११७५ गभ ककु . गाभ + भश ककु = य । यहां ककु, कभ भाज्य, हारों से जो राशिद्वय होता है उसमें अधरराशि को कल्प भगण से भाग देने से शेष गत भगणमान होता है । लेकिन यदि अधिकाग्र = भशे उसका छेद = ककु । ऊनाग्र = ० । उसका छेद = कभ तब आचार्योक्त कुट्टक प्रकार से छेद घात तुल्य छेद में अग्र (शेष ) मान = ककु . गभ + भशे । इस अग्र को कल्पभगण से भाग देने से लब्ध य मान होता है वही श्रहर्गण है । अहर्गण ज्ञान से रवि का ज्ञान सुलभ ही है इति ।। १६ ।। इदानीमन्यं प्रश्नमाह ज्ञदिने यदंशशेषं विकलाशेषं कदा तदिन्दुदिने । भानोरथवा शशिनो यः कथयति कुट्टकज्ञः सः ।। १७ ।। सु. भा.-भानोरथवा शशिनश्चन्द्रस्य यदंशशेषं वा विकलाशेषे बुधदिने दृष्टं तदेव कदा चन्द्रदिने भवतीत्यस्योत्तर यः कथयति स एव कुट्टकज्ञ इत्यहं मस्ये । अस्योत्तरं १२ सूत्रेण स्फुटम् ।। १७ ।। वि. भा-भानोः (सूर्यस्य) शशिनः (चन्द्रस्य) यदंशशेष विकलाशेषं वा बुधदिने दृष्टं तचन्द्र दिने कदा भवतीत्यस्योत्तरं यः कथयति सः कुट्टक पण्डित इति ॥ विशेषात् वास्तीति ॥ १७ स्वकुट्टकगुणात् स्वभागहारहृतादित्यादिना स्फुटै ११७६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अब अन्य प्रश्न को कहते हैं । हिं. भा.-सूर्य और चन्द्र का जो अंशशेष वा विकलाशेष बुधदिन में देखा गया वही चन्द्रदिन में कब होता है इसका उत्तर जो जानते हैं वे कुट्टक के पण्डित है । इति । उपपत्ति । ‘इष्ट भगणादिशेषात् स्वकुट्टकगुणात्' इत्यादि १२ सूत्र से स्फुट है इति ॥१७॥ इदानीमन्यं प्रश्नमाह । तिथिमान दिनेष्विष्टा ये ऽकर्काद्यास्ते पुनः कदा तेषु । इष्टगृहवारेषु यः कथयति कुट्टकज्ञः सः ॥ १८ ॥ सु. भा.-तिथिमानदिनेषु चान्द्रसौरसावनदिनेष्वर्थादुद्दिष्टाहर्गणे येऽभीष्टा अकर्काद्यास्त एव पुनः कदेष्टग्रहवारेषु तेषु चान्द्रसौरसावनदिनेषु भवन्ति । इति यः कथयति स एव कुट्टकज्ञ इत्यहं मन्ये । यस्मिन्नहर्गणे येऽभीष्टा गृहा आगतास्तत्समा एव कदेष्टवारेऽन्यस्मिन्नहर्गशे ते भवन्तीति प्रश्नः । अस्योत्तर च १२ सूत्रेण स्फुटम् ॥ १८ ॥ वि. भा.-तिथिमानदिनेषु (चान्द्रसौरसावनदिनेष्वर्थादुद्दिष्टाहर्गणै ) ये इष्टा रव्यादयस्त एव पुनःकर्देष्टग्रहवारेषु चान्द्रसौरसावनदिनेषु भवन्तीत्य थर्थाद्यस्मिन्नहर्गणे ये ऽभीष्टा गुहा समागतास्तत्तुल्या एव कदैष्टवारे ऽन्यस्मिन्न हर्गणे ते भवन्तीति यः कथयति सः कुट्टकपण्डितोऽस्तीति । ‘इष्टभगणादिशेषादि'. त्यादि १२ सूत्रेणाऽस्योपपत्तिः स्फुटैवास्तीति ॥ १८ ॥ अब अन्य प्रश्नों को कहते हैं। हेि. भा.-चान्द्र सौर सावन दिनों में अर्थात् उद्दिष्टाहर्गण में जो इष्ट रवि आदि ग्रह हैं वही पुनः कब इष्टग्रह वारों में उन चान्द्र सौर सावन दिनों में होते हैं अर्थात् जिस अहर्गण में जो अभीष्टग्रह आये हैं उनके बराबर ही कब इष्टवार में अन्य अहर्गण में वे होते हैं यह प्रश्न है इसको जो कहते हैं वे कुट्टक के पण्डित है। इसकी उपपत्ति ‘इष्ट भगणादि शेषात्' इत्यादि १२ सूत्र से स्पष्ट ही है इति ।। १८ ।। इदानीं बालावबोधार्थ पूर्वप्रश्नोत्तरं कथयति । इष्टभगणादिशेषाद् द्यगणस्तत् कुट्टकेन संयुक्तः । तच्छेददिनैस्तावद्दिनवारो यावदिष्टः स्यात् ॥ १९ ॥ सु. भा.-इष्टभगणादिशेषात् तत्कुट्टकेन १२ सूत्रविधिना प्रथमं द्युग्गणोऽह र्गणः साध्यः स तावत् तच्छेददिनैः संयुक्तो यावदिष्टो वारः स्यादिति स्पष्टम् ॥१९॥ वि. भा-इष्टभगणादिशेषात् पूर्ववत् ( इष्टभगणादिशेषादित्यादि १२ सूत्रानुसारेण ) अहर्गणः साध्यः स तावत्तच्छेददिनैः संयुक्तः कार्यो यावदिष्टो दिनवारः स्यादिति ॥ १९ ॥ अब बालकों के बोध के लिये पूर्व प्रश्न के उत्तर को कहते हैं । हैि. भा-इष्टभगणादिशेष से पूर्ववत् (इष्टभगणादि शेषात्' इत्यादि १२ सूत्र के अनुसार) अहगरण साधन करना चाहिये उसमें तब तक उन् छेददिनों को जोड़ना चाहिये जब तक इष्ट दिनवार हो इति ।। १९ ।। इदानीमन्यान् प्रश्नानाह । यो राश्यादीन् दृष्टवा मध्यस्येष्टस्य कथयति छगणम् । द्वयादिगृहसंयोगात् गृहान्तराद्वा स कुड्ज्ञः ॥ २० ॥ ११७७ सु. भा.-य इष्टगृहस्य मध्यस्य राश्यादीन् दृष्ट्वा द्युगणं कथयति । वा यादिग्रहसंयोगाद् द्युगण कथयति वा द्वयोगूहृयोरन्तरादुद्युगण कथयति स कुट्टज्ञ कुट्टकज्ञ इत्यहं मन्ये ॥ २० ॥ वि. भा-इष्टयूहस्य मध्यस्य राश्यादीन् दृष्टवा योऽहर्गरणं कथयति । वा द्वयादिगृहसंयोगादहर्गणं कथयति । वा ग्रहान्तरात् (द्वयोगूहयोरन्तरत्) अह गरणं कथयति स कुट्टकपण्डितो ऽस्तीति ॥ २० ॥ अब अन्य प्रश्नों को कहते हैं। हेि. भा.-मध्यम इष्ट ग्रह के राश्यादि को देखकर जो अहर्पण को कहते हैं । वा दो आदि। ग्रहों के संयोग से अहर्गण को कहते हैं। वा दो ग्रहों के अन्तर से अहर्गण को कहते हैं वे कुट्टक के पण्डित हैं इति ।। २० ।। इदानीं पूर्वप्रश्नस्योत्तरमाह । नश्छेदभागहारराद्राश्यादिकलादिना हता भक्त भमणकलाभिर्लब्धं मण्डलशेष दिनगणोऽस्मात् ॥ २१ ॥ सु. भा.-निश्छेदभागहाराद् दृढकुदिनमानात् किं विशिष्टाद् राश्यादिकला दिना गृहकलात्मकप्रमाणेन हताचक्रकलाभिर्भक्ताद्यल्लब्ध तद्भगणशेषं स्यादस्मात् पूर्वोक्तविधिना दिनगणो भचतीति । ११७८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अत्रोपपत्तिः । दृढभगणशेषं चक्रकलागुणं दृढकुदिनभक्त कलात्मकगूहो भवत्यतस्तद्विपरीतेन कलात्मकग्रहो दृढकुदिनगुणश्चक्रकलाभक्तो दृढभगणशेषं स्यात् । ततो दृढभगणा भाज्यं दृढभगणशेषं ऋणक्षेपं दृढकुदिनमानं हार च प्रकल्प्य कुट्टाकारेण गुणमानमहर्गणः स्यात् । गृहयोगकलातो वाऽन्तरकलातो यद्दृढभगणशेषं स्यात् तत्र दृढभगणयोग वा दृढभगणान्तर भाज्यं प्रकल्प्य पूर्ववत् कुट्टकेनाहर्गणः साध्यः । वि. भा-निश्छेदभागहारात् ( दृढ़कुदिनात् ) राश्यादिकलादिना, (गृहक लात्मकमानेन) गुणितात्, भगणकला (चक्रकला) भिर्भक्तात् लब्धं मण्डलशेष (भगणशेषं) भवति, अस्मात्पूर्ववदहर्गणो भवतीति । दृढ़भगणशे xचक्रकला - = कलात्मकगृह छेदगमेन दृढ़भगण शे X चक्रकला = दृढ़कृदिन x कलात्मकग्र, अत दृढ़कुदिन x कलात्मकगृह = दृढभगण भाज्य = द्वढ़भगरण - दृढ़भगणशे = क्षेप कुट्टकेन यो गुणः स एवाहर्गणो भवति । गृहयोगकलातोऽन्तरकलातो वा यद् दृढ़भगणशेषं भवे त्तत्र दृढभगरणयोगं दृढ़भगणान्तर' वा भाज्यं प्रकल्प्य पूर्ववत् कुट्टकेनाहर्गणः साध्य इति ॥२१॥ चक्रक अब पूर्वप्रश्न के उत्तर को कहते हैं। प्र हेि. भा -निश्छेदभागहार (दृढ़कुदिन) को ग्रहकलात्मक मान से गुणाकर भगण कला (चक्रकला) से भाग देने से लब्ध मण्डल (भगण) शेष होता है इससे पूर्ववतु अहर्ग ण होता है इति । दृढ़भगणशे x चक्रकला दृढ़कुदिन कलात्मकग्रह । छेदगम से दृढ़भगणशे X चक्रकला = ' = कलात्मकग्रह x दृढ़कदिन कलात्मकग्र x दृढ़कुदिन, अतः । ततः भाज्य = दृढ़भगण --- दृढ़भगणशै = क्षेप यहां कुट्टक से जौ गुणक होता है वही दृढ़कुदिन अहर्गण होता है । ग्रह यौगकलासे वा अन्तर कला से जो दृढ़भगण शेष होता है वहां दृढ़ २ ] ११७९ भगण योग को वा दृढ़भगणान्तर को भाज्य कल्पनाकर पूर्ववत् कुट्टक से अहर्गण साधन करना चाहिये इति ।। २१ ।। इदानीं विशषमाह । एवं राश्यंकला विकला शेषादहर्गणः प्राग्वत् । नष्टस्थेष्विष्टान् तान् कृत्वा भक्त्वोक्तवच्छेषम् ।। २२ ।। सु. भा--एवं राशिशेषात् अंशशेषात् कलाशेषात् विकलाशेषाच प्राग्वदह र्गणः स्यात् । किं कृत्वा नष्टस्थेषु विकलाकलादिमानेषु भक्त्वा विभज्येष्टान् तान् विकलादीन् कृत्वा शेषं भगणशेषमहर्गणं चोक्तवत्कार्यम् । अत्रैतदुक्तं भवति । षष्टिर्भाज्यो विकलाशेषमृणक्षेपो दृढकुदिनानि हार इति प्रकल्प्य यः कुट्टकः सकला शेषस्तेन षष्टिर्हता विकलाशेषोना दृढकुदिनहृता फलं विकला अभीष्टा स्युस्ततः कलाशेषमृणक्षेपं षटिं भाज्यं दृढकुदिनानि हार प्रकल्प्य यः कुट्टकः स चांशशेष स्तेन षष्टिर्गुणा कलाशेषोना दृढकुदिनभक्ता फलं कला अभीष्टाः स्युः । एवं राखि शेषानयने त्रिंशद्भाज्यो भगणशेषानयने च द्वादशभाज्यकल्प्यः । भगणशेषतः पूर्व विधानेनाहर्गणो गतभगणाश्च साध्याः । ‘कल्प्याथ शुद्धिर्विकलावशेषम्'-इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूपमेव ॥ २२ ॥ वि. भा-एवं राशिशेषात्-अंशशेषात् कृलाशेषात् विकलाशेषात् पूर्ववदह गर्गणः स्यात् कथं तदुच्यते । नष्टस्थेषु विकला कलादिमानेषु भक्त्वा (विभज्य) इष्टान् तान् विकलादीन् कृत्वा शेषं (भगणशेष) अहर्गणंच पूर्ववत्कार्यम् । यथा षष्टिभाज्धः । दृढ़ कुदिनानि हारः । विकलाशेषं शुद्धिरिति प्रकल्प्य कुट्टकविधि ना गुणाप्ती साध्ये तत्र लब्धिविकला:स्युः । गुणस्तु कलावशेषम् । ततः कलावशेष शुद्धिः । षष्टिर्भाज्यः । दृढ़कुदिनानि हार इति प्रकल्प्य कुट्टकेन गुणाप्ती साध्ये तत्र लब्धिः कलाः । गुणोंऽशशेषम् । अंशशेषं शुद्धिः । त्रिंशद् भाज्यः । दृढकदिनानि हारः । अत्र कुट्टकेन लब्धिरंशाः । गुणो राशिशेषम् । एवं राशिशेष शुद्धिः । द्वादश भाज्य: । क्दिनानि हारः । अत्र कुट्टकेन लब्धिर्गतराशयः । गृणोभगणशेषम् । कल्पभगणा भाज्यः । कुदिनानि हारः । भगणशेषं शुद्धिः । अत्र लब्धिर्गतभ गणाः । गुणोऽहर्गणः स्यादिति । लीलावत्यां ‘कल्प्याथ शुद्धिर्विकलावशेषं षष्टिश्च भाज्यः कुदिनानि हार' इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूपमेवेति ॥ २२ ॥ अब विशेष कहते हैं। हि. भा--एवं राशिशेष से, अंश शेष से, कलाशेष से, विकलाश ष से अहर्गण होता है। कैसे होता है सो कहते हैं। विकला-कलाद्वि मानों में भाग देकर इष्टविकलादि करके भगणशष और अहर्गण पूर्ववत् करना चाहिये । जैसे-साठ को भाज्य, दृढ़कुदिन को ११८० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते हार, विकलाशेष को ऋणक्षेप कल्पना कर कुट्टक विधि से गुणक और लब्धि साधन कर ना, उनमें लब्धि विकला होती है, और गुणक कलाशष होता है । इसके बाद साठ को भाज्य, दृढकुदिन को हार, कलावशष को ऋणक्षेप कल्पना कर कुट्टक से गुणक और लब्धि साधन करना चाहिए, उनमें लॉब्धकला होती है। गुणक प्रश शेष होता है। एवं तीस को भाज्य, दृढ़कुदिन को हार, अंशशेष को ऋणक्षेप कल्पना कर कुट्टक से जो गुणक और लब्धि होती है उनमें लब्धि अंश होता है। गुणक राशिशेष होता है। एवं द्वादश को भाज्य, दृढ़कुदिन को हार, राशिशष को ऋण क्षेप मान कर कुट्टक से लब्धिगत्त राशिमान होता है, गुणक भगणशोष होता है। एवं कल्प भगण को भाज्य, कुदिन को हार, भगणशेष को ऋणात्मक क्षेप क्षेपकल्पना कर कुट्टक से लब्धि गतभगण होता है, गुणक अहर्गण होता है, लीलावती में ‘कल्प्याथ शुद्धिर्विकलावशेषं' इत्यादि भास्करोक्त इसके अनुरूप ही है इति ॥ २२ इदानीमन्यं प्रश्नमाह । राश्यंशकला विकलाशेषात् कथितादभीष्टतो नष्टान् । सु. भा.-अभीष्टतः कथितान्निर्दिष्टात् राशिशेषत् वांऽशशेषात् वा कला शेषादथवा विकलाशेषाश्च यो नष्टान् विकलादीन् तथोपरितनानुपरिशेषान् विक लाशेषतः कलाशेष कलाशेषादंशाशेषमित्यादीन् समध्यमान् मध्यमग्रहसहितान् साधयति स एव कुट्टकज्ञः । निर्दिष्टादेकशेषात् मध्यमग्रहं य आनयति स एव कुट्टकज्ञ इत्यर्थः । अस्योत्तरं पूर्वसूत्रेण स्फुटमपि बालावबोधार्थमग्रे वक्ष्यति वि. भा.– अभीष्टतः कथितान्निर्दिष्टात् राशिशेषादंश शेषाद्वा कलाशेषा द्विकलाशेषाद्वा नष्टान् ( विकलादीन्) उपरितनान् ( उपयुक्तशेषान् ) मध्यम ग्रहसहितान् यः साधयति सः कुट्टकज्ञः । निर्दिष्टादेकशेषान्मध्यग्रहानयनं यः करोति सः कुट्टकज्ञ इति । अस्योत्तरं यद्यपि पूर्वसूत्रेण स्पष्टमप्यस्ति तथाप्याचा येणाऽग्रे कथ्यते ।। २३ ।। अब अन्य प्रश्न को कहते हैं। हेि. भा.- अभीष्ट से कथित राशिशेष से अथवा अंशशष से, कलाशष से अथवा विकलाशेष से विकलादि कौ तथा उपयुक्त शेष मध्य ग्रह सहित को जो व्यक्ति साधन करता है अर्थात् निर्दिष्ट एकशेष सैभध्यम ग्रहानयन करता है वह कुट्टकज्ञ है, यद्यपि इसका उत्तर २२ सूत्र से स्पष्ट है तथापि आचार्य आगे कहते हैं इति ॥ २३ ॥ इदानीमुत्तरमाह । येन गुणः शेषयुतश्छेदः शुध्यति हृतः स्वगुणकेन । तद्भुक्तशेषं फलमेवं शेषात् ग्रहद्यगणौ ॥ २४ ॥ सु. भा.-छेदो दृढकुदिनमानं येन गुणः शेषयुतः स्वगुणकेन हृतः शुध्यति स गुणश्च तद्भुक्तं तस्य ग्रहस्य भुक्तं भवति स्वगुणकेन हृतं यत् फलं प्राप्तं तच्छेषमुपरिशेषं भवति । एवं शेषात् ग्रहार्हगणौ द्वावेव भवतः । अत्रैतदुक्तं भवति । यथा कलाशेषस्य गुणकः षष्टिश्छेदो दृढकुदिनानि । तत्र येन गुणेन गुणितश्छेदो विकलाशेषयुतः स्वगुणकेन षष्टिमितेन हृतः शुध्यति स गुणो ग्रहविकला भवन्ति फलं च कलाशेषं ज्ञेयेमेवं कलाशेषात् कला अंशशेषं च सिध्यति । एवमन्ते भगण शेषज्ञानं तस्मादहर्गणज्ञानं च भवति । अत्रोपपत्तिः । यथा कलाशेषं षष्टिगुणं दृढकुदिनहृतं लब्धं ग्रहविकलाः शेषं च विकलाशेषम् । अतो हरो लब्धिगुणः शेषयुतो भाज्यराशिसमः । ६०xकशे=ग्रविx दृकु+विशे ग्रविx दृकु+विशे .. कशे – – अतो दृढकुदिनमानं येन गुणं विकलाशोषयुतं षष्टिभक्तं शुध्यति स गुणो ग्रहविकलाः फलं च कलाशषम् । एवं स्व स्वशषगुणकच्छेदाभ्यां तत्तच्छेषमाने भवत इत्युपपद्यते ॥ २४॥ वि. भा-छेदो (दृढ़कुदिनमानं) येन गुणः शेषयुतः स्वगुणकेन भक्तः शुध्यति स गुणस्तस्य गृहस्य भुक्त भवात स्वगुणकन भत्तं सद्यत्फल लब्ध तदुपरि शोषं भवति । एवं शषात् गृहाहर्गणौ भविष्यतः । यथा कलाशोषस्य गुणकः षष्टिदृढ़ कुदिनानि हरः । तत्र येन गुणकेन गुणितो हरो विकलाशेषयुतः स्वगुणकेनं षष्टि तुल्येन भक्तः शशुध्यति स गुणो गृहविकलाः स्युः फलं कलाशषमेवं कलाशोषात् कला अंशशेषं सिध्यति । एवमन्ते भगण-शेषज्ञानं भवेत्तस्मादहर्गणो भबेदिति । अत्रोपपत्ति । कलाशेषं षष्टिगुण दृढ़कुदिनभक्त लब्धं गृहविकलाः शेषं विकलाशेषम् तत्स्वरूपम्==विकलाशे ६०xकलाशे गृहविकला-+ छेदगमेन ६०xकलाशे = दृढुकxगृहविकला+विकलाशे, पक्षौ षष्टिभक्तौ तदादृढ़कुxगृहविकला+विकलाशे ६० ब्राह्यस्फुटासद्धान्त =कलाशे, अतो दृढ़कुदिनं येन गुणं विकलाशेषयुतं षष्टिभक्त शुध्यति स गुणो गृहविकलाः । फलं कलाशेषम् एवं स्वस्वशेषगुणकहराभ्यां तत्तच्छेषमाने भवत इत्युपपन्न भवतीति ॥२४॥ अब उत्तर कहते हैं । हेि. भा.-दृढ़कुदिन (हर) को जिस से गुणा कर शेष जोड़कर अपने गुणक से भाग देने से शुद्ध हा तब वह गुणक उस ग्रहका भुक्त हाता ह । अपने गुणक से भाग देने से जो फल होता है वह उपरिशेष होता है इस तरह शेष से ग्रह और अहर्गण होता है, जैसे कलाशेष का गुणक साठ है, दृढ़ककुदिन हर है वहां जिस गुणक से गुणित हर में विकला शेष को जोड़ कर साठतुल्य अपने गुणाक से भाग देने से शुद्ध होता है तब वह गुणकग्रह विकला होती है और फल कलाशेष होता है, एवं कलाशेष से कला और अशशेष सिद्ध होता है। इस तरह अन्त में भगण शेष ज्ञान होता है उससे अहर्गणज्ञान होता है इति ॥ उपपत्ति । कला शेष को साठ से गुणा कर दृढ़कुदिन से भाग देने से लब्ध ग्रह विकला और शेष ६०xकलाशे विकला शेष । उसका स्वरूप =---=ग्रह विकला-- छेदगम से ६०X कलाशे=दृढ़कुX ग्रह विकला--विकलाशे । दोनों पक्षों को साठ से भाग देने से, कलाशे= दृढ़कुxग्रह िविकला+विकलाशे अतः दृढ़कुदिन . को जिससे गुणाकर विकला शेष को जोड़कर साठ से भाग देने से शुद्ध होता है वह गुणक ग्रह विकला है और फल कला शेष है एवं अपने अपने शेष गुणक हरों से अपने अपने शेष मान होते हैं, इससे उपपन्न हुआ ॥२४॥ प्रश्नानाह । जानाति यो युगगतं कथितादधिमासशेषकादिष्टात् । अवमावशेषतो वा तद्योगाद्वा स कुट्टज्ञः ॥२५॥ सु. भा-इष्टादधिमासशषाद्वा कथितादधिमासशषाद्यो युगगतं जानाति । वा कथितादवमावशषात् क्षयशषाधो युगगतं जानाति । वा तयोरधिशषक्षयशष योर्योगाद्यो युगगतं जानाति स एव कुट्टकज्ञ इत्यहं मन्ये । श्रत्र ‘तथाऽधिमासावमाग्रकाभ्यां दिवसा रवीन्द्वो'-इत्यादिभास्करविधिना ऽद्य प्रश्नद्वयोत्तरं स्फुटम् । तृतीये चान्द्रेभ्यो येऽधिमासा यच्च तच्छेषं सौरेभ्योऽपि त एवाधिमासास्तच्च शोषम् । अतो गतेन्दुदिनप्रमाणं या १ गताधिमासप्रमाणं च का १ । तदाऽधिशषप्रमाण' च=क अधिमा x या-कचादिx का==अधिशे । ११८३ एवं यदि गतक्षयाहमानं नी १ तदा कक्ष x या-कचादिxनी=क्षशे । द्वयोयोंगेन या (कअधिमा-+-कक्ष) – कचादि (का+-नी) = अधिशे+ क्षशे = यो : का + नी = या (कअधिमा-कक्ष) -यो अतः कल्पाधिमासक्षयाहयोगं भाज्यमधिमासक्षयशेषयोगमृणक्षेपं कल्प चान्द्रदिनं हारं प्रकल्प्य यः कुट्टकः स एव गतेंदुदिनानि तेभ्यः सौरसावनदिनानि च स्फुटानि भवन्ति । इत्यनेन तृतीय प्रश्नोत्तरं स्फुटम् ॥ २५ ॥ वि. भा.-इष्टादधिमासशेषात् वा कथितादधिमासशेषाद्यो युगगतंजानाति । वा कथितादवमावशेषतो युगगतं जानाति । वा तद्योगात् (अधिशेषावमशेषयो यगात्) युगगतं जानाति स कुट्टकज्ञ इति । कल्पाधिमासा भाज्यः । रविदिनानि हारः। अधिमासशेषं शुद्धि । अत्र कुट् टकविधिना गुणाप्ती साध्ये तत्र लब्धिर्गताधिमासाः । गुणो गतरविदिवसाः । एवं युगावमानि भाज्यः । चान्द्रदिवसा हारः । प्रवमशेषं शुद्धिः । अत्रापि कुट्टक विधिना गुणलब्धी साध्ये तत्र लब्धिर्गतावमानि गुणो गतचान्द्रदिवसा इति, लीला वत्यां ‘तथाधिमासावमाग्रकाभ्यां दिवसा रवीन्द्वो' रिति भास्करेण स्पष्टमेवोक्तम् एतावता प्रथमप्रश्नद्वयोत्तरं जातम् । प्रवम अथ तृतीयप्रश्नोत्तरम् । अत्रेष्टचान्द्रप्रमाणम्=य । अस्मादधिमासावमयोस्तच्छेषयोश्च माने ज्ञात्वा स्वस्वशेषोने कृते तयोः स्वरूपे. क अम्मा यू-आधश-गताधिमासाः । . कअवम.य-अवशे=गअवम, अत्रको हरश्चेद् गुणकौ विभिन्नौ'तदा गुणैक्य मित्यादि संश्लिष्टकुट्टक युक्त्या कल्पाधिमासावमयोगतुल्ये भाज्ये तयोरेव शेष योगतुल्ये ऋणक्षेपे यो गुणः स एवेष्टचान्द्रसमस्तस्मात्सौरसावनदिनानि स्फुटानि भवन्तीति । एतेन तृतीयप्रश्नोत्तरं स्फुटं जातम् ॥ २५ ॥ अब तृतीय प्रश्न के उत्तर को कहते हैं। हेि. भा-यहाँ कल्पना करते हैं इष्ट चान्द्र प्रमाण=य । इस से अधिभास और तथा उन दोनों का शेष जानकर अपना अपना शेष घटाने से उन दोनों के स्वरूप ११८४ क अमा. य-अधिशे कचा ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते . क अवम. य-अवमश- गताधिमा ग अवम, यहां ‘एको हरश्चेद्गुण कौ विभिन्नौ' इत्यादि भास्करोक्त संश्लिष्ट कुट्टक युक्ति से कल्पाधिमास कल्पावम योगतुल्य भाज्य में उन्हीं दोनों के शष योगतुल्य ऋण क्षेप में जो गुणक होगा वही इष्ट चान्द्र (य) के बराबर होगा उस से सौर सावन दिन स्फुट होते हैं। इस से तृतीय प्रश्न का उत्तर स्फुट हो गया, इति ।। २५ ।। इदानीमन्यान् प्रश्नानाह । इष्टेषु मानदिवसेष्वधिमासन्यनररात्रशेषे वा । भूयस्ते यः कथयति पृथक् पृथग्वा स कुट्टज्ञः ॥ २६ ॥ सु. भा.-इष्टेषुमानदिवसेषु सौरचान्द्रसावनदिनेषु ये अधिमासन्यूनरात्र शषे स्तस्ते एव भूयः कदा भविष्यत इति यः पृथक्-पृथक् कथयति स एव कुट्टज्ञः कुट्टकज्ञ इत्यहं मन्ये । इष्टदिने यदधिशषषं तदेव पुनः कदावेष्टदिने यदवमशेषं तदेव पुनः कदा वेष्टदिने योऽधिमासक्षयशषयोगः स एव पुनः कदा भविष्यतीति प्रश्न त्रयम् । पूर्वमधिशोषात् क्षयशषाद्वा तयोयोगाद्यथा कुट्टकविधिना गतेन्दुदिनराशि रानीतः स ‘इष्टाहतस्वस्वहरेण युक्तो'ऽनेकधा भवति यत्रापि तदेवाधिमासशषा दिकं भवतीत्युत्तरं स्फुटम् ॥ २६ ॥ (इयमार्या कोलब्रकानुवादे नास्ति) वि. भा.-इष्टेषु मानदिवसेषु (सौरचान्द्रसावनदिनेषु) ये अधिमासावम शेषे भवतस्तं एव भूयः कदा भविष्यत इति पृथक् पृथक् यः कथयति स कुट्टकज्ञो ऽस्तीति । इष्टदिने यदधिशेष तदेव पुनः कदा वेष्टदिने यदवमशेषं तदेव पुनः कदा वेष्टदिने योऽधिमासावम शेषयोगः स एव पुनः कदा भविष्यतीति प्रश्नत्रयः मस्ति । पूर्वमविशेषादवमशषात्तयोर्योगाच्च कुट्टकविधिनायथागत चान्द्रदिनप्रमाण मानीतं तदेव.'इष्टाहृतस्वस्वहरेण युक्ते' इत्यादिनाऽनेकधा भवति, अत्रापि तदेवा धिमासशेषादिकं भवतीति ॥ २६ ॥ अब झान्य प्रश्नों को कहते हैं। हैि. भा.-सौर चान्द्र सावन दिनों में जो अधिशष और अवम शष है वही बार बार कब होगे इसको पृथकू पृथक् जो कहते है वे कुट्टक के पण्डित है। इष्ट दिन में जो अधिशेष है वही फिर कब होगा वा इष्ट दिन में जो अवमशष योग है वही फिर कब होगा वा इष्ट दिन में अधिमासावमशेषयोग है वही फिर कब होगा ये तीन प्रश्न ह । पूर्व में अधिशष से अवम शोष से और उन दोनों के योग से जैसे कुदृक विधि से गत चान्द्र कुट्टकाध्यायः दिन प्रमाण लाये गये । वही ‘इष्टाहत स्वस्वहरेण युक्ते' इत्यादि से अनेक प्रकार होते हैं । यहां भी वही अधिमास शषादिक होते हैं इति ॥ २६ ॥ अंशकशेषात् त्र्यूनात् सप्तहृतान्मूलमूनमष्टाभिः । नवभिर्गुणं सरूपं कदा शतं बुधदिने सवितुः ॥ २७ ॥ सु. भा-सवितुः सूर्यस्यांशकशषात् त्र्यूनात् सप्तहृद्यन्मूलं तदष्टाभिन्न नवभिर्गुणमेकेनाढ्य बुधदिने कदा शतं भवति । इदानीमन्यं प्रश्नमाह । ऋ-३ ह-७ गु-९ ध-१ टश्यम्=-१०० ऋ-३ध ह-७गु भू-० व शु-९ ह ध-१ ऋ ऋ ३ दृश्यम्= १०७ भा ७ विलोमगणितेन । ३ ७ ० ८ ९ १ १०० लब्धमंशषम्=५७० । अस्मादहर्गणो बुधदिने पूर्ववत् सिध्यति ।। २७ ।। मू ७ वि. भा-सवितुः (सूर्यस्य) अंशक शेषात् त्रिभिहनात् सप्तभक्तान्मूलं यत् दष्टाभिहींनं नवभिगुणमेकेन युतं बुधदिने कदाशतं भवतीति । ऋ ८ गु ९ अब अन्य प्रश्न को कहते हैं। च १ ११८५ ६ १०० छेदं गुणं गुणं छेदं वर्गे मूलमित्यादिना विलोमगणितेनांशशेषम् = ५७० अस्मादह परणो बुधदिने सिध्यतीति ॥ २७ ॥ हेि. भा.-सूर्व के अंश शेष में तीन घटाते हैं । सात से भाग देते हैं। उसका मूल जो होता है उसमें से आठ घटाते हैं, फिर उसको नौ से गुणा करते हैं, एक जोड़ते हैं धुंध दिन में कब सौ होता है इति । ११८६ न्यास ३ - ध ह-७ ह-७-गु मू-० मू-०-व ऋ-८-ध ध-१ दृश्य-१०० दृश्य-१०० विलोमगणितेन । यूनाधिमासशेषान्मूलं द्वयधिकं विभाजितं षड्भिः । द्वयूनं वर्गितमधिकं नवभिर्नवतिः कदा नवर्तिः ॥ २८ ॥ सु. मा.-अधिमासशेषात् यूनाद्यन्मूलं तद्द्वाभ्यां युतं षड्भिर्विभाजितं फलं यूनं वर्गितं नवभिरधिकं कदा नवतिर्भवति । ऋट मू घ भा ऋ व च द्व न्यासः । अधिशे । ३ ८० २ ६ २ ० ९ ९० इदानीमन्य प्रश्नमाह । छेदगुणं गुणं छेदं वर्ग मूलं इत्यादि भास्करोक्त विधि से इस विलोम गणित से अंश शेष=५७० इससे बुधदिन में अहर्मर सिद्ध होता है इतिं ।। २७ ।। ऋ--३ ० घ-२ ह-६ ऋ-२ व-० ९, ऋ-३-ध मू-०-व ध-२-ऋ ह-६-गु ऋ-२-घ क्--७-मू ध-९-ऋ ३ ० २ ६ २ ० अधिमासशेषम्=४०९६ कोलबूकानुवादे षड्भिः’ स्थाने 'द्वाभ्यां' इति पाठः । अधिशेषात् पूर्वप्रकारेणाहर्गणानयनं सुगममिति ॥ २८ ॥ ९ , वि. भा.-अधिमास शेषात् त्रिभिहनात् मूलं यत्तद् द्वाभ्यां युतं षड्भिर्भक्तं लब्ध द्वाभ्यां हीनं वर्गितं नवभियुतं कदा नवतिर्भवतीति । ९० छेदंगुणं गुणं छेद मित्यादि भास्करों क्त्या इति विलोमगणितेनाधिमास शेषम् = ४०९६ अधिशेषात् पूर्वोक्त प्रकारेणाहर्गण ज्ञानं सुखेन भवतीति । कोलक कानुवादे षड्भिः स्थाने द्वाभ्याम् पाठोऽस्तीति ।। २८ ।। ० ध-२ ह-६ हेि. भा.-अधिमास शेष में तीन घटाकर मूल जो होता है उसमें दो जोङते हैं छ: से भाग देते हैं लब्ध जो होता है उसमें दो घटाते हैं उसके वर्ग में नौ जोड़ते हैं तो कब नव्वे होता है, इति । व–० न्यस् दृश्य-९० अब अन्य प्रश्न को कहते हैं। मू-०-व ध-२-ऋ ह-६-गु व–०-मू दृश्य-९० ११८७ छेद गुणं गुणं छेद इत्यादि भास्करोक्ति से इस विलोम गणित से अधिमास शेष =४०९६ अघिशेष से पूर्वोक्त प्रकार से प्रहर्गण ज्ञान सुगमता से होता है इति ॥२८॥ इदानीमन्यं प्रश्नमाह । अवमावशेषवगों व्येको विशतिविभाजितो द्वयधिकः ।। अष्टगुणो दशभक्तो द्वियुतोऽष्टादश कदा भवति ॥ २९ ॥ सु. भा-स्पष्टार्थम् । व ऋ भा ध गु भा ध ट ० १ २० २ ८ १० ३ १८ मू घ गु ऋ भा गु ऋ विलोमगणितेन । ० १ २० २ ८ १० २ १८ क्षयशेषम्=१९ । अस्मात् पूर्वप्रकारेणाहरणानयनं सुगमम् ॥ २९ ॥ इति कुट्टाकारः । वि. भा-अवमशेषवर्ग एकहीनो विंशत्या भाज्यते, तल्लब्धिः अङ्कद्वयेन संकलय्य अष्टाभिर्गुण्यते, तदा दशभिः पुनः विभज्य द्वयधिकः क्रियते, एवं प्रकारेण अष्टादशसख्या कदा भवतीति । (अवशे) घ-२ ६- २ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते (अवशे) ह-२०-गु घ-२-ऋ गु-८-ह ‘छेद गुणं गुणं छेद' र्मित्यादिना इति विलोम गणि ध-२-ऋ इति कुट्टकाध्यायः । अब अन्य प्रश्न को कहते हैं। ' हिं. मा.-अवम शैष वर्ग में एक घटाकर बीस से भाग देते हैं जो लब्धि होती हैं उसमें दो जोड़ते हैं आठ से गुणा करते हैं दश से भाभ देते हैं दो जोड़ते हैं तो कब अठारह होता है। २६ । (३०) इति कुट्टकाध्याय । अस्मात्पूर्वप्रकारेणा हर्गणानयनं स्फुट मेवेति ॥ २९ ॥ व-७-मू ‘छेदं गुणं गुणं छेदं' इत्यादि से इस विलोम गणित से ह-२०-गु , अवम शेष=१९ ध-२--ऋ इससे पूर्व प्रकारानुसार गु-८-ह अहर्गणानयन स्पष्ट हैं ह- १० -गु इति ।। २६ ।। अथ धनर्णादीनां सङ्कलितव्यवकलितादि इदानीं धनर्णशून्यानां सङ्कलनमाह । धनयोर्धनमृणमृणयोर्धनर्णयोरन्तरं समैक्यं खम् । ऋणमैक्यं च घनमृणधनशून्ययोः शून्ययोः शून्यम् ॥ ३० ॥ सु. भा-घनयोरैक्य ' धनमृणयोरैक्यमृणं भवति । धनर्णयोरन्तरमेवैक्य भवति । समयोर्धनर्णयोरैक्यं खं शून्यं भवति । ऋणशून्ययोरैक्यमृणं धनशून्ययो रैक्च'च शून्यं भवति । अत्रोपपत्त्यर्थ मन्मुद्रिता भास्करबीजटिप्पणी द्रष्टव्या ।। ३० ।। वि. भा-धनात्मकयोरङ्कयोयगो धनं भवति । ऋणात्मकयोर्योगश्च ऋरणं भवति । धनर्णयोरन्तरमेव योगो भवति । तुल्ययोर्धनर्णयोर्योगः शून्यं भवति । ऋणाशून्ययोर्योगो ऋणं धनशून्ययोर्योगश्व धनं भवति, शून्ययोर्योगः शून्यं भवतीति। यद्येकस्य पुरुषस्य प्रथमं रूप्यकपञ्चवक धनमासीत्, कालान्तरेण तेन रूप्य कचतुष्टयमर्जितं तयोयगे तस्य नवरूप्यकाणि धनानि भविष्यन्ति । एवं तस्यै व यदि रूप्यकपञ्चकमृणं पुना रूप्यकचतुष्टयमृणं कृतं तदा तयोर्योगे तस्य नव रूप्यकाणि ऋणं भविष्यति । यदि च रूप्यकचतुष्टयं धनमस्ति तेन रूप्यकपञ्चकमृणं कृतं तदा रूप्यकचतुष्टयदानेन तस्य निकटे रूप्यकमेकमृण मेव स्थास्यति । यदि रूप्यकपञ्चकं घनमस्ति, तेन पुना रूप्यकपञ्चकमृणं कृतं तदा रूप्यकपञ्चकदानेन तन्निकटे शून्यमेव स्थास्यति। सिद्धान्त शेखरे । ऐक्यां युतौ स्यात् क्षयोः स्वयोश्च धनर्णयोरन्तरमेव योगः, श्रीपत्युक्तमिदं, बीजगणि ते ‘योगे युतिः स्यात् क्षययोः स्वयोर्वा धनर्णयोरन्तरमेव योग: भास्करोक्तमिदं चाऽऽचार्योक्तानुरूपमेवेति ।। ३० ।। अब घनाङ्क ऋणाङ्क और शून्य के सङ्कलन को कहते हैं । हेि. भा-धनात्मक अङ्कों का योग धन होता है । ऋणात्मक अङ्कों का योग ऋण होता है । घनाङ्क और ऋणाङ्क का अन्तर ही योग होता है । सुल्य घन और ऋण अङ्कों का योग शून्य होता है । ऋणात्मक दो शून्यों का योग ऋण होता है। धनात्मक दो शून्यों का योग धन होता है। दो शून्यों का योग शून्य होता है इति । ११९० यदि किसी एक पुरुष के पास पहले पांच रुपये घन था, कालान्तर में उसने चार रुपये उपार्जन किया । तब दोनों का योग नौ रुपये उसके निकट धन होगा । यदि उसी को पहले पांच रुपये ऋण था फिर उसने चार रुपये ऋण लिया तब दोनों मिलकर उसके पास नौ रुपये ऋण होंगे । यदि उसके निकट चार रुपये धन है और पांच रुपया लिया तब चार रुपये सधाने से उसके निकट एक रुपया ऋण रहा । यदि उसके पास पांच रुपये धन है और पांच रुपये ऋण लिया तो पांच रुपये सधाने से उसके पास शून्य (कुछ नहीं) रहा । इससे आचायक्त उपपन्न हुआ । सिद्धान्तशेखर में ‘ऐक्य युतौ स्यात् क्षययोः' इत्यादि संस्कृती पपत्ति में लिखित श्लोक से श्रीपति तथा बीजगणित में ‘योगे युतिः स्यात् क्षययोः स्वयोव इत्यादि से भास्कराचार्य ने आचार्योक्त के अनुरूप ही कहा है इति ।। ३० ॥ ऊनमधिकाद्विशोध्यं घनं घनादूरणमृणादधिकमूनम् व्यस्तं तदन्तरं स्यादृणं घनं धनमृष्णं भवति ॥ ३१ ॥ शून्यविहीनमृष्णमृणं धनं धनं भवति शून्यमाकाशम् । शोध्यं यदा घनमृणादृणं घनाद्वा तदा क्षेप्यम् ।। ३२ ।। सु. भा-अधिकाद्धनादूनं धनं विशोध्यं शेषं धनं भवति । अधिकाट्टणादून मृणां विशोध्यं शेषमृणं भवति । ऊनाद्धनादधिक धन वोनाहरणादधिकमृणं विशोध्यं तदा तदन्तरं व्यस्तं विपरीतं स्यात् । अर्थादधिकं धनं विशोध्यं तंदा शेषमृष्णं भवति। अधिकमृणं विशोध्यं तदा शेषं धनं भवति । कथं विपरीतं भवतीत्याह । ऋण धनं भवति धनं चरणं भवतीति । चेदृष्णं शून्यविहीनं शून्येनं विहीनं तदा ऋरणं धनं च शून्यविहीन धनं शून्यं च शून्यविहीनमाकाशं शून्यं भवति । यदि ऋणाद्धनं शोध्यं वा घनाहरणं शोध्यं तदा क्षेप्यमर्थात् तदा तयोर्योग एवान्तरं अत्रोपपत्त्यर्थ मन्मुद्रिता भास्करबीज टिप्पणी विलोक्या ।। ३१-३२ ।। वि.भा.-अधिकाद्धनादूनं (अल्पं ) धनं विशोध्यं तदा शेष धनं भवति । अधिकादृणादूनमृणं विशोध्यं तदा शेषमृणं भवति । ऊना ( अल्पात्) द्धनादधि कं धनं वा ऊनादृणादधिकमृणं विशोध्यं. तदा तदन्तरं विपरीतं स्यादर्थादधिक धनस्य शोधनेन शेषमृणं भवति । तथाधिक-ऋणशोधनेन शेषं धनं भवतीति । कथं व्यस्तं (विपरीतं ) भवतीति कथ्यते । ऋण धनं भवति, घनं चवणं भवति, चेटंणं शून्येन विहीनं तदा ऋणम् । धनंच शून्यविहीनं तदा धनं, शून्यं च शून्य विहीनं तदा शेष शून्यं भवति । यदि ऋणात् धनं शोध्यं वा धनादृष्णं शोध्यं तदा तयोर्योग एवान्तरं भवतीति । घनर्णशून्यानां व्यवलनम् ११९१ अत्रोपपत्तिः। यदि धनरूप्यकपञ्वकद्र पकत्रयं घनं विशोध्यते अर्थादल्पं क्रियते तदा रूप्यक द्वयं घनमवशिष्यते । यदि ऋणरूप्यकपञ्चकादृणरूप्यकत्रयमल्पं क्रियते तदा रूप्यकद्वयमृणं स्थास्यति । अथ यस्य रूप्यकपञ्वकं धनमस्ति रूप्यकत्रय मृणमस्ति तदा तदृणस्याधुना विशोधनं जातमर्थाद्येन तदृणं दत्तं तेन न गृह्यते कथ्यते च यदहं तदप्यकत्रयं भवते दत्तवान् तदा तस्य अष्टौ रूप्यकाणि धनं भविष्यति । यदि च रूप्यकपञ्चकमृणं रूप्यकत्रयं च धनं स्यात्तदा तद्प्यकत्रयस्य विशोधनेऽर्थादल्पीकरणे तदप्यक्रत्रयं ऋणात्मकं भविष्यति । तदानीं तस्याष्टौ रूप्य काणि ऋणात्मकानि भविष्यतीति । शेषं स्पष्ट मैवास्ति । सिद्धान्तशेखरे संशोष्य मानं स्वमृणं धनणं धनं भवेदुक्तवदत्र योगः औपत्युक्तमिदं, बीजगणिते ‘सशोध्य मानं स्वमृणत्वमेति स्वत्वं क्षयस्तद्युतिरुक्तवच्च भास्करोक्तमिदंचाऽऽचार्योक्ता नुरूपमेवास्तीति ॥ ३१-३२॥ अब व्यवकलन को कहते हैं। हि. भा–अधिक घन में से अल्प धन को घटाने से श ष घन होता है अचिक ऋण में से अल्प ण को घटाने से शोष ऋण होता है। अल्प धन में अधिक धन को वा अल्पऋण में से अधिक ऋण को घटाने से वह अन्तर विपरीत होता है अर्थात् अधिक धन के घटाने से श ष ऋण होता है । तथा अधिक ऋण के घटाने से श ष वन होता है । क्यों विपरीत होता है सो कहते हैं । ऋण घन होता है, धन ऋण होता है यदि ऋण में से शून्य को घटाते हैं तो ऋण ही रहता है अर्थात् उस ऋणाङ्क में किसी तरह का विकार नहीं होता है । धन में से शून्यको घटाने से शेष घन होता है । शून्य में से शून्य को घटाने से श ष शून्य होता है । यदि ऋणाङ्क में से धनाडू को घटाय जाय वा घनाडु में से ऋणाङ्क को घटाया जाय तब उन दोनों का योग ही अन्तर होता है इति । उपपत्ति । यदि धनात्मक पांच रुपये में से धनात्मक तीन रुपयों को घटाते हैं अर्थात् अल्प करते हैं तो दो रुपये धन शेष रहता है यदि ऋणात्मक पांच रूपयों में से ऋणात्मक तीन रुपयों को अल्प करते हैं तो दो रुपये ऋण रहता है । जिसके पास पांच रूपये वन है और तीन रूपये ऋण है उसके उन तीन रुपयों को घटजाना है लेकिन जिसने तीन रुपये दिये थे वह नहीं लिये कहा कि वह तीनों रुपये आप ही को दे दिये तब उस व्यक्ति के पास आठ रुपये घन हो गया । यदि पांच रुपये ऋण है और तीन रुपये वन है तब उन तीनों रुपयों को विशोधन करने से वे तीनों रुपये ऋण होंगे तब उसको कुल आठ रुपये ऋण होग। शेष विषय स्पष्ट ही है । सिद्धान्त शेखर में ‘संयोज्यमानं स्वमृणं धनर्णामित्यादि' श्रीपयुक्त तथा बीजगणित में ‘संशोध्यमानं स्वगृणत्वमेति’ इत्यादि आस्करोक्त आचयक्त के अनुरूप ही है ।। ३१-३२ ॥ ब्राह्मस्फ़ुटसिद्दान्ते
इदानीं गुराने कररासूत्रमाह । ऋरामृराघनयोर्धातो धनमृसयोर्धनवषो धनं भवति। शून्यसयो: खधनयो: सशून्ययोर्वा वध: शुन्यम् ॥३३॥
सु भा - ऋसाघनयोर्घात ऋसं भवति। ऋसयोवंवो घनवधो धनयोवंवस्च घनं भवति। शून्यसौयो: खधनयो: शून्यघनयोर्वा खशून्ययोश्व्व वध: शन्यं भवति ॥३३॥
वि भा - ऋसघनयोर्घातऋसं भवति । ऋसयोवंवो धनं भवति; धनयोर्वधश्च धनं भवति । शून्यशसशायो: , शून्यघनयो: , शून्यशून्ययोर्वावघ: शून्यं भवतीति ॥ श्चत्रोपपत्ति:। कल्प्यते गुप्य:=न-प गुसाक:=य-क तदा "इष्टोनयुक्त न गुसेन निघ्नोsभीष्टघ्न गुण्यान्वित वर्जितो वे" तिभास्करोक्तरीत्या गुसनाय क सममिष्ष्टं युक्तं तदा गुसक:=य श्चनेन गुण्ये गुसिते तदा जातम् य.न - य. प श्चस्मात् क गुसित गुन्योsयं क.न - क.प विशोष्यस्तदा विशोघ्नप्रकारेण विशोघनेन जातं गुसनफलम् = य.न-य.प-क.न+क.प अत्रान्तिखण्डे क, प ऋसयोर्घातो घनात्मको जातस्था घनयोर्घातो घनम्रूण घनयोस्च घात ऋसमित्यपि सुगममुपधते ॥
गुण्यो यदि रुवालगुणकेन गुण्यते तदा गुणनफलं गुण्यादल्पमं भवतीति पाटीगसितरीत्या प्रसिद्धम्। एवं यथा यथा गुसको रुपाल्पस्तथा तथा गुसन फलमल्पंभवति तदिह गुणकपरमे हासेsर्थात् शून्यसमत्वे गुसनफलमपि परमाल्पं शून्यसमं भवतीति, एतावताssचार्योक्तमुपपन्नम्। सिद्धान्तशेखरे 'वधे धनं स्याट्टण्यो: स्वयोश्चा घनसंयो: संगुसने क्षयशचेति श्रीपत्युक्तमं बीजगणिते 'स्वयोरस्वयोर्वा वध: स्वर्णघाते' इत्त्यादि भास्करोक्तंचाssचार्योक्तानुरुपमेवेति ॥३३॥
श्वङ गुसन के लिये विधि कहते हे । हि .भा. -ऋसात्मक भङ्क भौर घनत्मक भङ्क का घात करने से गुरगनफल ऋरग होता है,
दो ऋरगात्मक भन्को का घात घन होता है, दो घनात्मक भन्को का घात भी घन होता है । शून्य भ्रोर ऋण का वात शून्य होता है । शून्य भ्रोर घन का घात तथा शून्य-शून्य का घात शून्य होता है इति ॥
उपपत्ति।
कल्पना करते हैं गुण्य = न - प, गुणक = य - क तव इष्टोनयुक्तेन गुणेन धनर्णशून्यानां सन्कलनम्
निध्नो'भीष्टध्न गुण्यान्वितवजितो वा' इस भास्करोक्त रीति से क समन इष्ट को जोडने से गुनक= य इससे गुण्य को गुनने से य न-----य प इसमें क गुनत गुण्य 'क न------क प' को घटाने से गुनन फल = य न ----य प ----क न+क प इसके अन्तिम खण्ड में क, प दोनों ऋनों का घात धनात्मक हुआ । तथ दो धनों का घात धन, धन और ऋन क घात ऋन यें भि सुगमता ही से उत्पन्न होता है । गुण्य को यदि रूपाल्प गुनक से गुना करते हैं तो गुनन फल गुण्य से भल्प होता है यह पाटी गनित से प्रसिध है। एवं जैसे जैसे गुनक रूपाल्प है वैसे वैसे गुननफल अल्प होता है । गुनक के परम हान्स में अर्थत् शुन्यसभत्व में गुननफल भी परमाल्प शुन्य के समान होता है। इससे आचार्योक्त उपपन्न हुआ । सिधान्तशेखर मैं 'वधे धनं स्याद्रनायो: स्वयोश्च' इत्यादि श्रीपत्युक्त तथा बीज गनित मैं 'स्वस्योरस्वयोर्वा वध: स्वर्न गाते' इत्यादि भस्करोक्त भी आचार्योक्तानुरूप ही अहै इति ||३३||
इदानीं भगहारे करनसूत्रद्वयमाह । धनभक्तं धनम्रनह्रतम्रनं घनं भवति स्वभकक्तं खम् । भक्तम्रनेन धनम्रनं धनेन ह्रतम्रानम्रनं भवति ||३४|| खोध तम्रनं धनं वा तचेदं खम्रनधनविभक्तं वा । ऋनधनयोर्वर्ग: स्वं खं स्वस्य पदं क्रतिर्यत् तत् ||३५||
सु भा ----धनं धनभक्तं वा ऋनं ऋनभक्तं फलं धनं भवति । स्वभक्तं खं फलं खं भवति । ऋनेन धनं भक्तं फलम्रनं स्यात् । धनेन ऋनं ह्रतं फलम्रणं भवति । ऋणं वा धनं खेनोधतं तचेदं त्स्य शून्यस्य चेदो यस्मिन्न्रने वा धने तचेदं भवति । एवं खं शुन्यम्रनधम विभक्त (शुन्यं) वा तचेदं भवति । फलं शुन्यं भवति वा शुन्यं तधरं स्यादित्यर्थ: । ऋनधनयोर्वर्ग: स्वं भवति । स्वस्य वर्ग: खं भवति । तदेव वर्गस्य पदं भवति । यक्तुति: स एव वर्गो भवेदिति । भास्करबीजेप्येतदेव सर्वम् । अत्र स्वभक्तम् खमर्थत् % इदं सर्वदा शुन्यसमं नेत्येतदयं चलनकलनं विलोक्यम् ||३४-३५||
वि भा----धनं धनभक्तं ऋनं ऋनभक्त फलं धनं भवति, खं(शुन्यं) स्वभक्तं (शुन्येन भक्तं) फलं शुन्यं भवति । ऋनेन भक्तं धनं फलम्रं भवति, धनेन भक्तम्रं फलम्रनं भवति, ऋणं धनं वा शुन्येन भक्तं तचेदं त्स्य शुन्यस्य चेदो यस्मिन्न्रने धने वा तचेदं भवति । तथा शुन्यम्रनधनभक्तम् फलं शून्यं वा तचेदं भवति । ऋनधनयोर्वर्ग: धनं भवति । शुनस्य वर्ग:शुन्यं भवति । तदेव वर्गस्य पदं भतिव । यक्तुति: स एव वर्गो भवतीति ॥
अत्रओपपत्ति:
गुननोपपत्तिवैपरीत्येन भागहारोपपत्तिरपि सुगमैव । शुन्यं शुन्येन भक्त । ११९४ ब्राह्म स्फुटसिद्धान्ते ३-३=*= ३ (१- १) फलं शून्यं न भवतीति प्रदश्र्यते । यथा .३ एतावता शून्ये ६-६ ० ६ (१-१) ६ न्यूनाधिकत्वं स्पष्टमेव दृग्गोचरीभूतं भवत्यर्थात्सर्वाणि शून्यानि न समानानि भवन्ति तस्मात् शून्येन शून्यं भक्त फलं शून्यं न भवितुमर्हति, प्राचार्येण यदस्य मानं शून्यं कथ्यते तत्समीचीनं नास्ति । समयोर्द्धयोधतस्य वर्ग इत्यभिधानात् धनयोघतस्य ऋणयोघतस्य च धनत्वात् वर्गस्य सर्वथैव धनत्वमेव । ऋणं धनं वा शून्येन विभक्तं तच्छेदं भवतीत्याचार्योक्तौ िवचार्यते। यथा - अत्र र मानं यथा यथाऽल्पं भवेत्तथा तथा लब्धिरधिका स्यात्, र मानस्य परमाल्पत्वेऽर्थाच्छून्यसमत्वे लब्धिः परमाधिकाऽनन्तसमा भवेदत एव बीजगणिते - खहरराशिसम्बन्धे तथा - 'अस्मिन् विकारः खहरे न राशावपि प्रविष्टेष्वपि निः सृतेषु । वहुष्वपि स्याल्लयः सृष्टिकालेऽनन्तेऽच्युते भूतगणेषु यद्वत्, भास्करेण कथितम् । अनेन खहरराशे रविकारिता दृष्टान्तप्रसङ्गन भगवतोऽनन्तस्याच्युतस्य साम्यं प्रतिपादयति । अथ ऋणात्मक राशिसम्बन्धे किञ्चिद्विचार्यते । ०>-य , * = अनन्त, -य>अनन्ताधिक । इति ऋणा ऽत्मकराशेवैचित्र्यमाश्चर्यकारकमस्ति, यतः शून्यादल्पो भूत्वाऽनन्ततोऽपि महान् भवतीति ॥३४-३५॥ अब भाग हार के लिये कहते हैं। हेि. भा- धन को धन से वा ऋण को ऋण से भाग देने से फल धन होता है । शून्य को शून्य से भाग देने से फल शून्य होता है। धन को ऋण से भाग देने से फल ऋण होता है। धन से ऋण को भाग देने से फल ऋण होता है। ऋण वा धन को शून्य से भाग देने से उस ऋण वा धन में शून्य छेद (हर) होता है। शून्य को ऋण वा धन से भाग देने से फल शून्य होता है। ऋण और धन का वर्ग धन होता है। शून्य का वर्ग शून्य होता है। शून्य का पद (मूल) भी शून्य होता है इति ॥ गुणनोपपत्ति वैषरीत्य से भागहारोपपत्ति भी सुगम ही है। शून्य को शून्य से भाग देने से फल शून्य नहीं होता है। जैसे ३-३= ० --३ (१-१-३ इससे शून्यों में ६-६ ० ६ (१- १) ६ न्यूनाधिक्य स्पष्ट ही देखने में आता है। अर्थात्, सब शून्य बराबर नहीं होते हैं अतः शून्य से धनर्णशून्यानां सङ्कलनम् शून्य को भाग देने से फल शून्य नहीं हो सकता है। आचार्य 8 इसका मान शून्य कहते हैं सो ठीक नहीं है। यहां र का मान ज्यों ज्यों अल्प होगा त्यो त्यों लब्धि अधिक होगी । र मान के परमाल्प में अर्थात् शून्य समत्व में लब्धि परमाधिक अर्थात् अनन्त के बराबर होती है। भास्कराचार्य ने बीजगणित में खहर -- राशि के सम्बन्ध में ‘अस्मिन् विकारः खहरे न राशावपि प्रविष्टेष्वपि निःसृतेषु । बहुष्वपि स्याल्लयसृष्टिकालेऽनन्तेऽच्युते भूतगणेषु यद्वत्' कहा है । अब ऋणात्मक राशि के वैचित्र्यको दिखलाते हैं। ० > -य, यू=अनन्त तथा ११९५ --"=—.. -" = --य> अनन्त यह ऋणात्मक राशि की य परन्तु ०>-य विचित्रता आश्चर्य कारक है। क्योंकि शून्य से भी अल्प होकर अनन्त से भी अधिक होला है इति ॥३४-३५॥ इदानीं संक्रमणविषमकर्माह । योगोऽन्तर युतहीनो द्विहृतः संक्रमणमन्तरविभक्त वा । वर्गान्तरमन्तरयुतहीनं द्विहृतं विषमकर्म ॥३६॥ सु. भा-योगो राश्योर्योगोऽन्तरेण राश्यन्तरेण युतो हीनश्च द्विहृतो दलितो राशी स्तः । इदं संड क्रमरणं नाम गणितम् । वा राश्योर्वर्गान्तरं राश्यन्तरेण विभक्त फलमन्तरेण युतं हीनं द्विहृतं च राशी स्तः । इदं विषमकर्म नाम गणि तम् । ‘योगोऽन्तरेणोनयुतः’-इत्यादि तथा ‘वर्गान्तरं राशिवियोगभक्त'-इत्यादि च भास्करोक्त चैतदनुरूपमेव ।। ३६ ।। वि. भा-द्वयो राश्योर्योगस्तयोरन्तरेण युतो हीनश्च कार्यः । अर्धितस्तदा राशी भवेताम्, इद' सक्रमणं नाम गणितम् । वा राश्योर्वगन्तरं राश्यन्तरेण विभक्त लब्धमन्तरेण युतं हीनं द्वाभ्यां भक्त तदा राशी भवेताम् । इदं विषमकर्म नाम गणितम ।। कल्प्येते राशी य, र अनयोर्योगः=य+-र, अंन्तरम्=य-र, योगोऽन्तरेण युतः य+ र+य-र-२ य अर्धितः--योग-+अन्त=य । योगोऽन्तरेण हीनः
११९६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तें
य+र-(य-र)=य+र-य+र=२ र श्रर्धितः=योग-श्रन्तर/२=र इदं संक्रमरगसंझकं गरिगतम्। तथा राश्योर्वर्गान्तरम् = य^२-र्^२ राश्यन्तरेरग य-र भक्त य^२-र^२/य-र=य+र ततः पूर्ववत्। योग+श्रन्तर/२=य। योग+श्रन्तर/२=र। इदं विषमकमं नाम गणितम्। एतावताऽऽचार्योक्तमुपपन्नम् । लीलावत्यां 'योगोऽन्तरेणोनयुतोऽर्धितस्तौ राशी स्मृतं संक्रमरगाख्य' मिति तथा वर्गान्तरं राशिवियोगभक्तं योगस्ततः प्रोक्तवदेव राशी' इती च भास्करोक्तमाचार्योक्तानुरूपमेवास्ति ॥३६॥
श्रब संक्रमरग श्रौर विषम कमं कहते है ।
हि.भा.- दो राशीयों के योग में दोनों राशीयों के श्रन्तर को युत श्रोर हीन कर दो से भाग देने से दोनों राशीयों का प्रमारग होता है इसका नाम संक्रमरग है । वा दोनों राशीयों के वर्गान्तर को राश्यन्तर से भाग देकर जो लब्धि हो उसमें राश्यन्तर को युत श्रौर हीनकर दो से भाग देने से राशीद्वय का मान होता है इसका नाम विषम कमं है ॥
उपपत्ति ।
प्रथम राशि=य । द्वितीय रशि=र, प्ररा+द्विरा=य+र=योग । प्ररा-द्विरा=य-र=श्रन्तर,
योग+श्रन्तर=य+र+य-र=२य . . योग+श्रन्तर/२=य । योग--श्रन्तर=य+र-(य-र)=य+र- य+र+र+२र । श्रतः योग-श्रन्तर/२=र । यह संक्रमरग गरिगत है । वा राशिद्वय का वर्गान्तर=य^२-र^२, राश्यन्तर (य-र) से भाग देने से य^२-र^२/य-र = य+र=योग तब पूर्ववत्यो योग+श्रन्तर/२=य । योग-श्रन्तर/२=र,इसका नाम विषमकप्रं गरिगत है । इससे न्न्प्राचार्योक्त उपपन्न हुआ । लीलावती में 'योगोऽन्तरेरगोनयुत' इत्यादि से तथा 'वर्गान्तरं राशिवियोगभक्त' इत्यादि से भास्कराचायं ने श्राचार्याक्त के श्रनुरूप ही कहा है इति ॥३६॥
इदानीं समद्विबाहुविभुजे लम्बग्नानादकररगीगतौ भुजावाह ।
कररगी लम्बस्तत्कृतिरिष्ठह्यतेष्टोनसंयुताऽल्पा मूः । श्वधिको द्विह्यतो बाहुः संक्षेप्यो यद्वधो वर्गः ॥३७॥
सु.भा.-यो लम्बस्तस्य कररगी संग्न्या ग्नेया । तस्याः करण्याः कृतिरिष्टेन हृता।
इष्टोनसंयुता कार्या श्वनयोर्योऽल्पा सा समद्विबाहोर्भूः कल्प्या । यश्चाधिकः स दिहृतः समद्वि- बाहोर्बाहुर्ग्नेयः । 'संक्षेप्यो यद्वधो वर्गः' इत्यस्याग्र' सम्बन्धः । Kim ^PT %*&f TO":, ^dlH^fcfi - ^ptT 5f;rzftofs?qT ?mfg^7f- fowTfe^r 55 — — — -^^'-- r — = —J — — srer ft^r *f shrift % ■fffT ^ 1 1
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धनर्णशून्यानां सङ्कलनम्
श्रत्रोपपतिः। समद्विबाहो य: शिर: कोरगादाघारोपरि लम्बस्तद्वशाज्जात्यद्वयं समानमुत्पद्यते। तत्र लम्बः कोटिः। आघाराघं भ्रुज:। समद्विबाहोर्बाहुः करर्गाः।भ्रुजकरर्गान्तरमिष्टं प्रकल्प्य तद्वर्गान्तरात् कोटिवर्गाद्विषमकर्मरगाऽनन्तरप्र्तिपदितेन द्विगुरगाभुजो भूः। करर्गो बाहुश्चाकररगीगत श्रानीत हति॥ ३७॥
वि.भा.-समद्विबाहो शिर: कोणदाधारोपरि यो लम्ब: सा कररगी संन्यका न्येया, तस्या वर्ग इष्टेन भक्तः, कार्यो श्रनयोयार्याऽल्पा सा समद्विबाहुत्रिभुजस्य भू: कल्पनीया। योऽधिक: स द्वाभ्यां भक्तः समद्विबाहुत्रिभुजस्य् भुजो न्येय:।' सक्षेप्यो यद्वघोवर्ग्स्' इत्य्स्याग्रे सम्बन्ध:।
श्रत्रोपपति:।
अ क ग समद्विबाहु त्रिभुजम्। श्र् शिर: कोण बिन्दुत: क ग श्राघारोपरि लम्ब:= श्र र एतल्लम्ववशेन श्रकर , श्रगर जात्य्त्रिभ्रुजद्वयं तुल्य्ं समुत्पघते, श्रर लम्ब: कोटि:, कर ग्राधराघं भुज:। श्रक= कर्ण:। श्रत्र भुजकरर्गायोर्वर्गान्तरं कोटिवर्गमिष्टं प्रकल्प्य वर्गान्तरं राशिवियोगभक्तमित्यादिना करर्गा-भुज/करर्गा-भुज=कोटि/करगां-भुजा=इ/करर्गा-भु = कर्ण+ भुज तत: करगांभुजयोर्योगान्तराभ्यां संक्रमरागारिगातेन भुजाकरर्गा भवेत्। भ्रुजो द्विगुणितस्त्दा भूर्भवेत्। करर्गा भ्रुजश्चाकररगीगतः समागत इति ॥३७॥
श्रब समाद्विबाहु त्रिभुज में लम्बण्यान से श्रकररगीगत भुजद्वय को कहते हें।
हि.भा. -सम द्विबाहु में शिर.कोगा से श्राघार के ऊपर को लम्ब होता है वह कररगी संन्यक हे। उस के वर्ग को इष्ट से भाग देकर जो लब्धि हो उस में इष्ट को हीन ओर युत करना चाहिये। इन दोनों में जो श्रल्प है उसको समद्विबाहु त्रिभुज की भू कल्पना करना। भाषिक जो हे उस को दो से भाग देने से जो हो वह समद्विबाहु का भुज होता है इति ॥
उपपति।
यहां संस्क्रुतोपपति में लिखित (१) क्षेष को देखिये। श्रकग समद्विबाहुक त्रिभुज है। श्र शिरः कोरगाबिन्दु से कग श्राषार के ऊपर लम्ब= भर इस लम्ब के वश से श्रकर, श्रगर दो तुल्यः जात्म त्रिभुज उत्पन्न होता है । श्रर लम्ब= कोटि,कर श्राघाराषं=भुज,अक=करर्गा यहां भुज ओर करर्गा के वर्गान्तर कोटि (लम्ब) वर्ग को इष्ट कल्पना कर 'वर्गान्तरं राशि वियोग भक्त' इत्यादि से करगां-भुज/करगां-भु=कोटि/कर्गा-भु= इ/ करगां-भु= क+भु तव करगां ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते
और भुज के योगान्तर से संक्रमण गणित से भुज और कर्ण का प्रमाण आजायगा, द्विगुणित भुज समद्विबाहुक की भू है। इस तरह प्रकरणीगत भुज और कर्ण लाया गया है इति ।॥३७॥
इदानीं करणीयोगान्तरे गुणनं चाह। इष्टोद्धतकरण पदयुतिकृतिरिष्टगुणिताऽन्तरकृतिर्वा । गुण्यस्तिर्यगधोऽधो गुणकसमस्तद्भगणः सहितः ॥ ३८ ॥ सु. भा.--यद्वधो ययोः करेण्योर्वधो वगों भवति तयोरेव संक्षेप्यो योगोऽन्तरं
च भवतीति ज्ञेयम् । इष्टोद्धतयोः करण्योः पदे ग्राह्य तद्युतिकृतिर्वा तदन्तरकृति रिष्टगुणिता तदा तयोः करण्योर्योगान्तरे स्तः । गुणकसमो गुण्यस्तिर्यक् पङ्क्ता वधोऽधः स्थाप्यस्ततस्तद्गुणस्तैः खण्डकैर्गुणः सहितो गुणनफलं स्यात् ।
अत्रोपपत्तिः । मत्कृतभास्करबीजटिप्पणीतः स्फुटा । यदा इ, १V क, इ. */ के एतादृश्यौ करण्यौ तदैव गणितयुक्त्या योग:=(इ,+इ.) १/ क = ५/(इ,+इ.) क। अन्तरम्= (इ.-इ.)५/ क = *// (इ.-इ)* क । अथ तदा द्वयोर्वधः=इ.५/ कxइ. ५/ क अस्य मूलचिह्नान्तर्गतस्य मूलं निरग्रम्=इ, इ. क। अतो यदा द्वयोर्वधो वगॉभवति तदैव तयोर्योगान्तरे उत्पद्येते ।। ३८ ।। वि. भा.-ययोः करण्योर्वधो वग भवति तयोरेव संक्षेप्योऽर्थात् योगोऽन्तरं च भवतीति । इष्टोद्धतयोः करण्योः पदे (मूले) ग्राह्य तद्युतिः कृतिर्वा तदन्तरवर्ग इष्टगुणितस्तदा तयोः करण्योर्योगान्तरे भवतः । गुणकसमो गुण्यस्तिर्यक् पंक्ता वधोऽधः स्थाप्यः, ततस्तैः खण्डकैर्गुणः सहितो गुणन फलं भवेदिति ।
प्रत्रोपपतिः ।
अधुना नवीनैमूलचिन्हेन यत् प्रकाश्यते प्राचीनैस्तदेव करणी पदेन व्यव
ह्रियते । यथा/३=क ३ १/५ =क ५ इत्यादि, अथ१/य + vर इदं स्वव र्गमूलसममतस्तद्वर्गः य-+-र+२५/य. र अस्य यन्मूलं वा करणी स एव योगो य, ५/ र चानयोरिति । अथ w/य + ५/र ददं ५/र अनेन गुणनेन भजनेन च vर x (Vर */, )पूर्वागतरूपस्य यो वर्गस्तस्य धनणंशून्यानां सङ्कलनम्
मूलमेव √य, √र अनयोर्युत्यन्तरं भवेदतो √र X (√य/र +- √र/√र)sस्यवर्गः र(√य/र +- √र/√र)¹ अस्यमूलम् वा कररी √य √र अनयोतर्योगोSन्तरं भवतीति। सिध्दान्तशेखरे 'ग्रह्य' न मूलं खलु यस्य राशेस्तस्य प्रदिष्टं करणीति नाम। विभाजको वा गुणकोSथवाSस्याः कृतिर्नियुक्ता कृतिभिः करण्याः, अनेन करणीपरिभाषां तथा गुणनभजनयोओविशेषं कथयति। करणीयोगवियोगसम्बन्धे च, 'योगे वियोगे करणीं स्वबुध्या सन्ताडयेतेन यथा कृतेः स्यात्। तन्मूमसंयोगवियोगवर्गो विभाजयेदिष्ट गुणेन तेन।' उदाहरणायं 'द्विकाष्टमित्योस्त्रिभसंख्ययो' रित्यादि भास्करोक्तः प्रश्नः।
श्रीपत्युक्तौ 'संताडयेतेन यथा कृतिः स्यादिति तथा विभाजयेदिष्टगुणेन तेनेति पदद्वयं परिवर्त्यते चेतथव ते एव योगान्तरे भवतः। तथा च तत्सूत्रमेतादृशं भवितुमर्हति।
'योगे वियोगे करणीं स्वबुध्या विभाजयेतेन यथा कृतिः स्यात्। तन्मूलसंयोगवियोगवर्गो सन्ताडयेदिष्टगुणेन तेन' एतादृशं सूत्रमेव परम्परया प्रसिद्धमस्ति ज्योतिर्वित्समाजेषु।
'आदौ करण्यावपवर्तनीये तन्मूलयोर्योओगवर्गो। इष्टापवर्ताङ्कहतौ भवेता क्रमेण विश्लेषयुती करण्योः' इदमेव सूत्रं श्री जीवनायदैवज्नेन स्वकृत भास्करबीजगणितटीकायाम्।
'आदौ करण्यावपवर्तनीये तन्मूलयोर्योओगवर्गो इष्टापवर्ताङ्कहतौ मते ते क्रमेण विश्लेषयुती करण्योः'। एवं कथितम्। भास्कराचार्येण लघुकरणीम् तुल्यमपवर्तनाङ्क प्रकल्प्य "लघ्व्या हृतायास्तु पदं महत्याः सक निरेक स्वहतं लघुघ्नम्। योगान्तरे स्तः कमरास्तयोर्वा पृथक् स्थितिः स्याद्यपि बनास्ति मूलम्" इति सूत्रमुपनिबद्धम्॥ यदि इ√य,इ√य एताद्ऱुश्यो करण्यो तदैव गणितयुक्तया योगः = (इ+इ)√य=√[(इ+इ)य], अन्तरम् = (इ-इ)√य=√[(इ+इ)¹Xय] तदा द्वयोर्घातः = इ√यXइ√य = √इ¹X√इ¹ = √इ¹Xइ¹Xय अस्य मूलचिह्नान्तर्गतस्य मूलं निरग्रम् = इ.इ.य अतो यक्ष द्वयोवधो वर्गो भवति तदैव तयोर्योगान्तरे भवितुमर्हत इति॥३८॥
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते
हेि.भा-जिन दो करणियों का वध वर्ग होता है, उन दोनों का ही योगान्तर होता है । इष्टाङ्क से भाग देकर दोनों करणियों का मूल लेना चाहिए ।
दोनों का योग या वर्ग तथा अन्तर वर्ग इष्टगुणित हो तब दोनों करणियों का योगा न्तर होता है। गुणक के तुल्य गुण्यखंड को अधोऽधः पंक्ति में तिर्यक् स्थापना करें, उसके बाद उन खण्डों से गुणक को गुणाकर सबों का योग गुणनफल होता है ।
उपपत्ति ।
इस समय मूलचिह्न से जो प्रकट होता है उसी को पुरातन समय में करणी नाम से प्रकट किया जाता था । ‘विभाजको वा गुणाकोऽथवाऽस्याः कृतिभिर्नियुक्ता कृतिभिः करण्याः इस पद से करणी की परिभाषा एवं गुणन, भजन के लिए विशेष बात कही गई है ।
करणीयोगान्तर के सम्बन्ध में ‘योगे वियोगे करणीं स्वबुद्धया सन्ताडयेत्तन यथा कृतिः स्यात् तन्मूलम्' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में कहा गया है । उदाहरण के लिए द्विका ष्टमित्योस्त्रिभसंख्ययोः' इत्यादि भास्करोक्त है । श्रीपति की उक्ति में ‘स्न्ताडयेत्तेन यथाकृतिः स्यात्' इत्यादि और विभाजयेदिष्टगुणेन तेन' इत्यादि दोनों पदों के परैिवर्तन से उसी प्रकार योगान्तर होता है। तब यह सूत्र इस प्रकार होना चाहिए “योगे वियोगे करणीं स्व बुद्धच्या विभाजयेत्तेन यथाकृतिः स्यात्” इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित परम्परा ज्योतिषियों में प्रचलित है ।
इसी प्रकार जीवनाथ दैवज्ञ ने भी अपनी भास्करबीजगणित की टीका में लिखा है ‘आदौ करण्यापवर्तनीये तन्मूलयोरन्तरयोगवगौ' इत्यादि भास्कराचार्य ने लघुकरणी के बराबर अपवर्तनाङ्क मानकर ‘लघ्व्या हृतायास्तु पद्म' इत्यादि सूत्र लिखा है । उदाहरण के लिए यदि इ√य, इ√य यह दोनौं करणी हैं। गणित की भांति योग = (इ+ इ) १/ य = १/(इ+इ). य, अन्तर= (इ-इ) √य = √(इ+इ). य, तब दोनों का घात = इ √य x इ √य =√इ.य * √इ.य = √इ. इ . य इस स्वरूप में मूलचिह्नान्तर्गत का मूल निरग्र=इ. इ. य हैं । इसलिए जिन दौ का वध वर्ग होता है वहीं पर उन दोनों का योग तथा अन्तर होता है। ३८ ।। धनर्णशून्यानां सङ्कलनम् इदानीं करणीभागहारे वर्गे च करणसूत्रमाह । स्वेष्टर्णच्छेदगुणौ भोज्यच्छेदौ पृथक् युजावसकृत् । छेदैकगतहृतो वा भाज्यो वर्गः समद्विवधः ॥ ३९ ॥ १२०१ सु. भ.-भाज्यच्छेदौ स्वेष्टर्णच्छेदगुणौ छेदे या काचिदिष्टा करणी तामृणं प्रकल्प्य तादृक्छेदेन भाज्यहरौ द्वावेव गुणौ पृथक् सम्भवे सति गुणितभाज्ये गुणितच्छेदे च द्वयोर्द्धयोः करण्योर्युजौ योगौ साध्यौ । पुनः स्वेष्टर्णच्छेदगुणौ भाज्यच्छेदौ कार्यावेवमसकृद्वयावच्छेदगतैकैव करणी स्यात् । ततो भाज्यो हरैक गतकरण्या हृतो वा फलं स्यात् । अत्र वा पदेन साधारणभागहारविधिश्च यद्गुणश्छेदो भाज्याच्छुध्यति स गुण एव लब्धिरित्यप्याचार्येण सूचितः । सम द्विवधो वगों भवतीति स्फुटम् । अत्रोपपत्त्यर्थं मत्कृतभास्करबीजटिप्पण्यां ‘धनरर्णताव्यत्ययमीप्सितायाश्छेदे' इत्यादि सूत्रोपपत्तिर्विलोक्या ।। ३९ ।। वि. भा.-भाज्यहरौ हरे या काचिदिष्टा करणी त ऋणं मत्वा तादृशेन हरेण गुणनीयौ, सम्भवे सति गुणितभाज्ये गुणितहरे च द्वयोर्द्धयोः करण्योर्योगौ साध्यौ । पुनः स्वेष्टर्णभाज्यहरौ कार्यावेिवमसकृद्यावद्धरगतैकैब करणी स्यात् । ततो भाज्यो हरैकगतकरण्या भक्तो वा फलं स्यात् । यो गुणो हरो भाज्याच्छुध्यति स गुण एव लब्धिरिति साधारणभागहाररीतिरपि वा पदेनाचार्येण सूचितः समद्विघातो वग चतीति ।। अत्रोपपत्तिः । भाज्यभाजकयोः समेनाङकेन संगुण्य यदि भजेत्तदा लब्धिरविकृतैवातो भाजकगतकरणीनामेकां व्यस्तधनर्णरूपां प्रकल्प्य तादृशा भाजकेन भाज्यभाजका चुभौ यदि गुण्येते तदा नूतनभाजके योगान्तरघातस्य वर्गान्तरसमत्वे नैका करणी न्यूना भविष्यति पुनस्तथैव कृते प्रायो नूतनभाजकेऽप्येका करणी न्यूना भविष्यति, एवमसकृत्कृतेऽन्त्ये सम्भवे भाजके भविष्यति ह्यकैव करणीत्युपपन्नमाचार्योक्तम् । सिद्धान्तशेखरे “छेदे करण्याः समभीप्सितायाः कृत्वा विपर्यासमृणास्वयोश्च । गुण्यौ पृथक् भाज्यहरौ युतौ तौ छेदेऽसकृत् स्यात् करणीयथैका । तया भजेदूध्र्वग भाज्यराशिमेवं करण्याः खलु भागहारः । समानराश्योरुभयोश्च घाते कृते करण्याः कृतिमप्युशन्ति' श्रीपत्युक्तमिदं, बीजगणिते ‘धनर्णता व्यत्ययमीप्सितायाश्छेदे करण्या असकृद्विधाय । तादृक् छिदाः भाज्यहरौ निहन्यादेकैव यावस्करणी हरे स्यात् । भाज्यास्तया भाज्यगता करण्यः’ भास्करोक्तमिदं चाऽऽचार्योक्तानुरूपमे
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ब्राह्मस्पुटसिद्धान्ते
वास्ति। परन्तु यदि हरे धनकरणी भवेत्तदाऽऽचार्याक्तश्रीपत्युक्तभास्करोक्ता 'हरे यवदेकंव करसी स्यात्' नां व्यभिचारो भवेदिति||३९||
श्रब करगी भागहार श्रोर वर्ग को कहते है ।
हि मा - हरे मे जो कोइ इष्ट करगी हो उसको ॠरग मानकर भाज्य श्रोर हर को गुरा देना चहिये।सम्भव रहने से गुरिगत भाज्य में ओर गुरिगत हर में , दो दो कररगी के योग साधन करना पुनः उपयुक्त क्रिया के श्रनुसार क्रिया करनी चहिये। इस तरह बार वार तब तक क्रिया करनी चाहिए जब तक हर में एक ही कररगी हो। तब् भाज्य को भाजकगत एक कररगी से भाग देने से फल होता है। वर्गं की परिभाषा कहते है समान दो श्रङ्कों का घात उसका वर्ग कहलाता है॥
उपर्पात्त।
भाज्य श्रोर भाजक को सामान श्रङ्क से गुरगा कर यदी भाग दिया जाय तो लब्धि ज्यों की त्यों रहती है। झ्मर्यात् लब्धि में किसी तरह का विकार नहीं होता है। इसलिये भाजक गत कररिगयों में एक को व्यस्त (उल्टा) धन,ॠरगा कल्पना कर उस भाजक से यदी भाज्य झ्मौर भाजक को गुरगा करते है तब नवीन भाजक में योगान्तर धात के वर्गान्तर के समान होने के काररग एक कररगी न्युन होगी। पुनाः उसी तरह क्रिया करने से पिर भी नवीन भाजक में एक कररगी न्युन होगी। एवं श्रसक्रुत्(बार-बार) करने से हर में एक ही कररगी होगी , इस से व्लाचार्योत्त उपपन्त हुश्रा। सिद्धान्तशेखर में 'छेदे करण्याः सममीप्सिताया' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोकों से श्रीपति ने तथा दीजगरिगत में 'धनरगाता व्यत्ययमीप्सिताया' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से भास्कराचायं ने भी श्राचार्योत्त्क के श्रनुरुप ही कहा है। परन्तु भाजक धनकररगी रहेगी तब 'यावध्दरे येकंव कररगी भवेत्' इसका व्यभिचार होगा इती॥३९॥
इदानीं कररगीमूलानयनार्यमाह।
इष्टकरण्यूनाया रुपकृतेः पदयुतोनरुपाध्रे।
प्रयमं रुपाण्यन्यत्ततो ततो द्वितीयं करण्यसकृत्॥४०॥
सु भा - रुपकृतेः कि विशिष्टकरण्यूनायाः। इष्टा यैका तया वेष्टयोर्द्वयोर्यो रुपवद्योगस्तोन वेष्टानामनेकासां यो रुपवद्योगस्तोनोनाया यत्पदं तेन रुपारिग पृयक् युतोनितानि तदर्धे च कार्ये। तत्र प्रथममर्धाद्योगाधं रुपारिग कल्प्यानि। ततोऽन्यदन्तरार्ध द्वितीयं मूलस्योका कररगी भवती। एवमसकृन्मूलानयनं कार्यम्।
श्रत्रोपपत्तिः। 'वर्गे करप्या यदि वा करन्योः' इत्यादि भास्करसूत्रस्य या भहिप्पण्यामुपपत्तिस्तया स्पुटा। तत्रान्ये बहवो विरोषारच निरीक्षरगीयाः॥४०॥ R % v ^
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धनरर्पर्शून्यानां सङ्कलनम् १२०३ वि.भा.-रूपक्रुतेः इष्टकरण्यूनायाः इष्टायैका तया ,इष्ट योद्वयोर्वा रुपवधो योगस्ते, इष्टानामनेकासां यो रुपवद्योगास्तेनोनाया यत्पदं तेन रुपारिप पृथक्-युतोनितानि तदर्धे च कार्ये।तत्र प्रथमं
योगार्धरुपारिप कल्प्यानि,ततोअसन्यदन्तरार्ध द्वितीयं मूलस्य एका करगी भवती।एवमसक्कृन्मूलानयनं कार्यमिति।
श्रत्रोपपत्तिः। श्रथ श्र ± √न = व ± √म इत्येकं समीकरणं यत्र श्र, व संख्याद्वयं संभवं न,म इति संख्याद्वयं
चावर्गाङ्करुपं तदाअत्र श्र = व,न =म भविष्यति।यद्येवं न तर्हि कल्प्यते श्र = व + इ ष्रतः व+इ ±
√न=व ± √म समश्ःऑधनेन इ ± √न = ± √म वर्गीकरऍन इX^2 ±१इ √न + न = म सम्षोधनादिना इX^2 ͠ (म-न)X/2 २इ == √न श्रनेन न मूलं भिन्न वाअभिन्नं संभवसंख्यासमं जातं परन्तु क मानमवर्गीङ्करुपं पूर्वं प्रकल्पितमवर्गस्य मूलं न सावयवं न निरवयवं च भिन्नवर्गे भिन्नत्वान्तिरवयवाङ्कवर्गे वर्गाङ्कत्वादतः पूर्वकल्पना न समीचीना। ततोअवश्यं श्र = व,न = म इति सिध्यति। श्रय कल्प्यते श्र+√न अस्य मूलं √य+√र वर्गकरऍन य + र+√४य.र=श्र+ √न पूर्वसमीकरएयुत्तया य+र=अ। ४य.र=न,वर्गकरणॅन यX^2+२य.र+रX^2=श्रX^2, ४य. र=न सम्षोधनेन यX^2 -२य. र+रX^2 =श्रX^2 - न मूलेन य - र=√अX^2-न ततः संक्रमऍन य, र श्रनयोमनिं भवेदिति। सिद्धान्तषेखरे 'रुपक्कृतेः करणी रहिताया मूलयुतोनितरुपगुरार्धे। रुपगुराः प्रथमं हि तदन्यत् स्यात् कररीपकदमित्यसक्कृच्च,श्रीपत्युक्तमिदमा वार्योक्तानूरुपमेवास्ति । भास्कराचार्येण श्रीपत्युक्तमिदं करणीमलानयनं "वर्गेकरण्या यदि वा करण्योस्तुल्यानि रुपाण्यथवा बहूनाम्। विश्ःऑधयेद्रूप्रक्कृतेः पदेन श्ःऍषस्य रुपाणी युतोनितानि॥ प्पृथक् तदधे करणीद्वयं स्यान्मूलेअथबह्ही करणी तयोर्या । रुपाणी तान्येव क्कृतानि भूयः श्ःऑषाः करण्य्यॉ यदि सन्ति वर्गे॥" इत्यनेन स्पष्टीकरणापुर्वकं सम्यक् कथितमिति, करणीमूलानयनेअन्येअपि बहवो नियमाः स्वबीजगणीते प्रतिपादिनताः ॥४०॥
श्रव करणी मूलनयन को कहते है।
हि.भा - इष्ट एक करणी, वा इष्ट दो. करणीथों का रुपवत् जो योग हो उससे
वा श्रनेक करणीयों के रुपवत् योग से रहित रुपवर्ग का जो मूल हो उससे रुप को प्पृथक् युत ष्रोर हीन करना, दोनों का श्रावा करना, उसमें प्रथम तोगाधं की रुप कल्पना करना, ष्रोर श्रन्य श्रन्तरार्ध के द्वितीय मूल्य की एक करणी होती है। एवं श्रसक्कृत् मूलानयन करना चाहिये॥
अ+१/ न =व + 'w/म यह एक समीकरण है जिस में प्र, ब ये दोनों संख्याए
संभव हैं, न, म, ये दोनों संख्याएँ प्रवर्गाङ्क रूप हैं तब अ=व, न=म होगा । यदि ऐसा नहीं होगा तो कल्पना करते हैं अ=व+इ अतः व+इ+ १vन = व + '/म समशो धन से इ.+ ५/न = + ५/म वर्ग करने से इ+२ इ५/न+न=म समशोधनादि से = */न इससे सिद्ध होता है कि न का मूल भिन्न हो कर अभिन्न संभव संख्या २ इ के बराबर हुआ, लेकिन क का मान पहले अवर्गाङ्क रूप प्रकल्पित है, अवर्गाङ्क का मूल भिन्न वर्ग में भिन्नत्व के कारण और निरवयवाङ्क के वर्ग में वर्गाङ्कत्व के कारण नसावयव होता है, न निरयव, इसलिये पूर्व कल्पना समीचीन नहीं हैं । अतः अ=व, न=म सिद्ध होता है। कल्पना करते हैं अ+ Vन इसका मूल= */य-+ */र वर्ग करने से य-+-र+१/४ य. र=अ + ५/ न पूर्व समीकरणयुक्ति से य+ र= अ । ४ य. र=न वर्ग करने से य'+२ य. र+-र=अ' । ४ य. र=न समशोधन से य'-२य. र-+-र=अ'—न मूल लेने से य-र= १/ अ-न, अन्तर ज्ञान से संक्रमण गणित से य र इन दोनों का मान विदित हो जायगा । इस से प्राचार्योक्त उपपन्न हुआ । सिद्धान्त शेखर में ‘रूपकृतेः करणी रहिता वा' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से श्रीपति ने आचा यक्त के अनुरूप ही कहा है, भास्कराचार्य ने बीज गणित में ‘वर्गे करण्या यदि वा करण्योः इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित पद्यों से श्रीपत्युक्त करणीमूलानयन को स्पष्टी करण पूर्वक कहा है । ४० ।।
इदानीमव्यक्तसङ्कलितव्यवकलितयोः करणसूत्रमाह । अव्यक्त वर्गघनवगवर्गपञ्चगत षड्गतादीनाम् । तुल्यानां संकलितव्यवकलिते पृथगतुल्यानाम् ।। ४१ ।।
सु. भा-अव्यक्तानां तद्वर्गाणां चनानां वर्गवर्गाणां पञ्चगतानां पञ्च
घातानां षड्गतादीनां षड्घातादीनां तुल्यानां समानजातीनां सङ्कलितव्यवकलिते भवतोऽतुल्यानां भिन्नजातीनां च पृथक् स्थापनमेव तेषां सङ्कलितव्यवकलिते भवत इति । ‘योगोऽन्तरं तेषु समानजात्योविभिन्नजात्योश्च पृथक् स्थितिश्ध ' इति भास्करोक्तमेतदनुरूपमेवातो ऽस्योपपत्तिश्च तद्वत् ॥ ४१ ।।
वि. भा-अव्यक्तानां वर्गाणां घनानां वर्गवर्गाणां पञ्चघातानां षड् घातादीनां तुल्यानां (समानजातीनां) योगोऽन्तरं भवति, अतुल्यानां (भिन्नजा तीनां) पृथक् स्थितिरेव “तद्योगोऽन्तरं भवतीति । नारायणीये बीजगणितावतंसे ‘वणषु च समजात्योर्योगः कार्यस्तथा वियोगश्च । असदृशजात्योर्योगे पृथक् स्थितिः
धनशून्यानाम् सन्कलनम्
स्याद्वियोगे च इति योगोन्तरं तेषु समानजात्योर्विभिन्न्नजात्योस्च प्रुथक् स्थितिश्च भास्करोक्तमिदम् चाचार्योक्तानुरूपमेव । समद्विधातो वर्ग: । त्रिधातो धन: । चतुर्धातो वर्गवगर्ग इत्यादियथेष्टघाता भवितुमहमंति । पासश्चात्यगणिते यस्य घातोSपेक्ष्यते तन्मस्तकोपरि तद्घातज्नापनाय तदाङ्का रक्ष्यन्त् यथा य श्र्यस्य द्विघात: = य¹=य¹*य¹=य¹+¹। त्रिघातो घन: = य¹*य¹=य¹*य¹*य¹=य¹+¹+¹ ऊर्ध्वरूपदर्शनादवगम्यते यद्वारज्नापका द्वित्र्यादय: । यदि द्विघाते विचार: क्रियते तदा य¹*य¹ अत्रैकघात एकघातेन गुण्यतेSत्र कैकैयोर्योगो द्रयम् य¹*य¹=य¹+¹=य², एवं यथेष्टघातेषु य¹*य¹=य¹+¹=य³=वर्गवर्ग:। य*य*य*य*य = य¹+¹+¹+¹+¹= य²+³= पण्चघात: इति ॥ ४२ ॥
त्र्य्रब श्य्रव्यक्तों के संकलित त्र्य्रोरा व्यवकलित को कहते हैं ।
हि.भा. - श्र्यव्यक्तों के वगं, घन, वर्गवर्ग, पण्चघात, षड् घात भ्रादि समान जातियों का योग क्ष्योर श्य्रन्तर होता है । भिन्न जातियों की प्र्थक् स्थिति ही योग श्य्रोर श्य्रन्तर होता है ॥ नारायणीय बीजणितावनंस में 'वणैषुत्व समजात्योर्योग: कार्य' इत्यादि विज्नान भाष्य में लिखित भास्करीय श्लोक विषय श्य्राचार्योक्त के त्र्य्र्नुरूप ही है । समान दो श्य्रान्कों का घात वर्ग है, त्रिघात धन है चतुर्धात वर्गवर्ग इत्यादि यथेष्टघात होते है । पाश्चात्य गणित में जिसका घात श्य्रोपेक्षित है उसके मस्तक के ऊपर उस घात के ज्नानार्थ उस त्र्य्रन्क को रक्खा जाता है । जैसे य इसका द्विघात = य²=य¹*य¹=य¹+¹=य का वर्ग त्रिघात घन है । य³= य का घन + य²*य¹ = य¹*य¹*य¹= य¹+¹+¹ एवं यथेष्टघात होते है । समान जातिक त्र्य्रन्कों का योग श्य्रोर श्र्य्रन्तर होता है जैसे ३य² +२य² + ५य² = य² (३+२+५) = १० य² एवं १० य² - २य² - ५य² =य² (१०-२-५) = य² (१०-७) = ३य² ।
यदि १२ य², इसमें ५ य³ इसको जोडते है वा घटाते है तो प्रथक् स्थापन ही होता है यथा १२य³ +- ५य³ एवं सर्वत्र समक्त्मना चाहिये इति ॥४१॥
इदानीमव्यक्तगुणेने सूत्रमाह । सद्रशद्विवधो वर्गस्त्र्यादिवधस्तद् गतोशSन्यजातिवघ: । श्य्रन्योSन्यवर्णघातो भावितक: पूर्ववच्चेषम् ॥४२॥
सू.मा. - सद्रशयोर्द्वयोरव्यक्तयोर्वधो वर्गा भवति । त्र्यादीनां समजातीनां
वधस्तद्वतस्त्त्र्यादिघातोSर्थाद् धनवर्गवर्गादिको भंवति । त्र्य्रन्यजात्योर्विभिन्नजात्योर्वधोSन्योSन्यवर्णघातो भवति स च भावितको भावित इत्युच्यते । ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः
गुरगनभजनादिकम् कर्म पूर्ववदिति । स्याद्र पवरार्गाभिहतौ तु वरर्गो द्वित्र्यादिकानाम् समजातिकानाम् इत्यादिभास्करोक्तमेतदनुरुपमेव ॥ इति धनरर्गादीनाम् सङ्कलितव्यवकलितादि ।
वि.भा.- समानयोर्द्वयोरव्यक्तयोर्घातो वगो भवति। समानाव्यक्तत्रयारगाम् घातस्तद घनोभवति । एवम् समानानाम् चतुरर्गामव्यक्तानाम् घातो वर्गवर्गो भवति एवम् पञच घातादावपि । विभिन्न जात्योर्वघो Sन्योSन्यवरर्गाघातो भवति स च भावित सम्ज्ञक:। शेषम् गुरगानभजनादिकम् पुर्ववच्छौघ्यमिति । श्रत्रत्यविषया: पुर्वहश्लोकस्य विज्ञानभाष्ये प्रदशीर्ता:सन्ति। तत्र व ते द्र्ष्टव्या इति ॥ इति घनरगादीनाम् सङ्कलितव्यवकलितादि ॥
हि भा समान दो व्ययक्तो का घात उसका वर्ग होता है । समान तीन श्रव्यक्तो का धात धन होता है समान चार श्रव्यक्तो का घात वर्गवर्ग होता है । एवम् पञचधातादि होता है । विभिन्न जातिक श्रव्यक्तो के धात भावित सम्ज्ञक है । शेष गुरगान भजन आदि कर्म पूर्ववत् समत्भना चाहिये । यहा के विषय पुवश्लोक के हि.भा. मे दिखलाये गये हे वे वही द्र्ष्टव्य है इति ॥ इति धन श्रौर भादि का सङ्कलित श्रौर व्यवकलित समाप्त हुआ।
स्याद्र पवरर्गाभिहत तु वरर्गा द्वित्र्यादिकाना समजातिकानाम् ।
वधे तु तद्वर्गधमादय:स्युस्तदूभावित चासमजातिधाते ॥
भागादिकम् रुपवदेव शेष व्यक्त यदुक्तम् गरिगते तदत्र भास्करोक्तमिदमा भोक्तानुरुपमेवेति ॥ मथैकवणसमीकरणबीजम्
तत्राव्यक्तमानानयनार्थमाह ।
प्रव्यक्तान्तरभक्तं व्यस्तं रूपान्तरं समेऽठयक्तः । वर्गाव्यक्ताः शोध्या यस्माद्रपाणि तदधस्तात् ।। ४३ ।। सु. भां-समे एकवणसमीकरणे व्यस्तं रूपान्तरमव्यक्तान्तरभक्तमव्यक्त मानं व्यक्तं भवेत् । यत्पक्षादव्यक्तमानादन्यपक्षाव्यक्तमानं विशोध्याव्यक्तान्तरं साध्यते तत्पक्षस्थरूपाण्यन्यपक्षरूपेभ्यो विशोध्य यच्छेषं तद्वयस्तं रूपान्तरमित्यर्थः । अव्यक्तः । वर्गाव्यक्ता'-इत्यादेरग्रे सम्बन्धः । ‘एकाव्यक्तं शोधयेदन्यपक्षात् इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूपमेव ॥ ४३ ॥ वि .भा.-समे (एकवर्णसमीकरणे ) व्यस्त रूपान्तरमव्यक्तान्तरभक्त मव्यक्तमानं व्यक्त जायते । यत्पक्षादव्यक्तमानादन्यपक्षाव्यक्तमान विशोध्यायः क्तान्तरं साध्यते तत्पक्षस्य रूपाण्यन्यपक्षरूपेभ्यो विशोध्य यच्छेषं तद्वयस्तं रूपान्तरम् । अव्यक्तः । वगव्यक्ता इत्यादेरग्रे सम्बन्धः । सिद्धान्तशेखरे ‘अव्यक्त विश्लेषहृते प्रतीपरूपान्तरेऽव्यक्तमिती भवेताम् । स्याद्वा युतोनाहतभक्तमि च्छेत्तदाऽन्यपक्षे विहिते तथैव, श्रीपत्युक्तमिदं बीजगणिते “यावत्तावत् कल्प्यमव्य क्तराशेर्मान तस्मिन् कुर्वतोद्दिष्टमेव । तुल्यौ पक्षौ. साधनीयौ प्रयत्नात्यक्तवा क्षिप्त्वा वाऽपि संगुण्य भक्तचा । एकाव्यक्तं शोधयेदन्यपक्षाद्र पाण्यन्य स्येतरस्माच्च पक्षात् शेषाव्यक्तनोद्धरेद्र पशेष व्यक्त मानं जायतेऽव्यक्तराशेः अब एक वर्ण समीकरण बीज प्रारम्भ होता है । उस में पहले अव्यक्त मानानयनार्थ कहते हैं ।
हैि. भा-एकवर्ण समीकरण में विपरीत रूपान्तर की प्रव्यत्तान्तर से भाग देने से अव्यक्तमान व्यक्त होता है। जिस पक्ष के अव्यक्तमान में से अन्यपक्ष के अव्यक्त मान की घटाकर अव्यक्तान्तर साधन करते हैं उस पक्ष के रूप को अन्य पक्ष के रूप में से घटाकर जो शेष रहता है वही विपरीत रूपान्तर है । सिद्धान्त शेखर में ‘अव्यक्तविश्लेषहृते प्रतीप रूपान्तरे' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्रीपतिपद्य तथा बीजगणित में यावत्तावत्क ल्प्यमव्यक्तराशेः' इत्यादि वि. भा. लिखित भास्करोत्क्ति प्रावार्योक्त के अनुरूप ही है इति ॥ ४३ ॥ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त
इदानीं वर्गसमीकरणमाह ।
वर्गचतुर्गुणितानां रूपाणां मध्यवर्गसहितानाम् । मूलं मध्येनोनं वर्गद्विगुणोद्धतं मध्यः ।४४ ॥
सु. भा.--यस्मात्पक्षादव्यक्तो वर्गाव्यक्ता अव्यक्तवर्गश्च विशोध्यस्तदध स्तादितरपक्षाद्रपाणि बिशोध्यानि । एवमेकपक्षेऽव्यक्तवगों ऽव्यक्तश्च । अपरपक्षे च व्यक्तानि रूपाणि । तत्राव्यक्तमानं कथं भवेदित्येतदर्थमाह वर्गचतुर्गुणिता नामित्यादि । रूपाणां व्यक्ताङ्कानां किंविशिष्टानां वर्गचतुर्गुणितानां चतुर्गुणिताव्यक्तवर्गगुणकगुणितानाम् । पुनः किं विशिष्टानां मध्यवर्गसहितानां । मध्योऽव्यक्तस्तस्य गुणकश्चात्र मध्येन गृहीतस्तस्य गुणकस्य यो वर्गस्तेन सहितानां यन्मूलं तन्मध्येनाव्यक्तगुणकेनोनं वर्गद्विगुणोद्धतं द्विगुणाव्यक्तवर्ग गुणकेनोद्धतं तदा मध्योऽव्यक्तोऽथर्थादव्यक्तमानं स्यादिति । अत्रोपपत्त्यर्थ मत्कृतभास्करबीजटिप्पण्यां ‘चतुराहतवर्गसमै रूपैः’– इत्यादि सूत्रोपपत्तिद्रष्टव्या ।। ४४ ॥ वि. भा.-यस्मात् पक्षादव्यक्तो वर्गाव्यक्तोअव्यक्तवर्गश्च विशोध्य स्तदधस्तादितरपक्षाद्रपाणि विशोध्यानि । एवमेकपक्षेऽव्यक्तवगर्योऽव्यक्तश्च भवति । इतरपक्ष रूपाणि भवन्ति । तत्राव्यक्तमानज्ञानं कथं भवेत्तदर्थ कथ्यते रूपाणां (व्यक्ताङ्कानां) चतुर्गुणिताव्यक्तवर्गगुणकगुणितानां मध्यवर्गसहि तानां मध्योऽव्यक्तस्तस्य गुणकश्चात्र मध्येन गृहीतस्तस्य गुणकस्य यो वर्गस्तेन सहितानां यन्मूलं तन्मध्येनाव्यक्तगुणकेन हीनं वर्गद्विगुणभक्तं (द्विगुणाव्यक्त वर्गगुणकेन भक्तं ) तदा मध्योऽव्यक्तोऽथदव्यक्तमान भवेदिति ॥
स्ऱत्रोपपत्तिः।
कल्प्यते य' . गु + य . गु=व्य पक्षौ गु भक्तौ तदा य' + य . गु
*५ - पुनः पक्षयो - अस्य वर्गयोगेनावश्यमेवाव्यक्तपक्षो मूलदो भवति
२
“द्वयोर्द्धयोश्चाभिहर्ति द्विनिघ्नीम् '-इत्यादिना तेन य' + य. -गु -
एतौ वर्गेण गुणितौ वर्गत्वं न त्यजतोऽतो
वर्गेणचतुर्गुणेन गुणितौ जातौ ४ गु'. य'+४गु . गु. य+गु=गु'+४ गु: व्य एकवर्णसमीकरण बीजम्
१२०९ = ४ गु ( गु य'+गु य ) + गु = गु' + ४ गु व्य एतेनाचार्योक्त तथा चतुराहतवर्गे समै रूपैः पक्षद्वयं गुणयेत् । अव्यक्तवर्णरूपैर्युक्तौ पक्षौ ततो मूलमिति श्रीधराचार्योक्तसूत्रं चोपपद्यत इति ॥ ४४ ॥ । अब वर्गसमीकरण को कहते हैं । हि- भा.--जिस पक्ष में अव्यक्त और अव्यक्त वगं घटाते हैं उससे इतर पक्ष में रूप को घटाना चाहिये । इस तरह एक पक्ष में अव्यक्तवर्ग और अव्यक्त होता है, इतर पक्ष में रूप होते हैं, वहां अव्यक्त मान ज्ञान कैसे होता है उसके लिए कहते हैं । चतुर्गुणित अव्यक्त वर्ग के रूप से दोनों पक्ष को गुणा.हें। दोनों पक्षों में अव्यक्त वर्ग रूप को जोड़कर दोनों पक्ष का मूल लें। तब अन्योन्य पक्षानयन भागादि क्रिया करने पर श्रब्यक्त राशि मन आ जाता है । उपपत्ति । कल्पना करते हैं य.गु+य . गु=व्य दोनों पक्षों को गु भाग देने से य'+य. छ == पुनः दोनों पक्षों में शु इसका वर्ग जोड़ने से अवश्य ही अव्यक्त पक्ष मूलद होता है। २ श्रे ‘द्वयोर्दूयोश्चाभिहति द्विनिघ्नीं' इत्यादि से, अतः य'+य.गुं+- शु’ =ग्र'+४ गु . व्य इन दोनों को वर्गीक से गुणा करने से वर्गत्व नहीं हटता है इसलिए चतुर्गुणित गुणबर्ग से गुणा करने से ४ गृ. य'+४ गु गुय+गु'=भु'+४ गु. व्य=४ गु (गु. य' गु. य)+ऍ=Q* +४ गु . व्य, इससे आचार्योंक्त तथा ‘चतुराहतवर्गसमै रूपैः पक्षद्वयं गुणयेत्’ इत्यादि श्रीधरा चार्य सूत्र भी उपपन्न हुआ इति ।। ४४ ।। इदानीं प्रकारान्तरेण वर्गसमीकरणेऽव्यक्तमानमानयति वर्गाहतरूपाणामव्यक्तार्धकृतिसंयुतानां यत् । पदमव्यक्ताङ्गनं तद्वर्णविभक्तमव्यक्तः ।४५।। सु० भा०--वर्गेणाव्यक्तवर्गगुणकेन हतानां रूपाणां किंविशिष्टानामव्यक्तार्थ कृतिसंयुतानामव्यक्तगुणकाञ्चवर्गसहितानां यत् पदं तदव्यक्तगुणकाधनं तदव्यक्त- वर्गगुणकविभक्तमव्यक्तोऽव्यक्तमानं स्यादिति । अत्रोपपत्तिः । चतुभिरपवत्यै पूर्वसूत्रविचिना स्फुटा ।। ४५ ।।
१२१० ब्राह्नस्फुटसिद्धान्ते वि-भा,-वर्गेरणव्यक्तवर्गगुरगकेन गुरिगतानां रुपारगां (व्यक्ताङ्कानां) अव्यक्तगुरगकार्धवर्गसंयुतानां युन्मुलं तदव्यक्तगुरगकार्धेन हिनं तदव्यक्तवर्गगुरगकविभक्त तदाऽव्यक्तराशिमानं भवेदिति ॥ श्रत्रोपपत्तिः । पूर्वसूश्रोपपत्तौ ४ गु (गु.य^२+गु.य )+गु^२=गु^२+४ गु.व्य पक्षौ चतुर्भिरपवत्तितौ गु.(गु.य^२+गु.य)+गु/४=गु/४+गु.व्य=गु^१.य^२+गु.गु.य+गु/४=गु/४+गु.व्य पक्षयोमुल ग्रहरगेन गु.य+गु/२=√गु/२+गु.व्य पक्षयो गु/२ हीनौ तदा गु.य=√गु/२+गु.व्य-गु/२ पक्षौ गु भक्तौ तदा य=√गु/२+गु.व्य-गु/२/गु एतेनाचार्योक्तनमुपपन्नभ् ॥४५॥
श्रब प्रकारान्तर से वगं समीकररग में श्रव्यक्त मान लातें हैं ।
हि.भा.-श्रव्यक्त वर्ग गुरगक से गुरिगत रुपमें श्रव्यक्त गुरगकार्ध
वर्ग जोडकर जो मूल हो उसमें से श्रव्यक्त गुरगकार्ध को घटाकर श्रव्यक्त वर्ग गुरगक से भाग देने से राहि मान होता है इति ।
उपपति ।
पूवं सुत्रोपपति में ४ गु (गु.य^२+मु.य)+गु^२=गु^२+४ गु.व्य दोनों पक्षों
को श्र्वार से श्रपवर्त्तन देने से मु (गु.य^२+गु.य)+ गु^२/४=गु^२/४ +गु.व्य=मु^२.य^२ + गु.गु.य + गु/४=गु/४+गु. व्य दोनों पक्षों के मूल ग्रहरग करनेसे गु.य+गु/२=√गु/२+गु.व्य दोनों पक्षों में गृ/२ घटाने से गु.य=√गु/२+गु.व्य-गु/२ दोनों पक्षों । एकवर्गसमीकरण बीजम्
१२११ Aईई. + . व्य ° २ इससे आचार्योंक्त उपपन्न हुआ । ४५।। कौ ग से भाग देने से य== इदानीं प्रश्नमाह । सैकादंशकशेषाद् द्वादशभागश्चतुर् णोऽष्टयुतः । सैकांशशेषतुल्यो यदा तदाऽहर्गणं कथय ॥४६॥ सु. भा7. -अंशकशेषात् द्वादशभागः चतुर्गुणोऽष्टंयुतस्तदा सैके संकाद्यो स नांशशेषेण यदा तुल्यो भवति तदाहऍणं कथयेति । अत्रशशेषप्रमणं या १। तदा प्रश्नालापेन ४ (या+१). +८= या+१+८=या+२५ =या+१, अतश्छेदगामिनार १२ या+२५ = ३ या+३ . या=११ अस्मादंशशेषाव रव्यादीनामुद्दिष्टात् पूर्ववदहर्गणः स्यादिति ।। ४६ ।। वि. भा–एकेन सहितादंशकशेषाद्यो द्वादशांशः स चतुगुणोऽष्टयुतस्तदा सैकेनांशशेषेण यदा तुल्यो भवति तदाऽहर्गणं कथयेति ।। * अत्रोपपत्तिः । अत्रांशशेषप्रमाणं कल्प्यते=य तदा सूत्रोक्तालापेन ४ (य+१) ८ -+ १२ =य+१ -, +८+य+२५. य+१ छेदगमेन य+२५ = ३ य+३ समशोधनेन २ ष २२ =-२२ अतः य =ीर = ११ अस्मादंशशेषद्रव्यादीनामुद्दिष्टात् पूर्ववदहळूणोरे भवेदिति ॥४६॥ अब अन्य प्रर्बन को कहते हैं । हि. भा–एक समीहत अंश शोष के द्वादशांश को चार से गुणा कर आठ जोड़ने के यदि एक सहित अंश काष के बराबर होता है तबं अहर्ष प्रमाण को कहो इति ॥ उपपत्ति । यह कल्पना करते हैं अंश कोष प्रमाण=य, तब सूत्रोक्त आलोप से ४ (य+१ )
१२१२ ब्राह्मस्पुटसिद्धान्ते
+प ={(य+१)/३}+प=[(य+२५)/३]=य+१ छेदगम से य +१५=३य+३ समशोधन से २ य= २२ स य=२२/२=११ इस अंश शेष से पूर्ववत् अहर्गरा होता हॅ इति॥४६॥
इदानीमन्यं प्रश्नमाह ।
द्वयूनमधिमासशेषं त्रिहुतं सप्ताधिकं द्विसङ्गुखितम्।
श्वधिमासशेषतुल्यं यदा तदा युगगतं कथय ॥४७॥
सु.मा.-स्पष्टार्थम् ।अत्र प्र्श्नालापेन यदि अधिशेषमानं या १ ।
२{[(या-२)/३]+७}=(२या-४)/३+ १४=(२या +३८)/३ =या
या=३८। भ्रस्मादधिमासशेषात् कुट्टकेन युगगतानयनं सुगममू ॥४७॥
वि.भा.-भ्रधिमासशेषं द्विगुरिगतं तदाधिभासशेषतुल्यं भवति तदा युगगतं कथयेति ॥
भ्रत्रोपपत्तिः।
अत्र कल्प्यते भ्र्धिशेषमानमू=य,तदा प्रश्नोक्त्या २{[(य-२)/३]+७}=(२य-४)/३+१४
[(२य-४+४२)३]=[(२य+३८)/३]=भ्रस्मादधिमासशेषात् कुटटकयुक्त्या युगगतानयनं स्फुटमिति ॥४८॥
श्रब भ्रन्य प्रश्न को कहते हॅ ।
हि.मा.-भ्रधिमास शेष में से दो घटाकर तीन से भाग देने से जो लब्ध हो उसमें सात जोडकर द्विगुरिगत करने से यदि भ्रषिमास्र शेष के
बराबरहोता हॅ तव युगगत को कहो इति ॥
उपपत्ति
यहां कल्पना करते हॅ भ्रधिशेषमान = य, तव प्रश्नानुसार २{[(य-२)/३+७]} =
(२य -४)/३ + १४ = (२य-४+४१)/३= (२य + ३६)/३ एकवर्णसमीकरण बीजम्
१२१३ = अविशेष = य छेदगम से २ य4 ३८ = ३ य अतः य = ३८ इस अघिमास शेष से कुट्टक युक्ति से युगगतानयन स्फुट है इति ॥ ४७ ॥ इदानोमन्यप्रश्नमाह । व्येकमवमावशेषं षड द्धतं त्रियतमवमशेषस्य । पञ्चविभक्तस्य समं यदा तदा युगगतं कथय ॥ ४८ ॥ सु. भा. –स्पष्टार्थम् । अत्र प्रश्नालापेन यद्यवमावशेषं या १ । या-१+३३ः =या+१७= या_ छेदगमादिना =८५ । या अस्मात् क्षयशेषात् पूर्वप्रकारेण युगगतानयनं सुगममिति ॥ ४८ ॥ । वि. भा.-अवमशेषमेकेन हीनं षडभक्त ' त्रियुतं यदा पञ्चभक्तस्यावम- शेषस्य तुल्यं भवति तदा युगगतं कथयेति । अत्रोपपत्तिः अत्र कल्प्यते अवमशेषमानम् = य, तदा प्रश्नोक्तया यज१- + ३ य = १+ १८ = य + १७ = अवमलै = -- छंदग ५ मैन ५ य+८५ = ६ य अत: य = ८५ अस्मादवमशेषत् पूर्ववथुगगतानयनं स्फुटमिति ॥ ४८ ॥ अब अन्य प्रश्न को कहते हैं। हि. भा-अवशेष में से एक घटाकर छ: से भाग देने से जो लब्ध हो उसमें तीन बोड़ने से यदि पांच से विभक्त अवशेष के बराबर हो तब युगगत प्रमाण को कहो इति । उपपत्ति । यहाँ कल्पना करते हैं अवमशेषमान = य, तब प्रश्नानुसार - ५ -४ + ३ – य→ १ + १८ = य + १७ _ = + ३ = ==
=
[सम्पाद्यताम्]= = = = = =
==
[सम्पाद्यताम्]==
[सम्पाद्यताम्]छेदगम से ५ य + ८५८६ य अतः य = ८५ इस अवमशे’ से पूर्ववत् युगगतानयन स्फुट है इति ।। ४८ ॥ §. 977 — 3rT?faf<JS*r5raT^ WU^TFj; I 5PT CTBPT^ I ^ST^HI^ STcT: iTT-K= ±V /. VI =% 3T •¥prtaT^nTT?l^ =<i ^ 3T, 3 I Sm - ^pcfTC M^l^ I ii n ii ( v + ^ — i — ? ) 1° + ^ = ( t — ? ) ?o + ^ =?o IT — ?o + r = ?o it — <s = ^rw^r — ? =q"' + ^ — ? = 2r"+ $ = R< — % = W Wfr *f — - ± v ?Rr: zr = ^ ± v ^fTTcT J ^^TS5^S^"t WcT tfrstfrssf^T ?TfTcT5^ ?fcT II V |»
इदनीम्न्यप्रषन्माह् । मन्दल्षोषद् द्नन्मलम् वय्क् दसाह्त् दियुत्म् । मन्दल्षोष व्येक् भानोग्य्दिने क्दा भवति ॥ ॥ सु.भा.-भनोमन्षोषद् भगरग्षोषत् । षोष् सम्प्रष्तम् । अत्र् प्रषनाल यदि बगन्षेस्प्र्मरगम् या +। (या-२)+२=२० या -८=या+२-१=या+१ पक्षान्त्रन्यनेन् या -२० या=९ वगस्मिकरनम्विधिना या-२० य=२५=९=१६ अत: या-५=+४ या = ९ वा १, येव्मत्र बीज्युकित्त्तो द्विविध मान्मुत्प्प्ध्ते यावताव्तस्त्द्र्षोनोत्थाप्न् भगन्न्न्षोष्मन्त्म्=८३ वा, ३ । चतुवदाचाय्ग् प्रषमान्मव् ग्रहीतम् । क्स्माद्ग्र्ग्न्षोसत् प्र्व्कहक्विधिना नेक्धा भवति स चाभीस्त्दवरे ग्राह्: ॥४९॥ सत्र् कल्प्य्ते भ्ग्र्ग्षोष्प्रमर्ग्म् = य् + २ तदा प्रष्नोथ्या (य + २ - २ - ९)२० + २ = (य् - २)२० + २ =२० य-२० + २ = २० य-८=भगरगषो-२=य्+२-१=य+१ स्म्षोधनादिना य -२० य= -९ पम्यो:२५ योजनन य्-२० य्=२८=२५-९=२६ मूल् ग्रह्गेन् य्-५= + ४ ष्क्थ्म् य्=५ + ४ अथात् य्=९,य्=१आभ्या ८३,४ गहिथव्य् इति ॥
उप्प्त्ति।
य्हा कल्पना करतै है बग्रङ् षोष् प्रमर्ग्=य् + २ तब् प्रसह्नुनसर्
एकवणंसमीकरखबीजम्
(/य + २ - २ - १) १० + २ = ( य - १ ) १० + २ = १० य -१० + २ = १० य - ए = भगनाशे - १ = य + २ - १ = य + १ सम शोधनादि से य - १० य = -६ दोनों पक्षों में २५ जोडने से य - १० य + २५ = २५ - ६ = १६ मूलग्रहना से य - ५ = ± ४ भ्रातः य = ५ ± ४ ग्रर्यात् य = ६, य = १ इन दोनों से भगना शेष को उत्थापन देने से ३, ३ इस भगनाशेष से कुद्द्क युक्ति से धनेकघा भ्रहर्गना होता है बह ग्रभीष्ट दिन में ग्रहख करना चाहिये इति||४६||
इधानीमन्यप्रश्नमाह| श्रधिमासशेषपादात् न्यूनाद्वर्गो Sधिमासशेषसमः | श्रवमावसशेषतो वाsवमशेषसमः कदा भवति ||५०|| सु. भा. --स्यष्टार्थम् | यध्यधिमासशेषस्य क्षयशेषस्य च प्रमानां या १ तदा प्रश्नालापेन |
(या/४ - ३)२ = (या - १२/४)२ = या-२४या+१४४/१३= या तत उक्तवत् या-४० या= -१४४,
या- ४० या+४००=४००-१४४=२४६ ∴ या - २०=± १६ ततः या = ३६ वा ४ श्रत्र यदि रूपत्रयतोSधिशेषस्य क्षयशेषस्य वा पादः शोध्यते शेषश्च धनात्मकोSपेक्षितस्तदा द्वितीयं मानमेव ग्राह्यम् | ततोSधिशेषादवमावशेषाच्च कुद्दकविधिना क ल्पागतानयनं सुगमामिति ||५०|| वि.भा. - श्रधिमासशेषचतुर्थाशात् त्रिहीनीत् वर्गोSधिशेष समः । वा श्रवमावशेषतोSवमशेषतुल्यः कदा भवतीति ॥ भ्रत्रोपपत्तिः।
कल्प्यते श्रधिमासशेषस्य मानम् = य, तदा प्रश्नोक्तचा ( या/४ -३) = श्नधिशेष = य = ( य - १२/ ४) = य - २४य + १४४/ १३= छेदगमेन य - २४य + १४४=१३ य समशोधनेन य - ४० य = -१४४ पक्षयोः ४०० योजनेन य - ४० य + ४०० = ४००-१४४= २४६ मूलग्रहनेन य - २०=
एकवणंसमीकरखबीजम्
(/य + २ - २ - १) १० + २ = ( य - १ ) १० + २ = १० य -१० + २ = १० य - ए = भगनाशे - १ = य + २ - १ = य + १ सम शोधनादि से य - १० य = -६ दोनों पक्षों में २५ जोडने से य - १० य + २५ = २५ - ६ = १६ मूलग्रहना से य - ५ = ± ४ भ्रातः य = ५ ± ४ ग्रर्यात् य = ६, य = १ इन दोनों से भगना शेष को उत्थापन देने से ३, ३ इस भगनाशेष से कुद्द्क युक्ति से धनेकघा भ्रहर्गना होता है बह ग्रभीष्ट दिन में ग्रहख करना चाहिये इति||४६||
इधानीमन्यप्रश्नमाह| श्रधिमासशेषपादात् न्यूनाद्वर्गो Sधिमासशेषसमः | श्रवमावसशेषतो वाsवमशेषसमः कदा भवति ||५०|| सु. भा. --स्यष्टार्थम् | यध्यधिमासशेषस्य क्षयशेषस्य च प्रमानां या १ तदा प्रश्नालापेन |
(या/४ - ३)२ = (या - १२/४)२ = या-२४या+१४४/१३= या तत उक्तवत् या-४० या= -१४४,
या- ४० या+४००=४००-१४४=२४६ ∴ या - २०=± १६ ततः या = ३६ वा ४ श्रत्र यदि रूपत्रयतोSधिशेषस्य क्षयशेषस्य वा पादः शोध्यते शेषश्च धनात्मकोSपेक्षितस्तदा द्वितीयं मानमेव ग्राह्यम् | ततोSधिशेषादवमावशेषाच्च कुद्दकविधिना क ल्पागतानयनं सुगमामिति ||५०|| वि.भा. - श्रधिमासशेषचतुर्थाशात् त्रिहीनीत् वर्गोSधिशेष समः । वा श्रवमावशेषतोSवमशेषतुल्यः कदा भवतीति ॥
श्रत्रोपपत्तिः।
कल्प्यते श्रधिमासशेष्स्य मानम् = य, तदा प्रश्नोक्तया (य/४-३) = ग्रधिशेष = य = (य -१२/४) = य -२४य+१४४/१३= य छेदगमेन य-२४ य +१४४=१३ य समशोधनेन य -४० य = -१४४ पक्षयोह् ४०० योजनेन य - ४० य + ४०० = ४००-१४४=२४६ मूलग्रहनेन य - २० = ± १३ ∴ य = २० ± १३ भ्रथति य = १३, य = ४ १२१६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते एवमेवावमावशेषतः क्रिया कार्या तदा ऽवमशेषज्ञानं भवेत् । अत्र यदि रूपत्रयतो ऽधिशेषस्यावमशेषस्य वा चतुर्थाशः शोध्यते शेषश्च धनात्मकोऽपेक्षितस्तद द्वितीयमानमेव ग्राह्यम् । ततोऽधिशेषादवमशेषाच्च कुट्टकेन कल्पगतानयनं स्फुटं मेवेति ।। ५० ।। इत्येकवर्णसमीकरणम् अब अन्य प्रश्न को कहते हैं । हि. भा.-अधिमास शेष चतुर्थांश में से तीन घटाकर वर्ग करते हैं वह अधिश ष के बराबर होता है वा अवमशेष चतुर्थांश में से तीन घटाकर वर्ग करते हैं वह अवमशेष के बराबर कब होता है इति । उपपत्ति । कल्पना करते हैं अधिमास शेष प्रमाण = य, तब प्रश्नानुसार =अचि =य=( य - १२ );= य-२४ य+*१४४ =य छेदगम से य. १६ २४ य+१४४== १६ य समशोधन से य' -–-४० य=~~ १४४ दोनों पक्षों में ४०० जोड़ने से य’–-४० य +४०० = = ४०० - १४४ मूलग्रहण से य – २०== अतः = १६ य = २० + १६ अर्थात् य = ३६, य = ४, इसी तरह अवसावशे ष ज्ञान होता है । यहां यदि तीन में से अविशेष के चतुर्थांश वा अवम शेष के चतुर्थांश को घटाते हैं तथा शेष धनात्मक अपेक्षित हो तब द्वितीय मान ही ग्रहण करना चाहिये। तब अविशष अवमशेष से कुट्टक युक्ति से कल्पगतानयन स्फुट ही । है इति ।। ५० ।। इति एक-वर्णा-समीकरण समाप्त हुआ । श्रनेकवर्णसमीकरणबीजम्
इदानीमनेकवरर्गसमीकररगमाह । श्राद्याव्दरर्गादन्यान् वरर्गान् प्रोह्याद्यमानमाद्यहृ तम् । सहशच्छेदावसकृद्र् द्वौ व्यस्तौ कुद्दको बहुषु ॥५१॥ सु.भाः -श्राद्याद्वरर्गाद्येsन्ये वर्णास्तानितरस्मात् पक्षात् प्रोह्य शेषमाद्येनाssद्यवर्णगुरगकेन हृतमाद्यमानमाद्योन्मितिः स्यात् । एकस्य वरर्गस्योन्मितीनां बहुत्वे द्वौ द्वौ पक्षौ व्यस्तावन्योन्यहरगुरगनोद्भू तौ सदृशच्छेदौ कृत्वाsसकृत् तदन्यवरर्गोन्मिति: साध्या । एकपक्षस्य हरेरगापरपक्षीयौ लवहरौ सङ्गुण्य छेदगमं च विधाय 'श्राद्याद्वरर्गादन्यान्' इत्यादिना तदन्यवर्णमानेयम् । एवमसकृत् कर्म कार्यम् । श्रन्ते बहुषु वरर्गेष्वग्न्यातेषु कुदृको भवति । तत्र कुदृकोन्मितिः साध्येत्यर्थः । भास्करानेकवर्णसमीकररगमेतदनुरूपमेव ॥ ५१ ॥ भ्राद्याद्वरर्गादन्ये ये वरर्गास्तनितरस्मात् पक्षात् प्रोह्य शेषमाघ-
चरर्गगुकेन भक्तमाद्यमानं भवति एकस्य वरर्गस्योन्मितीनो बहुत्वे द्वौ द्वौ पक्षो व्यस्तौ (परस्परहरगुरगनोदभूतौ) सदृशहरौ कृत्वाSसकृत् तदन्यवरर्गोन्मितिः साध्या । एकपक्षस्य हरेरगापरपक्षीयावंशहरो संगुण्य क्षेदगमं च कृत्वा 'श्राद्य- द्वरर्गदन्यान्'इत्यादिन तदन्यवरर्गमानेतव्यम्। एवमसकृत्कर्मकार्यम्। श्रेन्ते बहुषु द्वरर्गेष्वजातेषु कुदृको भवति। तत्र कुदृकेन मानं साध्यमिति॥ सिद्धान्तशेखरे' 'आद्यं वरर्ग प्रोह्य पक्षात्कुतोSपि त्यक्त्वा शेषानन्यतश्चाद्यभक्ते। प्राहुस्तज्ग्ग्न्यास्तामिती- राहुरेवं कार्यातुल्यच्छेदनाभिश्च भूयः॥ एकोन्माने कुदृकः स्यात् प्रमारगं तान्यान्यानि स्युः प्रतीपात्ततश्च । कुद्दाकारे भाज्यवर्णस्य मानं तस्मिन् लब्धं हारबरर्गस्य चाहुः" श्रीपत्युक्तमिदमनेकवरर्गसमीकररगमाचार्योनुक्तारूपमेवास्ति, बीजगणिते "आद्यं वरर्ग शोधयेदन्यपक्षादन्यान् रूपाण्यन्यतश्चाद्यभक्त । पक्षेsन्यस्मिन्नाद्य वरर्गोन्मितिः स्याद्वरर्गस्यैकस्योन्मितीनां बहुत्वे ॥ समीकृतच्छेदगमे तु ताभ्यस्तदन्यवरर्मोन्मितय: प्रसाध्याः । श्रन्त्योन्मितौ कुदृविघेर्गुरगाप्तो ते भाज्य तद् भाजक वरर्ग माने ॥ श्रन्येsपि भाज्ये यदि सन्ति वरर्गास्तन्मानमिष्टं परिकल्प्य साध्ये । विलोमकोत्थापनतोsन्यवरर्गमानानि भिन्नं यदि मानमेवम् "भूयः कार्यः कुदृकोsत्रान्त्यवरर्ग तेनोत्थाप्योत्थापयेद् व्यस्तमाद्यान् ॥" श्रनेन भास्कराचार्येरगाचार्योक्त श्री पत्युक्त वा स्पष्टीकृत्योक्त व्याख्यातं चेति ॥ ५१ ॥ १२१८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते
श्रब श्रनेक वरर्ग समीकरग को कहते हैं । हि. भा.-प्रथम वरर्ग से श्रन्य जो वरर्ग है उनको इतर (दूसरे) पक्ष में से घटा कर शेष को प्रथम वरर्ग
गुरगक से भाग देने से प्रथम वरर्ग का भाना होता है । एक वरर्ग के श्रनेक माग रहने से दो दो पक्षों के समान हर कर के श्रसकृत् (बार बार) श्रन्व वरर्ग का मान साघन करना चाहिए । एक पक्ष के हर से दुसरे पक्ष के श्रंश श्रौर हर को गुरगा कर श्रौर छेदगम कर के 'श्राद्याद्वरर्गादन्यान्' इत्यादि श्राचार्योक्ति से श्रन्य वरर्ग का मान लाना चाहिये । एव श्रसकृत् कर्म करना चाहिये । श्रन्त में बहुत वरर्गो के श्रग्न्यात रहने से कुदृक होता है श्रर्थात् वहां हुद्दक से मान साधान किया जाता है ॥ सिद्धान्त शेखर में "श्राद्यं वरर्ग प्रोह्य पक्षात्कुतोsपि इत्यादि विग्न्यान भाष्य में लिखित श्रीपतिप्रकार श्राचार्योक्त प्रकार के श्रनुरूप ही है । तथा बीजगरिगत में "श्राद्यं वरर्ग शोधयेदन्यपक्षादन्यान् रूपाण्यन्यतश्चाद्यभक्त" इत्यादि विग्न्यान भाष्य में लिखित पद्यों से भास्कराचार्य ने श्राचार्योक्त प्रकार को वा श्रीपत्युक्त प्रकार को स्पष्टीकररगपूर्व क कहा हैं श्रौर व्याख्या की हैं इति ॥
इदानीं प्रश्नानाह । गतभगरगयुताद् द्युगखात् तच्छेषयुतात् तदैक्यसंयुक्तात् । तद्योगाद्र द्यु गरगं वा यः कथयति कुद्दकग्न्यः सः ॥ ५२ ॥ सु.भा.-श्रहर्गरगादिष्टग्रहस्य गतभगरगयुताद्योsहर्गरगं कथयति । वाsहर्गणात् तस्य गतभगरगस्य शेषयुताद्योsहर्गणं कथयति । वाsहर्गरगात् तयोर्गतभगरगभगरगशेषयोर्यदैक्यं तेन संयुक्ताद्योsहर्गणं कथयति । वा तयोर्गतभगरगभगरगशेषयोर्योगाद्योsहर्गरगं कथयति स एव कुद्दकग्न्य: । प्रथमप्रश्नसsहर्गरगमानं या १ । भगरगशेषमानं का १ ततो sनुपातेन गतभगरगाः = ग्रभ. या-का / ककु गभ+या= या (ग्रभ+ककु)-का / ककु = यो । ततः का= या (ग्रभ+ककु)-ककु. यो / १
कुद्दकेन यावत्तावन्मानं सुगमम् ।
द्वितीय प्रश्नेsहर्गरगः = या १ । गतभगरगाः = का ।
भगरगशेषस् = ग्रभ+या-ककु. का
भशे+या=या (ग्रभ+१)-ककु.का=यो
का = या (ग्रभ+१)-यो / ककु । श्रतः कुद्दकेन यावत्तावन्मानं सुगमम् ।
श्नेकवरर्ह्गसमीकरगबीजम्
तृतीय प्रशने Sहगंरग:= या १| गतभगरगा:=का| ततो गतभगरगशेषम् = प्रभ.या--ककु.का
भ्रत: भशे + या + ग्रभ = या( ग्रभ +१)-का(ककु-१)= यो
अत: का=[या(ग्रभ + १)-यो]/ ककु--१ । कुहकेन याक्तावन्मानम् सुगमम् ।
चतुर्थ् प्रशनेSह्गर्रग:= या। गतभगए॥:=का। भगरगशेषभ्र्=ग्रभ.या-ककु.का अत: गभ+भशे=ग्रभ. या-ककु. का + का= ग्रभ. या--का (ककु--१) = यो। अत: का= ग्रभ.या-यो/ ककु-१| कुहकेन यावत्तावन्मानम् सुगमम||५२||
वि.भा.- द्युगरगात् (भ्र्हर्गरगात्) इष्टग्रहस्य गतभगरगयुताद्योश्हर्गनण्ं कथयति। वा योSहर्गरात् गतभगरगस्य शेषयुतादहर्गणं कथयति। वा योSहगं रात् भतभगरग भगरशषयोर्यदेक्यं तेन संयुक्तादहग रगं कथयति । वा यो गतभगरा भगरगशेषयोयोगाद हग रग कथयति स कुहकन्य इति॥
श्नत्रोपपत्ति:। प्रथमप्रशने कल्प्यते भ्रहर्गरग:= य। भगरगशेषमानभ्= क ततोSनुपातेन ग्रभ*य/ककु=गभरया+भगराशे/ककु भ्रत: ग्रभ*य/ककु-भगराशे/ककु=ग्रभ*य-क/ककु=गतभगरग
पक्षयो: य थोजनेन गतभ+य= ग्रभ*य-क /ककु + य=ग्रभ*य+ककु*य-क/ककु =य(ग्रभ+ककु)-क/ककु=यो,
छेदगमेन य (ग्रभ+ककु)-क=यो*ककु समशोघनेन य(ग्रभ+ककु)-यो*ककु=क भत्र कुट्ट्केन य मानं सुखेन भ्यक्तं भवेदिती॥
.द्वितीयप्रशने कम्प्यते भ्रहर्गरगा:=य। गतभगरा:= क तदा ग्रभ*य/ककु= गतभ+ भगराशे/ककु अत: ग्रभ*य= ककु*गतभ+भगराशे समशोघनेन
ग्रभ*य-ककु*गतभ=भगराशे=ग्रभ*य-ककु*क पक्षयो: य योजनेन भगराशे + य=यो=ग्रभ*य+य-ककु*क=(ग्रभ+१)-ककु*क पुमशोघनादिना य (ग्रभ+१)-यो/ककु = क भ्रत्र
कुद्ट्केभ य मानं ट्यक्तं भवेदिती॥ १२२०
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते तृतीयप्रश्ने कल्प्यते अहर्गणः=य, गतभगणः=के, ततः शुक्ल .=गतभ +भtश अतः प्रभxय=ककृxगतभ+भगणशे समशोधनेन प्रभxय–कक xगतभ=भगणो =ग्रभxय–ककुxक पक्षयोः य योजनेन भगणश+य=यो =प्रभxय+य-ककुxक=य (ग्रभ+१)ककुxक समयोजनेन य (प्रभ+१) =यो+ककुxक समशोधनेन य (प्रभ+१)–यो =ककुक पक्षौ ककुभक्तौ । य (अभ+१) व्यायो =क अत्र कुट्टकेन य मान व्यक्त भवेदिति । । तदा चतुर्थाप्रश्ने कल्प्यते अहर्गणः=य। गत भगणः=क तदा पूर्ववद्भगणशेष =प्रभxय- ककु कैक पक्षयोः गतभगणयोजनेन भगणो+गतभ=ग्रभxय कॐ ॐक+क=ग्रभ xय–क (क--१)=यो समयोजनेन ग्रभ xय= यो+क (ककु-१) समशोधनेन ग्रभxययो=क (ककु–१) पक्ष ककु–१ भक्तौ सदा ग्रभx ययो ध्या=कुट्टकेन क अत्र य मानं सखेन व्यक्त भवेदिति ॥५२॥ ककु–१ अब प्रश्नों को कहते हैं । हि- भा.—जो व्यक्ति इष्ट ग्रह के गत अगदा युत अहर्गाण से अहर्गण को कहता है । वा गतभगण के शेष युत अहमीण से अहर्गण को जो कहता है, वा गतभगण और भगण शेष के ऐक्य से युत अहमीण से अहर्गण को जो कहता है । वा गत भगण और भगण शेष के योग से अहर्गण को जो कहता है वह छुट्टक का पण्डित है । उपपत्ति । के प्रथम प्रश्न में कल्पना करते हैं अहर्गणमान=य । भगणशेषमान==क, तब ग्रभ. य ग्रभ. य _भगणशे_ग्रमक. य-- क अनुपात से ---- =गतभ+भगणशे समशोधन से ककु ककु = गत भगण, दोनों पक्षों में य जोड़ने से गतभ + य = प्रभ- य-+ य प्रभ.यकळे. य +–र – य (प्रभ+)==पो वेदगम करने से य (प्रम + ह्) -क= कछ. यो, समशोधन से य (ग्रभ+कळे)-कनु. य=क, यहाँ छुट्टक से य मान सुगमता से विदित हो जायगा । द्वितीयप्रश्न में कल्पना करते हैं अहर्गणयगतभगण=क, तब अभ. य =गतभ E = = = = श्रनेकवर्ग्गसमीकरग्गबीजम् १२२१
+भगगशे/ककु ष्रतः ग्रभ.य=ककु. गतभ+भमशोधन से ग्रभ. य-ककु. गतभ=भगग्गशे=ग्रभ. य-ककु. क दोनों पक्षों में य जोङने से भगग्गशे+य=यो ग्रभ. य+ककु. क=य(ग्रभ+१)-ककु। क समशोषनादि से य(ग्रभ+१)-यो/ककु=क यहां कुट्टक से य मान ब्यक्त हो जायगा।
तृतीय प्रश्न में कल्पना करते है। गत भगगा=क, तब , य/ककु=गतभ+भशे/ककु श्रतः ग्रभ य = ककु गतभ+भगशे समशोधन से ग्रभ य-ककु गतभ = भगग्गशे दोनों पक्षों में य जोडने से ग्रभ य +य-ककु गभ=भगग्गशे +य=यो=य(ग्रभ+१)=यो+ककु क समशोधन से य (ग्रभ+१)-यो=ककु क श्रतः व(ग्रभ+१)-यो/ककु=क यहां क्रुट्टक से य मान व्यक्त हो जायगः इति।
चतुथ प्रश्न में कल्पना करते हैं श्रहगग्ग=य, गत भगग्ग=क तब पूर्ववत भगग्गशेष=ग्रभ य-ककु क दोनों पक्षों में गत भगग्ग जोडने से भगग्गहे+गतभ=ग्रब्ग य-ककु क+क=ग्रभ य-क (ककु-१)=यो समयोजन से ग्रभ य=यो+क(ककु-१) समशोधन से ग्रभ य-यो=क (ककु-१) दोनों पक्षों को ककु-१ भग देने से ग्रभ य-यो/ककु-१=क यहां क्रुट्टक से य मान सुगमता से ही श्राजायगा॥५२॥
इदानीमन्यन् प्रश्नानाह।
गतभगग्गनाढू ध्युगग्गात तच्छेषोनात् तदैक्पहीनाद्दा।
तदिवराढू ध्युगग्गं वा यः कथयति कट्टकज्नः सः॥५३॥
सु भा-श्रनन्तरप्रश्नेषु योगस्थाने वेयोगः कृत इति स्पष्टार्थम्। उत्तराय च पूर्वश्नोत्तरे योगस्थाने वियोगंक्रुत्वा कर्म कर्त्तव्यमिति ॥५३॥
अन्य प्रश्नों को कहते हैं।
हि भा- पूर्व प्रश्नोत्तर में योय स्थान में वियोग(श्रन्तर) करके किया करनी चाहियेऽ॥५३॥ १२२२ इदानीमन्यान् प्रश्नानाह । राश्याद्यस्तच्छेषैश्चैवं भुक्ताधिमासदिनहीनैः तच्छेषैश्च युगगतं यः कथयति कुट्टकज्ञः सः ॥५४॥ सु. भा.-एवं राश्याचैस्तच्छेषैश्च युताद्धीनाद्वा ऽहर्गणात् । गतराश्यादि तच्छेषयोगान्तराद्धा । भुक्ताधिमासक्षयाहैश्च युतोनितादहर्गणात् तच्छेषयुतो नितादहर्गणाञ्च वा गताधिमासाधिशेषयोगान्तराद्वा गतक्षयाहतच्छेषयोगान्तराद्वा यो युगगतं कथयति स एव कुट्टकज्ञः । अत्र यदि गतराशिदिनगणयोग उद्दिष्टस्तदाऽहर्गणः =या । गतभगणाः = का । भगणशेषम्=ग्रभ. या-ककु. का। इदं द्वादशगुणं राशिशेषमानं नीलकम पास्य कल्पकुदिनहृतं गतराशय = १२ ग्रभ. या-१२ ककु. का-नी .. गरा + अह = या (१२ ग्रभ+-ककु)-१२ ककु. का—नी = यो या=१२ ककु, का+नी-यो. ककु + । ‘अन्येपि भाज्ये यदि सन्ति वणस्तन्मानमिष्ट परिकल्प्य साध्ये' इत्यादि भास्करविधिना कुट्टकेन यावत्ता वन्मानं सुगमम् । एवमालापानुसारेण समौ पक्षौ विधाय कट्टकादिना ऽव्यक्तमान मन्येषु प्रश्नेष्वप्यानेयमिति ॥ ५४ ॥ । वि. भा.-राश्याचैस्तच्छेषैश्च युतोनादहर्गणात् । भुक्ताधिमासावमैश्च युतोनितादहर्गणात् । तच्छेषयुतोनितादहर्गणाच्च, वा गताधिमासाधिशेषयोगा न्तराद्वा गतावमतच्छेषयोगान्तराद्वा युगगतं यः कथयति स कुट्टकज्ञोऽस्तीति । अत्र यदि गतराश्यहर्गणयोग उद्दिष्टस्तदा कल्प्यते अहर्गणः=य, गत भगणः = क तदा ग्रभ. य=ककु. गभ+-भशे समशोधनेन ग्रभ . य-ककु . गतभ=भशे=ग्रभ . य-ककू . क । इदं द्वादश गुणितं राशिशेषमानं (न) त्यक्तवा कल्पकुदिनभक्त तदा गतराशयः । .. . .. १२ प्रभ. य- १२ ककु. क्र- न पक्षयोः य योजनेन -- य कक श्रनेककरर्रासमीकरएवीजम्
= य (१२ य्रभ + ककु )- १२ ककु क-न /ककु = यो चेदगमेन य (१२ प्रभ +ककु ) - १२ ककु क-न +ककु यो समयोजनेन य (१२ प्रभ +ककु ) +१२ककु क +न+यो ककु पक्षौ १२ प्रभ +ककु भक्तौ तदा १२ ककु क +न +यो ककु /१२ प्रभ + ककु =य श्रेन्येपि भग्ये यदि सन्ति वर्नास्तन्मानमिसष्टमित्यादि भस्करोक्त्या य मानं कुट्टकेन सुसेन विदितं भवेदिति ॥ एवमालापानुसारेए पक्षद्वयं समानं वैधाय कुट्ट्कादिनान्येषु प्रश्नेष्वपि व्यक्तमानमानेतव्यमिति ॥
भ्रबं भन्य प्रश्नों को कहते हैं । हि बा राश्यादि से शौर उसके शेष से , यतहीन श्रहर्गरए से , भुक्तादिमास भ्रोर बवम से युत भौर हीन ब्रहगंए से , उसके शेष से, युत भ्रौर हीनरहर्गए से भी वा गताधिमास भ्रौर श्रशेष के योग-श्रन्तर से वा गतवम श्रवम शेष के योग-श्रतर से युगगत को जो कहता है वह कुट्टक पन्डित इति ॥ उपपत्ति ।
यहो यदि गतराशि और श्रहर्गये का योग उद्दिष्ट है तो कल्पन करते है भ्रहर्गए = य गतभगए = क तब ( प्रभ * य /ककु न) = गतभ + भशे / ककु छेदगम से गभ य=कुक । गभ+भशे समघोषन से प्रभ*य-कुक *गतभ*भसे। ग्रभ य कुक क इसको वारह से गुए कर राशि शेषमान को घटकर कल्पकुदिनम् से भग देने से गत राशि प्रमाए होता है । १२ प्रभ*य-१२ ककु * क-न / ककु =गत राशि । यहौ राशी से = न दोनों पक्षो में य जोद्ने से १२ प्रभ*य -१२ ककु*क-न/ककु+ य = गत राशि +य = यो =१२ प्रभ*य+ककु*य-१२ककु*क-न/ककु =य (१२ प्रभ + ककु ) - १२ ककु*क-न/ककु =यो * छेदगम से य (१२ प्रभ + ककु ) *क-न = ककु* यो समयोजन से य ( १२ प्रभ + ककु ) =१२ ककु*क+न+यो *कुक । १२ ककु*क+न+यो*ककु /१२प्रभ+ककु = य ' धन्वेएपि भाज्ये यदि सन्ति वर्णा इत्यादि भास्करोक्ति से कुट्टक योक्ति से य मान सुगमता हि से विदित होगा । एवं श्रालापानुसार दोनों पक्षों को समान कर कुट्टकादि से श्रन्य प्रश्नों में भि व्यक्तमान लाना चाहिये
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते इदानीमन्यप्रश्नद्वयमाह । अंशकशेषेणयुतात् लिप्ताशेषात्तदन्तरादथवा । भानोर्जेदिने द्युगरणं कथयति कुट्टकज्ञः सः ॥५॥
सु. भा-भानोर्लिप्ता शेषादंशकशेषयुताद्वा योलिप्तांशशेषयोरन्तराद्यो बुधवारे ऽहर्गणं कथयति स एव कुट्टकज्ञः । कल्प्यते ऽहर्गणः=या । रविभगण भागाः=च भा.रभ=अ । गतभागाः=का । ततोंऽशशेषम्=आ. या-ककु. का । इदं षष्टिगुणं कल्पकृदिनहृतं लब्धं नीलकमानं नी १ । तद्गुणितं हरं भाज्यादपास्य जातं कलाशेषम्=६० अ. य -६० ककु . का-ककु . नी। अतः भाशे+-कशे=६० अ.या-६० ककु.का-ककु. नी+अ.या—ककु.का =या (६० अ + अ ) – ककु (६१ का+नी ) == यो ततः ६१ का + नी – या (६१ श्र)-यो । कुट्टकेन यावत्तावन्मानं सुगमम् । यदि योगमानम्=५३६ । कल्पकुदिनानि=१०९६ । रविभगणाः =३ । । तदा अ= चक्रभा • रभ= ३६० X ३=१०८० ॥ ६१ अ=६५८० । ततः पूर्वसमीकरणरूपम् । ६१ का +-नी-.६५८० या-५३६-१६४७० या-१३४-८२३५ या-६७ १०९६ २७४ १३७ १५ या-६७ ६० य-- १३७ रूपविशुद्धौ गुणः=६४ । अभीष्ट ६७ विशुद्धौ गुण:=४१ यावत्तावन्मानं सुखेन भवति । चतुर्वेदाचार्यमतं यच्च कोलकेनानुवादितं महागौरवमप्रयोजकं च । एवमन्तरतोऽपि कर्म कर्तव्यम् ॥ ५५ ।। वि. मा-भानोः (सूर्यस्य) लिप्ता (कला) शेषात् अशकशेषेण युतात् वा कलांश शेषयोरन्तराद्बुधवारे योऽहर्गणं कथयति सः कुट्टकपण्डितोऽस्तीति । अत्रोपपत्ति: । क कल्प्यते अहर्गणप्रमाणम्=य । रविभगणांशाः=चभा . रविभ=र, गतभगरगा:= क तदा रविभगराश * य/ ककु = गतभगए + छेदगमेन अनेकवर्गसमीकरणबीजम् १२२४ रविभगणांश xय=xय= ककु . गतभगण+अ शशे = ककु : क + अ शशे समशोधनेन अ शशे=र xय–कछु . क इदं षष्टिगुणितं कल्पदिनभक्त तदा ६० (र. य-कसु. )—न खेदगमेन ६० . य-६० ककु, क= कर्. न एत प्रथमपके विशोध्य जातं कलाशेषस्=६० र.य-६० ककुक-ककु, न, अतः अंशो + कलाशे =६० र. य–६० ककु . कककु . न+र यककु . क=य (६० र+र)-ककु (६१ क+न)=यो समयोजनेन यx६१ र=यो+ककु (६१ क+न) समशोधनेन य. ६१ र यो यx६१ र – योकैककु (६१ क+न) पक्षौ ककुभक्तौ तदा = ६१ क+न अत्र कुट्टक युक्त्या य मानं सुगमतया विदितं भवेत् । एवमन्तरतोऽपि कर्म कर्तव्यमिति ॥५५॥ अब अन्य दो प्रश्नों को कहते हैं । हि. भा.-सूर्य के कलाशेष में अंश शेष जोड़ने से जो होता है उससे वा कलाशेष और अ' शोष के अन्तर से बुधदिन में शो अङ्गंण को कहता है वह कूट्टक का पण्डित है इति । उपपत्ति । कल्पना करते हैं अहर्गण प्रमाण=य। रविभगणांश=चभा+विभ ==र, गतभगण रविभगणांश. थ=रं• य =गतभगण+अशशे==क+अशरा छेदगम से == कं तब र. य=कृ. क+अ शशी समशोधन करने से र. य-कु. क=अ शशे, इसको साठ से गुणा कर कल्पकुदिन देने से र. =-न, वेदगम से ६० (र. य–कृ. क) से भाग यकझ) ६० (. क
६०४र . य–६० ककु . क=ककु . न इसको प्रथम प्रक्ष में से घटाने ' से कलाशे
[सम्पाद्यताम्]६०४रय–६० ककु • क–कंकु • न, अतः अ शो+कलाच ==यो== ६०४र य-६० ककु . क-ककु. न+र. य-वङ. क८य (६० र+२)- ककु (६१ क+न)=यो=य. ६१ –कछु (११ क+) दोनों पक्षों में की (६१ क+न) जोड़ने से य. ६१= द्+कंकु (६१ क+न) समशोधन से य. ६१रयोकचु (६१ क+न) दोनों पक्षों को ककु से भाग देने से . ६१ क+-, पहाँ कुट्टक से य मान सुगमता ही से विदित हो य६१ र-थ्यो जायगा इति ॥५५॥ इदानीमन्या प्रश्नानाह । अंशकशेषं त्रियुतं लिप्ताशेषं कवा रवेलैंदिने । षट्सप्ताष्टौ नव वा । कुर्वन्नावत्सराश्च गणकः ।५६। १२२६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते सु० भा०-रवेरंशकशेषं त्रियुतं कदा बुधदिने लिप्ताशेषं भवति । वांशकशेषं षड्भिः सप्तभिरष्टभिर्वा नवभिर्युतं कदा बुधदिने लिप्ताशेषं भवति । अस्योत्तरमा वत्सरादेकवर्षाभ्यन्तरे कुर्वन्नपि गणक इत्युच्यते ऽस्माभिरिति । अनन्तरप्रश्नोत्तया कलाशेषम्=६० अया-६० ककु. का—ककु . नी ततः प्रश्नालापेनः अ. या-ककु. का-+३=६० अ. या-६० ककु. का-ककु. नी समशोधनेन ५९ ककु. का-+-ककु. नी=५९. प्र. या-३ । अतः कुट्टकन यावत्तावन्मान सुग मम् । एव रूपत्रयस्थान षट्, सप्ताद्याः स्थाप्याः । अत्रापि चतुर्वेदगौरवं न बुद्धिमद्भिरादृतम् ।। ५६ ।। ५९ का+-नी-५९ अ. या-३ वि. भा.-रवेरंशकशेषं त्रियुतं बुधदिने कदा कलाशेषं भवति । वा षड्भिः सप्तभिरष्टभिर्नवभिर्वा- अशकशेषयुतं कदा बुधदिने कलाशेषं भवति, एतदुत्तरं बर्षाभ्यन्तरे कुर्वन्नपि गणकः कथ्यते इति । कल्प्यते अहर्गणप्रमाणम् =य । रविभगणांशाः =र । गतभगणाः = क र. या तदाऽनुपातेन - छेदगमेन र . य = गतभ . ककु ककु + अंशशे = क . ककु+-अंशे समाशोधन अंशशे = र. य – क . ककु इदं ६० (र. य-क. ककु) । षष्टिगुणितं कल्पकुदिनभक्त लब्धं न मानम् ६० र • य-६० क • ककु=ककु • न एत द्यदि प्रथमपक्षे शोध्यते तदा कलाशेषम् = ६० र. य-६० क. ककु -ककु. न ततः प्रश्नोक्तया अंशशे-+३ = कलाशे = ६०र. य -६० क . ककु - ककु. न ==र. य-क. ककु+३ पक्षयोः क. ककु योजनेन ६०र. य—६०क. ककु+-क. ककु ककु . न=र. य + ३, ६०र . य – (५९ क . ककु + ककु . न ) पक्षौ ५९ क . ककु+ककु . न योजनेन ६०र . य=र. य + ३+५९क. ककु+ककु. न पक्षौ र. य + ३ हीनौ तंदा ६०र x य - र. य – ३ = ५९र. य - ३ ५९र. य
५९ क. ककु + ककु. न पक्षौ ककुभक्तौ तदा - - ३
[सम्पाद्यताम्]-५९क-+-न अनेकवर्णसमीकरणबीजम् १२२७ अत्र कुट्टकेन य मानं सुखेन विदितं भवेत् । एवं रूपत्रयस्थाने षट् सप्तादीन् संस्थाप्योपयुक्तक्रिययाऽभीष्टसिद्धिरिति .॥ ५६ ॥ अब अन्य प्रश्नों को कहते हैं। हेि. भा.-रवि के अंश शेष में तीन जोड़ने से बुध दिन में कब कला शोष होता है। वा अंशशेष में छः सात आठ नौ जोड़ने से कब बुध दिन में कला शष होता है इसके उत्तर को एक वर्षाभ्यन्तर में करते हुए व्यक्ति गणक कहलाते हैं। उपप्पत्ति। कल्पना करते हैं अहर्गणप्रमाण=य । रविभगणांश= र । गतभगण=क तब अनुपात से र,य/ककु= गतभ + श्र्ंशशो छेदगम से र. य = ककु. गतभ + अंशशे = ककु . क-+अंशशे समशोधन से र. य-क. कक् = अंशशे इसको साठ से गुणाकर कल्प कुदिन से भाग देने से लब्धि = न =६०(र/ य- क. ककु)/ककु= (६०र. य -६० कृ . कक)/ककु छेदगम से ६० र. य–६० क. ककू ==ककु . न, अतः कलाशे=६०र. य-६० क . ककु ककु. न प्रश्नोक्ति से अंशशे +३ =कलाशे =६० र. य –६० क. ककु-ककुन = र. य - क. कक + ३ दोनों पक्षों में क. कक् जोड़ने से ६०र. य - ६०क. ककु + क . ककु-ककु . न=र . य + ३=६० र . य - (५६ क . ककु+-ककु • न ) दोनों पक्षों में ५६ क . ककु-+-ककु . न जोड़ने से ६० र • य=र. य+३५९ क. ककु +ककु . न दोनों पक्षों में र. य +३ हीन करने से ६० र. थ-र. य-३=५६र.य-३=५६ ककु. क+-ककु. न दोनों पक्षों को ककु से भाग देने से (५६ र,य)/ ककु= ५६क + न यहां कुट्टक से सुगमता से य मान विदित हो जायगा । एवं तीन के स्थान में छः सात-आठ नौ को रखकर उपर्युक्त क्रिया से अभीष्ट सिद्धि होती है इति ॥ ५६ ॥ इदानीं प्रश्नद्वयमाह । अज्ञासममंशशेषं कलासमं वा कलाशेषम् । दिवसकरस्येष्टदिने कुर्वन्नावत्सराद् गणकः ॥५७॥ सु. भा.-कस्मिन्निष्टदिने दिवसकरस्य रवेरंशमानसममंशशेषं वा कृलासम कलाशेषं भवति । अस्योत्तरमावत्सरात् कुर्वन्नपि गरणकः । अहर्गणः=या १ । गतभगणाः=का १ । तदा भगणशेषम्=ग्रभ . या-ककु . का । इदं द्वादशगुण कल्पकदिनैर्विभज्य १२२८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते लव्धं राशिमानं नी १ । तद्गुणहर भाज्यादपास्य जात राशिशेषम्=१२ ग्रभ. या-१२ ककु. का—ककु. नी । इदं त्रिंशद्गुणं कल्पकुदिनैर्विभज्य लब्धमंशमानम् पा १ । तद्गुणहर भाज्यादपास्य जातमशशषम्=३६० ग्रभ. या-३६० ककु का-३० कक. नी-कक. पी =पी
ततः या= ३६०ककु. का-+-ककु. नी+पी (ककु+१) ------------------------------- ३६०
अत्र भाज्ये वर्णत्रयमतो वर्णद्वयस्येष्टमाने प्रकल्प्य कुट्टकेन यावत्तावन्मानं ज्ञेयम् । एवमंशशेषं षष्टया संगुण्य कल्पकुदिनैर्विभज्य लब्धं कलामानं लोहितक प्रकल्प्य तद्गुणहरं भाज्यादपास्य कलाशेषतः समीकरणं कृत्वा तत्र भाज्ये वर्णत्रयमानानीष्टानि प्रकल्प्य यावत्तावन्मानं ज्ञेयम् ।। ५७ ।।
वि. भा.-दिवसकरस्य (सूर्यस्य) प्रशसममंशशेषं वा कलासमं कलाशेषं कस्मिन्निष्टदिने भवति, एतदुत्तरमावत्सराद्वर्षाभ्यन्ते कुर्वन्नपि गणक उच्यते इति ।
अत्रोपपत्तिः ।
कल्प्यते अहर्गणमानम् =य । गतभगणाः=क तदा पूर्ववद् भगणशेषम् =ग्रभ . थ-ककु . क इदं द्वादशगुणं कल्पकुदिनैर्भक्त लब्धं==न तद्गुणं हरं भाज्यादपास्य जात राशिशेषम्=१२ ग्रभ. य-१२ ककु. क—ककु. न इदं त्रिंशद्गुणितं कल्पकुदिनैर्भक्त लब्धमंशमानम्=प तदुगुणं हरं भाज्यादपास्यांश शषम् =३६० ग्रभ. य-३६० ककु . क-३० ककु . न-ककु . प=प ततः समयोजनेन ३६० ककु . क + ३० ककु . न + प ( ककु + १)=३६० ग्रभ. य भ्रात:
३६० क. ककु+३० ककु. न+प (ककु+१
= य
३६० ग्रभ अत्र भाज्ये वर्णत्रयमस्ति वर्ण ३६० ग्रभ द्वयस्येष्टमाने प्रकल्प्य कुट्टकेन य मानं सुखेन विदितं भवेत् । एवमंशशेषं षष्ट्या सगुण्य कल्पकुदिनैर्भक्त लब्धं कलामानं ल प्रकल्प्य तद्गुणं हरं भाज्याद्विशोध्य
कलाशेषात् समीकरणं कृत्वा तत्र भाज्ये वर्णत्रयमानानीष्टानि प्रकल्प्य य मानं ज्ञातव्यमिति ॥५७॥
अब अन्य दो प्रश्नों को कहते हैं ।
वि. भा.- किसी इंष्ट दिन में रवि का प्रशमान अशशेष के बराबर होता है वा कलातुल्य कलाशेष होता है इसका उत्तर वर्ष पर्यन्त. कंरते हुए व्यक्ति गणक कहलाते हैं इति ॥५७॥
उपपत्ति ।
कल्पना करते हैं अहर्गण 'प्रमाण=य, गत भगण=क, तब पूर्ववत् भगणशे= अनेकवर्णसमीकरणबीजम् ग्रभ. य-ककु. क इसको बारह से गुणा कर कल्पकुदिन से भाग देने से लब्धि=न तदूगुणित हर को भाज्य में से घटाने से राशिशेष = १२ ग्रभ. य-१२ ककु . क-ककु. न इसको तीस से गुणाकर कल्पकुदिन से भाग देने से लब्धि=प, तदूगुणित हर को भाज्य में से घटाने से अशशेष=३६० ग्रभ . य-३६० ककु . क-३० ककु . न-ककु . प=प समयोजन से ३६० ककु. क+-३० ककु. न+-प (ककु+१) = ३६० ग्रभ . य, अतः ३६० ककु. क+३० ककु. न+-प (ककु+१) –य । यहां भाज्य में तीन वर्ण हैं, दो वरण ३६० ग्रभ का मान इष्ट कल्पना कर कुट्टक से य मान सुगमता ही से होता है। एवं अंश शेष को साठ से गुणाकर कल्पकुदिन से भाग देने स लब्ध कलामान ल कल्पना कर तदूगुणित हर को भाज्य में से घटाकर कला शेष से समीकरण कर वहां भाज्य में तीनों वणों के मान को इष्ट कल्पना कर य मान जानना चाहिये इति ॥५७॥
- . या== - -
इदानीमन्यान् प्रश्नानाह । अवमावशेषमवमैरधिमासकशेषमधिमासैः। इष्टयुतोनं तुल्यं कुर्वन्नावत्सराद् गणकः ॥५८॥ सु. भा.-इष्टाङ्कन युतमूनं वाऽवमावशेषमवमैस्तुल्यं तथेष्टाङ्कन युतमूनं वाऽधिमासशेषमधिमासैस्तुल्यमस्तीत्यस्योत्तरमावत्सरात् कुर्वन्नपि गणकः । अत्राहर्गणमानम्=या १ । गतावमानि=का १ । तदा ऽवमावशेषम्=क्षदि या-ककू. का । ततः प्रश्नालापेनक्षदि. या-ककु. का+इ=का । अतः कुट्टकेन यावत्तावन्मानं सुगमम् । द्वितीयप्रश्ने गतसौरमानम्=या १ । गताधिमासाः = का ? तदाऽधिमास शेषम्=अधिमा. या–कसौदि. का । ततः प्रश्नालापेन अधिमा. या–कसौदि. का:+इ=का (कसौदि-+१) का इ । अतो यावत्तावन्मानं सुगमम् । अधिमा अस्योत्तरं गतेन्दुदिनमानं यावत्तावत्कल्प्यते तदाऽपि भवतीति ॥ ५८॥ वि. भा.-इष्टाङ्कन युतं. हीनमवमावशेषमवमैस्तुल्यं तथेष्टाङ्कन युतं हीनमधिमासशेषमधिमासैस्तुल्यमस्तीत्येतदुत्तरमावत्सरात् (वर्ष पर्यन्तं) कुर्वन्न पि गरणकोऽस्तीति । १२२९ कल्प्यते अहर्गणप्रमाणम्-य। गतावमानि= र तदाऽनुपातेन अवम • य १२३० ब्रह्मास्पुटसिद्धान्ते
=गतावम-+-अमश-= र+- अवश-छेदगमेन अवम . य = कक् . र+-अवमशे ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते समशोधनेन प्रवम. य-र. ककृ=अवमशे, ततः प्रश्नोक्त्या अवम . य-र. ककु +इ=र पक्षयोः र. ककु योजनेन अवम . य+इ=र-+ र. ककु=र (१+ककु) समशोधनेन अवम. यः-=र (१+-ककु) इ अत र (१+-ककु) +:इ कुट्टकेन य मानं सुखेन विदितं भवेत् ॥ द्वितीय प्रश्ने कल्प्यते गतसौरप्रमाणम्=य । गताधिमासः=र, तदाऽनु अधिमास . य गताधिमास-1- र-+-अधिशे, छेदगमेन अधिमा य=कसौ. र+-अधिशे, समशोधनेन अधिमा. य–कसौ. र=अधिशे प्रश्नोक्त्या अधिमा. य–कसौ. र+इ=र पृक्षयोः कसौ• र योजनेन अधिमा. य+इ=र +कसौ. र=र (१+-कसौ) सभशोधनेन अधिमा . य=र (१+-कसौ) इ अतः य अत्र कुट्टकेन य मानं सुखेन विदितं भवेदिति ॥५८॥
अब अन्य प्रश्नों को कहते है।
हि. भा.--इष्टाङ्क से युत वा हीन अवम शष अवम के बराबर है तथा इष्टाङ्क से युत वा हीन अविमास शष अधिमास के बराबर है इसका उत्तर वर्ष पर्यन्त करते हुए व्यक्ति गणक है इति । कल्पना करते हैं अहर्गण प्रमाण =य । गतावम=र, तब अनुपात से , अवम. य-र. ककु= अवभश, तब प्रश्नालाप से अवम. य—र . ककु+इ=र दोनों पक्षों में र. ककु जोड़ने से अवम. य+इ=र+-र. ककु=र (१+-ककु) समशोधन से अवम. य र (१+ककु)+इ= इ अतः य, यहां कुट्टक से सुगमता से यं मान विदित हो जायगा। द्वितीय प्रश्न में कल्पना करने हैं गत और प्रमाण=य । गताधिमास=र तब अधिमा . य अधिश अधिश अनुपात से र-+- छेदगम से अधिमा . य छेदगम से प्रवम. य=ककू. र+-अवश समशोधन से ==कसौ . र+-अधिशे, समशोधन से अधिशे= अघिमा . य-कसौ . र अब प्रश्नालाप से 50000 = « T— 2 I $0000 W— WRt: (^^) Pt^TT 1 ^: (^feJTrfJT) UW^i:, sr sr^r ai^liW ^pf<r, q^n: *pM^ ^ W^ts ^.0000 ^0000
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अनेकवर्णसब्भीकरणबीजम् १२३१ श्रधिमा . य—कसौ . र±इ=र दोनों पक्षों में ककु—र जोड़ने से श्रधिमा. य±इ=र +कसौ . र=र (१+कसौ) समशोधन से श्रधिमा. य=र(१+कसौ)±इ अश्र: र(१+कसौ)±इ/श्रिधिमा= य यहां कुट्टक से सुगमता पूर्वक य मान विदित होगा इति ॥५८॥ इदानीम्न्यं प्रश्नमाह्। निश्छेभागहरो भानोः सप्ततिगणोऽसशशेषोनः। शुध्यत्ययुतविभक्तः कुर्वन्नावत्सरद् गणकः॥५६॥
सु.भा.—निश्छेभागहरो ह्रढ़कुदिनानि। शेषं स्पष्टर्थम्। ५५ श्रर्या- प्रश्नोत्तरे यदि श्र=चक्रभा.इक्रभ, तदा तनैव विधिनांशशोषम्=अ . या—ह्रककु. का=नि। ततः प्रश्नालापेन ७० ह्रककु श्र.या+ह्रककु.का/१०००० श्रयं निरग्र:। =७० ह्रककु—नि/१००००। ततः कुह्रकेन ऋणभाज्यविधिना नीलकमानं सुगमम्॥५१॥ इत्यनेकवर्णसमीकरणबीजम्।
बि.भा.—भानोः (सूयंस्य)निश्छेभागहरः(ह्रढ़कुदिनानि)सप्ततिगणः, श्र शशोषेण हीनः, अयुतविभक्तः शुध्यति, एतदुत्तरं वर्षपर्यन्तं कुर्वन् गणकोऽ स्तीति॥ श्रत्रोपपत्तिः।
५५ सूत्रोपपत्तौ रविभगणांशाः=चभा. रविभ= र तेनैव विधिनांऽशशेषम्
= र . म— ह्रककु . क = न ततः प्रश्नोक्त्या ७०xह्रकक—श्रं शशो/१००००
= ७०xह्रककु—र.य+दृककु—.क/१००००=७०xदृककु—न/१०००० श्रयं निःशेषः। ततः
कुट्टकेन ऋणभाज्यरीत्या न मानज्ञानं सुलभम्॥५१॥
इत्यनेकवर्णसमीकरणबीजम्
श्रब श्रन्य प्रश्न को केहते हैं।
हि.भा.— सूर्य के ह्रदंकुदिन को सत्तर से गुणाकर श्रं श शेष वटाकर एक श्रयुत से
भग देने से नि:शेष होता है इसका उत्तार वर्ष पर्यन्त करते हुऐ व्यक्ति गणक है इति॥ १२३१ ब्राम्हास्फुटसिद्धान्ते
उपपति।
५५ सुत्र कि उपपति में रवि भगरगांश == चभा रविभ == र, उसी विधि से यं शशेष == र , य -- द्र्ककु , क = न, तव प्रश्नोक्ति से ७०दृककु - यंशश/१०००० ७० दृककु - रा। य+दृककु, क/१०००० = ७०दृककु - न/१०००० यह निशोष हौ तब
कुट्टक से रऋरग भाज्य विधि से न मान ग्नान सुगम ही हौ इति ॥५६॥
भनेकवरर्गसमीकररगबीज समाप्त हुश्ऱा।
» भावितबीजम् अथ भावितमुच्यते तत्र सूत्रम् । भावेतकरूपगुणना साव्यक्तवचेष्टभाजितेष्टप्त्योः । अल्पेऽधिकोऽधिकेऽल्पः क्षेप्यो भावितहृत व्यस्तम् ॥ ६० ॥ सु. भा–भावितकस्य भावितगुणकस्य रूपाणां च गुणना वधः किंविशिष्टा साव्यक्तवधाऽव्यक्तगुणकयोर्वधेन सहिता तत इष्टेन भाजिता लब्धिग्रंह्या । अनयोरिष्टाप्त्योर्मध्ये योऽधिकः सोऽल्पेऽव्यक्तगुणकेऽल्पश्चाधिकेऽव्यक्तगुणके क्षेप्यः । एवं यौ द्वौ राशी भवतस्तौ भावितकहृतो भावितगुणकेन हृतौ व्यस्तमव्य क्तमानं स्यात् । यावत्तावद्गुणके क्षेप्येण यन्मानं तत्कालकमानं कालकगुणके क्षेप्येण यन्मानं तद्यावत्तावन्मानं ज्ञेयमिति । एकस्मिन् पक्षे भावितमन्यस्मिन्नव्यक्तौ रूपाणि च कृत्वा तदोपरि लिखितं कर्म कर्तव्यमिति । अत्रोपपत्तिः । पक्षान्तरादिना कल्प्यते समौ पक्षौ प्र. या. का== क. या+ख • का+ग . याका= क या+ ख क+ ग विधिना ततो ‘भावितं पक्षतोऽभीष्टात् त्यक्तवा वण सरूपक’ इत्यादि भास्कर कख
- इतीष्टं प्रकल्प्य = . +अ. ।
फलं ग यतः केवलं संयोजनेन अ. इ या - ख +क. खअग = १ (+क ख+अ. ग)=ख+आप्ति ख. का=त । अत उपपन्नम् । क + इ =क+इ अ ' अ विशेषरच भास्करबीजतोऽवगम्याः । तत्र मत्कृतोपपत्तिश्च तद्विपण्यां विलोक्या ।। ६० ॥ वि. भ-भावितकस्य (भावित गुणकस्य) रूपाणां च गुणना (वध:) ऽव्य क्तगुणकयोर्वधेन सहिता, इष्टेन भक्ता लब्धिभ्रह्मा, इटलब्ध्योर्मध्ये योऽधिकः सो ऽल्पेऽव्यक्तगुणकेऽल्पश्चाधिकेऽव्यक्तगुणके क्षेप्यः, एवं द्वौ राशी भवतःतौ भावि तकभक्तो (भावितगुणकेन भक्तौ) तदा विपरीतमव्यक्तमानं स्यात् । अत्रोपपत्तिः ।
यदि इ य+इ. क+रू=य. क, यत्र य, क माने अभिन्न स्तः । अत्र यदि य=न+इ, क=प=इ तदा य.क = (न+इ)(प+इ) = इ(न+इ)+इ(प+इ)+रू वा न. प+इ. न+इ. प+इ. इ = इ.न+इ. इ+इ. प+इ.इ+रू सम्शोधनेन न. प = इ. इ+रू श्रतः इ.इ+रू/प, अत्रा (न) स्य तथाऽभिन्नं मानं कल्प्यं यथा प मानमभिन्नं स्यात् । ततो न, प मानाभ्यामुत्थापनेन य, क माने भवेताम् । यदि इ.इ+रू इदं धनात्मकं भवेत्तदा (न) ऽस्य ऋणमानकल्पने (प) ऽस्यापि ऋणमानमागमिष्यति तदा य= इ—न क=इ-प, एतेनोपपन्नमाचार्योक्तम् । सिद्धान्तशेखरे "जह्यात् पक्षादेकतो भावितानि वर्णों रूपाण्यन्यतो वर्णघातः । क्षिप्तोरूपैस्ताड़िते भाविते च भक्तवेष्टेन प्राप्तिहारो नियोज्यौ । ज्येष्ठाल्पाभ्यां वर्णकाभ्यां यथेच्छं व्यत्यासाद्वा भाविताप्तौ च वर्णौ । स्यातामेवं स्वस्व वणौं त्वभीष्टैर्मानैः कर्मतत्प्रमाणस्य कुर्यात्' श्री पत्युक्त च समुपपद्यते । श्रीपत्युक्तमेव भास्करेण बीजगणिते “भावितं पक्षतोऽभीष्टात्यक्त वा वणौ सरूपकौ । अन्यतोभाविताङ्केन ततः पक्षौ विभज्य च । वर्णाङ्काहतिरूपैक्य भक्तवेष्टेनेष्ट तत्फले । एताभ्यां संयुतावूनौ कर्तव्यौ स्वेच्छया च तौ ॥ वर्णाङ्को वर्णयोमनेि ज्ञातव्ये ते विपर्ययात्' इत्यनेन स्फुटमुक्तमिति ।। ६० ।।
अब भावित बीज को कहते हैं।
हेि. भा.-भावित के गुणक और रूपों के घात में अव्यक्त गुणकद्वयवध को जोड़कर इष्ट से भाग देकर लब्धिग्रहण करना चाहिए । इष्ट और लब्धि में जो अधिक हो उसको अल्प अव्यक्त गुणक में जोड़ना और अल्प को अधिक अव्यक्तगुणक में जोड़ना और, इस तरह दो राशिमान होता है उन दोनों राशियों को भावित गुणक से भाग देने से विपरीत अव्यक्तमान होता है अर्थात् प्रथम अव्यक्त गुणक में जोड़ने से जो होता हैं वह द्वितीय अव्यक्त का मान होता है , तथा द्वितीय अव्यक्त गुणक में जोड़ने से जो होता है वह प्रथम अव्यक्त का मान होता है इति ।
उपपति । यदि इ.य + इ.क + रू = य.क जिसमें य, ओर क का मान अभिन्न है, यदि य = न+इ, क=प+इ तब य.क=(न+इ)(प-+इ) = इ(न+इ) + इ(प+इ) + रू वा न . प+इ . न+इ . प+ई.इ=इ. न+इ . इ+इ . प+इ. इ रू समशोधन से भावितबीजम १२३५ इ. इ-+रू मए=इ.+अत:: ६=, यहां ‘न' का ऐसा अभिन्न मान कल्पना करना चाहिए इरू जिससे ‘प' मान अभिन्न हो; तब न, प मानों से उत्थापन करने से य, क, के मान होंगे । यदि इ. इ+ यह धनात्मक है तब ‘' की ऋणात्मक मानकल्पना करने से ‘५' का भी ऋणात्मक मान आयगा। तब य=इ“न, क==इ-प इससे आचार्योंक्त उपपन्न हुआ । सिद्धान्तशेखर में ‘जटल पक्षादेकतो भावितानि’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्रीपत्युक्त भी उपपन्न होता है । बीज गणित में ‘भावितं पक्षतोऽभीष्टाब्' इत्यादि संस्कृतोपपति में लिखित पद्यों से भास्कराचार्य ने श्रीरपयुक्त ही को स्फुट कहा है इति ॥ ६० ॥ इदानीं प्रश्नमाह । भानोराश्यंशवधात् त्रिधतुर्गुणितान् विशोध्य राक्षयंशान् । नवत इष्टवा सूर्यं कुर्वन्नावत्सरान् गणकः ॥ ६१ ॥ सु० भा०–भानोः सूर्यस्य यद्राशिमानं यच्चांशमानं तयोर्वेधात् त्रिगुणान् राशीन् चतुर्णानंशांश्च विशोध्य शेषं नवत दृष्ट्वाऽऽवत्सराव सूर्यं कुर्वन्नपि स शणक इति । अत्र राशिमानम् = या १ । अंशमानम् =का १। ततः प्रश्नालापानुसारेण था. क-३ या--४ का=९० १ बा, का ३ या+४ कॉ+९०
- वर्णाझाहतिरूपैक्यम्= =३४४+९०=१०२ । इष्टम्=६ ।।
फलम् == १७ । ततो या=१० । का=२० ॥ ६१ ॥ वि. भा.-भानोः (सूर्यंस्य ) राश्यंशयोर्वधात् त्रिगुणिताचे राशीच चतुर्गुणा नंशांश्व विशोध्य शेषं नवतं दृष्ट वा सूर्यमचत्सरात् (वर्षपर्यन्तं) कुर्वन्नपि स गणक इति । अत्र कल्प्यते शशिप्रमाणस्य, अंश प्रमाणम् =र तदा प्रश्नोक्तथा य. र -३ य८४र=९० समयोजनेन य . र=९०+३ य+४ र, ततो वंणझाहति- रूपैक्चन = ३४४+९०=१०२ इष्टम् =६ १०२ +१७=फल्म । अतो य= १%, र=२० ॥ १ ॥ = अब प्रश्न को कहते हैं। हि- भा---सूर्य की राशि और अंश के घात में से त्रिगुणतं राशि चतुशृणित अंश ^ ^ST^ % ^tcTT | ^ ^ 7^ *FT PFT gtr tft 5^ | S% II W W= .*. ^ =*V9=<pr I T=?o, T=^«> 5fa II ^? II -4^Pd 3Tf?r ^rr% sERHTftr i ^2Frf *<JjmuiiHf *uf*ww ^TffT fa;r^#TgTfa f^rr d^Riici^Mr" ^rr% i nwr ^rrRir (oAitbiHi) ^rafNr i fSRf ^TsrcntuHt ^rrf^r^^^R 52-
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१२३६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते
को घटाने से नव्वे होता है तब एक वर्ष पर्यन्त सूर्य का साधन करते हुये भी वह गणक है इति ॥ ६१ यहां कल्पना करते हैं राशि प्रमाण = य। अंश प्रमाण = र, तब प्रश्नानुसार य.र-३ य-४ र=९० दोनों पक्षों में ३ य+४ र जोङने से य.र=९०+३ य+४ र तब 'वर्णाङ्काहतिरूपॅक्य' मित्यादि भास्करोक्त सूत्र से वर्णाङ्काहतिरूपॅक्य =३*४+९० =१०२, इष्ट =६ ∴ १०२/६ = १७ = फल। अत: य=१०, र=२० इति ॥ ६१॥
इदानीं भाविते प्रकारान्तरमाह । भावितके यदूघातो विनष्टवर्णोन तत्प्रमाणानि । कृत्वेष्टानि तदाहतवर्णोक्यं भवति रूपाणि ॥ ६२॥ वर्णप्रमाणभावितघातो भवतीष्टवर्णासङ्ख्यॅवम् । सिध्यति विनाऽपि भावितसमकरणात् किं कृतं तदत: ॥६३॥
सु. भा. - भावितके भावितसमीकरणो येषां वर्णोनां घातो (यद्घात:) ऽस्ति। तत्प्रमाणानि विनष्टवर्णोनेष्टानि कृत्वा तदाहतवर्णोक्यं रूपाणि भवति। एकवर्णमपहाय परेषां मानानीष्टानि प्रकल्प्य तदाहतानां वर्णगुणकानामॅक्यं यद्र्वति तानि रूपाणि व्यक्तानि भवन्ति। इष्टानां वर्णप्रमाणानां भावितस्य
भावितगुणकस्य च घात इष्टविमुक्तवर्णसंख्या भवति। एवं भावितसमकरणाद्र भावितसमीकरणाद्विनापि वर्णमानं सिध्यति। अतस्तत् पूर्वं कृतं भावितं किं किमर्थं कार्यमिति रोष:। 'मुक्त् वेष्टवर्णं सुधिया परेषां कल्प्यानि मानानि तथेप्सितानि' इत्यादिभास्करोक्तमेतदनुरूपमेव।
अत्रोपपत्तिश्चेष्टकल्पितमानानामुत्थापनेन स्फुता ॥६२-६३॥
वि.भा.- भावितके (भावितसमीकरणो) येषां वर्णानां घातोऽस्ति तत्प्रमाणानि विनष्टवर्णोनेष्टानि कृत्वा तद् गुणितवर्णोक्यं रूपाणि भवति। एकवर्णं त्यक्त् वा परेषां मानानीष्टानि प्रकल्प्य वर्णगुणानामॅक्यं यद् भवति तानि रूपाणि (व्यक्तानि) भवन्ति। इष्टानां वर्णप्रमाणानां भावितगुणकस्य घात इष्ट विमुक्तवर्णसङ्ख्या भवति। एवं भावितसमीकरणाद्विनाऽपि वर्णमानं सिध्यति, अतस्तत् "पूर्वं कृतं भावितं किमर्तं करणीयमिति" बीजगणिते 'मुक्त् वेष्टवर्णंसुधिया परेषां कल्प्यानि मानानि यथेप्सितानि। तथा भवेद् भावितंभङ्ग एवं स्यादाद्दबीजक्रिययेष्टसिद्धि:' भास्करोक्तमिदमाचार्योक्तानुरूपमेवास्तीति॥६३॥
इति भावितबीजम् भावितबीजम्
१२३७ अब भावित में प्रकारान्तर कहते हैं। । हि. भा.-भावित समीकरण में जिन वर्णों का घात है उसके प्रमाणतुल्य विनष्ट वर्गों से इष्ट कर वर्णाक्य को उससे गुणा करने से रूप होते हैं । एक वर्गों को छोड़ कर अन्यों के मान इष्ट.कल्पना कर वर्णगुणकों का ऐक्य जो हो वे रूप होते हैं । इष्टवर्षे प्रमाण और भावित गुणक का घात इष्टविमुक्त वर्णसंख्या होती है । एवं भावित समी करण विना भी वर्णमान सिद्ध होता है। अतः पूर्व में किया हुआ भावित क्यों किया जाय । बीज गणित में ‘मुक्तू वेष्टवर्ण सुबिया परेषां’ इत्यादि भास्करोक्त आचार्योंक्त के अनुरूप ही है इति ।।६३।। इति भावित बीज समाप्त हुआ ।
वर्गप्रकृतिः बज्त्राभ्यासतोऽनेककनिष्टयुतविहोनाच्च । मूलं द्विधेष्टवर्गाद् गुरगकगुराहादिष्टयुतविहोनाच्च । श्राद्यवधो गुरगकगुरगःसहान्त्यधातेन कृतमन्त्यम् ॥६४॥ वज्त्रवधैक्यं प्रथमं प्रक्षेपः क्षेपवधतुत्न्यः ॥ प्रक्षेपशोधकह्र्ते मूले प्रक्षेपके रूपे ॥६४॥
सु० भा०-इष्टवर्गाद्दगुरगकगुरगादन्येनेष्टेन केनचिद्यताद्वोनाच्च यन्मूलं तदन्त्यसंज्न्यमवोऽधो द्विधा स्थाप्यम्। यस्येष्टस्य वर्गः कृतः स चाद्यसंज्नोऽप्यधोऽवो द्विधा स्थाप्यः। येन युतेनोनेन वा मुलं प्राप्तं स क्षेपसंज्न्यः शोधकसंज्न्यो वा ऽधो ऽवो द्विधा स्थाप्यः। एवं तिर्यकपत्तिकद्वये द्विधा कनिष्ठज्येष्ठक्षेपारगां विन्यासो जातः नत्रेष्टवर्गो येन गुरगकेन गुरिगतस्तस्य संज्य्न प्रकृतिः। आद्ययोः कनिष्ठयोर्वधो गुरगकेन प्रकृत्या गुरगोऽन्त्ययोज्येष्ठयोर्धातेन सह सहितः। एवमन्त्यमन्यज्ज्येष्ठं कृतमाचार्यैरिति शेषः। कनिष्ठज्येष्ठयोर्वज्त्रववैक्यं चान्यत् प्रथमं कनिष्ठसंज्न्यं भवति। तत्र क्षेपयोर्वधेन तुल्यः प्रक्षेपो भवतीति। एवं प्रक्षेपे वा शोधके ऋरगक्षेपे तुल्यभावनया ये मूले कनिष्टज्येष्ठे ते प्रक्षेपकेरग वा शोधकेन ह्रते रूपे प्रक्षेपके रूपक्षेपे कनिष्टज्येष्ठे भवत इति सर्व भास्करवर्गप्रकृतितः स्फुटम्।
नत्रोपपत्त्यर्थं मत्कृतभास्करबिजटिप्पण्यां वर्गप्रकृत्युपपत्तिविलोक्या ॥६४-६५॥
वि.भा.-इष्टवर्गात् गुरगकगुरगात् केनचिदन्येष्टेन युतात् हीनाच्च यन्मूलं तदन्त्यसंज्ञं (ज्येष्ठं) अवोऽघो द्विवा स्थाप्यम्। यस्येष्टस्य (कनिष्ठस्य) वर्गकृतः स भ्राद्यसंज्ञ (कनिष्ठ)ऽप्यवोऽवो द्विवा स्थाप्यः। येन युतैन हीनेन वा मूलं लब्धं स क्षेपसंज्ञः शोधकसंसो वाऽवोऽवो द्विधा स्थाप्यः। एव पत्त्किद्वये कनिष्ठज्येष्ठक्षेपारगा द्विवास्थापनं जातम्। नत्रेष्टवर्गो येन गुरगकेन गुरिगतस्वस्य नाम प्रकृतिः। कनिष्ठयोर्वधः प्रकृत्या गुरगो ज्येष्ठयोवतिन यतु एतदन्यज्ज्येष्ठम्। कनिष्ठज्येष्ठयोर्वज्त्रववैक्यमन्यत् कनिष्ठम्। तत्र क्षेपयोर्धातः क्षेपो भवति। एवं प्रक्षेपे वा शोघके ऋरगक्षेपे तुल्यभावनया ये कनिष्ठज्येष्ठे ते प्रक्षेपकेरग शोधकेन वा भवते तदा रूपक्षेपे कनिष्ठज्येष्ठे भवत इति॥ वर्गप्रकृतिः
अत्रोपपत्तिः
सूत्रोक्स्त्या प्र क+क्षे = ज्ये, ज्ये - प्र क = क्षे । एवमेव ज्ये - प्र क = क्षे प्रनयोर्घातः क्षे = ज्ये इति धनमृरगमृरग धनं च क्रियते तदा ज्ये ज्ये २ प्र क क ज्ये ज्ये + प्र क क + २ प्र क क ज्ये ज्ये-ज्ये प्र क - ज्ये = (ज्ये + प्र क क) -- प्र {(ज्ये क + ज्ये क)} पक्षान्तारेग प्र {( ज्ये क + ज्ये क)} + क्षे क्षे = (ज्ये ज्ये + प्र क क) प्रतः क्षेपघाते क्षेपे ज्ये क + ज्ये क इदं कनिष्ठं, ज्ये ज्ये + प्र क क इदं ज्येष्ठं भवितुमर्हतीति । एतावताचार्योत्तमुपपन्नम् । सिध्दान्तशेखरे " कृतेर्गुरगोः यः पकृतिर्हि प्रोत्ता क्षिप्तिस्तथैवर्राघनात्मिकास्यात् । रूपं कनीयः पदमस्य वर्गे हते प्रकृत्या वियुते युते वा । क्षिप्यत्या पदं यच्च बृहत्यदं तत् ताभ्यां पदे भावनया त्वनन्ते " क्ष्री पत्युक्तमिदमाचार्योक्तानुरूपमेव । भावना विधिश्च ।
वज्राभ्यासॉ ह्रस्वज्येष्ठकयोस्तद्यतिर्भवेगदध्रस्वम् । लघुघातः प्रकृतिहतो ज्येष्ठवधेनान्वितो ज्येष्ठम् ॥ क्षिप्त्योर्घातः क्षेपः स्याद्वजाभ्यासयोर्विशेषो वा । तद्विवरंज्यष्ठपदं क्षेपः क्षिप्त्योः प्रजायते घातः । ईप्सितवर्गेरग हृतःक्षे पः पदे तदेष्टाप्ते ॥
बीजगरिगते " इष्टं ह्रस्वं त्स्य वर्गः प्रकत्या क्षुण्ररगे युक्तो वर्गितो वा सयेन । मूलं दद्यात् क्षेपकं तं घनरग मूलं तत्र ज्येष्ठक्षेपकान्नयस्य तेषां तानन्यान् वाघो निवेश्य क्रमेरग । साध्यान्येभ्यो भावनाभिर्बहूनि मलान्येषां भावना प्रोच्यतेतः ॥ वज्राभ्यासॉ ज्येष्ठालघ्वोस्तदैक्यं ह्रस्वं लघ्वोराहतिश्च प्रकृत्या । क्षुण्रगा ज्येष्ठाभ्यासयुग् ज्येष्ठमूलं तत्राभ्यासः क्षेपयोः क्षेपकःस्यात् " भास्करोक्तमिदं सर्वमाचार्योक्तानुरूपमेवास्तीति ॥
भब वर्ग प्र्कृति भाराम्म किया जाता है । f%TT m | jtft sTfftr 1 1 trrro % to ^ sr^r % i^r ^s-
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१२४० ब्राह्मस्फ़्उटसिद्धान्ते
वा शोधक संज्ञक है । उसको भी श्रधोSधः दो स्थानों में स्थापन करना । इस तरह दो पंक्तियों में कनिष्ठ ज्येष्ठ और क्षेप का स्थापन हुआ । इष्टवर्ग को जिस गुरगक से गुरगा किया गया है उसका नाम प्रकृति है । कनिष्ठ द्वय के घात को प्रकृति से गुरगा कर ज्येष्ठद्वय घात को जोडने से अन्य ज्येष्ठ होता है कनिष्ठ और ज्येष्ठ के वज्राभ्यास क योग अन्य कनिष्ठ होत है वहां क्षेपद्वय का घात क्षेप होता है । एवं प्रक्षेप (शोधक) के ॠरग क्षेप में तुल्य भावना से जो कनिष्ठ और ज्येष्ठ होते हैं उन्हें प्रक्षेप से भाग देने से रूप क्षेप में कनिष्ठ और ज्येष्ठ होते हैं ॥
उपपत्ति ।
प्र =प्रकृति, क् =कनिष्ठ, ज्ये =ज्येष्ठ, क्षे =क्षेप तब सुत्रानुसार प्र.क+क्षे=ज्ये अतः ज्ये-प्र. क=क्षे, एवं ज्ये-प्र. क=क्षे, इन दोनों के घात करने से क्षे. क्षे=ज्ये. ज्ये-ज्ये. प्र. क-ज्ये.प्र.क+प्र.क. क. इसमें २ प्र.क.क. ज्ये-ज्ये इसको धन ॠरग और ॠरग धन करने से ज्ये. ज्ये+-२ प्र.क.क.ज्ये.ज्ये.+प्र.क.क+२ प्र.क.क.ज्ये.ज्ये.-ज्ये. प्र.क-ज्ये. प्र.क. =(ज्ये.ज्ये+-प्र.क. क.) -प्र{(ज्ये.क+-ज्ये.क)} पक्षान्तर से प्र {(ज्ये.क+-ज्ये.क)} + क्षे.क्षे=(ज्ये.ज्ये+-प्र.क.क) अतः क्षेपचात तुल्य क्षेप में ज्ये. क+-ज्ये. क यह कनिष्ठ होता है और ज्ये. ज्ये+-प्र.क.क यह ज्येष्ठ होता है । इससे भ्राचायोक्त भावना उपपन्न होती है ॥ सिद्धान्त शेखर में 'कृतेर्गुरगओ यः प्रकृतिर्हि प्रोक्ता क्षिप्तिस्तथैवरर्गघनात्मिका स्यात' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित, श्रीपयुक्त आचार्योक्त अनुरूप ही है; भावना विधि 'वज्राभ्यासौ ह्रस्व्ज्येष्ठकयोस्तद्युतिर्भवेद्धस्वम्' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित, भावना आचार्योक्त भावना के अनुरूप ही है । बीजगरिगत में 'इष्टं ह्रस्वं तस्य वर्गः प्रकृत्या क्षुण्रगो युक्तो वर्गितो वा स येन' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित पद्यों से भास्कराचार्य ने भी आचर्योक्त के अनुरूप ही कहा है ॥ ६४-६५ ॥
इदानीं विशेषमाह ।
रूपप्रक्षेपपदे पृथगिषृक्षेप्यशोध्यमूलाभ्याम । कृत्वाSSन्त्याद्यपदे ये प्रक्षेपे शोधनेवेष्टे ॥६६॥
सु.भा. - रूपप्रक्षेपे ये पदे आद्यान्त्यपदे ते पृथक् स्थाप्ये । तत इष्टक्षेपे वेष्टशोधके ये मूले ताभ्यां भवनयाSन्ये अन्त्यद्यपदे ज्येष्ठकनिषेठे कृत्वा ते इष्ठे प्रक्षेपे वेष्टे शोधनेSन्ये अन्त्याद्यपदे ज्ञेये इति ॥६६॥ ff. ^T. — ^TOT ^ 5ft 3^5, WfiPZ | fTO PTO SRTTT, ^ 3ft
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वर्गप्रकृतिः १२४१ वि.भा. --- रूप प्रक्षेपे ये अन्त्याद्यपदे ( ज्येष्ठ कनिष्ठे ) ते पृथक् स्थाप्ये, इष्टक्षेपे ( इष्टशोधके वा ) ये मूले ( कनिष्ठ ज्येष्ठे ) ताभ्यां भावनया ज्येष्ठकनिष्ठे कृत्वा ते इष्टक्षेपेSन्ये ज्येष्ठ कनिष्ठे ज्ञातव्ये इति । यत्रोपपत्तिः स्पष्टैवास्तीति ॥ ६६ ॥
यब विशेष कहते हैं ।
हि. भा. --- रूपक्षेप में जो ज्येष्ठ, कनिष्ठ है उन्हें पृथक् स्थापन करना, इष्टक्षेप में जो कनिष्ठ, ज्येष्ठ है उस्के साथ भावना से इष्टक्षेप में मन्य ज्येष्ठ, कनिष्ठ होते हैं इति ।
उपपत्ति स्पष्ट हो है ॥ ६६ ॥
इदानीं चतुःक्षेपकजनिष्ठज्येष्ठाभ्यां रूपक्षेपे कनिष्ठज्येष्ठानयनमाह ।
चतुरधिकेSन्त्यपदकृतिस्न्यूना दलिताSन्त्यपदगुराSन्यपदम् । प्रन्त्यपदकृतिव्येका द्विहृताSSद्यपदाहताSSद्य पदम् ॥ ६७ ॥ सु. भा. --- चतुरधिके चतुःक्षेपेSन्त्यपदकृतिस्त्रिभिरूनाSधिताSन्त्यपदगुरा फलं रूपक्षेपीयमन्त्यपदं ज्येष्ठं भवेत् । श्रन्त्यपदकृतिरेकेन हीना द्विहृताSSद्यपदेन हता फलं रूपक्षेपीयमद्यपदं कनिष्ठं भवेत् ।
श्रत्रेपपत्तिः । यदि चतुःक्षेपे कनिष्ठम् === क, ज्येष्ठम् === ज्ये । तदा इष्टवर्गहृतः क्षेपः क्षेपः स्यात्' -- इत्यादिभास्करविधिना रूपक्षेपे कनिष्ठम् = क / २ । ज्येष्ठम् = ज्ये / २ । तथा विलोमेन प्रकृतिः= (ज्ये^१ - ४) / क^१ समासभाषनया क / २, ज्ये / २, श्राभ्यामन्ये कनिष्ठज्मेष्ठे रूपक्षेपे साध्येते तदा कनिष्ठम् = (क*ज्ये) / २, ज्येष्ठम् = (ज्ये^२ - २) / २ आभ्यां क / २, ज्ये / २ एतभ्यां च पुना रूपक्षेपे यदि कनिष्ठज्येष्ठे साध्येते तदा कनिष्ठाम् = [क (ज्ये^२ - १)] / २ । ज्येष्ठम् = ज्ये ( ज्ये^२ - ३) श्रत उपपद्यते ॥ ६७ ॥
वि. भा. --- चतुरधिके ( चतुः क्षेपे ) Sन्त्यपद ( ज्येष्ठ ) वर्गस्त्रिभिर्हीनोSधितो ज्येष्ठगुरितस्तदा रूपक्षेपे ज्येष्ठं भवेत्, ज्येष्ठवर्ग एकेन हीनो द्वाभ्यां भक्त: कनिष्ठगुरितस्तदा रूपक्षेपीयं कनिष्ठं भवेदिति ॥
कल्प्यते चतु: क्षेपे कनिष्ठ्म् = क । ज्येष्ठम् = ज्ये, तद 'इष्टवर्गह्यत: क्षेपे'
इतयादिना इष्टम् द्वयं प्रकल्प्य रूपक्षेपे कनिष्ठम् = क.ज्ये/२, ज्येष्ठम्= ज्ये/२ तथा
प्र.क^२ + ४ = ज्ये^२ समसशोधनेन् प्र . क^२ = ज्ये^२----४ अत: प्र = ज्ये^२ - ४/ क^२, क्/२,
ज्ये/२ आभ्यां तुल्यभावनया रूपक्षेपे कनिष्ठम् = क.ज्ये/२ , ज्येष्ठम् = ज्ये^२-२/२
आभ्यां क्/२ , ज्ये/२ एताभ्यां भावनया रूपक्षेपे कनिष्टम् = क(ज्ये^२ - १)/२
ज्येष्ठम् = क( ज्ये^२ -१)/२, ज्येष्ठम् = ज्ये(ज्ये^२-३)/२ एथनाचार्यौक्तमुपपत्रम्
॥६७॥
अब प्वर क्षेप के कनिष्ठ् और ज्येष्ट से रूप क्षेप में कनिष्ट और ज्येष्ठ के आनयन को कहते है।
हि. मा. ----- चर क्षेप में से जो ज्येष्ठ है उसके वर्ग में से तीन घटाकर दो से भाग देने
से जो फम हो उसके ज्येष्ट से गुरा करने से रूपक्षेप में ज्येष्ट होता है। ज्येष्ट वनं में एक
घटाकर दो से भाग देने से जो फल होता है उसके कनिष्ठ् से गुरा करने से रूपक्षेप में
कनिष्ठ् होता है इति ॥
उपपत्त्ति।
कल्पना करते है चार क्षेप ।में कनिष्ठ = क । ज्येष्ठ = ज्ये, तब ' इष्तवगंहत:
क्षेप' इत्यदि भास्करोक्त प्रकार से दो इष्ट कल्पना करने से रूपक्षेप में कनिष्ठ = क/२, ज्येष्ठ
= ज्ये/, वगं प्रक्रुति लक्षरा से प्र। क^२+४= ज्ये^२ समशोधन से प्र. क^२= ज्ये^२ --- ४ अथ:
प्र = ज्ये^२ ---४ / क^२ , क/२ , ज्ये/२ इसकि तुल्य भावना से रूपक्षेप में कनिष्ठ = क.ज्ये/२ , ज्येष्ठ
= ज्ये^२-२/२, इसको क/२, ज्ये/२ इसके साथ भावना से रूपक्षेप में कनिष्ठ = क(ज्ये^२-१)/२
ज्येष्ठ = ज्ये(ज्ये^२-३)/२ इससे आचार्यौक्त उपपन्न हुआ इति ॥६७॥
वर्गप्रकृतिः
इदानीमृखात्मकचतुःक्षेपकनिष्ठज्येष्ठाभ्यां रूपक्षेपे कनिष्ठज्येष्ठयोरानयनमाह।
चतुरूनेऽन्त्यपचकृती श्र्येकयुते वधदलं पृथग्व्येकम्। व्येकाद्याहतमन्त्यपदवधगुखमाद्यमन्त्यपदम्॥
सु.भा.-चतुरूनेऽन्त्यपदस्य कृतिर्द्विघा स्थाप्या एकत्र त्रियुता ऽन्यत्रैकयुता। श्रनयोर्वघदलं पृथक्स्थाप्यमेकत्र व्येकं कायं तद्वयोकाद्याहतम्।श्रन्यपदकृतिस्त्रियुता प्रथमं या साधिता तद्वयोकेना ज्ये^२ +२ नेन हतमित्यर्थः। फलं रूपक्षेपेन्त्यं ज्येष्ठपदं स्यात्।पृथक् स्थापितं पदयोः कनिष्ठज्येष्ठयोर्वधेन गुणं फलमान्त्यपदं पूर्वागतान्त्यपदसम्बन्धि श्राद्यं पदं भवेदिति। श्रत्रोपपत्तिः।कल्प्यते चतुरूने कनिष्ठम् = क।ज्येष्ठम् = ज्ये। तदा विलोमेन प्रकृतिः = (ज्ये^२+४)/क^२। रूपशोधके च कनिष्ठम् = क/२। ज्येष्ठम् = ज्ये/२। श्राभ्यां स्रमासभावनया रूपक्षेपे कनिष्ठम् = (कxज्ये)/२। ज्येष्ठम् = (ज्ये^२+२)/२। श्राभ्यां पुनः समासभावनया रूपक्षेपे कनिष्ठं = [क.ज्ये^२(ज्ये^२+२)]/२। ज्येष्ठम्=(ज्ये^४+४ज्ये^२+२)/२। श्राभ्यां पूर्वसाधिताभ्याम् (कxज्ये)/२। (ज्ये^२+२)/२ एताभ्यां च पुनः समासभावनया रूपक्षेपे कनिष्ठम् =[क.ज्ये(ज्ये^४+४ज्ये^२+३)]/२ =क.ज्ये(ज्ये^२+१)(ज्ये^२+३)/२। ज्येष्ठम् = (ज्ये^२+२)[(ज्ये^४+४ज्ये^२+१)/२]=(ज्ये^२+२)[(ज्ये^४+४ज्ये^२+३)/२ - १]={ज्ये^२+२}{[(ज्ये^२+३)(ज्ये^२+१)]/२ - १} श्रत उपपद्यते॥ वि.भा.- चतुरूने (ॠखात्मकचतुःक्षेपे) ऽन्त्यपद (ज्येष्ठ) कृतिर्द्विधास्थाप्या एकत्र त्रियुताऽन्यत्रैकयुता, तयोर्घाताधं पृथक् स्थाप्यम्। एकत्रैकहीनं कार्यं तदेकहीनकनिष्ठगुखम्।श्रन्त्यपद(ज्येष्ठ) कृतिस्त्रियुता प्रथमं या साधिता तद्व्येकेना ज्ये^२+२ नेन गुखितमित्यर्थः। तदा रूपक्षेपे ज्येष्ठं भवेत्। पृथक् स्थापितं कनिष्ठज्येष्ठयोर्घातेन गुखं फलं पूर्वागतज्येष्ठसम्बन्धिकनिष्ठं भवेदिति॥
श्रत्रोपपत्तिः।
कल्प्यते ॠखात्मकचतुः क्षेपे कनिष्ठम्=क, ज्येष्ठम्=ज्ये,वर्गप्रकृतिलक्षखेन १२४४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते प्र. क'~४=ज्ये' समयोजनेन प्र. क८ ज्ये२+४ अतः ज्ये२+४ =प्र। 'इष्टवर्ग ज्यै+२ ज्येष्ठम्= =------ समास भावनया हृतक्षेप' इत्यादिनेष्टम् =२ प्रकल्प्य ऋणात्मकरूपक्षेपे कनिष्ठम्= के, ज्येष्ठम् आभ्यां तुल्यभावनया रूपक्षेपे कनिष्ठस्=, क. ज्ये आभ्यां पुनः समासभावनया रूपक्षेपे कनिष्ठम् _क. ज्ये (ज्ये' +२), ज्येष्ठम् ज्ये+४ ज्ये+२ क. ज्ये ज्ये२+२ आभ्यां पूवंसाधिताभ्यां रूपक्षेपे कनिष्ठम्= क. ज्ये (ज्ये'+४ ज्ये' +३) =क. ज्ये. (ज्ये'+१)(ज्ये'+३) ज्येष्ठम्=(२('+=(ज्ये २+२)(ज्ये+४ज्ये'+३) ज्ये२+)ज्ये४ ज्ये२+१) = (ज्यै+२){) ज्ये'२)-५ {'}('#'+} अत उपलमचायत मिति ॥६८ अब ऋणात्मक चार क्षेप के कनिष्ठ और ज्येष्ठ से रूपक्षेप में कनिष्ठ भौर ज्येष्ठ के आनयन को कहते हैं। हि. भा–ऋणात्मक चार क्षेप में ज्येष्ठ वर्ग को दो स्थानों में स्थापन करना, एक स्थान में तीन जोड़ना दूसरे स्थान में एक जोड़ना, इन दोनों के घातार्ध को पृथक् स्थापन करना, एक स्थान में एक हीनकर जो हो उसको एक हीन कनिष्ठ से गुणा करना चाहियेतब रूप क्षेप में ज्येष्ठ होता है। पूर्वं स्थापित को कनिष्ठ और ज्येष्ठ के धात से गुणा करने से पूर्वागत ज्येष्ठ सम्बन्धी कनिष्ठ होता है इति । उपपत्ति । कल्पना करते हैं ऋणात्मक चारक्षेप में कृनिष्ठ=क। ज्येष्ठ=ज्ये । वर्गे प्रकृति लक्षण से प्र. क२-४=ज्ये २ दोनों पक्षों में चार जोड़ने से प्र. क२ = ज्ये२+४ अतः श्र =ज्य++४ ‘इष्ट वगं हृतः क्षप’ इत्यादि से इष्ट=२ कल्पना करने से ऋणात्मक रूपक्षेप में कृनिष्ठः = क , ज्य ठ- = ये तुल्य भावना से रूपकेप में कनिष्ठः = क. न्ये ज्येष्ठ कज्ये +२ज्येष्ठ ज्यै२+२ ="T भावना में = - (म्य), इनसे समस से रूपक्षेप कनिष्ठः हुआ ॥६८॥ =ज्येष्ठ+४ ज्ये*+२ इनके साथ पूर्वसाधित क. ज्ये, ज्ये*+२ इनकी समास भावना से रूपक्षेप में कनिष्ठ -क. ज्ये (ज्ये'+४ज्ये'+२)=(ज्ये'+१) (ज्ये'+३) क. ज्ये ज्येष्ठ=(ज्ये,+२). -(ज्ये'+४ज्ये'+१) =(ज्ये +२).(ज्ये +४ ज्ये -३-१) ={(व्ये '+२)} . { (ये*+३) (ज्ये*+१)-१ ? इससे आचार्योक्त उपन्न वर्गप्रकृतिः इदानीं वर्गात्मकप्रकृतौ कनिष्ठज्येष्ठयोरानयनमाह । वर्गे गुणके क्षेपः केनचिदुद्धृतयुतोनितो दलितः । प्रथमोऽत्यमूलमन्यो गुणकारपदोद्धृतः प्रथमः ॥६९॥ सु. भा.-गुणके प्रकृतौ वर्गे वर्गात्मके सति क्षेपः केनचिदिष्टेनोद्धतः फलं तेनैवेष्टेन युतमूनितं दलितं च कार्यम् । एवं राशिद्वयं भवेत् तत्र प्रथमो राशिरन्त्य मूलं ज्येष्ठं भवेत् । अन्यो गुणकारपदोद्धतो गुणकारः प्रकृतिस्तत्पदेनोद्धतः फलं प्रथम आद्योऽर्थात् कनिष्ठं पदं भवेदिति । ‘इष्टभक्तो द्विधाक्षेप' इत्यादि भास्क रोक्तमेतदनुरूपमेव । १२४५ अत्रोपपत्त्यर्थ मत्कृतभास्करबीज टिप्पण्याम्-इष्टभक्तोद्विधाक्षेपः इत्यस्योप पत्तिद्रष्टव्या ॥ ६९ ।। वि.भा.-गुणके (प्रकृतौ) वर्गे (वर्गात्मके) सति क्षेपः केनचिदिष्ठेन भक्तो लब्धं तेनैवेष्टेन युतं हीनं दलितं च कार्यम् एवं राशिद्वयं भवति । तत्र प्रथमो राशि रन्त्यमूलं (ज्येष्ठ) भवति , गुणकारः (प्रकृतिः) तन्मूलेन भक्तो द्वितीयराशि स्तदा लब्ध कनिष्ठ भवेदिति । +-प्र. क पक्षौ इ हीनौ तदा वर्गप्रकृत्या प्र२ . क२-1-क्षे=ज्ये२ समशोधनेन क्षे=ज्ये९-प्र२. क९ वर्गा न्तरस्य योगान्तरघातसमत्वा त् (ज्ये+-प्र. क) (ज्ये-प्र. क)=क्षे, अत्र यदि ज्ये -प्र. क इष्ट कल्प्यते तदा क्षे=(ज्ये--प्र • क) . इ पक्षौ इ भक्तौ तदा =ज्ये
-इ=ज्ये+-प्र . क–(ज्ये-प्र.क)=ज्ये+-प्रक ब्राह्मस्फुटसिद्दान्ते
क्षे -- -इ इ क्षे
---ज्ये + प्र.क= २ प्र.क पक्षौ २ प्र भक्तौ तदा ------------ = क । --- अत्रैवेष्टुयोजनेन
२प्र इ क्षे --- +इ
क्षे इ
+ इ = ज्ये + प्र.क + ज्ये -- प्र.क =२ ज्ये श्रतः ------- = ज्ये , एतावता s
इ २
चार्योक्तमुपपन्नम् ॥ बीजगरिगते 'इष्ट्भक्थो द्विघाक्षेप' इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूपमेवेति ॥ ६९ ॥
भव वर्गात्मक प्रक्रुति में कनिष्ट श्रोर ज्येष्ठ का श्रानयन करते है । हि.मा. - वर्गात्मक प्रक्रुति में क्षेप को किसी इष्ट से भाग देकर जो फल हो उसमें उसी इष्ट को युत श्रौर हीन कर श्राघा करना चाहिये इस तरह दो राशीयों का मान होता है , उनमें प्रथम राशि ज्येष्ठ होता है , द्वितीय राशि को प्रक्रुति के मूल से भाग देने से कनिष्ठ होता है इति ।
उपपत्ति । २ २ २ २ २ २
वर्गं प्रक्रुति से प्र .क + क्षे = ज्ये समशोधन से क्षे = ज्ये --प्र. क वर्गान्तर योगान्त्रर घात के बराबर होता है इसलिये क्षे =(ज्ये+प्र.क) (ज्ये--प्र.क) यहां यदि ज्ये -- प्र.क = इष्ट माना जाय तव क्षे = (ज्ये + प्र.क) इ। क्षे = प्रथमराशि = ज्ये । क्षे ___ इ = द्वितीयराशि =
----+इ ----- इ इ ------------ ---------------- २ २
द्वितीयराशि = प्र.क क्षे __ इ क इससे श्राचार्योक्त उपपन्न हुश्रा ।
----- = इ
बीज गरिग्रत में ' इष्ट भक्तौद्विधाक्षेपः ' इत्यादि भास्करोक्त इसके घनरूप ही
है इति ॥ ६६ ॥
श्रतोSग्रै चैकाSर्यां नष्टा सा कोलब्रू कानुवादानुसारेण ।
वर्गच्चिन्मै गुखके प्रथमं तम्मूल भाजितं भवति । वर्गच्चिन्ने क्षेपे तत्पदगु रिपते तदा भूमै ॥ ७० ॥
एवं भवितुमर्हति । सु. भा-यदि गुणकः प्रकृतिः केनचिद्वर्गेण निःशेषो भवति तदा तं तद्वणण
संहृत्य लब्धसमे गुणके मूले साध्ये तत्र प्रथममाद्यमर्थात् कनिष्ठं तस्य वर्गस्य मूलेन भाजितं फलमभीष्टे गुणके कनिष्ठं भवेत् । ज्येष्ठं त्वत्रापि तदेव । क्षेपे वगैच्छिन्ने सति वर्गेण क्षेपं विभज्य लब्धसमे क्षेपे ये मूले ते तद्वर्गपदेन गुणिते अभीष्टगुणके मूले भवत इति । ‘वर्गच्छिन्ने गुणे ह्रस्वं तत्पदेन विभाजयेदिति भास्करप्रकारः प्रथमप्रकारानुरूपः । ‘क्षुण्णः क्षुण्णे तदा पदे' इति भास्करप्रकारश्च द्वितीयप्रका वर्गप्रकृति अत्रोपपत्त्यर्थ मत्कृतभास्करबीजटिप्पणी विलोक्या ॥ ७० ॥ कनिष्ठज्येष्ठे भवेतामिति । वि. भा.-यदि गुणकः (प्रकृतिः) केनापि वर्गाङ्कन भक्तः सन् निःशेषो भवेत्तदा तदगुणक तद्वर्गाङ्कन भक्त वा लब्धतुल्ये गुणके (प्रकृतौ) कनिष्ठज्येष्ठे साध्ये तत्र प्रथम (कनिष्ठं) तस्य वर्गाङ्कस्य मूलेन भाजितं तदा तद्गुणके (नवीन प्रकृतौ) कनिष्ठं भवेत् । ज्येष्ठं तदेव, क्षेपे वर्गाङ्कन छिन्ने सति वर्गाङ्कन क्षेप गु. प्र वर्ग प्रकृति लक्षणेन प्र. क^2 + क्षे^2 = ज्ये = गु. प्र (क ग)^2 अत्र यदि गु.प्र इयमन्या प्रकृति=प्र तदा तत्सम्बन्धि कनिष्ठं (क/ग)
- स्यादेतेन पूर्वार्ध 'मुपपन्नम् । अथ प्र. क२+-क्षे=ज्ये पक्षौ इ गुणितौ तदा।
प्र.(क.गु) *+-क्षे-गु*=(ज्ये.गु) * यदि क्षे-गु ==क्षे तदा तत्सम्बन्धि कनिष्ठम्=क.गु= क, ज्येष्ठ=ज्ये • गु= ज्ये तदा प्र.क.+-क्षे'=ज्ये२ एतेनोत्तरा धैमुपपद्यत इति ॥७०॥ ६९ सूत्र से आगे की एक आय नष्ट है वह कोलब्रक साहेब के अनुवादानुसार निम्नलिखित आशय की है ।
(१) वर्गच्छिन्ने गुणे ह्रस्वं तत्पदेन विभाजयेदिति भास्करोक्तमेतत्सदृशमेव । (२) क्षेपः क्षुण्णः क्षुण्णे तदा पदे भास्करोक्तमिदमेतत्सदृशमेवेति । हेि. भा.-यदि प्रकृति किसी वर्गाङ्क से भाग देने से निः शेष हो तब प्रकृति को ब्राह्मस्प्फुटसिदान्त
वर्गाङ्क से भग देने से जो लब्धि हो ततुल्य नवीन प्रकृति में कनिष्ठ श्रीर ज्येष्ठ साधन करना, उस कनिष्ठ् को वर्गाङ्क के मुल से भाग देने से नवीन प्रकृति में कनिष्ठ होता है, ज्येष्ठ् यहा भी वही रहता है। यदि क्षेप किसी वर्गाङ्क से भाग देने से निशेष हो तव वर्गाङ्क से क्षेपि को भाग देने से जो लब्धि हो ततुल्य नवीन क्षेप में कनिष्ट श्रैर ज्येष्ठ हो उनको उस वर्गाङ्क मूल से गुएए करने से नवीन क्षेप में कनिष्ठ् श्रैर ज्येष्ठ होते है इति॥
उपपति।
वर्गप्रकृति लक्षिऐ से प्र.क^२ + क्षे= ज्य्ये^२. प्र. क^२/गु^२ = गु^२.प्र.(क/गु)^२ यहा यदि गु^२.ञ् यह श्रन्य प्रकृति= प्र, है तव तरसम्भन्धी कनिषह्ठ क/गु होगा, ज्येष्ठ वही रहेगा,इससे पुर्वघै उपपशृ हुमा। बीज गरिगत में 'वर्गबिक्षिले गुए ह्र्सवं तत्पदैन विबभायेत्' यह भास्करोत कोलव्रु क को शृनुरुप हि है। प्र.क^2.ह^२+ क्षे. इ^२= ज्ये^२ वोनों पक्षों को इ^२ से गुऐ करने से प्र.क^२.इ^२+ क्षे.इ^२= ज्ये^२. इ^२= (क.गु)^२+ क्षे.गु^२ =(ज्ये.इ)^२ यदि क्षे.गु^२ = क्षे तब तत्सम्बन्धी कनिष्ठ = क. गु= क तथा ज्येष्ठ =ज्ये. गु. हससे कोलबुक सहेव के श्रीनुवाद का उतराघि उपपत्र हुश्रा। 'क्षेपः क्षणाः क्षए पदे' यह भास्करोत उसी के सहश् है||१०||
इदानिं प्रशनविशेषस्योनतरमाह।
गुखकयुतितरष्टगुरिगता गुरकान्त्रभाजिता राशिः। गुरगकै त्रैगुरगौ व्यस्पाधिकै हतावन्तरेरग पदे ||७१||
सु. भा - (गुरगकगदुयेत गुरिगतः प्रुथक् प्रुरगराशिरेकयुतस्च।
यदि तत्पदे निरग्र कुवननावत्सराद् गरगजकः॥)
इति प्रष्नस्योतरायं गुरगकयोयुतिरष्टगुरिगता गुरगकयोरान्तरवगैरग भाजिता राशिः स्यात्। गुरकै द्वो त्रिगुरगै कायै तै व्य्स्यतगुरगका धिको गुरगकान्तरेरग तो हता तदा ते एव निरग्र पदे भवतः। श्रात्रोपपतिः। कल्प्यते गुरगकद्दयं क्रमेरग गु, गु,। तथा राशिमान या^६-१/गु।
वर्गप्रकृति ः १२४९ भत्रैकालापः स्वयं घटतेऽतोऽमुं द्वितीयमुणकेन सड् गुण्य रूपं प्रक्षिप्य कालकवर्गेण समंकृत्वा पक्षॉ गु, या^२- गु,+गु,\ गु, =का^२। : गु, का^२=गु, या^२-गु, +गु, । गु, गुणितॉ तथा प्रथमपक्ष्य मूलम्+= गु, का। द्वितीयपक्षस्यास्य गु, गु, या^२- गु, गु,+गु^२, वर्ग प्रकृत्या। क ज्य क्षे १ गु, गु^२,-गु, गु, २ इ\ गु, गु, इ^२ गु, गु,+इ^२\ गु, गु, इ^२ १ समासभावनया क ज्ये १ गु, इ+गु, गु,+इ^२\ गु, गु, इ^२ १ गु, गु, इ+गु^२, गु,+ गु, इ^२\ गु, गु, इ^२ प्रथ यदि इ+ गु, तदोत्थपनेन राशिः। + या^२-१\ गु, + [{ ३गु^२+गु, गु,\ गु, (गु^२ गु,)}^२ - १] \ गु, {(३गु,+गु,gउ, गु,)^२-१}\ गु,= (९गु^२,+६गु, गु,+गु^२,\ गु^२,-२गु, गु,+गु^२, -१) \ गु, = ८गु^२, +८गु, गु, \(गु, गु,)^२ \ गु, =८(गु,+गु^२,)\(गु, गु,)^२ । तत श्रालापेन
प्रथमपदम् = ™∞¡ गु^२,+८गु, गु,\ गु^२,- २गु, गु,+गु^२, + १=३गु,+गु,\ गु, गु, ।
एवं द्वितीयपदम्= ३ गु-गु, \ गु, गु, ।श्रत उपपन्नं सर्वम् ॥७१॥
वि. भा .- गुणकयोर्योग श्रष्टगुणितो गुणकयोरन्तरेण भक्तस्तदा राशिर्भवेत्। द्वॉ गुणकॉ त्रिगुणितॉ तॉ व्यस्तगुणकाधिकॉ गुणकान्तरेण भक्तॉ तदा ते एव विरग्र पदे भवेतामिति ॥ १२५०
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते
अत्रोपपत्तिः।
कल्प्यते गुणकद्वयं क्रमेण गु, गु, तथा राशिप्रमाणम् = (य^२-१)/गु एतत् गु अनेन सङगुण्यैक क्षिप्त्वा र वर्गेण समं (य^२.गु-गु)/गु + १=(य^२.गु-गु+गु)/गु = र^२ छेदगमेन यः. गु-गु+-गु=गु:.र^२ पक्षौ 'गु' गुणितौ तदा गु. र^२=य^२. गुगु-गुगु + गु^२ प्रथम पक्षस्य मूलम्=गु.र द्वितीय पक्षस्यास्य य^२.गु.गु-गु.गु +गु^२ वर्गप्रकृत्या प्रकृतिः=गु.गु, क्षेपः=गु^२-गु.गु । अत्र कल्प्यते कनिष्ठम् =क=१ तदा ज्येष्ठम्=ज्ये=गु । क्षेपः=गु^२ -गु . गु इष्टवर्गप्रकृत्योर्यद्विवरं तेन वा भजेदित्यादिना रूपक्षेपे कनिष्ठम् २इ/(गु.गु ् इ^२), ज्येष्ठम् = (गु.गु+इ^२)/(गु.गु ् इ^२), क्षपः = १ समासभावनया (२ गु.इ + गु.गु+ इ^२)/(गु गु ् इ^२)= क। (२ गु.गु.इ + गु^२ गु + गु.इ^२)/(गु गु ् इ^२)= ज्ये। अत्र कनिष्ठं प्रतमपक्षस्या (गु.र) स्य समम्। यदि इ = गु तदोत्थापनेन राशिः= (य^२-१)/गु = [{(३गु^२ +गु.गु)/गु(गु ् गु)}^२-१] / गु= {((३गु+गु)/(गु ् गु))^२-१} / गु = =( (९गु^२+६गु.गु+गु^२)/(गु^२ - २गु.गु + गु^२) - १ ) / गु = (( गु^२+८गु.गु)/ (गु-गु)^२ )/गु= (( गु+गु)/(गु ् गु)^२ ) अत आलापेन प्रथम पदम् = √(८गु^२+८गु.गु)/(गु^२-२गु.गु+गु^२) + १ = (३गु+गु)/ (गु ् गु), द्वितीय पदम् = (३गु-गु)/(गु ् गु) इति ॥७१॥
अब प्रश्न विशेष का उत्तर कहते हैं । हेि.भा़-राशि को पृथक् पृथक् गुणकद्वय से गुणाकर एक जोड़ने से यदि उनके वर्गप्रकृति: को एक वर्ष् पर्यन्त् नि: करवे हुए व्यक्ति गरगक है यह प्र्शन है | तो इसका उत्तर गुणाकद्वय योग को पाठ से गूरागकर गुणाकद्व्य के गुणाकर के वर्ग् से भाग देने से राशिमान होता हैं | दोनों गुरगकों को तीन से गुरग कर दोनों में विपरीत गुरगक जोड कर गुरकान्तर से भाग देने से दोनों निःशोष पद द्वय होते हैं इति | उपपत्ति | कल्पना करते हैं दोनों गु क्रम से गु, गु तथा राशिमान = य-१/गु इसको गु से गुणाकर एक जोडकर र वगं के बराबर करने से गु-य- गु+गु/गु=र चोदगम से गु र=गु .य - गु + गु दोनों पक्षों को (गु) गुणा करने से गु र = गु गु य - गु य - गु गु +गु प्रथम पक्ष का मूल = गु र, द्वितीय पक्ष गु. गु य - गु गु +य इसकी वगंप्रकृति से प्र्कृति = गु. गु , क्षेप= गु - नु .गु, यहां कनिष्ट् = १, ज्येष्ट् = गु, क्षेप=गु .- गु .गु 'इष्टवगंप्रकृत्योयंद्विवरं ' इत्यादि भास्करोक्त् सूत्र से क = २ ड/ गु.गु इ, ज्ये = गु.गु + इ/ गु.गु इ, क्षेप= १ समास भावना से क= २ गु.इ+गु.गु+इ/गु.गु इ , ज्ये= २ गु.गु.इ+गु.गु +गु.गु इ यहां कनिष्ट् (य) का मान होता हे यदि इ = नु तव उत्थापन से राशि = य-१/गु =[{३ गु.+गु.गु }^२ - १]/गु .(गु गु)/गु ={ (३ गु +गु)^२/गु गु -१}/गु = (६ गु^२+६ गु.गु +गु^२/गु^२-२ गु.गु +गु^२-१)/गु= गु^२ +गु.गु/(गु मु ^२)/गु = (गु+गु)/ गु मु प्रब पालाप से प्रथम पद = i
— v f " *pf 1 ^ ( *rr* + to* ) + ( «n* — ) . .-. ^ ^ = » TO" j fo^+TO^-H'TT*--^) J * ?tct Winter ffqTq>r^^TT^% ^TcBt q^sr ?tw#t s#far> 5T^7%: I sp?*qt ^# ^ ^ (^-fT'), ^ 5* («T*— T*) ^TT ^ft#TF^ — ^ q* — ? fl^W— V ^ q* qWPRHT fc^T ^TTcft l T8fft — V
द्वितीय पद = (३ गु^१ - गु/ गु ~ गु) इससे श्राचार्यात्त उपपन्न हुश्रा इति।
इदानीम् प्रश्नान्तरविशेषस्योत्तरमाह।
वग्रोऽन्यकृतियुतोनस्तत्संयोगान्तराधंकृतिभक्तः। तद्गुरीगातौ युतिवियुतौ वर्गे घाते रूपयुते॥
सु० भा० - ययो राश्योर्युतियुतौ वर्गो भवतस्तथा घाते रूपयुते च वर्ग स्यात् तत्र राश्योरानयनाय कश्चिदिष्टो वर्गः कल्प्यः। स चान्येष्टवर्गेरा युत ऊनश्च् कार्यः। एव्ं राशिद्वयं यद्भवेत् तल्संयोगस्तदन्तराधंवर्गेरा भक्तो यत् फलमागच्छेत् तेन पूर्वसाधितौ द्वौ राशी गुरितात्रभीप्सितौ राशी भवतः। अत्रोपपत्तिः। कम्प्येते राशी -- २ इ^२ (या^२ + का^२)। २ इ^२ (या^२ - का^२) श्रत्र राश्योर्योगवियोगौ भवतोऽत श्रालापद्वय्ं घटते। श्रथानयोर्घातः सैकः = ४ इ^४ या^४ - ४ इ^४ का^४ + १ श्रयं वर्गः। श्रत आद्यन्तयोः पदयोः - २ इ^२ या^२, -१ श्रनयोद्विघ्नहतिं -४ इ^२ या^२ मध्यपदसमां कृत्वा पक्षौ - ४ इ^२ या^२ = -४ इ^४ का^४।
अतः २ इ^२ = २ या^२/का^४ = [(या^२ + का^२) + (या^२ - का^२)/{(या^२ + का^२) + (या^२ - का^२)}^२/२^२]
श्रत उपपद्यते यथोक्तम्॥
वि भा - ययो राश्योर्युतिवियुतौ वर्गो भवेतां, घाते रूपयुते च वर्गः स्यात् तत्र तयो राश्योर्ज्ञानार्थ कोपीष्टो वर्गः कम्पनीयः। सोऽन्येष्टवर्गेरा युतो हीनश्र्व कार्यः, तदा यद्राशिद्वय्ं भवेत् तयोर्योगस्तदन्तरार्धवर्गेरा भक्तो यल्लब्धं भवेत्तेन पुर्वानीतौ राशी गुरितौ तदाऽभीप्सितौ राशी भवेतामिति॥
श्रत्रोपपत्तिः।
कम्प्येते राशी २ इ^२ (य^२+र^२), २ इ^२ (य^२-र^२) श्रत्र राश्योर्योगान्तरे त्रर्गौ भवतस्तेनाऽऽलापद्वयं घटत्ते। श्रनयोर्घातः ४ इ^४ (य^४-र^४)=४इ^४.य^४ - ४ इ^४.र^४ रूपयुतः ४ इ^४.य^४ - ४ इ^४.र^४ + १ तदा वर्गः स्यात्। तेनाऽऽद्यन्तयोमुं लयोः -२ इ^२.य^२ - १ द्विघ्नघातं -४ इ^२.य^२ मध्यपदससं कृत्वा जातौ पक्षौ -४ इ^२.य^२ = -४ इ^४.र्^४ पक्षौ र्^४ भक्तौ तदा -(४ इ^२.य^२/र्^२) = ४ इ^४ srw ^ ?fk srffgrr w % ( — 3 V*. *r*— ?) % feafiw to gtff * f » HPT » *■ V ^ —V 3* ^ rr w % ( — 3 V*. *r*— ?) % feafiw to gtff * f » HPT » *■ V ^ —V 3* ^ -२इ².२य²/र² पषो --२ इ² बक्तो तदा २ इ² = २य²/र² = {(य²+र²)+(य²+र²)/(य²+र²)/२}² एतावता सर्वमुपपन्नमाचाय्रोक्तमिति॥७२॥ हि भा- जिन दो राशइयोमं का योग ऋओर भन्तर करनए से वग्र होता है,तथा घात एक जोडने से वग्र होता है वहां दोनों राशियों के ॠआनयन के लइए कोई इष्ट्वग्र कल्पना रनी चहइए। उसमें ॠन्य इष्टवग्र को युत शोर हिन करना चाहिए।इस तरह जो राशिद्वय होता हेए उनके योग भें उन्हीं कै ॠन्तरघ्र वग्र से भाग देने से जो फल हो उससे पूव्र साघित राशिदय को गउरा करने से राशिद्वय होत इति। उपपत्ति। कल्पना करते हे राशिद्व्यय २ इ² (य²+ र²),२ इ² (य² -र²) यहां इन दोनों यों का योग शोर वग्र हओता हे इसलियए दो शालाप घटित होते हें।दोनों के घात में रुप जोड्ने से ४ इ² (य²-र²) + १=४ इ².य²-४ इ²-र²+ १ वम्र् होता हे इसलिए प्रथम खण्ड शोर शन्तिम खण्ड के मुल (-२ इअ²,य²-१) के द्विगुरित भात ( -४ इ².य²) को म्घय पद के समान करने से -४ इ².य²=-४ इ².र² दोनों पषों को र² से भाग देने से - ४ इ².य²/र²=-४ इ²=-२ इ².२य²/र² पुनः दोनों पषों को र² से भाग देने से -४ इ².य²/र²= -४ इ²= -२ इ².२ य²/र² पुनः दोनों को -२ इ² इससे भाग देने से २ इ²= २ य²/र²= (य²+र²)+(य²+र²)/{(य²+र²)-(य²-र²)/२} इससे शाचायोर्क्त उपपन्न हुथा इति॥७२॥ इदानीं पुनः प्र्शनान्तान्तरविशेषस्योत्तरमाह। यरुनो यंशच युतो रुपेएच्रग्रस्त्देक्यमिष्टह्रतम्। इष्टोनं तसशलक्रतिरुनाSम्यधिका भवति राशिः॥७३॥ सु भा-को राशिरेतावदि रुपयुतस्तथेतावदि रुपेरुनशच वगो भवसीता प्र्शनोतराथं यं रुपेरुन्नो ययुं तशच वगो भवति तेषानमेक्यं केनचिदिष्टएन ह्रत्ं TifinW trafc ctt^tw% frriroPreT TrRnN^mf : i 3*ff SRfTFTT^^— ^r , =TT+?r, 'ft'^IT-^, sNfanrftr: i g^cii% TT%: = ^ I m T ^5 eft Tftfffn^ Wf TOtfe 5PRT- +T=2r «^taM^MR"fd>pHfcl II ^ II१२५४
== 'ब्राह्यस्फुटसिद्धानते ==
फलमिष्टोनं कार्यम् ।तस्य शोषस्य दलस्यर्धीकृतस्य कृतिरुनाऽभ्यधिका । यै रुपैरुनो राशिर्वर्गो भवति तान्यूनरुपारि तंरुनंरभ्यधिका राशिर्भवतीत्यर्यः। अत्रोपपत्तिः। कल्प्यते राशिमानम् =या १ । श्रत्र श्र्त्र-रुपैरुनरच वर्गो भवतीति प्ररनालापेन- का² =या +श्र्त्र, नी² =या-क,
∵का²-नी² =श्र्त्र+क । श्र्त्रथ कल्प्यते का-नी=इ। ∵ का+नी=अ+क/इ, ततः सङ्क्र्मरोन नी=१/२{(श्र्त्र+क/इ)} श्र्त्रतः नी²=[१/२{(श्र्त्र+क/इ)}]२=या- क ततः या=[१/२{(श्र्त्र+क/इ)}]२=या+ क अत उपपद्यते यथोत्तुम् ॥७३॥ वि•भा•− को राशी रुपैर्युतोऽन्यरुपैर्युर्हीनश्र्च वर्गो भवति तदैक्चं केनचिदिष्टेन भत्तुं लब्धमिष्टेन हीनं शोषस्यास्यार्धीकृतस्य कृतीर्हीनाऽभ्यधिकाऽर्थात् यैरुपैर्हीनो राशिवर्गो भवति तानि हिनरुपारि तैर्हीनैरभ्यषिका राशिर्भवतीति ॥ श्र्त्रत्रोपपत्तिः।
कल्प्यते राशिः=य। ग रुपैर्यु तो हर् मरुपैर्हीनरश्र्च वर्गो भवतीति प्ररानालापेन का² =य+ग, ना²=य-म। श्र्त्रतः क² -न²=ग+म श्र्त्रत्र यदि क-न=इ तदा वर्गान्तरं राशिवियोभत्तुमित्यादिना क+न=ग+म /इ ततः संक्रमरोन न={(ग+म /इ/२)} ततः{(ग+म /इ/२)}²=य-म पक्षो मयुतो तदा {(ग+म /इ/२)}²+म=य एतेनोपपन्नमाचार्योत्तुमिति ॥७३॥
श्र्त्रब पुनः प्ररानान्तरविशोष का उतर् कहते है।
हि·भा ·- कोन राशि है जिसमें रुप जोङने तथा श्र्त्रन्य रुप को हीन करने से न वर्ग होता है उन दोनों वर्गाङ्कों के योग को किरस्रि इष्ट से भग देने से जो फल होता है उस्रमें ST — ^
वर्गप्रकृति:
से इष्ट को से जो शेष रहता हॅ उसके भ्राधे का वर्ग हीन रूप हॅ उसको जोडने से राशि प्रमारग होता हॅ इति।
उपपत्ति।
कल्पना करते हॅ राशिप्रमारग=य। इसमे ग रूप को जोडने से वर्ग होता हॅ तथा म रूप को धटाने से वर्ग होता हॅ इस प्रश्नालाप से क२ =य + ग। न२=य-म ,भ्रत: क२-न२=ग+म्, यदि क-न =इ तव वर्गान्तरं राशिवियोगभक्तं इत्यादि भास्करोक्ति से क+न=ग+म/इ भ्रत: संक्रमरग से १/२{(ग+म/इ)-इ}=न वर्ग करने से [१/२{(ग+म/इ)-इ)}]२=य-म दोनो पक्षो मे भ जोडने से [१/२{(ग+म/इ)-इ}]२+म=य इससे श्राचार्योक्त उपपन्न हुश्रा॥७३॥
इदानीं प्रश्नान्तरस्योत्तरमाह्।
थाभ्यां कृतिरधिकोनस्तदन्तरं हृतयुतोनमिष्टेन। तद्दलकृतिरधिकोना२धिक्योरधिकोनयो राशि:॥७४॥ सु.मा.-को राशिरुद्दिष्टराशिभ्यां युक्ति:कृतिर्भवति।वा को राशिरुद्दिष्टराशिभ्यामून: कृतिर्भवतीति प्रश्ने याभ्यामुद्दिष्टाभ्यामधिको वोन:कृतिर्भवति लदन्तरमिष्टेन हृतं योगप्रश्न इष्टेनॅव युतमूनप्रश्न इष्टेनॅवोनं कार्यम्।यन्तिष्पन्नं तद्दलस्य कृतिरधिकोद्दिष्टराशिना कार्या श्रधिकयोरुद्दिष्टराश्यो:।उददिष्टराश्योश्चाधिका कार्या। एवं राशिर्भवति। भ्रत्रोपपत्ति:।कल्प्यते राशिमानम्=या।यश्च श्र-क-राशिभ्यां युतो।तथा अ>क तदा प्रश्नानुसारेरग- का२=या+श्र नी२=य+क का२-नी२=श्र-क } सङ्कमरगेन
का=ल+इ/२ तत:या=का२-अ
का-नी=इ
का+नी=श्र-क/इ=ल
ब्राह्मस्पुटसिद्धान्ते
एवमून प्रनमून प्रश्ने का = या - त्र्य नी २ = या - क } नी २ - का २ =श्न - क् } सङ्क्रमऐन
का = ल - इ/२
नी + का = श्न- क/इ = ल } ततः या
अत उपपद्यते ||७४||
वि.भा.- स को राशिर्य उद्दिष्टराशिभ्यां युक्तो हीनो वा कृति (वर्गः) र्भवति, श्नत्र याभ्यामुद्दिष्टराशिभ्यमं युत्त्को हीनो वा वर्गो भवति तदन्तरमिष्टेन भत्त्क योगप्रश्ने इष्टेन हीनं विघेयम् तदा यद् भवति तदर्घस्य वर्गोSघिकोद्दिष्टराशिना हीनः कार्यः, -श्नचिकयोरुद्दिष्टराश्योः | उद्दिष्टराश्योरल्प्योरघिकः (युत्त्कः) कार्यः,-तदा राशिर्भवति ||
श्नत्रोपपत्तिः |
कल्प्यते राशिः = य,यो हि न,म उद्दिष्टराशिसभ्यां युतो वर्गः स्यात् | भत्र न > म तदा प्रश्नानुसारेरा य + न = क^2 , य + म = ब^2 ततः क^2-व^२= न - म श्नत्र यादि क - व = ह तदा वर्गान्तरं राशिवियोगभत्तमित्यादिना न - म/ह = क^२/इ = क + व = र तदा संक्रमएन र+इ/२ = क , अतः य = क^२ - ना तथा राशिरुद्दिष्टाभ्यां हीनो वर्गा भवतीति प्रश्ने क^२ = य - न | य - न | य - म = व^२ ततः व^२- क^२/व - क = व+क = न -म/इ = र ततः संक्रमएन र-इ/२क = क| य = क^२ + न श्नत्र आचार्याक्त्तमुपपन्नम् ||७४ ||
श्नब पुनः प्रश्नान्तर का उत्तर कहते है|
हि.भा.-कौन राशि है जिसमे उद्दिष्ट राशिद्वय को जोडने से वा घटने से वर्ग होता है,यहां जिन उद्दिष्टराशिद्वय को जोडने वा घटाने से वर्ग होता है उन दोनों उद्दिष्टराशियों के श्नन्तर को इष्ट से भाग देने से जो लब्धि हो उसमें इष्ट को जोडने योग प्रश्न में | हीन प्रश्न में इष्ट को हिन करना तव जो हो उसके श्नधिक उद्दिष्टराशि को घटाना चाहिए,श्नल्प उद्दिष्टराशि को जोडना चाहिए तव राशि प्रमारा होता है इति |
वर्गप्रकूतिः १२५७ उपपत्ति ।
कल्पना करते है राशि = य , इसमें उद्दिष्टराशिद्वय को जोडने से वर्ग होता है , न , म उद्दिष्टराशिद्वय है , तथा न > म तब प्रश् न के भनुसार य+न = क^२ य+म = व^२
भतः क^२-व^२ = न-म, यदि क-व = इ तब (क^२-व^२/इ) = (न-म/इ) = क+व = र, तब संक्रमरग से (र+इ/२) = क :. य = क^२-न, हीन प्रश्ने में य-न = क^२, य-म= व^२
:. व^२-क^२ = न-म । यदि व-क= इ तब (व^२-क^२/इ) = (न-म/इ) = व+क = र, :.संक्रमरग से (र-इ/२) = क :. य = क^२+न इससे चार्योत्त् उपपन्न ह्रुश्रा इति ॥ ७४॥
इति वर्गप्रकूतिः। उदाहरणानि
तत्र प्रथमं वर्गप्रकृत्युदाहरणम् । राशिकलाशेषकृतं द्विनवतिगुणितां यशीतिगुणितां वा । सैकां नदिने वगं कुर्वन्नावत्सराद् गणकः ॥७५॥ सु. भा--राषिशेषकृतिं द्विनवति-९२ गुणितां सैकां वा कलाशेषकृति त्र्यशीति-८३ गुणित सेकां बुधदिने आवत्सराद्वर्णं कुर्वन्नपि स गणकोऽस्तीत्यहं मन्ये। प्रथमप्रश्ने प्र ६२ को १ ततो वर्गप्रकृतिसूत्रतः। क १ ज्ये १० क्षे = क १ ज्ये १० झे ८ भावनया, क २० ज्ये १८२ क्षे ६४ क ईं ज्ये २४ को १ क ईं ज्ये २४ क्षे भावनया, क १२० ज्ये ११५१ को १ अतो राशिशेषस्=१२० । एवं भावनया बहुधा राशिसेषं स्यादतः कुट्टक विधिनाऽभीष्टाहेऽहंगणः स्यात् । द्वितीय प्रश्ने गु ८३ क्षे १ ततः क १ ज्ये ६ क्षे २ क १ ज्ये ३ २ कं १८ ज्ये १६४ क्षे ४ क ईं ज्ये ८२ को १ भावनया कनिष्ठज्येष्ठयोरानन्त्यम् । ततः कलाशेषम् = & । कलाशेषात् कुट्टकविधिनाऽभीष्टदिनेऽहर्गणः स्यात् ।। ७५ ॥ वि. आ-- राशिशेषवणं द्विनवति (९२) गुणितं सैकं वा कलाशेषवर्ग यशी तिगुणितं सैकं बुधदिने वर्षपर्यन्तं वर्णं कुर्वन् स गणकोऽस्तीति । प्रथमप्रश्ने प्रकृतिः=९२, क्षेपः=१, तदा 'इष्टं हवं तस्य वर्गाः प्रकृत्या क्षुण्ण' इत्यादि भास्करोक्तसूत्रेण कनिष्ठम्=क+१, ज्येष्ठम्=ज्ये=१०, क्षेपः= क्षे== arc ^rrf^r i feNsr^ s$f?r:=^, £q- : = ? , <?rts % f>w «rra- ^ I fr=?, g#=?o, ^=c % tnr iftvm star 1 1 <rsr fpr fifa *r stfte if ?^%OTTO r ^
उदाहरणानि
ततो भावनाथं न्यासः क=१, ज्ये= १०, क्षे=८
क=१, ज्ये= १०, क्षे=८
वत्राभ्यासौ ज्येष्टलध्वोस्तदैक्यम्य्त्यादि भास्करोत्त्क या कनिष्टम्=२०, ज्येष्ठम्=१९२, क्षे=६४, तत् इष्टवगंह्रुत: क्षेप इत्यादिनेष्टं = प्रकल्प्य जाता: कनिष्ठज्येष्ठक्षेपाः, कनिष्ठम्=४, ज्येष्ठम्=२४, क्षेपः=१, भावनार्थं न्यासः क= ४, ज्ये =१४, क्षे =१ क= ४, ज्ये = १४, क्षे=१ ततः समासभावनाय क= १२०, ज्ये-११५१, क्षे=१,
ततः कुट्टकेनेष्ट्दिनेहगण: स्यादिति । द्वितीयप्रशने प्रकृतिः = १३, क्षेपः=१, 'तदेष्टं हस्वं तस्य वर्गं' इत्यादि भास्करोक्त्या कनिज्येष्ठक्षेपाः=क=१, ज्ये= ९, क्षे = -२, भावनार्थं न्यासः क्=१, ज्ये= ९, क्षे= -२ क= १, ज्ये= ९, क्षे= -२ ततः समासभावनया कनिष्ठज्येष्ठ क्षेपाः क= १८, ज्ये= १६४, क्षे = ४ अत्रेष्टं = २ प्रकल्प्य 'इष्टवर्गह्रुतः क्षेप' इत्यादिना रूपक्षेपे कनिष्ठज्येष्ठक्षेपाः क=१, ज्ये=८२, क्षे =१ एवं भावनयाऽ नेकवा कनिष्ठज्येष्ठे भवतः । स्रुतः कलाशेषमानम्=१, ततः कुट्टकेनेषटदिनेवऽहगंयए भवेदिति ॥७५॥
श्रब उदाहरणे को कहते हैं। पहले वगं प्रकृति हके उदाहरण कहते हैं ।
हि: भा : - राशिशेषवर्गं को ६२ से गुणा कर एक जोडने से जो होता है उसको वा कला शेष वर्गं को तिरासी ८६ से गुणाकर एक जोडने से जो जो होता है उसके वर्गं को बेधदिन में वर्षं पर्यन्तं करते हुए व्यक्ति गणक हैं इति ॥ १६५ ॥
प्रथमप्रश्ण में प्रकृति = ३२, क्षेप = १, तव 'इष्ठं हृस्वं तस्य वर्ग: प्रकृत्या क्षुणः' इत्यादि भास्करोक्त सूत्र से कनिष्ठ क=१, ज्येष्ठ= ज्ये=१०, क्षपं = क्षे= ८ श्रव भावना के लिये न्यास करते हैं
क= १ , ज्ये= १०, क्षे=८ क=१, ज्ये= १०, क्षे=८
'वज्राभ्यासे ज्येष्ठमध्वोस्तदेवयं' इत्यादि भास्करोक्त सूत्र से क्=१०, ज्ये= १९२, क्षे=६५, श्रव इष्ट =८ कल्पना कर 'इष्टवर्गं हृतः क्षेपः' इत्यादि भास्क्रोक्त सूत्र से क=१०, ज्ये=१६२, क्षे = ६४, श्रव इष्ट =८ कल्पना कर 'इष्टवर्गं हृतः क्षेपः' इत्यादि भास्करोक्त सूत्र से क= ५, ज्ये=२४, क्षे=१, पुनः भावना के लिये न्यास क=५,ज्ये= १४, क्षे=१
क=५, ज्ये=१४, क्षे=१
समास भावना से क= १२०, ज्ये=११५१, क्षे=, श्रतः राशि शेष मान = , भावना से राशि शेष श्रनेकधा होता हैं। तव कुट्टक विधि से श्रभीष्ट दिना में श्रहगणा सुगमता ही से होता हैं। द्वितीय प्रश्ण में प्रकृति = ८३म, क्षे=१, तव 'इष्टं हृस्वं तस्य वर्गः' इत्यादि १२६० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते से क=१, ज्ये==e, क्षे =-२। भावना के लिये न्यास क= १, ज्ये=&, क्षे = -२ क= १, ज्ये=e, क्षे =–२ समास भावना से क=१८, ज्ये=१६४, क्षे=४, अब इष्ट=२ कल्पना कर ‘इष्टवर्गाहृतः क्षपः इत्यादि से क= e, ज्येः -८२, ३ = १ एवं भावना से कनिष्ठ और ज्येष्ठ का आनन्त्य होता है । अतः कलाशेष=€ तब कुट्टक विधि से अभीष्ट दिन में सुगमता ही से अहगं ण होगा इति ॥७५॥
- इदानीमन्यप्रश्नद्वयमाह ।
सूर्यविलिप्तांशेषं पञ्चभिरूनाहतं तया दशभिः । वगं बृहस्पतिदिनं कुर्वन्ना वत्सराद् गणकः ॥७६॥ सु. भा. -सूर्यविलिप्ताशेषं पञ्चभिरूनं पञ्चाहतं च बृहस्पतिदिने वग भवति । वा विलिप्ताशेषं तथैव दशभिरूनं दशभिराहुतं च वर्गो भवतीति प्रश्न मावत्सरात् कुर्वन्नपि स गणकोऽस्तीति । प्रथमप्रश्ने विलिप्ताशेषम् =या । ततः प्रश्नानुसारेण ५ या—२५ अयं वर्ग इष्टवर्गेण समः कृतः। ततः ५ या—२५=इ : या = इ'+२५ । यदि इ८५ तदा या= १० एवं द्वितीयप्रश्ने १० या = १००=इ' :. या= इ'+१०० । यदि इ१० तदा या=२०। विलिप्ताशेषात् कुट्टकेनाहर्गणानयनं सुगं- भम् ।। ७६ ।। वि.भा-सूत्रैविलिप्ताशेषं पञ्चभिर्हीनं पञ्चभिर्णितं व बृहस्पतिदिने वग भवति, वा विलिप्ताशेषं दशभिर्दानं दशभिगुणितं च वर्गा भवतीति प्रश्नोत्तर मावत्सरात कुर्वन् स गणकोऽस्तीति ॥ प्रथमप्रश्ने कल्प्यते विलिप्ताशेषम्=य, तदाऽऽलापानुसारेण ५ (य-५) इष्टवर्गेण समोऽयं वर्गः कृतः ५ (य-५)==इ२=५ य८२५ समयोजनेन ५ य=इ" +२५ पक्षौ पञ्चभिर्भक्तौ तदा य= = इ२+२५ , अत्र यदि इ८५ तदा २५५२५ य । =य८५° =१० । अस्मादहर्गुणज्ञानं सुगमम् । द्वितीयप्ररने आलापानुसारेण १० (य–१०) अयं वर्गे इष्टवर्गेण समः कृतः १० (य-१०)=इकु १०य - १०० उदाहरणानि १२६१ =इ’ समयोजनेन १० य=इ२+१०० अतः य= —इ२+१०० अत्र यदि इ= १० तदा य=१००+१००–२०० = २०, विलिप्ताशेषाऽकुट्टकविधिनाऽहर्गुणज्ञानं सुखेन भवेदिति ।।७६॥ १० अब अन्य दो प्रश्नों को कहते हैं । हि. भा.- सूर्य के विलिप्ता शेष में से पांच घटा कर पांच से गुणा करने से वृहस्पति दिन में वगं होता है । वा उसी तरह विलिप्ता चैष में से दस घटा कर दस से गुणा करने से बृहस्पति दिन में वर्ग होता है इन प्रश्नों के उत्तर एक वर्ष तक करते हुए व्यक्ति गणक हैं इति । प्रथम प्रश्न में कल्पना करते हैं विलिप्ता शेष मान=य । तब प्रश्न के आलापानुसार ५ (य-५) यह वर्ग है, इसको इष्ट वर्गों के बराबर करने से ५ (य-५)=५ य-२५=इ, दोनों पक्षों में २५ जोड़ने से ५ य=इ२+२५ अतः यः —:इ- +२५ , यहां यदि इ८५ तब य=२५ + २५५० = १० इससे कुट्टक विधि से अहर्गणानयन सुगम है । इसी तरह द्वितीय प्ररन में विलिप्ता शेष मान= य, तब प्रश्न के आलपानुसार १० (य-१०)=इ* इ२+१
= १० य-१००, दोनों पक्षों में १०० जोड़ने से १० य=इ२+१०० : य
[सम्पाद्यताम्]. यदि इ=१० तब य९०°२००-३००–२० इससे कुट्टक विधि से प्रहर्गण न सुगम है इति ।।७६। इदानीमन्या प्रश्नानाह भगणविशोषवर्ग त्रिभिर् णं संयुतं शतैर्नवभिः। कृतिमष्टशतोनं वा कुर्वन्नावत्सराद् गणकः ।।७७।। सुः भा–भगणादीनां भगण-राशि-कला-विकलानां शेषवणं त्रिभिर्गुणं नवभिः शतैः संयुतं चाऽष्टशतोनं वर्णमावत्सरात् कुबन्लॅपि स गणकोऽस्तीति । अत्र भगणादिशेषमानम्=:या। ततः प्रश्नालापेन प्रथमप्रश्ने ३ या'+&०० अयं वर्गः । अतः ७० सूत्रेण 5^ $f %00 5 «t t 500 v mfr imimf ^wrs^rfq <wikMt*m i ^cftf% II sf^r q% ^nft^as^o sr^r war. ^ffrs^s^iT: ^=^o, ^=^o, S^=^oo W=H*U ^S^S^TT^T^T^ I cleft f|. 5?T. - wjjTfe ( 5^-TT%-jRr-^rT-f^rT) tr*r tffrr I pr wmmyiK 3 »r*+io« «mnf | I «T|f 515fa=3, t 1^ *W *f 1 jrw^TT a^j:' tsmft % ^=?, w=? w
ब्राह्मस्फुटसिध्दान्ते
१२६२
क १ ज्ये २ क्षे १
क ३० ज्ये ६० क्षे ९००
भावनया कनिष्ठज्येष्ठयोरानन्त्यम्।
श्रतो भगरगादिशेषमानम्==३०। द्वितीयप्रश्नेप्येवम् ।
३ य२--८०० श्रयं वर्गः ।
श्रतः क १ ज्ये १ क्षे २
क २० ज्ये २० क्षे ८००
रूपक्षेपपदाभ्यां भवनयात्रापि पदयोरानन्त्यम्।
श्रतो भगरगादिशेषम्=२०॥७७॥
वि.भा.--भगरगादि(भगरग-राशि-श्रंश-कला-विकला) शेषवर्ग त्रिभिर्गुणं
नवभिः शतैः संयुतं वाSष्टशतोनं वर्गः स्यादित्यावत्सरात् कुर्वन् स गरगकोS-
स्तीति ॥
प्रथमप्रश्ने कल्प्यते भगरगादिशेषप्रमारगम्==य,तदाSSलापेन ३ य२+९००
अयं वर्गः । श्रत्र प्रकृतिः==३ कल्प्यते कनिष्ठम्==१,तदा ज्येष्ठम्==२,क्षे==१,तदा
क्षुणरगः क्षुणरगे तदा पदे इत्यादिनेष्टम्==३० प्रकल्प्य जाताः कनिष्ठज्येष्ठक्षेपाः
क==३०, ज्ये==६०, क्षे==९०० श्रत्र भावनया कनिष्ठज्येष्ठयोरानन्त्यम् । ततो
भगरगादिशेषमानम्==३० ।
द्वितीयप्रश्ने श्रालापानुसारेरग ३ य२--८०० श्रयं वर्गः । श्रत्र प्रकृति==३,
क्षेपः==--८०० कम्प्यते कनिष्ठम्==१,तदा ज्येष्ठम्==१,क्षेपः==--२ श्रत्रापि 'क्षेपः
क्षुणरगः क्षुणरगे तदा पदे, इत्यादिना इष्टम्==२० प्रकल्प्य जाताः कनिष्ठज्येष्ठक्षेपाः
क==२०, ज्ये==२०,क्षे==--८०० रूपक्षेपीयकनिष्ठज्येष्ठाभ्यां तयो (कनिष्ठ-
ज्येष्ठयोः) रानन्त्यम् । ततो भगरगादिशेषमानम्==२०॥७७॥
श्रब श्रन्य प्रश्नों को कहते हैं ।
हि.भा.--भगरगादि (भारग-राशि-श्रंश-कला-विकला) शेष वर्ग कौ तीन से गुरगा
कर नौ सौ जौडने से वर्ग होता है वा श्राठ सौ को घटाने से वर्ग होता है इसको एक वर्ष
पर्यन्त करते हुए व्यत्ति गरगक है । यहां भगरगादिशेष प्रमारग==य, है । तब प्रथम प्रश्न के
श्रतः भगरगादि शेष==३०।
उदाहररगान
द्वितीय प्रश्न में प्रश्न के श्रालापानुसार ३ य २--८०० यह वर्ग है,श्रातः क ==१
ज्ये==१,क्षे==--२।यहां भी 'क्षुणरगे तदा पदे' इस भास्करोक्ति से इष्ट==२०
कल्पना करने से क==२०,ज्ये=२०,क्षे==--८००,यहां भी रूप क्षेपीय पदों से भावना
द्वारा कनीष्ठ श्रौर ऊयेष्ठ श्रनन्त होगा,इसलिये भगरगादि शेष==२० इति॥७७॥
इदानीमन्यं प्रश्नद्वयमाह ।
भगरगादिशेषवगं चतुगुरगं पञ्चषष्टिसंयुक्तम् । षष्टचूनं वा वगं कुर्वन्नावत्सरादू गरगकः॥७८॥
सु.भा.--स्पष्टार्यम्।प्रथमप्रश्ने भगरगादिशेषमानम् =या । ततः प्रश्नानु- सारेरगा ४ या२+६५ श्रयं वर्गः। श्रत्रेष्टम्==२।६०/२=३०।३०+२=३२।३२/२=१६। १३--८।८/२==४।४/४=२।श्रतो भगरगादिशेषम्==२ रुपक्षप- पदाभ्यां भावनयाSSनन्त्यम्। द्वितीयप्रश्नेSप्येवं ४ या२--६० श्रयं वर्गः, श्रत्रेष्टम्==२।६०/२=३०।३०+२=३२।३२/२=१६। १६ २/४=८।श्रतोSत्र भगरगादिशेषम्==८। एवं बुध्दिमता ॠरगक्षेपे गुरगके वर्गे चाधिकसंख्यातः कनिष्ठानयनं कार्यमिति॥७८॥
वि भा --भगरगादिनां (भगरग-राशि-भग-कला-विकलानां) शेषवगं
चतुर्गुणं पञ्चषष्टच युतं वर्गो भवति वा षष्टचा हीनं वर्गो भवतीति-श्रावत्सरात्
कुर्वन् स गरगकोSस्तीति ।
प्रथमप्रश्ने कल्प्यते भगरगदिशेषप्रमारगम्==या, तदा प्रश्नामापानुसारेरग
४य२+६५ श्रयं वर्गः स्यात् । श्रत्र प्रकुतिः=४, क्षेपः=६५, वर्गात्मकप्रकुतौ
कनिष्ठज्येष्ठयोरानयनार्थ 'इष्टभत्त्को द्विधाक्षेप' इत्यादि भास्करोत्त्कसूत्रेरगेष्टं
==५ कल्पनेन जातं कनिष्ठम्==२, रूपक्षेपीयकनिष्ठज्येष्ठाभ्यां भावनवा
SSनन्त्यम्, ततो भगरगादिशेषमानम्==२। द्वितीयप्रश्ने प्रश्नालापानुसारेरग ४य२
--६० श्रयं वर्गः स्यात् । श्रत्रापि 'इष्ट भत्त्को द्विधक्षेप' इस्यादि भास्करोत्तचा
कनिष्ठम्==८, श्रतो भगरगादिशेष मानम्==८ एवं वर्गात्मकप्रकुतोॠरगक्षेपेSधि-
कसंख्यातः कनिष्ठज्ञानं कार्यमिति ॥७८॥
श्रब श्रन्य दो प्रश्नों को कहते है।
हि.भा.--भगरगादि शेष वर्ग को चार से गुरगा कर पैंसठ जोडने से वर्ग होसा है, 5fh SR^cT jffaT |, ^B&Jf W5rrft^THH = ^ |5TT I ff#T SRff SRrT %
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१२६४ ब्राह्मस्फुटसिध्दान्ते
वा साठ घटाने से वगं होता ह्ं इसको करते हुए व्यक्ति गएक हैं । प्रयम प्र२न में कल्पना करते हैं भगएदि शेषमान=य, तब प्र२न के आलापानुसार ४य२+६२ यह वर्ग है, यहां वर्गात्मक प्रकृति=४ है, क्षेप=६२ तब 'इष्टभक्ते द्विधाक्षेपः' इस भास्करोक्त सूत्र से इष्ट=२ कल्पना करने से कनिष्ठ=२, रूपक्षेपीय कनिष्ठ ऑर उयेष्ठ से भावना द्वारा कनिष्ठ ऑर ज्येष्ठ अनन्त होता है, इसनिये भगाएदिशेषमान=२ हूआ । द्वितीय प्र२न मैं प्र२न के थालापानुसार ४ य२-६० यह वगं है यहां भी 'इष्टभक्ते द्विधाक्षेपः' इत्यादि भास्करोक्त सूत्र से कनिष्ठ=६, अतः भगराएदिशेषमान=६ हूआ । एवं वर्गात्मक प्रकृति मैं ऑर ऋराक्षेप मैं अधिक संख्या से कनिष्ठानयन करना चाहिये इति ||७६||
इदानीमन्यं प्र२नमाह ।
इष्टभगरएदिशेषं द्विनवत्यूनं उयशीतिसन् गुरिएतम् । रूपेराए युतं खगं कुर्वन्नावत्सराड् गराएकः ||७६|| सु भा --इष्टभगराएदिशेषं द्विनवतिभि ६२ रूनं कार्यं शेषं न्न्यशीति ८३ संगुरिएतं रूपेरा युतं च वर्गभावत्सरात् कुर्वन्नपि स गराकोअस्तीति । इस्ष्टभगरादिशेषमानम्=या । ततः प्र२नालापेन- ६३ (या-६२)+१=६३ या-६३*६२+१ =८३ या --७६३६+१=८३ या --७६३५ =इ२ या = (इ२+७६३५)/८३ अत्र यदि इ=१ तदा या=६२ इदमेव भगरादिशेषमानम् ||७६||
वी भा इष्टभगरएदिशेषं द्विनवत्या १२ हीनं शेषं न्नयशीति ८३ गुरिएतमेकेन युतं वर्गः स्यादित्वावत्सरात् कुर्वन् स गराकोअस्तीति । कल्प्यते इस्ष्टभगरादिशेषमानम्=य, तदाआलापानुसारेरए ६३ (य-६२)+१=८३ य ८३*६२+१=८३य-७६३६+१=८३य-७६३५ श्रयं वर्गः स्यात् कल्प्यते ८३य-७६३५=इ२ पक्षो ७६३५ युतो तदा ८३य=इ२+७६३५ पक्षो ८३ भक्तो तदा (इ२+७६३५)/६३=य, अत्र यदि इष्टम्=१ तदा य=७६३६/८३=१२ इत्येव भगरादिशेषप्रमानम् ||७९||
अव अन्य प्र२न को कहते हैं ।
हि भा इष्ट भगरादिशेष मैं ६२ घटाने से जो शेष रहता है उसको ८३ से गुरएकर एक जोडने से वर्ग होता हैं एसको करते हुए व्यक्ति गरएक हैं । यहां कल्पना करते हैं भगरादिशेषप्रमानम् =य, तब प्र२न के भालापानुसार् ८३ (य-६२)+१=८३य-७३२६ prr ff?r ihss.ii ^ $0 ' 5^ Yo ^00 ^^ m = «.*(«*+0(«M-l) = srsnfr ^t^t q^TT vrrawssr^ ^p^t i
उदाहरएनि
+१=३य-७६३५ यह वगं है, कल्पना करते है ३य-७६३५=इ^२, दोनों पक्षों में ७६३५ जोड्ने से ३य=इ^२+७६३५, दोनों पक्षों को ३ से भाग देने से (इ^२+७६३५)/३ =य, यहां यदि इ=१ तब १+७६३५/३ = ७६३६/३ = ६२ = य यही भगसादिधेष-मान ह्रुप्रा इति ||७६||
इदानीं प्रश्नद्वयमाह| पधिमासशेषवगं त्रयोवशगुरपं त्रिभिः शतैर्युक्तम् | त्रिघनोनं वा घगं कुवंन्नावत्सरावू गरपकः ||८०|| सु भा -त्रिघनेन सप्तविंशत्योनम् । शेषं स्पष्टार्थम् । अत्राघिमासशेषमानम्=या । ततः प्रश्नालापेन प्रत्र वर्गप्रकृत्या, क १ ज्ये ४ क्षे ३ क १० ज्ये ४० क्षे ३०० अत्र रूपक्षेपपदाभ्यां भावनयाऽऽनन्यं कार्यम् । अत्र कनिष्ट-१० मघिमास शेषमानम् । अत्र यदि क १ ज्ये ३ क्षे ४ । ततः ६८ सूत्रेरा। | रूपक्षेपे कनिष्टम् = (क ज्ये(ज्ये + १)(ज्ये + ३))/२ = (१*३(३^२ +१)(३^२ +३))/२
=(३*१०*१२)/२ = १८० ज्येष्टम् = {ज्ये+२}{((ज्ये+३)(ज्ये+१))/२ -१}
= {३^२+२}{((३^२+३)(३^२+१))/२ -१}
= ११*५६ = ६४६।
एवं रूपक्षेपे पदे प्रसाध्य भावनयाऽऽनन्त्यं कार्यम्।द्वितीयप्रश्नेप्येवम् १३ या - २७ पयं वर्गः।
श्रत: क १ ज्ये ४ क्षे ३
क १ ज्ये २ क्षे ३
भावनया क ६ ज्ये २१ क्षे २७
प्रत्रापि रूपक्षेप पदाभ्यां भावनयाऽऽनन्त्यं कार्यम् ।
प्रत्राधिशेषमानं व्यक्तम् = ६ ||८०|| १२६६
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते वि. भा.-स्पष्टार्थम् । त्रिघनेन सप्तविंशत्या हीनम् । कल्प्यतेऽधिमास शेषप्रमाणम् =य, तदा प्रथम प्रश्ने प्रश्नोत्तया १३ य२+३०० अयं वर्गः स्यात्। अत्र प्रकृतिः= १३, क्षेपः=३००, इष्टं ह्रस्वं तस्य वर्गाः प्रकृत्येत्यादिना क=१, ज्ये=४, क्षे=३ ततः 'झुण्णः क्षुण्णे तदा पदेइति भास्करोत्तये ष्ट=१० प्रकल्प्य जाताः कनिष्ठज्येष्ठक्षेपाः क= १०ज्ये=४०, क्षे=३०० रूपक्षेपीय कनिष्ठ ज्येष्ठाभ्यां भावनया कनिष्ठज्येष्ठयोरानन्त्यम् । अत्र कनिष्ठम्=१०= अधिमासशेषप्रमाणम्=य । अत्र यबि क८१, ज्ये=३, क्षेक्षेः =-४ तदा ‘चतुरूनेऽन्त्य पदकृती येकयुते वधदल’ मित्याचार्योक्त सूत्रेण रूपक्षेपे कनिष्ठम् क.ज्ये (ज्ये२+१) (ज्ये२+३) _१४३ (३२+१) (३२+३) ३४१०x१२ =१८०, तथा ज्येष्ठम् ={ज्ये२+२} (ज्ये२+३) (ज्ये२+१)- }={२ } ३२+ (३+३॥(३२+१) -१ \ =११४५९=*६४९ एवं रूपक्षेपे कनिष्ठ- ज्येष्ठसंसाध्यभावनयाऽऽनन्त्यं कुर्यादिति द्वितीयप्रश्ने प्रश्नालापेन १३ य२-२७ अयं वर्गः स्यात् । अत्र प्रकृतिः=१३, क्षेपः =--२७ इष्टं ह्रस्वमित्यादिना क८१, ज्ये =४, क्षेपः= ३, तथा कनिष्ठम्=१, ज्येष्ठम्=२, क्षेपः =-९ अनयोर्भावनया क८६, ज्ये=२१, क्षेपः =--२७ रूपक्षेपकनिष्ठज्येष्ठाभ्यां भावनयाऽऽनन्यं कार्यम् अत्र कनिष्ठमधिशेषमानम् =६==य ॥८०॥ अब अन्य दो प्रश्नों को कहते हैं । हि- भा." अधिमास शेष वर्ग को तेरह से गुणा कर तीन सौ जोड़ने से वर्ग होता है, वा अघिमास शेष वर्ग को तेरह से गुणा कर सताइस घटाने से वर्ण होता है इसको करते हुए व्यक्ति गणक है इति ॥८०॥ = यहां कल्पना करते हैं अघिमास शेषमान=य, तब प्रथम प्रश्न में प्रश्नालाप से १३य२+ ३०० यह वगं है यहां प्रकृति=१३, क्षेप= ३००, ‘इष्टं ह्रस्वं तस्य वर्गः’ इत्यादि से क–१, ज्ये=४, ३= ३, तब ‘राणः सुराणे तदा पदे’ इस्र भास्करोक्ति से इष्ट=१० कल्पना करने से क= १०, ज्ये=४०, क्षे= ३०० रूपक्षेपीय कनिष्ठ और ज्यैष्ठ से भावना द्वारा कनिष्ठ और ज्येष्ठ की अनन्तता करनी चाहिये। यहां कनिष्ठ=१०=अधिमास शेष प्रमाण=य, हुआ, यहां यदि क-१, ज्ये= ३, क्षेः =-४ तब 'चतुरूनेऽन्त्य पदकृती येक युते’ आचायोंक्त में = क.ज्ये (ज्ये२+१)(ज्ये२+३) इत्यादि ६८ सूत्र से रूपक्षेप कनिष्ठः = २x३(३^२+२)(३^२+३)=३x२०x१२=१o,ज्ये={ज्ये+२} {(ज्ये^२+१)(ज्ये+३)-१}={३^२+२} {(ज्ये^२+)(३^२+३)-१}=११x२६=६४६,एवं रुपक्षेप मे कनिष्ट और ज्येष्ट साषन कर भावना से कनिष्ट की भनन्तता करनी चाहिये| एत्रं द्वितीय प्रष्न मे २३ य^२ - २७ यह् वर्गम् हे, " इष्टम् ह्रस्वम् तस्य वर्गः" इत्यादि से क=१, ज्ये=४, के=३, तथा क=१, ज्ये=२, क्षे=-६ इन् दोनो की समास भावन से क=६, ज्ये=२१, क्षे=-२७ यहा भी रूपक्षेपीय कनिष्टा भ्रोरा ज्येष्टा से भावना द्वारा कनिष्टा भ्रोर ज्येष्टा की प्रनन्तता करनी चाहिये यहां भ्रविमास शोष प्रमाणा=६=य, क्रुष्ट ||एo||
इदानीमन्यप्रष्नद्वयमाह् | इन्द्रविलिप्ता शोषं सप्तवश मुखं त्रयोदषा मुखं चापि | पृथगेकयुतं यमं कुर्वन्नावत्सराधु मखकः ||
सु.भा.- स्पष्टाथेमू | ष्रुथ्र ७१ सूथ्रतः | गु=१७ | गु=१३, ततो विलिप्तशेषम् = १५ | वि.भा. - चन्द्रस्य विलिप्ताशोषं पृथक् सप्तदशगुरिथं, थयोदशरिथं च एकयुतं वर्गं आवत्सरात् कुर्वन् स गएको स्तीति| अत्र मुएक=गु=१७| गुएक:==गु=१३ तदा "गुएकयुतिरिष्टगुरिता गुराकान्तरवर्यभाजिते" त्याध्याचार्योक्तुत्रेए चिमिप्ताषोषम् = १४ १२६८ उदाहरणानि गुणक=गृ=१३, तब ‘शुणकयुतिरिष्टगुणिता गुणकान्तरभाजिता' इत्यादि आचयक्त सूत्र से विलिप्ताशेष= = = =हुँचें ८ (गु+गु) ८ (१७+१३)_८४३० - ८X३० - १७-१३) १६ गग ३० =१५, इति ॥ ८१ ॥ इदानीमन्यं प्रश्नद्वयमाह । अवमावशेषवणं द्वादशगुणितं शतेन संयुक्तम् । त्रिभिरूनं वा वगं कुर्वन्नावत्सराट् गणकः ॥ ८२ ॥ सु. भा.स्पष्टार्थम् । प्रथमप्रश्ने क्षयशेषमानस=या । ततः प्रश्नानुसारेण १२ या' +१०० अयं वर्गः । वर्गप्रकृत्या, क १ ज्ये ४ थे ४ क ५ ज्ये २० क्षे १०० अथ चतुः क्षेप पदाभ्यां ६७ सूत्रेण । रूपक्षेपे क = क (ज्ये'- १) _१ (४- -१)- १५ ज्ये= ज्ये (ज्ये'—३)_ = ¥ (४-३ )=-२६ । आभ्यां भावनयाऽऽनन्त्यं कार्यम् । अत्र क्षयशेषम्=५ । द्वितीय प्रश्नेऽप्येवम् । १२ या'-३ वर्गः । अतः क १ ज्ये ३ को ३ रूपक्षेप पदाभ्यामत्राप्यानन्त्यं कार्यम् । अत्र क्षयशेषम्=१ ४ ८२ ।। वि. आ.-स्पष्टार्थम् । कल्प्यते अवमशेषप्रमाणम् =य, तदा प्रथम प्रश्नाला- येन १२ य'+१०० अयं वर्गेः स्यात् । अत्र प्रकृतिः== १२, क्षेपः= १०० तदाकनिष्ठ १ प्रकल्प्य ‘इष्ट हस्वं तस्य वर्गे’ इत्यादि भास्करोक्तथा ज्येष्ठम् = ज्ये=४, क्षेप:==४ ततः क्रमेण न्यासः क=१,ज्ये=४, क्षेपः =४.अत्रेष्ट'=५ प्रकल्प्य 'क्षुण्णः क्षुण्णं तदा पदे’ इति भास्करोक्तश्च जाताः कनिष्ठज्येष्ठक्षेपाः क=५, ज्ये=२०, क्षे=१००, चतुःक्षेपीय कनिष्ठ ज्येष्ठाभ्यां ‘चतुरधिकेऽन्त्यपदकृतिरित्यादि आचार्योक्तसूत्रेण रूपक्षेपे कनिष्ठम = क (ज्ये२–१) – १४ (४२-१) – १६-१ X १५ उदाहरणानि १२६९ ज्ये (ज्ये–३)_४ (४-) =२ (१६-३)=२४१३=२६ । आभ्यां भावनया कनिष्ठ ज्येष्ठयोरनन्तत्वं विधेयम् । अतोऽवमशेषप्रमाणम् =५=य । द्वितीय प्रश्ने १२ य'—३ अयं वर्गः स्यात् । अत्र प्रकृतिः=१२, क्षेपः==-३ तदेष्ट ट्रस्वमित्यादिना क==१, ज्ये=३, क्ष =-३, रूपक्षपीय कनिष्ठज्येष्ठाभ्यां कनिष्ठज्येष्ठयोरत्राप्यनन्तत्वं विधेयम् । अतोऽवमशेषमानम्=१ ।। ८२ ॥ अब अन्य दो प्रश्नों को कहते हैं। हि- भा.-अवमशेष वर्गों को बारह से गुणा कर एक सौ जोड़ने से वर्ग होता है, वा अवम शेषवगं को बारह से गुणा कर तीन घटाने से वर्ग होता है इनका उत्तर करते हुए व्यक्ति गणक है इति ॥ ८२ ॥ कल्पना करते हैं अबमशेष प्रमाण=य, तब प्रथम प्रश्न के आलापानुसार १२ य'+१०० यह वर्ग है । यहाँ प्रकृति = १२, क्षेप=१०० तब ‘इष्टं हस्वं तस्य वर्ग:’ इत्यादि भास्करोक्त सूत्र से चारक्षेप में क=१, ज्ये=४, २=४, यहाँ इष्ट=५ कल्पना कर ‘सृष्णः कृष्णे तदा पदेइस भास्करोक्ति से क८५, ज्ये=२०, ३=१००, चारक्षेप सम्बन्धी कनिष्ठ और ज्येष्ठ से ‘चतुरधिकेऽन्यपदकृतिः' इत्यादि आचार्योक्त ६७ सूत्र से रूपक्षेप में कनिष्ठ= क (ज्ये११_१x (४-१) १६-११५ ज्ये = ज्येष्ठ — ज्ये (ज्ये'–३)_४ (४९-३) =२ (१६-३)=२४१३= २६ । इन कनिष्ठ और ज्येष्ठ से भावना के द्वारा कनिष्ठ और ज्येष्ठ अनन्त होता है, अतअवमशेषमान= ५= य, हुआ । द्वितीय प्रश्न में १२ य'—३ यह वर्ग है । यहां प्रकृति =१२, क्षेप=--३, 'इष्टं ह्रस्वं तस्य वर्गःइत्यादि से क८१, ज्ये= ३, क्षेः =-३, रूपक्षेपीय कनिष्ठ और ज्येष्ठ से भावना से यहाँ भी कनिष्ठ और ज्येष्ठ की अनन्तता होती है । अत: अवमशेष = १, हुआ इति ।। ८२ ॥ इदानीमन्यं प्रश्नमाह। खदिनेऽर्ककलाशेषं गुरुबिनविकलावशोषयुक्तनम् वर्गे वधं च संकं कुर्वन्नावत्सराद् गणकः ।।८३। सु. भा-बुधदिनेऽर्कस्य यल् कलाशेषं तदुगुरुदिनजेनार्कस्य विकलावशेषेण युक्तसूनं च वगै तथा तयोः कलाविकलाशेषयोर्वधं सैकं च वर्गमावत्सरान् कुर्वन्नपि स गणकोऽस्तीति । १२७० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अत्र ७२ सूत्रेण कल्पित एको वर्गः १६ । अन्यश्च ४ । ततः १६+४=२० । १६-४= १२ । २०+१२ ३२ - २ । अनेन गुणितौ २० । १२ जातौ राशी ४०/२४ ।। २०-१२१६ () अत्र प्रथमं ४० कलाशेषं द्वितीयं लघु २४ विकलाशेषम् । कलाशेषोल् कुट्ट केन बुधदिनेऽहर्गणः साध्यः । विकलाशेषाच्च कुट्टकेन गुरुदिनेऽहर्गणः साध्य इति । प्र३ ॥ वि. भा.--बुधदिने रवेः कलाशेषं यत्तद्बृहस्पतिदिनजेन रवेविकलाशेषेण युतं हीनं च वर्गों तथा कलाविकलाशेषयोर्वधं सैकं च वर्गमावत्सरात् कुर्वन् स गणकोऽस्तीति । वर्गाऽन्यकृतियुतोनस्तत्संयोगान्तरार्धकृतिभक्त' इत्यादि सूत्रेणैको वर्गाः = १६ कल्पितः । द्वितीयश्च=४, तदा १६+४८२० । १६-४८१२ २०+१२ ३२ ३२ == ३ = २। अनेन २०, १२ गुणितौ तदा राशी १६ (२९) भवेतास ४०। २४ अत्र प्रथमं =४०= कलाशेषम् । द्वितीयं=२४=विकलाशेषस् । झलासेषात् बुधदिने कुट्टकेनाऽहर्गणः साध्यःविकलाशेषात् कुट्टकविधिना बृहस्पतिदिनंऽहर्गणः साध्य इति ॥८३॥ ४२ अव अन्य प्रश्न को कहते हैं । हि. भा--बुध दिन में रवि के कलाशेष में बृहस्पतिदिनत्पन्न रवि के विकलाशेष को जोड़ने से और हीन करने से जो वर्ग होता है उस वर्ग को तथा कलाशेष और विकलाशेष के घात में एक जोड़ने से जो वगं होता है उस वर्ग को करते हुए व्यक्ति गएक हैं । यहां 'वर्गाऽन्यकृतियुतोनःइत्यादि आचार्योक्त ७२ सूत्र से एक वर्ग =१६ कल्पना किया, और द्वितीय वर्ग =४ तब आचायक्त ७२ सूत्र के अनुसार १६+४-२० । १६-४= १२ २०+१२L ३२ .३२ (२०. १२) =--२ इससे २०। १२ घृणा करने से दोनों १६ राशिमान होते हैं ४० । २४ इनमें प्रथम राशि=४०=कलाशेष, द्वितीय राशि=२४= विकलाशेष, कलाशेष से दुध दिन में कुट्टक विधि से अहर्गणानयन करना चाहिये, विकला शेष से कुट्टक विधिं द्वारा बृहस्पति दिन में अहर्गणानयन चाहिये। करना ^+^, =ill=y | Yo— Y=-^ = ^ | ^=^Y I Y Y ^ =YcRrl±^?=-iSf-=Yo | Yo-Y=^^ | -^-=?=;, ?^ = ^Y s% ii<syii ff. pfcr f«H«»Sm | fgrere% %spt |>m fcft ^TT:' ST^TCfa^ ^ % Y=^ss ^qfn j, ^ + _ _JV» rYo,Vo-V=^, V = ?S ?^=^Y sfRT: H?=fcf*TT trr, w?r fafer & srpqrrm ^ttt =rrf|% sfa 11**11 . १२७२ ब्राह्मस्फटसिद्धान्त स्तीति द्वितीयः प्रश्नः । । अत्र ७४ सूत्रेण । प्रथमप्रश्ने इष्टं ३ प्रकल्प्य । ६३-१२ ५१ १७+३ २०
- ~= =१७ । ' ' => =१० १० =१०० । १००–६३
३७ इदमेव कलाशेषम् । द्वितीय प्रश्ने इष्टं २ प्रकल्प्य ६०-८ = ५२
[सम्पाद्यताम्]= २६ । २६--२ = - २४ = १२। १२=१४४। १४४+६०=२०४ इदमेव कलाशेषस् ॥८५॥ वि. भा–बुधदिनं रवेः कलाशेषं द्वादशभिः संयुतं वनं कुर्वत्र तथा त्रिषष्टश्च संयुतं च वर्गमावत्सरात्कुर्वन् स गणकोऽस्तीति प्रथमः प्रश्नः। वा तदेव कलाशेषं षष्टया हीनं वगं कुर्वन् तथाऽष्टाभिश्च हीनं वर्णमावत्सरात् कुर्वन् स गणकोऽस्तीति द्वितीयः प्रश्नः । याभ्यां कृतिरधिकोनं तदन्तरं हुतयुतोनमिष्टेनेत्याचार्योक्तसूत्रेण प्रथम प्ररने प्रकलप्य =-–१७, १७+३ = २० ६३-१२ ५१ इष्टं ३
= १०
(१०)'=१००, १००--६३=३७E=कलाशेषम् । द्वितीयप्रश्ने इष्टस्=२ कल्प- यित्वा ६०-८ = ५२ २६ २६२ = = १२। (१२)२=१४४, २४ १४४+६०= २०४८कलाशेषस् ॥८५॥ अब अन्य दो प्रश्नों को कहते हैं । हि- भा–बुध दिन में कलाशेष में बारह जोड़ने से तथा तिरसठ जोड़ने से वर्गको करते हुए व्यक्ति गणक हैं यह प्रथम प्रश्न है । वा कलाशेष में साठ घटाने से तथा आठ घटाने से वर्ग को करते हुए व्यक्ति गणक हैं यह द्वितीय प्रश्न है । याम्यां कृतिरधिकोनं तदन्तरं’ इत्यादि आचायक्त ७४ सूत्र से प्रथम प्रश्न में इष्ट ६३-१२ ५१ १७+३ = ३ कल्पना कर दी = १७, १०, (१०) = १००, १००-६३= ३७=कलाशेष, कलाशेष से खुध दिन में कुद्दक विधि से अहर्गणा ५२ नयन सुगमता ही से हो जायगा । द्वितीय प्रश्न में इष्ट-२ कल्पना कर ६° =- २४ =२६ । २६२८=१२, (१२)= १४४, १४४+६०=२०४८कलाशेष = इससे दुध दिन में कुदृक विधि से अहर्गणनयन करना चाहिये इति ।८५।। उदाहरएनि
इदानीमन्यान् प्ररनानाह ।
इन्दुविलिप्ताशेषाद्रविलिप्ताशेषमंशशेषं वा ।
भ्रथवा मध्यममिष्टं कुर्वन्नावत्सराद् गएकहः ॥८६॥
सु० भा० –––इन्दुविलिप्ताशेषात् रविलिप्ताशेषं वांश़शेषमथवाभीप्टं मध्यमं ग्रहमावत्सरात् कुर्वन्नपि स गएक्क्कोस्तीति प्रश्नक्त्रयम् । प्रक्त्र चन्द्रकलाविकलाशेषात् कुहकविधिनाहर्गएञानं तस्मादभीष्टमध्यमग्रहानयनं रवेः कलांशशेषानयनं च सुगमम् ॥८६॥
वि भा ––– चन्द्रस्य विकलाशेषात् रवेः कलाशेषमंश शषं वा,अथवेष्टं मध्यमं ग्रहं,वत्सरत् कुर्वन् स गएकोस्तीति । त्र प्रश्नत्रयमस्ति । चन्द्रस्य विकलाशेषात् कुहकेनाहर्गएनयनं कार्य तस्मादभीष्टमध्यमग्रहानयनं रवेः कलाशेषानयनमशं शेषानयनं च विधेंयमिति ॥८६॥
ब न्य प्रश्नों को कहते हैं ।
हि भा ––– चन्द्र के विकलाशेष से रवि के कला शेष् को वा त्र्तंशशेष को थवा इष्ट मध्यम ग्रह को करते हुए व्यक्ति गएक हैं,यहां तिन प्रश्न है । चन्द्र के विकलाशेष से कुहक विधि से हर्गएनयन करना चाहिये । उस से भीष्ट मध्यमग्रहानयन,तथा रवि का कलाशेषानयन, शशेषानयन सुगमता ही से हो जायगा इति ॥८६॥
इदानीमन्यान् प्रश्नानाह । जोवविलिप्ताशेषात् कुजमिन्दुं भौमलीप्तिकाशेषात् । रविमिन्दुभागशेषात् कुर्वन्नावत्सराद् गएकः ॥८७॥
सु० भा० ––– गुरुविलिप्ताशेषात् कुजं भौमकलाशेषाच्चन्द्रं चन्द्रभागशेषच्च रविमावत्सरात् कुर्वन्नपि स गएकोस्तीति ।
गुरोविकलाशेषाद्वा भौमकलाशेषादथवा चन्द्रभागशेषात् कुहकेनाहरर्गवएञानं ततोहर्गएदभीष्टग्रहञानं स्फ़्टमेवेति ॥८७॥
वि भा ––– बुहस्पतिविकलाशेषान्मड्५लं,मड्लकलाशेषाच्चन्द्रं,चन्द्रस्यांशशेषाद्रविमावत्सरात् कुर्वन् स गएकोस्तीति । ब्रुहस्पतेविकलाशेषात्,चा मड्५लस्य कलाशेषत् । वा चन्द्रस्यांशशेषात्कुहकविधिनाहर्गएनयनं कार्यम् । तस्मादिष्टमध्यमग्रहानयनं सुगममेवेति ॥८७॥ १२७४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अब अन्य प्रश्नों को कहते है । हि- भा.-वृहस्पति के विकला शेष से मङ्गल को, मङ्गल के कलाशेष से चन्द्र को, चन्द्र के अंश शेष से रवि को करते हुए व्यक्ति गणक हैं इति । बृहस्पति के विकलाशेष से, वा मङ्गल के कलाशेष से, अथवा चन्द्र के ग्रंशशेष से कुट्टक विधि से अहर्गणानयन करना चाहिये, अहर्गण ज्ञान से इष्टमध्यम ग्रहानयन स्पष्ट ही है इति ॥८७॥ इदानीं पूर्वप्रश्नोत्तरमाह । इष्टग्रहेष्टशषाद् घुगणो गतनिरपवत्तं संग णितैः। छेदविनैरधिकोऽस्मादन्यग्रहशेषमिष्टो वा ॥८८॥ सु. भा-इष्टग्रहस्येष्टकलाविकलादिशेषात् कुट्टकविधिना युगणोऽहर्गणः साध्यः । स च गतनिरपवर्तसगुणितैश्छेददिनैरिष्टाहत दृढ़कुदिनैरधिकोऽनेकधा स्यादरमादहर्गणादन्यग्रहस्य कलाविकलादिशेषं वा ऽभीष्टो मध्यमग्रह एव साध्य इति स्फुटमेव सिद्धान्तविदाम् ।८८॥ । वि. भा-इष्टग्रहस्येष्टकलाविकलादिशेषात्कुट्टकरीत्याऽहर्गणः साध्यः स इष्ट गुणितैश्छेददिनैः (दृढ़कुदिनेः) युक्तोऽनेकधा स्यात् । अस्मादहर्गणादन्यग्रहस्य कलाविकलादिशेषं साध्यं वा ऽभीष्टो मध्यम ग्रहः साध्य इति ॥८८॥ अब पूर्व प्रश्न के उत्तर को कहते हैं । हि. भा.- इष्टग्रह के इष्टकलाशेष, विकला शेष आदि से कुट्टक विधि से अह्गेण साघन करना चहिये, उसमें इष्ट गुणित दृढ़कुदिन को जोड़ने से अनेक प्रकार होते हैं । इस अहर्गण से अन्यग्रह के कलाशेष विकलादिश ष साधन करना चाहिये वा अभीष्ट मध्यमग्रह ही । साधन करना चाहिए ।।८८।। इदानीमुद्दिष्टाहुर्गणे ग्रहयोमॅगणदिशेषे ये ते एव पुनः कस्मिन्नहर्गणे भवेतामित्यस्योत्तरमाह । निश्छेदभागहारो ग्रहयोविपरीतौ प्रहयोश्च गणाः। यस्मात् तन्निश्छेदेनोद्धतयोर्लब्धसङगुणितौ ॥८em निश्छेवभागहारो विपरीतौ तद्युतात् पुनस्तस्मात्। शेषे घुगणावेवं श्यादीनां प्राग्वविष्टदिने ॥|०॥ उदाहरणानि १२८४
सु भा-(निश्छेदभागहारौ ग्रहयोर्भगणादिशेषयोर्ध्युगणात्। यस्मात् तन्निश्छेदेनोद्ध्रतयोर्लब्धसंगुणितौ ॥८३॥)
यस्माद् ध्युगणादहर्गणाद् ग्रहयोर्ये भगणादिशेषे भवतस्तयोर्यो निश्छेदभागहार्ौ स्वस्वदृढकुदिनसंज्ञौ तयोनिश्छेदेन महत्तमापवर्त्तेनोद्ध्ृ तयोस्तयोहंढकुदिनसंज्ञौ: सतोर्ये लब्धे ताभ्यां विपरीतौ निश्छेदभागहार्ौ गुणितौ । महत्त मापवर्त्तभक्त्त्तात् प्रथमदृढकुदिन संज्ञाद्यल्लब्धं तेन द्वितीयदृढकुदिनमानं गुण्यंद्वितीयलब्धेन च प्नथमदृढकुदिनमानं गुण्यमित्यर्थ: । एवं समच्छेदौ भवत:। तध्युतात् तस्मात् पूर्वसाधितसमच्छेदेन युतस्तदा योगसमेsहर्गणो पुनस्ते एव ग्रहयोर्भगणादिशेषे भवत इत्यर्थ:। एवं त्र्यादीनां ग्रहाणामिष्टदिने यानि भगणादिशेषाणि तानि पुन: कदेति प्रशनोत्तरं प्राग्वत् कार्यम् । द्वयोनिश्छेदभागहाराभ्यां पूर्ववत् समच्छेदं विधाय नूतनो निश्छेदभागहार: कल्प्य: । पुनरस्य तृतीयदृढकुदिनस्य च लधुतमापवत्त्योsन्वेषणीय: । एवमग्रेsपि कर्म कार्यम् । अंते सर्वदृढकुदिनानां यो लघुतमापवर्त्त्यस्तेन युतोsहर्गणा: कार्य: । योगसमेsहर्गनणो' च पुनस्तान्येव शेषाणि भवन्ति ।
अत्रोपपत्ति:।
यदि ग्रहाणां हढभगणा: भ१,भ२,भ३, हढकुदिनानि च कु१,कु२,कु३,कल्प्यन्ते तथा हढकुदिनानां लधुतमापचर्त्त्यश्च अ ।तदा अ+अह अस्मिन्नहर्गणो हढभगणागुणो हढकुदिनह्रते प्रथमखण्डे निरवयवभगणा लभ्यन्ते ते प्रयोजनाभावाद्यदि त्यज्यन्ते तदोहिष्टाहर्गणाद्यद्भगणाशेषं तदेव अ+ अह अस्मादपि ।आचार्येणात्र द्वयोर्द्वयोनिश्छेदभागहारयोर्महत्तमापवर्त्तनविभक्तयो: सतोर्ये लब्धे ताभ्यामन्योन्यहारौ सङगुण्य लघुतमापवत्त्र्ये एवोत्पादित इति गणितविदां प्रसिद्धमेचेति ॥ ५१-१०॥
वि भा-यस्मात् घुगणात् (अहर्गणात्)ग्रहयोर्ये भगणादिशेषे स्तस्तयोनिश्छेदभागहारौ (स्वस्वहढकुदिनसंज्ञकौ) यौ तयोनिश्छेदेन (महत्तमापवर्त्तनेन) भक्त्तयोर्ये लब्धे ताभ्यां निश्छेदभागहारौ गुणितावर्थात् महत्तमापवर्त्तनभक्तात् प्रथमदृढ़कुदिनसंज्ञकाद्यल्लब्ध तेन द्वितीयहढकुदिनप्रमाणां गुणनीयं,द्वितीयलब्धेन प्रथमदृढ़कुदिमानं गुणनीयमेवं समच्छेदौ भवत: । त्तध्युतात् (पूर्वसाधितादहर्गणात्) पुनस्ते एव ग्नहयोर्भगणादिशेषे भवत:। I पूर्वसाधितसमच्छेदेनोहिष्टाहर्गणौ युतस्तदा योगसमेsहर्गणो पुनस्ते एव भगणादिशेषे भवत:। एवमिष्टदिने त्र्यादीनां ग्रहाणां यानि भगणादिशेषाणि तानि पुन: कदेतिप्रस्श्नोत्तरं पूर्ववत्कार्यम् । द्वयोनिश्छेदांशहाराभ्यां पूर्ववत् समच्छेदं विधाय नवीनोनिश्छेदभागहार: कल्पनीय:। १२७६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते पुनरस्यतृतीयदृढकुदिनस्य च लघुतमापवर्त्यो गवेषणीयः। अग्रेऽप्येवमेव कर्म कार्यम्।अन्ते सर्वेषां दृढकुदिनानां यो लघुतमापवर्त्यस्तेनाहर्गणो युतस्तदा योगतुल्येऽहर्गणे पुनस्तान्येव शेषाणि स्युरिति ॥८९-९०॥
अत्रोपपत्तिः।
यदि ग्रहाणां दृढकुदिनानि क,ख,ग,दृढभगणाः य,र,ल,कल्प्यन्ते,तथा दृढकुदिनानां लघुतमापवर्त्यश्च=प, तदा 'प+अहर्गण' ऽयमहर्गणो दृढभगणगुणो दृढकुदिनभक्तः प्रथमखण्डे निःशेषभगणाः समागच्छन्ति,प्रयोजनभावाते यदि न गृह्यन्ते तदोद्दिष्टादहर्गणाध्यद् भगणशेषं तदेवा 'प+अहर्गण'स्मादपि,द्वयोर्द्वयोदृढकुदिनसंज्ञयोर्महत्तमापवर्त्तनेन विभक्तयोर्ये लब्धी ताभ्यां परस्परं हारौ सङ्गुण्य लघुतमापवर्त्य एव सम्पादित आचार्येणेति॥८९-९०॥ अब उद्दिष्ट में अहर्गण दो ग्रहों के भगणादि शेष जो है वे ही पुनः किस अहर्गण में होंगे इस प्रश्न के उत्तर कोकहते हैं। हि.भा- जिस अहर्गण से दो ग्रहों के जो भगणादि शेष हैं उन दोनों के अपने अपने दृढ कुदिन को महत्तमापवर्तन से भाग देने से जो लब्धिद्वय होता है उन दोनों से विपरीत दोनों दृढकुदिन को गुणा करना चाहिए अर्थात् प्रथम दृढकुदिन संज्ञक को महत्तमाकवर्त्तन से भाग देने से जो लब्धि हो उससे दृढकुदिन को गुणना चाहिए और द्वितीय लब्धि से प्रथम दृढकुदिन को गुणा करना चाहिए,इस तरह करने से समच्छेद होता है। उस से युत पूर्व साधित अहर्गण से फिर दोनों ग्रहों के वे ही भगणादि शेष होते है अर्थात् उद्दिष्टाहर्गण में पूर्व साधित समच्छेद को जोडने से योग तुल्य अहर्गण में पुनः वे ही दोनों ग्रहों के भगणादि शेष होते हैं। इसी तरह तीन् आदि ग्रहों के इष्टदिन् में जो भगणादि शेष हों वे पुनः कब होंगे इस्का उत्तर पूर्ववत् करना चाहिए। दो ग्रहों के दृढकुदिन संज्ञकों से पूर्ववत् समच्छेद करके नये दृढकुदिन कल्पना करना फिर इसके और तृतीय दृढकुदिन के लघुतमापवर्त्य अन्वेषण (खोजना) करना चाहिए,एवं आगे भी क्रिया करनी चाहिए। अन्त में सब दृढकुदिनों के जो लघुतमापर्त्य हो उसके अहर्गण में जोड देना चाहिए तब योगतुल्य अहर्गण में पुनः वे ही शेष होंगे इति॥
उपपत्ति।
यदि ग्रहों के दृढकुदिन क,ख,ग, और दृढभागण य,र,ल कल्पना करते है तथा दृढकुदिन संज्ञकों के लघुतमापवर्त्य= प,तब प+अहर्गण को दृढभागण से गुणाकर दृढकुदिन से भाग देने से प्रथम खण्ड में निःशेष भगण लब्ध होता है, प्रयोजना भाव से यदि उसको छोड देंते हैं तब उद्दिष्ट अहर्गण से जो भगणादि शेष होता है वही प+अहर्गण,इससे भी,आचार्य ने यहां दो ग्रहों के दृढकुदिन को महत्तमपवर्त्तन से भाग देने से जो लब्धिद्वय उदाहरणानि १२७७ होते हैं उन दोनों से परस्पर हारों को गुणाकर लघुतमापत्यं ही उत्पादित किया इति || ५६ - ६० ||
इदानीमन्यान् प्रश्नानाह | द्यु गणमवमावशेषाद्नविचन्द्रौ मध्यमौ स्फुटावथवा | एवं तिथिं ग्रहं वा कुर्वन्नावत्सराद् गणकः ||६१||
सु.भा. -अवमावशेषात् क्षयशेषाद्द्युगणमहर्गणं वा मध्यमौ रविचन्द्रावथ वा स्फुटौ रविचन्द्रौ वैवं तिथिं वा ग्रहमिष्टग्रहं भौमाद्यन्यतममावत्सरात् कुर्वन्नपि स गणकोsस्तीति पञ्च प्रश्ना अत्र ||६१||
वि.भा. - अवमावशेषादहर्गणं वा मध्यमौ रविचन्द्रौ, अथवा स्फुटौ रविचन्द्रौ, वैवं तिथिं वेष्टग्रहं मङ्गलाद्यन्यतममावत्सरात् कुर्वन् स गणकोsस्तीति | अत्र प्रश्नाः सन्ति ||
हि.भा. - जो व्यक्ति अवमवशे से अहर्गण को कहते हैं व मध्यम रवि और् मध्यम चन्द्र को कहते हैं अथवा स्फुट् रवि और चन्द्र को कहते हैं | वा तिथि को कहते हैं वा इष्ट ग्रह (कुजादि ग्रहों में किसी ग्रह) को कहते हैं वे गणक हैं| यहां पांच प्रश्न है इति ||९१||
इदानीमन्यान् प्रश्नानाह| एकदिनमवशेषं यद्गुणमेकं रविचन्द्रभगणोनम्| शुध्यति भूदिनभक्तं व्येकं चान्द्रैस्तदुक्तिरियम् ||६२||
सु.भा. - एकदिनसम्बन्ध्यवमशेषं यद्गुणं येन गुणमेकोनं भूदिनभक्तं शुध्यति वाsवमशेषं यद्गुणं रविभगणोनम् भूदिनभक्तं शुध्यति| वाsवमशेषं यद्गुणं व्येकं चान्द्रैश्चान्द्रदिनैर्भक्तं शुध्यति| अथेयं वक्ष्यमाणा तेषां प्रश्नानानामुक्तिरुत्तरोक्तिरिति ||६२||
वि.भा. - एकदिनसम्बन्ध्यवमशेषं येन गुणमेकहीनं कुदिन भक्तं शुध्यति| वाsवमशेषं येन गुणं रविभगहीनं कुदिनभक्तं शुध्यति| वाsवमशेषं येन गुणं चन्द्रभगणिन हीनं कुदिनभक्तं शुध्यति, वाsवमशेषं येन गुणमेकहीनं चान्द्रदिनैर्भक्तं शुध्यति| इदं वक्ष्यमाणा तेषां प्रश्नानानामुत्तरोक्तिः| अत्र चत्वारः प्रश्नाः सन्तीति ||९२||
अत्र अन्य प्रश्नों को कहते हैं|
हि.भा.- एक् दिनसम्बधी अवमशेष को जिस गुणक से गुणाकर, एक घटाकर १२७८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते कुदिन से भाग देने से निःशेष होता है। वा अवमशेष को जिस गुणक से गणाकर रवि भगण को घटाकर कुदिन से भाग देने से निःशेष होता है । अथवा अवमशेष को जिस गणकाङ्क से गुणाकर चन्द्रभगण को घटाकर कुदिन से भाग देने से निःशेष होता है । वा अवमशेष को जिस गणकाङ्क से गणाकर एक घटाकर चान्द्र दिन से भाग देने से निःशेष होता है । आगे के विषय उन प्रश्नों की उत्तरोक्ति है इति ॥६२।। अथ प्रथमप्रश्नस्योत्तरमाह । इषुशरकृताष्टदिग्भिः १०८४५५ सङ गुणितादवमशेषकाद् भक्तात् । रूपाष्टवेदरसशून्यशरगुणं ३५०६४८१ दिनगणः शेषस् ॥॥३॥ सु.भा. -प्रवमशेषादिषु शरकृताष्टदिग्भिः १०८४५५ सशुणितात् रूपाष्ट वेदरसशून्यशरगुणं ३५०६४८१ भक्ताच्छेषं दिगगणोऽहर्गणो भवति । अत्रोपपत्तिः । कल्पदृढावमानि दिनगणगुणानि दृढावमशेषोनानि कल्पदृढकुदिनहृतानि फलं निरग्न' गतावमानि । अतो दृढकल्पावमानि भाज्यं दृढावमशेषमृणक्षेपं दृढकल्प- कुदिनानि हारं प्रकल्प्य यो गुणः सोऽहर्गणः स्यात् । तत्र लाघवार्थमाचार्येण रूपशुद्धौ शरशरवेदाष्टपंक्तिमितः स्थिरकुटकः कृतः । रूपाष्टवेदादिसंख्या कल्प कक्ष २५०८२५५००० ० == दृढकृदिनानि । तदानयनं चककदि१५७७१६४५०००० – ५००००४५०१६५१ = ५००००४९५५७३६ = ५५७३९ ००००४३१५५८३२& ५००००x&x३५०६४८१ ३५०६४८१ इहृदि अथ प्रसङ्गाद् दृढरविभगणकुदिनानयनं प्रदयंते । । ४३२००००००० ५०००x८६४०० ५००००x&xa६०० १५७७६१६४५०००० ००००X३१५५८३२९ ५००००x&x३५७६४८१ – ५००००४९४३X३२०० ~= ३२०० दृग्भ । एवं ८ ५००००x&X ३४११६८८२७ ११६८८२७ - वृकृदि ५७७५३३००००० = ५००००x११५५०६६ ककृदि १५७७६१६४५०००० ५०००० x ३१५५८३२९ – ५००००४३x३८५.०२२ = ३८५०२२ दृचभ ५००००X३४१०५१६४४३ १०५१४४४३ ॥ हृदि । वि. भा-अवमशेषात् १०८४५५ एभिगुणिता ३५०६४८१ एभिर्भक्तात्, यच्छेषं सोऽहणं णः स्यादिति ॥ उदाहरणानि १२७९ यदि कल्पदृढ़कुदिनैर्बढ़कल्पावमानि लभ्यन्ते तदाऽहग णेन किमित्यनुपातेन समागच्छन्ति स शेष गतावमानि तत्स्वरूपम् = दृकल्यावम¥अहगणcगतावम दृढ़ककुदिन इढ़ावमशे पक्षौ हढ़ावमशे एभिर्हनौ तदा दृढ़कल्पावम अहर्गण दृढ़ककुदिन दृढ़कल्पकृदिन दृढ़ककुदिन इढ़ावमशे _ दृढ़कल्पावम x अहर्गण-दृढ़ावमशे =गतावमानि । अत्र यदि इढ़ककुदिन दृढंककुदिन दृढ़कल्पावमं भाज्यं दृड़ावमशेषमृणक्षेपं दृढ़कल्पकुदिनं हारं कल्प्यते तदा कुट्टकेन योग णः समाग मिष्यति स एवाहंर्गणो भवेत् । अत्राचार्येण लाघवाथं रूपशुद्धौ (ऋणात्मकरूपक्षेपे) १०८४५५ गुणकं प्रकल्प्य स्थिरकुट्टकः कृतः । ३५०६४८१ इति दृढ़कुदिनानि सन्ति तदानयनं क्रियते । कल्पाबम = २५०८२५५०००० – ५००००x५०१६५१ ककुदि १५७७९१६४५०००० ५००००४३१५५८३२९ == ००००x&x५५७३३९ = ५५७३९ = दृढवम । ००००४९४३५०६४८१ ३५०६४८१ दृढ़कुदिन । अथ दृढ़रविभगणदृढ़कुदिनयोरानयनं प्रदश्यंते । करभगण __४३२००००००० - ५०००० ४८६४०० | ककुदिन १५७७९१६४५०००० ५०००० ४३१५५८३२९ ५००००x&x&६०० __००००४९४३X३२०० = ३२०० (५०००० x&x३५०६४८१ ५०००० xxxx ११६८८२७ ११६८८२७ । एवमेव च कल्पभगण__ ५७७५३३००००० - ककुदिन १५७७६१६४५०००० ५००००x११५५०६६ -००००X३x३८५०२२ -३८५०२२ ००००X३१५५८३२९ ५००००X३४१०५१९४४३ १०५१९४४३ _दृढ़ रॉ भगण अब प्रथम प्रश्न के उत्तर को कहते हैं। हेि. भा.-अवमशेष को १०८४५५ इससे गुणा कर ३५०६४८१ इससे भाग देने से शेष अहरौण होता है ।।१३।। उपपति। यदि कल्प दृढ़कृदिन में दृढ़ कल्पावम पाते हैं तो अहर्गण में क्या इस अनुपात से (Prefer) *w stmt | to = JE^x^ = gfp^T^T I^^T^T ^ie+'JKff — ■ ■ r = — 1 ■ ■ ■ > : =1crT^T, TfT
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१२६० ब्राहास्पुदसिद्वान्ते
शोष (शोषहित) गतवम प्रमारगा भ्राता है उसका स्वरुप = श्टकल्पवम * भ्रहग्र्रा / हदकल्पाकुदिन = गतावम + हदावमशै / हदककुदिन दोनोम पक्षो मो हदावमशो/हदककुदिन धटानै सै हदकल्पावम *षहगरागा/ हदककुदिन - हदावमशो / हदककुदिन = हदकल्पवम * षहगरग- हदकल्पकुदिन = गतावम्,यहा यदि हदकल्पादम् को भाग्य, हदावमशोष को धोर हदकमल्पकुदिन को हार माना जाय तब कुद्रुक् बिधि सो जो गुराक् भ्रायगा वहि भ्रायगा वहि भ्रहग्ररा होगा , यहाम् शाचायम नै लाधवाय रुपक्षाप मो १०८४९९ कलपना कर् सिधर् कुट्र्क किया है, ३९०३४५९ यह् हदकदिन है, ईसका भ्रानयन करतो है।
क्लपावम/ कल्पकुदिन = १४०२४४००००/१४७७६१६४४०००० = ४००००*४०१६४१/४००००३१४४३१६
=४००००*६*६*४४७३६/४००००*६*३४०६४१ = ४४७३६/३४०६४५१ = हदावम/हककुदिन हससो भ्रभिष्त सिदि हो हति॥स
सब हदरविबमगरा हदकुदिन का भ्रानयन करत हो।
कल्परत्रिभगराअ/कल्पकुदिन = ४३२०००००००/२५७७६९६४५०००० = ५००००*५६४००/५००००*३२५५३२६ =४००००*६*६६००/५००००*६*३५०६४९ = २००००*६*३*३२००/५००००*६*३*२२६५५२७ =३२००/११६५५२७
=हदरवि सगरगा/हदककुदिन हसि तरह चं कल्पमगराअ/ कल्प कुदिन = ५७७५०००००/११६५५२७
५००००*११५५०६६/५००००*३१५५३२६= ५००००*३*३४०*२२/५००००*३*२०५२४४३
[सम्पाद्यताम्]३४०२२/२०४२६४४३ ५००००*११५५०६६/५००००*३१५५३२६ = ५००००*३*३४०*२२/५००००*३*१०५२६४४३= हद त्व्म् भगरा/ हद कुदिन ॥
हदानीमवमशोषाद्रव्यान्य्नमाह।
जिनरसगोनिदरव ३२४६६२४ गुरपात शासिबसुक्रुतरस्ंभुतराम ३५०६५२ हतात। उदाहरणानि १२८१ _ ३२००x१०८४५५ क्षो-३२००४३५०६२८१ इ - ३४७०५६००० क्षो ११६८८२७ ११६८८२७ -३२००X३ इ -१०८३२०८ +९६ क्षो-6६०० इ अतो दृढभगणशेषम् ११६८८२७ =१०८३२०८ क्षो-११६८८२७ इ, । आचार्येण गुणहरौ त्रिभिः सङगुण्य दृढक्षयशेषसम्बन्धिदृढकुदिनहरे रवेर्भगणशेषम् =३२४e६२४क्षो-३५०६४८१ इ, इदं साधितमत इदं सर्वदा त्रिभिरपवर्यं तदा वास्तवमर्कदृढ़भगणशेषं ज्ञेयम् । यद्याचार्यानीतं भगणशेषं त्रिभिर्नापवर्यं तदा प्रश्नः खिलो ज्ञेय इति सुगणकंभृशं विचिन्त्यम् ।६४।। वि. भाः—इष्टावमशेषात् ३२४९६२४ एभिर्गुणात् ३५०६४८१ एभिर्भक्ता च्छेषंरविभगणशेषं भवेदिति ॥ । अथ पूर्वेसाविताहर्गण = १०८४५५xअवमशे - ३५०६४८१ इ, ततः अहर्गेण xदृढ़रविभगण = भगणात्मकरविः = दिन ३२००x१०८४५५ अवमशे-३२००X३५०६४८१ इ_३४७०५६००० अवमशे_ ११६८८२७ ११६८८२७ ३२००X३ इ १०८३२०८ अवमशे +९६ अचमशे–९६०० इ, अतो दृढ़ ११६८८२७ भगण शेषम् = १०८३२०८ अवमशे-११६८८२७ इ, अत्राऽऽचार्येण हरणको त्रिभिः संगुण्य दृढ़ावमशेष सम्बन्ध हरे रवेर्भगणशेषं साधितम् । तद्रविभगण शेषस्=३२४९६२४ अवमशे-३५०६४८१ इ । तेनेदं सर्वदा यदि त्रिभिरपवर्यं तदैव रविभगणशेषं वास्तवं बोध्यं, यद्याचार्योणानीतं भगणशेषं त्रिभिरपवत्र्यं न भवेत्तदा प्रश्न एव खिलो बोध्य इति ॥९४॥ | -= अब अवमशेष से रवि के आनयन को कहते हैं । हि- भा.-इष्टावमशेष को ३२४६६२४ से गुणाकर ३५०३४८१ इससे भाग देने से जो शेष रहता है वह रवि का भगणदोष होता है इति । उपपत्ति । पूर्वं प्रकार से प्रहर्गेण= १०८४५५ अवमशे-३५०६४८१, अतः प्रहर्गण दृढ़रविभगण ॐ _ = भयणात्मकर
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते
=३२०० * १०८४५५ प्रवमशे- ३२०० * ३५०६४८१ ई = ३४७०५६००० प्रवमशे ------------------------------------- ----------------- ११६८८२७ ११६८८२
- ३२०० *३ इ = १०८३२०८ भवमशे + ६ भवमशे - ६०० इ, प्रतः हढभगराशेष
------------- ११६८८२७ = १०८३२०८ भवमशे - ११६८८२७ इ, यहां प्राचार्य ने गुणकं प्रोर हर को तीन से गुणा कर हढप्रवमशेष सम्बन्धी हढकुदिन हर में रवि का भगणशेष =३२४६६२४ प्रवमशे-
३५०६४८१ इ, यह साधन किया हैं इसलिये सर्वदा इसको तीन से प्रपवर्त्तनीय होना चाहिये तब ही रवि के भगण्णशेष को वास्तव स्रमभना चाहिये अन्यया प्रश्न खिल (प्रशुद्ध) समभना चाहिये ||६४||
इदानीमवशेषात्तिथ्यानयनमाह | गोऽगेन्दुखेश ११०१७६ गुणिताद् भक्तान्नख पक्ष यमरसेषु गुणैः | शेषमवमावशेषात्तिथयो ऽवमशेषकाद्विकलम् ||६५||
सु ़ भा ़़ -प्रवमशेषकाद्विकलं वर्त्तमानतिथेर्भुक्तं मानं साध्यम् | शेषं स्पष्टम् | अत्रोपपत्तिः | चान्द्रेभ्यो यान्यवमानि यच्च तच्छेषं तान्यवमानि तदेव शेषं च सावनेभ्य इति 'सावनान्यवमानि स्युश्चान्द्रेभ्यः साधितानि चेत्' - इत्यादि मिताक्षरायां स्वगोलाघ्याये भास्करेण स्फुटीकृतम् | अतो गतचन्द्रदिनः कल्पावमानि कल्पचन्द्रदिनर्भक्तानि फलं गतावमानि शेष्ं क्षयशेषम् | प्रतः इखादि*कक्षदि | प्रयमभिन्नः |प्रतः क्षयदिनादि भाज्यं क्षयशेषमृणक्षेपं चान्द्रदिनानि हारं प्रकल्प्य ----------- कचादि यः कुहकः साध्यते तान्येव चान्द्रदिनानि गततिथयो भवन्ति | तत्राचार्येण लाघवार्थं रूपविशुद्धो स्थिरकुहकः साघितः स एवावमशेषगुणकः पठितः |प्रथ हढावमचन्द्रदिनञानार्थं न्यासः | कक्षदि = २५०८२५५०००० =५०००० * ५०१६५१ ------ ------------ ----------------- कचादि १६०२६६६०००००० ५०००० * ३२०५६६८० = ५०००० *६ * ५५७३६ = ५५७३६ =हक्षदि प्रतो हढचान्द्रदिनान्येव हर इति सर्वं स्फुटम् | ----------------- ------- ----- ५०००० *६ * ३५६२२० ३५६२२० हचादि
गणितागतमवमशेषम् ५००००*१ अनेन विभज्य लब्धमात्र हढावशेषं सुधीभिर्ञेयमिति |९१़ आर्यायामन्ये येऽवशिष्टा प्रश्नास्तेषामुत्तराणि क्षयशेषादहर्गणमानीय ततोऽहर्गणात् कार्याणि |६२ प्रार्यायां च ये प्रश्नस्ते१२८३ षामुत्तराणि कुट्टकविधिना स्फुटानि । आचार्येणापीह स्फुटत्वात् तेषामुत्त राणि नोक्तानीति ।।३५।। वि. भा.--अवमशेषात् ११०१७९ एतैर्गुणितात् ३५६२२२० एतैर्भक्ताच्छेषं तिथयो भवन्ति, अवमशेषकाद्वत्र्तमानतिथेर्भक्त मानं साध्यमिति । । अत्रोपपत्तिः। ‘सावनान्यवमानि स्युश्चान्द्रभ्यः साधितानि चेत् । सावनेभ्यस्तु चान्द्राणि तच्छेषं तद्वशात्तथेति सिद्धान्त शिरोमणौ प्रतिपादितम् । तेन चान्द्रभ्यो यान्यच मानि तच्छेषं च यत्तदेव शेषमवमानि च सावनेभ्यो भवन्ति, ततः कल्पचन्द्रदिनै ऍदि कल्पावमानि लभ्यन्ते तदा गत चान्द्रदिनैः किमित्यनुपातेन लब्धं गतावमानि कल्पावम x गत चान्द्रदि शेषमवमशेषं तत्स्वरूपम् = -ऋतावम+ कल्पैच एभिर्हनौ तदा कल्पावम xगतचान्द्रदि-अवमशे कल्पचांदिदि_=गतावम’ अत्र कल्पावमानि भाज्यं, अवमशेषमृणक्षेपं कल्पचान्द्रदिनानि हारं प्रकल्प्य कुट्टकेन यो गुणस्तान्येव गतचान्द्रदिनानि गततिथयो भवन्ति । तत्राचार्येण ऋणां स्मकरूप झेपे स्थिर कुट्टकः साधितः स एवावमशेष गुणकः पठितः। अथ दृढ़ावम कल्पावमदि – २५०८२५५०००० दृढ़चान्द्रदिनयोरानयनं क्रियते कल्पचोदितैर्वी०२९९०००००० १६०२९९०००००० ॐ ००००x५०१६५१ = ५००००४९x५५७३९ = ५५७३९ ५००००X३२०५९९८० ००००४९४३५६२२ ३५६२२० अतो दृढ़चान्द्रदिनान्येव हरः सिद्धः । गणितागतमवमशेष ५००००४९ मनेन विभक्त लब्धमत्र दृढ़ावमशेषं बोध्यमिति । ९१ लोके-अवशिष्टा अन्ये ये प्रश्नास्तेषामुत्तराण्यवमशेषादहर्गणं संसाध्य तस्मादहर्गणात्कार्याणि । ९२ श्लोके च ये प्रश्नास्तेषामुत्तराणि कुट्टकयुत्तया कार्याणीति ॥९५॥ अब अवमशेष से तिथि के आनयन को कहते हैं। हि. भा.-अवमशेष को ११०१७e इससे गुणाकर ३५६२२२० इन' से भाग देने से जो शेष रहता है वह तिथि होती है । अवमशेष से वर्तमान तिथि का भुक्तमान खाधन करना चाहिये इति ४५॥ उपपत्ति । चन्द्रदन से साबित अवम और जो अवमशेष होता है नही अवम और अबमदोष १२८४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते सावन से भी होता है ‘गोलाध्याय में सावनान्यवमानि स्युश्चन्द्रभ्यः साधितानि चेद्इत्यादि श्लोक की मिताक्षरा में भास्कराचार्याक्त से स्पष्ट हैअतः कल्प चान्द्र दिन में यदि कल्पा- वम पाते हैं तो गतचन्द्र दिन में क्या इस अनुपात से सशेष (शेष सहित) गतावम आता है। . कल्पावम x गतचांदि। उसका स्वरूप= गतावम+ दोनों पक्षों में कल्पचांदि कल्पचांदि कल्पावम x गतचांदि-अवमशे इसको घटाने से गतावम, यहां यदि कल्पावम को भाज्य, कल्पचादि अवमशेष को ऋणक्षेपकल्पचन्द्र दिन को हार कल्पना की जाय तब कुट्टक विधि से जो गणक होता है वही गतचान्द्रदिन गततिथि होती है। वहां आचार्य ने ऋणात्मक रूप क्षेप में स्थिर कुट्टक साघन किया है वही अवमशेषका गुणक पठित हैं। दृढ़ावम और दृढ़चान्द्र दिन का कल्पावमदि – २५०८२५५०००० ५०००० x५०१६५१ श्रानयन करते हैं कल्पचदि १६०२९६०००००० ५००००X३२०५६८० _५०००० xx५५७३६ - ५५७३६ - दृढ़ावमदि अतः चान्द्रदिन ही हर ५०००० xxx ३५६२२० ३५६२२० दृढ़चांदि सिद्ध हुआ । गणितागत अवमशेष को५००००४९ इससे भाग देने से जो लब्ध होता है वह यहां अवमशेष समझना चाहिये । ११ श्लोक में अवशिष्ट जो अन्य प्रश्न हैं उन सबों के उत्तर अवमशेष से अहर्गण साधन कर उस अहर्गण से करना चाहिये । तथा €२ श्लोक में जो प्रश्न हैं उन सबों के उत्तर कुट्टक विधि से स्पष्ट हैं; आचार्यों ने भी इसी कारण से उनके उत्तर नहीं कहे हैं इति ॥६५॥ इदानीं पुनः प्रश्नान्तरं तदुत्तरं चाह। ए भागकलाविकीयं दृष्ट्वा विकलान्तरं च के दोषे । ऐक्यं द्विधाऽन्तराधिकहीनं च द्विभाजितं शेषे ॥६६॥ सु. भू-भागविकलं भागशेषं । कलाविकलं कलाशेषस् । अनयोरैक्यं तथाऽनयोविकलयोः शेषयोरन्तरं न दृष्ट्वा शेषे ते द्वे के स्त इति प्रश्नः । अथ तदुत्तरमाहैक्यमिति । ऐक्यं द्विधा स्थाप्यमन्तरेणैकत्राधिकमन्यत्र हीनं कार्यं ततो द्विभाजितं दलितं शेषे भवतः । अत्रोपपत्तिः । सङ,क्रमणगणितेन स्टा ।e६। वि. भा–भागविकलो (ग्रंशदोषं) कलाविकलं (कलाओ) एतयोरैक्च (पोगं) तथा विकलान्तरं (शेषयोरन्तरं) दृष्ट्वा ते शेषे के स्त इति प्रश्नः। ऐक्य sfsr%6R"H^==ir, ^mi^r^t, ^fcrfa^+T 33 ~^ — «TRmf5i5^ ^qq^r |tar f 1 m^r^ sNf^ir iftjg - "^fts^prftft fir fa" wfe % ^ t> ^ $t UMwraftT-" fori §t^t arf vnr. hww JT. M W Ri < ?fk 33% 3rTC ^ I I
उदाहरणानि (शेषर्योगं ) स्थानद्वये स्थाप्यमेकत्रान्तरेण युतमन्यत्र हीनं कार्य द्वाभ्यां भक्तं तदा शेषे भवेतामित्युत्तरम् ।
अत्रोपपत्तिः
कल्पयते अंशशेषमानम्=य, कलाशेषमानम्=र, अनयोर्योगः=य+र=यो, तयोरेवान्तरम्=य-र= शृं =(य+र) + (यो-शृं) = य+र+य = २ य यो-शृं/ २ =य तथा यो - शृं= (य+र) - (य-र) = य+र-य+र = २ यो-श्र्ं/२=र, अत आचार्याक्तमुपपत्रभ्र् ॥१६॥
अब पुनः प्रश्नान्तर और उसके उत्तर को कहते हैं ।
हि भा - अंशशेष और कलाशेष का योग तथा उन्हीं दोनों शेषों का अन्तर जान कर वे दोनों शेष क्या हैं यह प्रश्न है । दोनों शेषों के योग को दो स्थानों में रख कर एक स्थान में अन्तर को जोड कर दूसरे स्थान में अन्तर को घटाकर आया करने से दोनों शेषों के मान होते हैं, यह उत्तर है ।
"योगोऽन्तरयुतहीनो द्विहत" इत्यादि से पहले कह चुके हैं, यहां भी 'ऐक्ध द्विधाऽन्तराधिकहीनं' इत्यादि से उसी संक्रमख की प्रक्रिया का पिष्टपेषख करते हैं, सिद्धान्तशेखर में ' योगोऽन्तरेखोनयुतो द्विभक्तः कर्मोदितं संक्रमखाख्यमेतत्' इससे धीपति तथा लीलावती में ' योगोऽन्तरेखोनयुतोऽधितस्तौ राशी स्मृतं संक्रमखाख्यमेतत्' इससे भास्कराचार्य ने भी आचार्योक्त संक्रमख कर्म के सद्दश ही संक्रमख कर्म कहा है इति ॥६॥
इदानीं पुनः प्रश्नान्तरं तदुत्तरं चाह ।
तद्दर्गान्तरमाद्ये तदन्तरं चान्तरोद्धृतयुतोनमृ ।
वर्गान्तरं विभक्तं द्वाभ्यां शेषे ततो द्यु गखः ॥७॥
पु भोः - आद्येऽनन्तरोक्ते प्रश्ने यदि तयोः शेषयोवंर्गान्तरं तथा तयोरन्तरं १२८६
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते चोद्दिष्टं भवेत् तदा वर्गान्तरमन्तरेणोद्धतं लब्धं चान्तरेण युतमूनं च कार्यम् । तत। द्वाभ्यां विभक्त शेषे भवतः। तत भागकलाशेषाभ्यां प्राग्वत् कुट्टकविधिनाऽहर्गणः साध्यः । अत्रोपपत्तिः। विषमकर्मणा स्फुटा ।e७॥ वि. भा.~आधे (अनन्तरोक्त) प्रश्ने यदि तयोः शेषयोर्वर्गान्तरं तथा तयोर न्तरं चोद्दिष्टं भवेत् तदा वर्गान्तरमन्तरेण भक्त लब्धं तयोर्योगो भवेत्, लब्धमन्त रेण युतं हीनं च विधेयं द्वाभ्यां भक्त तदा शेषे भवतः । ततोंऽशकला शेषाभ्यां पूर्ववत् कुट्टकेनाऽहगैणज्ञानं भवेदिति । य कल्प्यते अ शशेषमानम्=य, कलाशेषमान=र, तदा यूरॉ=य+र य–र यो+अ =यो । य-र=अन्तरततः संक्रमणेन :य । = यो-अ =र एतावताऽऽचार्योक्तमुपपन्नम् । अत्रापि ‘वर्गान्तरमन्तरयुतहीनमित्यादि विषमकर्म संज्ञकस्य गणितस्य पिष्टपेषणमेव कृतमाचार्येण ‘वर्गान्तरं स्वान्तर हृद्युतोनं योगो द्विभक्त विषमाख्यकर्म' अनेन श्रीपतिनाऽऽचार्योक्तविषमकर्म सदृशमेव विषमकर्मोक्तम्’ भास्कराचार्येणैतस्य नाम विषमकर्म न कथ्यते; अ शकलाशेषाभ्यां पूर्ववत् कुट्टकेनाहर्गण्णज्ञानं भवेदेवति ॥I९७lt अब पुनः प्रश्नान्तर और उसके उत्तर को भी कहते हैं। हि. भा.–यदि अंशशेष और कलाशेष का वर्गान्तर तथा उन्हीं दोनों का अन्तर उद्दिष्ट है तब वर्गान्तर को अन्तर से भाग देने से जो लब्ध हो उस में अन्तर को युत और हीन कर, दो से भाग देने से अशशेष और कलाशेष होते हैं, इन दोनों शेषों से पूर्ववत् कुट्टक विधि से अहर्गणानयन सुगमता ही से होता है ।।३६। " उपपत्ति । कल्पना करते हैं अथ शशेषमान=य, कलाशोषमान =र, तब य--*==वर्णान्तर, य–र प्र--अन्तर = य+= योग, अब योग और अन्तर ज्ञान से संक्रमण गणित से य, और र विदित हो जायेंगे, तब अ शश ष और कलाश ष ज्ञान से पूर्ववत् कुट्टक विधि से अहर्गेण ज्ञान सुगमता से हो जायगा। यहां आचार्य ने पूर्वोक्त विषम कमॅक्त प्रक्रिया लिख कर विषम कर्म का पिंष्ट पेषण किया हैं ।४७। य-र=अन्तर य
उदाहररााानि इदानीँ रोषयोर्वगंयोग-योगाभ्यां तयोरानयनमाह । कृतिसंयोगाद् द्विगुराााद्यु तिवगं प्रोह्यमूलं यत् । तेन युतोनो योगो दलितः शेषे पृयगभीष्टे ॥६५॥
सु. भा.- एवं भवितुमहंति । यदाऽनन्तरोक्ते प्ररने शेषयोर्वर्गयोगः शेषयोगरचोगः शेषयोगरचोहिष्टो भवत् तद द्विगुरााात् कृतिसंयोगाच्छेषयोर्युतिवगं प्रोह्य शोषस्य थन्मूलं भवते तबभ्र्दागकलाशेष- योरन्तरं भवते तेन योगो युतोनो दलितः पृथगभीष्टे भागकलयोः शेषे भवत श्रत्रोपपक्तिः । अत्रप्ररनानुसारेराा । भारो ^+ करो^=वयु भारो + करो=यु २ भारो^ +२ करो^=२वयु भारो^ +२ भारो * करो + करो^=यु^ , द्वयोरन्तरेराा भारो^ -२ भारो * करो + करो^ =( भारो + करो)^ = वयु-यु^ भारो - करो= /२ वयु-यु^ श्रवशिष्टोपपक्तिः सङ् कमराोन स्फुटा ।६८॥
वि.मा.- यदि पूर्वाेक्तरोषयोर्वर्गयोगः शेषयोगश्र्वोहिष्टो भवेतदा शेषयोर्द्वि- गुराााद्वर्गयोगाच्छेषयोयु तिवगं विशोध्थ शेषस्य मूलं यक्तदंशकलाशेषयोरन्तरं भवेत् तेन योगो युतोनोऽघितस्तदा पृथगभीष्टेंऽशकलयोः शेषे भवेतामिति ॥ श्रत्रोपपक्ति : कल्प्यते संशशेषप्रमाराास् =म , कलाशेषमानम्=र, य^+र^=वर्गयोगः । य+र=युतिः = यु, तदा २ वगंयो=२य^+२र^, (य+र)^=यु^=य^+२य.र +र^ श्रतः २ वर्गयोः – यु^= २ य^+२ र^ - (य^+र य.र+र^)= २ य^ +र र^ - य^ -२ य.र – र^ = य^ + र^ - २य.र = (य - र)^ मूलग्रहराोन /२ वयो – यु^ = य - र= श्रंसशे - कलाशे, ततो विदिताभ्यामंशशेषकलाशेषयो- र्याेगान्तराभ्यां संक्रमराोन ते शेषे (श्रंशकलयोः शेषे) विदिते भवतः एतेन (२) एतस्योक्तरमन्यरीताऽपि भवति , यथा ` वगं योगस्य यद्राश्योयंतिवगं स्य चान्त- रमि ` स्यादि भास्करोक्त सुत्रेराा योग^ - वगं यो = (य+र)^ - (य^+र^)= य^+र य.र
+र^ - य^ -र^ = २ य.र द्वाम्यां गुराानेन २ (योग^ - वगंयो) = ४ य.र ततश्र्वतुगुं राास्य घातस्य युतिवगंस्य चान्तरमि त्यादि भास्करोक्त सूत्रेराा योग - ४घात= य^ + २ य.र + र^ -४ य.र = य^ - २ य.र + र^ = (य - र)^ मूल ग्रहराोन य - र = भ्रन्तरम् ततः संक्रमराोन य, र भ्रनयो नं भवेदिति ॥
सूत्रमुपपत्रम् । अब शेषद्वय के वर्ग योग श्वोर शेषद्वय के श्वानयन को कह्ते हैं । हि भा यदि पूवो्रक्त शेषद्वय का वर्गयोग श्वोर शेषयोग उद्दिष्ट हो तव द्विर्गुनात
वर्गयोग में से शे ष योग वर्ग को घटा कर् जो शे ष हो उसका मूल दोनोम् शेवों का श्वन्तर् होत हैं । योग् में इस् अंतर् को युग् श्वोर हीन कर् श्वाघा कर्ने से दोनों शे षों के प्रमारा होते हैं।
उपपत्ति । कल्पना कर्ते हैं ।
तव शेषद्वय
के योग श्वोर अंतर् ज्ञान से संक्रमरा से शे षों का मान विदित हो जायगा ।इस् प्र१न का उत्तर दूसगी रीति से भी हो सक्ता हैं जैसे वर्ग योगस्य यद्रारयोरित्यदि भस्करोत्क सूत्र से योग
इदानी पुन: प्रशनान्तरस्थोत्तरमाह ।
शेषवधाद् द्विक्रूतिगुरागात शेषंतरवर्ग संयुतान्मूलम् । शेषांतरोनयुक्तम्ं वलित्ं शोधो प्रुयुगभीष्टे
सु भा यदाSनन्तरोथ्क प्र१नै भागकलाशैषयोरंतरं वध्वश्चेति द्वियमुदिप्ट भवेत् सदा द्विक्रुतिगुरात् ।द्वयोर्या क्रुतिवर्गस्तेनाथा्रद्वेदै ग्रुराच्छेषवधाच्छेषांत् रवर्गसम्यु तन्मूलम् ग्र्राह्यम् । तच्छेषान्तरेररोन्ं दलितम् च प्रूथगभीष्टे भागकलाशेषे भवत: । उदहरराानि द्वयोयर्गिनब् भारो +र भारोxकरो=(भारो+कारो)२=(भारो+कारो)२=श्र२+व मुलग्रहराोरन, भारो+ करो= श्र +४व शेषवसना सड क्रमराोन स्पुटा ॥६६॥ चि. भा.--यादि प्र शकलारोषान्तरं घातरचेति द्वयमुहिष्टं भवेत्तदा द्विक्रूतिगुरा।त् (चतुग्रुरा।त्) शेषयोघ्राताछेषान्तरवग॔युतान्मुलं यत्ताच्च्छेषान्तारेरा हिनं युत्तं तदघै प्रुयगभीष्टेंशकला शेषे भदेता मिति ।
श्रत्रोपपत्तिः ।
कल्पयते श्रशशेषभानम्==य, कलाशेषमनम्== र शेषायोरन्तरं=य- र, चतुग्रुरग- घातः == घा श्रन्तर्+४ घात ==(य_र) +४ य.र+ र+४ य.र =य+२ य.र+र==(य+र) मुलग्रहऐन य+र ==योग ।ततःयोग+श्रन्तर।र =य, योग_अन्तर।र=र, बीजगएि।ते चतुगु॔एास्य घातस्य युतिवग॔स्य चान्तरमि त्यादिन भास्कराचाय॔एा रसायोयाैगवघयोञेनाद्रारमन्तरञनायँ विगिः प्रदशितः, श्रत्राचायैएा रास्योरन्तरवघयोञा॔नाद्राशियोगज्जनायँ विघिः प्रदशितः, श्रत्राचायँएा रास्चोरन्तरवघयोजानं क्रुतं वस्तुतोनयोनं कारिचद् भेद् इति ॥९९॥
श्रब पुनः प्ररनान्तर के उत्तर को कहते है । हि. भा.__यदि पुर्वत्त प्रारन में श्रंश शेष श्रौर का श्रान्तर तया उन्ही दोनों
का चतुगुँएिात घात उहिष्टा हो तब शेषान्तर वगे में चतुगुँरिएाित घात को जोड़ कर् जो मुल हो उस में से शेषान्तह्र को हीव श्रौर जोड़ कर श्राधा करने से श्रामीष्ट सा षदय का मान होता है इति ॥६०॥
उपपति ।
कल्पना करते है । श्रशश॓ ष=य, कलश् षा=,दोनों शे षो का श्रन्तर् =श्रं= य__र,चतुगुँ एाघात==४ घा,श्र+४ वा=(य- र )+४य.र=य__र य.र् +र+४ य.र=य+२ य.र=(य+र) मूल लेने से य+ र =वो, तब यो+श्र।र =य, योग-श्रं।र=र, बीजगएिात में चतुग्रएास्य घतस्य युतिवगँस्य चान्तरम् इत्यादि से भास्कराचायँ ने योग श्रौर घात के जान से रासचन्तर जानायँ विधि दिखलाइ॔ यहां श्राचाय॔ ने श्रन्तर श्रन्तर श्रौर् वध के जान से राशियोग सात्र किया है । वस्तुवः इन दोनों में कुछ भेद नहीं इति ॥६६॥॥ ब्राहाफुटसिद्धा
इदानीं छात्रान् स्वव-यं कथयति।
ह्म्मत्रममी प्ररना: प्ररनामन्यानू सह्स्ररा: कुर्यात्। धन्येबेअन्तान् प्ररनानुन्तचैवं स्राधयेत कररगौ:
सु भा -ग्रमी पुवौ- परनारछात्रारगौ ह्र्मत्रं ह्रदये बौधाथमात्रमेवमया लिखिता:।एतान् बुद्र वा बुद्धिमान् सहस्ररौन्यान् प्ररनान् कुयति।एवमुतथा पूवौतथा कराको साधनप्रकारेरचान्यदेतान् प्ररनानपि बुदिमान् साधयेत् प्ररनैअन्तरारग्नि रौष:॥१००॥
वि भा --- अमी पुव्ंकथिता: प्ररना: छात्रारां हम्नात्रं (हदये ज्ञानाथेमात्रभेब्र)मया कथिता:।एतान् ज्ञात्वा प्रतिभावान् सहस्ररन्यान् प्ररनान् कुयत् एवं पुव्रतादा करण:(साधन प्रकार)अन्यिदतान् प्ररनान
प्रतिभावान् साधयेत् (तदुतरारिआ)॥१००॥
श्रब छात्रों को त्र्प्रपना वक्तव्य् कहते हैं।
हि-भा- ये पूर्व् कथित् प्रश्न् समूह् छात्र्ं के ह्रुदय् मे केवल् बोध् के लिये कहे है।इन् प्रश्नों को मिधावी व्यक्ति समभ्त् कर थन्य् हाजारों प्रश्नो को करे, पूर्वोक्त् साधन् प्रकारों से भन्य् से दिये हुए प्रश्नों को भेए बुद्धिमान् साधन् करे श्रर्थात् उत्तर् करे इति॥१००॥
इदानीं प्रश्न्प्रश्ंसामाह्। जन् स्ंसवि वैवविवां तेजो नारायति भानुरिव भानाम्। कुहाकरारप्रश्नैः किं पुन्ः शातशः॥१०१॥
सु-भा-- गराकः कुहाकारप्रश्नैः पठितैरपि जनंसदि गराकजनसभायां दैवविदां तेजो नारायति भानां भानुरिव। पुनः सूत्रैः किं वक्तव्यमस्ति। प्रशनपाठैरेव गराको ज्योतिविदां मध्ये भानुरिव भवति तत्सूत्रज्ञानेन् पुनः किं भवतीति वर्णनातीतमित्यर्थ्ः॥१०१॥
वि-भा- कुहाकारप्रश्नैः पठितैरपि गराको जनसंसदि (ज्योतिवित्स्-भायां) ज्योतिविदां तेजो नारायति यथा सूर्यस्याग्रे नक्षत्रारां।तेजो नष्ट्ं भवति, श्रर्थात्प्रशनपठनमात्रेरौव गराको ज्योतिविदां सँउखे सूर्य् इव भवति तदा पुनःशतश्ः सूत्रादिपाठेव किं भवतीति॥१०१॥ १२९१ अब प्रश्न प्रशंसा करते हैं । हि- भा.-कुट्टाकार प्रश्नों के पठनमात्र से ही गणक ज्यौतिषिकीसभा में ज्यौतिषिकों के तेज को नाशकरते हैं जैसे सूर्य भगवान् नक्षत्रों के तेज (प्रकाश) को नाश करते हैं । अर्थात् प्रश्नों के पठन मात्र ही से गणक ज्यौतिषिकों के मध्य में नक्षत्रों के मध्य में सूर्य की तरह होते हैं तब फिर उन सूत्रों के ज्ञान से क्या होगा अर्थात् उसका वर्णन नहीं हो सकता है इति ॥ १०१ ॥ इदानमध्यायोपसंहारमाह । प्रतिस्त्रसम प्रश्नाः पठितः सोडू शकेषु सूत्रेषु । आर्यायधिकशतेन च कृ दृश्चाष्टादशोऽध्यायः ॥१०२॥ सु. भा–प्रतिसूत्रं मयाऽमी प्रश्नाः पठिताः । एवं सोदाहरणेषु सूत्रेषु आयत्र्यधिकशतेनायं कुट्टक नामाऽध्यायोऽष्टादशः। मधुसूदनसूनुनोदितो यस्तिलकः श्रीपृथुनेह जिष्णुजोक्त । हृदितं विनिघाय नूतनोऽयं रचितः कुट्टविधौ सुधाकरेण । इति श्री कृपालुदत्तसूसँसुधाकरद्विवेदि विरचिते ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त नूतन तिल के कुट्टकाध्यायोऽष्टादशः ॥१८॥ वि. भा--मया प्रतिसूत्रममी पूर्वोक्ताः प्रश्नाः पठिताः । एवमुदाहरण सहितसूत्रेषु आर्यायधिकशतेना (त्र्यधिकशतप्रमिताऽऽय्या) ऽयं कुट्टकनामाऽध्या- थोऽष्टादशोस्तीति । इति श्री ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते कुट्टकाध्यायोऽष्टादशः समाप्तः॥१८॥ अब अध्याय के उपसंहार को कहते हैं। हि. भा-हम ने पूर्वोक्त इन प्रदानों को प्रति सूत्र में पठित किया है । एक स्रौ तीन आर्याओं से जुड़क नाम का यह अठारहवां अध्याय है इति ॥१०२॥ इति ब्राह्म स्फुट सिद्धान्त में अठारहवां (कुट्टक) अध्याय समाप्त हुआ ।१८।। पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/२०१ स्कन्ताः कृच्छछकिचन्नध्य पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/२०३ ब्राह्मस्फटांसंद्धान्तः अथ शंकुच्छायादिज्ञानाध्यायः तत्र प्रथमं प्ररनानाह । दृष्ट्वा विनार्धघटिका योऽर्कज्ञोऽक्षांशकान् विजानाति । उदयान्तरघटिकाभिझतज्ज्ञेयं स तन्त्रज्ञः ॥१॥ सु. भा--योऽर्कज्ञो दिनार्धघटिका दृष्ट्वाऽक्षांशकाल विजानाति। एकग्र हस्योदयाद्यावतीभिर्घटिकाभिरन्यो ग्रह उदेति त उदयान्तरघटिंकास्ताभिर्हयोग ह योर्मध्ये यो ज्ञातो ग्रहोस्ति तस्माज्ज्ञातादपरं ज्ञेयं ग्रहं वा यो विजानाति स एव तन्त्रज्ञः सिद्धान्तविद्याविदित्यहं मन्य इति शेषः ।।१॥ वि. भा--योऽर्कज्ञो दिनार्धघटिका दृष्ट्वाऽक्षांशका विजानाति, उदया- न्तरघटिकाभिः (एकग्रहस्योदयादन्यो ग्रहो यावतीभिर्घटिकाभिरुदेति ता उदयान्तर घटिकास्ताभिः) ग्रहयोर्मध्ये यो ज्ञातग्रहो (विदितग्रहःऽस्ति तस्मादपरं ज्ञेयं ग्रहं वा यो विजानाति स तन्त्रशो (सिद्धान्त शास्त्रवेत्ता) ऽस्तीति ॥१॥ अत्र शछ कुच्छायादि ज्ञानाध्याय प्रारम्भ किया जाता है। उसमें पहले प्रश्नों को कहते हैं। हि- भा.-ओ रवि के ज्ञाता दिनाथं वटी को देख कर अक्षांश को जानते हैं अर्थाव जो व्यक्ति रवि और दिनाउँ घटी से अक्षांश को जानते हैं। वा उदयान्तर घटी (एक प्रह के उदय से दूसरे ग्रह जितनी घटी में उदित होते हैं वे उदयान्तर घटी हैं) से दोनों ग्रहों में जो बिदित ग्रह है उससे शेय ( ज्ञातव्य ) ग्रह को जानते हैं वे सिद्धान्त विद्या के पण्डित हैं इति ॥१॥ इंदानीमन्या प्रश्नानाह । अस्तान्तरघटिकाभिर्यो ज्ञाताज्ज्ञेयमानयति तस्मात् । मध्यगत युगभगणनानयति ततः स तन्त्रज्ञः ॥२॥ sfa iru /£. 977- — 3ft ajfa; TTf-*fa ?fhc ^ % P^HH I H ^ 3fR% | | sfa
ब्राह्मस्फ़्उटसिद्धान्ते
सु भा - एकग्रहस्यानन्तरमएयो ग्रहो यावतीभिर्घटिकाभिरस्तं याति ता पस्तान्तरघटिकास्ताभिर्ज्ञाताच्चैकस्माद्ग ग्रहादन्यं ज्ञेयं ग्रहं य पानयति । तस्मात् स्पष्टज्ञेयग्रहात् मध्यमगतिं मध्यमज्ञेयं ग्रहं य पानयति । ततस्तस्मान्मध्यमज्ञे याद्युगभगखान् तस्य य पानयति स एव तन्त्रज्ञ इति ॥२॥
वि भा - एकग्रहस्यास्तानन्तरं यावतीभिर्घटिकाभिर्द्वितीयग्रहो स्तं याति ता पस्तान्तरघटिकास्ताभिर्ज्ञातादेकस्माद् ग्रहाज्ज्ञेयं ( ज्ञातव्यं ) द्वितीयग्रहं य पानयति । वा तस्मात् स्पष्टज्ञेयग्रहात् ज्ञेयं मध्यमग्रहं य पानयति, तस्मान्मध्यमज्ञेयग्रहातस्य युगभगखान् य आनयति स तन्त्रज्ञोऽस्तीति ॥२॥
पब पन्य प्रश्नों को कहते हैं ।
हि भा - जो व्यक्ति पस्तान्तर घटी ( एक ग्रह के पस्त के बाद द्वितीय् ग्रह् जितनौ घटी में पस्त होता है वह पस्तान्तर घटी है ) से विदित एक ग्रह् से ज्ञेय (ज्ञातव्य) द्वितीय ग्रह को लाते हैं पर्यात् जानते हैं । वा उस स्पष्टज्ञेय ग्रह से मध्यम ग्रह को जानते हैं वा उस मध्यम ग्रह से उसके युग भगख को जानते हैं वे सिद्धान्त विद्या के पण्डित हैं इति ॥२॥
इदानीमन्यान् प्रश्नानाह ।
पानयति यस्तमोरविशशाड्कमानानि दीपकशिगौच्च्यात् । शड्कुतलान्तरभूमिग्याने छायां स तन्त्रग्यः ॥३॥
सु भा - यो राहुरविचन्द्रबिम्बमानान्यानयति । दीपकशिकखौच्च्यात् प्रदीपोच्छ्रितेः शङकुतलान्तरभूमिज्ञाने प्रदीपतलाच्छङ कुमूलान्तरं शङकुतलान्तरम्। तदेव भूमिरिति शङकुतलान्तरभूमिस्तस्या ज्ञाने यश्छायामानयति स एव तन्त्रज्ञः ॥३॥
बि भा - यस्तमोरविशशाक्ङमानानि ( राहुरविचन्द्रबिम्बमानानि ) आनयति, प्रदीपोच्छ्रतेः शङकुतलान्तरभूमिज्ञाने ( प्रदीपतलाच्छङ् कु मूलं यावच्छंकुतलान्तरं तदेव भूमिस्तस्याज्ञाने ) छायामानयति स तन्त्रज्ञोऽस्तीति ॥३॥
पब पन्य प्रश्नों को केहते हैं ।
हि भा - जो व्यक्ति राहु-रवि और चन्द्र के बिम्बमान को जानते हैं । दीपशिखौच्च्य ( दीप की ऊंचाई ) से दीपतल और् शड्क मूल के अन्तर को जानते हैं । शंकुतलान्तर (दीपतल और शङकु मूल के अन्तर) से छाया को जानते हैं वे सिद्धान्त विश्वा के पण्डित हैं इति ॥३॥ शन्कुच्छायादिज्नानाध्यायः इदानेएमन्यं प्रश्नमाह्।
इष्तगृहौच्च्यज्नो यस्तदन्तरज्नो निरीक्षते तु जले। गृहभित्त्यग्रं दर्श्यति दर्पणे वा स तन्त्रन्यः॥४॥
सु भा-य इष्तग्रहौच्च्यज्न प्रात्मस्थनात् तस्य गृहस्थान्तरज्नश्च जले गृहभित्त्यग्रं निरीक्षते वा दर्पणे तगदग्र दर्शयति स एव तन्त्रज्नः॥४॥
हि भा-य इष्तगृहाउच्च्यज्नाता स्वस्थानात्तस्य गृहस्यान्तरज्नाता च जले गृहभित्त्यग्रं निरीक्षते वा दर्पणे तदग्रऑ दर्शयति स तन्त्रज्नोस्तीति॥४॥
इदानीमन्यं प्रश्नमाह।
छायादितीयभाग्रान्तर विज्नानेन वेति दीपौच्च्यम्। शन्कु च्छायाज्नो वा मूमेश्छयां स तन्त्रज्नः॥५॥
सु भा-यः शन्कुछायाज्नः(शन्कोर्ये द्वे छाये ते जानातीति शन्कुछायज्नः)छायाद्वितीयभाग्रान्तर्विज्नानेन छायायाः प्रथमच्छायाया द्वितीय भाग्रस्य द्वितीयच्छायाया यदन्तरं तस्य विज्नानेन दीपौच्च्यं वेत्ति वा भूमेर्भूमिमानाच्छायां वेत्ति स एव तन्त्रज्नः॥५॥
वि भा-यः शन्कुच्छायाज्नः(शन्कोर्ये छये ते जानातीति शन्कुच्छायाज्नः) प्रथम छायाया द्वितीयच्छायायाश्च यदन्तरं तदिज्नानेन दीपौच्च्यं जानाति वा भूमिमानात् छायां जानाति स तन्यत्रज्नोस्तीति॥५॥
इदानीमन्यं प्रश्नमाह।
गृहपुरुषान्तरसलिले यो द्रष्ट्वाग्रं गृहस्य भूमिज्नः। वेत्ति गृहौच्च्यं द्र्ष्ट्वा तैलस्थं वा स तन्त्रज्नः॥६॥ १२९८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते सु. भा.-(गृहपुरुषान्तरसलिले यो दृष्ट्वाऽग्र गृहस्य भूमिज्ञः । वेत्ति गृहौच्च्यं दृष्ट्वा तैलस्यं वा स तन्त्रज्ञः ॥६॥ पुरुष द्रष्टा ग्रहपुरुषयोरन्तरे मध्ये स्थापितं यत सलिलं तस्मिन् जल गृह्यस्याग्रं दृष्ट्वा यो भूमिज्ञो जले यद् गृहाग्रस्य प्रतिबिंब तस्माद्गृहान्तरं नरान्तरं च यत् तमिपदेनोच्यन्ते तज्ज्ञो गृहौच्च्यं वेत्ति वा तैलस्थं गृहाग्रं दृष्टवा यो भूमिशो गृहौच्च्यं वेत्ति स एव तन्त्रज्ञ इत्यहं मन्य इति ।६।। वि. भा. -ोहपुरुषयोरन्तरे स्थापितं यज्जलं तस्मिन् गृहस्याग्रं दृष्ट्वा यो भूमिज्ञो (जले प्रतिबिम्बितस्य गृहाग्रस्य गृहस्य च यदन्तरं नरंतरं च यत्तद्भूमि शब्देन कथ्यते तज्ज्ञाता) गृहच्च्यं जानाति, वा तैलस्थं गृहाग्रं दृष्ट्वा यो भूज्ञिो गृहौच्च्यं जानाति स तन्त्रज्ञोऽस्तीति अत्र पुरुषशब्देन द्रष्टा ज्ञयः ) ।।६॥ । अब अन्य प्रश्नों को कहते हैं। हि. ना-गृह और पुरुष (द्रष्ट) के अन्तर में रखे हुए जल में गृह के अग्र को देखकर जो जल में प्रतिबिम्बित गुहाग्र और गृह के अन्तर और नरान्तर को जानने वाले यहौच्च्य को जानते हैं, वा जो जल में प्रतिबिम्बत ग्रहाग्र और गृह के अन्तर और नरान्तर को जानने वाले तेलस्थित गृहाग्र को देखकर हौच्य (ह की ऊंचाई) को जानते हैं वे सिद्धान्त विद्या के ज्ञाता है इति ॥६॥ इदानीमन्यं प्रश्नमाह। वीक्ष्य गृहागं सलिले प्रसार्य सलिलं पुनः स्वभूखाने । आनयति जलाद्भस्म गृहस्य वञ्च्यं स तन्त्रज्ञः । सु. मा-सलिले गृहाग्रं वीक्ष्य सलिलं च तस्मिन्नेव माग स्थानान्तरै प्रसार्य पुनस्तस्मिन् सलिले गृहाग्रं वीक्ष्यात्मसलिलान्तरे ये वेधद्वये ते स्वसंज्ञ तयोसने जलाद्गृहस्यान्तरं भूमि य आनयति वा गृहस्यौच्यं य आनयति स एव तन्त्रज्ञ इत्यहं मन्ये । विभा–जले गृहस्याग्र दृष्ट्वा जलं च तस्मिन्नव माग स्थानान्तरे प्रसार्य .. पुनस्तस्मिन् जले गृहस्याग्रं दृष्ट्वा स्वस्य जलस्य चान्तरे ये वेधस्थानद्वये ते स्वभू संज्ञके तयोर्जीने गृहजलयोरन्तरभूमिं य आनयति वा गृहस्यौच्च्यं य आनयति स तन्त्रज्ञोऽस्तीति | अब अन्य प्रश्न को कहते हैं । हि. आ-जल में ह के अग्र को देखकर जलको उसी मार्ग में स्थानान्तर (दूसरे शन्कुच्छायादिज्ऩानाध्याय: स्थान)मे फेलाकर फिर उसी जल मे गृह के श्रग्र को देखकर श्रोर जल के भन्तर मे जो बेधद्वय हे उसके ज्ऩान से गृह श्रोर जल की भन्तरभूमि को जानते हे वा गृहोच्च्य( गृह की ऊचाई) को जानते हे वे सिद्धान्त विद्ध्या के पण्डित हे इति ||७||
इदानीम् प्रशनान्तरमाह| ज्नातैश्छायापुरुषैविज्नाते तोयकुड्ययोविवरे| कुड्येर्कतेजसो यो चेत्त्यारूढिम् स तन्त्रज्ञ:॥५॥
सु. भा. - तोयकुड्ययोजम्लभित्त्योविवरेन्तरे विज्ञाते छायापुरुषैज्ञार्र्तै: पुरुषस्यच्छ्रित्या जले तच्छायामानेन च य श्रारूढिम् भित्युच्छ्रितिम् वेत्ति वाsर्कतेजसौsर्कप्रकाशतश्छायादिज्ञानम् विज्ञायरूढिं वेति स एव तन्त्रज्ञ इत्यहं मन्ये ||८||
वि .भा.- तोयकुड् (जलभित्त्यो:) विवरे(श्रान्ते) विज्ञाते छायापुरुषैर्ज्ञाते:(पुरुषस्योच्छ्र्त्या जले तच्छायाप्रमाखेन च य श्रारूढि (भित्त्युच्छ्रिति) जानाति, वा कुड्ये (भितौ) रवै: प्रकाशतछायदिज्ञानम् विज्ञाय भित्युच्छ्रिति जानाति स तन्त्रज्ञोस्तीति
अब् प्रशनान्तर को कहते है। हि. भा. - श्रोर भित्ति(दिवाल) के श्रन्तर को जानकर पुरुषि ऊन्चाई भ्रौर जल मे उसके छायाप्रमाख से जो व्यक्ति भित्ति की ऊन्चाई को जानते है वा भित्ति मे रवि के प्रकाश से छायादिज्ञान जानकर भित्ति की उन्चाई जानते है वे सिद्धान्त विद्या के ज्ञाता है इति ॥ ॥
श्रथ प्रशनानामुत्तराखि। प्रथामम् प्रथमप्रश्नस्योत्तरमाह। इष्टदिवसार्धघटिका पन्चचशान्तरप्राखा:। तद्दिवसचरप्राखातैरक्षम् साधयेत् प्राग्वत्॥६॥ सु. भा.- (इष्ट्दिवसार्धघटिकापन्चदशान्तरघटीभधा: प्राखा:। तद्दिवसचरप्राखास्तैरक्ष साधेयेत् प्रग्वत्॥६॥ पन्चदेशेष्टदिनार्धान्तरघटिनाम् ये प्राखास्ते गोलयुक्त्या चरप्राखा भवन्ति। तश्चरासुभिरर्कात् क्रान्तिज्ञानेन च प्राग्वत् त्रिप्रश्नोत्तराध्यायविधिना यखकोsक्षभक्षोशान् साधयेत् ॥६॥ १३०० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते वि. भा.-इष्टदिनार्धघटी पञ्चदशघट्योरन्तरोत्पन्ना ये प्राणाः (असवः) ते चरासवो भवन्ति, तैः (चरासुभिः) पूर्ववव (त्रिप्रश्नोत्तराध्याय विधिना) असे (अक्षांशा) साधयेद् गणक इति ॥६॥ क्षितिजाहोरात्रवृत्तयोः सम्पाताद्याम्योत्तराहोरात्रवृत्तयोः सम्पातं यावद्दि नार्घम् । उन्मण्डलाहोरात्रवृत्तयोः सम्पाताद्याम्योत्तरवृत्ताहोरात्रवृत्तयोः सम्पातं यावत्पञ्चदश घटिकाः। अनयोरन्तरं क्षितिजाहोरात्रवृत्तयोः सम्पातादुन्मण्डलाहो रात्रवृत्तयोः सम्पातं यावच्चरार्धासवः= दिनार्धघटी० पञ्चदशघटी, अत्र चरार्धा सुरव्योज्ञनेिनाक्षांशज्ञानं क्रियते । रविज्ञानेन जिज्या. रविभुजज्या = क्रांज्या, त्रि अस्याश्चापस्=क्रान्तिः, क्रान्तिज्ञानं जातम्, ततः Vत्रि-क्रांॉज्या' =ञ्च. चरज्याद्य _ =कया, ततः ~=-पलभा, तथा /कज्याक्रांघ्या' कृज्याX १२ ज्या कृज्या. त्रि ==। तदा न=प्रक्षज्या, अस्याश्चापम्=अक्षांशाः, एतेनोत्तरं जात अग्ना अग्न मिति । अब प्रश्नों के उत्तरों को कहते हैं । पहले प्रयम प्रश्न के उत्तर को कहते हैं। हि. भा.-इष्ट दिनाउँ घटी और पञ्चदश (१५) घटी का अन्तर जनित जो असु है वह चरार्धासु है उससे पूर्ववत् (त्रिपदनोत्तराध्यायोक्त विधि से ). अक्षांश साधन करना चाहिए इति । उपपत्ति । यहां किसी इष्ट दिन में रवि और चरासु विदित है, इनसे अक्षांश ज्ञान करते हैं । क्षितिजोहोरात्रवृत्तके सम्पात से याम्योत्तरंवृताहोरात्रवृत्त के सम्पात पर्यन्त दिनाघं घटीहै, तथा उन्मण्डलाहोरात्रवृत्त के सम्पात से याम्योत्तरवृत्ताहोरात्रवृत्त को सम्पात पर्यन्त पञ्चदश (पन्द्रह) घटी है, इन दोनों का अन्तर करने से क्षितिषवृत्त और उन्मण्डल के अन्तर में अहोरात्रा वृत्सीय चाप चरषदी है, यह विदित है, रवि के ज्ञान से . जिज्यारविभुज्या =ांज्या, इसका चाप= क्रान्ति, क्रान्ति ज्ञान से /निळकांड्या' =यु - द्युज्या=तब चरज्या. धु घ्या. १२ ज्य=पलभा, तथा कुर्या'+क्रांज्या'=अग्रा, अतः अग्रा कृज्या त्रि था, शंकुच्छायादिज्ञानाध्यायः १३०१ =अक्षज्या, इसका चाप=अक्षांश, इससे अभीष्ट सिद्धि हो गई इति ।। इदानीमुदयान्तरघटिकाभिस्तथास्तान्तरघटिकाभिरित्यादि- प्रश्नद्वयस्योत्तरमाह । ज्ञातीयग्रहयोरुदयान्तरनाडिकाभिरधिकोनः । उदयैर्जातो ज्ञाताज्ज्ञेयः प्रागपरयोर्जेयः ।।१०।। ज्ञातः सभाधं उदयैरस्तान्तरनाडिकाभिरधिकनः। ज्ञातार्वापरयोर्तेयो भार्बोनके ज्ञेयः ॥११॥ सु. भा. -ज्ञातज्ञेयग्रहयोर्या उदयान्तर घटिकास्ताभिरुदयैः स्वदेशोदयैशंतात् प्रागपरयोः पूर्वपहिचमयोर्जातोऽचिकोनः कार्यः । यदि च यो ज्ञातात् पूर्वदिश्यर्थादन तदा शतमर्की प्रकल्प्य स्वदेशोदयैरुदयान्तरघटीमितेषु क्रमलग्नं ज्ञातात् पश्चिमस्थे च ज्ञेये विपरीतलग्नं यत् स एव स्फुटो ज्ञेयो ग्रहो ज्ञेयः । अस्तान्तरघटीज्ञाने च ज्ञातः सभार्योऽर्कः कल्प्यः अस्तान्तरघटिका इष्टघटिकाः। अत्रापि ज्ञातात् पूर्वंऽग्र ज्ञेये क्रमलग्नं पश्चिमस्थे च विपरीतलग्नं यत् तस्मिन् भाञ्चनके सतिं ज्ञेयो ग्रहो भवतीति । अत्र वासना लग्नानयनवत् सुगमा ॥१०-११ वि. भा.--ज्ञातज्ञयग्रहयोरुदयान्तरघटिकाभिः स्वदेशीयोदयैर्जातात् पूर्व- दिशि स्थिते ज्ञेये तदा शतं रविं प्रकल्प्य स्वदेशीयोदयैः, उदयान्तघटीतुल्ये इष्टकाले क्रमलग्नं यद् भवेत् तथा ज्ञातात् पश्चिमदिशि स्थिते च ये विपरीतलग्नं यद् भवेत् स एव स्फुटो नैयग्रहो वाध्यः । अस्तान्तरघटिकाज्ञाने ज्ञातः षड्राशियुतः कार्यंस्तं रविं प्रकल्प्य, अस्तान्तरघटिकामिष्टकालं प्रकल्प्य ज्ञातात् पूर्वं (नग्न) ज्ञ थे क्रमलग्नं साध्यं ज्ञातात् पश्चिमस्थेज्ञये विपरीतलग्नं साध्यं तत्र षड्राशिहीने सति स्फुटो ज्ञयग्रहो भवतीति ॥ अत्रोपपत्तिर्लग्नानयनवद् बाध्येति ।।१०।। अब ‘उदयान्तर घटिकाभिः’ तथा ‘अस्तान्तर घटिकाभि:’ इत्यादि प्रश्नद्य के उत्तर को कहते हैं । हि- भा–ज्ञात ग्रह से क्षय ग्रह पूर्व (आगे) में हो तब ज्ञात ग्रह को रवि कल्पना कर तथा ज्ञात ग्रह और भय ग्रह का उदयान्तर धटी को इष्ट काल मानकर स्वदेशीय उदय से क्रमलग्न जो हो वही स्फुट लुथ ग्रह होता है, तथा ज्ञात ग्रह से पश्चिम में हो तब विपरीत लग्न जो होता है वही स्फुट सय ग्रह होते हैं । अस्तान्तर घटी के विदित रहने से ज्ञात ग्रह में छः राशि जोड़कर जो हो उसको रवि कल्पना कर अस्तान्तर धटी को इष्टकाल मानकर ज्ञात ग्रह से पूर्व (आगे) में सय ग्रह के रहने से क्रम लग्न जो हो उसमें छः राशि घटाने से १३०२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते स्फुट ज्ञय ग्रह होते हैं। तथा ज्ञात ग्रह से पश्चिम में ज्ञय ग्रह के रहने से विपरीत लग्न जो हो उसमें छः राशि घटाने से स्फुट ज्ञय ग्रह होते हैं इति । उपपत्ति लग्नानयनवत् समझनी चाहिये ॥१०-११॥ इदानीं तस्मान्मध्यगतिं ततो युगभगणान् साधयति य इत्यस्योत्तरमाह । ज्ञातं कृत्वा मध्यं भूयोऽन्यदिने तदन्तरं भुक्तिः । त्रैराशिकेन भुक्तया कल्पग्रहमण्डलानयनम् ।। १२ ।। सु. भा.- एवं स्फुटज्ञेयग्रहात् स्पष्टीकरणविलोमविधिना मध्य ग्रहं ज्ञातं कृत्वा भूयः पुनरन्यदिने च मध्यं ग्रहं ज्ञातं कृत्वा तदन्तरं तयोरन्तरं कार्यमेवं ग्रहस्य मृध्यमा भुक्तिर्भवेत् । ततो भुक्त्या त्रैराशिकेनैकस्मिन् दिने मध्यमा गतिस्तदा। कल्पकुदिनैः किमिति त्रैराशिकेन कल्पग्रहभगणानयनं सुगममिति ।।१२।। वि. भा.-स्पष्टज्ञेयग्रहात् ‘स्फुटं ग्रहं मध्यखगं प्रकल्प्ये' त्यादि भास्करोक्त सूत्रेण स्पष्टीकरणविलोमक्रियया मध्यमं ग्रहं संसाध्य पुनरन्यस्मिन् दिने तेनैव विधिना मध्यमग्रहसाधन कार्य तयोरन्तरमेकदिनजा ग्रहस्य मध्यमा गतिर्भवेत् । ततोऽनुपातेना ‘यद्येकस्मिन् दिने इयं मध्यमा गतिस्तदा कल्पकुदिनैः किम्' न कल्प ग्रहभगणमानानयनं स्फुटमेवेति ॥१२॥ अत्रोपपत्तिर्विज्ञानभाष्यलिखितस दृश्येवेति।।१२॥ अब ‘तस्मान्मध्यगतिं ततोयुत भगणमानयति यः' इसके उत्तर को कहते हैं । हेि. भा..-स्पष्ट ज्ञयग्रह से ‘स्फुटं ग्रहं मध्यखगं प्रकल्प्य' इत्यादि भास्करोक्त सूत्र से स्पष्टीकरण की विलोम विधि से मध्यम ग्रह ज्ञान करके पुनः अन्य दिन में उसी विधि से मध्यम ग्रह ज्ञान करना चाहिये, दोनों मध्यम ग्रहों के अन्तर एक दिन सम्बन्धी ग्रह की मध्यम गति हुई, तब इस मध्यम गति से अनुपात ‘यदि एक दिन में यह मध्यम गति पाते हैं तो कल्प कुदिन में क्या' से कल्प ग्रह भगणानयन स्फुट ही है इति ॥१२॥ इदानीमानयति यस्तमोरविशशाङ्कमानानीत्यस्योत्तरमाह । स्थित्यर्धाद्विपरीत तमः प्रमाणं स्फुटं ग्रहणे । मानोदयाद्रवीन्द्वोर्घटिकावयवेन भोदयतः ॥१३॥ सु.भा.-स्थित्यर्धाद्विपरीतं विपरीतविधिना ग्रहणे स्फुटं तमः प्रमाणं भूभाबिम्बप्रमाणं भवति । अत्रैतदुक्त भवति । स्थित्यर्घ रविचन्द्रगत्यन्तरकला गुणं षष्टिहृतं स्थित्यर्धकला भवन्ति । तद्वर्गाच्छरवर्गयुतान्मूलं मानैक्यार्धकला ?rrat I Sflif % TO *Pt «t5I% & ^TT f«IHI«i ffaT 1 1 Tfa srfc to % fiFsff^ ti frtiiw % xfk srk to W fawiflH ^rmr ^tFh? sprfg; gffsrf^r
शंकुच्छायादिग्यानाध्यायः
स्ताभ्यश्चन्द्र्बिम्बाघं प्रोह्य भूभाबिम्बार्धम् । एवं विपरीतक्रमेण ग्येयमिति । मानोदयाद् घटिकावयवेन भोदयतः स्वदेशराश्युदयतो रवीन्द्वोर्बिम्बमाने ग्येये । यदा प्राकक्षितिजे बिम्बोध्वपालिदर्शनं जातं ततोऽनन्तरं यावता घटिकावयवेनाघ: पालिदर्शनं जातं स घटिकावयो: वेधेन ग्येय:। तत:स्वदेशराश्युदयघटीभि- रष्टादशशकलास्त्दा वेचोपलब्व्घटिकावयवेन किमेवं बिम्बकला रवेश्चन्द्रस्य च भवन्तीति । रविबिम्बस्योव्वघिरप्रदेशौ यत्र क्रान्तिव्रुत्ते लग्नौ तयोरुदयदशनेनैवैवं बिम्बिकला भवन्ति । चन्द्रस्य विमण्डले भ्रमन्ति तेनैवं चन्द्रबिम्बकलाः स्वल्पान्तराद्भवन्ति ।
स्थित्यधाद्विपरीतविधिना ग्रहाए स्फ़्ट्ं तमः प्रमाणं भवत्यथरात् 'षष्टया विभाजिता स्थितिविमददलनाडिके'
'स्थित्यर्घनाडि गुरिता स्वभुत्त्किरि' त्यादि भास्करोत्त्कसूत्रे वा विदितं भवेत्तगयुताच्छरवगार्न्मूलं मानैक्या-
कला भवन्ति, तत्र चन्द्रबिम्बार्धस्य विशोघनेन भूभाबिम्बार्धम भवेदिति, भोदयतः मानोदयाद् घटिकावयवेन
वेवेन घ्यातव । १३०४
ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते से इस तरह बिम्बकला होती है। परन्तु चन्द्र विमण्डल में रहते हैं इसलिये चन्द्र बिम्बकला इस तरह स्वल्पान्तर से होती है इंति ।।१३।। इदानीं दीपखौच्च्याच्छङ, कुतलान्तरभूमिज्ञाने छायां य आनयतीत्य स्योत्तरमाह । दीपतलशङक तलयोरन्तरमिष्टप्रमाणशङ्कं गुणम् । वीपशिखौच्च्याच्छङकं विशोध्य शेषोद्धतं यया ॥१४॥ सु. भा–गणिताध्यायस्य ५३ आयंयमतस्तत्रेव स्फुटा ॥१४॥ । वि. भा–दीपतलशकुतलयोरन्तरं इष्टशङ्कुगुणं दीपशिखौच्च्य शव- न्तरेण भक्त तदा छाया भवेदिति । अत्रोपपत्तिः। अक=दीपशिखौच्च्यम् । क==दीपतलम्। मन= शङ्कुः। न=शङ्कु- तलम् । नप= छाया। नक=दीपतलशङकुतलयोरन्तरम्=मश, म बिन्दुतः कप रेखायाः समानान्तरा मशरेखाऽस्ति। अक–कश =अक–मन= अश=दीपशिखौच्च्य -शङ्कु । तदा अशम, मनप त्रिभुजयोः साजात्यादनुपातः मश Xभन दीपशड् कुतलान्तरxश दीपशिखौच्च्य-शङ्कु। =छाया। सिद्धान्तशेखरे “विशङ्कुना दीपशिखो च्येण शक्झावभीष्टाङ्गुलके विभक्त। प्रदीप शक्वन्तरमाननिघ्ने प्रभाप्रमाणं प्रवदन्ति सन्तः ” श्रीपत्युक्तमिदं लीलावत्यां ‘शङ्कुः प्रदीपतलशङकुतलान्तरघ्नश्छाया भवेद्विनरदीप शिखौच्यभक्तः भास्करोक्तमिदं च आचार्योक्तानुरूपमेवास्तीति ॥१४॥ अब ‘दीपशिखौच्य्याच्छङ्कुतलान्तरभूमिज्ञाने छायां य आनयति ' इस प्रश्न के उत्तर को कहते हैं । हि- भा–वीपतल और यकृतल के अन्तर को इष्टयंकु से गुणा कर शङ्कुहीन । दीपशिखौच्च्य से भाग देने से आया होती है । उपपत्ति । यह संस्कृतोपपति में लिखित (१) चित्र को देखिये । अक=दीपशिखच्च्य । क दीपतल, मन= शङ्कु, न= शङ्कृतल, नप=छाया, नक==दीपतल और शङ्कृतल का = कुच्छायादिज्ञानाध्यायः १३०५
नप
[सम्पाद्यताम्]-- --- -- अन्तर==मश, म बिन्दु से कप रेखा की समानान्तर रेखा मश है । अक---कश==श्रक-मन =दीपशिखौच्च्य – शङ्कु==अश, तब अशम, मनप दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से मश दीप अनुपात । X मन - शकुतलान्तरgशक करते हैं। छाया, इसमे दीपशिखौच्च्य-शङ्कु आचायॉक्त उपपन्न हुआ । सिद्धान्तशेखर में ‘विशङ्कुना दीपशिखोच्छेयेण’ इत्यादि संस्कृत पपत्ति में लिखित श्लोक से श्रीपति ने आचायक्त के अनुरूप ही कहा है लीलावती में ‘शंकुः प्रदीपतलशङकुतलान्तरध्नः’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित पद्य से भास्कराचार्य ने आचार्योंक्त के अनुरूप ही कहा है इति ॥१४॥ इदानीं छाया द्वितीयभागान्तरविज्ञानेनेत्यादि प्रश्नोत्तरमाह । शङ,क्वन्तरेण गुणिता छाया छायान्तरेण भक्ता भूः । स छायाँ शङ, गुणा दीपच्च्यं छायया भक्ता ॥१५॥ सु. भा–छायेष्टस्य कस्यापि शङ्कोश्छायं शझोरन्तरेण शङ्कुसूला- न्तरेण गुणिता छाययोरन्तरेण भक्ता भूर्भवति । सा सच्छाया छायया सहिता शङ्कुगुणा छायया भक्ता च दीपौच्च्यं भवति । श। है और तशि= दीपौच्च्यम् । अ, श,=अ, श, शङकुप्रमाणम् । श, भा=प्रथमशङकुच्छाया भी श–श,4छाअं । , , भा,, भा श, भा,==द्वितीयशङ्कुच्छाया ४ २६ भा श, भा=शङ,क्वन्तरम्= रामं, भाभा,= छायामान्तरम्= भाग्राभं। =श, भा, (श, भा–श, श) =श, भा,-श, भा, + श, श, =छाउं-+शी । ततो यो गणिताध्यायस्य ५४ सूत्रेण । ब्राह्मस्फूटसिद्धान्ते १३०६
(छाऋं+शऋं)/छाऋं = तभा | श, त==तभा-श, भा = (छाऋं+शऋं) श, भा- छाऋं श,भा / छात्र
=शत्रं श भा / छाऋं
त्रत्राचार्येगा तश मानमेव भूसंग्य कल्पितमित्युपपन्नम् । द्वितीवच्छाया ग्रहगोन द्वितीया भूर्भवति। इयं भूः सच्छाया तदा छायाव्यवहारस्य ५४ सूत्रीया भूर्भवति ततो दीपौच्च्यं प्राग्वदिति । ऋत उपपन्नम् ॥१५॥
वि. भा. -- कस्यापीष्टराग्कोरछाया शक् वन्तरेए।
गुएता छाययोरन्तरेए भक्ता तदा भूर्भवति । सा छायया साहिता ---शकुगुएइता,छायया भक्ता तदा दिपोच्च्यं भबतीति ॥१५॥
ऋत्रोपपक्तिः । पश=नख=शगकुद्वयम् । शख=शकु मूलान्तरस्=शग् कवन्तरम् । क्षक=दीपोच्च्यस् । पश=प्रथमशकुः । नख= द्वितीयशकुः । राज = प्रथमच्छाया । खल = द्वितीयच्छाया । जल= छायाग्रान्तरस् । खल---राज = छायान्तरस् ।
खल --(राज-राख) =खल----राज+शख=छायान्तर+शकवन्तर ततो गएताघ्यायस्य ५४ सूत्रेए
प्रथमच्छाया (छायान्तर+शकवन्तर)/छायान्तर = कज, क्षतः कज--शज=कश ।
=प्रथमछाया(छायान्तर+शकवन्तर)/छायान्तर--प्रथमच्छाया ।
=प्रथमच्छाया * छायान्तर+प्रथमच्छाया *शकवन्तर --छायान्तर * प्रथमछाया / छायान्तरे
=प्रथमच्छाया*शकवन्तर/ छायान्तरे = कश = भूः । एवमेव द्वितीयच्छाया.शंकवन्तर/छायान्तर
=कख=भूः । कश + राज=भू+प्रथमच्छाया==कज ==(छायाव्यवहारस्य ५४
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शकुंच्छायादिग्नानध्यायः
सूत्रोक्त भू) | कख+खल=भू+द्वितीयछाया=कल=छायाव्यवहारस्य ५४ सूत्रोक्त भू , लीलावत्यां ' छायाग्रयोरन्तर सङगुणा भा छाया प्रमाणान्तरह्द्भ्- वेद् भूरित्यत्र' भास्कराचार्येणा कज,कल इत्येव भू द्वयं ग्रुहीतम् । ततः अकज, पशज त्रिभुजयोः साजात्यादनुपात:। पश x कज / शज = ( ५४ सूत्रोक्त भू ) x प्रथमशं / प्रथमच्छाया = श्वक=दीपौच्च्यम् । एवमेव श्वकल , नखल त्रिभुजयोः साजात्यात् नख x कल / खल =द्वितीयशं ( ५४ सूत्रोक्त भू ) / द्वितीयच्छाया = दीपौच्ध्यम् एतेनाssचार्योक्त सूत्रमुपपन्नम् ॥१५॥
श्वव 'छाया द्वितीय भाग्रान्तर बिग्नानेन इत्यादि ' प्रश्न के उत्तर को कहते हैं । हि . भा - किसी इष्ट शङ् कु की छाया को शङ् कुद्वय के श्वन्तर (शङ् कुद्वय मूलान्तर ) से गुणा कर छायान्तर से भाग देने से भू होती है , भू में छाया को जोडने से जो हो उसको
शङ् कु से गुणा कर छाया से भाग देने से दीपौच्च्य होता है इति ॥ १६ ॥
उपपत्तिः। यहां संस्कुतोपपत्ति में लिखित (१) चित्र को देखिये । पश = नख=दोनों शङ् कु । शख=शङ् कुमूलान्तर=शङ् क्वन्तर । श्वक=दीपौच्च्य । पश=प्रथमशङ् कु । नख
=द्वितीयशङ् कु । शज=प्रथमच्छाया=प्रछा,खल=द्वितीयच्छाया=द्विछा जल=छायाग्रान्तर, खल-शज=छायान्तर, खल-( शज-शख )=खल-शज+शख=छायान्तर+शङ् क् वन्तर, तब ग ताष्याय के १४ सूत्र से प्रछा ( छायान्तर + शङ् क् वन्तर )/ छायान्तर =कज श्वत्तः कज-शज=कश=प्रछा (छायान्तर +शङ् क् वन्तर) / छायान्तर - प्रछा= =प्रछा.छायान्तर + प्रछा शङ् क् वन्तर-प्रछा छायान्तर / छायान्तर = प्रछा शङ्कवन्तर / छायान्तर =कश=भू । इसीतरह द्विछा शङ्क्वन्तर / छायान्तर = कख = भू । कश+शज = भू +प्रछा =छायाव्यवहार की २४ सूत्रोक्त भू । कख +खल=भू +द्विछा=कल=छायाव्यवहार की २४ सूत्रोक्त भू , लीलावती में 'छायाग्रयोरन्तर सङ् रभा 'इत्यादि श्लोक में भास्कराचार्य कज, कल इन्ही दोनों की प्रथम भू , श्वौर द्वितीय भू कहते हैं । श्वब श्वकज , पशज दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से श्वनुपात करते है । पश. कज / शज = श्वक = (२४ सूत्रोक्तभू) x प्रथमशं / प्रछा =दीपौच्च्य। इसी तरह् श्रकल,नखल दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्वव् से नखXकल/खल =द्वितीयशं(५४ सूत्रोक्त,भू)/द्विछा = दीपौच्य। इस्से धाचायोंक्तम उपपन्न हुथा इति
इदानीम् छायातो गृहादीनामौच्च्यानयनमाह्।
ङ्यात्वाशङूकुच्छायामनुपातात् साधयेत् समुच्छ्रायान्। गृह्चैत्यतरुनगानामौच्च्यं विङ्याय वा छायाम् ॥१६॥
सु.भा.- शङूकुच्छायां ङ्यात्वाअनुपाताद्गृह्चैत्यतरुपर्वतानां समुच्छ्रायान् गराकै: साधयेत्। वा तेषामौच्च्यं विङ्याय तेषामिष्टकाले छायां साधयेत्। इष्ट्काले गृहादीनां छायाप्रमाणं ङ्यात्वा तदैदवेष्टशङ्कोश्च् छायाप्रमाणं विङ्याय श्ङ्कुच्छायया शङूकुप्रमाणं तादा गृहादिच्छायया किम्। एवं गृहादीनामौच्च्यं भवति। औच्च्याच्चैवेमनुपातेन गृहादीनां छायां साधयेत् ॥१६॥
वि.भा.- शङूकुच्छायां ङ्यात्वा, अनुपातात् गृह्चैत्यतरुपर्वतानां समुच्छ्रायान् साधयेज्ज्यौतिषिक्:। वा तेषामौच्च्यं विङ्यायेष्टकाले तेषां छायां साधयेत्॥१६॥
श्रत्रोपपत्ति:।
यदि शङूकुच्छायया शङूकुप्रमारगं लभ्यते तदा गृह्चैत्यवृक्षयवंतानां छायया किमित्यनुपातेन तेषामुच्छ्रिति प्रमारगामागमिष्यति। एवं तेषामौच्च्यङ्यानेन तेषां छायानयनमनुपातेनैव भवति यथा यदि शङूकुनाछाया लभ्यते तदा गृहादीना मौच्च्येन किं समगच्छ्न्ति तेषां छाया प्रमारजगानीति॥१६॥
भव छाया से गृहादियों का भीच्चया(ऊंचाई) नयन कहते हैं।
वि.भा.-शङूकु की छाया जानकर अनुपात से गृहश्रवैत (माटा) वृक्ष्, पवैत इन सबों प्री उच्छ्रिति(ऊंचाई) को गारगक साधन करे, वा उन सबों की उच्छ्रिति जानकर उन सबों की छाया साधन करे इति ॥१६॥
उपपत्ति
यदि शङूकुछाया में शङूकु प्रसारग पाते हैं तो गृह्-वैत्य-वृक्ष-पबंतो की छाया में क्या इस भनुपात से उन सबों की ऊंचाई के मान आजायगा। यदि उन गृहादियों की ऊंचाई शंकुच्छायादिज्ञानाध्यायः १३०९ से उन सब का छायानयन करना हो तो ‘यदि शङकु में इष्टछाया पाते हैं तो गृहादियों के औच्च्य में क्या इस अनुपात से गुडादियों के छायाप्रमाण आते हैं इति ।।१६। इदानीमिष्टगृहौच्च्यज्ञो य इत्यादि प्रश्नोत्तरमाह। युतदृष्टिगृहौच्यहृता ह्यन्तरभूमिट्टी गौच्च्यसङ, गुणिता । फलभूयंस्ते तोये प्रतिरूपाग्नगृहस्य नरात् ।१७। सु. भा.--ण-हस्य नरस्य च मध्ये याऽन्तरभूमिः सा दृगौच्च्येन दृष्टयच्छुित्या सङगुणिता युतदृष्टिग हौच्च्यहृता च्छुितिसंयुतगहोच्छुिट्या दृष्टयं हृता । यत् फलं प्राप्तं तन्मिता भूत्रैराद्गृहाभिमुखी या तत्र तोये जले न्यस्ते तस्मिन् गहस्य प्रतिरूपाग्रमग्रस्य प्रतिबिम्बं दृश्यं भवेदिति । ग न = गहनरान्तरभूमिः । =अक ग उ = गहौच्च्यम् । प्र=जलम् । न दृः = ॐ दृगौब्यम् । तदा ज्योतिविद्यया गहनप्रति बिम्बं चेद् ६ - दृष्ट्या दृश्यं तदा < ग
न प्र उ= <न प्र दृ । अतः ग उ==ग, अअः
[सम्पाद्यताम्]न कं । दृ क= न दृ+ग उ । दृ अ क, दृ प्र ––Jॐ न त्रिभुजे च सजातीये । ततः प्र न । छ झ––– अक X द्वान हुन । अत उपपन्नम् ॥१७॥ । वि. भा. -नरात् (द्रष्टु) गृहस्यान्तरभूमिरर्थाद् गृहनरयोर्मध्ये या भूमिः सा दृष्टघु च्छूित्या गुणिता दृष्ट्युच्छुितियुतहौच्यभक्ता यत्फलं लब्धं भवेत् नराद् गृहाभिमुखं तन्मितभूमौ स्थापिते जले गृहाग्रस्य प्रतिबिम्बं दृश्यं भवेदिति । गृहौच्च्यम् । वश== दृगच्च्यम् । नश म=जलम् । लव= गृहनरान्तरभूमिः= रय, गृहाग्रप्रतिबिम्बं यदि श । दृष्टया दृश्यं भजब भवेत्तदा ज्योतिविद्यायाः पतितपरावतित कोणसाम्यं भवतीति सिद्धान्तात् < लमस c८------------J =<वमश तथा <- रमल = << वमरा, १३१० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते <मलर=<मलस=६० अतः रमल, लमस त्रिभुजद्वये तुल्ये (र.प्र.ल-२६ क्षे) तेन लस= लर= वय । अत: यश==वश +लस शरय, शमव त्रिभुजयोः साजात्याद रय.श = वम अत उपपन्नमाचार्योक्तमिति ॥१७॥ अब ‘इष्टग्रहौच्च्यशो यः' इत्यादि प्रश्न को उत्तर कहते हैं । हि- भा.-गृह और नर (द्रष्टा) के मध्य में जो अन्तर भूमि है उसको दृष्टि की उच्छिंति (ऊंचाई) से गुणा कर ग्रह की उच्छूितियुत दृष्ट्युच्छिंति से भाग देने से जो लब्ध हो ततुल्य भूमि नर से चूह की तरफ (ग्रहाभिमुख) जो हो वहां जल को स्थापन करने से उस जल में गृह के अग्न के प्रति बिम्ब दृश्य होता है इति ।।१७।। उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (१) चित्र को देखिये । लस=हौच्च्य, वश=दृगौ उच्य, दृष्टि की ऊंचाई, म=जल, लब= गृह और नर की अन्तर भूमि= रय, गृह के अग्र का प्रति बिम्ब यदि श दृष्टि से दृश्य होता है तब ज्योतिविधी के पतित कोण और परातत कोण की तुल्यता सिद्धान्त से ८लमस=Zवमश तथा रमल=<वमश, मलर= मलस=६० । इसलिये रमल, लमस दोनों त्रिभुज सर्वथा तुल्य हुए (ने.है) प्र.अ. २६ अत: लस=लर= वय, तथा यश=वश+लस, शरय, शमव दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं यव , =वमअतः आचार्योंक्त उपपन्न हुआ इति ॥१७॥ इदानीं गृहपुरुषान्तरसलिले यो दृष्ट्वेत्यादि प्रश्नोत्तरमाह गृहपुरुषान्तरसलिले वीक्ष्य गृहाणे इंगौच्च्य सङगुणितम् । गृहतोयान्तरमौल्यं गृहस्य नृजलान्तरेण हृतम् ॥१८॥ सु. भाऊ हपुरुषयोर्मध्येयत् सलिलं स्थापितं तस्मिन् ग-हारौ वीक्ष्य यदि गृहौच्च्यमपेक्षितं तदा गहुतोयान्तरं दृगच्च्यसङगुणितं नृजलान्तरेण हृतं फलं ग्रहस्यौच्च्यं भवेत् । अत्रोपपत्तिः । पूर्वश्लोक क्षेत्रे राहतोयान्तरम्गप्र =। नृजलान्तरम्=प्र न। प्र ग्र उ, दृ न प्र त्रिभुजे च सजातीये ततः=ग उ रा, टु अत ।१८। प्रॐ न उपपद्यते । प्र न वि. भा.-गृहपुरुषान्तरे स्थापिते जले गृहाग्रं दृष्ट्वा यदि गृहौच्च्यज्ञानम भीष्टं तदा गृहजलान्तरं दृगौच्च्य (दृष्टयुलुझाय) गुणितं भक्त पुरुषजलान्तरण तदा लब्धं गृहस्यौच्छ यं भवेदिति । बकुछायादिज्ञानाध्यायः १३११ अत्रोपपत्तिः । अत्र पूर्वश्लोको (१७) पपत्तौ लिखितं क्षेत्रं द्रष्टव्यम् । लस= गृहौच्च्यम् । वश= दृगौच्च्यम् । लव-गृहपुरुषान्तर भूमिः, म-जलम् । तदा सलम, शमव त्रिभुजयोः साजात्यादनुपातः वश xलम लसॐ ढंगौच्च्यxगृहजलान्तर = गृहौच्च्यम् । एतेनोपपन्नमाचार्योक्तस् ।।१८॥ अब ‘गृहपुरुषान्तर सलिले यो दृष्ट्वागं' इत्यादि प्रश्न के उत्तर को कहते हैं । हि. भा-गृह और पुरुष के मध्य भूमि में स्थापित जल में गृह के अग्न को देख कर यदि गृहौच्च्यज्ञान अपेक्षित हो तब यह और जल के अन्तर को दृगौच्च्य (दृष्टि की उच्छुिति) से गुणा कर पुरुष और जल के अन्तर से भाग देने से लब्ध ग्रहौच्च्य होता है इति । उपपत्ति । = यहां पूर्वं श्लोक (१७) की संस्कृतोपपत्ति में लिखित (१) क्षेत्र को देखिये । लस= गृहौच्च्य, वश=दृगौच्च्य। लव =गृह और पुरुष का अन्तर, म=जल, तब सलम और शवम दोनों त्रिभुजों में सजातीयत्व से अनुपात करते हैं वशलस
=सल
[सम्पाद्यताम्]हगौञ्च्य.गृहजलान्तर = गृहौच्च्य, इससे आचायाँक्त सूत्र उपपत्र हुआ ।।१८।। पुरुषजलान्तर इदानीं वीक्ष्य गृहाग्नसलिले प्रसार्योटैयादि प्रश्नोत्तरमाह। प्रथमद्वितीय नृजलान्तरान्तरेणोद्धता जलापसृतः । दृगौच्च्य गुणोल्झायस्तोयान्नृजलान्तरगुणा भुः ॥१६॥ सु. भा-–यत्र प्रथमं जले ग-हाग्रप्रतिबिंब नरेण दृष्टं तत्र यन्नृजलान्तरं तत्र प्रथमं ज्ञेयम् । एवं द्वितीयं नृजलान्तरं जानीयात् । ततो जलापसृतिर्जलयोरन्तरे भूमिः सा प्रथमद्वित्तीयनृजलान्तरयोरन्तरेणोद्धता लब्धिद्विध स्थाप्या । एकत्र दृगौच्च्यगुणा तदा गृहोच्छुायः स्यादन्यत्र नृजलान्तरेण गुणा तदा तोयाग हत लपर्यन्तं भूभूमिः स्यात् । ब्राह्यस्फुटसिद्धान्ते
त्रोपपत्तिः ।
स्रु ग=ग उ=ग होच्च्यम् । ज ज प्रथम द्वितीय जलस्स्थाने । न न प्रथमद्वितीयनरस्थाने । ग क=न ह=न ह=हगोच्च्यम् । ज ज=जलान्तरम्=जलापसृतिः । न न=ह ह=नरान्तर । द्वयोरन्तरम्=न न-- ज ज=न न--(ज न+न ज)= न न--न ज--ज न=ज न--ज न ।
स्रु ज ज स्रु ह ह सजातीय त्रिभुजयोः क्रमेए स्र ग स्र क बहिलम्बः ।
स्र क ह ह स्र क-स्र ग क ग ह ह-ज ज
तेन ----- - ---- --------- = ----- = ----------
स्रु ग ज ज स्र ग स्र ग ज ज
न न-ज ज ह स्रो*ज ज = --------- । ततः स्र ग = ----------- । ज ज ज न-ज न
ततः ग ज उ ज न ह सजातीयजात्ययोः ।
ज न ज ज ज न*ज ज ग ज = ---------- । एवम् ग ज ---------- ज न--ज ज ज न--ज न
स्रत उपपद्यते ॥ १६ ॥
वि। भा-- नरेए गुहाग्रप्रतिबिम्बम् जले प्रथम यत्र हष्टम् तत्र नरजलान्तरम् थत्तत् प्रथम नरजलान्तर बोध्य, एवम् नरेए द्वितीय गृहाग्रप्रतिबिम्ब जले यत्र हष्ट तत्र द्वितीय नरजलान्तरम् ग्नेयम् । जलयोरन्तरे जलापसतिभुमिः प्रथमद्वितीय नरजलान्तरयोरन्तरेए भक्ता लब्धिः स्थानद्वये स्थाप्या, एकत्र हष्टचु च्छायेए गुएता गृहोच्छ्तिभवेत् द्वितीयस्थाने नर जलान्तरेए गुरिएता तदा जलाद् ग्रृह-तलपर्यन्तभुमिमानम् भवेदिति ॥ शंकृछायादिज्ञानाध्यायः
१३१३ उपपत्तिः । प, पं प्रथम द्वितीय जल स्थाने, य, य | प्रथम द्वितीय नरस्थाने, गम=गम=गृहो- (४ *~* च्छुितिः । प प=जलान्तरम् = जलापसुतिः य य=र र=नरान्तरम् । अनयोरन्तरम् = यं पर्प पंय -- पयसजातीययोः - - = , म पप, म र र त्रिभुजयोः क्रमेण मग, म ख बहिर्लम्ब स्तदा मुख= ॥ ॥ । ॥ मग प प म ख--मग _ खग र र–प प उभयत्रैक शोधनेन म ग प प ५ ५ - य य-–प प दृष्टय-च्छिति X जलान्तर
- - अतः मग =मग= नरजलान्तरयोरन्तरं
प प =गृहोचितिः । अथ पयq . प गमप, परय सजात्य त्रिभुजयोः साजात्यादनुपातः भ~~=गप=प्रथमजलस्था प –पय प्रथमनरजलान्तरजलान्तर नाद् ग्रहतलपर्यन्त= नरजलान्तरयोरन्तरं द्वितीय नरजलान्तर जलान्तर द्वितीय जलस्थानाद् गृहत पर्यन्तं एतावता नर जलान्तरयोरन्तरं ऽऽचार्योक्तमुपपन्नम् ।१९।। अब ‘वीक्ष्य गृहाग्न सलिले प्रसार्य ‘इत्यादि प्रश्न के उत्तर को कहते हैं । हि. भा-ह के अग्र का प्रतिबिम्ब जल में पहले जहां देखा गया वहां जो नर और जाल का जो अन्तर है उसको प्रथम नर जलान्तर समझना चाहिये। एवं द्वितीय हृन प्रतिबिम्ब मैं जहां देखा गया वहां नर ऑर जल का जो अन्तर है उस को द्वितीय नर जलान्तर समझना चाहिये । दोनों जलस्थानों के अन्तर (जलापति) में जो भूमि है उसको प्रथम द्वितीय नर जलान्तर के अन्तर से भाग देने से शो लब्धि हो उसको दो स्थानों में स्थापित करना एक if Terpen: % g^r ^ % <sr?r 3r ^zmfa ^fa #tdY | sfa i i i _ i 1 1 1 . 1 i iii _ wt य् i — ™' " vn * — - — * r ~~ v - — s ~ II I ! = — j . = — , ?Rr: Tnr=tnr = — — •• - - - — =' l Nfa i m wr, to, snw fafsr^ % ?R'Ml3M % ■ ^ ,yT =^q-==sचै*PT3T5r «TT — *R • $T OTT^T gSTT f% HUH I ( ^RTW^RW ^FTTp*r*r ffg5JT: ) tfj स्थन मे दृष्टि की ऊचाई (दृगीच्च्य) से गुरग्ग करने से गृहोष्ट्च्राय होता हॅ | द्वितीय स्थान मे नरजलान्तर से गुरगा करने से जल से गृहतलपर्यन्त भूमि होती हॅ इति |
उपपति |
यहां संस्कृतोपपत्त्ति में लिखित (१) क्षेत्र को देलिये | प = प्रथम जलस्थान | प = द्वितीय जलस्थान | य + प्रथमनर (द्रष्टा) स्थान, य = द्वितीय नरस्थान, गम = गृहोच्च्रिति, पप = जलान्तर = जलाप़सृति यय = रर = नरान्तर, इन दोनों का अन्तर = यय पप | मपप, मरर सजातीय त्रिभुजद्वये के क्रम से भग, सख बहिर्लम्ब हॅ | तब मख = रर दोनों पक्षों में रुप घटाने से भख - १ = रर - पप = यय - पप भ्रतः मग = मग = नरजलान्तर का भ्रन्तर = गृहो च्च्रिति | भ्रथ गमप, परय, जात्व त्रिभुजद्वय के सजातीयत्व से पय पप = गप = प्रथमजल स्थान से गृह्तलपर्यन्त = प्रथम नर जलान्तर X जलान्तर, इसी तरह् द्वितीयनरजलान्तर X जलान्तर = द्वितीय जल स्थान से गृह्तल पर्यन्त; इससे भ्राचार्योत्क सूत्र उपपृत्र हुग्रा इति |
इदानीमुच्च्रितिमाह |
चायापुरुषच्चिन्नं जलकुडयान्तरमवाप्तमारूढिः |
भ्रव्यायो विशत्यार्यारगामेकोन विंशोअयमृ |
सु भु - चायाया यः पुरुषः शङ्कुभागस्तेन जलभित्योरन्तरं भक्तमत्र यदवाप्तं सा भित्तेरारूढिरूच्च्रितिर्भवति | जलाद्यावताअन्तरेरग नरो भित्यग्रपतिबिबब्ं जले पश्यति तदन्तरमेवात्र नरस्य चाया कल्प्या । अर्कतेजसो या भित्तेश्चायाग्यातव्या । शेषं स्पष्टार्थम् । शंकुचायादिज्नानाध्यायः
अथ्रोपपत्तिः ।नरस्य चायया नरप्रमाएसमोकितिस्तदा भित्तेश्चायया किमित्यनुपातेन भित्तेरुचितिः स्पुटा ।
मढुसूदनसूनुनोदितो यस्तिलकः श्रोप्रुथुनेह जिष्गुजोक्त् । ह्रुदि तं विनिधाय नूतनोयं रचितो भादिविधौ सुधकरेए ॥ इति श्रीह्रुपालुदत्तसूनुसुधाकरद्विवेदिविरचिते ब्राह्मस्पुतसिद्धान्तनूतनतिलके शन्कुचायादिज्नानं नामकोनविंशोsध्याय:॥
श्रथ्रोपपत्तिः।
नरस्य चययया नरतुल्योच्रितिस्तदा भित्तेश्चायया किमिति समागच्चति भित्तेरुच्च्रितिरिति ॥ इति ब्राह्मस्पट सिध्दान्ते शन्कुच्चय्यादिज्नानं नामक एकोनविंशो sध्याय:॥ पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/२२५ ब्राहपटसन्त जुन्छ इल्युराध्यः पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/२२७ त्रुग्वर्गः पर्यायः समुहयोजगावयुक्षु युग्मेषु। सो याः प्राग्वत् प्राप्तादाश्चतुष्ककाः शेषयुक्तचोन्त्यः ॥१॥
एकादियुतविहोनावाद्यन्तौ तद्विपर्यायौ यावत्। वर्गादिषु विषमयुजां क्रमोत्क्रमाद्वर्धयेत् पादान् ॥२॥
एकैकेन द्वया द्वयाः सोप्यधिकेषु तत् प्रतिष्ठेषु। वर्गादिरभीष्टान्तः प्रस्तारो भवति यवमध्यः ॥३॥
सूनोन्तयो द्विपदाग्रं त्रिपदाद्यानामवः प्रुथक् संख्या। तच्छोध्यो व्येकः प्रुथगन्ताद्रू पमूध्र्वयुतम् ॥४॥
यावत् पादाव्योकागच्छाद्वरर्गेष्वथैक वूध्देषु। रूपाधुतद्याते वर्गाद्यानां परा संख्या ॥५॥
रूपाधिकपादार्धो विषमेषूध्र्वः समेषु पादार्धो। त्रर्धाद्विगुरगां व्येकां युस्नान्यध्स्तस्य सर्वेषाम् ॥६॥
माध्यैस्तथार्धहीनैःक्रमपादैर्व्यस्ततुल्यपादाद्यः। विषमे व्येकं मध्ये प्रोह्वाद्यान्यतः कुर्यात् ॥७॥
सैकक्रम तुल्याद्य र्न्यासोअभ्यधिको विशोधिरचाधः। संख्यैक्यं ताट्टक् याट्टक् प्राथमस्त्रिरहितो नष्टे ॥८॥
माध्यैः क्रुतैष्व दलितैः समसंख्यायां क्रमोत्क्रमात्ससक्षेप्यम्। विषमायां व्योकायां दलं क्रमाद्रुत्क्रमात्सैकम् ॥९॥
समसंख्यायां सोपानक्रमोत्क्रमाभ्याः तथैव विषमाभ्याम्। कल्प्यापचिते हष्टे प्रथ्मः शेषाक्षराष्यन्ते ॥१०॥
समदल समविषमारगां संख्या पादार्ध सर्वकल्पवधः। स्वाद्यावधौअन्यैः पादैः स्वपरस्य प्राग्वद्यः सैकैः ॥११॥ १३२० छन्दश्चित्युत्तराध्यायः आद्यादनन्तरोऽधः कल्प्योऽन्यतुल्यमाद्यः प्राक् । न्यासो वर्गोऽन्योनः प्रस्तारोऽसमविषमाणाम् ॥ १२ ॥ नष्टेऽन्त्यात् स्वाधस्थोनकल्पघतोऽर्धतुल्यविषमाणाम् । व्येकः पृथक् स्वबर्नाडुतः फलं तुल्यकल्पान्नाम् ।। १३ । उद्दिष्टे कल्पहृतेऽतीतैः प्रथमः फले स्वरूपेऽन्यः । असकृद्वर्गाशयुते सैके वार्धसमविषमाणाम् ।। १४ ।। कल्पेष पृथक् गुरुलघु संख्यैकाविभाजिता प्राग्वत् । विषमेष्वाद्यलधूनो लघुभिर्मोहः समादीनाम् ॥ १५ ॥ एकद्वितयोः परतो द्विसगुणोऽनन्तराद्विरूपोऽधः । वर्गधराद्योनोवलसमविषमाणां ध्वजो लघुभिः ।। १६ ।। लघुसंख्या पददलिता परतोऽधोऽधश्च शुध्यति हृता यैः। द्विगुणान्तैः शुद्धेर्वर्गपरैर्मन्दरो लघुभिः ।। १७ ।। कृत्वाऽधोऽधः कल्प्यन्येकाद्येकोत्तरानधस्तेषाम् । स्वात्परतोऽन्यैक्यमधः प्रस्तारादुक्तवदिहाडैः ॥ १८ ।। शुरुषष्टचेकानि घटीद्विगुणान्येकांगुलानि संख्या स्यात् । द्वाविशतिरार्याणां छन्दशित्युत्तरोऽध्यायः ॥ १७ ॥ इति श्रीब्राह्मस्फुट सिद्धान्ते छन्दश्वित्युत्तरोऽध्यायो विंशतितमः ।। २० ।। ब्राह्म्स्फुटसिध्दान्तः गोलाध्याथः o g. TrcsTRf ^Frnrf snfa ^^sPTCQf *nr ?r prefer 1 a^w- Jnrqf fwWT ?Tff%, <PT ?f^rf%% il^NHWl fk^Fft ^<?nmt3 ?rf-
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः अथ गोलाध्यायः व्याख्यायते। तत्र प्रथमं तदारम्भप्रयोजनमाह।
ग्रहनक्षत्रभ्रमणं न समं सर्वत्र भवति भूस्थानाम्। तद्विज्ञानं गोलाद्यतस्ततो गोलमभिधास्ये॥१॥
सु.भा. - भूस्थानां जनानां सर्वत्र ग्रहनक्षत्रभ्रमणं समं न भवति। तद्भ्रमणसंस्थानविज्ञां च यतो गोलादेव भवति ततोsहं गोलमभिधास्ये कथयामीति ॥१॥
वि.भा. - भूगोलनिवासिनां जनानां मद्ये ग्रहाणां नक्षत्राणां च भ्रमणं सर्वत्र समं (एकरूपं) न भवति, तेषां ग्रहनक्षत्राणां भ्रमणवैषम्यस्य विज्ञानं यतो गोलात् (गोलाध्यायात्) भवति, ततोSहं (ब्रह्मगुतः) गोलं (गोलाध्यायं) अभिधास्ये (कथयामि)। प्रायः सर्वेSपि ज्यौतिषसिद्धान्तग्रन्था ग्रहगणितगोलाध्यायाभ्यां विभक्त्ता भवन्ति, तत्र ग्रहगणिते ग्रहसाधनादयो विधयो गोलाध्याये ग्रहसाधनादिविधीनामुपपन्तयश्च वर्णिता भवन्ति, पूर्वं ग्रहसाधनादिविधीनुक्त् वाSधुना तदुपपत्तिं कथयतीति। सिद्धान्तशेखरे "उडुग्रहाणं भ्रमणं न तुल्यं सर्वत्र भूगोलनिवासिनां हि। तत्तत्त्वबोधावगतिस्तु गोलादतः स्फुटं गोलमिहाभिधास्ये" श्रीपतिनाप्याचार्योक्तानुरूपमेव कथ्यत इति ॥१॥
अब गोलाद्याय प्ररम्भ किया जाता है, उसमें पहले आरम्भ करने का प्रयोजन कहते है।
हि.भा. - भूगोल निवासी लोगों के मध्य में ग्रहों का भ्रमण और नक्षत्रों का भ्रमण सब जगह समान (एकरूप) नहीं होता है उनके भ्रमणवैषम्य का ज्ञान गोलाध्याय से होता है इसलिए मैं (ब्रह्मगुप्त) गोलाध्याय को कहता हूं। प्रायः ज्यौतिष के सब सिद्धान्त ग्रन्थ ग्रहगणित और गोलाद्याय से विभक्त होते हैं। ग्रहगणित में ग्रहसाधनादि विधियों का वर्णन् रहता है और गोलाध्याय में उनकी उपपत्तियों का वर्णन् रहता है। पूर्व में ग्रहसाधनादि विधियों को कह कर अब उनकी उपपत्ति कहते हैं इति ॥१॥
ब्राह्यस्पुटसिद्वान्ते इदानीं भूगोलसंस्थानमाह । शशिबुधसिताकं कुजगुरुशनिकक्षावेष्टितो भ कक्षान्तः । भूगोलः सत्वानां शुभाशुभैः कर्मभिरुपात्तः ॥२॥ सु.भा. - अयं भुगोलः सत्वानां प्राणिनां शुभाशुभैः कर्मभिरुपात्तः प्राप्तो भवति। 'भूमेः पिण्डः शशाङ्कग्नकविरवि-इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरुपमेव्। शेषं स्पष्टम्॥२॥ वि.भा.-- चन्द्रबुधशुक्ररविकुजगुरुशनीनां कक्षावृत्तैर्वेष्टितः (आवृतः) नक्षत्रकक्षाया मध्येsयं भुगोलोस्ति यश्च प्राणिनां 'शुभाशुभैः कर्मभिः प्राप्तो भवति। चन्द्रबुधशुक्रादिग्रहकक्षावृत्तानां कथमीदृशी उपर्युपरि स्थितिरस्ति तधुक्तिग्नानार्थ मध्यमाध्यायो द्रष्टव्यो वा मदृकाविभूषितो वटेश्वरसिध्दान्तस्य मध्यमाधिकारो द्रष्टव्यः भुमेः स्वरुपे मतान्तराणि सन्ति यथा "अदर्शोदरसन्निभा भगवती विश्वम्भरा कीर्तिता, कैश्चित् कैश्चन कूर्मपृष्ठसदृशी कैश्चित् सरोजाकृतिः। अस्माकं तु कदम्बपुष्पनिचयग्रन्थेः समा सम्मता सर्वत्रासुमतां चयेन निचिता तोयस्थलस्थायिनाम्" कैश्चित् पौराणिकैः देवतास्वरुपा भगवती पृध्वी मुकुरतलतुल्या कथिता, कैश्चन कूर्मपृष्ठसदृशी उन्नतमध्या, कैश्चित् कमलाकारा कथिता, अस्माकं ज्योतिषिकारणं तु कदम्बपुष्पनिचयग्रन्थेः समा, सर्वत्र जीवानां चयेन निचितानुमतेति सिद्धान्तशेखरे श्रीपत्युक्तिरस्ति,सिद्धान्तशिरोमणौ 'सर्वतः पर्वतारामग्रामचैत्यचयैश्चितः। कदम्बकुसुमग्रन्थिः केसरप्रसरैरिव' भास्करोक्तिरियं श्रीपत्युक्तिसद्दश्येवास्ति, परन्तु नवीनाः पृथिव्या आकृतिं दीर्ध पिण्डाकृतिसदृशीं स्वीकुर्वन्ति। ग्रहनक्षत्रकक्षावृत्तसंस्थानसम्बन्धे सिद्धान्तशेखरे 'विधुबुधसित सूर्योरैज्यपातग्ङिकक्षावलयपरिवृत्तोसावृक्षकक्षोदरस्थ' इत्यादि श्रीपत्युक्तिरियं सिद्धान्तशिरोमणै 'भूमेः पिण्डः शशाङ्कग्न-कविरविकुजेज्यार्किनक्षत्रकक्षावृत्तैवृत्तो वृत्तः सन् मृदनिलसलिलव्योमतेजोमयोsयम्' भास्करोक्तिरियं चाssचार्योक्तिसदृश्येवास्तीति सम्प्रति वेधेन चन्द्रो भुवः समन्ताद् भ्रमणं करोति तथा सूर्यात् परितः क्रमेण बुधशुक्रभूमिभौमगुरुशनि नक्षत्राणि भ्रमन्तीति सिध्यति। अत एव प्राचीनानां भूस्थिरवादिनां भूपरितो ग्रहा म्रमन्तीति वदतां मते बुधशुक्रकणंयोर्महदन्तरमिति प्रसिद्धम्। पूर्वपश्चिमयोस्तयोर्द्दश्यादृश्यत्वं च तन्मते न धटते। ग्रहाणामूर्ध्वाधरत्वं च तेषां कर्णानां ज्नानेन स्फुटं विज्नायते। बिम्बीयकर्णानामानयनं पूर्वमेव मध्यमाध्याये मया लिखितं तत्तत एव ज्नातव्यम्। एवं रविग्रहबिम्बान्तरवेधेन सर्वे ग्रहा रविपरितो भ्रमन्तीति स्फुटं सम्प्रति नव्यमतेन विज्नायत इति॥२॥ अब भूगोल संस्थान को कहते है।
हि.भा.-चन्द्र-बुध-शुक्र-रवि-मङ्गल-गुरु (बृहस्पति) शनि इन सवों के कक्षावृत्तों | गोलाध्यायः
से वेष्टित (धिराहुआ) नक्षत्र कक्षा के मध्य में यह भूगोल है, जो प्राणियों के शुभ-अशुभ कर्मो से प्राप्त होता है। चन्द्र बुध शुक्रादिग्रह कक्षावृत्तों की क्यों इस तरह उपर्युपरिस्थिति है इस की युक्ति के लिये मध्यगति अध्याय में लिखित उपपत्ति अथवा बटेश्वर सिद्धान्त के मध्यमा धिकार में हमारी लिखी हुई टीका देखनी चाहिये । भूगोल के स्वरूप में बहुत मतान्तर है जैसे पौराणिक लोग देवता स्वरूप भगवती पृथ्वी को अयनक के तल सदृश कहते हैं, कोई कोई कछुए की पृष्ठ के सदृश पृथ्वी के स्वरूप कहते हैं, कोई कोई कमल के आकार के सदृश कहते हैं, हमारे ज्यौतिषिकों के मत से कदम्ब फल के सदृश है और जिस तरह कदम्ब फल में सर्वत्र केसर रहता है उसी तरह इस गोलाकार पृथ्वी के ऊपर सर्वत्र प्राणियों की स्थिति है यह विषय सिद्धान्तशेखर में ‘प्रादशदरसन्निभा भगवती विश्वम्भरा' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक से श्रीपति ने कहा है, सिद्धान्तशिरोमणि में ‘सर्वतः पर्वतारामग्रामचैत्य चयैश्चित:’ इत्यादि श्लोक से भास्कराचार्य ने भी श्रीपति के कथनानुसार ही कहा है लेकिन नबीन लोग पृथ्वी का आकार दीर्घपिण्डाकार मानते हैं, इसके सम्बन्ध में वटेश्वर सिद्धान्त के मध्यमाधिकार में हमारी लिखी हुई टीका देखनी चाहिये ! ग्रह-नक्षत्र कक्षावृत्तों की स्थिति के सम्वन्ध में सिद्धान्तशेखर में , ‘विधुबुधसितसूर्यारेिज्यपातङ्गिकक्षा' इत्यादि से श्रीपति तथा सिद्धान्त शिरोमणि में ‘भूमेः पिण्डः शशाङ्कज्ञ कविरविकुजेज्याकिं नक्षत्रकक्षावृत्तै: इत्यादि से भास्कराचार्य ने भी अचार्योक्त के अनुरूप ही कहा है । सम्प्रति वेध से चन्द्र पृथ्वी के चारों तरफ भ्रमण करती है तथा सूर्य के चारों तरफ क्रम से बुध-शुक्र पृथ्वी-मङ्गल-गुरु-शनि और परिभ्रमण करते हैं यह सिद्ध होता है, इसलिये प्राचीनों नक्षत्र के ‘पृथ्वी स्थिर है उसके चारों तरफ ग्रह भ्रमण करते हैं। मत में बुध और शुक्र के कर्ण में बहुत अन्तर होता जो नहीं होना चाहिये । तथा उन (प्राचीनों) के मत में बुध और शुक्र का दृश्वाद्दश्यत्व नहीं घटता है । ग्रहों का ऊधधरत्व उन (ग्रहों) के बिम्बीय कर्णज्ञान से समझा जाता है । बिम्बीय कणों का आनयन प्रकार मैं पहले ही मध्यमाध्याय में लिख चुका हूँ। वह वहीं से समझना चाहिये; एवं रवि और ग्रह के बिम्बान्तर वेघ से रवि के चारों तरफ सवग्रह भ्रमण करते हैं यह इस समय नवीनों के मत से समझा जाता है इति ॥२॥
इदानीं देवासुरसंस्थानमाह । खे भूगोलस्तदुपरि मेरौ देवाः स्थितास्तले दैत्याः । खे भगणाक्षाग्रस्थावुपर्यधश्च ध्रुवौ तेषाम् ॥३॥ सु. भा-आकाशे भूगोलस्तदुपरि मेरुस्तत्र मेरावुपरि देवाः स्थिताः । तले
मेरुतले कुमेरौ दैत्याः स्थिताः । तेषां दैवदैत्यानां ख आकाशे भगणाक्षाग्रस्थौ भगणाक्षो ध्रुवयष्टिस्तदग्रस्थौ ध्रुवावुपर्यधश्च । देवानामुत्तरो ध्रुव उपरि दक्षि णोऽधो दैत्यानां दक्षिण उपरि उत्तरो ध्रुवश्चाध इति । ‘सौम्यं ध्रुवं मेरुगताः खमध्ये' इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूपमेव ॥३॥ वि.भा - खे {स्राकाशे} भूगोलोस्ति, भूगोलोपरिमेरुरस्ति, मेरावुपरि भागे देवाः स्थिताः सन्ति, मेरुतले(मेरोरघोभागे)कुमेरॉ दत्याः स्थिताः सन्ति, तेषां(देवानां दत्यानं च) खे ( स्राकाशे ) भगक्शाग्रस्थॉ घ्रुवो उपर्यघशृवार्थात् देवानामुतरो उपरि, दक्षिघ्रुचाधः, द्त्यानां द्क्षिघ्रुव उपरि, उतर घ्रुवक्ष्वाध इति॥ सिद्धान्तरोवरे स्वमूर्घगं मेरुगतास्तमुतरं तथेतरं वाडववा सिनो जनाः, वडवानलवासिनः - दत्याः । स्रीपत्युक्तामिदं सिद्धान्तशिरोमएऑ सॉभ्यं घ्रुवं मेरुगताः खमध्ये याभ्यं च दत्या निजमस्तकोध्र्वे, भास्करोक्तमिदं चाचार्योक्तानुरुपमेवास्तीति ॥ ३ ॥
स्र्ब देव झॉर दत्य के संस्थान (स्थिति) को कहते हे ।
हि.भा.- भाकाश में भूगोल हे, भूगोल के ऊपर मेरु हे, मेरु के ऊपरी में देवता लोग स्थित हे म्रॉर मेरु के स्रघो भाग (कुमेरु) में द्त्या लोग स्थित हे। देवताभों भॉर द्त्यों के भाकाश में घ्रुवयष्टी के स्रग्रदूय में स्थित दोनों का दक्षिणा ध्रुव हे उतर ध्रुव नीचे में हे ॥ सिद्धान्तशेखर में स्वमूर्चग मेरुगतास्तमुतरं इत्यादि प्राष्य में लिखित पध से स्रीपति तथा सिद्धान्त शिरोमरिग में सॉभ्यं घ्रुवं मेरुगताः इत्यादि वि.भा.लिखित पध से भास्कराचायं ने भी स्राचायोंक्त के स्र्नुरुप ही कहा ॥ ३ ॥
इदानीं देवानां दैत्यानां च भचक्रभ्रमणव्यवस्थामाह । ध्रुवयोर्बद्धं सव्यगममराणां क्षितिजसंस्थमुडुचकम्। अपसव्यगमसुराणां भ्रमति प्रवहानिलाक्षिप्तम् ॥ ४ ॥
सु.भा.- स्पष्टम् । सव्यापसव्यं भ्रमदृक्षचक्रम् इत्यादि भास्करोक्तमेतमेव ॥४॥
वि.भा.- प्रवहवायुनाप्रेरितं ध्रुवयष्ट्यधीनं देवानां क्षितिज संसक्तं भचक्रं सव्यगं भ्रमति, दैत्यानामपसव्यगं भ्रमत्यर्थादुतरं क्रान्तिण्डलार्थं देवाः सव्यगं पश्यन्ति, दक्षिणं तदर्धं-अपसव्यगं दैत्याः पश्यन्ति, सव्यगमिति पश्चिमाभिमुखं भ्रमत् अपसव्यगं च पूर्वाभिमुखं भ्रमदित्यर्थः । चलद् भमण्डलं स्वक्षितिजगतं देवा देत्यारच पश्यन्ति, तत्क्षितिजमण्डलेन सह क्रान्तिव्रूसस्य स्थानद्वये योग इति नक्षत्रचक्रंक्षितिजव्रुतमुपचयते । दक्षिण्ं क्रान्तिव्रुतार्ध्ं कदाचिदपि देवर्नावेक्ष्यते उतर्ं कान्तिव्रुतार्घ्ं द्त्यनयिक्ष्यत इति ॥ सिद्धान्तशेखरे सॉम्यं हि मेषाधपमण्डलार्घं पश्यन्त्यमी सव्यगमेव देवाः । तुलादिकं दक्षिएमन्यदर्घं सदेव देत्यास्त्व
गोलाध्यायः
पसव्यवर्त्ति श्रीपत्युक्तमिदं सिध्दान्तशिरोमरगो 'सव्यापसव्य्ं भ्रमहक्षचक्र्ं विलोकयन्ति क्षितिजप्रसक्त्म्' भास्करोक्तमिदं चाऽऽचार्योक्तानुरूपमेवेति ||४||
हि भा- प्रवह् वायु द्वारा प्ररित ध्रुव यष्टी के अधीन( अर्थात् ध्रुव यष्टी के घुमने से घूमने वाला) देवों का क्षितिज व्र्त्त संसक्त भचक्र सव्य घूमता है, और द्वैत्यों का अपसव्य घूमता है, अर्थात् क्रान्तिमण्डल के उत्तरार्ध को देव सव्यग देखते हैं, क्रान्ति मण्डल के दक्षिनार्ध को दैत्य अपसव्यग देखयते हैं,सव्यग से पश्चिमाभिमुख भ्रमन करते हुए और अपसव्यग से पूर्वाभिमुख अमन करते हुए समत्भना चाहिए । सिधान्तशेखर में 'सोम्यं हि मेषाद्यपमण्डलार्ध' इत्यादि विग्नान भाष्य में लिखित श्लोक से श्रीपति तथा सिधन्त शिरोमनि में 'सव्यापसव्यं अमक्षचक्रं' इत्यादि से भास्कराचार्य ने भी आचार्योक्त के अनौरूप ही कहा है इति ||४||
इदानीं चक्रभ्रमनव्यवस्थामाह । अन्यत्र सर्वतो दिशमुन्नमति भपञ्जरो ध्रुवो नमति । लन्कायामुडुचक्र्ं पूर्वापरगं धुवौ क्षितिजे ||५||
सु भा अन्यत्र मेरुतोन्यत्र सर्वतो दिशं भूगोले भपञ्जरो भचक्रमुत्रमति ध्रुवश्च नमति । लङ्कायामुडुचक्रं भचक्रं पूर्वापरगं सममण्डलाकारं ध्रुवौ च क्षितिजे स्त इति । आचार्येन यथा यथा मेरुतो द्रष्टा सर्वतो दिशं याति तथा तथा ध्रुवो नमतीत्युक्तम् । भास्करेन लङ्कमेव् मूलस्थानं प्रकल्प्य स्थिति: प्रतिपादिता 'प्रतो निरक्षदेशे क्षितिमण्डलोपगौ ध्रुवौ नर: प्श्चयति द्क्षिनोत्तरौ' इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूपमेव ||५||
वि भा -मेरूतोन्यत्र सर्वतो दिशं पृथिव्यां भपञ्जर:(भचक्र)उन्नमति,ध्रुवश्च नमति,लङ्कायां भचक्रं पूर्वापरगं सममण्डलाकार ध्रुवौ च तत्क्षितिजे स्त:। द्रष्टा मेरौतो यथा यथा सर्वतो दिशं याति तथा तथा ध्रुवौ नमतीत्याचार्येनोक्त्म्। लङ्कोमेव मूलस्थानं मत्वा भास्कराचार्येन स्थिति:प्रतिपादिता तेन 'निरक्षगदेशे क्षितिमण्डलोपगौ ध्रुवौ नर: पश्यति दक्षिनोत्तराव' त्यादि भास्करोक्ताऽऽवार्योक्तयोर्न कोऽपि भेद:,अर्थत् मेर्वभिमुखं गच्छतो नरस्योत्तरध्रुवोन्नतिस्तथा भचक्रस्य नतिर्भवति,एवमुत्तरभागतो निरक्षदेशाभिमुखं गच्छतो नरस्य विपरीते नतोन्नते भवतोऽर्थदुत्तरध्रुवस्य नतिर्भचक्रस्योन्नतिर्भवति,'उदग्फ़्इशं याति यथा यथा नर:'इत्यादि भास्करोक्तरिदं स्फुटमस्ति,निरक्षाद्वहुत्रोत्तरदेशेऽपि उत्तरध्रुवदर्शनं न भवत्यतोऽत्र सिधान्तप्रतिपादने भूपृष्ठावरोधनमनङ्गीकृत्य भुगर्भत:सर्व विचर्यम् ध्रुवयोर्बधं भचक्रं प्रवहवायुनाऽऽक्षिप्तं सततं पश्चिमाभिमुखं। १३२८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त भ्रमति । चन्द्रादीनां ग्रहाणां कक्षाश्च तस्मिन् भचक्र बद्धा भ्रमन्तीति । सूर्यसिद्धान्ते “ध्रुवोन्नतिर्भचक्रस्य नतिर्मेरुं प्रयास्यतः । निरक्षाभिमुखं यातुर्विपरीते नतोन्नते । भचक्र' ध्रुवयोर्बद्धमाक्षिप्तं प्रवहानिलैः । पयत्यजसू ' तन्नद्धा ग्रहकक्षा यथाक्रमम्” इति सूर्याशपुरुषोक्तसदृशमथवाऽऽचार्योक्त चेति ॥५॥ अब चक्रस्रमण व्यवस्था को कहते हैं। हि. भा-मेरु से अन्यत्र सब दिशाओं में भचक्र की उन्नति होती है और उत्तर ध्रुव की नति होती है । लङ्का में भचक्र सममण्डलाकार है और दोनों ध्रुव लङ्का क्षितिज में हैं । द्रष्टा मेरु से ज्यों ज्यों सब दिशाओं में जाते हैं त्यो त्यों ध्रुव की नति होती है यह आचार्य का कथन है, परन्तु लङ्का ही को मूल स्थान मानकर भास्कराचार्य ने स्थिति का प्रति पादन किया है इसलिये निरक्षदेशे क्षितिमण्डलोपगौ' इत्यादि भास्कराचार्योक्ति और आचार्योक्ति में कुछ भी भेद नहीं है। अर्थात् मेंरु की ओर जाते हुए मनुष्य को उत्तर ध्रुव की उन्नति और भचक्र की नति देखने में आती है । एवं उत्तर भागं से निरक्ष देशाभिमुख जाते हुए मनुष्य को नति और उन्नति विपरीत देखने में आती हैं अर्थात् उत्तर ध्रुव की नति और भचक्र की उन्नति देखने में आती है । ‘उदग्दिशं याति यथा यथा नरः' इत्यादि भास्करोक्ति से यह स्फुट है । निरक्षदेश से उत्तर भी बहुत देशों में उत्तर ध्रुव का दर्शन नहीं होता है, इसलिए यहां सिद्धान्त कहने में भूपृष्ठजनित अवरोध को स्वीकार न कर भूगर्भ ही से सब कुछ विचार करना चाहिए ।। सूर्य सिद्धान्त में भी ‘ध्रुवोन्नतिर्भचक्रस्य’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से इन्हीं बातों को कहा गया है इति ॥५॥ इदानीं देवादीनां रविम्रमणस्थिति कथयति । देवाः सव्यगमसुराः पश्यन्त्यपसव्यगं रवि क्षितिजे । विषुवति समपश्चिमगं निरक्षदेशस्थिताः पुरुषाः ॥६॥ सु० भा०-विषुवति मेषतुलादौ देवाः क्षितिजे रविं सव्यगमसुरा' अपसव्यगं निरक्षदेशस्थाः पुरुषाश्च समपश्चिमगं पश्यन्तीति प्रसिद्धम् ॥६॥ वि. भा.-देवा दैत्याश्च नाडीमण्डलरूपक्षितिजे विषुवति (सायनमेषतुलादौ) क्रमशः सव्यगमपसव्यगं रविं पश्यन्ति । निरक्ष देशवासिनस्तं रविं (सायनमेषादौ सायनतुलादौ च स्थितं सूर्य) पूर्वापरवृत्तानुकारे नाड़ीवृत्ते पश्यन्तीति ॥६॥ अब देवादियों की रवि भ्रमण स्थिति को कहते हैं । हि. भा.-नाड़ी मण्डल रूपक्षितिज में सायन मेषादि में और सायनतुलादि में (१) ‘देवासुरा विषुवति क्षितिजस्थं दिवाकरम् । पश्यन्ति’ इति सूर्य सिद्धान्तेऽप्येव गोलाध्यायः १३२९ सव्यगत रवि को देवता लोग देखते हैं और दैत्य लोग अपसव्यगत देखते हैं । निरक्ष देश वासियों के नाडीवृत्त पूर्वापर वृत हैं इसलिए वे लोग तब (सायन मेषादिस्थित सूर्य को और गायन तुलादि स्थित सूर्य को पूर्वापर वृत्तगत देखते हैं इति ॥। ६॥ इदानीं देवदैत्ययोराशिसंस्थानमाह । सौम्यमपमण्डलार्ध मेषाद्य सव्यगं सदा देवाः । पश्यन्ति तुलाद्यघं दक्षिणमपसव्यगं दैत्याः ॥७॥ सु. भा.- देवः सदा मेषाचं सौम्यमुत्तरं क्रान्तिमण्डलार्ध सव्यगं दैत्याश्च तुलादिक्रान्तिमण्डलाधं दक्षिणमपसव्यगं पश्यन्ति । अत्रोपपत्तिः । गोलसंस्थानेन ‘लम्बाधिका क्रान्तिरुदक् च यावद्'-इत्यादि भास्करवि घिना स्फुटा ।।७। वि. आ-देवाः सर्वदा मेषाद्यमुत्तरं कान्तिवृत्ताख़सव्यगं पश्यन्ति । दैत्याः तुलादिक्रान्तिवृत्ताधं दक्षिणं (अपसव्यगं) पश्यन्तीति । मेरो कुमेरौ चाक्षांशा नवतिः==९०, अतो लम्बांशाः =०, तेनमेषादिषण्ण राशीनां क्रान्तेर्लम्बांशाधिकत्वात्तदहोरात्रवृत्तानां तत्क्षितिजोध्वगतत्वाच्च तत्र स्थितं रैव देवाः सर्वदा पश्यन्ति । एवमेव तुलादिषण्णां राशीनां क्रान्तेरपि लम्बांशाधिकत्वात्तदहोरात्रवृत्तानां तक्षितिजोर्वगतत्वात्तेषु राशिषु स्थितं सूर्ये सर्वदा दैत्यः पश्यन्त्येव । दिनरात्रिसम्बन्धे सिद्धान्तशिरोमणौ ‘लम्बाचिका क्रान्तिरुदक् च यावत्तावद्दिनं संततमेव तत्र। यावच्च याम्या सततं तमिस्रा' इत्येवं भास्करेण यत् कथितं तेनैव स्फुटमस्तीति ॥७७lt अब देवों के और दैत्यों के राशि संस्थान को कहते हैं । • हि. मा--देवता लोग मेषादि उत्तर क्रान्तिवृत्तार्घ को सर्वदा सव्यगत देखते हैं । तथा दैत्य लोग तुलादि क्रान्तिवृत्तार्घ को अपसव्यगत देखते हैं इति ।।७। . उपपति । = मेरु में और कुमेरु में अक्षाश=६९अतः लम्बश शून्य=०, है इसलिये मेषादि (उत्तर गोलीय) छः राशियों की क्रांतियों के लम्बांशाचिक होने के कारण उन राशियों के अहोरात्रवृत्तों के क्षितिजवृत्त से ऊपर होने से उन राशियों में स्थित सूर्य को सर्वदा देखते हैं । ftrsra ^ '^rrfri fegsrfa - 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एवं तुलादि ( दक्षिरगगोलीय ) छाः राशियों की क्रान्तियों के लम्बांशाविक होने के काररग उन राशियों में स्थित सूर्यं को दैत्य लोग सर्वदा देखते है, सिद्धान्त शिरोम में 'लम्बाधिका क्रान्तिरुदक् ' इत्यादि संस्क्रुतोपपन्ति में लिखत भास्करोक्त्त श्लोक से यह स्पष्ट है । सूर्यं सिद्धान्त में ' देवासुरा विषुवति क्षितिजस्थं
दिवाकरम् । पश्यन्ति ' इससे सूर्याश पुरुष आचार्योक्त के सद्दश ही कहा है इति ॥ ७ ॥
इदानीं देवदैत्ययोः पित्रुमानवयोश्च दिनप्रमारगमाह् ।
पश्यन्ति देवदैत्या रविवर्षार्वमुदितं सकृत् सूर्यम् । शशिगाः शशिमासाधं पितरो भूस्था नराः स्वदिनम् ॥
सु. भा --- देवदैत्याः सकृदुदित्ं सूयं रविवर्षाधं सौरवर्षदलपर्यन्तं शशिगाः शशिपृष्ठस्थाः पितरश्चा शशिमासारधं पर्यन्तं भूस्था नराश्च स्वदिनं स्वदिनमानपर्यन्तं पश्यन्ति । श्रत्रपपत्तिः । भास्करगोलाध्यायतः स्फुटा ॥ ८ ॥ वि. भा. ---- देवा दैत्याश्रान्द्र्मासार्ध रविं पश्यन्ति । पृथिव्यां स्थिता मनुष्याः स्वदिनमानपर्यन्तं रविं पश्यन्तीति। पितृभि
त्र्व्यत्रोपपत्तिः ।
उत्तरध्रुवो देवानां खस्वस्तिकम् । दक्षिरगध्रुवश्च दैत्यानां खस्वस्तिकम् । ध्रुवाभ्यां नवत्यंशोन यद्व त्त्ं तन्नडीवृत्तं देवदानवयोः क्षितिजवृत्तम् । नाङीवृत्तक्रान्तिवृत्तयोः सम्पाते सायनमेषादौ सायनमेषादो सायनतुलादौ च रविदर्शनानन्तरं पुनस्तत्सायनमेषादो सायनतुलादौ च रविदर्शनं यावता कालेन भवेत् स रवेरेकभगरगः ( सायनरविभरगः ) देवदैत्ययारहोरात्रप्रमारगं भवति, परन्त्वेकसायनभगरगभोगः सौरवर्षमतो देवदैत्ययोः सायनसौरवर्षाधं ( षण्मासप्रमारगं ) दिनं सिद्धम् । परन्तु देवदैत्ययोर्दिनरात्री विलोमेन भवतोsर्थाद्यदा मेषदावुदितं रविं प्रतिदिनं क्षितिजोपरिगतं देवाः पश्यन्ति तदा देवानामधः स्थितत्वाद्दैत्यस्तं रविं न पश्यन्ति, श्रतो यदा देवानां दिनं तदा दैत्यानां रात्रिः , यदा देवानां रात्रिस्तदा दैत्यानां दिनमिति। सिद्धान्तशेखरे " सकृदुदगतो दिनकरः सुरासुरैरपि वत्सरार्धँअवलोक्चले स्फुटम्। पितृभिश्र्च मासदलमिन्दुगोलगैर्द्युदलं महीतलगतैश्र्च मानवैः " श्रीपतिनाsनेनाक्षररश श्र्पाचार्योत्का नुरूपमेव कथितम् । श्र्पस्योपपत्तिर्दिनरात्रिस्वरूपे च सिद्धान्तशिरोमरगौ ।
"विषुवदवृत्तं द्दुसदां क्षितिजत्वमितं तथा च दैत्यानाम् ।
उत्तरयाम्यौ क्रमशो मूर्र्ध्वोर्ध्वगतौ ध्रवौ यतस्तेषाम् ॥ गोलाघ्यायः
उत्तरगोले क्षितिजादूर्ध्वे परितो भ्रमन्तमादित्यम्।
सव्यं त्रिदशाः सततं पश्यन्त्यसुरा असव्यगं याम्यो॥
सांहितिका उत्तरायरगदक्षिरगायने देवानां दिनरात्री भवत इति कथयन्ति
एतस्य खण्डनं सेद्धान्तशेखरे।
दिनप्रवृत्तिर्मरुतामजादॉ च निशप्रवृत्तिः। ते कल्पिते यॅर्मृ गकर्कद्योरत्रॉपर्पात न च ते ब्रु वन्ति॥ द्वन्द्वान्तयातं कनकाद्रियाताः पश्यन्ति पङ्के रुहिरगीपतिं चेत्। भ्रपक्रमस्यात्र समानतायां कथं कुलीरे न विलोकयन्ति॥ देवानां मेषादॉ सूर्ये दिनारम्भः,तुलादो च रात्र्यारम्भः, यॅः सांहितिकॅस्ते
दिनरात्रि मकरकर्काद्योः कल्पिते तेSत्रं युत्त्क न कथयनन्ति। अर्थात् कथमुत्तर- दक्षिरगायने देवानां दिनरात्री भवत इत्यत्र ते सांहितिकाः काञ्चियद्यत्त्किं न वदन्ति। देवा मिधुनान्तस्यितं सूयं यदि पश्यन्ति तदा कर्कराशॉ क्रान्तेः समत्वे कथं न पश्यन्थीति प्रश्नाः। त्रस्य किमप्युत्तरं न तेन 'मत्रोपर्पात्त न च ते ब्रु वन्ति' लथनमिदं युत्त्कम्। श्रीपतिरत्नमालातयाम्-
"शिशिरपूर्वमृतुत्रयमुत्तरं ह्ययनमाहुरह्श्र्व तदामरम्। भवति दक्षिरगमन्य दृतुत्रयं निगदिता रजनी मरुतां च सा॥ गृहप्रवेशत्रिदशप्रतिष्ठाविवाह चॉलव्रत बन्धपूर्वम्। सॉम्यायने कर्म शुभं विधेयं यदृगर्हितं तत्खलु दक्षिरगे च॥"
इत्यनेन श्रीपातिरपि संहितोकत्त्कफलादेश्थं- उत्तरदक्षिरगायने एव दिनरात्री
कथयित्वाSत्र ज्यॉतिष सिद्धान्ते "म्रत्रोपर्पात्त न च ते ब्रु वन्ती" ति तदुपहासं करोतीति॥
पितृदिनोपपत्तिः। चन्द्रस्योर्ध्वभागे पितरो निवसन्ति। भूगर्भज्वन्द्रकेन्द्रगता रेखा पितृररगामूर्ध्व-
यामयोत्तरवऋत्ते यत्र लगति तत्र तेषामूर्ध्वखस्वस्तिकम्, तत्रेव प्रिरगातवन्द्रेSपि, यदि तत्र रविरपि भवेच्चन्द्रस्य शराभावश्चेत्तदा रबिच्न्द्रयोरेकत्र स्थित्वाद्दर्शान्तः, ऊर्ध्वखस्यस्तिकगते रवो दिनाधं भवति तेन दर्शन्ते पितृरगां दिनाघं भवतीति सिध्यति, संव भुगर्भतश्चन्द्रकेन्द्रगता रेखाSघोयाम्योत्तरवृत्ते यत्र लर्गात, तत्र तेषामधः खरस्वस्तिकहम्। तत्र रविच्न्द्रयोः षड्भान्तरत्वात् पुरर्गाः पितृरगामर्धरा- त्रश्र्व, पितृरगाममावास्यां मध्यान्हत्वात् पूरर्गान्ते च रारत्र्यदर्धत्वात्तारतम्येन कृष्रग- पक्षस्य सार्घसप्तम्यां रविरुदेति शुक्लपक्षस्य साघंसप्तमयां चास्तमेतीति सिध्यति। सिद्धान्तरोक्खरे चान्द्रे गोले शिरसि पितर: सान्ति तेषा च पर्व्ष्यौध्वर् भास्वाअन् भवति हि ततस्तत्र तदासराधम् । कुष्र्रगाष्टम्यां सविरुदयोस्तं अत्रैतदुक्तं भवति । षष्टिर्भाज्यो विकलाशेषमृणक्षेपो दृढकुदिनानि हार इति प्रकल्प्य यः कुट्टकः सकला शेषस्तेन षष्टिर्हता विकलाशेषोना दृढकुदिनहृता फलं विकला अभीष्टा स्युस्ततः कलाशेषमृणक्षेपं षटिं भाज्यं दृढकुदिनानि हार प्रकल्प्य यः कुट्टकः स चांशशेष स्तेन षष्टिर्गुणा कलाशेषोना (दृढकुदिनभक्ता) फलं कला अभीष्टाः स्युः । एवं राखि शेषानयने त्रिंशद्भाज्यो भगणशेषानयने च द्वादशभाज्यकल्प्यः । भगणशेषतः पूर्व विधानेनाहर्गणो गतभगणाश्च साध्याः । ‘कल्प्याथ शुद्धिर्विकलावशेषम्'-इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूपमेव ॥ २२ ॥ वि. भा-एवं राशिशेषात्-अंशशेषात् कृलाशेषात् विकलाशेषात् पूर्ववदह गर्गणः स्यात् कथं तदुच्यते । दृढ़ कुदिनानि हारः । विकलाशेषं शुद्धिरिति प्रकल्प्य कुट्टकविधि ना गुणाप्ती साध्ये तत्र लब्धिविकला:स्युः । तथा च भास्कर:।
"विधुध्वंभागे पितरो वसान्त: स्वाध: सुधादिधितिमामनान्ति । परयान्ति तेंकं निगमस्तकोष्व देश यतास्माद धादलं तदषाम । भाधाअन्तरत्वान्न विधोरध:स्त्थं इष्टविकलादि करके भगणशष । क्रुषरोर्वाव: दृढ़भगणान्तर को भाज्य कल्पनाकर पूर्ववत् ।"
इदानीमानयति यस्तमोरविशशाङ्कमानानीत्यस्योत्तरमाह । स्थित्यर्धाद्विपरीत तमः प्रमाणं स्फुटं ग्रहणे । मानोदयाद्रवीन्द्वोर्घटिकावयवेन भोदयतः ॥१३॥ सु.भा.-स्थित्यर्धाद्विपरीतं विपरीतविधिना ग्रहणे स्फुटं तमः प्रमाणं भूभाबिम्बप्रमाणं भवति । अत्रैतदुक्त भवति । स्थित्यर्घ रविचन्द्रगत्यन्तरकला गुणं षष्टिहृतं स्थित्यर्धकला भवन्ति । तद्वर्गाच्छरवर्गयुतान्मूलं मानैक्यार्धकला ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते स्फुट ज्ञय ग्रह होते हैं। तथा ज्ञात ग्रह से पश्चिम में ज्ञय ग्रह के रहने से विपरीत लग्न जो हो उसमें छः राशि घटाने से स्फुट ज्ञय ग्रह होते हैं इति । उपपत्ति लग्नानयनवत् समझनी चाहिये तरह कदम्ब फल में सर्वत्र केसर रहता है उसी तरह इस गोलाकार पृथ्वी के ऊपर सर्वत्र प्राणियों की स्थिति है यह विषय सिद्धान्तशेखर में ‘प्रादशदरसन्निभा भगवती विश्वम्भरा' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक से श्रीपति ने कहा है, सिद्धान्तशिरोमणि में ‘सर्वतः पर्वतारामग्रामचैत्य चयैश्चित:’ इत्यादि श्लोक से भास्कराचार्य ने भी श्रीपति के कथनानुसार ही कहा है लेकिन नबीन लोग पृथ्वी frT I I TTftfrT Sfft 9FTf%|W % *IHkli^ tlTCTfe *f *fk SWT 311^ $ xfr % ^ gp": fsi^r ^rra - If g-prr 5frnfk ?fH stpr h/tiR If ^r- ^tcTT I I 5lk t^ff EPT OTT sfft^N" (^: Tffr) f^T §3TT I
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गोलाध्यायः १३३३
उपपत्ति।
उत्तरध्रुव देवों का खस्वस्तिक है। दक्षिण ध्रुव दैत्यों का ख स्वस्तिक है । दोनों ध्रुवों को केन्द्र मान कर नवत्यंश से जो वृत्त (नाड़ीवृत्त) होता है वह देव और दैत्यों का क्षितिज वृत्त है । नाड़ीवृत्त और क्रान्तिवृत्त के सम्पातव्दय सायन मेषादि में और सायन तुलादि में रवि दर्शन के बाद पुनः जितने काल में सायन मेषादि और सायन तुलादि में रवि- दर्शन होता है वह एक सायनरविभगण (एक सायन सौरवर्ष) देव और दैत्य का अहोरात्र मान होता है। अतः देवों और दैत्यों का सायन सौरवर्षार्घ (छः महीने) दिन सिद्ध हुआ । परन्तु देवों और दैत्यों का दिन और रात्रि बिलोम से होती है अर्थात् जब मेषादि में उदित रवि को प्रति दिन क्षितिज से ऊपर देव लोग देखते हैं तब देवों से अधः स्थित होने के कारण दैत्य लोग उस रवि को नहीं देखते हैं इसलिये जब देवों का दिन होता है तब दैत्यों की रात्रि होती है। जब देवों की रात्रि होती है तब दैत्यों का दिन होता है। सिद्धान्तशेखर में सकृदुगतो दिनकरः सुरासुरैरपि वत्सरार्धमवलोक्यते स्फुटम्’ वह श्रीपत्युक्त आचार्योक्त के अनुरूप ही है। सूर्य सिद्धान्त में ‘सकृदुद्गतमब्दार्थ पश्यन्त्यर्क सुरासुराः' इस सूर्याश पुरुषोक्ति के अनुरूप ही श्रीपत्युक्त और प्राचार्योक्त है। सिद्धान्तशिरोमणि में ‘रवेश्चक्रभोगोऽर्कवर्ष प्रदिष्टं द्युरात्रं च देवासुराणां तदेव' इस से भास्कराचार्य ने भी प्राचार्थोक्त के अनुरूप ही कहा हैं । इसकी उपपत्ति और दिन रात्रि का स्वरूप सिद्धान्तशिरोमणि में “विषुवद्वत्तं द्युसदां क्षितिजत्वमितं तथा च दैत्यानाम् । उत्तरयाम्यौ क्रमशो मूध्वर्वोध्र्वगतौ' इत्यादि संस्कृतो- पपत्ति में लिखित श्लोक से इस तरह भास्कराचार्य ने कहा है । सांहितिक लोग ‘उत्तरायण देवों का दिन और दक्षिणायन उनकी रात्रि होती है' कहते हैं, इसका खण्डन सिद्धान्तशेखर में दिनप्रवृत्तिर्मरुतामजादौ तुलाघरादौ च निशा प्रवृत्ति:’ इत्यादि से श्रीपति ने किया है। मेषादि में सूर्य के रहने से दिनारम्भ होता है, तुलादि में सूर्य के रहने से रात्र्यारम्भ होता है, जो सांस्कृतिक लोग मकरादि में और कर्कादि में दिन और रात्रि कहते हैं वे लोग इसमें युक्ति कुछ भी नहीं कहते हैं अर्थात् उत्तरायण देवों का दिन होता है और दक्षिणायन रात्रि होती है इसमें कुछ भी युक्ति नहीं कहते हैं । देवता लोग यदि मियुनान्त स्थित सूर्य को देखते हैं तो कर्कराशि में क्रान्ति के समत्व के कारण क्यों नहीं देखते हैं। इस प्रश्न का उत्तर कुछ नहीं है । इसलिये ‘अत्रोपपत्ति न च ते ब्रवन्ति’ यह श्रीपति का कहना ठीक है । श्रीपति रत्नमाला में शिशिरपूर्वमृतुत्रयमुत्तरं’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोकों से श्रीपति भी संहितोक्त फलादेश के लिये ‘उत्तरायण और दक्षिणायन ही को दिन और रात्रि कह कर इस ज्यौतिष सिद्धान्त में ‘अत्रोपपत्ति न च ते ब्रवन्ति' से उनका उपहास करते हैं। पितृ दिनोपपत्ति । चन्द्र के ऊध्र्व भाग में पितर बसते हैं। भूकेन्द्र से चन्द्रकेन्द्र गत रेखा पितरों के ऊध्र्वं याम्योत्तरवृत्त में जहां लगती है वह बिन्दु उनका ऊध्र्व खस्वस्तिक है । वही बिन्दु परिणत चन्द्र भी पितृ त्रिज्या गोल में है। ऊध्र्वखस्वस्तिक गत रेखा अधोयाम्योत्तर वृत्त में जहां
१३३४ ब्राहास्फुटसिद्धान्ते
लगती है बह् पितरोम् भ्रध्र्:खस्वस्तिक है| पितरोम् के ऊध्व् खस्वस्तिक(परिरगतचन्द्र) मे रबि के भाने से पितरोम् का दिनार्ध काल होगा लैकिन वहीम् पर चन्द्र भी है इसलिये यदि चन्द्र का शराभाव हो तो रवि भ्रॉर चन्द्र के एक स्थान मे रहने से दर्शान्त(भ्र्मावास्या) होने के कारर्ग् सिद्ध होता है कि दशन्ति मे पितरोम् का दिनार्ध होता है| एवम् द्वितीय दर्शान्त मे द्वितीय दर्शान्त होता है,दोनोम् दर्शान्त का भ्र्न्त्तर एक चन्द्रमास है वही पितरोम् का दिनार्षान्तर काल भी है परन्तु दिनार्धान्तर काल( एक दिनाधम् से दूसरे दिनाधम् तक ) उदयान्तर काल ( एक सृर्योदय से दुसरेन् सृर्योदय तक) के बराबर होता है, सृर्योदयदूयान्तर काल एक दिन है भ्र्त: दिनार्धान्तर काल भी एक के बराबर हुभ्रा | इसलिये सिद्ध हुभ्रा कि पितरोम् का दिन(भ्रहोरात्र) एकचान्द्रमास के वराबर होता है प्रर्थात् पितर लोग चान्द्र मास के भ्राधे ( एक पक्ष)तक उदित सूर्य को देखते रहते है|
सूर्य सिद्धान्त मे सकृदुदगतमब्दाध पश्यन्त्यक सुरासुरा: |पितर: शशिगा: पक्षम् इस सूर्याश पुरुषोत्त्क के क्षनरूप ही प्राचार्योत्त्क है | सिद्धान्त शिरोमएगि मे रवीन्द्वोयुते: सम्युतिर्यावदन्या विधोर्मास एतच्च पैत्रम् द्युरात्रम् यह् भास्करोत्त्क क्षाचार्योत्त्क के क्षनुरुप ही है|तथा विघूर्त्रभागे पितरो वसन्त:स्वाध: सुधादीधितिमामनन्ति पश्यन्ति ते: अकम् इत्यादि संस्कृतोपपत्ति मे लिखित श्लोक से गालाध्याय मे भास्कराचार्य ने उसी वात को कहा है इति ||५|| इदानीम् भूगोले लड्कावन्त्यो: संस्थानमाह्|
भूपरिबि चतुर्भागि लड्कामूमस्तकात् क्षितितलाच्च | लड्कोत्तरतोsवन्ती भूपरिधे: पन्चदशभागे||६||
सु० भा०---भूमस्त्को मेरु: क्षितितलक्ष्च कुमैरुस्तस्मादभूपरिधिचतुर्थभागेsन्त रे दक्षिएगदिशिलक्डानाम नगरी । लक्डोत्तरतक्श्च भूपरिधिपच्चदशभागेsन्ती वर्तते । भास्करश्चाचार्यानुयायी निरक्षदेशात् क्षितिषोडशाम्शे भवेदवन्ती इति कथितवान् ।तेनान्येषाम् मते षोडशे भागे इत्यत्र पाठान्तरम् । चतुर्वेदाचार्यसम्मत: पाठश्च पच्चदशभागे अयमेव ||६||
बि० भा०---भूमस्त्कात् (मेरो:) क्षितितलाज्च(कुमेरोश्च) भूपरिथिचतुर्थाशा(नवत्यम्श) न्तरे-दक्षिएगस्याम् दिशि लक्डा नाम नगरी वर्त्तते । लड्कात उत्तरदिशि भूपरिघिपज्चदशाम्शान्तरेsवन्ती(उज्जयिनी) वर्त्तते। भास्कराचार्येरग गोलाथ्याये निरक्षदेशात् क्षितिषोडशाम्शे भवेदवन्ती गरिगतेन यस्मात् एवम् कध्यते । भूपरिधिथोजनषोडशाम्शान्तरे निरक्षदेशादवन्ती वर्त्तते तदर्थ गरिगतम् । यदि षष्ट्चधिक्-शतत्रयै ३६० रम्शै र्भूपरिघियोजनानि लभ्यन्ते तदा sवन्त्यक्षाम्शेन किमित्यनुपातेन निरक्षदेशावन्त्योरन्तरयोजनान्यागछन्ति तत्स्वरूपम्। (भूपरिधियोजन * श्चवन्त्यक्षाम्श्)/३६०=निरक्ष देशावन्त्योरन्तरयोजनानि । क्षवन्तीदेशे
गोलाध्यायः १३३५ ऽक्षांशाः = २२ | ३०=२२१/२=४५/२, अतः भूपरिधियोजन x ४५ / ३६० x २ = भूपरिधियोजन x ४५ / ७२० हरभाज्या (४५) वनेन भक्तौ तदा भूपरिधियोजन/७२०/४५ = भूपरिधियोजन/१६ = निरक्षदेशावन्त्योरन्तर योजनानि । चतुर्वेदाचार्येण 'पञ्चदशे भागे'इत्येव कथ्यते यथा ऽऽचार्येरा कथ्यते,कथं 'पञ्चदशे भागे'कथ्यते तत्र न कारणं किमपि प्रतिभाति। लङ्कातः सुमेरुः कुमेरुश्च नवत्यंशान्तरेऽस्ति'यतस्तत्राक्षांशाः = ९० सन्तीति ॥६॥
अब भूगोल मे लङ्का और अवन्ती की संस्थिति कहते हैं ।
हि.भा.-मेरु से और कुमेरु से भूपरिधि के चतुर्थाशा (६० अंश) न्तर पर दक्षिण दिशा
मे लङ्का नामक नगरी है लङ्का से उत्तर दिशा में भूपरिधि के पञ्चदशां १५ शान्तर पर
अवन्ती उज्जयिनी है। भास्कराचार्य भपने गोलाध्याय में 'निरक्ष देशात् क्षितिषोड्शांशे'
इत्यादि से भूपरिधि के षोडशांशान्तर पर गणित करके अवन्ती को कहते है। इसके लिये
गणित इस तरह है। यदि भांश (३६०) में भूपरिधि योजन पाते हैं तो अवन्ती के अक्षांश
में क्या इस् अनुपात से निरक्ष देश और अवन्ती के अन्तर योजन आते हैं उसका स्वरुप
= भूपरिधियो x अवन्ती के अक्षांश / ३६० परन्तु अवन्ती के अक्षांश = २२१/२ = ४५/२अतः
भूपरिधियो x ४५ / ३६० x २ = भूपरिधियो x ४५ / ७२० = निरक्षदेश और अवन्ती के
अन्तर योजन,यहां हर भाज्य को (४५) से भाग देने से भूपरिधियो /७२०/४५ =
भूपरिधियो /१६ = निरक्षदेश और अवन्ती के अन्तर योजन। इसको सोलह से गुण करने
से भूपरिधि योजन होता है। भूपरिधियोजन मान के लिये आचार्यों में मतभेद है। अपनी कथित
भूपरिधि की समीचीनता की द्रढ्ता के लिये बहुत् जोर देकर् गोलाध्याय में कहते हैं
"शृङ्गोन्नतिग्रहयुतिग्रहणोदयास्तच्छायादिकं परिधिना धटतेऽमुना हि।नान्येन तेन जगुरुक्तमहीप्रमाण
प्रामाण्यमन्वययुजाव्यतिरेकेण" अर्थात् चन्द्र की शृङोन्नति,ग्रहयुति,ग्रहण(चन्द्रग्रहण और
सूयंग्रहण)ग्रहों का उदय समय और अस्त समय आदि हमारे ही भूपरिधि मान से ठीक
समय पर होता है अन्यों के भूपरिधिमान से ठीक समय पर नहीं होता है इसलिये हमारा
हि कथित भूपरिधिमान ठीक है अन्याचार्यो का नहीं। आचार्य(ब्रह्मगुप्त) ने 'लङ्कोत्तरतोऽवन्ती
भूपरिधेः परिधेः पञ्चदश भागे' से 'लङ्का से अवन्ती भूपरिधियोजन के पञ्चदशां १५ श पर
है' जो कहा है इसमें कुछ युक्ति नहीं मिलती है। चतुर्वेदाचार्य ने आचार्योक्त पाठ ही का
अनुमोदन किया है इति ॥ ६ १३३६
इदानीं निरक्षस्वदेशान्तर योजनान्याह । अक्षांशकुपरिधिवधान्मण्डलभागाप्त योजनैर्विषुवत् । नतभागयोजनैरेवमुपरि सूर्योऽन्यदनुपातात् ॥१०॥ सु. भा.-अक्षांशानां भूपरिधेश्च वधात् मण्डलभागैश्चक्रांशैर्भक्ताद्यान्यवा प्तानि तैर्नतभागयोजनैः स्वदेशाद्विषुवन्निरक्षदेशो भवति । एवं जिनाल्पाक्षे देशे खस्वस्तिकोपरि यदा सूर्यो भवति तदा कैर्नतभागयोजनैर्विषुवद् देशो भवति । इत्यन्यच मेरुस्वदेशान्तरयोजनादिज्ञानं तत्तदन्तस्भागतोऽनुपातात् कार्यमिति स्फुटम् । अत्र टीकायां चतुर्वेदाचार्यः ‘कान्यकुब्जेऽक्षभागाः’ २६। ३५' ॥१०॥ वि. भा-अक्षांशभूपरिध्योर्धाताद् भांशैर्भक्ताल्लब्धैर्नतभागयोजनैः स्वदे शान्निरक्षदेशो भवति । विषुवच्छब्देनात्र निरक्षदेशो ज्ञेयः । जिनाल्पाक्षांशे देशे यदा सूर्यः खस्वस्तिकोपरि भवति तदा कैर्नतभागयोजनैर्निरक्षदेशो भवति । अन्यच मेरुस्वदेशान्तरयोजनादिज्ञानं तत्तदन्तरांशतोऽनुपातात्कार्यमिति । यदि भांशैर्भूपरिधियोजनानि लभ्यन्ते तदा स्वदेशीयाक्षांशैः किमित्यनुपातेन लब्धयोजनानि स्वदेशनिरक्षदेशयोरन्तरयोजनानि भवन्ति । कृस्मात् कस्माद्देशा न्निरक्षदेशः कियदन्तरेऽस्तीति ज्ञानार्थ तत्तदेशीयाक्षांशवशेन पूर्वोक्तानुपातः कार्य इति ॥१०॥ अब स्वदेश और निरक्षदेश के अन्तर योजन को कहते हैं। हेि. भा-अक्षांश और भूपरिधियोजन के घात में भांश ३६० से भाग देने से जो लब्धि हो उतने योजन पर स्वदेश से निरक्षदेश होता है। जिनाल्पा (चौबीस से कम) क्षांश देश में जब सूर्य खस्वस्तिक के ऊपर होता है तब कितने नतभाग योजन पर निरक्ष देश होता है। मेरू और स्वदेश का अन्तर योजनादि ज्ञान तत्तद्देश के अन्तररांश (अक्षांश) से करना चाहिये, यदि निरक्ष देश से किसी देश का अन्तर योजन ज्ञान करना हो तो पूर्वोक्त अनुपात से करना चाहिये । यदि साक्ष देश में दो देशों का अन्तर योजन करना हो तो दोनों देशों के अक्षांशान्तर से अनुपात (भांश में भूपरिधि योजन पाते हैं तो अक्षांशान्तर में क्या) द्वारा करना चाहिये। यदि भांश ३६० में भूपरिधि योजन पाते हैं तो स्वदेशीयाक्षांश में क्या इस अनुपात से लब्ध योजन निरक्षदेश और स्वदेश का अन्तरयोजन होता है अर्थात् लब्ध योजनान्तर पर गोलाध्यायः १३३७ श्रपने देश से निरक्ष देश है| जिस किसी देश से निरक्ष देश की दूरी ज्नात्त करनी हो तो उस देश के भ्रक्षांश से करना चाहिये इति||१०||
इदानीं खकक्षां ग्रह्सकक्षां चाह्| स्रम्बरयोजनपरिघिः शशिभगरगाः शून्यखखजिनाग्निगुरगा ३२४०००| यस्य भगरगैर्विभक्तास्तत्कक्षार्को भषष्टचंशः||११||
सु० भा०--कल्पे ये चन्द्रभगरपास्ते ३२४००० एतर्गुरगा स्वकक्षा भवति| सा च यस्य ग्रहस्य कल्पभगरगैविभक्ता तत्कक्षा ग्रहस्य कक्षा भवति|व्यर्कश्च भषष्टच्चंशः| च्चर्कक्षा भ्कक्षायाः षष्टिभागः|व्यतोकंकक्षा षष्टिभागः|व्यतोर्ककक्षा षष्टिगुरगा भकक्षा भवतीति|
व्यत्रोपयतिः|
कल्पे चन्द्रभगरगाः=५७७५३३'००००)१८७२०६'९२०००'०००००=खक(३२४०००
१७३२५९९ --------- १३८६०७९ ११५५०६६ ----------- २३१०१३२ २३१०१३२ -------- X
भ्रतो भास्करेरगाचर्योत्त्क्रव खकक्षा पठिता |शेषोपपत्तिर्भास्करोत्त्कचिधिना स्फटा||११| वि.भा.-कल्पे ये चन्द्रभगरगास्ते ३२४००० एभिर्गुरगास्तदाम्बरयोजनपरिधिः(खकक्षा)भवति।भकक्षायाः षष्टच(६०)शो रविकक्षा भवतीति॥११॥
त्र्पत्रोपपत्तिः।
श्राकाशे चतुर्दिक्षु चावत् रवेः किररगानां व्याप्तिः(प्रसारः) तत्परिघेः प्रमारगमेव खकक्षाप्रमाण्यन मान्यम्।वस्तुतो रवेश्र्वलत्वादाकाशे किररगानां सण्चारेरग यावत्तमोहानिस्तदाकारो वृत्तवन्न भवति।भ्रत्र एव कल्पकुदिनग्रहगतियोजनघातसमा पठितखकक्षा कल्पे ग्रहभ्रमरगायोजनैः समेति वक्तुं ब्राह्मस्फुटासहध्दान्ते
शक्चते। वेधेन गतियोजनग्यानं भवितुमर्हति, तत्कल्पकुदिनघातसमेयं पठितखकक्षा संख्या भवति न वेति परीक्षा न भवितुमर्हति। ग्रत एव भास्कराचार्यः। "ब्रह्माण्डमेतन्मितमस्तु नो वा कल्पे ग्रहः क्रामति योजनानि। यावन्ति पूर्वैरिह तत्प्रमाणां प्रोत्क्त खकक्षाख्यमिदं मतं नः।" कल्पे चन्द्र भगरगाः=५७७५३३००००० श्रतः कल्प चन्द्रभx३२४०००=१८७१२०३६२००००००००=खकक्षा भस्कराचार्येरणपि 'कोटिघ्नैर्नखनन्दषट्कनखभूभूभृदभुजड गेन्दुभिर्ज्योतिःशास्त्रविदो वदन्ति नभसः कक्षामिमां योजनै'रित्यनेनाचार्योक्त्तखकक्षा समैव खक क्षामितिः पठिता। खकक्षा तुल्यानि योजनानि कल्पे ग्रहः क्रामति, भगरणाश्च पाठपठितसमाः। एकभगरण्भोगेन ग्रहः स्वकक्षावृत्तयोजनानि भ्रमति ततोनुपातो यदि कल्प ग्रहभगरगैः खकक्षामितयोजनानि लभ्यन्ते तदैकेन भगरगेन किमिति जाता ग्रह कक्षा=खकक्षा/कग्रभ, ग्रर्कोभषष्टचं श इत्यागमप्रामाण्येन भकक्षा/६०=रविकक्षा भकक्षा=६० रविकक्षा, एतैर्योजनैः सर्वेषां ग्रहारगामुपरि दुरे कतिपय नक्षत्रारगां व्रुत्तं भ्रमति, एतेनाअचार्योक्त्तमुपपन्नम्॥११॥
गोलाध्याय:
से आकाश में किरगों के सन्चार से जितनी दूर तक अन्धकार नष्ट होता है उस्की आक्रुति व्रुत्ताकार नहीं होती है। इसलिये कल्प कुदिन और ग्रहगति योजन के चततुल्य यह खकक्षा कल्प में ग्रहों के भ्रमरा योजन अर्थात् कल्प में जितने योजन ग्रह् भ्रमरा करते है के बराबर होती है यह कह सकते हैं। खकक्षा के सम्बन्ध में आचायों का मत भिन्न भिन्न है इसलिये सिध्द्द्न्तशिरोमरि में ब्रह्माण्दमेतन्मितमरतु नो वा कल्पे ग्रह: क्रामरति योजनानि से भस्कराचर्य कहते है कि कल्प में जितने योजन ग्रह् भरमरा करते है ततुल्य ही सकक्षा योजन है मेरा मत है।
कल्प में चन्द्रभगरा=२७७२३३०००० भ्रत:कल्प चंभगरा ३२४०००=*२७१२०६२००००००००=सकक्षा। भास्कराचार्यं ने भी कोतिघ्नैर्नखनन्दषट्कनख भू इत्यादि से आचार्योक्त सकक्षा तुल्य योजन भ्रमरा करते हैं एक भ्रमरा भोग से ग्रह स्वकक्षाव्रुत्त योजन भ्रमरा करथे हैं । तव अनुपात करते है यदि कल्प य्रहभजरा में सकक्षायोजन पाते है तो एक भगरा में क्या इस अनुपात से ग्रह कक्षा आती है सकक्षा/कग्रभ=ग्रहकक्षा,भ्रर्को भपष्ट्यं-श:अर्थात् नक्षत्र कक्षा का साटंबा भाग रवि कक्षा है इस भ्रागमप्रमा से भकक्षा/६०=रविकक्षा । भकक्षा=६०*रविकक्षा । इतने योजने पर सब ग्र्हों से ऊपर दूर में कितने नक्षत्र का व्रुत्त है,सूर्य सिध्दान्त में भवेदुभकक्षा तीक्ष्राशोभ्रँमरां षष्टितञितम् । सर्वोपरिष्टात् भ्र्मति योजननैस्तैर्भमण्ड्लम् सूयीश पुरुष की इस उक्ति के सध्यश ही आचायं ने कहा है यस्य भगरोर्विभक्तास्तत्कक्षा यह आचार्योक्त भी सैव यस्कल्प भगरोर्भक्ता तद्रुभ्रमरां भवेत् इस सूर्याश पुरुषोक्त के अनुरूप ही है॥
ग्रहा:कियन्ति योजनानि भ्रमन्तीत्याह ।
भपरिधिसमानि षष्टया खपरिधितुल्यानि कल्परविवषै:।
गच्चन्ति योजनानि ग्रहा: स्वकक्षासु तुल्यानि॥
सु० भा०- षष्टया रविवर्षषष्टया ग्रहा: स्वकक्षासु भूपरिधिसमानि नक्षत्रकक्षसमानि योजनानि कल्परविवर्षैश्व्व खपरिधितुल्यानि खकक्षासमानि योजनानि गच्चन्ति । तथा सवे ग्रहा: कल्पे तुल्यान्येव योजनानि खकक्षामितानि जच्चन्ति ।
अत्रोपपत्ति:।
भास्करोक्तोन विधिना स्फुटा। नकक्षा=६० रकक्षा= खक/क सौव *६० खक=नक*कसौव/६० । f?. *F&tT (^T^W^T) ^qrj^f^ ^STr^fa
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१३४० ब्राह्मस्फुतटसद्धान्ते
कल्पसौरवषै: खकक्षामितयोजनानि तदा सौरवर्षष्टचा किम् । लब्धानि ग्रहभ्रमरगयोजनानि = नक्षत्रकला । ञ्रत उपपन्नं भपरिधिसमानि षष्टचेति । संप्रति वेधेन नवीनानां मते ग्रहारगां योजनात्मिका गतिर्न समानेति सुधीभिशश्चिचन्त्यम् ॥१२॥
वि भा- षष्टचा (सौरवर्षषष्टचा) कल्परविवर्षैश्च खकक्षातुल्यानि नक्षत्रकक्षासमानि योजनानि ग्रहाः स्वकक्षासु गच्छन्ति । तदा सर्वे ग्रहाः कल्पे तुल्यान्येव योजनानि खकक्षातुल्यानि परिभ्रमन्तीति ।
भ्रत्रोपपत्ति:।
मर्को भषष्टधंश इत्यागमप्रामाण्यात् नक्षत्रकक्षा/६०=रविकक्षा, श्रत: नक्षत्रकक्षा=६०*रविकक्षा=खकक्षा/कल्परविभगरग*६०=खकक्ष/कल्पसौरवषं*६०, ञ्रतः नक्षत्रकं*कल्पसौवर्ष/६०=खकक्षा।
यदि कल्प्सौरवर्धॅः खकक्षा तुल्यानि योजननि तदा सौरवर्षषष्टाधा किं समागच्छन्ति ग्रहभ्रमरगयोजनानि नक्षत्रकक्षासमानानि ञ्रत उपपत्रमाचार्योत्त् मिति ॥१२॥
ञ्रख ग्रह कितने योजन भ्रमरग करते है सो कहते है।
हि मा - ग्रह ञ्रपनि कक्षा मे साठ सौरवषं से नक्षत्र कक्षातुल्य योजन कल्प रवि वर्ष से खकक्षा तुल्य योजन परिभ्रमरग करते है भ्रौर साव ग्रह कल्प में खकक्षा तुल्य ही योजन परिभ्रमरग करते है।
उपपत्ति।
नक्षत्र कक्षा का षष्ट्धशा है इस ञ्रागम प्रमाराप से नक्षत्रकक्षा/६०=रविकक्षा,ञतःनक्षत्रक=६०रविक=खकक्षा/कल्परविभगरग*६०=खकक्ष/कल्पसौरवर्ष*६० नक्षत्रकक्षा*कल्पसौवषं/६०=खकक्षा।
यदि कल्प सौरवर्ष में खकक्षा योजन पाते है तो साठ सौरवर्ध में क्या इससे लब्ध भ्रहभ्रमरगयोजन नक्षत्रकक्षा के समान आता है इति ॥१२॥
इदानीं ग्रहकक्षाक्रममाह।
भगरगस्याधः शनिगुरुमुमिजरचिशुक्रसौम्यचन्द्रारगाम्।
कक्षा क्र्मेरग शीध्राः शनैसश्चराद्याः कलाभुत्तचा ॥१३॥ गोलाध्यायः
भगरगस्याधो भकक्षाया श्रघः क्रमेरग शनि-गुरु-कुज-रवि-शुक्र बुध-चन्द्रारगाम् कक्षाः सन्ति। कलाभुत्तया शनैश्चराद्याः शीघ्राः शीघ्रगतयः सन्ति शनेर्गुरुः शीघ्रगामी। गुरोर्भोमः। भौमाद्रविरित्यादि। एवं शीघ्रतमः शशी भवतीति। यदि शशिन ऊर्घ्वक्रमेरग कक्षापाठः क्रियते तदा "भूमेः पिण्डः शशाङ्कज्ञ- इत्यादि भास्करोक्त्तमेतदनुरूपमेव।
श्रत्रोपपत्तिः।
कक्षाः सर्वा श्रपि दिविषदाम् इत्यादिभास्करविधिना शनैश्चराद्याः शीघ्रा भवन्ति। । कक्षाक्रमश्च वेघोपलब्ध्या। संप्रति वेघेन सर्वे ग्रहा दीर्घवर्तुले भ्रमन्ति। यदेकनाभौ रविरचल इति सर्वमुपलभ्यते। प्राचीनैर्भ्रमाद्ग्रहारगां कक्षा वृत्ताभा भूकेन्द्र्काश्च निश्चिता इति ॥२३॥
वि.भा,- नक्षत्रकक्षाया श्रघः क्रमेरग शनि-गुरु-मङ्गल- रवि-शुक्र-बुध-चन्द्रारगा कक्षाः स्युः। कलात्मकगत्या शनैश्चराद्या ग्रहाः शीघ्रगतयः सन्ति। शनितोगुरुः, गुरोर्मङ्गलः, मङ्गलाद्र्विरित्यादयः शीघ्रगामिनः सन्ति। एतेन चन्द्रः सर्वग्रहापेक्षया शीघ्रगामी भवति; यदि चन्द्रादूर्ध्वक्रमेरग ग्रहकक्षास्थितिर्हश्यते तदा "भूमेः पिण्डः शशाङ्कज्ञकविरविकुजेज्यार्किनक्षत्रकक्षावृत्तै" रित्यादि भास्कराचार्योक्ता ग्रहकक्षास्थितिरेवाऽऽयातीति।
श्रत्रोपपत्तिः।
ग्रहकक्षानिवेशः कथमीहश एतज्ज्ञानं बिम्बीयकर्णज्ञानाघीनमस्ति, यस्माद् ग्रहबिम्बीयकरर्गमानमघिकं भवेत्तत्कक्षा महती भवत्यर्थाद्यस्य कर्णमानमल्पमस्ति कत्कक्षातः सा कक्षो (यस्यकरर्गमानमघिकं तदीया) परिगता भवत्यतो वेघेन बिम्बीयकर्मसाधनं क्रियते।
भू=भूकेन्द्रम्। पृ=भूपृष्ठस्था-नम्। वि=ग्रहबिम्बकेन्द्रम्। ह=हष्टिस्थानम्। पृह= नरोच्चिछ्र्तिः। भूवि=बिम्बीयकरर्ग:। भूपृ= भूव्यासार्धम्॥ भूव्यासार्धम् विदितमस्ति, तथा नरोवच्छ्रितिरपि बिदितास्ति। विपृह, विहपृतुरीय यन्त्र- द्वारामापनेन। विदितौ ततः २८०- (<विपृह + विहपृ) = <पृविह श्रयमपि कोरगो विदितौ जातस्तदा विपृह त्रि१३४२ ब्राह्मस्फुटसिद्धन्ते
भुजेऽनुपातेन
पृदृ x ज्या < पृदृवि -------------- = पृवि , कोणज्या कोणोनभार्धाशज्ययोस्तुल्यत्वात् ज्या < पृदृवि ज्या < विपृदृ = ज्या (१८०-<विपृदृ)< विपृभू कोणस्यापिज्ञानं जातम्|
तदा विपृभू त्रिभुजे विपृ, भूपृ भुजयोस्तदन्तर्गतकोणस्य ज्ञानात् 'भूसम्मुखास्रोद्बव कोटिशिञ्जिनीत्या' दि प्र्कारेण भुवि भुजस्य ज्ञानं भवेदयमेव बिम्बीयकर्ण इति |
अथवा वेधेन बिम्बीयकर्णानयनम् | भू = भूकेन्द्रम् | वि = ग्रह बिम्बकेन्द्रम् | वे = प्रथमवेधस्थानम् | वे`= द्वितीयवेधस्थानम् | भूवि= ग्रह-बिम्बीयकर्ण:| विवेन, विवे`म कोणौ तुरीययन्त्रद्वार मापनेन विदितौ, वेवे`= वेधेस्थानान्तरं विदितमस्ति तदा तत्पूर्णज्याऽपि विदिता भवेत्| भूवे = भूवे` = भूव्यासार्धम् | तदा भूवेवे` त्रिभुजे भुजत्रयज्ञानात् कोणत्रस्यापि ज्ञानं भवेदेव १८० - (<विवेन + <भूवेवे`) = <विवेवे` एवं १६० - (<विवे`म + <भूवे`वे) - <विवे`वे इति कोणद्वयस्य ज्ञानात् १८० -(<विवेवे` + <विवे`वे) = <विवेवे` एतत्कोणस्यापि ज्ञानं जातम् | तदा वेविवे त्रिभुजेऽनुपातेन् वेवे` x ज्या < विवे`वे ----------------- = वेवि , ततः भूवेवि त्रिभुजे भूवि, ज्या< वेविवे` वेवि भुजयोस्तगन्तर्गतकोणस्य च ज्ञानात् 'भूसम्मुखास्रोद्भवकोटिशिञ्जिनी' त्यादिना भूवि आधारस्य ज्ञानं भवेदयमेव बिम्बीयकर्णः |
एतद्वेधेन कर्णनयनेन सर्वग्रहकर्णापेक्षया चन्द्रस्य कर्णोऽल्प उपलब्धोऽतः सर्वेषां ग्रहाणां कक्षापेक्षया चन्द्रकक्षालघ्वी, चन्द्रबिम्बीयकर्णाबिम्बीयकर्णोऽषिकस्ततोऽषिकः शुक्रस्येत्यादेर्यथा यथाऽधिकः कर्ण उपलब्धस्तथातथोपर्युपरि चन्द्रबुधश्हुक्रविकुजगुरुशनैश्चराणां कक्षा आचार्येणोक्ताः | वेधादिना सूर्यकेन्द्राद् ग्रहाणां विम्बान्तरसूत्रज्ञानेन ग्रहाः सूर्यपरितो दीर्घवृत्ताकारकक्षासु भ्रमन्तीति नव्यानां मतेन सिध्यति||१३||
अब ग्रहकक्षाक्रम को कहते हैं |
हि.भा. - नक्षत्र कक्षा के नीचे क्रम् से शनि-गुरु-मङ्गल-रवि-शुक्र-बुध-चन्द्र
गोलाध्यायः ग्रहों की कक्षाएं है | कलात्मक् गति से रानैश्च्ररादिग्रह् शीघ्रगतिक् है भ्रर्षात शनि से ग्रुह् शीघ्रगतिक् है,गुरु से मङल्, मङल् से रवि,रवि से शुक्र,शुक्र से बुध,बुध् से चन्द्र सीघ्र्- गामी है | इससे चन्द्र सब् ग्रहों से भषिक् शीघ्रगतिक् सिध्द् होता है |यदि चन्द्र् से उर्ध्व क्रम से ग्रह कक्षा स्थिति को देखा जाय तो सिध्दन्तशिरोमरिग मे ' भुमेः पिण्डः शशाखज् कवि- रविकुजेज्यकिं नक्षात्रकक्षा' इत्यदि भास्क्रराचर्योक्त ग्रह् कक्षा स्थिति ही देखने में भाती है|
उप्पति | यहां सन्स्क्रुतोपपत्ति में लिखित(क) क्षेत्र को देखिये | ग्रह् कक्षाओ कां निवेशक्रम् ऐसा( भाष्य में लिखित के अनुसार) क्यों है इसका ज्ञान के बिम्बीय करगों के ज्ञान से होता है| जिस ग्रह केबिम्बीय करगों से जिस ग्रह का बिम्बीय करगं होता है उसकी कक्षा बडी होती है भर्यात् जिसका बिम्बीय करगं भल्प है उसकी कक्षा से वह कक्षा( जिसका बिम्बीय करगों भषिक है) ऊपर होती है | भतः वेध से बिम्बीय करगार्नयन करते है|
भू=भूकेन्द्र,प्रु=भ्रुप्रुष्ट्स्थानं,वि=ग्रह,विस्मकेन्द्र,ह=हुष्टिस्थान,प्रुद्य्=नरोच्च्ति, भूवि=बिम्बिया करगं, भूप्र=भूव्यासाधं ,भूव्यासाधं भ्रोर् नरोच्चिति विदित है विप्रुद्य ,विप्रुद्य दोनोंका कोरगा तुरिय यन्त्र से मापन करके जान लिये तब
२=०-(<विप्रुद्य्+विद्य्प्रु)=<प्रुविह यह कोराग भी विदित हो गया,भ्रव विप्रुद्य
प्रुद्य्*ज्या<प्रुद्यवि
में त्रिभुज में भनुपात करते है| ज्य<प्रुविह = प्रुवि कोरगाअज्या भोर भधार्राज्या बराबर होति है भ्रतः ज्य< विप्रुद्य =ज्या( १=०-<विप्रुद्य) से <विप्रुभू कोरग का भी हो गया तब विप्रुभू त्रिभुज में विप्रु, इन दोनों भुजों के तथा उस षन्तर्गत करोग के ज्ञान से भुसमुखास्त्रोद्भ्व कोठिशिज्ञ्जनी इत्यदी प्रकार से भुवि का ज्ञान हो जायागा यही बिम्बीय करगं है इति| |«r ^rr sif^P |fcrr |, srer: srar ^ 5«r ^fstt 3Tf |, f «r ^rjt
It W srft^ |^TT | T5T: ^OT If wit |, tjsf §?R JRTT & tPt wit, tRt ^tt % fsr tot, jar % p ??nft ^sroff ^ #ft ^q^qft m^ram ^^rranr qrc % sisr |, fairer *f 'n^m^r^rg^- prefer i srer ^5«'-sOseMttf s^hpstrt ?t^t ^ft%?t 3R?srct srfa^ H^-d V4<RiWI T^fT ^T^FT I गोलाध्यायः १३४५ ग्रहगतियोजनैः किमित्यनुपातेन योजनगतिसम्वन्धिकलाः समायान्ति । तस्मा- द्यस्य अहस्य कक्षा महती तस्य कलाया लघुत्वं, यस्य कक्षा लध्वी तस्य कलाया महत्वं सिध्यति । शनि कक्षाऽन्यग्रहापेक्षया महती, चन्द्रकक्षा च लघ्वी, अतः शनैश्वरस्य कलात्मिका मध्यगतिर्लघुतमा, चन्द्रस्य च महत्तमा भवति, चन्द्रापेक्षया बुधोऽल्पगतिः । बुधापेक्षया शुक्रऽल्पगतिः । शुक्रापेक्षया रविरल्प- गतिरित्यादि । सिद्धान्तशेखरे 'तुल्या गतिर्योजनवत्मनैषां लिप्ता प्रकृत्या मृदुशीघ्र भावःऽप्येवमेवास्ति । सिद्धान्तशिरोमणौ “कक्षाः सर्वा अपि दिविषदां चक्रलिप्ता छूितास्ता वृत्ते लघ्व्यो लघुनि महति स्युमंहत्यश्च लिप्ताः । तस्मादेते शशिज भृगुजादित्यभौमेज्यमन्दा मन्दाक्रान्ता इव शशधराद् भान्ति यान्तः क्रमेण’ इत्यनेन भास्कराचार्येणाप्याचार्योक्तानुरूपमेव कथ्यत इति i१४।। अब शनैदचरादिग्रह कैसे शीघ्रगतिक होते हैं इसके कारक कहते हैं। हि. भा--स्वल्पवृत्त में राश्यंश विभाग लघु होते हैं । यहवृत्त में वे विभाग महान (बड़े) होते हैं । इस कारण से चन्द्र छोटी अपनी कक्षा को अल्प समय में ही पूरा करते हैं अर्याल सम्पूर्ण कक्षा में घूम जाते हैं, और शनैश्चर अपनी बड़ी कक्षा को बहुत समय में पूरा करते हैं अथव सम्पूर्ण कक्षा में घूमते हैं । अतः सब ग्रहों की योजनात्मक गति तुल्य ही होती है, ‘समा गतिस्तु योजनैर्नभः सदां सदा भवेदि' ति भास्करोक्तः सिद्धान्तशेखरेऽपि ‘तुल्यागतिर्योजनवत्मंनेषां श्रीपत्युक्तं सव ग्रह कक्षाओं की कलाओं की असमता के कारण फलादिक गति तुल्य नहीं होती है। अर्थात् अपनी अपनी कक्षा में भ्रमण करते हैं । कक्षा वृत्तों में चक्रकला अङ्कित है यदि ग्रह कक्षा योजन में चक्र कला पाते हैं तो ग्रहगति योजन में क्या इस अनुपात से योजन गति सम्बन्धी कला आती है । इस कारण से जिस ग्रह की कक्षा बड़ी हैं उसकी कला छोटी होती है और जिसकी कक्षा छोटी है उसकी कला बड़ी होती है यह सिद्ध हुआ। शनि कक्षा अब ग्रहों की कक्षाओं से बड़ी है इसलिये शनैश्चर की कलात्मक मध्यमगति सब ग्रहों की गति से छोटी होती है, चन्द्रकक्षा सब ग्रहों की कक्षा से छोटी है इसलिए चन्द्र की कला रमक मध्यमगति सब ग्रहों की मध्यम गति से बड़ी होती है। अतः सबसे शीघ्रगतिक चन्द्र होता है । चन्द्र से अल्पगतिक बुध, बुध से अल्पगतिक शुक्र, शुक्र से अल्पगतिक रवि इत्यादि कक्षाक्रम के अनुसार शीघ्रगतिक और मन्दगतिक होते हैं । सिद्धान्तशेखर में तुल्यागतिर्योज नवमनैषां लिप्ता प्रकृत्या मृदुशीघ्रभाव इससे श्रीपति ने भी शीघ्रगतिक और मन्दगतिक होने का कारण यही कहा है । सिद्धान्त शिरोमणि में ‘कक्षाः सर्वा अपि दिविषदां’ इत्यादि में भास्कराचार्य भी आचार्योंक्त के अनुरूप ही कहा है इति १४॥ इदानीं वृत्तपरिधेयसानयनमाह । यन्मूलं तद्व्यासो मण्डललिप्ताकृतेर्देशहूतायाः । तस्याधं व्यासात्रं योजनकर्णप्रमाणाधीस् ॥१५॥ §snfcft vr^r s*mmf prefer i ^srr#*#*J<T ^se- ■RJwftsF f^f^:= , w-^ *r f^rwR-
ब्रम्ह्स्फुटसिध्दान्तो
सु-भा.- मन्डललिप्ताकृतेश्क्रकलाककृतोर्ढशह्म्ताया यन्मूलम् तच्च्क्र्कलाषरि धेर्व्यासो भवति तस्यर्थम् व्यासाघं भवति। तदयासाधम् ग्रह्काशायोजनैहूणं चक्र कलाह्रुतम् फ्लम् ह्रग्योजनाकऐप्रमाणं भवति। एवं योजनकर्ण प्रमाएथमिढं व्यासार्धमुपयुत्मस्ति। इदम् व्यासाधं स्थूलादग्रहयोजनकएप्रमाऐ च स्थूलम् सुखार्यमड्गीकृतम्। वस्तुतो वृतपरिधिवग्रिस्य दशह्त्स्य मूलम् व्यासो न सूष्मो भवतीति सूचितम्। ज्यादीनामानयनो स्थूमल्त्वादयम् व्यासो न युत्त इत्येतदयम् वस्यति चेति॥१४॥
वि.भा- धशभतुस्य चक्रकलावहग्र्स्य यन्मूलम् तच्चक्र्कला परिधेव्यासो भवति। तस्याथम् व्यासर्थम् भवति। तस्याथम् व्यासाथम् भवति।म तद्व्यासाथम् ग्रह कशायोजनैर्गगुए चक्रफलाभत्तूं तदा ग्र्हयोजनकएंप्रामाए भवति, इदम् सधितम् व्यासाधं योजनकयर्थमुप्युत्तुमस्तीति।
शास्त्रेपपत्तिः व्यासे भतन्दाह्नीगहते विभतू खावाएसूथेरित्यादि भास्करोत्परिश्यान् यनप्रकारेए वृत्त्तपरिधिः= व्याx३९२७/१२४०, भत्रा ३१२७/१२४० स्य विततरूपकर्येनास्न्न्मनानि २२/७, ३४४/११३, ३१२७/१२४० व्यासा परिध्या सम्भन्धा = २२/७,३४४/११३, ३६२७/१२४० भास्रेया व्यसा x सम्भन्ध= व्या x ३१९७/१२४०=सूक्ष्म्परिधि: कथ्यते, पर ३४४।११३ मिदम् कथम् न म्हीतम्, एतद्र्ग्रहऐन तु-भास्करोत्त्सूशमपरिधितोपि सूशमतरः परिधिभवितुमहति. परिधि।व्या=सम्भन्ध=सम्=२२७= 3/+१।७ अत्रस्य वग्रम् सम् = (३+२/७) २०स्वमल्पतरत् ..परिधि।व्या=२०. परिधि=१०*व्या पशो २० भत्रिओ तदा परिधि।२०=व्या,मूलेन √परिधि।१०=व्यसा, प्प्र्न्तूअरन्तु (३+२/7) परिधिर्भवति, तत्र किन्चदधिकत्ररागं वर्गा दषभिर्गुरियेतस्तनम्मुलं: परिधिरेव भवितुमह्ंति,दशग्रहराद् दोषावहमेव व्यख्यरथते मन्नव्यनां व्यख्यनसेव समीचीनमिति सुयंसिद्रुन्तस्य सुधवर्षरीटिकयां म म पण्डित् सुधकरद्विवेदिन कथयन्ति।स्थलपरिधित: सधितं व्यसध् स्तुभवेत् मेवत्। वस्तुतो दश भक्तुस्य उथ्परिधिवर्गस्य मुलं सोक्क्मो व्यासे न भवति , सधितो व्यसह: स्थुल:ज्यदीनामानोपयुक्तो नहि कथथतीति॥२५॥
चक्रकला वर्ग को दष से भाग देने से जो लध्व हो उस्का परिधि का व्यस होता हे। उस व्यसर्ध को ग्रह जुरा। कर चक्रकला से भाग देने से ग्रह योजन कर्जा प्रमारए होग्ते हे।यह खदित् व्यसर्थ् योजना कर्गा प्रमयेए के लिये उपयुक्थ् हे।
व्यसे भनन्दग्निनहिते विभक्तु खवरसुर्ये इत्यदि भस्करोत्पर्ध्यययन से व्रुत परिधि ३६७Xव्या/१२४० यहा इस्का विततरुप् कर्ने से मान २२/७ , ३५४३६१५/११३१२५० हे , व्यस परिधि का सम्बन्ध =सं व्या X प=व्याX३६२७/१२५० = भस्करोत् सुक्ष्म परिधि , तथा २२X व्या/५ =स्थुलपरिधि , परन्तु ३५५Xव्या/११३ यह "व्यासेपन्चाग्नि क्षुणर्गो दहनेषभिते परिधि, जिस्को भस्काराचार्य ने नहि कहा हे। इस्के समवन्द् मे" व्यसे पन्चरग्नि क्षुनग्नि दहनेशाभाजिते परिधी:। परिधि/व्यसा=स=स२ इस्का वगं=(३+१/७)=१० स्वलापान्तर से =स=षाधार दोनों पक्षों को दशा से भगा देने से प/१० = व्या,मुलासेनेसे व्या,पुरन्तु (३+ / ७) > १० क्षुत: ' तदर्गतोदशागुराप्त्यपद परिधि इस सुर्यसिद्धन्तानतु परिद्यान से नवेएन लोग "नतदग्ंनतोदशगुरातु पदं परिधि नहिं जो दश वह् क्षुदश । Jf *ra" g% ^ 1 1 Tfpmr h- wfir jito sten" if prc? ^
qftfa *th ^rnn |, pj srftw <ffa ^ =nf farr 1 1 *rt: ^trt sutotst ^ ^ 1 1 gttMRfe sr>r 3?t *r ift ^nc ^r^^ ssreffa 1 *-$iifa =5fce: mnnwmm u^u g. — qcft >w<!.i=mmi*ii*I ^wr^qr SPPTTfa: ?TC3WfVr: TO: '^^f^'*— iter I *lfaW *ref«rfiTcq'«T: ^rTf^Rpr^JT (ct?tt^) wWfr .^j^Tffr ?r ^f%, 1 1 . 5?r. — f^rar |§ % «p?imt % ?fr wit ^rr s^mrr^ ^ ?r|)f ^it |, i?t% sqrrt ^ £f£ ffa f , ^rajr % ^ =q »°bwi <rMsr «** 1*11*1 ^ f^rr 1 15 ?rr^R ^ ifta|fo> % | ^Fer n?^n ?. ?m 1 अथ ज्याप्रकरणं प्रारभ्यते तत्र प्रथमं ज्याखण्डानयनमाह । राश्यष्टांशेष्वङ्गन् पदसन्धियः इमोत्क्रमात् कृत्वा । बध्नीयात् सूत्राणि द्वयोड़ योज्र्यास्तदर्धनि ।।१७ । ज्यार्धानि ज्यार्थानां ज्याखण्डखान्यन्तराणि तान्येव । व्यस्तान्यन्त्यदथवेषुत्क्रमज्या धनुस्ताम्याम् ॥१८॥ सु- भा.-इष्टत्रिज्यया वृत्तमुत्पाद्य लम्बरूपाभ्यां व्यासाभ्यां वृत्तचतुर्भागं कृत्वा चत्वारि पदानि कार्याणि । तत्र कस्माच्चिदपि पदसन्घितो ऽष्टादशशतकला नामष्टांशसमं शरद्विदत्रकलात्मकं धनुः क्रमादुत्क्रमात् कृत्वाऽर्थादुभयतो दत्त्वा द्वयोरग्रयोः सूत्रं बध्नीयादेवं द्विगुणशरद्विदस्रकलाचापं पदसन्धित उभयतो दत्त्वा द्वयोरग्रयोः सूत्रं बध्नीयात् । एवं त्रिगुणचतुर्णादि प्रथमचापवशतः सूत्राणि वध्नीयात् । एवं द्वयोर्दूयोरग्रयोर्बद्धानि सूत्राणि ज्याः पूर्णज्या भवन्ति । तासा मधुनि ज्याघूनि चतुविशतिर्भवन्ति ज्याघनामन् ज्याखण्डानि भवन्ति तान्येवान्त्याद्वघस्तानि स्थाप्यानि तदोत्क्रमज्या उत्क्रमज्या खण्डान्यथवेषुः शरखं ण्डानि भवन्ति । ताभ्यां क्रमोत्क्रमज्याखण्डानां घनुः साधनीयम् । ‘इष्टाङ्गुलव्यासदलेन वृत्तम्'-इत्यादि विधिना तथा स्यादुत्क्रमज्याऽत्र विलोमखण्डैः'-इत्यादि विधिना भास्करोक्तन स्फुटा १७१८। वि. भा.-इष्टत्रिज्यया वृत्तं विलिख्य लम्बरूपाभ्यां व्यासाभ्यां वृत्तचतुर्भागं विधाय पदानि कल्प्यानि, तत्र कस्माचिदपि व्यासप्रान्तासक्त (पदसन्धि) बिन्दोः राशिकलानां (अष्टादशशतकलानां) अष्टमांशेषु (शरद्विदसूकलात्मकेषु) प्रत्येकम झन्-लाञ्छनान् (चिह्नानि) क्रमादुत्क्रमात् कृत्वाऽर्थादुभयभागतो दत्त्वा द्वयोर्द्धयोः संमुखस्थचिन्हयोः सूत्राणि बध्नीयात् तानि ज्याः (पूर्णेज्याः) भवन्ति, तासां पूर्णज्या नामर्थानि ज्यार्धानि चतुर्विंशतिर्भवन्ति । ज्यार्धानामन्तराणि यानि तानि ज्याख ण्डानि भवन्ति । तान्येवान्त्याद्वयस्तानि स्थाप्यानि तदोत्क्रमज्या खण्डानि, अथवेषुः शरखण्डानि भवन्ति, ताभ्यां (क्रमोक्रमज्या खण्डाभ्यां) घतुः (चापं) साध्य मिति । १३५० ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते अत्रोपपत्तिः । सिद्धान्तशेखरै “राश्यष्टभागेषु विधाय लाञ्छनान् सन्धेः पदानां तदनु द्वयो धैयोः। निवध्य सूत्राणि परस्परं तयोः क्रमात् क्रमज्या शकलानि तद्दलम् । जीवा दलानां वित्राणि यानि ज्याखण्डकानीह भवन्ति तानि । व्यस्तानि वान्त्यादिषुवत् स्थितानि भचक्रषड्गोंऽशधनुर्बलस्य ।” इति सर्वथैवाऽऽचायक्तमेव श्लोकान्तरे णोक्त श्रीपतिना । भास्करोऽप्यमुमेवाशयं किञ्चिद्विशदीकृत्य इष्टाङ्गुल व्यास दलेन वृत्तं कार्यं दिगॐ भलवाङ्कितं च । ज्यासंख्ययाप्ता नवतेर्लवा ये तदाद्यजीबा धनुरेतदेव । द्वित्र्यादिनिघ्नं तदनन्तराणां चापे तु दत्वोभयतो दिगङ्गात् । ज्ञेयं तदग्रद्वयवद्धरज्जोरधं ज्यकाधं निखिलानि चैवम् । ज्याचापमध्ये खलुवाणरूपा स्यादुत्क्रमज्याऽत्र विलोमखण्डैः ।।” एवमाह पूर्व पठिताः क्रमज्या उत्क्रमज्याश्च कथमानीयन्ते इत्येतदर्थमियमुपपत्तिंरेव ज्यासाधनस्य । त्रिज्यादि कल्पनयाऽनेन विधिना ज्यार्थानां प्रमाणान्यनेतुशक्यन्त एवेति ॥१७१८। अब ज्या प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है। उसमें पहले ज्याखण्डानयन कहते हैं। हि. भा-इष्ट त्रिज्या से वृत्त बना कर लम्बरूप दोनों व्यासों से वृत्त को चार भाग करने से चार पद होते हैं । उसमें किसी पद सन्धि से अठारह सौ कलाओं के अष्टांश २२५ दो सौ पचीस कला तुल्य चाप को क्रम से और विलोम से अर्थात् दोनों तरफ से देकर दोनों के अग्न में सूत्र को बाँध देना चाहिए । एवं ह्विगुणित दो सौ पचीस कला को पद सन्धि से दोनों तरफ से देकर दोनों के अग्र में सूत्र को बाँध देना चाहिए । इस तरह दो दो के अग्न में बाँधे हुए सूत्र पूर्णज्याएं होती हैं । उनके आधे चौबीस ज्याधं (अर्धज्य) होते हैं। ज्याघ के अन्तर ज्याखण्ड होते हैं । उन्हीं को अन्त्य से व्यस्त (उल्टा) स्थापन करना । तब क्रमज्याखण्ड अथवा शरखण्ड होते हैं । उन दोनों खण्डों (क्रमज्या खण्ड औरउत्क्रमज्याखण्ड) से चाप साधन करना चाहिए । उपपत्ति । सिद्धान्तशेखर में ‘राश्यष्ट भागेषु विधाय लाञ्छनान् सन्धेः पदानांइत्यादि संस्कृतो पपत्ति में लिखित श्लोकों से श्रीपति ने आचार्योंक्त ही को सर्वथा श्लोकान्तर से कहा है । भास्कराचार्य भी इसी आशय को कुछ विशद कर ‘इष्टाङ्गुलव्यासदलेन वृत्तं कायं दिमङ्ग भलवाङ्कितं च' इत्यादि श्लोकों से इस तरह कहते हैं। क्रमज्याएं और उत्क्रमज्याएं कैसे लायी जाती हैं इसके लिये ज्यासाधन की यही उपपत्ति है त्रिज्यादि कल्पना कर इसी विधि से ज्याघों के प्रमाण ला सकते हैं इति ॥१७-१८ ज्याप्रकरणम् १३५१ इदानीं गणितेन ज्याघनयनमाह । एकद्वित्रिगुणाया व्यासार्धकृतेः पृथक् चतुर्थस्यः । मूलान्यष्टद्वादशषोडशखण्डान्यतोऽन्यानि ॥१६॥ सु. भा. --व्यासार्धकृतेस्त्रिज्याकृतेः किंभूतायाः । एकगुणायास्सथा द्विगु सायास्तथा त्रिगुणायाः पृथक् चतुर्थेभ्यश्चतुर्भागेभ्यो मूलानि क्रमेण अष्ट द्वादश षोडश ज्याखण्डानि ज्यार्धानि भवन्ति । अत एभ्यो ज्याधेभ्योऽन्यानि वक्ष्यमाण विधिना साध्यानि । अत्रैतदुक्त भवति । त्रिज्यावर्गे एकगुणश्चतुभंक्तस्तन्मूलं राशिज्याऽष्टमी ज्या । त्रिज्यावग द्विगुणश्चतुर्भक्तस्तन्मूलं शरवेदभागज्या द्वादशी ज्या । त्रिज्यावर्गास्त्रिगुणश्चतुर्भक्तस्तन्मूलं षष्टिभागज्या षोडशी ज्या । अत्रोपपत्तिः । भास्करज्योत्पत्त्या स्फुटा। भास्करेणापि तथैव पटितत्वा दिति ॥१॥ वि. भा–एकगुणितत्रिज्यावर्गस्य, तथा द्विगुणितत्रिज्यावगैस्य, तथा त्रिगुणितत्रिज्यावर्गस्य पृथक् चतुविभक्तस्य मूलानि क्रमेण -द्वादश-षोड़श अष्ट ज्यार्धानि भवन्ति, अत एभ्यो ज्याधेभ्योऽन्यानि ज्यार्धानि वक्ष्यमाणविधिना अत्रोपपत्तिः ।
- )
के=वृत्तकेन्द्रम् । नपचापम् =६०९, वनचापम्=३०°, नर=ज्या३०, पश = ज्या ६०, पन= पूर्णज्या (६०°)। नश=ष्याउ ६०, ज्याउ= उत्क्रमज्या तदा केनर, नश x केर पनश त्रिभुजयोः साजात्यादनुपातेन नश = नर-ज्याउ ६०xघ्या ६० =ज्या३० ज्या ६० ज्याउ ६०=त्रि-ज्या ३० समयोजनेन त्रि= ज्या ३०+ज्या ३०==२ ज्या ३० पक्षौ द्वाभ्यां भक्तौ तदा त्रि ==ज्या ३०=अष्टमं ज्यार्धम्=अष्टमी ज्या । अथ &क, / = ° ’ त्रि त्रि-ज्या' ३०=कोज्या' ३०=ज्या' ६०=त्रि-(त्रि ) =--सँ हिनि – कि मूल ग्रहणेन ज्या ६०=३कि. ३ त्र, १३५२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ज्या । त्रि=त्रिज्या । केम=केग=त्रि । मग=पूर्णज्या (९०, मय=गय= ज्या ४५, ल=मगचापार्धबिन्दुः। केम'+ केग'=पूज्या' (३०)=त्रि'+त्रि’=-२ त्रि'पक्ष चतुभिर्भक्तौ तदा पूज्या' (३०) = २ त्रि' -ष्या' ४५ मूलेन /२ क्षुि । =ज्या ४५=द्वादशी ज्या, एतेनैकगुणितत्रिज्यावर्गश्चतुर्भक्तस्तन्मूलमष्टमी ज्या =राशिज्या=त्रिशदंशज्या, त्रिज्यावर्गा द्विगुणश्चतुर्भक्तस्तन्मूलं पञ्चचत्वारिंश दंशज्या=द्वादशी ज्या त्रिज्यावर्गस्त्रिगुणश्चतुभं भक्तस्तन्मलं षष्टिभागज्या=षोड़शी ज्या, आचायोंक्तमुपपन्नम् । सिद्धान्तशेखरे शशियमदहननात् व्यासखण्डस्य वर्गात् पृथगुदधिविभक्तात् त्रीणि मूलानि यानि । वसुरविनृपसंख्याभाञ्जि जीवादलानि क्रमश इह भवेयुर्नूनमन्यानि तेभ्यः । इत्यनेन श्रीपतिनाऽऽचार्योक्त मेव श्लोकान्तरेणोक्तम् । भास्करेणापि “त्रिज्यार्ध राशिज्या तकोटिज्या च षष्टि भागानाम् । त्रिज्यावर्गावुपदं शरवेदांशज्यका भवति ।’ इत्युत्तञ्च तदेवोक्त मिति ॥१६ अब गणित से ज्याघ्नयन को कहते हैं। हि. भा.-एक गुणित त्रिज्यावर्गों को मार से भाग देकर सूल लेने से अष्टमज्यार्षे = अष्टमीज्या=तीस अंश की ज्या होती है, तथा द्विगुणित त्रिज्यावर्षों को घर से भाग देकर सूल लेने से पैतालीस अंश की ज्या=ड्दशीज्या होती है, एवं त्रिज्यावर्गे को तीन से गुणाकर घर से भाग देकर सूल लेने से साठ अश की ज्या=षोड़शी ज्या होती है इति । उपपत्ति । बहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये । के=वृत्तीन्द्र । नपचाप =६०° । वनचाप=३०°, नर= या ३०, पश=ज्या ६०, वन=पूर्णज्या (६०) । नश =ज्याउ ६० । ज्यउ=उत्क्रमज्या, तब केनर, पनश दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से नया केर अनुपात करते हैं ज्याउ ६०ज्या ६० नर== =३० = ज्या ज्याउ ज्या ६० ६०=त्रि-ज्या ३० दोनों पक्षों में ज्या ३० जोड़ने से त्रि=ज्या ३०+ज्या ३०८२ ज्या ३० दोनों पक्षों को दो से भाग देने से त्रि =ज्या ३०==अष्टमीज्या= राशिज्या । तथा
त्रि -- ज्या' ३० = कोज्या' ३० = ज्या ६० =त्रि- -
- =f= त्रिशूल लेने से ज्या ६०= ३ =ि
तया केम==केग=त्रि । मग चाप पूर्णज्या=पूज्या (e०) । मय= गय=ज्या ४५ । ल= १३५३ --~~=ज्या ४५= द्वाद- मगचापाघ्र बिन्दु केम'+केग'-पूण्या' (e०)= २ त्रि' दोनों पक्षों में चार से भाग देने से पुष्या' (६०) =ज्या ' ४g=२ त्रि मूल लेने से लि शी ज्या, इससे आचायत उपपन्न हुन । सिद्धान्तशेखर में ‘शशियमदहननाद इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से श्रीपति ने आचार्योंक्त ही को श्लोकान्तर से कहा है । भास्कराचार्य ने भी “त्रिज्याधं राशिज्या' इत्यादि से वही कहा है इति ॥१६ इदानीमशंशज्यानयनमाह । तुल्यक्रमोरक्क्रमज्यासमखण्डकवर्गयुतिचतुर्भागम् प्रोह्यानष्टं व्यासार्धवर्गतस्तस्पदे प्रथमम् ॥२०॥ तद्वलखण्डानि तद्नजिनसमानि द्वितीयमुत्पत्तौ । कृतयमलैकदिगीशेषु सप्तरसगुणनवावीनाम् ॥२१॥ सु. भा. –तुल्यचापस्यैकस्यैव चापस्य समक्रमज्योत्क्रमज्ययोर्वर्गयुतेश्चतुर्था शमनष्टं व्यासार्थकृतेः प्रोह्य हित्वा तत्पदे अनष्टस्य शेषस्य च ‘पदे ग्राह्यो । तत्र प्रथमं पदं तद्वलखण्डानि तच्चापाखंज्या द्वितीयं च तद्नजिनसमानि तदर्धचापकोटि- ज्या स्यात् । एवमुत्पत्तौ ज्योत्पत्तौ पुनः पुनः समज्यार्धादष्टमाद् द्वादशाच्च कर्मणि कृते कृतयमलैकदिगीशेषु सप्तरसगुणनवादीनां ज्यार्धानामुत्पत्तिः स्यात् । यथाऽष्टमाज्ज्यार्धात् तदर्धभागज्यया तत्कोटयर्धभागज्यया च ४ | २० | १० | १४ |५ | १९| ७ | १७ २ २२| ११ | १३ १२३ द्वादशाज्ज्यार्धाच्च ६ | १८९! १५ ३/ एतानि सिध्यन्ति । द्वादशं षोडशं चतुर्विंशतिसर्दीय त्रिज्येत श्रयं च ज्ञातमेव । अत इष्टव्या साधे तदर्धज्यानयनेन चतुविंशतिज्याः सिध्यंति । अत्रोपपत्तिः । 'क्रमोत्क्रमज्याकृतियोगमूलाद्इत्यादिभास्करविधिना स्फुटा २०-२१॥ वि. भा–एकस्यैव चापस्य क्रमज्योत्क्रमज्ययोर्वगंयुतेश्वतुर्थाशमनष्टं त्रिज्या वर्गाद्विशोध्य तन्मूले (अनष्टस्य शेषस्य च) ग्राह्य, तत्र प्रथममूलं तच्चापाञ्चज्या द्वितीयं च तद्नजिनसमानि तदर्धचापकोटिज्या स्यात् । एवमुत्पत्तौ (ज्योत्पत्तौ) १३५४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते पुनः पुनः समज्यार्धादष्टमाद् द्वादशाच्च कार्यकरणेन कृत ४ यमलै २ क १ दिगी १० रो११ ७ ५ सप्तरसगुणनवादीनां ज्यार्धानामुत्पत्तिर्भवेत् । अत्रोपपत्तिः । के=वृत्तकेन्द्रम् । रय= इष्टचुपम। यन=चापज्या रन = चापस्योत्क्रमज्या, यर=चापपूर्णाज्या, तदा यन" के _ ) +रन'= यर'=चापपूर्णज्या ' पक्षौ चतुभिर्भक्तौ तदा यन'+रन'_चापज्या +चापोत्क्रमज्या' चापपूर्णज्या ' = चापाखूज्या = अनष्ट। त्रि' – चापपुणज्या ' =चापाउँकोटिज्या' । द्वयोर्मल ग्रहणेन - चापज्या' + चापोत्क्रमज्या' =चापाखूज्या। /त्रि ' चपपूज्या =चापार्श्व कोटिज्या । एतेन नियमेनाष्टमाज्ज्याघत् तदर्धाशज्यया तत्कोटय शार्धज्यया च अष्टमाज्ज्यार्धात् तदर्धज्या चतुर्थी ४। तत्कोटिज्या विंशी २०। एवं चतुर्थात् द्वितीया २ द्वाविंशी २२ च, द्वितीयात् प्रथमा १ । त्रयोविंशी च । एवमष्टम्या ज्यायाः तदर्धाशज्यय। तत्कोटयत्रंशज्यया च ४ । २०, २। २२, १ । २३, १०। १४ ५ । १९, ७ । १७, ११। १३, द्वादश्याश्च ६ । १८, ३ । २१, ९ ॥१५ त्रिज्या चान्ति मा चतुविंशी ज्या भवतीति । सिद्धान्तशेखरे। ‘उत्क्रमक्रमसमानसमज्याखण्डवर्ग युतिवेदविभागम् । व्यासखण्डकृतितस्तमनष्टं शोधयेदथ पदे भवतो ये । आद्यमूलमिह तद्दलसंख्यं तद्विहीनजिनसम्मितमन्यत् । ज्यार्धमेवमपराणि समेभ्यो ज्यादलानि न भवन्त्यसमेभ्यः ।” श्रीपत्युक्तस्यास्याऽचायक्तमादर्शरूपमस्ति । भास्कराचार्येणापि । “इष्टा त्रिज्या सा श्रुतिदद्भुजज्या कोटिज्या तद्वगं विशेषमूलम् । दोः कोटघ शानां क्रमज्ये पृथक् ते त्रिज्याशुद्ध कोटिदोरुत्क्रमज्ये । ज्याचापमध्ये खलु वाणरूपा स्यादुत्क्रमज्या त्रिभमौविकायाः । वर्गार्धमूलं शरवेदभागवा ततः कोटिगुणोऽपि तावान् । त्रिभज्यकाउँ खगुणांशजीवा तत्कोटि जीवा खरसांशका नाम् । क्रमोत्क्रमज्या कृतियोगमूलादलं तदर्धांशकशिञ्जिनी स्यात् ।” इत्ययमेवार्थः स्फुटोत्तचा सम्यगुक्त इति ॥२०-२१॥ अब अर्धशज्यानयन को कहते हैं । हि- भा-एक ही चाप की समक्रमज्या और उसक्रमज्या के वर्ग योग के चतुर्थांश (प्रनष्ट) को त्रिज्या वर्गों में से घटाकर उनका (अनष्ट और शेष) मूल लेना चाहिये उन में प्रकरणम् १३५५ प्रथम मूल उस चापाखं की ज्या होती है, और द्वितीय मूल चोवीस में से उसको घटाने से उस अर्धचाप की कोटिज्या होती है। इस तरह ज्योत्पत्ति में पुनः पुनः समज्याधं अष्टम से और बारहम से कम करने से ४ । २ । १ । १० । ११ । ५। ७ । ६।३18 आदि अर्धाङ्गज्या होते हैं। जैसे अष्टमज्या की अञ्चशज्या और उसकी कोटिज्या से ४। २०, २ । २२, १ । । ३, १० १ १४, ५ ।e, ७ । १७, ११ । १३ बारह वीज्या से ६ । १८, ३ । २१, ६ १५ बाहवीं सोलहवीं चौबीसवीं (त्रिज्या) ये तीनों ज्या विदित ही हैं इन से इष्ट व्यासार्ध में उनके अर्धज्यानयन से चौबीस ज्याए सिद्ध होती हैं इति । उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये । के=वृतकेन्द्र । रय= इष्ट चाप, यन=चापज्या । रन=चाप की उत्क्रमज्या । यर=चापपूर्णज्या। तव यन'+रन यन' +ल =यर'=चापपूर्णज्या, दोनों पक्षों को चार से भाग देने से चाषज्या' +चापोत्क्रमज्या' चापपूर्णज्या' =चापधज्य =अनष्ट, त्रि. चापपूज्या_=चापार्धकोटिज्या, दोनों का मूल लेने से A/ चापज्याचापोत्क्रमज्या' ' + = चापर्धज्या तथा , A/त्रि - चाऽया' = चापाषं कोटिज्या । इससे आचार्योक्त सूत्र उपपन्न हुआ। सिद्धान्तशेखर में ‘उत्क्रमक्रमसंमानसमज्याखण्डवर्गयुतिवेदविभागम्' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्रीपयुक्त श्लोकों का आदर्श आचार्योंक्त ही है, भास्कराचार्य ने भी “इष्टा त्रिज्या सा श्रुतिट्टभुजज्या" इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोकों से आचार्योक्त बात को ही स्पष्टतया कहा है इति ।।२०-२१॥ इदानीं विशेषमाह । एवं जीवाखण्डाल्पानि बहूनि वाऽऽद्यखण्डानि । ज्यार्धानि वृत्तपरिधेः षष्ठचतुर्थभागानाम् ।२२। सु- भा.-एवं तदर्धज्यानयनेन गणकेनाल्पानि वा बहूनि यथेप्सितानि जीवाखण्डानि साध्यानि । आचार्येण च स्वग्रन्थे चतुर्विंशतिज्र्यार्धानि साधितानि यदीप्सितानि ९६ ज्यार्धानि स्युस्तदा पुनस्तदर्धभागज्याविधिः कार्यः। अर्धभाग ज्याविधौ सर्वत्र त्रिज्याधं त्रिज्यावर्गार्धपदं त्रिगुणत्रिज्यावर्गाचतुर्थांशपदं क्रमेण वृत्तपरिधेः षष्ठचतुर्थेत्रिभागानां ज्यार्धानि चाद्यखण्डानि व्यक्तानि । परिधिषष्ठ भागस्य षष्टिभागानां या ज्या पूर्णज्या तस्या अर्ध त्रिज्यार्धसु चतुर्थभागस्य नवते १३५६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ज्यधं त्रिज्यावर्गार्धपदसं। त्रिभागस्य विंशत्यधिकशतभागानां ज्याधं त्रिगुणत्रि ज्यावर्गचतुर्थांशपदम् । इति ज्यार्धान्याद्यानि विज्ञाय ततस्तदर्धभागज्यानयन विधानेन वृत्तपादे यथेप्सितानि ज्याखण्डानि साध्यानीति सर्वं स्फुटम् । वि. आ.--एवं पूर्वोक्तार्धज्यानयनविधिनाऽल्पानि बहूनि वेप्सितानि ज्याखण्डानि ज्योतिविद्भिः साध्यानि आचार्येण चतुविशतिज्र्यार्धानि साधितानि यदि ९६ संख्यकज्यार्धानीप्सितानि भवेयुस्तदा पुनस्तदर्धाशज्याविधिः कार्यः । अर्धाशज्याविधौ त्रिज्यार्धत्रिज्यावर्गार्धमूलं त्रिगुणत्रिज्यावर्गचतुर्थाशमूलं क्रमेण वृत्तपरिधेः षष्ठचतुर्थेत्रिभागा (६०, ९०, १२०) नां ज्यार्धानि चाद्यखण्डानि व्यक्ताति । वृत्तपरिधिषष्ठांशस्य षष्टच शस्य पूर्णज्यार्धे त्रिंशदंशज्या = त्रि वृत्त परिधेश्चतुर्थाशस्य नवतेः पूर्णज्यार्ध पञ्चचत्वारिंशदंशज्या= वृत्तपरि V के धेस्तृतीयांशस्य विशत्यधिक शतमितांशानां ज्याधं= ज्या ६०= ३ त्रि' – इति ज्यार्धान्याद्यानि ज्ञात्वा ततस्तदद्भशज्यानयनविधिना वृत्तपादे (नवत्यंश तुल्ये) यथेप्सिताचि ज्याखण्डानि साध्यानीति ॥२२॥ अब विशेष कहते हैं । हि- भा.-एवं पूर्वं कथित अर्धज्यानयन से अल्प वा बहुत यथेच्छ ज्याखण्ड साधन करना चाहिये । आचार्य अपने ग्रन्थ में चौबीस ज्याची साधन किया है, यदि ६६ संख्यक ज्यार्घ अभीष्ट हो तो फिर अञ्चशज्या विधि करनी चाहिये । अर्धशज्या विधि में सब जगह त्रिज्या का आध, त्रिज्यावर्गों के आधा का मूल, त्रिगुणित त्रिज्यावर्ग के चतुर्थांश का मूल फ्रम से वृत्तपरिधि का षष्ठांश, चतुर्थांश और तृतीयांश का ज्याचं आद्यखण्ड व्यक्त है वृत्तपरिचि ३६ का षष्ठांश -=६० की पूर्णज्या का आधा त्रिज्याधं, परिधि का चतुर्थांश ° ३६ =&० की पूर्णज्या का आधा पैतालीस अंश की ज्या = Wच -, परिचि का तृतीयांश ३६० = १२० इसका ज्यार्षे (पुर्णज्यार्ध)==ज्या ६० =३, इन ज्याघों को जान कर अर्धशज्यानयन विधि से वृत्तपाद (e०) में यथेप्सित ज्याखण्डों का का साधन करना चाहिये इति ॥२२॥ इदानीं प्रकारान्तरेणार्थाशंज्यानयनमाह । उत्क्रमसमखण्डगुणाझ व्यासदथवा चतुर्थभागाद्यत् । कृत्वोक्तखण्डकानि ज्याद्धनयनं न लध्वस्मात् ॥२३ ॥ त्रि १३१७ सु० भा० -अथवोत्क्रमसमखंडी समसवयकज्बाया उत्क्रमज्या तया गुणा व्यासात् किंविशिष्टात् चतुर्थभागाच्चतुविभक्ताद्यल्लब्धं तदुक्तखण्डानि क्रमोत्क्रम ज्या वर्गायुतसमानि कृत्वा ज्यार्घनयनं प्राग्वत् कार्यम् । अस्मादानयनादन्यदानयनं न लघ्वस्तीति । अनेन प्रकारेण लाघवेन ज्यार्धानि सिध्यन्तीत्यर्थः। त्रिज्योत्क्रमज्यानिहतेर्दलस्य’ इत्यादि भास्करविधिना स्फुटज्योत्पत्तावन्ये विशेषा भास्करान्त्यज्योत्पत्तौ प्रसिद्धा एव ।२३॥ वि. भा.-यत्संख्यकाया ज्याया अर्धज्या आनीयते तत्संख्यका या उत्क्रम ज्या तया गुणाद् व्यासाच्चतुर्विभक्ताद्यल्लब्धं तदुक्तखण्डानि क्रमोत्क्रमज्यावर्गयुत समानि कृत्वां पूर्ववज्ज्याद्धनयनं कार्यम् । अस्मादानयनादन्यदानयनं न लघ्वस्ति, अर्थादनेन प्रकारेण लाघवेन ज्यार्धानि सिध्यन्तीति । के=वृत्तकेन्द्रम् । रयचापम्=अ, अस्यैव चापस्या धशज्यानयनमभोष्टम् । यश=ज्याअ, रश=उज्य अ । रय=अ चापस्य पूर्णज्या । केश = चापकोटिज्या = कोज्याअ । त्रि=त्रिज्या =केर, तदा केरकेश है A =उरश =त्रि-कोज्याअ=उज्याअ वर्ग करणेन त्रि' क) /-२ त्रि. कोज्याअ+कोज्या' अ=उज्या' अ परन्तु यश'+रश८अ चापपूर्णज्या'='ज्या'अ+उज्या' अ
त्रि' -२ त्रि. कोज्याअ+कोज्याअ+ज्याअ
[सम्पाद्यताम्]त्रि-२ त्रि. कोज्याअ+त्रि=२ त्रि-२ त्रि. कोज्याश्च =२ त्रि (त्रि-कोज्याअ)=२ त्रि. उज्याअ पक्षौ चतुभिर्भक्तौ तदा २त्रि. उज्याअ "" - ईश्वर ले/ २ त्रि उज्याश्र = = चे = Wलङयाम =ज्या अ“•••••(१) Wच्याच्या अस्मात् ‘तुल्यक्रमोत्क्रमज्या समखण्डकबर्नायुतिचतुर्भागमि' त्याचार्योक्तप्रकारेण अर्धा शज्याभिस्तत्कोटिज्याभिश्च ज्यार्धानि भवन्त्येनाचार्योक्तमुपपन्नम् । सिद्धान्तशेखरे “उत्क्रमाविषमखण्डविनिघ्नात् व्यासतो भवति यो युगभागः। तेन पूर्वकथिताच्च (१) एतेन त्रिज्योत्क्रमज्या निहतेर्बलस्य मूलं तदर्वांशकशिञ्जिनी व' भास्करोक्त मिदमुपपद्यते १३५८ विधानात् ज्यादलानि यदि वाऽत्र भवन्ति” इत्यनेन श्रीपतिनाऽऽचार्योक्तमेव पुनरुक्तीकृतम् । सिद्धान्तशिरोमणौ भास्कराचार्येणापि-“त्रिज्योत्क्रमज्यानिह तेर्दलस्य मूलं तदर्धाशक शिञ्जिनी वा । तस्याः पुनस्तद्दलभागकानां कोटेश्च कोटयशदलस्य चैवम् ।' इत्यनेन तदेवोक्त वा वासनाभाष्ये सम्यगुपपादित मिति ॥२३॥ इति ज्या प्रकरणम् अब प्रकारान्तर से अर्धाशज्यानयन को कहते हैं हेि. भा.--यत्संख्यक ज्या की अर्धज्या लाते हैं तत्संख्यक उत्क्रमज्या से व्यास को गुणा कर वार से भाग देने से जो लब्ध हो उससे पूर्ववत् ज्यार्धानयन करना चाहिये। इस आनयन प्रकार से अन्य प्रानयन प्रकार छोटा नहीं है अर्थात् इस प्रकार से लाघव ही से ज्यार्ध सिद्ध होता है । उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये । के=वृत्तकेन्द्र । रयचाप =अ, इसी वाप का अधशज्यानयन करना है । यश =ज्याप्र, रश=उज्याप्र, रय=अ- चाप की पूर्णज्या, केश =चापकोटिज्या=कोज्याश्र केर=त्रिज्या=त्रि । तब केर-केश= रय=त्रि-कोज्याश्र=उज्याप्र, वर्ग करने से त्रि-२ त्रि. कोज्याअ-+-कोज्या'अ=उज्ला'अ परन्तु यश*+-रश*=अचाप पूर्णज्या'=ज्याश्र-+-उज्या'अ=त्रि-२ त्रि कोज्याश्र-4-को - ज्या'अ-+-ज्याश्र=त्रि-२ त्रि.कोज्याअ+त्रि'=२ त्रि'-२ त्रि. कोज्याश्र=अचापपूज्या =२ त्रि (त्रि-कोज्याश्र)=२ त्रि. उज्याअ=व्या X उज्याश्र दोनों पक्षों को चार से भाग व्यास-उज्याश्र - .. अचापपूज्या = ज्या १ अ इससे ‘तुल्य क्रमोत्क्रमज्या समः खण्डकवर्गयुतिचतुर्भागम्' इस पूर्वोक्त प्रथम प्रकार से अधशज्या और उसकी कोटिज्या से ज्यार्ध होता है इससे प्राचार्योक्त उपपन्न हुआ । २ त्रि (त्रि-कोज्याआ) ==अचापपूज्या ' २ त्रि. उज्याश्र दोनों पक्षों को वार से भाग देने से २ त्रि. उज्याप्र - त्रि. उज्याश्र श्रचापपूज्या ३श्र, मूल लेने से ज्या ई अ, इस से 'त्रिज्योत्क्रमण्या निहतेर्दलस्यमूलम्' इत्यादि भास्करोक्त उपपन्न होता है। सिद्धान्तशेखर में ‘उत्क्रमाविषमखण्डविनिघ्नाद्' इत्यादि श्रीपत्युक्त आचार्योक्त की ही पुनरुक्ति है । भास्करा चार्य ने भी त्रिज्योत्क्रमज्या निहतेर्दलस्य' इत्यादि इससे उसी को कह कर वसनाभाष्य में अच्छी तरह कहा है इति ॥२३॥ इति ज्या प्रकरण समाप्त हुआ अथ स्फुटगति वासना । तत्रादौ स्पष्टीकरणे छेद्यकमाह। कक्षामण्डलमध्यं भूमध्ये मध्यमः स्वकक्षायाम् । अनुलोमं मन्त्रोच्चात् प्रतिलोमं भ्रमति शीघ्रोच्चात् ॥ २४ ॥ सुः भा.-भूमध्ये कक्षामण्डलस्य मध्यं केन्द्रमस्ति । मध्यमो ग्रहः स्वकक्षा यां प्रतिवृत्ते मन्दोच्चादनुलोमं शीघ्रोच्चाच्च प्रतिलोमं भ्रमति । ‘भूमेर्मध्ये खलु भूवलयस्यापि मध्यम्’ –इत्यादिना तथा ‘मन्दोच्चितोऽग्र प्रतिमण्डले प्राग्ग्रहोऽनु लोमं निजकेन्द्रगत्या'-इत्यदिना भास्करविधिनाऽपीयमेव स्थितिः ।२४।। वि. भा.भूमध्ये (भूकेन्द्र) कक्षावृत्तस्य केन्द्रमस्ति, मध्यमो ग्रहः स्वकक्षायां (प्रतिवृत्ते) मन्दोच्चादनुलोमं शीघ्रोच्चाच्च विलोमं भ्रमति । मन्दोच्चादनुलोमं राश्यादिगणनयाऽग्रतः शीघ्रोच्चाच्च विलोमत इति राश्यादिगणनया पृष्टतो यथोत्तरं भ्रमति । ग्रहगत्यपेक्षया शीघ्रोच्चगतिर्महतो भवतीति तत्र यदि शीघ्रोच्च स्थिरं मन्यते तदा ग्रहो विपरीतगमन इव लक्ष्यते । मन्दोचस्य चालक्ष्याल्पगतित्वात् सदैव ग्रहो राश्यादिगणनया अनुगामी भवतीति । सिद्धान्त शेखरे "मध्य: स्वकक्षा परिधौ स्फुटस्तु स्वकेन्द्रवृत्ते भ्रमति खुचारी । स्वमन्दतुङ्गादनुलोमगत्या विलोमतो याति च शीघ्रतुङ्गा’ श्रीपतिनैवं कथितम् । अत्र लल्लः--'अनुलोमं निजमन्दात् प्रतिलोमं गच्छति स्वशीघ्रोच्चात् । कक्षावृत्ते मध्यः स्वकेन्द्रवृत्ते ग्रहाः स्पष्टाः ।। " स्वकेन्द्रवृत्ते (स्वीये प्रतिवृत्ते)। भास्करश्च ‘मन्दोच्चतोऽग्रे प्रतिमण्डले प्राक् ग्रहोऽ नलोमं निजकेन्द्रगत्या । शीघ्राद्विलोमं भ्रमतीव भाति विलम्बितः पृष्ठत एव यस्मात्” एवमेव ग्रहभ्रमणव्यवस्थां प्रतिपादयतीति ।। २४ ।। अब स्फुटगति वासना प्रारम्भ की जाती है। उसमें पहले स्पष्टी करण में छेद्यक को कहते हैं। हि. भा--भूकेन्द्र कक्षावृत्त का केन्द्र है । मध्यमग्रह अपनी कक्षा में मन्दोच्च से अनुलोम (क्रमिक) और दोस्रोध से विलोम (उल्टा) भ्रमण करते हैं मन्दोच से अनुलोम अर्थाद राश्यादि गणना से आगे और शीघ्रोच से विलोम अर्थात् राश्यादि गणना से पीछे भ्रमण करते हैं । ग्रहगति की अपेक्षा शीघ्रोधगति अधिक हैं यदि शीघ्रोची को स्थिर माना जाय तो ग्रह विपरीत चलते हुए लक्षित होते हैं । मन्दोच की अत्यन्त अल्प गति के कारण राश्यादि गणना से ग्रह सर्वदा अनुगामी होते हैं । सिद्धान्त शेखर में ‘मध्यः स्वकक्षा परिधौ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते १३६० इत्यादि से श्रीपति ने आचार्योंक्त के अनुसार ही कहा है । ‘अनुलोमं निजमन्दात् प्रतिलोमं’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक से लल्लाचार्य तथा ‘मन्दोचऽतोत्रे प्रतिमण्डले प्राक्’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक से भास्करा चायं ने भी इसी तरह ग्रहभ्रमण व्यवस्था कही है इति ।। २४ ।। इदानीं नीचोच्चवृत्तभङ्गिमाह । नीचोच्चवृत्तमध्यं मध्ये तद् भ्रमति मध्यगः स्वोच्चात् । तत्परिधौ प्रतिलोमं मन्दोच्चाद् भ्रमति शीघ्रोच्चत् ॥ २५ ॥ अनुलोमं मध्यसमं भूस्थः पश्यति यतो न कक्षायाम् । स्पष्टं तम्मध्यान्तरमृणं धनं वा ग्रहे मध्ये ।। २६ ।। सु. भा.-कक्षायां मध्यग्रहचिह्न तस्मिन् मध्ये नीचोच्चवृत्तस्य मध्यं यत्र नीचोच्चवृत्तकेन्द्र भवति तत् केन्द्र च मध्यचलनाद् भ्रमति । शेषं भास्करभङ्गया स्फुटम् ।२५-२६। वि. भा.-कक्षायां यत्रमध्यग्रहचिन्हं तत्र मध्ये नीचोच्चवृत्तस्य मध्यं (केन्द्र) भवति । नीचोच्चवृत्तपरिधौ मन्दोच्चात् प्रतिलोमं शीघ्रोच्चाच्चानुलोमं ग्रहो भ्रमति । यतो (यस्मात्कारणाद)भूस्थो द्रष्टा कक्षायां मध्यग्रहतुल्यं स्पष्टग्रहं न पश्यति तस्मात् कारणात् स्पृष्टमध्यग्रहयौरन्तरं फलं मध्यमग्रहे ऋणं धनं वा क्रियते तदा स्पष्टग्रहो भवति । अर्थात् समायां भूमौ बिन्दु कृत्वा तं केन्द्र प्रकल्प्य त्रिज्यातुल्येन कर्कटकेन कक्षावृत्तं विलिखेत् । तदुभगणाङ्कितं कृत्वा मेषादेरारभ्य ग्रहमुच्चं च दत्त्वा चिन्हे कार्यो। भूकेन्द्रदुच्चोपरिगता रेखा कार्या सोच्चरेखा कथ्यते । भूकेन्द्रा दुल्चरेखोपरि लम्बरेखातिर्यगूख)कार्या, भूकेन्द्रादु पर्यन्त्यफलज्यामुच्चोन्मुखीं दत्वा तदग्रात् त्रिज्या व्यासार्धेनैव प्रतिवृत्तं कार्यम् । उच्चरेखया सह यत्रास्य सम्पातस्तत्र प्रतिवृत्तेऽप्युच्चं ज्ञेयम् । तस्मादुच्चभोगं विलोमेन देयम् । ततो ग्रहमनुलोमं दत्त्वा तत्र चिन्हं कार्यम् । प्रतिवृत्तंकेन्द्रादुच्चरेखोपरि लम्बरेखा प्रतिवृत्तीयतिर्यग्रेखा कार्या, तियंग्रेखयोरन्तरमन्त्यफलज्या तुल्यमेव सर्वत्र भवति । ग्रहोच्चरेखयोज्य रूपमत्तरं दोर्या (भुजज्या) भवति । ग्रहप्रतिवृत्ततिर्यग्र खयोरन्तरं कोटिज्या, ग्रह कक्षामध्यगतिर्यगखयोरूध्वाधरमन्तरं स्फुटा कोटिः। भूकेन्द्रात्प्रतिवृत्तस्य ग्रहावधि सूत्रं कर्णः । करणैसूत्रं यत्र कक्षा वृत्तेलगति तत्र स्फुटो ग्रहः कक्षावृत्ते स्फुटमध्यग्रह योरन्तरं फलं तव मध्यग्रहात् स्फुटग्रहेऽग्रस्थे धनं मेषादिकेन्द्र पूर्वाकर्षणेनोत्पद्यते । मध्यग्रहात् स्फुटग्रहे पृष्ठस्थे फलमृणं तुलादिकेन्द्र पश्चादाकर्षणेन भवति । सिद्धा न्तशेखरे "द्रष्टा स्फुटं पश्यति मध्यतुल्यं भान्तस्थिते भार्धगते च केन्द्र । यस्माद भावोऽत्र फलस्य तस्मात् भवेद् ग्रहस्योध्वंमघःस्थितस्य । ऊनाधिकं परयति मध्य स्फुटगति वासना १३६१ माच्च स्फुटं नरस्तद्विवरं फलं हि । ऋणं धनं च क्रियतेऽत एव मध्यग्रहे स्पष्टबुभु सुभिस्तत् ॥ॐ श्रीपतिनैवमेवं कथितम् । लल्लाचार्यस्तु प्रथममार्यभटोक्त स्पष्टी- करणक्रियाया उपपत्तिमेवाह । “मध्यमतुल्यं स्पष्टं भान्तगते भार्धगेऽपि वा केन्द्र । द्रष्टा पश्यति यस्मान्मध्यस्यातः फलाभावः । स्पष्टं पश्यति यस्मान्मध्याह्नाधिकं नरस्तस्मात् । विवरं तयोः फलमृणं घनं च मध्यग्रहे क्रियते । ’ भास्कराचार्येणापि "भूमेर्मध्ये खलु भवलयस्यापि मध्यं यतः स्याद्यस्मिन् वृत्ते भ्रमति खचरो नास्य मध्यं कुमध्ये । भूस्थो द्रष्टा नहि भवलये मध्यतुल्यं प्रपश्येत्तस्मात् तज्ज्ञः क्रियत इह तद्दोः फलं मध्यखेटे ॥" इत्यनेन प्रथममेकेनैव इलोकेन प्राचीनोक्तो मध्यम ग्रहस्य स्पष्टताविधायको विधिरुपपादितः पश्चाद्विशदव्याख्यया उपपादित इति । अथ ग्रह स्पष्टीकरणे छेद्यकाद्युपपत्तौ किमर्थं प्राचीनैः कक्षावृत्तप्रतिवृत्तादिकल्पना कृता तदर्थं किञ्चिदुच्यते । भूकेन्द्रमिति कल्पितात् कस्माच्चिदपि बिन्दोरभीष्ट त्रिज्याव्यासार्धेन कक्षावृत्तसंज्ञकं वृत्तं कार्यम्, वस्तुत इदं वेधवलयं, एतवृत्तकेन्द्रात् तत्तद्गोलस्थग्रहेषु सूत्रं यत्र यत्राऽस्त्रिन् वृत्ते लगति तत्र तत्र स ग्रह परिणतः कल्प्यते । कक्षावृत्तकेन्द्रात् (भूकेन्द्रा) कक्षावृत्तस्योर्वाधरा व्यासरेखा कार्या, केन्द्रत एतदुपरि लम्बरूपाऽन्या तियेंग्रेखा च कार्या, केन्द्रादूर्वाधरव्यासरेखा- यामिष्टग्रहस्य वेधावगतान्यफलज्यासमं खण्डं छित्वा छेदितबिन्दोस्तत्रिज्या व्या साधेनैव वृत्तं शीघ्रप्रतिवृत्तसंज्ञकं कार्यं । इदमेव वृत्तं मन्दस्पष्टग्रहभ्रमणवृत्तम् । वृत्तस्याप्यस्य केन्द्र भूकेन्द्र (कक्षावृत्तकेन्द्र) मेव कथं नेति प्रतिदिनं वेषविधिना कर्णज्ञानेन निश्चितम् । अथ स विन्दुमॅकेन्द्रात् कियदन्तरेऽस्ति यस्मात्प्रतिवृत्तपर्यन्तं नीयमानं सूत्रं तुल्यं भवतीत्यस्यापि ज्ञानं वेधविधिना कृत्वा स एव बिन्दुः प्रतिद्- तस्य केन्द्ररूपः कल्पितः । कक्षावृतप्रतिवृत्तयोः केन्द्राभ्यां भगोलीयमेषादिगते रेखे यत्र यत्र कक्षावृत्ते प्रतिवृत्ते च लग्ने तत्र तत्र तवृत्तद्वये मेषादिबिन्दू भवतः । भू केन्द्रप्रतिवृत्तस्य यो बिन्दुः सर्वबिन्दुपेक्षयाऽतिदूरे भवेत्स उच्चसंज्ञकस्तस्य राश्या दिज्ञानं कृत्वातन्मितमेव कक्षावृत्तेऽप्युच्चं परिकल्प्य ग्रहानयनं भवति, इतोऽन्यथा नेति, तथोच्चयोस्तुल्यत्त्वे एतयोः स्त्रयोभंगोलीयमेषादिबिन्दौ योगे सत्यपि समान न्तरत्वं स्वीकृत्यानन्तदूरे यस्मिन् बिन्दौ सूत्रद्वयस्य योगो भवेत्ते सूत्रे अपि समा नान्तरे भवत इति प्राचीनाः स्वीकृतवन्तः । इह वास्तवभगोलस्तावति दूरेऽस्ति यत्र भूकेन्द्रमारभ्य शनिकक्ष्यनिष्ठादपि कस्माच्चन बिन्दुतो नीयमाना रेखाऽनन्ता भवति। ग्रहसाघनगणिते केन्द्रोच्छनिकक्षापर्यन्तमेव भगोलबिन्दुगतरेखयोः समानान्तरत्वं स्वीक्रियते । अतोऽत्र भगोलस्य केन्द्र यत्र कुत्रापि कल्पयितुं शक्यते । भूकेन्द्र प्रतिवृत्तस्य को बिन्दुरतिदूरेऽस्ति यदुच्चसंज्ञकं वृत्तद्वयकेन्द्रगतैव रेखा सवींघिका भवत्यतः प्रतिवृत्तस्यापीयमेव रेखोच्चरेखा भवेत् । वस्तुतः प्रतिवृत्त एवो चमस्ति । अनुपातागतं राश्याद्युच्चं कक्षावृत्ते दत्तं भूकेन्द्रात्तद्गतरेखेव प्रति वृत्तीयोच्चरेखा भवतीति विलोमेन प्रतिवृत्ते मेषादिज्ञानं भवेत् । अथ यदि कया १३६२ ब्राह्मस्फुटासद्धान्त ऽपि रीत्या प्रतिवृत्तीयग्रहस्य ज्ञानं भवेत्तदा तस्मात् स्थानादुच्चरेखायाः समानान्तर रेखा यत्रकक्षावृत्ते लगति तत्र तत्तुल्यो ग्रहः कक्षावृत्ते भवति, भूकेन्द्रात्प्रतिवृत्तस्थ ग्रहगता रेखा यत्र कक्षावृत्ते ,गति तथैव स (प्रतिवृत्तीयः) ग्रहो दृग्गोचरीभूतो भवत्यतस्तयोरन्तरं ग्रहस्य शीघ्रफलम्। अथ प्रतिवृत्ते मेषादितो मन्दोच्चराश्यादि दत्वा तदग्रे प्रतिवृत्तकेन्द्ररेखानेया तत्र मन्दान्यफलज्या तुल्यं दानं दत्त्वा दाना ग्रविन्दुतस्त्रिज्या व्यासधेन वृत्तं कार्यं तन्मन्दप्रतिवृत्तम् । अत्रापि मेषादिज्ञानं विपरीतगणनया भवेत् । शीघ्रप्रतिवृत्तमन्दप्रतिवृत्त केन्द्राभ्यां भगोलीयमेषादि गतरेखयोः समानान्तरत्वमत्रापि स्वीक्रियते । अतस्ततो राश्यादिगणनयाऽनु लोममेव मन्दस्पष्टग्रहो दत्तः । मन्दप्रतिवृत्तीयमन्दस्पष्टग्रहात्तत्रत्योच्चरेखायाः समानान्तरा रेखा यत्र शीघ्रप्रतिवृत्ते लगति तत्र मन्दप्रतिवृत्तीयमन्दस्पष्टग्रहतुल्य एव मन्दस्पष्टग्रहः ।. शीघ्रप्रतिवृत्तकेन्द्रमन्दप्रतिवृत्तीय मन्दस्पष्टग्रहगतारेखा यत्र शीघ्रप्रतिवृत्ते लगति तत्रैव तं ग्रहं शीघ्रप्रतिकेन्द्रस्थद्रष्टा पश्यति, अतः शीघ्रप्रति वृत्तकेन्द्रान्मन्दप्रतिवृत्तीयमन्दस्पष्टग्रहगत खा-तथोच्चरेखायाः समानान्तररेखा- याश्च शीघ्रप्रतिवृत्ते यदन्तरं तन्मन्दफलम् । मन्दप्रतिवृत्त केन्द्राच्छीघ्र प्रतिवृत्तीय मन्दस्पष्टग्रहगता रेखा यत्र मन्दप्रतिवृत्ते लगति स एव बिन्दुर्मन्दप्रतिवृत्तीयो मन्दस्पष्टग्रहः। अथ मन्दस्पष्टो निरूप्यते । वेधेन प्रथमं स्पष्टग्रहस्यैव ज्ञानं भवत्यतो वेधवृत्ते यत्र ग्रहविम्बमुपलभ्यते तदुपरि तत्केन्द्राद्गतारेखा यत्र ग्रहगोले लगति तत्रैव वास्तवं ग्रह बिम्बं तदुपरितगोलीयकदम्बप्रोतवृत्तं कार्यं तद्यत्रीघ्रप्रतिवृत्ते लगति तत्रैकविधः शरसाधनोपयुक्तो मन्दस्पष्टग्रहः । वेधवलये यत्र बिम्बमुपलब्धं तदुपरि तद्गोलीय कदम्बप्रोतवृत्तं कार्यं तत्कक्षावृत्ते यत्र लग्नं भूकेन्द्रात्तद्गता रेखा शीघ्र- प्रतिवृत्ते यत्र लगति सोऽन्यो मन्दस्पष्टग्रहः। प्राचीनैरेतयोर्मन्दस्पष्टग्रहयोर्भेदो न स्वीक्रियते । स्पष्टग्रह्ज्ञानं विना मन्दस्पष्टग्रहज्ञानं भवतु तदर्थं तदुपकरण मन्दप्रतिवृत्ते भ्रमन्तं मध्यमग्रहं कल्पितवन्तः प्राचीनाः। अतोऽत्र मन्दप्रतिवृत्तीयो वास्तवो ग्रहो मध्यमग्रह एव, स तत्तुल्यराशेर्यदन्तरेण शीघ्रप्रतिवृत्तेऽवलोक्यते तदेव मन्द फलम् । स एव च मन्दस्पष्टो ग्रहः। ततः सोऽपि मन्दस्पष्टग्रहो वेधवृत्ते तत्तुल्यराशेर्यदन्तरेणावलोक्यते तदेव शीघ्रफलं स एव च स्पष्टग्रह इति कल्पनेऽपि न किमपि तारतम्यमिति कक्षावृत्तं यथार्थतः शीघ्रप्रतिवृत्तमेव मन्दफलसाधनार्थम् । अत्र तद्रेखाकरणेऽभीष्ट बिन्दुरेव ग्रहगोलकेन्द्रमतः कक्षावृत्तमेव ज्ञात्वा फलानयन कृतम् । प्रतिवृत्तीया कोटिरेखा (उच्चरेखा समानान्तरा रेखा) कक्षावृत्ते यत्र लगति तथैव शीघ्रप्रतिवृत्तीयमन्दस्पष्टसमानराश्यात्मको बिन्दुः। भूकेन्द्रादेत- द्विन्दुगता रेखा यत्र कक्षावृत्ते लगति तथैव सोऽवलोकितो भवति, तदन्तरं फल मेवेति । तत्साधनोपायः समीचीन एव । यतः प्रथमतः कल्पितकक्षावृत्तं शीघ्र प्रतिवृत्तमस्ति । तत्र वेधाकरणे तावदिष्टस्थान एव मेषादिः कल्पितः । वृत्तकेन्द्रा तदुपरि गतोच्चरेखेवात्रत्योच्चरेखा । मेषादेर्मन्दप्रतिवृत्तीयसमानो मध्यग्रहो दत्तः । स्फुटगति वासना १३६३ मन्दकेन्द्र' वेदितव्यम् । अथ चेषां तत्रैव वास्तवावस्थानमिति यथैतत्तुल्यं केन्द्र तत्रापि भवेत्तथा मन्दप्रतिवृत्ते मेषादिः स्वीकृतः । मध्यस्य यत्रोपलम्भः स एव मन्दस्पष्टोऽतोऽत्रत्यं फलाद्यानयनं समीचीनं तत्संस्कारेण मन्द स्पष्टग्रहोऽपि समी चीनः । अथ चैतेन प्रदशितमार्गेण वास्तवं शीघ्रप्रतिवृत्तं यत्तत्रत्यस्य मन्दस्पष्टग्रह- स्योच्चस्य मेषादेश्च ज्ञानं जातम् । अथात्रवेधं विना ज्ञातव्यस्थितावेव पुनरभीष्ट- बिन्दोः कृतं कक्षावृत्तं वास्तवकक्षावृत्तम् । अत्र मेषादिविन्दुशीघ्रोच्य मन्द स्पष्टग्रहश्च पूर्वोक्तविधिनाऽङ्किताः । शीघ्रप्रतिवृत्ते या स्थितिरागता प्रथमं तथैत्र प्रयोजनमतोऽत्र मन्दस्पष्टादेदयमानत्वात्तत्तुल्या एव ते स्वस्थाने शीघ्रप्रतिवृत्त- संज्ञके यथा भवेयुस्तथा मेषादिकल्पना कृता । प्रतिवृत्ते यो मन्दस्पष्ट विन्दुः ततस्तदुच्चरेखायाः समानान्तरा रेखा यत्र कक्षावृत्ते लगति तथैव तन्मन्दस्पष्ट- समानं खण्डं मेषादितो भवितुमर्हति । भूकेन्द्रात्तत्प्रतिवृत्तीयमन्दस्पष्टग्रहगता कर्णरेखा कक्षावृत्ते यत्र लगति तत्र तदुपलब्धिः । कोटिकर्णरेखयोरन्तरं फलमिति तत्साधनार्थं यान्युपकरणानि तैस्तज्ज्ञानं सुगममिति । २५-२६ ।। अब नीचोच्चवृत्त भी को कहते हैं । हि- भा.- कक्षावृत्त में जहाँ मध्यमग्रह चिन्ह है वही नीचोच्ववृत्त का केन्द्र है। नीचोचवृत्त परिधि में मन्दोच्च से विलोम और शीघ्रोच्च से अनुलोमग्रह भ्रमण करते हैं । जिस प्रकार भूकेन्द्र स्थित द्रष्टा (दर्शक) कक्षा में मध्यम ग्रह के बराबर स्पष्ट ग्रह को नहीं देखते हैं उसी प्रकार स्पष्ट ग्रह और मध्यम ग्रह का अन्तर (फल) मध्यम ग्रह में ऋण वा धन किया जाता है तब स्पष्ट ग्रह होते हैं । अर्थात् समान भूमि में इष्ट बिन्दु को केन्द्र मान कर इष्ट त्रिज्या व्यासर्ब से कक्षावृत्त बनाकर उखको भगणाङ्कित कर मेषादि से उच्च और ग्रह को देखकर चिह्नित करना चाहिये । भूकेन्द्र से उच्चोपरि गत रेखा उच्चरेखा कहलाती हैं । भूकेन्द्र से उच्चरेखा के ऊपर लम्ब रेखा (स्तिर्यक् ख) करनी चाहिये । भूकेन्द्र से उच्च को और उच्चरेखा में अन्त्य फलज्या तुल्य देकर दानाद्र बिन्दु के द्वारा उसी त्रिज्या व्यासार्ध से प्रति वृत्त बनाना चाहिये । इस प्रतिवृत्त में उच्चरेखा ऊध्र्व भाग में जहां लगती है वहां प्रतिवृत्त में उच्च होता है। बहां से प्रतिवृत्त में उच्च भोग विलोम देना चाहिये। वहां से ग्रह को अनुलोम देकर चिह्न कर देना चाहिये । प्रतिवृत्त केन्द्र से उच्च रेखा के ऊपर रेखा लम्ब प्रतिवृत्तीय तिर्यक् रेखा करनी चाहिये । दोनों तिर्यक् रेखाओं का अन्तर सर्वत्र अन्त्यफलज्या तुल्य ही होता है । ग्रह और उच्च का ज्यारूप अन्तर दोज्य (भुजज्या) होती है । ग्रह से प्रतिवृत्तीय तिरंगखा पर्यन्त कोटिज्या होती है। अह से कक्षा मध्यगतिर्यगूखा पर्यंन्त स्फुट कोटि है । भूकेन्द्र से प्रतिवृत्तस्य ग्रह पर्यन्त रेखा कर्ण है । कथं रेखा जहाँ कक्षावृत्त में लगती है वही स्पष्ट ग्रह है । कक्षावृत्त में स्फुट ग्रह और मध्यम ग्रह का अन्तर फल है । मध्यम ग्रह से स्फुट प्रह के आगे रहने से मध्यम ग्रह में उस फल को घन करने से स्फुट ग्रह होते हैं । मध्यम ग्रह से स्फुट ग्रह के पीछे रहने से मध्यम ग्रह में से उस फल को ऋण करने से स्फुट १३४४ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते ग्रह होते हैं । सिद्धान्तशेखर में ‘द्रष्टा स्फुटं पश्यति मध्यतुल्यं भान्तस्थिते भावंगते च केन्द्रे' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित इलोकों से श्रीपति ने इसी तरह कहा है । लल्ला चार्य ने पहले आर्यभटोक्त स्पष्टी करण क्रिया की उपपत्ति ही कही है । ‘मध्यमतुल्यं स्पष्टं भान्तरते भार्धगेऽपि वा केन्द्रे' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से भास्कराचार्य ने भी ‘भूमेर्मध्ये खलु भवलस्यापि मध्यं यतः स्यात्’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक (एक ही) से पहले प्राचीनोक्त मध्यम ग्रह की स्पष्टता विधायक विधि को कहा । है पश्चात् विशद व्याख्या से प्रतिपादन किया है । ग्रहों के स्पष्टी करण में छेद्यक आदि की उपपत्ति में प्राचीनाचार्यों ने कक्षावृत्त-प्रतिवृत्तादियों की कल्पना क्यों की इसके सम्बन्ध में कुछ कहते हैं। किसी इष्ट बिन्दु (कल्पित भूकेन्द्र) से इष्ट त्रिज्या व्यासाधे से कक्षावृत्त संज्ञक वृत्त बनाना वस्तुत: यह वेधवलय (वेधवृत्त) है इस वृत्त के केन्द्र से तत्तत् ग्रह गोलस्थ ग्रह गत सूत्र जहां जहां इस वृत्त (कक्षावृत्त) में लगते हैं तहां तहां वे ग्रह परिणत होते हैं । वक्षा वृत्त केन्द्र (भूकेन्द्र) से कक्षावृत्त की ऊध्र्वाधर व्यास रेखा और केन्द्र से उसके ऊपर लम्बरूप तिर्यक् व्यास रेखा करनी चाहिये । ऊध्र्वाधार व्यास रेख में केन्द्र से उच्चाभिमुख वेध विदित ग्रह की अन्यफलज्या तुल्य दान देकर दानाग्र बिन्दु से उसी त्रिज्या व्यासार्ध से वृत्त बनाना यह शीघ्र प्रतिवृत्त कहलाता है । यही वृत्त मन्दस्पष्टग्रह रुमण्वृत्त हैं। इस वृत्त का भी केन्द्र भूकेन्द्र ही क्यों नहीं होता है इसका ज्ञान प्रति दिन वेषविधि से कर्ण ज्ञान द्वारा होता है । वह बिन्दु केन्द्र से कितने अन्तर पर हैं जहाँ से प्रति वृत्त की प्रत्येक बिन्दु गत रेखा बराबर होती है वेष से इसको भी समझ कर उसी बिन्दु को प्रति वृत्त के केन्द्र की कल्पना की गयी, कक्षावृत्त और प्रतिवृत्त के केन्द्र से भगोलीय मेषादिगत रेखाद्वय वृत्त द्वय (कक्षावृत्त और प्रतिवृत्त) में जहां जहां लगता है वहां वहां वृत्तद्वय में मेषादि बिन्दु होते हैं । भूकेन्द्र से प्रतिवृत्त का जो प्रदेश सब बिन्दुओं से अति दूर है वह उच्च संज्ञक है, उसके राश्यादि जानकर तत्तुल्य ही उच्च कक्षावृत्त में कल्पना कर ग्रहानयन होता है। इससे अन्यथा नहीं होता है । तथा उच्चढय के तुल्यत्व में इन दोनों रेखाओं को भगोलीय मैषादि बिन्दु में योग रहने पर भी समानान्तरत्व स्वीकार कर अनन्त दूर में जिस बिन्दु में रेखा ह्य को योग होता है वह रेखाद्वय भी समानान्तर होता है इसको प्राचीनाचार्यों ने स्वीकार किया है । वास्तव भगोल इतनी दूर पर है जहां केन्द्र से आरम्भ कर शनि कक्षानिष्ठ किसी बिन्दु से लयी गयी रेखा अनन्त होती है। प्रह गणित में केन्द्र से शनि कक्षापर्यंत ही भगोलीय बिन्दुगत रेखाढ्य का समानान्तरत्व स्वीकार किया जाता है । इसलिये भगोल का केन्द्र जहां तहां कल्पना कर सकते हैं । भूकेन्द्र से प्रतिवृत्त का कौन बिन्दु अति दूर है जो उच्च संक्षक है वृत्तद्वय केन्द्र गत रेखा ही सर्वाधिक होती हैं, इसलिये यही रेखा प्रति वृत्त की भी उच्च रेखा होती है, वस्तुतः प्रतिवृत्त ही में उच्च है, अनुपातागत रादयादि उच्च को कक्षावृत्त में दिया जाता है भूकेन्द्र से तगत रेखा ही प्रतिवृत्तीय उच्च रेखा होती है इस विलोम से प्रतिवृत्त में मेषादि ज्ञान होता है। यदि किसी रीति से प्रति धृत्तीय ग्रह ज्ञान हो तो उस स्थान से उच्च रेखा की समानान्तर रेखा कक्षावृत्त में जहाँ sprat | ?r|f sst nf % sttfp: ^ f^r ^ fit f , % sr%f rf^r ^srr *fiSTT ftr if siff erwt 1 fff <rc (srfcrfrf^ sr?) fft | srcr: ^ ?Fff ^TT SF5PC ?H| # ST ^ | I srf^TtT ^ % ^nf> *F5t-M ^pWlfe 1^ 31" %■ sTir t^t srfafrr % »ft ^n- ffft g^rir ^T'^TWfi^rr g??r srtlnpr % ^f>T 5Fmr fspf IT fw^qr &Tmi ?T ^ fxT |>ci7 | ^ SlfcTftf |, «ft *)Nlft?IR RT^R *ngFTT *t l"tcTT 1 1 sftST SffffftT sfa SfRrf ?T % %5=S % ^Ttafa %«nf^ TcT ^T?q- SFTFTFcR^ ZT^T tft *fo>R | I 3RT: SpTlfe % TTOTTt> WTT ?t srpftiT ft *F5 FT«5 7| ?P> ^'^Tfp- I *F5 5TR- sprat | 3ft srraftfor Fr^arf % stcffc ^ *f? 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अङ्कित करना। शीत्र प्रतिवृत्तीय मुन्द स्पष्टं बिन्दु से उच्च रेखा की समानान्तर रेखा कक्षा वृत्त में जहां लगती है वहीं मेषादि से मन्द स्पष्टग्रह के तुल्य खण्ड होता है । केन्द्र से प्रतिवृतीय मन्द स्पष्ट ग्रह गत कर्ण रेखा कक्षा वृत्त में जहां लगती है वहीं पर उसकी उपलब्धि होती है। कोटि रेखा और कर्ण रेखा का अन्तर फल है उसके साधन के लिये जो उपकरण (सामी) हैं । उनसे उसका साधन सुगम ही है इति ॥२५-२६। इदानीं नीचोच्चवृत्तभङ्गया शीघ्रफलं साधयति । कोटिफलं व्यासार्धात् पदयोराद्यन्तयोर्भवत्युपरि । द्वितृतीययोर्यतोऽक्षस्तद्युक्तोनं ततः कोटिः ॥ २७ ॥ कर्णस्तद् भुजफलकृतिसंयोगपदं तदुडता त्रिज्या । भुजफल गुणिताप्तधनुर्गणितेनैवं फलं शीघ्र ॥ २८ ॥ सु. भार--स्पष्टार्थमार्याद्वयं भास्करोक्तभङ्गया ॥।२७-२८ ॥ वि. भा---यत आद्यन्तयोः (प्रथम चतुर्थयोःपदय-व्यासार्धात् (त्रिज्यातः) कोटिफलमुपरि भवति । द्वितीयतृतीयपदयोश्च कोटिफलं त्रिज्यातोऽधो भवति, तस्मात् कारणात् तेन कोटिफलेन युक्त हीनं च व्यासार्ध (त्रिज्यामानं) नीचोच्च वृत्तीया स्फुटा कोटिर्भवति । तस्याः (स्फुटकोटेः) भुजफलस्य वर्गयोगमूलं शीघ्र कणं भवति। त्रिज्या भुजफलेन गुणिता तेन शीघ्रकर्णेन भक्ता लब्धस्य चापं शीघ्र कर्मणि फल (शीघ्रफलं) भवतीति । उ=उच्च । ग्र=पारमाथिको ग्रहः। भू-=भूकेन्द्रम् । म =मध्यमग्रहः। मग्र= शीघ्रान्त्यफलज्या=अंफज्या। भूम=त्रिज्या=त्रेि । ग्रन= शीघ्रभुजफलम्। मन=मुर= कोटिफलम्=कोफ । म केन्द्राच्छीघ्रान्यफलज्या व्यासार्धेन शीघ्र- नीचोच्चवृत्तम् । पय=नीचोच्चवृत्तीय तिर्यगूखा । स्फुटगति वासना १३६७ कक्षावृत्ते मध्यमग्रहस्थानं केन्द्र प्रकल्प्यान्त्य फलज्यामितेन व्यासार्धेन नीचोच्चवृत्तं विलिख्य भूकेन्द्रान्मध्यग्रहस्थानगता रेखा कार्या साऽत्रोच्च रेखा, नीचोच्ववृत्तस्योच्चरेखया सह यौ योगी ४ । तयोरूपरितन उच्चसंज्ञकः । अधस्तनो नीचसंज्ञकः । उच्चरेखोपरि मध्यग्रहस्थानात्कृता लम्बरेखा नीचोच्चवृत्तीयतियंग्रेखा, नीचोच्चवृत्तमुच्च प्रदेशाद् भांशैरङ्कनीयम् । तत्रोच्चाच्छीघ्रकेन्द्रमनु- लोमं देयम् । तत्र शीघ्रकेन्द्राग्रे पारमाथिको ग्रहः। अत्र ग्रहोच्चरेखयोस्तिर्यगन्तरं शीघ्रभुजफलम् । ग्रह तिर्यग्रेखयोररन्तरं कोटिफलम् । भूकेन्द्र ग्रहयोरन्तरं शीघ्रकणैः । एतदा नयनम् । मकरादिकेन्द्र (प्रथम पदे) भूम त्रिज्यात उपरिमन कोटिफलं दृश्यते अतः भूम+ मन= त्रि+कोफ= भून=स्पष्टा कोटिः। भून'+ग्रन' = भूग्र' =स्पष्टा को' + भुजफ' = ( त्रि + कोफ ) ' + भुजफ' = शीघ्रकणं मूलेन V (त्रि+कोफ)+भुजफ' =शीघ्रफलम् । एवमेव चतुर्थे पदे, अत्रोर्वभागे क्षेत्रे मकरादि केन्द्र बोध्यम्। अधोभागे च कक्षीदिकेन्द्रम् । कवर्धादिकेन्द्र (द्वितीय पदे तृतीयपदे च) भूम=त्रिज्या, ग़र= कोटिफलं=मन ग्रन=मुजफलम् । भूग्रः शीघ्रकर्णः । अत्र भूम त्रिज्यातः मन कोटिफलमधो दृश्यतेऽतः धूम-मन=न= त्रि-कोटिफ=स्पष्टाकोटि, मन+ग्रन=स्पष्टाको+भुजफ'= (त्रि–कोफ) + भुजफ' = शीघ्रकर्ण' मूल ग्रहणेन v(त्रि - कोफ)'+भुजफ' = शीघ्रक । अथ शीघ्रफलानयनघ । शीघ्रकरणं एकोऽवयवः। भुजफलं द्वितीयोऽवयवः। स्पष्टा कोटिस्तृतीयोऽवयवःइत्यवत्रयंवत्पन्नमेकं जात्यत्रिभुजस् । त्रिज्यैकोऽवयवः । शत्रु- फलज्या द्वितीयोऽवयवः । शीघ्रफल कोटिज्या तृतीयोऽवयवः, इत्यवयवत्रयंरुत्पन्न द्वितीयं जात्यत्रिभुजम् । एतयोस्त्रिभुजयोः साजात्यादनुपातो यदि शत्रुकर्णेन भुजफलं लभ्यते तदा त्रिज्ययाकिमित्यनुपातेन समागच्छति शीघ्रफलज्या तत्स्व- भुजफ त्रि शीफज्या, अस्याश्वापम्= शीघ्रफलम् । एतेनाऽऽचार्योक्त शीघ्रकर्णी मुपपन्नम् । सूर्य सिद्धान्ते "कोटिफलं केन्द्र मकरादौ धनं स्मृतम् । संशोध्यं तु त्रिजीवायां कथादौ कोटिजं फलम् ।। तबाहुफलवर्णीयान्मूलं कर्णशलाभिधः। त्रिज्याभ्यस्तं भुजफलं चलकर्णविभाजितम् । लब्धस्य चापं लिप्तादिफलं शैध्य मिदं स्मृतमिति सूर्यसिद्धान्तकारोक्तानुरूपमेवाचायक्तमस्ति । सिद्धान्त शेखरे “त्रिज्यकायां पदैस्तत् फलमथ खलु कोटेः कोटिसिद्धय विधेयम् । कोटिवाहु फल वर्गसमासाद्यत्पदं तदिह कर्णमवेहि। दोः फल त्रिगुणयोरभिघातात् कर्णलब्ध रूपम् = १३६८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते धनुराशुफलं स्यात् । श्रीपत्युक्तमिदमाचार्योक्तानुरूपमेवेति । सिद्धान्तशिरोमण 'त्रिज्योर्वतः कोटिफलं मृगादौ कक्षादिकेन्द्र तदधो यतः स्यात् । अतस्तदैक्या- न्तरमत्र कोटिरित्यादि भास्करोक्तमाप्याचार्योक्तानुरूपमेवेति ॥ २७-२८ ।। अब नीचोचवृत्तभी से शीघ्रफलानयन करते हैं । हि. भा.-प्रथम पद और चतुर्थपद (मकरादि केन्द्र) में त्रिज्या से कोटिफल ऊपर होता है । द्वितीयपद और तृतीयपद (कक्षादिकेन्द्र) में कोटिफल त्रिज्या से नीचा होता है। इसलिये मकरादि केन्द्र में त्रिज्या में कोटिफ़ल को जोड़ने से और कक्षीदि केन्द्र में त्रिज्या में कोटिफल को घटाने से नीचोचवृत्तीय स्पष्टा कटि होती हैं, स्पष्टकोटि और भुजफल के वर्गयोग का मूल शीघ्र कर्ण होता है। त्रिज्या को भुजफल से गुणाकर शीघ्रकर्ण से भाग देने से जो लब्घ हो उसका चाप शीघ्रफल होता है इति । उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये । उ= उच्च। ग्र=पारमाथिक ग्रह । भू–भुकेन्द्र, मः =मध्यमग्रह । मग्न = शीघ्रान्त्यफलज्या=अंफज्या । भूम=त्रिज्यां = त्रि। ग्रन=शीघ्रभुजफल । मन= प्रर= कोटिफल= कफ । म केन्द्र से शीघ्रान्त्यफलज्या व्यासार्ध से जो वृत्त होता है वह शीघ्रनीचोचवृत्त है । पय=नीचोच्चवृत्तीय तिरंग्रेखा उल=उच्चरेखा । कक्षावृत्तीय मध्यम ग्रहस्थान को केन्द्र मान कर अन्त्यफलज्या व्यासार्ध से नीचोचवृत्त लिखकर भूकेन्द्र से मध्यमग्रह स्थन गत रेखा करनी चाहिये, वही यहां उच्च रेखा है । उच्च रेखा और नीचोच्चवृत्त का ऊपर भाग में योग उच्च संज्ञक है । अधोभाग में योग नीच संज्ञक है । उच्च रेखा के ऊपर मध्यमग्रह स्थान से लम्ब रेखा नीचोच्चवृतीय तिर्यग्ग्र खा है। नीचोच्चवृत्त में उच्च प्रदेश से भांश ३६० अङ्कित करना, उस (नीचोच्च वृत्त) में उच्च से शीघ्र केन्द्र को अनुलोम दान देना, वहां शीघ्र केन्द्राग्न में प्रारमाथिक ग्रह होता है । यहाँ ग्रह और उच्चरेख का तिर्यक् अन्तर शीघ्र भुजफल है। प्रह और तियंक रेखा का अन्तर कोटिफल है । भूकेन्द्र और ग्रह •का अन्तर शीघ्रकर्रा है । इसका आनयन करते हैं। मकरादि केन्द्र में (प्रथम पद में और चतुर्थपद में) भूम त्रिज्या से ऊपर मन कोटिफल को देखते हैं अतः भूम+मन=न=त्रि+-कोफ= स्पष्टाकोटि, भून'+ ग्रन' =भूग्र'=पष्टको'+भुजक'= (त्रि+ कोफ)'+भुजफ' = शीघ्रकर्षे' मूल लेने से w(त्रि+कोफ+भुजफ' = शीघ्रक। इसी तरह चतुर्थपद में भी होता है । क्षेत्र के ऊध्र्वी भाग में मकरादि केन्द्र समझना चाहिये। अधोभाग में कक्जेंदिकेन्द्र समझना चाहिये । द्वितीय पद में भूम= त्रिज्या, ग़र= कोटिफल= मन । प्रन=भुजफल, भूग्र = शीघ्रकणं, यहां भूम त्रिज्या से मन कोटि फल को नीचा देखते हैं अतः भूम-मन=भून=त्रि- कोफ । भून'+ग्रन=स्पक'+भुजफ'=(त्रि-कफ)'+भुजफ'= शीघ्रक मूल लेने सेW(त्रि- कोफ) +भुजफ' = शीघ्रक, अवशीव्रफलानयन करते हैं । शीघ्र कथं एक स्फुटगति वासना १३६९ भुज, भुजफल द्वितीयभुज, स्पष्टा कोटिं तृतीयभुज, इन तीनों भुजों से उत्पन्न एक जात्य त्रिभुज है । तथा त्रिज्या एक भुज, शी व्र फलज्या द्वितीयभुए. शीघ्रफल कोटिज्या तृतीय भुज इन तीनों भुजों से उत्पन्न द्वितीय जात्य त्रिभुज है । इन दोनों त्रिभुजों के सुजातीयत्व से अनुपात करते हैं यदि शीघ्र कथं में शीघ्र भुजफल पाते हैं तो त्रिज्या में क्या इस अनुपात से शीघ्र फलज्या आती है उसका स्वरूप= शीभुफ त्रि ~=शी फज्या, इसका चाप= शीफल, इससे आचार्योक्त उपपन्न हुआ । सूर्यसिद्धान्त में “शै” कोटिफलं केन्द्रमकरादौ धनं स्मृतम् । संशोध्यं तु त्रिजीवायां’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित सूर्यसिद्धान्तकारोक्त श्लोकों के अनुरूप ही आचार्योंक्त है । सिद्धान्तशेखर में त्रिज्यकायां पदैस्त - । फल मथ खलु कौटेः कोटिसिद्धयं विधेयम्’ इत्यादि श्रीपयुक्त आचार्योंक्त के अनुरूप ही है । सिद्धान्तवि रोमणि में 'त्रिज्योध्वंत: कोटिफलं मृगादौ कक्षादि केन्द्र तदधो यतः स्याम्' इत्यादि भास्क- रोक्त भी आचार्योंक्त के अनुरूप ही है इति ॥२७-२८॥ इदानीं मन्दक्रमेण कर्णः किमु न क्रियते इत्यत्र कारणमाह । त्रिज्याभक्तः परिबिः कर्णगुणो बाहुकोटिगुणकारः असकृन्मान्वे तत्फलमाद्यसमें नात्रकणऽस्मात् ॥ २६ ॥ सु. भा. --'स्वल्पान्तरत्वान्मृदुकर्मणीह-इत्यादि भास्करोक्त न स्पष्टय माय ॥ २९ ॥ वि.भा-मन्दफलसाधने मन्दपरिधिर्मन्दकर्णेन गुणितः त्रिज्याभक्तः सन् . भुजकोटयोर्’णकोऽसकृत् वारं वारं क्रियया स्यात् । ततश्च परिधेः मान्दं फलमाद्य सममेव कर्णानुपातं विनैवानीते न मन्दफलेन सममेवेति तस्मान्मन्दफलानयन क्रियायां कण न कृतोऽर्थात् कर्णाग्रे यदि मन्दफलं तदा त्रिज्याग्रे किमिति त्रैराशिं कार्यं कर्णानयनं न कृतमित्यर्थः । सिद्धान्तशेखरे “त्रिज्याहुतः श्रुतिगुणः परिधि येंतो दोः कोटयोगुणो मृदुफलानयनेऽसकृत् स्यात् । स्यान्मन्दमाद्यसममेव फलं ततश्च कर्णः कृतो न मृदुकर्मणि तन्त्रकारैः ।” इह मन्दफल साधनेऽपि कर्णानुपातेन यत्फलं तदेव समीचीनमिति कर्णः कथं न कृत इत्यस्योपपत्तिरूपोऽयं श्रीपते: श्लोक आचायक्त श्लोकस्यानुवादरूप एव । भास्कराचार्येणापि ‘स्वल्पान्तरत्वान्मृदु कर्मणीह कर्णः कुतो.नेति वदन्ति केचित् । त्रिज्योद्धतः कर्णगुणः कृतेऽपि कर्णं स्फुटः स्यात् परिधियंतोऽत्र । तेनाद्यतुल्यं फलमेति तस्मात् कणैः कृतो नेति च केचिदूचुः । नाशङ्कनीयं न चले किमित्थं यतो विचित्रा फलवासनाऽत्र ।। ’ इह कणन यत्फलमानीयते तदेव समीचीनम् । यन्मन्दकर्मणि कर्णेन कृतस्तत्स्वल्पा न्तरात् । मन्दफलानि हि स्वल्पानि तदन्तरं चातिस्वल्पमिति केषांचित् पक्षः । १३७१ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते आचार्योऽत्र कारणमाह । मन्दकर्मणि मन्दकर्णतुल्येन व्यासार्धेन यवृत्तमुत्पद्यते तत्कक्षावृत्तम् । तेन ग्रहो गच्छति । यो मन्दपरिधिः पाठपठितः स त्रिज्यापरिणतः। अतोऽसौ कर्णव्यासार्धे परिणाम्यते । यदि त्रिज्यावृत्तेऽयं परिधिस्तदा कर्णवृत्ते क इति स्फुटपरिधिः। तेन भुजज्या गुण्या भांशैः ३६० भाज्या, ततस्त्रिज्यया गुण्या परिधि. कर्ण ४ भुज्या x त्रि कर्णेन भाज्या तदा जातं स्वरूपम् = त्रि x ३६० x क परिधि xभाज्या सृष्या, पूर्वफलतुल्यमेव फलमागच्छतीत्याचार्यंमतम् । ३६ अथ यद्येवं परिधेः कणन स्फुटत्वं हि शीघ्रकर्मणि कि न कृतमत्र चतुर्वे दाचार्यं आह । चले कर्मणीत्यं कि न कृतमिति नाशङ्कनीयम् । यतः फलवासना विचित्रा । शुक्रस्यान्यथा परिधेः स्फुटत्वं कुजस्यान्यथा तथा कि न बुधादीनामिति नाशङ्कनीयमत आचार्योक्तिरत्र सुन्दरी ॥ २९ ॥ अब मन्द कर्म में कर्णानुपात क्यों नहीं किया जाता है इसके कारण कहते हैं । हि. भा–मन्द फल साधन में मन्द परिधि को कर्ण से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने से भुज और कोटिं का गुणक बारबार क्रिया से होता है । उस परिधि से मान्दफल आद्य सम ही होता है अर्थात् बिना कvनुपात के सभागत मन्दफल के बराबर ही होता है । इसलिये मन्दफलानयन में कर्णानुपात नहीं किया गया अर्थात् यदि कर्णाग्न में मन्दफल पाते हैं तो त्रिज्याग्न में क्या इस त्रैराशिक के लिये कर्णानुपात नहीं किया जाता है। सिद्धान्त शेखर में ‘त्रिज्याहृतः श्रुतिगुणः परिचिः’ इत्यादि विज्ञानभाष्य में लिखित श्लोक से मन्दफल साधन में भी कर्णानुपात से जो फल आता है वही समीचीन है। इसलिये कर्णानुपात क्यों नहीं किया गया इसके उपपत्तिरूप श्रीपत्युक्तश्लोक आचायॉक्त श्लोक के अनुवादरूप ही है । भास्कराचार्य भी ‘स्वल्पान्तरत्वान्मृदुकर्मणीह' इत्यादि विज्ञानभाष्य में लिखित श्लोकों से यहां कथं से जो फल लाते हैं वही समीचीन हैं, मन्दकर्म में कर्णानुपात स्वल्पान्तर से नहीं किया गया, मन्दफल स्वल्प है उसका अन्तर अतिशयेन स्वल्प है यह किसी-किसी का पक्ष है । यहां आचार्य कारण कहते हैं। मन्दकर्म में मन्दकणं तुल्य व्यासाधे से जो वृद्ध होता है। वह कक्षवृत्त है। उसमें ग्रह भ्रमण करते हैं। पाठपठित मन्द परिधि त्रिज्यान में परिणत है । उसको कर्णं व्यासार्ध में परिणत करते हैं, यदि त्रिज्यावृत्त में यह पाठपठित मन्द परिघि पाते हैं तो कर्णवृत्त में क्या इससे स्फुट परिधि प्रमाण आता है, इसको भुजया से गुणाकर ३६० भांश से भाग देकर जो फल होता है उसको त्रिज्या से गुणाकर कर्ण से भाग देना चाहिये तब उसका स्वरूप- =परिबि. . शुष्यः त्रि_ परिबि. मुञ्या. त्रि. ३६०कर्ण ३६॥ पूर्वफल तुल्य ही फल आता है यह आचार्यों का मत है यदि इस तरह करों से परिधि का स्फुटत्व होता है तब शीघ्रकर्म में क्यों नहीं किया गया इसके लिये चतुर्वेदाचार्य कहते हैं। कणं स्फुटगति वासना १३७१ शीघ्रकर्म में इस तरह क्यों नहीं किया गया यह आशङ्का नहीं करनी | चाहिये क्योंकि फलो पपत्ति विचित्र है, यहां ब्रह्मगुप्तोक्त ही वहुत सुन्दर है इति ॥ २ ॥ इदानीं विशेषमाह । प्रतिपादनार्थमच्चं प्रकल्पितं ग्रहगतेस्तथा पातः । भुक्तरूनाधिकता मानस्य च भवति कर्णवशात् ॥ ३० ॥ सु. भा–प्रहगतेः प्रतिपादनार्थमुच्चं प्रकल्पितं तथा पातश्च प्रकल्पितः क्रान्तिवृत्तीयगत्यर्थमुच्चं विमण्डलीयगत्यर्थं पातः प्रकल्पित इति । कर्णस्य न्यूना धिकवशात् भुक्तबिम्बमानस्य च न्यूनाधिकता भवतीति । एवं मन्दस्पष्टग्रहे स्थितिर्भवति । भौमादीनां शीघ्रकर्णचशतश्च बिम्बमाने न्यूनाधिकता भवति परन्तु स्पष्टगतौ कर्णावशेन न न्यूनाधिकतोत्पद्यत इति छेद्यकेन सर्वं स्फुटम्। ‘यः स्यात् प्रदेशः प्रतिमण्डलस्य' इत्यादि तथा ‘उच्चस्थितो व्योमचरः सुदूरे’ इत्यादि च भास्करोक्तमेतदनुरूपमेव ।।३०।। वि. भा-ग्रहगतेः प्रतिपादनार्थमुच्चं प्रकल्पितं तथा पातश्च प्रकल्पितः । उच्चं क्रान्तिवृत्तीयगत्यर्थं विमण्डलीयगत्यर्थे च पातः प्रकल्पित इत्यर्थः। कर्णस्य न्यूनाधिक्यवशाद् भुक्तं बिम्बमानस्य च न्यूनाधिकता भवति । मन्दस्पष्टग्रहे एवं स्थितिर्भवति । मङ्गलादीनां ग्रहाणां शीघ्रकर्णवशाद्विम्बमाने न्यूनाधिकत्वं भवति । परं स्फुटगतौ कर्णवशेन न्यूनाधिकता नोत्पद्यते । कर्णवशेन बिम्बमाने न्यूनाचि कत्वं कथं भवति तदर्थं भास्करेण उच्चस्थितो व्योमचर ; सुदूरे नीचस्थित इत्यादिना युक्तियुक्तं कथितम् । यथा (ख) दृ= दृष्टिस्थानम् = भूकेन्द्रम् । टके=प्रह कर्णः । केस्म = बिम्ब व्यासार्धम् । दृकेस्प त्रिभुजे 5नुपातः क्रियते । यदि ग्रहकर्णेन त्रिज्या लभ्यते तदा बिम्ब व्यासावुन कि जाता बिम्बाधंकलाज्य (त्रि. विंव्या ३ तत्स्वरूपम् = , उच्चस्थनोय ५ कर्णः >अन्यस्थानीय क अत उच्चस्थाने हरस्याधि त्वाद्विम्बमानमन्यस्थानीयबिम्बमानादल्पं भवेत् । नीचस्थानीयकर्णः <अन्यस्थानीय कर्ण, अतो नच स्थाने हरस्याल्पत्वादन्यस्थानीय बिम्बमानादधिकं बिम्बमानं भवितुमर्हतीति ॥ ३० ॥ १३७२ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते अब विशेष कहते हैं । हिभाऊंग्रहगति ज्ञान के लिये उच्च की कल्पना की गई है तथा पात की कल्पना की गयी है। अर्थात्र क्रान्ति वृत्तीय गति के लिये उच्च कल्पित है, और विमण्डलीय गति के लिये पात कल्पित है । कर्ण की न्यूनाधिकतावश से ग्रहगति और बिम्बमान में न्यूनाधिकता होती है, इस तरह की स्थिति मन्दस्पष्ट ग्रह में होती है । कुजादिग्रहों के शीघ्रकर्णवश से विम्बमान में न्यूनाधिकता होती है । लेकिन स्पष्टगति में कर्णवश से न्यूनाधिकता नहीं होती है । कर्णवश से बिम्बमान में न्यूनाधिकत्व क्यों होता है, नीचे लिखी हुई युक्ति से स्पष्ट है । संस्कृत भाष्य में लिखित (१) क्षेत्र को देखिये । दृ=दृष्टिस्थान स्वरूपान्तर से भूकेन्द्र । के=बिम्बकेन्द्र । दृके=ग्रहकर्ण केस्प=विम्ब व्यासाधु । दृकेस्प त्रिभुज में अनु पात करते हैं । यदि ग्रहकर्ण में त्रिज्या पाते हैं तो बिम्ब व्यासार्ध में क्या इस अनुपात से श्रि. विव्या ३ बिम्वर्ध कलाज्या आती है । इसका स्वरूप = २३ = ज्या ३ वक। उच्च- ग्रह कर्णं स्थानीय ग्रहकर्ण > अन्यस्थानीयग्रहकणं, इसलिये उच्चस्थान में हर की अधिकता से बिम्बमान अन्य स्थानीय बिम्बमान से अल्प होता है । तथा नीचस्थानीय कर्ण > अन्यस्थानीय कर्ण, अतः नीचस्थान में हर की अल्पता से बिम्बमान अन्यस्थानीय बिम्ब मान से अधिक होता है इति ॥ ३० ॥ इदानीं स्फुटयोजनात्मककर्णानयनमाह । कक्षा व्यासार्धगुणा मण्डललिप्ता विभाजिता कर्णः। स्वकलाकर्णेन गुणः कणैस्त्रिज्याहृतः स्पष्टः ॥३१॥ सु. भा–प्रहकक्षा व्यासार्धेन त्रिज्यया गुणा मण्डललिप्ताभिश्चक्रकलाभि विभाजिता फलं मध्यमयोजनकर्णः स्यात् । स कर्णाः स्वकलाकर्णेन स्फुटशीघ्र- कर्णेन गुणस्त्रिज्याहृतः स्पष्टो योजनकर्णः स्यात्। पूवीर्यस्य परिधितो व्यासार्घनयनेन स्फुटया । त्रिज्यातुल्येन कलाकर्णेन मध्यो योजनकरांस्तदा स्वेष्टकलाकर्णेन किमित्यनुपातेन स्फुटो योञ्जनकंण भवति । तिघ्नस्त्रिगुणेन भक्त:’-इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूप- मेव ॥३१ । * वि. भा-ग्रहकक्षा त्रिज्यया गुणा मण्डलकलाभिः (चक्रकलाभिः) भक्ता तदा मध्यमयोजनकणं भवेत् स कर्णः स्फुटशीघ्रकणनगुणःत्रिज्या भक्तस्तदा स्फुटो योजनकर्णः स्यादिति । स्फुटगति वासना १३७३ यदि चक्रकलाभिग्रहकक्षा योजनानि लभ्यन्ते तदा त्रिज्यया किं समागछति मध्यमयोजनकर्तेः । पुनरनुपातो यदि त्रिज्ययाऽयं मध्यमयोजनकर्ता लभ्यते तदा स्फुटशीघ्रकर्णेन कि समागच्छति स्फुटो योजनकर्णः। एतावताऽऽचार्योक्तमु- पपन्नम् । सिद्धान्तशिरोमणौ लिप्ताश्च तिघ्नस्त्रिगुणेन भक्तः स्पष्टो भवेद्योजनकर्ते एवमिति’ भास्करोक्तमाचार्योक्तानुरूपमेवास्तीति ॥३१॥ अब स्पष्ट योजनात्मक कर्णानयन को कहते हैं । हि. मा-ग्रहकक्षा को त्रिज्या से गुणा कर चक्रकला से भाग देने से मध्यमयोजन कथं होता है । मध्यमयोजन कर्ण को स्फुट शीघ्र कथं से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने से स्फुट योजन ऊर्ण होता है । उपपत्ति । यदि चक्र कला में ग्रह कक्षा योजन पाते हैं तो त्रिज्या में क्या इस अनुपात से मध्यमयोजन कर्णप्रमाण आता है। पुनः अनुपात करते है यदि त्रिज्या में यह मध्यम योजन कणं पाते हैं तो स्फुट शी व्र करों में क्या इससे स्फुट योजन कर्ण आता है। इससे आचार्यो रक्त उपपन्न हुआ । सिद्धान्तशिरोमणि में 'लिप्ताश्रुतिघ्नस्त्रिगुणेन भक्त: इत्यादि भास्करोक्त आचायोंक्त के अनुरूप ही है इति ।।३१॥ इदानीं भूरविचन्द्राणां योजनच्यासानाह । मृद्दहनजलमयानां विष्कम्भो योजनैः विनेन्दूनाम् शशिवसुतिथिभि १५८१ र्यसपक्षशररसै ६५२२ शून्यवसुवेदैः ॥३२॥ सु. भा–विनेन्दूनां भूरविचन्द्रारणां मृद्दहनजलमयानां किविशिष्टानां क्रमेण शशिवसुतिथिभिर्येमपक्षशररसैः शून्यवसुवेदैर्योजनविष्कम्भो ज्ञेयः। भूगोल स्य मृण्मयस्य व्यासः= १५८१ । सूर्यगोलस्याग्निमयस्य व्यासः=६५२२ । जलम- यस्य चन्द्रस्य व्यासः=४८० । योजनात्मको ज्ञेय इत्यर्थः। अत्रोपपत्तिः । भास्करविधिना पुरान्तरं चेदिदमुत्तरं स्यात्'-इत्यादिना तथा 'बिम्बं रवेद्विद्विशरतृसंख्यानि' इत्यादिना तत्तद्वासनया च स्फुटा ॥३२॥ वि- भा.-मृण्मयस्य भूगोलस्य व्यासः=१५८१, अग्निमयस्य सूर्यगोलस्य व्यास:=६५२२, जलमयस्य चन्द्रस्य व्यासः=४८०, योजनात्मको भवतीति । १३७४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अत्रोपपत्तिः। के=ग्रहबिम्बकेन्द्रम् । दृ=दृष्टिस्थानम् । दृके=दृष्टि सूत्रम् । दृष्टिस्थानाद्ग्रहबिम्बस्पर्शरेख= दृस्प, केस्प= ग्रहबिम्बव्यासार्धम् । ग्रहबिम्बव्यासार्धसंमुखः कोणो दृष्टिस्थानगतः=स्फुटबिम्बाधंतला । < त्रि. कैस्प इसके=९, तदा इकेरस्य त्रिषुजे ऽनुपातेन ब्रुक ज्यास्पट्टके=स्फुवि = त्रि. ३ योद्या ज्या = खुलि ३ स्वल्पान्तराज्याचापयोरभेदात् । अतः त्रि. योज्या -महाणि =-स्फुवि, मक=मध्यमकर्णः ततः - स्फुवि त्रि. योव्या मक. स्वल्पान्त यदि मव त्रि. योव्या क’ स्फुवि रात् योद्या योव्या तदा मक, ग्रहबिम्बं , उच्चस्थाने लघु - मव क गतिश्च लध्वी, नीचस्थाने बिम्बं महत्, गतिश्च महती, अतो बिम्ब योनिष्यत्तिर्गत्योंनिष्पत्तिसमा, अतः मक _ स्फूर्वेि – स्फुग प्रतमक मग मवि
एक स्फुट बिम्बेऽस्योत्थापनेन स्फूविः = नान्या
[सम्पाद्यताम्]त्रि. योब्या , त्रि. स्फुग_ग्री योद्या स्वल्पान्तरात् । अत्र यदि । स्वल्पान्तरात् मध्यमकणैः स्फुटकर्णसमस्तदा स्फूग. योव्या त्रि इऋग. योद्या.=वि, अतः क. स्फुवि =थैत्या= मध्यगति स्थाने इके, दृस्प यष्टिम्यां वेधेन यत् केस्प मानं तदेव द्विगुणं तदा योव्या मानं भवेत् । तथा स्फुट गति स्थाने यत् केस्प मानं तदेव द्विगुणं तदा यौव्या मानं बो ध्यम्, अनया रीत्या रवि चन्द्रयोर्योजनव्यासानयनं कार्यम् । भूव्यासानयनं भवति तदथं वटेदवर सिद्धान्ते मद्दीका द्रष्टव्येति ॥३२। क. मग 'L अब भ्र (पृथ्वी) रवि और चन्द्र के योजन व्यास को कहते हैं । हि. मा.-गृष्मय भूगोल का योजनात्मक व्यास=१५८१, अग्निमय सूर्य गोल का योजनात्मक व्यास=६५२२ है जलमय चन्द्रगोल का योजनात्मक व्यास=४८०, है इति । स्फुटगति वासना १३७५ उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये । के = प्रहविम्बकेन्द्र । दृ= दृष्टिस्थान । टके==दृष्टि सूत्र । दृष्टि स्थान से ग्रबिम्ब की स्पर्शरेखा–दृस्प, केप ग्रहबिम्ब व्यासावं, ग्रहबिम्ब व्यासाधे संमुख दृष्टि स्थानगत कोण==स्फुट बिम्बाधंकला, त्रि.केस्प स्फुवि <दृस्पके=&०, तब वुकेस्प त्रिभुज में अनुपात सं - ज्यास्पट्टके= ज्या त्रि • ३ योद्या. =स्फुवि ३ स्वल्पान्तर से ज्या और चाप के अभेदत्व से अतः त्रियोध्या त्रियोव्या अभवं । स्फुविं । मक= मध्यम कर्ण, स्फुट बिम्ब में मध्यम बिम्ब से भाग देने से स्फुवि . योव्यामक 'तब व = मक त्रि. यदि स्वल्पान्तर से योव्यायोव्या वक भवि त्रि. योद्या. क उच्चस्थान में ग्रहबिम्व छोटा होता है, ग्रह गति भी छोटी होती है । नीच स्थान में ग्रह बिम्ब बड़ा होता है, गति भी बड़ी होती है अतः बिम्बों की निष्पत्ति गति की निष्पत्ति के बराबर होती है, अतः मक- = स्फुवि + = स्फुग, अतः मुक.मग =अक स्फुट बिम्ब में इसके उत्थापन मवि से स्फुविः त्रि. योब्या त्रि. स्क्रूग योव्या --- स्वल्पान्तर से। यहां स्वल्पान्तर से – = त्रि. स्फुग. योद्या यदि मध्यमकणं =स्फुट कर्ण कस्फुवि भूयोव्या स्फुवि, अतः तब . क. मग = स्फ़ग.योव्या , मध्यम गति स्थान में इके, दृस्प यष्टिद्वय से वेघ से जो केप मान होता है उसको द्विगुणित करने से योच्या मान होता है । तथा स्फुट गति स्थान में जो केप मान होता है उसको द्विगुणित करने से योव्या मान जानना चाहिये । इख रीति से रवि और चन्द्र का व्यासानयन करना चाहिये, भूव्यासानयन वेघ से होता है उस्रके लिये बटेश्वर सिद्धान्त में मेरी टीका देखनी चाहिये इति ॥३२॥ इदानीं भूभाबिम्बानयनमाह । वकंव्यासान्तरणमिन्दुस्फुटकर्णमकंकर्णाहृतम् । प्रोह्या भुवो भूच्छाया विष्कम्भश्चन्द्रकक्षायाम् ३३॥ सु० भा०–इन्दुस्फुटकथं वकंव्यासान्तरगुणमजंकणेहुत । फलं भुवो १३७६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते भूव्यासात् प्रोह्य चन्द्रकक्षायां भूच्छायाविष्कम्भो भवति । ‘भूव्यासहीनं रविबिम्ब भिन्दुकर्णाहृतम्' इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूपमेव । भास्करोक्तेन विधिना स्फूटा। अनेन प्रकारेण चन्द्रकक्षायां भाव्यासो नायातीत्यस्य मीमांसा कमलाकरेण तत्त्वविवेकचन्द्रग्रहणाधिकारे समीचीना कृता । लाघवेन सूक्ष्मभूभाकला बिम्बानयनं मदुक्त‘ यथा रवितनुदलवा लम्बनोव्य विहीना, क्षितिजजनितया तत्कार्मुकं कार्यमाणैः। द्विजपतिजपराख्यं लम्बनं तद्विहीनं । भवति वसुमतीभाबिम्बखर ण्डं सुसूक्ष्मम् । अत्रोपपत्तिीभाक्षेत्रेण त्रिकोणमित्या च सुगमा । ' यदि रविः भबिम्बयोविरुद्धपालिभवा स्पर्शरेखा क्रियते तदा भाभोत्पद्यते यद्वशाच्चन्द्रबिम्बे मालिन्यमुपलभ्यते । भूभाभासाघनार्थमुपरिभूभानयनसूत्रे प्रथम पादे ‘विहीना’ स्थाने ‘च युक्ता’ तृतीयपादे ‘तद्विहीन’ मित्यत्र ‘तयुतं सर्इति ज्ञेयम् । मदीयं ग्रहणकरणं निरीक्षणीयमित्यर्थः ॥३३॥ वि. भा--इन्दुस्फुटकर्णी (चन्द्रस्फुटकर्णी) क्वकंव्यासान्तरेण (भूव्यास हीनरविव्यासेन) गुणं रविकर्णभक्त लब्धं भूव्यासाद्विशोध्य चन्द्रकक्षायां भूभा व्यासो भवतीति । रविबिम्बबिम्बयोः क्रमस्पर्शरेखा यत्र चन्द्रकक्षायां लगन्ति तद्विन्दुजनितमार्गा वृत्ता कारो भवति तदेव भूभावृत्तम् । सर्वाः स्पर्श रेखा वघतरविकर्णेन साकमेवस्मिन्नेव बिन्दौ मिलन्ति,स च योगबिन्दुः=यो,रः बिम्ब के, भू=भूकेन्द्रम् । रस्प=रविव्यासार्धम् । भूस्प = भूव्यासार्धम् । बिन्दुतः स्पर्शरेखायाः समानान्तरा भूस रेखा कार्या च=चन्द्र केन्द्रम् । च बिन्दुतः स्पर्श रेखायाः समानान्तरा च न रेखा कार्या । सस्प-भूस्पं= भूव्यासार्धम् = भूव्या ३ रस्प–सस्प=रव्याई-भूव्याई क्षुरकैरविकर्णः। भूच=चन्द्रकर्णः । च बिन्दुतः स्पर्शरेखोपरिलम्बो भूभाव्यासार्धसमः=नस्प, रस, भूचन त्रिभुजयोः साजा- ( ) चन्द्रकर्णी त्यादनुपातेन Nर्च –भून= याधरगृहें अतः १३७७ स्फुटगति वासना , ’भूव्याईचंकणं =भूभाव्याई= (रव्या ) भून=नस्प=भूव्यारे– चल द्विगुणी करणेन भूव्या चंकणं (रव्याभूव्या) भूभाव्यासःएतेनाऽऽचार्योक्तमुप- पन्नम् । अयं भूभाव्यासश्चन्द्रकक्षायां नायातीति क्षेत्रदर्शनेनैव स्फुटम् । अनेनैवे ‘भूव्यासहीनं रविबिम्बमिन्दुकणहतं भास्करकर्णभक्तम् । भूविस्तृतिर्लब्ध फलेन हीना भवेत्कुभाविस्तृति रिन्दुमार्गे " ति भास्करोक्तमप्युपपद्यते । सिद्धान्त शेखरे “इन्दुभूतिः स्फुटमहर्यतिभूतधात्रि व्यासान्तरेण गुणिता रविकर्णभक्ता । भूविस्तृतेः फलमपोह्य वदन्ति शेषं छायां भुवः शशधरभ्रमणप्रदेशे ।” श्रीपयुक्त- मपीदमाचार्योक्तानुरूपमेवेति । र= रविबिम्बकेन्द्रम् । भू–भूकेन्द्रम् । भूर= रविकर्णः। रस्प=रविव्यासार्धम्रव्याई । भूस्प= भूव्यासार्धम् = भूव्याईभूविन्दुः स्पर्शरेखायाः समानान्तरा रेखा= भून, भूल= चन्द्रकर्णः। रन=रव्याई-भूव्याई <रनभू=९०, भूरन त्रिभुजेऽनुपातः क्रियते त्रि (ब्याङ-व्याई)=ज्या रभन= त्रि. रव्याई - त्रि. व्याई =ज्याई रवि ज्यारपलं, अस्याश्चापं २- -< चक (चा) नवतेविशोध्यं तदा नरभू =९०–चा=<च भूस्पं, भलस्य त्रिभुजेऽनुपातः त्रि. भूव्या ? ष्याभूतसंध्याचंपर्छअस्याश्चाम्=चपलं नवतेविशोध्यं तदा <लभूस्पं=९०-चपलं, ततः <चभूस्प<<लभूस्प=९०–चा-(६०-चंपलं) =६०-चा-९०+चंपलं=चंपलं-चा=<चभूल= भूभाबिम्बाधंम् । अनेन “रवितनुदलवा लम्बस्य ज्ययोना क्षितिजजनितया तत्कार्मुकं कार्यमाणैः । द्विजपतिजपराख्यं लम्बनं तद्विहीनं भवति वसुमतीभाबिम्बखण्डं सुसूक्ष्मम् ।“ इति म.म. सुधाकरोक्तमुपपद्यते । अत्रैव यदि ज्याचापयोरभेदत्वं स्वीक्रियेत तदा ३ रवि -रपलं=चा । परन्तु भूभाबिम्बाधम् =चंपलं-चा=चपलं-(३ रविं-रपलं ) १३७८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते =चपलं+रपलं-वि, एतेन “दिवाकर निशानाथपरलम्बनसंयुतिः । रवि बिम्बाधं रहिता भूभाबिम्बदलं भवेत् ’ इति यूपदेशीयानां प्रकार उपपद्यत इति । एवं यदि स्प, स्प, स्प, स्प, विरुद्ध स्पर्शरेखे क्रियेते तदा चन्द्रकक्षायां ल, ल, विन्द्वोरन्तर्गतो भागः सर्वकिरणानां संयोगाभावात् म्लान इव भवति । अतस्तत्र प्रदेशत एव चन्द्रकान्तिमालिन्यम् । अत एव लभूच इदं कोणमानं भूभाभाबिम्बा धं कल्प्यते तदा र बिन्दुतः स्प, स्प, रेखायाः समानान्तरा रेखा कार्या तदुपरि भू बिन्दुतो लम्बः= भूम तदा भूम=१ रव्या+३ भूव्या ततो रभूभ त्रिभुजेऽनुपातेन त्रि +) = ज्या ३ रवि+ज्यारपलंज्यामरभू अस्याश्चा- (३ रव्याई भूव्या रक पस्=चा, नवतेविशोध्यं तदा ९०–चा=<मरतथा भूलस्प, त्रिभुजेऽनुपातः त्रि४३ व्या =ज्या<भूलस्प,=ज्याचपलं, अस्याश्चापं, नवेतेविशोध्यं तदा = e ०–चपलं = <लस्प: ८ मर+<लेस्प=&०-चा+&०-चपलं = <रभूल=१८०–(चा/चपलं)
- १८०--{१८०--(चा/चपलं)} = १८०-१८०+ चा +चपलं =च
+चंपलं= <चभूल = भूभाभाबिम्बाधम् । एतेन “रवितनदलजीवा लम्बनस्य ज्ययाऽऽढचा क्षितिजजनितया तत्कार्मुकं कार्यमाणैः। द्विजपतिजपराख्यं लम्बनं तयुतंसद् भवति वसुमतीभाभावपुः खण्डमानम् ।“ इति भ. म. सुधाकर द्विवेद्युक्त सूत्रमुपपन्नम् । अथैव यदि स्वल्पान्तराज्ञ्या चापयोरभेदत्वं स्वीक्रियेत तदाचा =३ रवि +रपलं, तदा भूभाभाबिम्बाधंम्=चा/चंपलं=है रविं+रपलं+ चपलं, एतेन 'दिवाकर निशानाथपरलम्बनसंयुतिः । रविबिम्बाधंसहिता भूभाभाविस्तृते- दोलख।” इति मम. सुधाकरोक्तसूत्रमुपपद्यते । अत्रान्ये विशेषा वटेश्वरसिद्धान्तस्य मट्टीकायां विलोक्था इति ॥ ३३ ॥ अब भूभा बिम्बानयन कहते हैं । हि- भा.--चन्द्रके स्फुटकणं को भूव्यासहीन रनिव्यास से गुणाकर विकर्ण से भाग देने से जो लेब्ध हो उसको भूव्यास में घटाने से चन्द्रकक्षा में भूभाव्यास होता है । इति ।। उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये । रविबिम्ब और धूबिम्ब की क्रमस्पर्शरेखायें चन्द्रकक्षा में जहाँ जहां लगती है उन बिन्दु जनित मार्ग वृत्ताकार होता है, वही भूभावृत्त है; वधत रविकर्णं चन्द्रकक्षा में जहां लगता है वह विन्दु उस वृत्त का केन्द्र होता है । सब स्पर्शरेखायें द्रधित रविकर्ण के साथ एक ही बिन्दु में मिलती है। वह यह , स्फुटगति वासना १३७९ बिन्दु है । र= रविबिम्ब केन्द्र । भू–भूकेन्द्र । रस्प= रविव्यासार्धे = रव्या । भूस्पं= भूव्यासार्घ=३ भूव्या, भूर=रविकणं । च= चन्द्रकेन्द्र । भू बिन्दु से स्पर्शरेखा की समाना न्तरा रेख=भूस, च बिन्दु से स्पर्शरेखा की समानान्तरा रेखा=चन सस्प=भूस्पं=३ भूव्या, रस्प–सस्प= ई रव्या-३ भूव्या, च बिन्दु से स्पर्शरेखा के ऊपर लम्बः -६ भूभाव्या रख भूव =नस्प क्षुरस, भूचन दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं हैं = भून = (६ रव्या-ई भूव्याचंकणं अस्य ) - अतः - भून =नस्प = ३ भूव्या - {१- ६ भूभाव्या = = चल, द्विगुणित करने से भूव्या ( रव्या- भूव्या) चंक चंक (व्या--भूयन). = भूभाब्यास, इससे आचायॉक्त उपपन्न हुआ । इसी से ‘भूव्यासहीनं रवि बिम्बमिन्दुकणहतं इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित भास्करोक्त सूत्र भी उपपन्न होता है। यह भुभाव्यास चन्द्रकक्षा में नहीं आता है । यह क्षेत्र देखने ही से स्फुट है । अब यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (ख) क्षेत्र को देखिये । र= रवि विम्बकेन्द्र । भू= केन्द्र, भूर= रविकर्ण रस्प= रविव्यासार्घ=३ रव्या । भूस्प= भूव्यासाधं=है भूव्या, भू बिन्दु से स्पर्शरेखा की समानान्तरा रेखr=भून, भूल = चन्द्रकणं, रन = ३ रव्या - ३ भूव्या, < रनभू = &०, झरन त्रिभुज में अनुपात करते हैं । त्रि (१ रव्या - ३ भूव्या) = ज्या रभून= 'त्रि. ३ रव्या ' . - त्रि. ३ भूव्या चं =ज्या ३ रविं-ज्यारपलं, इसका चाप=चा, स्वयंश में घटाने से नरभू=&०--चा = < बभूसंग, धूलस्य त्रिगुण में अनुपात करते हैं। नि. के मुथा = ज्या < भूलस्प =ज्या चंपलं, इसका चाप=चन्द्रपरम लम्बन= चंपलं, नवत्यंश में घटाने से < लभूस्प । =&०-चपलं, अत: < चमू ~< लभूस्प= & ०- चा - (४० चपलं) = १० चा – ६० + चंपलं=चंपलं-चा = ३ भूभावइससे ‘रवितनुदल जीवा लम्बनस्य ज्ययोना’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित म. म. पण्डित सुधाकर द्विवेदीजी का सूत्र उप पन्न हुआ। इनके प्रकार से वास्तव भूभा बिम्बाधं आता है । यहीं पर ज्या और चाप का १३८० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अभेदत्व स्वीकार करने से ३ रवि-रपलं =चा, परन्तु भूभा विम्बाधं=चपलं-चा । अतः चंपलं -(३ रविंध्रपलं) = चंपलं + रपलं हे रवि = भूभाविम्बाधंइससे ‘दिवाकर- निशानाथ परलम्बनसंयुतिः इत्यादि संस्कृतोपपति में लिखित टूरप देशीय का प्रकार उपपन्न होता है। 7१७ एवं यदि स्प, स्प, स्प, स्पं, विरुद्ध स्पर्शरेखायें की जाय तो चन्द्र कक्षा में ल, ल. बिन्दुओं के अन्तर्गत भाग सब किरणों के संयोग के अभाव से प्लान की तरह होता है, अतः वहां चन्द्रकान्ति की मलिनता होती है । अत एव लं भू च कोणमान को भूभाभा ख़िम्बाधं । कल्पना करते हैं, तब र बिम्दु वे स्प, स्प, रेखा की समानान्तर रेखा के ऊपर भ्र बिन्दु से लम्ब = भूम, तब भूम = ३ रव्या + ३ भूव्या, अतः रभूम त्रिभुज में अनुपात से त्रि (रव्या+ई भूव्या ३ )==, ज्या ३ रवि+ज्या रपलंज्यामरभूइसका वाप=चा, नवत्यंश में घटाने से e•- चा = < मधूर, तया भूलस्प, त्रिभुज में अनुपात से त्रि. ३ भूव्या = ज्या < भूलस्प, = ज्या चपलं इसके चाप को नवत्यंश में घटाने से । । I ॥ । । । । &०-चपलं = लभूस्प, अत: < मर+लंभूस्पं,८६०- चा+e ०- चपलं= <रभूल =१८०. –(चा+चंपलं) ।
- १६०ः –{१८० –(चा/चपलं)}
=चा+चंपलं=<चभूल = भूभाभा विम्बाधं, इससे ‘रवितनुदलवा लम्बनस्य ज्ययाऽऽदघा’ इत्यादि संस्कृतोपपति में लिखितममपण्डित सुधाकर द्विवेदीजी का सूत्र i, . . उपपन्न हुआ । यहां पर यदि ज्या और चाप में अभेदत्व स्वीकार किया जाय तो चा== } रवि + रपलं, तब भूभाभा बिम्बाधं=चा+चंपलं=है रवि + रपलं + चंपलं, इससे ‘दिवाकरनिशानाथपरलम्बनसंयुतिः ! रवि विम्बाधं सहिता भूभाभा विस्तृतेर्दलम्” म. म. पण्डित सुधाकर द्विवेदीजी का सूत्र उपपन्न होता है। यहां अन्य विशेष बातें वटेश्वरसिद्धान्त की हमारी टीका में देखनी चाहिये इति ॥ ३३ ॥ इदानीं कलात्मकबिम्बान्याह । तद्वगुणितं व्यासार्धे शशिकर्णहृतं तमः प्रमाणकलाः । एवं त्रिज्यारविशशिविष्कम्भगुणा स्वकर्णहृता ।।३४। सु- भा–स्पष्टार्थम् । ‘सूर्येन्दुभूभातनुयोजनानि त्रिज्याहृतानि' इत्यादि भास्करोक्तमेतदनरूपमेव। स्फुटगति वासना १३८१ अत्रोपपत्तिः । त्रैराशिकेन भास्करोत्तया ॥३४ वि. भा.-भूभायायोजनात्मकबिम्बमानेन गुणितं त्रिज्याप्रमाणं चन्द्र- कर्णेन भक्त तदा कलात्मकं भूभाबिम्बं भवति । एवं योजनात्मकं रविबिम्बं त्रिज्यया गुणयित्वा रविकर्णेन भजेत्फलं कलात्मकं रविबिम्बं भवति । योजनात्मकं चन्द्रबिम्बं त्रिज्यया गुण यिवा चन्द्रकर्णेन भजेत् फलं कलात्मकं चन्द्रबिम्बं भवतीति । के= रविबिम्बकेन्द्रम्। दृ= दृष्टिस्थानम्= भूकेन्द्रम् । दृस्प दृस्य दृष्टिस्थानाद्रविबिम्ब स्पर्शरेखे, दृके= रवि कर्णः । केस्प= केस्पी=रविबिम्ब व्यासार्धम्केस्पट = = चंकण =केस्पंदृ=९०, केदृस्प=<केदृस्प = रविबिम्ब कला । दृकेस्प त्रिभुजेऽनुपातेन त्रि x केप त्रि x2 रव्या = ज्या ५ रविकला अस्याश्चापं द्विगुणितं तदा रविबिम्ब रविकर्ण कला प्रमाणं भवति । परन्त्वाचार्येण रविबिम्बकलाउंज्या (ज्या रविंक) प्रमाणं द्वाभ्यां गुणयित्वा चापं कृतं तद्विम्बकलाप्रमाणं कथ्यते तन्न समीचीनं यतो द्विगुणितार्धज्या द्विगुणित चापपूर्णज्या भवति, पूर्णाज्यातश्चापकरणविचि- त्रि ! चंव्या नईयन भास्कराचार्योक्तौ न समीचीनम् । एवमेव चन्द्रस्यापि = =ज्या ३ चैविक अस्याश्चापं द्विगुणितं तदा वास्तवं चन्द्रबिम्बकलाप्रमाणं भवति । एवं त्रि ३ भूभाव्या = ज्या ३ भूभाविंक, अस्याश्चापं द्विगुणितं वास्तवं भूभाबिम्बकला प्रमाणं भवति, आचार्योक्तन्त्वसमीचीनमेव । सिद्धान्तशेखरे “एतानि भास्करमृगाङ्कमहीप्रमाण त्रिज्याहतानि तनुविस्तृतियोजनानि । भक्तानि भानुशशिशीतकरश्रवोभिलिप्तामयानि हि भवन्ति यथाक्रमेण ।" श्री- पत्युक्तमिदमाचार्योक्तानुरूपमेव तथा सिद्धान्तशिरोमणौ "सूर्येन्दुभूभातनुयोजनानि त्रिज्याहुतान्यर्काशशीन्दुकएँ। भक्तानि तत्कालिप्तिकांस्तास्तेषां क्रमान्मान कला भवन्ति । ’ भास्करोक्तमिदं च न समीचीनमिति पूर्वोक्तोपपत्त्या स्फुट- मेवेति ॥३४॥ १३८२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अब कलात्मक बिम्बानयन को कहते हैं। हि. भा-योजनात्मक भूभाबिम्व को त्रिज्या से गुणा कर चन्द्रकर्ण से भाग देने से कलात्मक भूभाबिम्ब होता है एवं योजनात्मक रविबिम्ब को त्रिज्या से गुणाकर रविकर्ण से भाग देने से कलात्मक रविबिम्ब होता है । योजनात्मक चन्द्र बिम्ब को त्रिज्या से गुणा कर चन्द्रकर्ण से भाग देने से कलात्मक चन्द्र बिम्ब होता है इति । उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये । के== रविबिम्बकेन्द्र । दृ= = दृष्टिस्थान=भूकेन्द्र। दृस्प, दृस्प दृष्टि स्थान से रवि बिम्ब की स्पर्श रेखा, दृके=रविकरणं केस्प=जेस्प= रविबिम्बव्यासबैंकेस्पदृ= केपदृ= &०, < केदृस्प=< केदृस्प=रवि विम्बकला, इकेप त्रिभुज में अनुपात करते हैं त्रि.केस्प _ त्रि 13° में रच्या == या<< रकण त्रि. रव्या त्रि. रविक द्विगुणित करने से भ: = रविविकला । एवं म. च°या == चविकला । त्रि.भूभाव्या = भ,भाविक इससे आचार्योक्त उपपन्न हुआ । शिद्धान्तशेखर में ‘एतानि । वकर्ण भास्करमृगाङ्कमहंप्रमाण’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्रीपयुक्त प्रकार आचार्योक्त के अनुरूप ही है । लेकिन ये प्रकार (आचार्याक्त तथा श्रीपत्युक्त) ठीक नहीं है । अनुपात से जो बिम्बकलाधेज्या आती है उसके चाप को द्विगुणित करने से बिम्बकला प्रमाण वास्त वित होता है, आचार्य बिम्बकलार्धज्या को द्विगुणित कर बिम्बकला प्रमाण कते हैं । सिद्धान्तशिरोमणि में 'सूर्येन्दुभभातनुयोजनानि’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित इलोक से भास्कराचार्य बिम्बकलाघंज्या को द्विगुणित कर विम्बकला प्रमाण को कहते हैं यह भी ठीक नहीं है क्यों कि विम्बकलार्धज्या को द्विगुणित करने से द्विगुणित बिम्बकला चाप की पूर्णज्या होती है । पूर्णज्या से चाप करने का नियम नहीं है अतः भास्करोक्त प्रकार भी ठीक नहीं हैं इति ॥३४॥ इदानीं छादकंमाह। भूच्छायेन्द्रे चन्द्रः सूयं छादयति मानयोगार्धात्। विक्षेपो यद्यनः शुक्लेतरपञ्चदश्यन्ते ॥३५।। सु. भा–यदि मानयोगार्धात् मानैक्यखण्डाद्विक्षेप ऊनस्तदा शुक्ले पर्व दश्यन्ते पुणग्ते भूच्छाया चन्द्र छादयति । इतरपञ्चदश्यन्ते दर्शान्ते चन्द्रः सूर्ये छादयति । ‘भूभाविधं विधुरिनं ग्रहणे पिघत्ते' इति भास्करोक्तमेतदनुरूप मेव ॥३५॥ s?fts^ft^%tT5T 7^5^?% ($*jt?%) ^swr (*r*rr) ws' i ^S^TFf cT^T 5W? ? cT: I 3TcffcW|rd+l*» ^SFSW^ WITfefcr: ^^T#- 'F^TPT =3" ^ Kf^"^TS*l|Vd + l^ I^^F^FT TfT^WRf:, 'fk^TTFT- fkrcr jftfrf?r sPTfcrfri *f »r^T *rr?rr | ^ ^ ftft 1, ^ifr «ra Tf% f eft ?riTT?5r^T5r fterr | w ttftt ^ qforrtrr y<i.iM ^ ^> pr^ % ^ T^V ^rfiarf f +!H l«-d '<<:=(' % % I TOT ^ 3TT^ ^ftw t % ^ ffaT I 11% U^KU अथ ग्रहणवासना प्रारभ्यते । तत्रादौ छादकनिर्णयमाह । महदिन्वरावणं कुण्ठविषाणो यतोऽर्घसत्र,छन्नः। अर्घच्छन्नो भानुस्तीक्ष्णविषाणस्ततोऽस्याल्पम् ॥३६ सु. भा.-यतो ऽर्धसञ्छन्नश्चन्द्रः कुण्ठविषाणो भवत्यत इन्दोरावरणं छादकमानं महत्। भानुश्चार्धच्छन्नस्तीक्ष्णविषाणो भवति ततस्तस्मादस्यावरण- मल्पमस्तीत्यवगम्यते । लघुपरिधौ महापरिधिखण्डितेन विषाणयोः परिधियोग बिन्द्वोः कुण्ठता महापरिधौ च लघुपरिचिखण्डितेन विषाणयोस्तीक्ष्णतोत्पद्यते । अतश्चन्द्रस्य च्छादकः पृथुतरः सूर्यस्याल्पतर इति । ‘छादकः पृथुतरस्ततो विधिः इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूपमेव ।।३६।। वि. भा.—यस्मात् कारणाव अर्धच्छन्नश्चन्द्रः कुण्ठविषाणो भवति अतश्च न्द्रस्याऽऽवरणं (छादकमानं महत् । भानुः (सूर्यः) अच्छन्नः तीक्ष्णविषाण भवति, तस्मात्कारणादस्याऽऽवणमल्पमस्तीति । लघुपरिघेवृहत्परिधिना खण्डने परिधियोगबिन्दुरूपयोविषाणयोः कुण्ठता भग्नशृङ्गता जायते, बृहत्परिधेर्लघुप- रिधिना खण्डने विषाणयोस्तीक्ष्णतोपपद्यते । अत एव चन्द्रस्याच्छादको महान सूर्यस्य च लघुरिति । एतं प्राचीनोक्तयुक्तिवादमेव भास्कराचार्योऽपि ‘‘छादकः पृथुतरस्ततो विघोरघंखण्डिततनोविषाणयोः । कुण्ठता च महती स्थितिर्यतो लक्ष्यते हरिणलक्षणग्रहे । अर्धखण्डिततनोविषाणयोस्तीक्ष्णता भवति तीक्ष्ण- दीधितेः। स्यात् स्थितिर्लघुरतो लघुः पृथक् उदकौ दिनकृतोऽवगम्यते । इत्यने नोक्तवानिति ।।३६।। अब ग्रहण वासना प्रारम्भ की जाती है । उसमें पहले छादक निर्णय को कहते हैं । हि. भा. -आधा आच्छादित चन्द्र का शुङ्गकुण्ठ (भयहोता है इसलिये चन्द्र का छदक बड़ा है । आचे आच्छादित सूर्य के भृङ्ग तीक्ष्ण (नुकीलेहोते हैं अतः सूर्य के छादक छोटे हैं । लघुपरिधि को वृहद् परिधि से काटने से परिचि के योग बिन्दुरूप शुङ्ग द्वय की कुण्ठ्ता होती है । बृहत्परिचि को लघु परिधि से काटने से दोनों ऊों की तीक्ष्णता होती है अतः चन्द्र का छदक महान है और सूर्य का छदक लघु है । इस प्राची नोक्त युक्तिवाद ही को भास्कराचार्य ने भी `छादकः पृथुतरस्ततोविघोः’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से कहा है इति ।।३६।। १३८५ इदानीं राहुकृतं ग्रहणं नेति वराहमिहिरादीनां मतं प्रतिपादयति । यदि राहुः प्राग्भागदिन्द्वं छादयति कि तथा नाकम् । स्थियधं महदिन्दोर्यथा तथा कि न सूर्यस्य ॥३७॥ किं प्रतिविषयं सूर्यो राहुश्चान्यो यतो रविग्रहणे । प्रासान्यत्वं न ततो रहुकृतं ग्रहणमर्केन्द्वोः ।३८।। एवं वराहमिहिरश्रीषेणायंभविष्णुचन्द्राद्याः। लोकविरुद्धमभिहितं वेदस्मृतिसंहिताबाह्यम् ॥३६॥ सु. भा–आर्याद्वयं स्पष्टार्थप्त । एवं वराहमिहिरादिभी राहुकृतं रवीन्द्र्न ग्रहणमिति लोकविरुद्ध वेदस्मृतिसंहिताबाह्य ' चाभिहितम् ॥३७-३९॥ वि. भा.- यदि राहुः पूर्वतश्चन्द्र' छादयति अर्थाच्चन्द्रग्रहे पूर्वतः स्पशों भवति, तथा रविं कथं न छादयति अर्थात् सूर्यग्रहणेऽपि पूर्वत एव कथं न स्पशों भवति । चन्द्रग्रहणे स्थित्यधं महदुभवत तथा सूर्यस्य कथं न भवति । प्रत्येक देशे सूर्यो राहुश्च अन्योऽन्यो भवति किं ? यतः सूर्यग्रहणे ग्रासान्यत्वं भवति तस्मात् कारणात् राहुकृतं सूर्याचन्द्रमसोतुं हणं न भवतीति वराहमिहिर-श्रीषेणार्यभट- विष्णुचन्द्रार्दूलक विरुद्ध वेदस्मृतिसंहिताबहिभूतं कथितमिति । यदि राहुकृतं सूर्यचन्द्रयोग्रहणं तदा चन्द्रस्य प्रास्पर्शः, सूर्यस्य पश्चादिति कथ् । राहोरेक- रूपत्वात् । चन्द्रस्य पश्चान्मुक्तिः, रवेः प्राग् मुक्तिरिति कथम् । ग्रहणद्वये स्पर्श मोक्षादेर्दर्शनं समानरूपेण भवितव्यम् । अर्धखण्डितस्य रवेविषाणयोः (श्वङ्गयोः) तीक्ष्णता स्थितिश्च लवी, रवेः क्वापि ग्रहणमस्ति वापि नास्तीत्यादिं नोपपद्यते अत्र वराह मिहिरोक्तम् । “आवरणं महदिन्दोः कुण्ठविषाणस्ततोऽर्घसञ्छन्नः। स्वल्पं रवेर्यतोऽतस्तीक्ष्णविषाणो रविर्भवति । लल्लोक्त च ‘प्रथमं रविमण्डलं ततो न ततः खण्डितमिन्दुमण्डलम् । न समाकृतिरीक्ष्यते स्थितिर्दतो राहुकृतो न स ग्रहः ॥ सवितुश्च यदन्यथाऽन्यथा प्रतिदेशं सकलं समीक्ष्यते । न च कुत्रचिदित्यवैत्य कः कुरुते राहुकृते ग्रहे ग्रहम् ।" सिद्धान्तशेखरे “राहुणा यदि पिधीयते ग्रहस्तिग्मशीतमहसोः स्वतृप्तये । नैकरूपमवलोक्यते कथं स्पर्शमोचनविमर्दपूर्वकम् । । श्रीपतिना संक्षेपेणोक्तमिति ॥३७-३९।। । १३८६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अब राहुकृत ग्रहण नहीं होता है वराहमिहिरादियों के मत को कहते हैं । हिभायदि राहु पूर्वदिशा से चन्द्र को आच्छादित (ढकता) करता है अर्थात यदि चन्द्र ग्रहण में पूर्व से स्पर्श होता है, तो उसी तरह सूर्य को क्यों नहीं आच्छादित करता है अर्थात् सूयं ग्रहण में भी पूर्व ही है वयों स्पर्श नहीं होता है, चन्द्रग्रहण में स्थित्यर्ध बड़ा होता है वैसे ही सूर्यग्रहण में क्यों नहीं होता है । क्या प्रत्येक देश में सूर्य और राहु भिन्न होते हैं, क्यों कि सूर्य ग्रहण में ग्रास में भिन्नता होती है । इसलिये राहुकृत सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण नहीं होता है ये बातें वराहमिहिरश्रीषेण-आर्यभट-विष्णुचन्द्र आदि आचार्यों ने लोकविरुद्ध और वेद स्मृति संहिता से वहितुं त कही हैं यदि राहुकृत सूर्य ग्रहण और चन्द्रग्रहण होता हैं तो चन्द्र के पूर्व तरफ स्पर्श और सूर्य के पश्चिम तरफ स्पर्श क्यों होता है क्योंकि राहु एक ही है । चन्द्र ग्रहण में पश्चिम में मोक्ष होता है, सूर्यग्रहण में पूर्वं तरफ से क्यों ? दोनों ग्रहणों में स्पषं मोक्ष आदि का दर्शन समान रूप से होना चाहिये, सो नहीं होता है, अर्घ खण्डित रविबिम्व के झुङ्गद्य की तीक्ष्णता और स्थिति लघु, रवि ग्रहण कहीं दृश्य होता है कहीं नहीं इत्यादि उपपन्न नहीं होता है यहां वराह मिहिरोक्त वचन ‘आवर्गं महदिन्दोः कुण्ठविषाणःइत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित है । "प्रथमं रवि मण्डलं ततो न ततः खण्डितमिन्दुमण्डलस’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से राहुकृत ग्रहण का खण्डन लल्लाचार्यों ने किया है । सिद्धान्तशेखर में ‘राहुणा यदि पिधीयते प्रहः इत्यादि से श्रीपति ने भी राहुकृत ग्रहण का खण्डन किया है इति ॥३७-३e इदानीं संहितामतमवलम्ब्य वराहादीन् निराकरोति । यद्य वं ग्रहणफलं गर्गाद्याः संहितासु यदभिहितम् । तवभवे होमजपस्नानादीनां फलाभावः ।।४०।। सु. भा--गर्गाचे राहुवशतः संहितासु यद्ग्रहणफलमभिहितं तदं व्यर्थमेव। यद्येवमेव वराहमिहिरादीनां मतमिति । तदभावे राहुकृतग्रहणाभावे । शेषं स्पष्टार्थम् ।।४०। वि. -वराहमिहिरादीनां मतं संहितासु राहुवशतो यद्ग्रहण भा.-यद्येवं फलं कथितं तदुव्यर्थमेव भवेत् । तदभावे (हुकृत ग्रहणाभावे) .होमजपस्नाना दीनामपि फलाभावो भवेदिति ॥४०॥ अब संहितामत क अवलम्बन कर वराहमिहिरादि मत का खण्डन करते हैं । हि. भा--यदि वराहमिहिर आदि आचाय के इस तरह मत हैं तब संहिताओं में राहुवश से जो ग्रहण फल कहा गया. है वह व्यर्थ है । राहुकृत ग्रहण के अभाव (राहु के द्वारा ग्रहण नहीं होने) में होम जप स्नान आदि का भी फलाभाव होता है इति ॥४०॥ ग्रहणवासन १३८७ इदानीं लोकप्रथामाह । राहुकृतं ग्रहणद्वयमागोपालाङ्गनादिसिद्धमिदम् । बहुफलमिदमपि सिद्धं जपहोमस्नानफलमत्र ॥४१॥ सु. भा.-स्पष्टार्थाम् ॥४१॥ वि. भा–राहुद्वारा सूर्यग्रहणं चन्द्रग्रहणं च भवतीति गोपस्त्रीष्वपि प्रसिद्धमस्त्यर्थाद्गोपस्त्रियोऽपि जानन्ति यद्राहुकृतं ग्रहणद्वयं भवति, अत्र ग्रहणे जप करणें होम करणे स्नाने च बहुफलं भवतीत्यपि प्रसिद्धमस्तीति ।४१॥ अब लोक प्रथा को कहते हैं । हि. भा–राहुद्वारा सूर्यग्रहण और चन्द्र ग्रहण होता है यह विषय गोपालोंग्वालों) की स्त्रियों में भी प्रसिद्ध है अर्थात ग्वालों की स्त्रियां तक भी इस बात को जानती हैं कि दोनों ग्रहण राहु से ही होते हैं, और इस ग्रहण समय में जप करने से, हवन करने से, और स्नान करने से बहुत फल होता है यह भी उन लोगों (ग्वालों की स्त्रियों) में प्रसिद्ध है। इति ।।४१॥ इदानीं राहुकृतं ग्रहणं भवतीत्यत्र स्मृतिवाक्यं प्रदर्शयति । प्रतिषक्त न स्नानं राहोरन्यत्र दर्शनद्रात्रौ । राहुग्रस्ते सूर्ये सर्वे गङ्गासमं तोयम् ॥४२॥ सु- भा.- स्पष्टार्थम् ।४२। वि. भा–सूर्यं राहुग्रस्ते चन्द्रवा राहुग्रस्ते सर्वे जलं गङ्गासमं भवति । राहुदर्शनाद् भिन्न समये रात्रौ स्नानं न कुर्यात् । एवं स्मृतिषु (धर्मशास्त्रेषु) उक्तम् (कथितस्) । सिद्धान्तशेखरे “सर्वं च गङ्गासममम्बु राहुग्रस्ते दिनेशे यदि वा शशाङ्क । राहूपलब्धेरपरत्र कुर्यात् । स्नानं न रात्रौ स्मृतिद्युक्तमेवम् ।" श्रीपति नैवमुच्यते । “अप्रशस्तं निशि स्नानं राहोरन्यत्रदर्शनात् । राहुदर्शनसंक्रान्ति- विवाहात्ययवृद्धिषु । स्नानदानादिकं कुर्यान्निशि काम्यव्रतेषु च । सर्वे गङ्गासमं तोयं सव ब्रह्मसमा द्विजाः । सर्वे भूमिसमं दानं राहुग्रस्ते दिवाकरे ।” इत्यादि स्मृति पुराणवचनानुकूलं श्रीपत्युक्तमितिं स्फुटमेवेति ॥४२॥ अब राहुकृत ग्रहण होता है इस में स्मृति वाक्य को दिखलाते हैं । हि. भा.-राहु द्वारा सूर्य के ग्रस्त होने में वा चन्द्र के ग्रस्त होने में सब जल गङ्गाजल के बराबर होता हैं । राहुदर्शन से भिन्न समय में रात्रि में स्नान नहीं करना १३८८ ब्राह्मस्फुटसद्धान्ते चाहिये, इस तरह घर्मशास्त्र में कहा गया है। सिद्धान्तशेखर में ‘सर्व च गङ्गासममम्बुरा- हुग्रस्ते’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक से श्रीपति ने आचार्योंक्त के अनुरूप ही कहा है। तथा “अप्रशस्तं निशि स्नानं राहोरन्यत्रदर्शनार्वा"इत्यादि विज्ञानभाष्य में लिखित स्मृति पुराण बचनों के अनुकूल ही कहा है इति ॥४२ इदानीं राहुकृतग्रहणे वेदवाक्य प्रदर्शयति । स्वर्भानुरासुरिनं तमसा विव्याध वेववाक्यमिदम् । भृति संहितास्मृतीनां भवति यथैक्यं तदुक्तिरतः ४३॥ सु. भा.-स्वर्भानुर्ह वा आसुरिः सूर्यं तमसा विव्याध’-इति माध्यन्दिनी श्र fतः । अथ यथा शू तिसंहितास्मृतीनामैक्रय भवति तथा कथनमुचितमत एकवाक्यता प्रतिपादनार्थं तदुक्तिरत्रोचिता ।४३।। वि. भा.-स्वभ नुरासुरिरित्यादिवेदवचनम् यथा स्वर्भानुर्हवा आसुरिः सूर्यं तमसा विव्याध । इति माध्यन्दिनी श्रुतिस्तत्र आसुरिरसुरकुलोत्पन्नः स्वर्भानुः (सिहिकासूनुः राहुः) तमसा (अन्धकारेण) इनं (सूर्यबिम्बं) विव्याध (भेदितवान्) इदं वेदवाक्यमस्ति, यथा श्रुतिसंहितास्मृतीनामैक्यं (समता) भवति तथा कथनमुचितमत एकताप्रतिपादनर्थं तदुक्तिरत्रोचितास्तीति । सिद्धान्तशेखरे ‘स्वर्भानुरासुरिरिनं तमसा घनेन विव्याध वेदवचने तदपि प्रसिद्धम् । प्रोक्तानि भानुशशिनोरसुरेश्वरेण सञ्छन्नयोरपि च साहांतकः फलानि । श्रीपतिनैवं कथितम् । असुरेश्वरेण (राहुण) आच्छादितयोः सूर्याचन्द्रमसोः सांहितिकैः (संहितावेत्तृभिः) शुभाशुभानि च फलानि प्रोक्तानि । यदाह गर्गसंहितायां भटोत्पलः "यन्नक्षत्रगतो राहुग्रसते शशिभास्करौ। तज्जातानां भवेत्पीड़ा ये नराः शान्ति वजिताः ।’ इत्यादिना सर्वत्र व ग्रहणकारणं राहुरिति प्रसिद्धम् ।N४३।। अब राहुकृत ग्रहण में वेदवाक्य को कहते हैं । हि. आ-- ‘स्वर्भानुर्देवा असुरिः सूर्यं तमसा विव्याध’ यह माध्यन्दिनी श्रुति है। इसका प्रथं यह है आसुरि (राक्षस कुलोत्पन्न) स्वर्भानु (संहिका पुत्र राहु) ने अन्धकार से सूर्य बिम्ब को भेदित किया, । श्रुति (वेद) संहिता और स्मृति (धर्मशास्त्र) में जैसे ऐक्य (समता-एकवाक्यता) हो वैसे कहना उचित है अतः एकता प्रतिपादन के लिये उस की उक्ति यहां उचित है । सिद्धान्तशेखर में स्वर्भानुरासुरिरिनं तमसा धनेन' इत्यादि से श्रीपति ने आचार्योंक्त के सदृश ही कहा है इति ॥४३॥ इदानीं स्वोक्तिमाह। राहुस्तच्छादयति प्रविशति यच्छुक्लपञ्चदश्यन्ते । भूछाया तमसीन्दोर्वरप्रदानात् कमलयोनेः ।४४।। १३८९ चन्द्रोऽम्बुमयोऽधः स्थो यदग्निमयभास्करस्य मासान्ते । छादयति शमिततापो राहुश्छादयति तत् सवितुः ॥४५॥ सु- भा. इन्दोर्दुबिम्बं शुक्लपञ्चदश्यन्ते पूर्णान्ते भूछायातमसि भूमान्ध कारे प्रविशति तदेव बिम्बं कमलयोनेब्रह्मणो वरप्रदानाद् भूछायामाश्रित्य राहु श्छादयति । एवं मासान्ते दर्शान्तेऽग्निमयस्य भास्करस्य महदुबिम्बं जलमयः शमिततापोऽधः स्थश्च चन्द्रश्छादयति सवितुः सूर्यस्य तदेव बिम्बं छायामाश्रित्य राहुश्छादयतीति । भास्करोक्तिरप्येतादृशी ॥४५॥ वि भा--इन्दोः (चन्द्रस्य) यद्विम्बं शुक्लपक्षपञ्चदश्यन्ते (पूर्णान्ते) भूछायातमसि (भूभान्धकारे) प्रविशति, तदेव बिम्बं ब्रह्मणो वरप्रदानात् भूछा यामाश्रित्य राहुश्छादयति । एवं मासान्ते (अमान्तकाले) ऽग्निमयस्य भास्करस्य (सूर्यस्य) महद्विम्बं जलमयः शमिततापोऽधः स्थश्चन्द्रश्छादयति, सूर्यस्य तदेव बिम्बं भूछायामाश्रित्य राहुश्छादयतीति । सिद्धान्तशेखरे विष्णुल्नशिरसः किल पङ्गोदैत्तवाच वरमिमं परमेष्ठी । हेमदानविधिना तव तृप्तिस्तिग्मशीतमह सोरुपरागे। भूमेश्छायां प्रविष्टः स्थगयति शशिनं शुक्लपक्षावसाने राहु ब्रह्मा प्रसादात् समधिगतवरस्तत्तमो व्यासतुल्यः। ऊध्र्वस्थं भानुबिम्बं सलिलमयतनोर प्यधोतबिम्बं संसृत्यैवं च मासव्युपरति समये स्वस्य साहित्यहेतोः” इत्यनेन श्रीपतिनाऽऽचार्योक्तानुरूपमेव कथितम् । श्रीपत्युक्तश्लोकार्थः विष्णुना नाराय णेन) लूनं (छिन्तं) शिरो (मस्तकं) यस्य स विष्णुलूनशिरास्तस्य पङ्गोः (गति विकलस्य राहोरित्यर्थः) परमेष्ठी (ब्रह्मा) इमं वरं दत्तवान् । किं वरमित्याह तिग्मशीतमहसोः (सूर्याचन्द्रमसोः) उपरागे (ग्रहणे) होमदानविधिना ग्रहणकाले यद्दानं दीयते यच्चाग्नौ हूयते तेन तव तृप्तिः (तर्पणमाप्यायनमित्यर्थः) भविष्यति ब्रह्मप्रसादात् समधिगतवरोराहुः तत्तमो व्यासतुल्यः (तस्या भूच्छायाया अन्यका ररूपेण व्यासेन समानःशुक्लपक्षावसाने (पौर्णमास्यन्ते) भूभां प्रविष्टः सन् चन्द्र ग्रसते । एवममूना प्रकारेण मासव्युपरति समये (अमावास्यायां) स्वस्य साहित्यहेतोः । सूर्यचन्द्राभ्यां मिलनकामनग्ना पीयूषपिण्डस्य चन्द्रस्य अधोवंति बिम्बं सूर्यबिम्बापेक्षयेतिभावः । संसृत्य (आश्रित्य) ऊध्र्वस्थं सूर्यबिम्बं स्थगयति स्वस्य साहित्यहेतोरिति । अत्र लल्लोक्तम्--"ग्रहणे कमलासनानुभावाद्धे दत्तांशभुजोऽस्य सन्निधानम् । यदतः स्मृतिवेदसंहितासु ग्रहणं राहुकृतं गतं प्रसि द्धिसु ।” इति, श्रीपयुक्त च “भूमेछायां प्रविष्टः स्थगयति शशिन" मित्यादि दृष्ट्वा भास्कराचार्येण गोलाध्यायस्य ग्रहणवासनाधिकारे दिग्देशकालावरणादिभेदान्नच्छादको राहुरिति ब्रुवन्ति । यन्मानिनः केवल गोलविद्यास्तत्संहिता वेदपुराणबाह्यम् त । ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते १३९० राहुः कुभामण्डलगः शशाङ्क' शशाङ्गश्छादयतीनबिम्बम् । तमोमयः शम्भुवसंप्रदानात् सर्वागमानामविरुद्धमेतत् एवमुक्तमिति । अथात्र संहितायां गणितागतसमयात् पूर्वं परतो वा ग्रहणदर्शने तदुत्पात रूपमिति तत्फलं च गगक्तम् । 'जैन . ‘वेलाहीने शस्त्रभयं गर्भाणां श्रावणं तथा। अतिवेले फलानां तु सस्यानां क्षयमादिशेत् दृक्समे पर्वणि नृपा निखैरा विगतज्वराः प्रजाश्च सुखिताः सर्वाभयरोगविजताः इति लक्ष्यीकृत्य वराहमिहिरेण ‘चेलाहीने पर्वणि गर्भविपत्तिश्च शस्त्रकोपश्च । अतिवेले कुसुमफलक्षयो भयं सस्यनाशश्च हीनातिरिक्तकाले फलमुक्त पूर्वशास्त्रदृष्टत्वात् । स्फुटगणितविदः कालः कथञ्चिदपि नान्यथा भवति ।।' एवं दृग्गणितैक्य विधाने स्वपाटवं प्रदर्शितमिति ।।४४-४५॥ अब अपना मन्तव्य कहते हैं । हि- भा.-पूर्णान्तकाल में चन्द्र बिम्ब भूभा के अन्धकार में प्रवेश करता है ब्रह्मा के वरप्रदान से भूछाया (भूभा) को आश्रयण कर अर्थात् भूभा बिम्ब में प्रविष्ट हो कर राहु उसी चन्द्र बिम्ब को आच्छादित करता है । एवं अमान्त काल में सूर्य बिम्ब से अघः स्थित चन्द्रबिम्ब सूर्यबिम्ब को आच्छादित करता है, ब्रह्मवरप्रदान से राहु चन्द्रबिम्ब में प्रविष्ट हो कर उसी सूर्य बिम्ब को आच्छादित करता है । अर्थात् पूर्णान्त काल में राहु चन्द्र बिम्ब को आच्छादित करता हैं तथा अमान्त में चन्द्रमण्डलगत राहु सूर्यबिम्व को आच्छादित करता है । सिद्धान्तशेखर में “विष्णु लूनशिरसः किल पफ़ोर्दत्तवान्वरमिमं परमेष्ठी' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से श्रीपति ने भी 'आचायॉक्त के अनुरूप ही कहा है । 'अहणे कमलासनानुभावाद्भुतदत्तांश मुजोऽस्य सन्निधानम्' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित लल्लोक्त श्लोक को देख कर तथा ‘भूमेछायां प्रविष्टः स्थगयातिं शशिनं इत्यादि विज्ञानभाष्य में लिखित श्रीपत्युक्त को देख कर के गोलाध्याय ग्रहणवासनाधिकार में “दिग्देश कालावरणादिभेदान्नच्छादको राहुरिति ब्रुवन्ति" इत्यादि से भास्कराचार्य ने आचार्योंक्त के अनुरूप ही संहिता-वेद-स्मृति-पुराणों के मतों के साथ ज्य तिष सिद्धान्त का समन्वय किया है । संहिता में गणितागत समय से पहले वा पीछे ग्रहण दर्शन होने से उत्पातरूप फल गर्ग ने कहा है जैसे “बेलाहीने शस्त्रभयं गर्भाणां श्रवणं तथा” इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित इलोकों को देखना चाहिये। इसी को लक्ष्य कर । ग्रहणवासना १३९१ वराह मिहिराचार्य ने ‘वेलाहीने पर्वणि गर्भविपत्तिश्च शस्त्रकोपश्च” इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से दृग्गणितैक्य विधान में अपनी पटुता को दिखलाया है इति ॥४४-४५॥ इदानीं राहुबिम्वमाह भूछायाव्यासससः शशिकक्षायां स्थितः शशिग्रहणे । राहुश्छादयतीन्दु सूर्यग्रहणेऽर्कमिन्दुसमः ॥४६॥ सु- भा.-शशिग्रहणे शशिकक्षायां स्थितो भूछायाव्याससमो राहुरिन्दु सूर्यग्रहणे चेन्दुसमोऽॐ सूर्यं च छादयति ॥४६॥ वि. भा.- शशिग्रहणे (चन्द्रग्रहणे) चन्द्रकक्षायां स्थित भूभाव्याससमो राहुश्चन्द्र' छादयति । सूर्यग्रहणे च चन्द्रसमो राहुः सूर्यं छादयतीति ॥४६॥ अब राहुबिम्ब को कहते हैं। हि- भा.- चन्द्रग्रहण में चन्द्रकक्षा में स्थित भूभाव्यस के बराबर राहु चन्द्र बिम्ब को प्रस्त करता है । तथा सूर्यग्रहण में चन्द्र व्यास के बराबर राहु सूर्य को ग्रसित करता है इति ।।४६।। इदानीं ग्रहणे राहुदर्शनं कथं न भवतीत्याह । यत् तदधिकं तमोमयरातृव्यासस्य सूर्यदृष्टत्वात् । नश्यति भूछायेन्द्वोर्ससमोऽस्माद् भवति राहुः ॥४७॥ सु- भा.-तमो मयराहुव्यासस्य यन्मानं तदधिकं ताभ्यां भूभाचन्द्रव्या साभ्यामधिकं तत् सूर्यदृष्टत्वात् तत्तेजसा नश्यति तस्माद्राहुर्भूछायासमश्चन्द्रमसो व्याससमश्चैव भवति । स चान्धकारमध्ये स्थितत्वान्न दृश्यो भवतीति स्फुटम् ॥४७ वि. भा. –तमोमयरातृव्यासस्य यन्मानं तदघिक तयाँ भूभाचन्द्राभ्याम- धिकं तत्र सूर्यदृष्टत्वात्तत्तेजसा नश्यति, अस्मात् कारणाद्राहुभूछायेन्द्वोः (भूभाचन्द्र मसोः) व्याससमश्चैव भवति । स चान्धकारमध्ये स्थितवान्न दृश्यो भव तीति ॥४७॥ अब ग्रहण में राहु दर्शन क्यों नहीं होता है कहते हैं । हि. भा–भा और चन्द्र से सूर्य बिम्ब के अधिक होने के कारण सूर्यं बिम्ब के तेज से अन्धकार मय राहु का अन्धकार नष्ट होता है अतः भूभाबिम्ब व्यास के बराबर तथा चन्द्रबिम्ब के व्यास के बराबर ही तैमोमय राहु व्यास होता है, वह अन्धकार के बीच में रहने के कारण दृश्य नहीं होता है इति ॥४७॥ १३९२ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते इदानीं निर्गलितार्थमाह । भूछायेन्दुमतो हि ग्रहणं छादयति नर्कमिन्दुर्वा । तस्थस्तद्व्याससमो राहुश्छादयति शशिसूय ॥४८।। सु- भाभौ.–अतो ग्रहणे भूछाया चन्द्र वा चन्द्रः सूर्यं न छादयति । किन्तु तद्व्याससमस्तत्स्थो राहुरेव शशिसूयौं छादयतीति सिद्धान्तः ॥४८॥ वि. भा–अतोऽस्मात् कारणात् ग्रहणे भूछाया (भूभा) चन्द्र न छादयति वा चन्द्रः सूर्यो न छादयति किन्तु तदुव्याससमस्तत्स्थो राहुरेव चन्द्रसूयौं छादय तीति ॥४८॥ इति ग्रहण वासना अब निर्गलितायै निचोड़को कहते हैं । हि. भा. -इस कारण से अहण में भूभा चन्द्र को आच्छादित नहीं करती है, वा चन्द्र सूर्य को आच्छादित नहीं करते है किन्तु उनके व्यास के बराबर तत्स्थित राहु ही चन्द्र और सूर्य को आच्छादित करता है इति ।।४४ इति ग्रहण वासना अथ गलबन्धाधिकरः प्रारम्यते । तत्रादौ पूर्वापरयाम्योत्तरक्षितिजवृत्तान्याह। प्राच्यपरं सममण्डलमन्यद्याम्योत्तरं क्षितिजमन्यत् । परिकरवत् तन्मध्ये भूगोलस्तत्स्थितद्रष्टुः ॥४em सु. भा-- पूर्वापरमेव वृत्तं सममण्डलम् । अन्यद् याम्योत्तरवृत्तम् । परिकर- वत् कटिबन्धनवत् तदर्धेऽन्यत् क्षितिजम् । तन्मध्ये तेपां वृत्तानां गर्भयकेन्द्र तत्स्थित द्रष्टुस्तस्य भूगोलस्योपरि स्थितो यो द्रष्टा तस्य भूगोलः कल्प्य इति. ॥४९॥ वि. भा. - प्रथमं पूर्वापरं सममण्डलसंज्ञकं वृत्तं विधायान्यत् (द्वितीयं) याम्योत्तरवृत्तं च विधाय पूर्वापरयाम्योत्तरवृत्तयोः सर्वतोऽप्यर्धभागे लम्बाकारेण संश्लिष्टमन्यत् (तृतीयं) क्षितिजवृत्तंसंज्ञकं विधेयम् । तेषां वृत्तानां गर्भायकेन्द्र तस्य भूगोलस्योपरि स्थितो यो द्रष्टा तस्य भूगोलः कल्प्पः । सिद्धान्तशेखरे ‘‘श्रीपरार्यादिससारदारुघटितैः श्लक्ष्णं : समैर्मडलैगलज्ञ दृढ़सन्धिबन्धरुचिरं गोलं विनिर्मापयेत् । तत्र प्रागपरं विधाय वलयं याम्योत्तरं चापरं तिर्यक् तद्वित यार्धसक्तमभितः कुर्यात्तृतीयं पुनः ।” इति श्रीपत्युक्तवृत्तरचनाक्रम आचार्योक्तानु- रूप एव, एवमेव गलबन्धविधिलँल्लोक्तशिष्यधीवृद्धिदतन्त्रे, भास्करसिद्धान्त शिरोमणौ चास्ति, भास्करेण “सुसरलवंशशलाकाबलयैः श्लक्ष्णैः सचक्रभा गा के:। रचयेद् गोलं गोले शिल्पे चानल्पनैपुणो गणकः ।' इति श्रीपत्युक्तिरेव विशदीकृतेत्यवगम्यत इति ।।४९।। अब गोलबन्धाधिकार प्रारम्भ किया जाता है । उस में पहले पूर्वापरवृत्त, याम्योत्तरवृत्त और क्षितिजवृत्त को कहते हैं । । हि. भा. –प्रथम सममण्डल संज्ञक पूर्वापर वृत्त बनाकर द्वितीय याम्योत्तर वृत .को बनाकर इन दोनों (पूर्वापर वृत्त र याम्योत्तर धृत्त) के चारों तरफ अर्धभाग में लम्बाकार सटा हुआ तृतीय क्षितुिजवृत्त बनाना चाहिये उन वृत्तों के गर्भय केन्द्र में उस भूगोल के ऊपर स्थित द्रष्टा (दर्शक ) के भूगोल की कल्पना करनी चाहिये । सिद्धान्तशेखर में ‘श्रीपण्यदि ससार दारुघटितैः' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित दलक से श्रीपति श्राचार्योक्तं धुत्त रचनानुरूप ही वृत्त रचना क्रम को कहा है । इसी तरह गोलबन्ध विधि लल्लोक्त शिष्यवृद्धिदतन्त्र में और भास्कर सिद्धान्तशिरोमणि में भी है । भास्कराचार्य ‘सुसरलवंशशलाकावलयैः’ इत्यादि से श्रीपत्युक्ति ही को विशवरूप में कहा है इति ।। ४६॥ १३९४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते इदानमुन्मण्डलसंस्थानमाह । पूर्वापरयोर्लग्नं याम्योत्तरयोर्नतोन्नतं क्षितिजात् । स्वाक्षांशैरुन्मण्डलमझनशोहनि वृद्धिकरम् ॥५० सु. भा.-–स्पष्टार्थम् । पूर्वापरक्षितिजसङ्गमयोविलग्नम्'-इत्यादि भास्क- रोक्तमेतदनुरूपस् ॥५०॥ वि. भा.-पूर्वापरवृत्तक्षितिजवृत्तयोः पूर्वदिशि यत्र योगः पश्चिमदिशि च यत्र योगस्तद्विन्दुद्वयगतं क्षितिजात् स्वाक्षांशैर्याम्योत्तरयोर्नतोन्नतमर्थात् दक्षिण समस्थानात् स्वाक्षांशैरधगतमुत्तरसमस्थानाच्च स्वाक्षांशैरुपरिगतमुन्मण्डलं भवति तच्च दिनरात्र्योरपचयोपचयकारकं भवत्यर्थादेतदुन्मण्डलं निरक्षदंशीयं क्षितिजं भवति उन्मण्डलवति देशे दिनरात्री-उपचयापचयवत्यौ भवतः। उन्मण्डल हीने निरक्षदेशे च दिनरात्री सर्वदैव समाने भवत इति । सिद्धान्तशेखरे “संसक्ती समवृत्तभूजवलयप्रापश्चिमासङ्गयोर्याम्योदक् क्षितिजाधरोत्तरगतं स्वाक्षांश- तुल्यान्तरे । स्यादुन्मण्डलमेतदप्यवनिजं देशे निरक्षे स्मृतं जायेते तमस्विनी दिवस योवृद्धिक्षयौ तद्वशात् ” इति श्रीपत्युक्तोन्मण्डलरचनाक्रम आचायक्तानुरूप एव। सिद्धान्तशिरोमणौ ‘पूर्वापरक्षितिजसङ्गमयोविलग्नं याम्ये ध्रुवे पललवैः क्षितिजादधः स्थे “ सौम्ये कुजादुपरिचाक्षलवैश्रुवे तदुन्मण्डलं दिननिशोः क्षयवृद्धि कारि ।ॐ भास्करोक्तमिदमाचार्योक्तानुरूपमेवेति ॥५०॥ अब उन्मण्डल संस्थान को कहते हैं । हि- भा-पूर्वापरवृत्त और क्षितिजवृत्त की पूर्वदिशा में जहां योग (पूवंस्वस्तिकं) है और पश्चिम दिशा में योग (पश्चिम स्वस्तिक) है, एतद्विन्दुह्य गत तथा दक्षिण समस्थान से अपने अक्षांशान्तर पर अधोगत उत्तर समस्थान से अपने अक्षांशान्तर पर ऊपर गया । हुआ वृत्त उन्मण्डल है, यह दिन और रात्रि का हानि (अपचय) और वृद्धि (उपचय) कारक है । यह उन्मण्डल ही निरक्ष देशीय क्षितिज है इसलिये निरक्ष देश में दिन और रात्रि सर्वदा बराबर होती है, निरक्ष देश से भिन्न देश (जहां उन्मण्डल है) में दिन और रात्रि के न्यूनाधिकत्व के कारण उन्मण्डल ही है । सिद्धान्त शेखर में श्नोपति और भास्कराचार्य नै भी आचार्योंक्त के अनुरूप ही कहा है इति ॥५० इदानीं विषुवन्मण्डलसंस्थानमाह । विषुवन्मण्डलमूध्वं समभमण्डलतः स्थितं स्वकाक्षांच। याम्येनोत्तरतोऽधः क्षितिजे प्राच्यपरयोलंग्नम् ।।५१ गोलबन्धाधिकार १३९५ सु. भा-ऊध्र्वं खस्वस्तिकम् । अधोऽधः स्वस्तिक । शेषं स्पष्टम्। ‘पूर्वा परस्वस्तिकयोविलग्नम्'-इत्यादि भास्करोक्त चिन्त्यम् ॥५१॥ वि. भा.-सममण्डलतः (पूर्वापरवृत्तात्) स्वकीयाक्षांशैर्दक्षिणेनोध्र्वभागे (ऊध्र्वखस्वस्तिके) स्वकीलाक्षांशैरुत्तरतोऽघः खस्वस्तिके स्थितं क्षितिजवृत्ते पूर्वस्वस्तिके पश्चिमस्वस्तिके च लग्नं विषुवन्मण्डलं विषुवन्नाम (समरात्रिन्दिव- कालःउपचारात् समरात्रिन्दिवकालो यत्र तिष्ठति रवौ भवति तत्रासक्तमिति । पूर्वापर विन्द्वोरेव विषुवचिन्हे गोलवन्वे प्राचीनैः स्वीकृते इति पूर्वापर चिन्हयोः संसक्तमित्यर्थः) स्यात्-एतस्य नाम नाडीवृत्तमप्यस्ति यतो वृत्तमिदं षष्टया ६० नाड़िकाभिश्चिन्हितमस्तीति । सिद्धान्तशेखरे “नतमथ समवृत्ताद्दक्षिणेनाक्षभागे विषुवदुपपतन्तं मण्डलं नाड़िकाख्यम् । उदगपि पलभागैः स्यादधस्तात्तदेतद् गगन रसमिताभिर्लाञ्छितं नाडिकाभिः । श्रीपर्युक्तमिदमाचार्योक्तानुरूपमेवास्ति- सिद्धान्तशिरोमणौ ‘पूर्वापरस्वस्तिकयोविलग्नं खस्वस्तिकाद् दक्षिणतोऽक्षभागैः। अघश्च तेरुत्तरतोऽङ्कितं च षष्टघाऽत्र नाड़ीचलयं विदध्यात् ।’ भास्करोक्तरचायं श्रीपत्यादर्शरूपो द्रष्टव्य इति ॥५१॥ अब विषुवन्मण्डल की संस्थिति को कहते हैं। हि- भा.-पूर्वापर वृत्त से दक्षिण तरफ अक्षांशान्तर (ऊध्र्वखस्वस्तिक) में, उत्तर तरफ अधः खस्वस्तिक (अक्षांशान्तर) में स्थित, क्षितिज वृत्त में पूर्वस्वस्तिक और पश्चिम स्वस्तिक में लगा हुआ विषुवह्नत है, इसका नाम नाड़ी वृत्त भी है क्यों कि इस वृत्त में साठ नाड़ी (घटी) अङ्कित रहती हैं, विषुववृत्त इसका नाम इसलिये है कि विषुवत् उसको कहते हैं जहां पर रवि के रहने से दिनमान और रात्रिमान बराबर होता है सायनमेषादि और सायन तुलादि में रवि के रहने से यह स्थिति होती है अर्थात् पूर्वंस्वस्तिक और पश्चिम स्वस्तिक में संसक्त रहने से इसका नाम विष्टदठूत्त है इति । सिद्धान्तशेखर में ‘नतमथसमवृत्ता- दक्षिणेनाक्षभागैःइत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक से श्रीपति ने आचायॉक्त के अनुरूप ही कहा है सिद्धान्तशिरोमणि में ‘पूर्वापर स्वस्तिकयोविलग्नं' इत्यादि से भास्करा चार्य श्रीपयुक्त को आदर्श रूप मानते हैं इति ॥५१॥ इदानीं क्रान्तिमण्डलसंस्थानमाह । विषुवन्मण्डललग्नं मेषतुलादावुवक् कुलीरादौ । जिनभागैर्याम्येन मृगादावपममण्डलमिहाः ॥५२॥ पाताश्चन्द्रादीनां भ्रमन्ति भावें रवेश्च भूछाया । पाताबपमण्डलवद् विमण्डल। नि स्वविक्षेपैः ॥५३ १३९६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते सु. भा.स्पष्टार्थम् । ‘क्रान्तिवृत्तं विधेयं'--इत्यादि तथा 'क्रान्तिपाते च पातादूपकान्तरे' इत्यादि भास्करोक्त चिन्त्यं । आचार्यमतेऽयनाभावो ज्ञेयः । पातादपमण्डलवदित्यनेन ग्रहाणां विमण्डलानि न्यस्तानीत्यग्र सम्बन्धः ।।५२-५३॥ वि. भा.-पूर्वापरवृत्त नाडीवृत्त क्षितिजवृत्तोन्मण्डलानां पूर्वदिशि सम्पात बिन्दुः पूवंस्वस्तिकं, पश्चिमदिशि सम्पातविन्दुश्च पश्चिमस्वस्तिकम् । अनयोः पूर्वापरस्वस्तिकयोः मेपादितुलादिबिन्दू अपि तिष्ठत इत्ययनांशाभावकालिकी स्थितिः । तेन मेषादिविन्दौ तुलादिविन्दौ च (पूर्वस्वस्तिके पश्चिम स्वस्तिके च) नाडीवृत्तेन सह सक्तवृत्तं क्रान्तिवृत्तं वध्नीयात्, कृलोरादौ (कर्कटादौ) मिथुनान्त- बिन्द्वात्मके नवत्यंचापे नाडीवृत्ताच्चतुर्विंशत्यंशैरुत्तरतः-मृगादौ (धनुरन्तबिन्द्वात्म के तुलादिविन्दोर्नेत्रत्यंचापे) चतुविनृत्यंशैर्दक्षिणतः । बध्नीयात् अस्मिन् (क्रान्तिवृत्ते) वृत्ते रविभ्रमति, चन्द्रादीनां ग्रहाणां पाताश्च भ्रमन्ति । रवेः षड्भान्तरे भूछाया (भूभा) भ्रमति । पातात् (क्रान्ति विमण्डल सम्पातात्) क्रान्ति वृत्तवत् स्वस्वशरांशान्तरे तेषां ग्रहाणां (चन्द्रादीनां) विमण्डलानि भवन्ति । सिद्धान्तशेखरे "पूर्वापरस्वस्तिकमक्तवृत्तं क्रान्त्याख्यमत्राजतुलाधराद्योः । उदग् जिनांशैः खलु कर्कटादौ नाड्या ह्या दक्षिणतो मृगादौ । भ्रमत्यमुष्मिन् वलये दिनेशः शशकपूर्वेद्युसदां च पाताः। सहस्रगः षड्भवनान्तरे हि छाया महो गोल समुत्थिता च ।’ श्रीपत्युक्तमिदमाचार्योक्तानुरूपमेव । शिष्यधीवृद्धिदे तन्त्रे लल्लोक्त च ‘मेषतुलादौ लग्नं नाडीवृत्तेऽपमण्डलं तदुदक् । जिनभागैः कक्र्यादौ याम्यैस्तैरेव मकरादौ । भ्रमति रविरत्र वलये ग्रहाश्च चन्द्रादयः स्वपातयुताः। भूभाभाउँभानोः स्बशीघ्रवृत्ते शंसितपातौ ।’ इत्यनुपदमेब गृहीतं श्रीपतिना। भास्कराचार्येण च "क्रान्तिवृत्तं विधेयं गृहाङ्क भ्रमत्यत्र भानुश्वभाघीकुभा भानुतः । क्रान्तिपातः प्रतीपं तथा प्रस्फुटाः क्षेपपाताश्च तत्स्थानकान्यकयेत् । क्रान्तिपाते च पाताद् भषकान्तरे नाड़िकावृत्तलग्नं विदध्यादिदम् । पाततः प्रात्रिभे सिद्धभागैरु दक् दक्षिणे तैश्च भागैविभागे ऽपरे ।" इति प्राचीनोक्तरीत्यैव तथैव क्रान्तिवृत्त संस्थानमुक्तम् । रवित एव छायोत्पद्यते । रविकेन्द्राद् भूकेन्द्रगामिसूत्रं यत्र क्रान्ति वृत्ते लगति तदेव भूभामध्यस्थानम् । रविः 'क्रान्तिवृत्ते-क्रान्तिवृत्तस्य केन्द्र च भूकेन्द्रम् । अतो रवेर्मुकेन्द्रगामिसूत्रं क्रान्तिवृत्तस्य व्यासत्वाद्रवितः षड्भान्तरे क्रान्तिवृत्ते लगति तेन ‘भाधं रवेश्च भूछाये' ति युक्तियुक्तमाचार्योक्त मिति ॥५२-५३॥ अब क्रान्तिवृत्त संस्थान को कहते हैं । हि- भा.-पूर्वापरवृत्त नाडीवृत्त क्षितिजवृत्त उन्मण्डल इन वृत्तों के पूर्वतरफ सम्पात बिन्दु पूर्वस्वस्तिक है, और पश्चिम तरफ सम्पात विन्दु पश्चिम स्वस्तिक है । अयनांशभाव कालं में पूर्वस्वस्तिक ही मेषादि बिन्दु तथा पश्चिम स्वस्तिक तुलादि विन्दु रहता है । अतः गोलबन्धाधिकारः १३९७ मेषादि विन्दु (पूर्वस्वस्तिक) और तुलादि बिन्दु (पदिंचम स्वस्तिक) में नाडीवृन के साथ संसक्त क्रान्तिवृत्त को बांधना चाहिये । कक्षीदि (मिथुनान्त वि वन्द्वात्मकनवत्यचाप ) में नाड़ीग्रुत से चौबीस अंश उत्तर, मकरादि (धनुरन्तविन्द्वात्मक नवयशचाप) में चौबीस अंश दक्षिण क्रान्तिवृत्त को बांधना चाहिये, इस क्रान्तिवृन में रवि भ्रमण करते हैं चन्द्र आदि ग्रहों के पात भ्रमण करते हैं । रवि से छः राशि पर भूभा भ्रमण करती हैं । पात (क्रान्तिवृत्त और विमण्डल के सम्पात) से क्रान्तिवृत्त के सदृश अपने अपने शरसंशान्तर पर उन ग्रहों का विमण्डल होता है । रवि से छाया की उत्पत्ति होती है । रविकेन्द्र से भूकेन्द्र गामी सूत्र क्रान्तिवृत्त में जहां लगता है वही भूभा मध्यस्थान (कन्द्र) है । रवि क्रान्तिवृत्त में है, क्रान्तिवृत्त का केन्द्र भूकेन्द्र है इसलिये रवि से भूकेन्द्रगामी सूत्र क्रान्तिवृत्त में छः राशि पर लगता है क्यों कि वह सूत्र (वि से भूकेन्द्रगामी सूत्र) क्रान्तिवृत्त का व्यास है, व्यास रेखा वृत्त के दो समान खण्ड करती है अतः रवि से छः राशि पर भूभाकेन्द्र होता है यह आचायक्त युक्तियुक्त है । सिद्धान्तशेखर में ‘पूर्वापर स्वस्तिक सक्तवृत्तं इत्यादि' विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से श्रीपतिआचार्योंक्त के अनुरूप ही कहा है । शिष्यवृद्धिद तन्त्र में ‘मेषतु लादौ लग्नं नाडीवृत्तेऽपमण्डलं’ इत्यादि लल्लाचार्योक्त विषय को अक्षरश: श्रीपति ने ग्रहण किया है इति ॥५२-५३। इदानीं विमण्डलान्याह । सौम्यं विमण्डलार्थं प्रथमं याम्यं द्वितीयमेतेषु । चन्द्रकुजजीवमन्दा भ्रमन्ति शीघ्रण बुधशुक्रौ ॥५४॥ सु. भा–प्रथम विमण्डलार्ध मेषादिराशिपकं विक्षेपांशैः सौम्यं द्वितीय मधं तुलादिषट्कञ्च याम्यं विक्षेपांशैर्बध्नीयात् । बुधशुक्रौ शीघ्रण शीघ्रोच्चेन स्वस्वविमण्डले भ्रमतः । तयोः शीघ्रोच्चे विमण्डले भ्रमत इति शेषं स्पष्टा थुम् ॥५४॥ विभाक्रान्तिविमण्डलयोः सम्पातः पात इति ततः प्रथमं विमण्डलाधं मेषादिराशिपकरूपं शरांशैः सौम्यं (उत्तरदिशि) द्वितीयमर्धा (तुलादिराशिषट्कं च) शरांशैर्याम्यं (दक्षिणदिशि) वध्नीयात् । एतेषु स्वस्वविमण्डलेषु चन्द्रभौमगुरु शनयो भ्रमन्ति बुधशुक्रौ शीघ्रोच्चेन स्वस्वविमण्डले भ्रमतोऽर्थतयोः शीघ्रोच्चे विमण्डले भ्रमत इति। सिद्धान्तशेखरे “विमण्डलार्ध प्रथमं निजेषुभागैरुदकं चोत्तर पातचिन्हाव । सषड्गृहाद् दक्षिणतो द्वितीयमर्च तथाऽपक्रमवृत्तवच्च । स्वस्वविमण्डलेषु चन्द्रार जीवार्कसुता भ्रमन्ति । निजोच्चवृत्तेन चलाभिधेन किलोश नश्वान्द्रमसायिनी च । ’ इत्यनेन श्रीपतिः, लल्लः "भूभा भाउँभानोः स्वशीघ्रवृत्ते ज्ञसितपातौ। विक्षेपमण्डलदलं पूर्वं क्षेपांशकैरुदक् पातात् । षड्भयुताद्दक्षिणतो १३९८ ब्राह्मस्फटसिद्धान्ते विमण्डलाधं द्वितीयं स्यात् ।’ भास्करश्व-नाड़िकामण्डले क्रान्तिवृत्तं यथा क्रान्ति वृत्ते तथा क्षेपवृत्त न्यसेत् । क्षेपवृत्तं तु राश्यङ्कितं तत्र च क्षेपपातेषु चिन्हानि कृत्वो क्तवत् । क्रान्तिवृत्तस्य विक्षेपवृत्तस्य च क्षेपपाते सषड्भे च कृत्वा युतिम् । क्षेपपा ताग्रतः पृष्ठतश्च त्रिभे क्षेपभागैः स्फुटै: सौम्ययाम्ये न्यसेत् ।’ इत्यनेन सर्वे तथैव कथितवान् । केवलं "क्षेपभागैः स्फुटे’ रित्युत्तथा ग्रहाणां स्फुटशरा अपेक्षितास्ते च शीघ्रकर्णेन भक्तास्त्रिभज्यागुणः स्युः परक्षेपभागाग्रहाणां स्फुटाः । क्षेपवृत्तानि षण्णां विदध्यात्पृथक् स्वस्ववृत्ते भूमन्तीन्दु पूर्वाग्रहाः ।। इत्यनेनानीता भगोलविमण्डल रचनां भास्करेण गृहीताः । प्राचीनैस्त एव पूर्वपठिताः शरा अत्र विमण्डलरचनायामपि गृहीता ॥ इति ॥५४॥ । अब विमण्डलों को कहते हैं । हि. भा.- क्रान्तिवृत्त और विमण्डल के सम्पात पात है, वहां से प्रथम विमण्डलाभं (मेषादि छः राशिरूप) को शरांशान्तर पर उत्तर तरफ तथा द्वितीय विमण्डलार्ध (तुलादि छः राशिरूप) को शरांशान्तर पर दक्षिण तरफ बांधना चाहिये । इन अपने अपने विमण्डलों में चन्द्र, भौम, गुरुशनि भ्रमण करते हैं । बुध और शुक्र शीघ्रोच से अपने अपने विमण्डल में भ्रमण करते हैं । सिद्धान्तशेखर में ‘विमण्डलाषं प्रथमं निजेषु भागैःइत्यादि से श्रीपति, ‘भूभा भाषेभानोः स्वशीघ्रवृत्ते शसित पातौ' इत्यादि से लल्लाचार्य, नाड़िका मण्डले क्रान्ति वृत्तं यथा क्रान्तिवृत्ते' इत्यादि से भास्कराचार्य ने सब एक हो तरह कहा है । केवल भास्करा चार्य ने शीघ्रकर्णेन भक्तास्त्रिभज्यागुणाःइत्यादि से साधित भगोलीय परमस्फुटशरवश से भगोलीय विमण्डल रचना की हैं प्राचीनाचार्यों ने पूर्व पठितशर ही को इस विमण्डल रचना में ग्रहण किया है इति ।५४।। इदानीं दृग्मण्डलाभिनिवेशमाह । दृगमण्डलार्धमूध्वं यत् तत् परिधिस्थितं द्रष्टा। पदयति यतः क्षितिस्थस्तद्भ्रमति ततो ग्रहाभिमुखम् ॥५५॥ सु- भा–यतः क्षितिस्थः क्षितिगर्भस्थो द्रष्टा यद्वै दृग्मण्डलाधं तत्परि घिस्थितं ग्रहं पश्यन्ति ततस्तस्मात् कारणात् तद् दृग्मण्डलं ग्रहाभिमुखं प्रमति । ‘ऊध्र्वाधर स्वस्तिककीलयुग्मे' इत्यादि भास्करोक्तं विचिन्त्यम् ।५५।। वि. भा--यतः (यस्मात् कारणात्) भूगर्भस्थो द्रष्टा ऊध्र्वं दृग्मण्डलाधं यत् तत्प्रघिस्थितं ग्रहं पश्यति तस्मात् कारणात् तद् दृग्मण्डलं ग्रहाभिमुखं भ्रमतीति । सिद्धान्तशेखरे “द्रष्टुग्रंहाभिमुखमभ्रमवृत्तसक्त दृग्मण्डलं प्रतिपलं भ्रमति ग्रहाणाम् गोलबन्धाधिकारः १३९९ श्रीपत्युक्तमेवास्ति । भास्करश्च-"ऊध्र्वाधरस्वस्तिक कीलयुग्मे प्रोतं २लथ दृग्वलयं तदन्तः। कृत्वा परिभ्राम्य च तत्र तत्र नेयं ग्रहो गच्छति यत्र यत्र । ज्ञेयं तदेवाखिल खेचराणां पृथक् पृथग्वा रचयेत्तथाष्टौ ।” यथा दृग्मण्डलबन्धनमुपपादयतं तदेव श्रीपत्युत्तयाऽपि पर्यवस्यतीति स्फुटमेव ।५५। अब दृग्मण्डल को कहते हैं। हि. भा-भूगर्भस्थित द्रष्टा (दर्शक) दृग्मण्डल के ऊध्र्वे परिध्यषं स्थत ग्रह को देखता है इसलिये वह दृग्मण्डल प्रहाभिमुख भ्रमण करता है । सिद्धान्तशेखर में ‘द्रष्टुमी हाभिमुखम भ्रमवृत्तसक्त दृग्मण्डलं प्रतिपलं भ्रमति ग्रहाणास् ।’ श्रीपति इस तरह कहते हैं । भास्कराचार्य ‘ऊध्र्वाधरस्वस्तिक कीलयुग्मे प्रोतं इलथं दृगवलयं तदन्तः ।' इत्यादि से दृग्मण्डल बन्धन को जैसे कहते हैं औपत्युक्ति से भी वही होता है इति ।।५५।। इदनीं दृक्क्षेपवृत्तमाह । क्षितिजापमण्डलयुतिर्लग्नं लग्नाग्रया दिशा लग्नम् । दृक्क्षेपमण्डलं दक्षिणोत्तरं वित्रिभविलग्ने ।५६। सु. भा.–क्षितिजक्रान्तिमण्डलयोर्यत्र युतिस्तदेव लग्नम् । दृक्क्षेपमण्डलं लग्नाग्रया दिशा लग्नं वित्रिभलग्ने वित्रिभलग्नस्थाने क्रान्तिमण्डले दक्षिणोत्तरं तिर्यग् भवति । लग्नाग्रा यद्युत्तरा तदा लग्नाग्रांजो दक्षिणसमस्थानात् पूर्वस्वस्तिक- दिशि दक्षिणाग्रायां च लग्नाग्रांशैर्दक्षिण समस्थानात् पश्चिमस्वस्तिकदिशि क्षितिजे लग्नं वित्रिभखस्वस्तिकगतं दृक्क्षेपमण्डलं भवतीत्यर्थः। ‘ज्ञेयं तदेवाखिल- खे चराणा'-इत्यादि भास्करोक्त विचिन्त्यम् ।।५६। वि. भा. —क्षितिजवृत्तक्रान्तिवृत्तयोर्यत्र योगस्तदेव लग्नम् । लग्नोत्पन्नं नवत्यंशवृत्तं दृक्क्षेपवृत्तं भवति तच्च वित्रिभ लग्नस्थाने क्रान्तिव्रत्ते तिर्यक् (लम्ब रूपं) भवति, लग्नाग्रया दिशा लग्नमर्थाल्लग्नाग्रा यद्युत्तरा तदा दक्षिणसमस्था नाल्लग्नाग्रशैः पूर्वस्वस्तिकदिशि यदि च लग्नाग्रा दक्षिणा तदा दक्षिणसमस्था नाल्लग्नाग्रांशैः पश्चिमस्वस्तिकदिशि क्षितिजे लग्नं वित्रिभलग्नखस्वस्तिकगतं तत् (इक्क्षेपवृत्तं) भवतीत्यर्थः। सिद्धान्तशेखरे 'प्राग्लग्नमत्र भवनत्रितयेन हीनं दृक्क्षेपमण्डलमुशन्ति कुशाग्रधीराःइत्यनेन श्रीपति, सिद्धान्तशिरोमणौ ‘दृग्मण्डलं वित्रिभलग्नकस्य वृक्षेपवृत्ताख्यमिदं वदन्ती’ त्यनेन भास्करोऽप्याचार्यो क्तानुरूपमेव कथयतीति ॥५६॥ अब दृक्क्षेपवृत्त को कहते हैं । हि. भा.-क्षितिजवृत्त और क्रान्तिवृत्त की पूर्व दिशा में जहां योग है वही लग्न है । १४०० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते लोत्पन्न नवत्यंश वृत दृश्क्षेपवृत्त होता है । वह (दृक्क्षेपवृन) वित्रिभ लग्मस्थान में क्रान्तिवृत्त के ऊपर तिर्यक् (लम्ब रूप) होता है, तथा लग्नाग्रा यदि उत्तर दिशा की है तब दक्षिण समस्थान से लग्नागांशान्तर पर पूर्वस्वस्तिक की तरफ यदि लग्नाग्रा दक्षिण दिशा की है तव दक्षिण समस्थान में लग्नागांशान्तर पर पश्चिम स्वस्तिक की तरफ क्षितिजभृत्त में लगता है । अर्थात् वह दृक्क्षेपवृतं त्रित्रिभलग्न और खस्वस्तिक में गया हुआ होता है । सिद्धान्नशेखर में ‘‘प्राग्लग्नमत्र भवनत्रितयेन हीनं' इत्यादि से श्रीपति तथा सिद्धान्तशिरोमणि में ‘ढमण्डलं वित्रिभ लग्नकम्य' इत्यादि से भास्कराचार्य ने भी आचार्योंक्त के अनुरूप ही कहा इति ।।५६। इदानीं मेषादि द्वादशराशोनामहोरात्रवृत्तान्यमाह । दिषुवदुदरं बभीयात् क्रन्यंश समान्तरेष्वजtदीनाम् । वृत्तत्रितयं व्यस्तं कर्यादीनां तुलादीनाम् ॥५७॥ विषुवद्दक्षिणतोऽन्यन्मकरावीनां तदेव विपरीतम् । स्वाहाभाष्येषां व्यासाः पृथगेवमिष्टमपि ॥५८॥ सु. भा.-स्वाहोरात्राणि युज्या एषामहोरात्रवृत्तानां व्यासा च याः। एवमिष्टमहोरात्रवृत्तमपि पृथगोलोपरि निवेश्यम् । शेष स्पष्टम् । ईप्सितान्ति- तुल्येऽन्तरे' इत्यादि तथा ‘अथ कल्प्या मेषाद्याःइत्यादि च भास्करोक्त विचि न्त्यम् ॥५७-५८।। वि. भा. -अजादीनां (मेघादीनां त्रयाणां राशीनां (मेषवृषमिथुनानां) क्रान्त्यंशतुल्यान्तरेषु नाडीवृत्तादुत्तरदिशि वृत्तत्रितयं स्वाहोरात्रवृत्ताढ्यं बध्नी यादर्थान्मेषान्तकान्त्यंशैर्नाडीवृत्तादुत्तरे यदृत्तं तन्मेषान्ताहोरात्रवृत्तम् । वृषान्त क्रान्त्यंशान्तरे नाडीवृसादुत्तरे यदृत्त तद्वषान्ताहोरात्रवृत्तम् । मिथुनान्त क्रान्त्यंशान्तरे नाडीवृत्तादुत्तरे मिथुनान्ताहोरात्रवृत्तमिति । इति वृत्त त्रितयं (मेष वृषमिथुनानामहोरात्रवृत्तत्रितयं) व्यस्तं विपरीतक्रमेण कर्यादीनामहोरात्र वृत्तानि भवंत्यषीढ्षन्ताहोरात्रवृत्तमेव कर्कान्ताहोरात्रवृत्तम् । मेषान्ताहोरात्रवृत्त मेव सिंहान्ताहोरात्रवृत्तम् । कन्यान्ताहोरात्रवृत्तं तु मीनान्ताहोरात्रवृत्तरूपं नाड़ी- वृत्तमेवास्ति । तुलादीनां षण्णां राशीनां नाडीवृत्ताद्दक्षिणदिशि-अहोरात्र वृत्तं भवति । यथा तुलान्तक्रान्त्यशान्तरे नाड़ोवृत्ताद्दक्षिणदिशि यवृत्तं तत्तुलान्ताहोरात्र वृत्तम् । नाडीवृत्ताद्दक्षिणदिशि वृश्चिकान्तक्रान्त्यंशान्तरे वृदिचकान्ताहोरात्रवृ तम् । नाडीवृत्ताद्दक्षिणदिशि धनुरन्तक्रान्त्यंशान्तरे धनुरान्ताहोरात्रवृत्तम् । तदेव विपरीतं मकरादीनामहोरात्रवृत्तानि भवन्त्यर्थादृश्चिकान्ताहोरात्रवृत्तमेव करान्ताहोरात्रवृत्तम् । तुलान्ताहोरात्रवृत्तमे व कुम्भान्ताहोरात्रवृत्तम् । कन्यान्तागोलबन्धाधिकारः १४०१ होरात्रवृत्तमेव नाडीवृत्तरूपं मीनान्ताहोरात्रवृत्तम् । एषामहोरात्रवृत्तानां व्यासाः पृथक् पृथक् द्युज्या भवंति । एवमिष्टमप्यहोरात्रवृत्तगोलोपरि पृथक् निवे इयम् । सिद्धान्तशेखरे “मेषाद् वृत्तत्रितयमपमांशंभु हाणां त्रयाणां नाडीवृत्ता दिदमुदगपि व्यत्ययात् कर्कटाच्च । षण्णां चूकात् कथितमनुदक् चैवमिष्टापमांशैः स्वाहोरात्राद्वयमभिहितं मण्डलं गोलविद्भिः।'श्रीपतिः । लल्लक्ष-वृत्तत्रयमपमां शैनीवृत्ता भवत्यजादीनाम् । ब्यस्तं कर्यादीनामेवं पण् तुलादीनाम् । इष्क्रान्तेरन तद् द्यज्यामण्डलं च बध्नीयात् । मध्येऽस्य ग्रहगोला भवन्ति वृत्तैर्भगो लस्य ।’ आचार्यस्याऽऽदर्शभूताविति । भास्कराचार्योऽपि ‘ईप्सितक्रान्तितुल्येऽन्तरे सर्वतो नाड़िकाख्यादहोरात्रवृत्ताढ्यम् । तत्र बध्वा घटीनां च षष्टधाऽङ्कयेदस्य विष्कम्भखण्डं युवा मता।” एषां प्राचीनानां सदृशमेवाहोरात्रवृत्तं कथयति । केवलमयनांशलब्धिकारणात् 'विषुवत्क्रान्तिवलयोः सम्पातः क्रान्तिपातः स्यादि' ति प्रथमं कथयित्वा “प्रथ कल्प्या मेषाद्या अनुलोमं क्रान्तिपाताङ्कात् । इत्याह ।५७५८॥ अब मेषादिद्वादश वाहरानियों के अहोरात्रवृत्त को कहते हैं। हि- भा-मेषादि तीन राशि (मष-वृषमिथुन) यों के क्रान्त्यंशतुल्य अन्तर पर नाडीवृत्त से उत्तर तरफ अहोरात्र वृत्त संज्ञक तीन वृत्तों को बांधना चाहिये-अर्थान् नाडीवृत्त से उत्तर तरफ मेघान्त क्रान्त्यंशान्तर पर जो वृत्त होता है वह मेषान्ताहोरात्रवृत्त है, वृषान्त क्रान्त्यंशान्तर पर नाडीवृत्त से उत्तर जो वृत्त होता है वह वृषान्ताहोरात्रवृत्त है । एवं नाडीवृत्त से उत्तर मिथुनान्त क्रान्त्यंशान्तर पर मिथुनान्ताहोरात्र वृत होता है । यह मेष- वृत्तमिथुन के अहोरात्र वृत्त विपरीत क्रम से कक्षीदि तीन राशियों का अहोरात्रवृत्त होता है अर्थात् वृषान्ताहोरात्र वृत्त ही कर्कान्ताहोरात्र वृत्त होता है, मेषान्ताहोरात्रवृत्त ही सहान्ताहोरात्रवृत्त होता है । कन्यान्ताहोरात्रवृत्त मीनान्ताहोरात्रवृत्तरूप नार्घवृत्त ही हैं । तुलादि छः राशियों के नाडीवृत्त से दक्षिण तरफ अहोरात्रवृत्त होता है। जैसे नाडीवृत्त' से दक्षिण तुलान्त कान्यंशान्तर पर तुलान्ताहोरात्रवृत्त होता है । नाडीवृत्त से दक्षिण दृश्चि कान्त क्रान्त्यंशान्तर पर वृश्चिकान्ताहोरात्रवृत्त होता है । एवं नाडीवृत्त से दक्षिण धनुरन्त क्रान्त्यंशान्तर पर धनुरन्ताहोरात्र वृत्त होता है। ये ही विपरीत क्रम से मकरादि राशियों का अहोरात्र वृत्त होते हैं अर्थात् वृश्चिकान्ताहोरात्रवृत्त ही मकरान्ताहोरात्रवृत्त होता हैं । तुलान्ताहोरात्रवृत्त ही कुम्भान्ताहोरात्रवृत्त होता है । कन्यान्ताहोरात्रवृत्त ही नाडीवृत्तरूप मीनान्ताहोरात्रवृत्त होता है । इन अहोरात्रवृत्तों की व्यास द्युज्या होती है। एवं इष्ट अहोरा प्रवृत्त को भी पृथक् गोल के ऊपर निवेश करना चाहिये । सिद्धान्तशेखर में ‘मषाद्वृत्त त्रितयमपमांशैर्हाणां त्रयाणां’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्रीपयुक्त के तथा ‘वृत्तत्र यमपमांशेनार्घवृत्ताव’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित लन्लोक्त का आदर्शरूप आचायक्त ही है । भास्कराचार्य भी ‘ईप्सितक्रान्तितुल्येऽन्तरे सर्वतो नाडिकारव्यादहोरात्रवृत्ताढ्यम्’ १४०२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते इत्यादि से प्राचीनोक्त अहोरात्रवृत्तों के सदृश ही अहोरात्रवृत्त कहते हैं । केवल अयनांश की उपलब्धि के हेतु से ‘विषुवत्क्रान्तिवलयोः सम्पातः क्रान्तिपातः स्या' पहले यह कह कर ‘अथ कल्प्या मेषाद्या अनुलोमं क्रान्तिपाताङ्कात् ।' यह कहते हैं इति ।।५७५८। इदानीं रा२युदयाः कथं समानेत्याशङ्कयाह । लङ्ग समपश्चिमगं प्राणेन कलां भमण्डलं भ्रमति । अपमण्डलस्य राशिद्वादशभागः क्षितिजलग्नाः ॥५॥ यान्त्युदयं मेषाद्या यतस्तदुदया न कालसमाः । क्रान्तिवशालङ्कायां तदूनताधिधमक्षवशात् ॥६०॥ सु. भा–लङ्कासमपश्चिमगं भमण्डलं भचक्रमध्यप्रदेशरूपं नाडीमंडलं प्राणेनैकेनासुना कलामेकं कलां भ्रमति । नाडीमण्डलस्यैका कलैकेनासुनोदेति । क्रान्तिमण्डलस्य द्वादशभागो द्वादशसमानभागो राशिरुच्यते । ते मेषाद्याः क्षिति जलग्ना यत उदयं यान्त्यतो लङ्कायां क्रान्तिवशात् तिरश्चीनत्वात् तदुदयाः कालसमाः कालेन समा न सन्ति । एवं स्वदेशेऽपि क्रान्तिवशादक्षवशाच्च तेषां राशीनामुदयेषु ऊनताधिक्षी भवति । ‘यो हि प्रदेशो ऽपमण्डलस्य तिर्यस्थितो यात्युदयं तथाऽस्तम्-इत्यादि भास्करोक्त चिन्त्यस् ६०॥ वि. भा. –लङ्कापश्चिमपश्चिमगं भमण्डलं भचक्रमध्यप्रवेशरूपं नाडीवृत्तं प्राणेन (एकेनासुना) कलां (एकां कलां) भूमत्यर्थान्नाडीवृत्तस्यैका कलेकेनासुनो देति । क्रान्तिवृत्तस्य द्वादशतुल्यभागो राशिः कथ्यते, ते मेषाद्या यतः क्षितिजलग्ना उदयं यान्त्यतो लङ्कायां क्रान्तिवशात् तदुदयाः कालेन समान सन्ति । एवं स्वदेशेऽपि क्रान्तिवशादक्षवशाच्च तेषां राशीनामुदयेषु न्यूनाधिक्यो भवतीति । क्रान्तिवृत्तस्य त्रिंशदंशात्मक एको राशिः । राश्याद्युपरि राश्यन्तोपरि च ध्रुवप्रोतवृत्तकरणेन तयोरन्तर्गतं नाडीवृत्तीयचापं तद्राशेनिरक्षोदयमानम् । यथा मेषाद्युपरिध्रुवप्रोतवृत्तं नाडीवृत्ते मेषादिविन्दा (नाडीवृत्त क्रान्तिवृत्तयोः सम्पात बिन्दौ) वेव लगति तस्मान् मेषान्तोपरि ध्रुवप्रोतवृत्तनाडीवृत्तयोः सम्पातं यावन्मेषो दयमानं निरक्षदेशीयम् । एवं मेषान्तो (वृषादि) परि ध्रुवप्रोतवृत्तवृषान्तोपरि ध्रुवप्रोतवृत्तयोरन्तर्गतं नाडीवृतीयचापं निरक्षदेशीयं वृषोदयमानम् । वृषान्तो (मिथुनादि) परिध्रुवप्रोतवृत्तमिथुनान्तोपरि ध्रुवप्रोत (आयनप्रोतवृत्त) वृत्तयो न्तर्गतं नाडीवृत्तीयचापं निरक्षदेशीयं मिथुनोदयमानमेतेषु न्यूनाधिक्षे कथं भवतीति प्रदश्येते । गोलबन्धाधिकारः १४०३ ३ = गो= गोलसन्धिः = मेपादिः । मे= मैपान्तविदुः। | v ). वृ=वृषान्तविन्दुः । मि= मिथुनान्त विन्दुः । गोमे=मेट्ट ८ श =३०, गोन= मेषोदयमानम्.। नम= वृषोदयमानम् ।
- * मश=मिथुनोदयमनम् । धृ= भुवः । भृमि =परमाल्प-
द्यज्याचापम् = <ध्रगोमि भुमे =मेषान्त वृज्याचापम्
- पुंवृ=वृषान्त द्युज्याचापम् । < मेवq=वपान्तजय
ष्टध शा=९०-वृषान्तजायनवलनम् । गोलसन्धावायनवलनं परमं जिनांशसमम् । अयनसन्धावर्थान्मिथुनान्ते आयनवलनम् =०, अत एतयोर्मध्ये वृषान्ते आयनवल नम् २४ परमापयुज्याचापस्=६०-जिनांश =६० -२४-६६, वृषान्ते यष्टय शा=९०-–वृषान्तजायनवलनं =९०--जिनांशाल्पाऽऽयनव- लनम् । अतो वृषान्ते यष्टयशाः>परमाल्पवृज्याचापम्, भृगोमे चापीय त्रिभुजेऽनु । ४ज्या =-ज्यागोन परमाल्पवृज्या ३० मेषोदयज्या पातः क्रियते < ज्या गोधूमे= "मषतघृज्या वृषान्तजयष्टिxज्या =ज्या भुमेवृ चापीय त्रिभुजेऽनुपातेन ३० ज्या मेधुवृ= मेषान्तद्युज्या वृषान्तयष्टिxज्या ३० नम==वृषोदयज्या, परन्तु वृषान्तय>परमाल्पथु । अतः मेषान्तद्युज्या ॐ परमाल्पवृज्या ४ज्या ३° अर्थात् वृषोदयज्याॐ मेषोदयज्या वा मेषोदयमान मेषान्तद्युज्या ज्या ३० <वृषोदयमानं, एवमेव मिष्टभ्रूचापीय त्रिभुजेऽनुपातेन वृषान्तयाष्टx =ज्या मिश्रुवुः =ज्यामश = मिथुनोदयज्या, परन्तु वृषान्तयष्टि>परमापद्यु वषान्तयष्टिज्या ३० तथा मेषान्तद्यु>परमाल्पर्थी अतः परमापद्यु ॐ अर्थात् मिथुनोदयज्या वृषोदयज्या वृषान्तयष्टि ४ ज्या ३० मिथुनोदयज्या वृषोदयज्या< मेषोदयज्या वा मिथुनोदयमावृषोद यमानमेषोदयमान :सिद्धम् । एतदुपपत्तिर्वस्तुतो यथैव शिष्यधीवृद्धिदतन्त्रे लल्लाचार्येणोक्ता तथैव श्लोकान्तरेण श्रीपतिना भास्कराचार्येण चोक्ता स्वस्वग्रन्थे । परमापद्यज्या शन्तश्च यथा लल्लः लङ्कावृत्ते मध्यस्थितं भुवो यत्कुजं तदुवृत्तम् । तेन न तत्र चरदलं सदा समत्व च दिवसनिशोः ।। १४०२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते इत्यादि से प्राचीनोक्त अहोरात्रवृत्तों के सदृश ही अहोरात्रवृत्त कहते हैं । केवल अयनांश की उपलब्धि के हेतु से ‘विषुवत्क्रान्तिवलयोः सम्पातः क्रान्तिपातः स्यात्' पहले यह कह कर ‘अथ कल्प्या मेषाद्या अनुलोमं क्रान्तिपाताङ्कात् ।' यह कहते हैं इति ॥५७५८॥ इदानीं राश्युदयाः कथं समानेत्याशङ्कयाह । लङ्का समपश्चिमगं प्राणेन कलां भमण्डलं भ्रमति । अपमण्डलस्य राशिद्वशभागः क्षितिजलग्नाः ॥५॥ यान्त्युदय मेषाद्या यतस्तदुदया न कालसमाः । क्रान्तिवशालङ्कायां तनताधिक्यमक्षवशात् ।।६०॥ सु.भा–लङ्कासमपश्चिमगं भमण्डलं भचक्रमध्यप्रदेशरूपं नाडीमंडलं प्राणेनैकेनासुना कलामेकं कलां भ्रमति । नाडीमण्डलस्यैका कलैकेनासुनोदेति । कान्तिमण्डलस्य द्वादशभागो द्वादशसमानभागो राशिरुच्यते । ते मेषाद्याः क्षिति- जलग्ना यत उदयं यान्त्यतो लङ्कायां क्रान्तिवशात् तिरश्चीनत्वात् तदुदग्राः कालसमाः कालेन समा न सन्ति । एवं स्वदेशेऽपि क्रान्तिवशादक्षवशाच्च तेषां राशीनामुदये ऊनताधिक्यं भवति । ‘यो हि प्रदेशो ऽपमण्डलस्य तिर्यस्थितो यात्युदयं तथाऽस्तम्'-इत्यादि भास्करोक्तं चिन्त्यम् ।।६०।। वि. भा. –लङ्कापश्चिमपश्चिमगं भमण्डलं भचक्रमध्यप्रवेशरूपं नाडीवृत्तं प्राणेन (एकेनासुना) कलां (एकां कलां) भूमत्यर्थान्नाडीवृत्तस्यैका कलेकेनासुनो देति । क्रान्तिवृत्तस्य द्वादशतुल्यभागो राशिः कथ्यते, ते मेषाद्या यतः क्षितिजलग्ना उदयं यान्त्यतो लङ्कायां क्रान्तिवशात् तदुदयाः कालेन समा न सन्ति । एवं स्वदेशेऽपि क्रान्तिवशादक्षवशाच्च तेषां राशींनामुदयेषु न्यूनाधिक्थो भवतीति । क्रान्तिवृत्तस्य त्रिशदंशात्मक एको राशिः । राश्याद्युपरि राश्यन्तोपरि च ध्रुवप्रोतवृत्तकरणेन तयोरन्तर्गतं नाडीवृत्तीयचापं तद्राशेनिरक्षोदयमानम् । यथा मेषाद्युपरिध्रुवप्रोतवृत्तं नाडीवृत्ते मेषादिविन्दा (नाडीवृत्त क्रान्तिवृत्तयोः सम्पात बिन्द) वेव लगति तस्माद्यु मेषान्तोपरि ध्रुवप्रोतवृत्तनाडीवृत्तयोः सम्पातं यावन्मेषो दयमानं निरक्षदेशीयम् । एवं मेषान्तो (वृषादि) परि ध्रुवप्रोतवृत्तवृषान्तोपरि ध्रुवप्रोतवृत्तयोरन्तर्गतं नाडीवृतीयचापं निरक्षदेशीयं वृषोदयमानम् । वृषन्तो (मिथुनादि) परिध्रुवप्रोतवृत्तमिथुनान्तोपरि ध्रुवप्रोत (आयनप्रोतवृत्त) वृत्तयोर न्तर्गतं नाडीवृत्तीयचापं निरक्षदेशीयं मिथुनोदयमानमेतेषु न्यूनाधिक्यं कथं भवतीति प्रदश्येते । गोलबन्धाधिकारः १४०३ e गो= गोलसन्धिः = मेषादिः । मे= मेषान्तबिन्दुः। वृ=वृषान्तबिन्दुः । मि= मिथुनान्त बिन्दुः। गोमे=मेट्ट | =३०', गोन=मेषोदयमानम्। नम=वृषोदयमानम् ।
- मश=मिथुनोदयम।नम्। शृ= भुवः । भुमि =परमाल्प
- द्यज्याचापम् =<ध्रगोमि श्रमे=मेषान्त द्यज्याचापम ।
- पुंवृ=वृषान्त युज्याचापम् । < मेवृधुवृषान्तजय-
ष्टय शाः=९०-वृषन्तजायनवलनम् । गोलसन्धावायनवलनं परमं जिनांशसमम् । अयनसन्धावर्थान्मिथुनान्ते आयनवलनम् =०, अत एतयोर्मध्ये वृषान्ते आयनवल नम् <२४ परमापयुज्याचापम्=k०-जिनांश =६०-२४-६६, वृषान्ते यष्टय शा=९०–वृषान्तजायनवलनं=९०जिनांशाल्पाऽऽयनव- लनम् । अतो वृषान्ते यष्टयशाः>परमापयुज्याचापम्, भृगोमे चापीय त्रिभुजेऽनु- पातः क्रियते ज्याद्गोध्रमे= परमापयुज्या ४ज्या ३० =मेषोदयज्या-ज्यागोन मेषान्तद्यज्या भुमेवृ चापीय त्रिभुजेऽनुपातेन ३० वृषान्जयष्टिKज्या =या =ज्या मेध्रुवृ वृषान्तयष्टिxज्या ३० नम=वृषोदयज्या, परन्तु वृषान्तय>परमाल्पथु । अतः मेषान्तद्यज्या > परमाल्पवृज्या ४ज्या ३° अर्थात् वृषोदयज्याॐ मेषोदयज्या वा मेषोदयमान मेषान्तद्यज्या <वृषोदयमानं, एवमेव मिष्टघ्रचापीय त्रिभुजेऽनुपातेन वृषान्तयष्टिx ज्या ३० =ज्यामिधुवृ=ज्यामश = मिथुनोदयया, परन्तु वृषान्तयष्टि>परमापद्य तथा मेषान्तद्यु>परमाल्पद्य अतः वृषान्तयष्टिज्या ३० ॐ वृषान्तयष्टि ४ ज्या ३० अर्थात् मिथुनोदयज्या >वृषोदयज्या
- मिथुनोदयज्या वृषोदयज्या मेषोदयज्या वा मिथुनोदयमावृषोद
यमान मेषोदयमान :सिद्धम् ।
एतदुपपत्तिर्वस्तुतो यथैव शिष्यधीवृद्धिदतन्त्रे लल्लाचार्येणोक्ता तथैव श्लोकान्तरेण श्रीपतिना भास्कराचार्येण चोक्ता स्वस्वग्रन्थे। यथा लल्लः - लझावृत्ते मध्यस्थिते भुवो यत्कुजं तदुवृत्तम् तेन न तत्र चरदलं सदा समत्व च दिवसनिशोः ॥ १४०४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते तत्राक्षाभावेऽपि स्वस्वक्रान्त्या स्थितौ तिरश्चीनौ । ज्यायस्या मेषवृष यतोऽल्पकालोदयौ तेन । मिथुनान्तोऽल्पक्रान्त्या पदान्तगत्वादृजुः स्थितो यस्मात् । तस्माच्चिरोदयोऽसावक्षवशाच्चान्यविषयेषु । प्रागायतं कुलीरन्मकारादुदगायतं यतः षट्कम् । अक्ष भूमवशगत्वादधिकन्यूनोदयं तस्मात् । इति सिद्धान्तशेखरे श्रीपतिः यो द्वादशांशोऽपममण्डलस्य राशिः स ते द्वादश मेषपूर्वाः । तिर्यक्तया क्रान्तिवशान्निरक्षेऽप्युशन्ति कालेन समेन नैव । निरक्षतायामपि हन्त यस्मात् तिर्यक् स्थितौ मेषवृषौ महत्या । कान्त्या भवेतामत एव चाल्पफलोदयौ तौ पुरि रावणस्य । मिथुनोऽल्पतयाऽपमस्य तेषामृजुरास्ते नियतं पदान्तगत्वात् । अतएव चिरोदयोऽन्यदेशेष्वपि वा ऽक्षस्य वशेन तद्वदेव ।। याम्यायतं कर्कटकाद् भषट्कं यतो मृगादेरुदगायतं हि । भवेत्ततस्तच्चिरतुच्छकालसमुद्गमि स्वाक्षवशमेण ।। इति सिद्धान्तशिरोमणेगलाध्याये भास्कराचार्यश्च । "यो हि प्रदेशोऽपममण्डलस्य तिर्यक् स्थितो यात्युदयं तथाऽस्तम् । सोऽल्पेन कालेन य ऊध्र्वसंस्थोऽनल्पेन सोऽस्मादुदया न तुल्याः । य उद्गमे याम्यनता मृगाद्याः स्वस्वापमेनापि निरक्षदेशे । याम्याक्षतस्तेऽति नतत्वमाप्ता उद्यन्ति कालेन ततोऽल्पकेन । कक्र्यादयः सौम्यनता हि येऽत्र ते यान्ति याम्याक्षवशादृजुत्वम् । कालेन तस्माद्वह्नोदयन्ते तदन्तरे स्वं चरखण्डमेव ।" इति ५९-६० अब राशियों का उदयमान बराबर क्यों नहीं होता है सो कहते हैं । हि. भा-भचक्रमध्यप्रदेशरूप नार्घवृत्त एक असु में एक कला भ्रमण करता है अर्थात् नाडीवृत्त की एक कला एक असु में उदित होती है । क्रान्तिवृत्त का समान द्वादश भाग राशि कहलाता है । वे मेषादिराशि क्षितिज संलग्न होने से उदित होता है इसलिये फ्रान्तिवश से लङ्का में वह उदय काल बराबर नहीं होता है एवं अपने देश में भी क्रान्तिवश से और अक्षांचा वश से उन राशियों के उदय में न्यूनाधिक्य होता है इति ॥५६-६०॥ उपपत्ति । राश्यादि के ऊपर श्रवप्रोतपृत्त तथा राश्यन्त के ऊपर ध्रुवप्रोतवृत्त नाडीवृत्त में जर्सी गोलबन्धाधिकारः १४०५ लगता है तदन्तर्गत नाडीवृत्तीय चाप उस राशि का निरक्षदेशीय उदयमान होता है। जैसे मेषादिगत ध्रुवप्रोत्तवृत्त में नाडीवृत्त मेषादि (गोलसन्धि) ही में लगता है वहां (मषादि) से मेषान्तोपरिगत धृव प्रोतवृत्त नाडीवृत्त के सम्पात पर्यंन्त निरक्षदेशीय मेषोदयमान है । एवं मेषान्तो (वृषादि) परिगत धृव प्रोतवृत्त तथा वृषान्तोपरिंगत ध्रुव श्रोतवृत्त के अन्तर्गंत नाड़ी मृत्तीय चाप निरक्ष देशीय वृषोदयमान है एवं वृषान्तो (मिथुनादि) परिगत ध्रुवप्रोतवृत्त तथा मिथुनान्तोपरिगत ध्रुवम्रोतवृत्त के अन्तर्गत नाडीवृत्तीय चाप निरक्ष देशीय मिथुनोदय मान हैं, इन उदयमानों में न्यूनाधिक्य क्यों होता है तदर्थं निम्नलिखित युक्ति है यहां संस्कृतोपपति में लिखित (१) क्षेत्र को देखिये । गो=गोलसन्धि=मेषादि, मे– मेषान्त बिन्दु । वृ=व्यान्तबिन्दु । मि=मिथुनान्त विन्दु । गोमे=भवृ= वृमि-३०° गोन= मेषोदयमान । नम=वृषोदयमान । मश= मिथु नोदयमान । ध्रः = ध्रुव। श्रुमि =परमाद्यज्य युज्याचाप घूमे =मेषन्तद्युज्याचप । भृz= वृपा न्त द्युज्याचाप । भृगोमि=परमापयुज्यांश, < मेवृधु-वृषान्तजयष्टच श=६०--वृषान्त जायनवल । गोल सन्धि में आयनवलन परमं जिनांश (२४) के बराबर होता है अयन सन्धि (मिथुनान्त) में आयनवलनाभाव होता है अतः इन दोनों के बीच (वृषान्त) में आयनवलन <२४, परमापयुज्याचाप=&०-जिनांश=६०-२४=६६, वृषान्त में यष्टघ ' श=६० –-वृषान्तायनवलन=६०-जिनांशाल्पायनवलन । अत: वृषान्त में यष्टयोशपरमाल्प- ज्याचाप । भृगोमे चापीय त्रिभुज में अनुपात करते है परमाल्पवु ४ ज्या ३० < गोधूमे = मेषोदयज्या = ज्यागोन । भुमेवृ चापीय त्रिभुज में अनुपात से वृषान्तयष्टिज्या ३० =ज्या मेधुवृ=ज्यानम=वृषोदयज्या परन्तु वृषान्तयष्टि> वृषान्तयx ज्या ३० परमाल्पञ्च x ज्या ३० अर्थात् वृषोदयज्या > मेषान्तद्य मेषोदयज्या वा मेषोदयमान < वृषोदयमान । इसी तरह मिबृथु च।पीय त्रिभुज में अनुपात से वृषान्तयष्टि ४ ज्या ३० परमापद्य-भुवृ= ज्यामि = मिथुनोदयज्या । परन्तु वृषान्तयष्टि ज्यामश परमापद्म, तथा मेषान्तषु परमापद्यु अतः वृषान्तयxघ्या ३० वृषान्तय ज्या ३० अर्थात् मिथुनोदयज्या वृषो परमापद्यु मेषान्तर्° दयज्या, अतः मिथुनोदयज्या वृषोदयज्या > मेषोदयज्या, वा मिथुनोदयमानवृषोदयमान >मेषोदयमा। अत: आचार्योंक्त उपपन्न हुआ। यह उपपत्ति यथातः शिष्यवीवृद्धिदतन्त्र में जिस तरह लल्लाचार्य ने कहा है उसी तरह श्लोकान्तर से श्रीपति और भास्कराचार्य ने अपने ग्रन्थ में कहा है । १४०६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते जैसे लल्लाचार्योक्त शिष्यवृद्धिदतन्त्र में ‘लङ्कावृत्तं मध्यस्थिते भुवो यकुजं तदृवृत्तम्' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में श्लोकों को देखना चाहिये। सिद्धान्तशेखर में श्रीपति ‘यो द्वादशांशोऽपममण्डलस्य राशिः स ते द्वादश मेष पूर्वाः' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोकों को देखना चाहिये । सिद्धान्तशिरोमणि गोलाध्याय में भास्कराचार्य ‘यो हि प्रदेशोऽपममण्डलस्य तिर्यक् स्थितो यात्युदयं’ इत्यादि संस्कृतोपपति में देखना चाहिये ॥५६-६०।। इदानीं चराग्रयोः संस्थानमाह । क्षितिजोम्मण्डलयोर्यत्स्वाहोरात्रान्तरं वरवलं तत् । क्षितिजेऽण् प्राच्यपरस्वाहोरात्रान्तरांशज्या ॥६१॥ सु. भा.-स्पष्टार्थस् । ‘उन्मण्डलक्ष्मावलयान्तराले'- इत्यादि तथा ‘माजे धूरात्रसमण्डलमध्यभाग- इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूपं विचिन्त्यम् ॥६१॥ वि. भा.-स्वक्षितिजवृत्तोन्मण्डलयोरन्तरेऽहोरात्रवृत्तीयं चापं चरखण्डकालः कथ्यते । क्षितिजाहोरात्रवृत्तयोः सम्पातात्सूर्चस्वस्तिकं यावत् क्षितिजवृत्ते ऽग्नांशाः । एतज्ज्याङग्रा कथ्यत इति । सिद्धान्तशिरोमणेर्गालाध्याये ‘उन्मण्डलक्ष्मावलयान्त राले ड्रात्रवृत्त चरखण्डकाल' इत्यनेन भास्कराचार्येणाप्याचार्योक्तानुरूपमेव कथितम् । तथे' माजे द्यरात्र सममण्डलमध्यभागजीवाऽग्रका भवति पूर्वपराशयोः सा' त्यनेनाचार्योक्तानुरूपमेवाग्रा स्वरूपं कथितमिति ।।६१॥ अब चर और अग्रा की स्थिति को कहते हैं । हि. भा--स्वक्षितिजवृत्त और उन्मण्डल के अन्तर्गत अहोरात्र वृत्तीय चाप चरखण्ड काल कहलाता है । क्षितिजाहोरात्र वृत्त के सम्पात से पूर्वेस्वस्तिकपर्यन्त क्षितिज वृत्तीय चाप अग्रश है इसकी ज्या अग्रा कहलाती है। सिद्धान्तशिरोमणि गोलाध्याय में उन्मण्डल क्षमवलयान्तराले’ इत्यादि से मास्कराचार्य आचार्योक्त चर खण्डकाल के सदृश ही चरखण्ड काल कहा है । तथा 'क्षमाजे शरात्र सममण्डल मध्यभांग’ इत्यादि से आचार्योक्त अग्ना के अनुरूप ही अन्न को भी कहा है इति ॥६१॥ इदानीं शङकुदृग्ज्ययोः संस्थानमाह । स्वाहोरात्रे क्षितिजाद्दिनगतशेषोच्चता रवेः शङ्कुः । तस्माद्दिनगतशेषं शङ,कुकूमध्यान्तरं दृग्ज्या ६२ गलन्धाधिकारः १४०७ सु- भा.-क्षितिजा सकाशात् स्वाहोरात्रवृत्ते दिनगते वा पश्चिमकपाले दिनशेषे या रवेरुच्चता लम्बरूपा स शङ्कुर्भवति । तस्माच्छुकश्च त्रिप्रश्नाधिका रविधिना दिनगतशेषं च भवति । शङ्कुकुमध्यान्तरं शङकुमूलस्य कुमध्यस्य भूगर्भस्य चान्तरं दृग्ज्येत्युच्यते । रविकेन्द्रात् क्षितिजोपरि लम्वः शङ्कुः। शङ्कु मूलं भूगर्भान्तरं च दृग्ज्या भवतीत्यर्थः।।६२।। वि. भा–क्षितिजात् स्वाहोरात्रवृत्त दिनगते वा पश्चिमकपाले दिनशेषे या रवेरुच्चता लम्बरूपा स शङ्कुर्भवति । तस्मात् (शङ्कःत्रिप्रश्नाधिकारोक्त विधिना दिनगतशेषं च भवति । शङ्कुसूलस्य भूगर्भस्य चान्तरं दृग्ज्येति कथ्यते । रविबिम्बकेन्द्रात् क्षितिजधरातलोपरि लम्बः शङ्कुः कथ्यते । सिद्धान्तशेखरे “पूर्वापरक्षितिजवृत्तत उन्नतांशज्याशङ्कुरत्र कथितः स्फुटमिष्टभायाम् । तस्या ग्रतो दिनकरोऽम्बररत्नबिम्बमध्यावलम्बकमुत प्रवदन्ति शङकुरु ।’ इत्यनेन श्रीपतिनापि भूगर्भभूपृष्ठयोरभेदस्वीकारात् सूर्यबिम्ब केन्द्रात् क्षितिजधरातलो परि लम्बसूत्रं शङ्कुः कथ्यते । शिष्यधीवृद्धिदतन्त्रे लल्लः “पूर्वापरकुजवृत्तादुन्नत लवशिञ्जिनीष्टभाशङ्कुः । तस्याम् दिवसकरो नरोऽर्कबिम्बावलम्बो वा । भास्कराचार्यश्च ‘दृष्टिमण्डलभवा लवाः कुजादुन्नत। गगनमध्यतो नताः । शङ्कु- रुन्नतलवज्यका भवेद् दृग्गुणश्च नतभाग शिञ्जिनी ।” तथैव सदृशोत्तय व शङ्कुं प्रतिपादयन्तीति ।।६२॥ 2. अब शंकु और दृग्ज्या की स्थिति को कहते हैं । हि- भा–क्षितिजवृत्त से स्वाहोरात्रवृत्त जो दिनगत है उसमें वा पश्चिमकपाल में दिनशेष में रवि की जो उच्चता है वह शङ्कु है अर्थात् रवि बिम्वकेन्द्र से क्षितिज धरातल के ऊपर लम्ब रेखा शङ्कु है। उस शङ्कु से त्रिप्रश्नाधिकारोक्त विधि से दिनगत और दिनशेष होता है, शङ्कु मूल से भूगर्भपर्यन्त रेखा दृग्ज्या कहलाती है तथा रविबिम्ब केन्द्र से क्षितिज घरातल के ऊपर लम्ब रेखा शड्कु है अर्थात् रबिबिम्ब केन्द्र से खस्वस्तिक गत वृत्त दृग्वृत्त है, रबि केन्द्र से खस्वस्तिक पर्यन्त चाप नतांश चाप है इसकी ज्या दृग्ज्या है, तथा रविबिम्ब केन्द्र से हुवृत्ता और क्षितिजबूत के सम्पात पर्यन्त दृग्वृत्तीय चाप उन्नतांश है, इसकी ज्या शङ,कु है । सिद्धान्तशेखर में श्रीपति, शिष्यधीवृद्धिदतन्त्र में लल्लाचार्य, गोलाध्याय में भास्कराचार्य सब एक ही तरह शङकु को कहते है इति ॥६२॥ नी प्रकारान्तरेण तयोः संस्थानं शङकुतलचाह - दृग्मण्डले नतशज्या दृग्ज्य शङ् कुरुन्नतांशज्या । अर्कोदयास्तसूत्राद्दिनशङ्कोर्दक्षिणेन तलम् ।।६३। सु- भा. -दिनशङ्कोदवाशझोस्तलं मूलमर्कोदयास्तसूत्राद्दक्षिणेन भवति । १४०८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते प्रकंग्रहणमुपलक्षणार्थम् । शेषं स्पष्टार्थम् । ‘दृष्टिमण्डलभवा लवाः कुजा’-इत्यादिभास्करोक्तमे तदनुरूपं विचिन्त्यम् ।।६३।। वि. भा.-दृग्वृत्ते यो हि नतांशस्तज्ज्या दृग्ज्या कथ्यते, उन्नतांशचापस्य ज्या शङ्कुः। दिवाशङ्कुमूलं रवेरुदयास्तसूत्राद्दक्षिणेन भवति । अत्रार्कग्रहण मुपलक्षणार्थम् । रव्युपरि हवृत्ते निवेशिते दृग्वृत्तक्षितिजवृत्तयोः सम्पातद्वयगतं सूत्रं दृक्कुज सूत्रम् । रवि विम्बकेन्द्रादूर्वाधर सूत्रोपरि लम्बरेख दृग्ज्या । रवि बिम्बकेन्द्रादेव दृक्कुज सूत्रोपरिलम्बरेखा शङ्कुः । शङ्कुमूलाद् भूकेन्द्रपर्यन् दृक्कुजसूत्रखण्डं तथा नतांशज्यामूलाद् भूकेन्द्रपर्यन्तमूर्वाधरसूत्रखण्डं भुजचतुष्टयैरेकं चतुभुजं जातम् । अत्र शङ्कूध्र्वाधररेखयोः समानान्तरत्वात् नतांशज्या-दृक्कुजसूत्र खण्डं च समानान्तरमत इत्यायतं चतुभुजस् । तेन दृक्कु जसूत्रखण्डं दृग्ज्यासंज्ञकं रविबिम्बकेन्द्रादूर्वाधरसूत्रोपरिलम्बेन नतशज्या प्रमाणेन समानम् । तथैव शङकुरेखा नतांशज्यामूलाद् भूकेन्द्रपर्यन्तं-ऊध्र्वाधर सूत्र खण्डेन समानेति । अत्र लल्लोक्तम्- "अम्बरमध्यांशुमतोर्मध्यांशज्या भवेन्नत ज्या रवे । शङ्कमूलाद्दिङ्मध्यगामिनी भूतले दृग्ज्या।” इति लवाः कुजादुन्नता गगनमध्यतो नताः" इत्यादि भास्करोक्त च सदृश मेवेति ॥६३॥ tl अब प्रकारान्तर से उन दोनों (दृग्ज्या और शङ्कु) की संस्थिति और शङकुंतल को कहते हैं। . हि. भा.-दृग्वृत में जो नतांश चाप है उसकी ज्या दृग्ज्या कहलाती है । तथा उन्नतांश चाप की ज्या शङ,कु कहलाती है । दिवाशङकुसूल रवि के उदयास्त सूत्र से दक्षिण होता है । यहां रविग्रहण उपलक्षण के लिये है। रविबिम्ब केन्द्र के ऊपर दृवृत्त करने से हुवृत्त और क्षितिज वृत्त के दो स्थानों में जो योग है तद्गत् सूत्र दृञ्ज सूत्र है। रवि बिम्बफेन्द्र से ऊध्र्वाधर सूत्र के ऊपर लम्बरेखा दृग्ज्या है रवि बिम्ब केन्द्र ही से दृञ्ज सूत्र के ऊपर लम्ब रेखा शङ्कु । शङ्कुसूल से भूकेन्द्रपर्यन्त दृक्कंज सूत्रखण्ड तथा नतांशष्या मूल से भूकेन्द्रपर्यन्त ऊध्र्वाधर सूत्रखण्ड इन चारों भुजों से एक चतुर्भुज उपपन्न हुआ । यहां शङ्कु और ऊध्र्वाधर सूत्र के समानान्तर होने के कारण नतांशज्या और दृक्कुज सूत्रखण्ड समानान्तर हुआ अतयह आयत चतुभुज है । इसलिये दृक्कुज सूत्र खण्ड हर्ज्या संज्ञक रवि बिम्ब केन्द्र से ऊध्र्वावर सूत्र के ऊपर लम्बनतांशज्या के बराबर हुआ । उसी तरह शङ्कुसूत्र और नतांशज्यापूल से भूकेन्द्रपर्यन्त ऊध्र्वाधर सूत्र खण्ड के बराबर हुआ। यहां “अम्बरमध्यांशुमतोः’ इत्यादि लल्लोक्त तथा ‘दृष्टिमण्डलभवा लवाःइत्यादि भास्करोक्त समान ही है इति H६३ गोलबन्धाधिकारः १४०६ इदानीं दृग्गोलस्य दृश्यादृश्यत्वं लम्बनावनत्युत्पत्तौ कारणं चाह । दृश्यादृश्यं दृग्गोलाषं भूव्यासदलविहीनयुतम् । द्रष्टा भूगोलोपरि यतस्ततो लस्बनावनती ॥६४। सु. भा–दृग्गोलार्ध दृग्मण्डलार्ध भूव्यासदलेन विहीनं कुपृष्ठगानां दृश्यं खण्डं भूव्यासदलेन युतं चादृश्यखण्डं भवति । यतो द्रष्टा भूगोलोपरि भूपृष्ठे तिष्ठति ततस्तस्माल्लम्बनावनती भवतः । कुपृष्ठगानां कुदलेन हीनं'-इत्यादि तथा ‘यतः क्वघोंच्छूितो द्रष्टा'-इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूपं विचिन्त्यस् ॥६४॥ 5a वि. भा–दृग्मण्डलाधं भूव्यासार्धेन विहीनं तदा भूपृष्ठवासिनां दृश्यं खण्ड भवति । दृग्मण्डलाधं भूव्यासार्धेन युतं तदाऽदृश्य खण्डं भवति । यतो द्रष्टा अप- ष्टोपरि तिष्ठति तस्मात् कारणाल्लम्बनावनती भवेताम् । । नखम =भूकेन्द्रम् । पृ=भूपृष्ठ स्थानम्, चज=गर्भ क्षितिज धरातलम्नथुम = पृष्ठक्षितिजधरातलम् । भूपृ=भूव्यासध्रम् । ग्रः क्षितिजादुपरि दृग्मण्डलार्धश्=ट्रयखण्डम् भूख= दृग्मण्डलव्यासार्धम् । दृग्मण्डलव्या३-भूपृ = दृग्मण्डलव्या ३ –भूव्या ३ =पृख, पृ (भूपृष्ठ) स्थितो द्रष्टा दृग्मण्डलार्ध (दृश्य खण्ड) स्थितं ग्र ग्रहं पश्यन्ति । क्षितिजाधो दृग्मण्डलाधं=अदृश्य खण्डस् । = दृग्मण्डलव्या ई+भूव्या ३ । भू, पृ बिन्दुभ्यां (ग) ग्रहगते रेखे नीलाम्बरगो लीय दृग्मण्डले यत्र लग्ने तयोरन्तरं दृग्मण्डलीयचापं हलम्बनं कथ्यते । यर= दृग्लम्बनम् । प्रख=पृष्ठीयनतांशाः=<ग्र पृख, कोणज्या कोणोन भावुयाज्ययो- स्तुल्यत्वात् ज्याप्रमूख=ज्या (१८०. -< ग्रपृख)= पृष्ठीयदृग्ज्याज्याग्रपृ । भूग्रग्रहकर्णः। तदाऽनुपातेन पृदृग्ज्या.मूव्या है : ज्या भूग्रपृ = दृग्लंम्बन प्रकर्षे ज्या, यतः भूग्रपृ=<यग्र र नीलाम्बरगोलस्य केन्द्र यत्र कुत्रापि कल्पयितुं शक्य ते तेन ग्र बिन्दावपि तत्केन्द्र भवितुमर्हति । अतः यग्रर=यर चापम् । परं यरचापस्=दृग्लम्बनम् । अतः भूग्रq कोणोऽपि दृग्लम्बनम् । नतिश्च दृलम्बना धीना। लम्बननत्योरुत्पत्त: कारणं भूपृष्ठबिन्दुरेव सिद्धान्तशेखरे दृग्मण्डलाधं यदि होध्वंतग्रहं यतस्तत्परिणाहसंस्थम् । द्रष्टा प्रपश्यत्यवनीतलस्थो भ्रमत्यतः खेच- रसंमुखं तत् ।’ लल्लश्च-दृग्मण्डलमुपरिष्टाद् दृष्ट: स्यात्तवृत्तौ खचरः। श्रीपतेः प्रमाणम् । भास्कराचार्यःकुपृष्ठगान कुदलेन हीनं दृग्मण्डलाधं खचरस्य दृश्यम् । है 6 १४१० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते कुच्छन्नलिप्तानुरतो विशोध्याः स्वभुक्तितिथ्यंशमिताः प्रभार्थं । इति विशेषमा हेति ।६४।। अब दृगोल के दृश्यत्व और अदृश्यत्व को तथा लम्बन और । नति की उत्पत्ति के कारण को कहते है । हि. भा.-दृग्मण्डलार्ध में भूव्यासाघं घटाने से भूपृष्ठत्थ लोगों का दृश्यखण्ड होता है । दृग्मण्डलार्ध में भूव्यासार्धे जोड़ने से अदृश्य खण्ड होता है । क्योंकि द्रष्टा पृष्ठ के ऊपर रहता है इसलिये लम्बन और नति होती है (अर्थात् लम्बन और नति की उत्पत्ति होती है)। उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये । भू = भूकेन्द्र, पृ=ध्रपृष्ठस्थान चभूज=गर्भक्षितिजधरातल । नqम =पृष्उक्षितिजध, भूg = भूव्यासार्धे =भूव्या, ग्र= दृग्म ण्डले ग्रहः। नखम=क्षितिज से ऊपर दृग्मण्डलाधं ==दृश्यखण्ड । भूख =दृग्मण्डलव्यासार्ध। हरमण्डलव्याई-भूव्याई=मुख । पृष्ट (क्षपृष्ठ) स्थित द्रष्टा दृग्मण्डलार्ध (दृश्यखण्ड) स्थित (ग) ग्रह को देखता है । क्षितिज अधोभाग में दृग्मण्डलाधे = अदृश्यखण्ड=ट्टग्मण्डलाच्याई +भूव्याई । भू और घु बिन्दुओं से ग्र–प्रहगत भूग्र, पुग्न रेखाद्य को बढ़ाने से नीलाम्बर गोलीय हुग्मण्डल में जहां लगता है तदन्तर्गत टुरमण्डलीय चाप दृग्लम्बन कहलाता है । यरक्षद्वलम्बन प्रख== पृष्ठीयनतांश=<प्रमूख, कोणज्या और कोणोन भाषीशज्या बराबर होती है अत: ज्या प्रमूख = ज्या (१८०. - <प्रqख)=पृष्ठीयदृग्ज्या-ज्या प्रक्षुभ्र । भूग्र=प्रहकणें । तब अनुपात से - पृदृज्या. भूव्याई _=ज्या भूग्रपृ=दृग्लम्बनज्या । क्योंकि अकण < भूग्रपृ=<यग्रर । नीलाम्बर गोल के केन्द्र जहां तहां मान सकते हैं, अतः ग्र बिन्दु में भी उसका केन्द्र हो सकता है, अतः यग्रर=यचाप, लेकिन यरचाप-दृग्लम्बन ।
- < भृगपृ = दृग्लम्बन । नति दृग्लम्बन के अधीन है । लम्बन और नति की
उत्पति के कारण भूपृष्ठ बिन्दु ही है । सिद्धान्तशेखर में ‘ढमण्डलाधं यदिहोर्ववत्ति’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से श्रीपति ने कहा है । भास्कराचार्य सिद्धान्तशिरोमणि में "कुपृष्ठगानां कुदलेन हीनं" इत्यादि विशेष कहते हैं इति ॥६४॥ इदानीं परमलम्बनावनती आह । क्षितिजे भूवललिप्ताः कक्ष्यां दृङ्नतिनंभो मध्यात्। अवनतिलिप्ता याम्योत्तरा रविग्रहवदन्यत्र ॥६५॥ । सु. भा-नभोमध्यात् खस्वस्तिकात् कक्षायां ग्रहगोले दृग्मण्डले क्षितिजे गोलबन्धाधिकारः १४११ या भूदललिप्ताः कुच्छन्नलिप्ताः सा दृङ्नतिदूग्लम्वनं परममुच्यते । अवनति लिप्ता तत्र दृग्मण्डले याम्योत्तरा लम्बरूपा भवति अन्यत्र ग्रहयोर्वा भग्रहयोथैता वेवं दृग्लम्बननतिसंस्थानं विज्ञाय स्पष्टलम्बनादिकं रविग्रहवत् कार्यमिति । दिग्मा- अमिहाचार्येण प्रदर्शितं ग्रहयुत्यादौ च विशेषतः प्रतिपादितमिति ।।६५।। वि. भा.-नभोमध्यात् (खस्वस्तिकाल) कक्षायां (ग्रहगोलीयदृग्मण्डले) क्षितिजे या भूदललिप्ताः (भूव्यासार्धकला-कुच्छन्नकला बा) सा दृङ नतिः (परमं दृग्लम्बनं) कथ्यते, तत्र दृग्मण्डलेऽवनतिकला याम्योत्तरा (लम्वरूपा) भवति । अन्यत्र (ग्रहयुतौ-भग्रहयुतौ च) वं नतिदृग्लम्बनयोः संस्थानं ज्ञात्वा सूर्यग्रहणवत् स्पष्टलम्बनादिकं सर्वं कार्यमिति ।।६५।। पृदृग्ज्या. भूव्या ३ पूर्वश्लोकोपपत प्रर्दशितं हलम्बनज्या = स्वरूपम् प्रक एतत्स्वरूपा वलोकनेन स्फुटमवसयते यत्पृष्ठीयदृग्ज्याया यत्र परमत्वं भवेत्तत्रैव डग्लस्बनज्यायाः परमत्वं भवेद्यदि कर्णमानं स्थिरं भवेत् । पृष्ठक्षितिजदूरमण्ड- लयोः सम्पातबिन्दौ स्थिते ग्रहे पृष्ठीयदृग्ज्या=त्रि, तदा तत्र परमा डग्लस्बनज्या त्रि. भूब्या अस्याश्चापं गर्भक्षितिजपृष्ठक्षितिजयोरन्तर्गतं दृग्मण्डलीयचापं ग्रकण कुच्छन्नकलामानस =परम दृग्लम्बनम् । नतेः परमत्वं वित्रिभे अहे भवति दृग्लम्बन- नत्योद्भनेन स्पष्टलम्बनज्ञानं भवेत्तद्वशतो ग्रहयुत्यादेर्शनं भवतीति ग्रहयुत्यधिकारा वलोकनेन स्फुटं भवतीति ॥६५॥ अब परमलम्बन और नति को कहते हैं । हि. भा-खस्वस्तिक से ग्रहगोलीय दृग्मण्डल और पृष्ठक्षितिज के योग बिन्दु में जो भूव्यासाञ्चकला (कुच्छन्नकला) होती है वह परम दृग्लम्बन कला है। उस दृग्मण्डल में नतिकला याम्योत्तर (लम्बरूप) होती है । अन्यत्र (ग्रहयुति-भग्रहयुति में) इस तरह नति और दृग्लम्बन की संस्थिति जानकर सूर्यग्रहणवत स्पष्टलम्बनादिक सब कुछ साधन करना चाहिये । यहां आचार्य ने केवल संकेत मात्र दिखलाया हैं, ग्रहयुत्यादि में विशेषरूप से कहते हैं इति ॥६५॥ उपपत्ति । पूर्वश्लोक की उपपत्ति में हुगलस्बनज्या का स्वरूप= पृदृज्याभूव्या ३ इसको देखने से मालूम होता है कि यदि ग्रहकर्ण को स्थिर माना जाय तब पृष्ठीय दृग्ज्य का परमत्व १४१२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते जहां होगा वहीं दृग्लम्बन का भी परमत्व होग। । परन्तु ज्या परम त्रिज्या के बराबर होती है, पृष्ठीय दृग्ज्या त्रिज्या के बराबर पृष्ठक्षितिज और दृग्मण्डल के सम्पात बिन्दु में ग्रह के रहने से होती हैं अतः वहीं (पृष्ठक्षितिज दृग्मण्डल के सम्पात बिन्दु पर परम दृग्लम्बन (गर्भक्षितिजघरातल और पृष्ठक्षितिज धरातज के अन्तर्गत दृग्मण्डलीय चाप (कुच्छन्नकला) होता है । नति का परमत्व वित्रिभ स्थान में ग्रह के रहने से होता है । दृग्लम्बन और नति के शन से स्पष्ट लम्बन ज्ञान होता है उसके वश से ग्रह युत्यादि ज्ञान होता है यह ग्रहयुत्यधि कार देखने से स्पष्ट है इति ।।६५।। इदानीं दृक्कर्माह। सत्रिगृहक्रान्तिरुदग्दक्षिणयोस्त्रिज्यया हृतं वलनम् । विक्षेपगुणमृणधनं ग्रहेऽन्यदृक्कमंचरदलवत् ॥६६॥ सु. भा.-उदग्दक्षिणयोरुत्तरदक्षिणानयनयोः सत्रिग्रहक्रान्तिः सत्रिभग्रह- क्रान्तिज्या वलनमायनं वलनं भवति । तद्विक्षेपेण गुणं त्रिज्यया हृतं ग्रहे ऋणं वा घनमायनं दृक्कर्म भवति । अन्यदृक्कर्माक्षजं दृक्कभं चरदलवत् चरसाधनवज्ज्ञ - यम् । अत्रोपपत्त्यर्थमुदयास्ताधिकारे ३-४ श्लोकयोरुपपत्तिविलोक्या। अत्रैव चतुर्वेदाचार्येण ‘सत्रिग्रहोल्क्रमज्यया क्रान्तिः साध्ये त्यन्यथा व्याख्यातमत एव भास्करः ‘ब्रह्मगुप्तकृतिरत्र सुन्दरी सान्यथा तदनुगैविचार्यते’-इत्याद्युक्त वान् ॥६६॥ वि. भा.-उत्तरदक्षिणायनयोः सत्रिभग्रहक्रान्तिज्याऽऽयनं वलनं भवति । तन्मध्यमशरेण गुणं त्रिज्यया भक्त फलमृणं वा घनमायनं दृक्कर्म भवति । अन्य दृक्कर्म (अक्षजं दृक्कर्म) चरदलवत् (चरसधनवत्) बोध्यम् ।।६६॥ ग्रहबिम्बकेन्द्रोपरिगतं कदम्बप्रोतवृत्त क्रान्तिवृत्त यत्र लगति तदेव ग्रहस्थानम् । स्थानोपरि ध्रुवप्रौतवृत्तः कार्यं बिम्बकेन्द्रोपर्यहोरात्रवृत्त कार्यं तदा बिम्बकेन्द्रस्थानावधि मध्यमशर एको भुजः। बिम्बकेन्द्रात्स्थानोपरि ध्रुवप्रोतवृत्तो परिलम्बो द्वितीयो भुजः । स्थानोपरि ध्रुवप्रोतवृत्त तृतीयो भुजः । त्रिभुजेऽस्मिन् स्थानगतकदम्बप्रोतवृत्तध्रुवप्रोतवृत्तयोरुत्पन्नः कोण आयनवलनम् । लम्बवृत्त- स्थानगतध्रुवम्रोतवृत्तयोत्पन्नः कोणः=&० । तेनांनुपातेन मध्यशरज्याXआयनवलनज्या लम्बवृत्तीयचापज्या=बिम्बीयाहोरात्रवृत्तीय = चापज्या परन्तु सत्रिभग्रहक्रांज्या= युज्याग्रीयायनवज्या। गोलबन्धाधिकारः १४१३ मध्यशज्यासत्रिभक्रांज्या मध्यशर. सत्रिभग्नक्रांज्य _ बिम्बीयाहोरा त्रि अवृचापज्या=बिम्बीयाहोरात्रवृत्तीयचापासवः, इति स्वल्पान्तरात् कलात्वेन स्वीकृता आचार्येण, एतस्य कलात्वेन ग्रहे संस्कारो नोचित इति मत्वापिस्वल्पा न्तरमवगत्याऽऽचार्येण लल्लेन च तदेव फलं ग्रहे संस्कृतम् । भास्कराचार्येण मध्यशसत्रिभग्नक्रांज्या . तन्त्रिज्याने परिणतं कृतं यथा । मध्यश. सत्रिभग्नक्रज्या xत्रिः_ नाडीवृत्तीयायन कुर्मासवः त्रि x बिस्बीयद्यु मध्यश. सत्रिभग्नक्रांज्या मध्यश = . सत्रिभग्नक्रज्या. वल्पान्तरात् बिम्बीयद्य बिम्बीय यु= स्थानीयधु । स्थानीयद्यु=यु। तत एतस्य फलस्य ग्रहसंस्कारयोग्यत्वं ‘यदि निरक्षोदयासुभी राशिकला १८०० लभ्यन्ते तदैभिरसुभिः किमिति’ जाता मशरसत्रिभक्रांज्या x - । १८०० आयन ढक्कमॅकलाः = कृतम् यद्यपि भास्करा यु. निरक्षोदयासु चार्येण साधितमायनदृक्कमॅकला प्रमाणं समीचीनं नास्ति, किन्तु आचार्योक्तापेक्षया किञ्चित् समीचीनमस्ति । भास्कराचार्येण आयनवलनज्यास्थाने सत्रिभग्रहक्रांन्ति ज्या न तदा तदुक्ताऽऽयनदृक्कर्म कलाः मशर. आयनदलन १८०० एतेन स्वीकृता = शु. निरक्षोदयासु “आयनं वलनमस्फुटेषुणा सङगुणं घुगुण भाजितं हतम् । पूर्ण पूर्णाधृतिभिर्गुहा श्रित व्यक्षभोदयहृद।यनाः कलाः ।’ भास्करोक्तमिदमुपपद्यते । सिद्धान्तशेखरे "विक्षेप सत्रिभखगोत्तमजाऽपमज्याघाते गृहत्रयगुणेन हृते कलास्ताः । शोध्या स्तयोः समदिशोः खचरेषु देया भिन्नांशयोर्भवति दृग्विधिरेष पूर्वः । श्रोपतिनैवं कथ्यते । लल्लाचार्येण सत्रिभग्रहक्रान्तिज्या स्थाने सत्रिभग्रहान्त्युत्क्रमज्या स्वीकृता, श्रीपतिरपि बहुधाऽऽचार्य (ब्रह्मगुप्त) मतानुसरणं कुर्वन्नपि कुत्रचित् स्थले लल्लोक्तमपि मतान्तरं स्वीचकारतदत्रापि लल्लोक्तवत् सत्रिभग्रहकान्ति ज्यस्थाने तदुत्क्रमज्यां स्वीकृतवान् । क्रान्तेर्वलनस्य च यथैऊँव दिक् यथा क्रान्तिः शेरश्च यद्युत्तरदिक्कौ दक्षिणदिक्कौ वा भवतस्तदा शरेणोन्नामितो यावद क्षितिजे नयते तावत् क्रान्तिवृत्तग्रहस्थानात् पृष्ठतः क्रान्तिवृत्त क्षितिजे लगति तत्तत्र फलमृणम् । भिन्नदिक्कयोर्वलनशरयोरचैतद्विपरीतमतस्तत्र धनमिति ॥६६॥ अब दृक्कर्म को कहते हैं । हिः भा.-उत्तरायण और दक्षिणायन में सत्रिभग्रह क्रान्तिज्या आयनवलन होती है । उसको मध्यमशर से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने से फल ऋण वा धन आयनदृक्कर्म होता है । अन्य दृक्कर्म (आक्षइक्कमें) चरखण्ड साधन की तरह समझना चाहिये इति ॥६६॥ १४१४ ब्राह्मस्फटसद्धान्ते ग्रहबिम्बकेन्द्रोपरिगत कदम्बश्रोतवृत्त क्रान्तिवृत्त में जहां लगता है वह ग्रह स्थान है । स्थानोपरिगत धुनप्रोतवृत्त कर देना। बिम्ब केन्द्र के ऊपर अहोरात्र वृत्त कर देना तब बिम्बकेन्द्र सै रथानपर्यन्त मध्यमशर एक भुज बिम्बकेन्द्र से स्थानोपरिगत ध्रुवप्रोतवृत्त के ऊपर लम्बवृत्त करने से लम्बवृत्तीय चाप द्वितीय भुज । लम्बन से स्थान पर्यन्त तृतीय भुज इन तीनों भुजों से उत्पन्न त्रिभुज में स्थानगत कदम्बप्रोतवृत्त और ध्रुवप्रोतवृत्त से उत्पन्न कोण आयनवलन है । स्थानगतध्रुवम्रोतवृत्त और लम्बवृत्त से उत्पन्न कोण = &०, तब अनुपात से मध्यमशरज्या. आयनवलनज्या मध्यमशर. सत्रिभग्रहक्रान्ति त्तीयचापज्या=बिम्बीयाहोरात्रवृत्तीय चापज्या=बिम्बीयाहोरात्रवृत्तीयवापासु=बिम्बीया होरात्रवृत्तीय चापकला स्वल्पान्तर से आचार्य स्वीकार करते हैं । इसकी कलात्व से ग्रह में संस्कार करना उचित नहीं है इस बात को मान करके भी स्वल्पान्तर समझ कर श्राचार्य और लल्लाचार्य उसी फल का ग्रह में संस्कार किया है । भास्कराचार्य मध्यमशरआयनवलन इसको त्रिध्यान में परिणत किया है जैसे - = नाडीवृत्यायन मध्यशर. आयनवलन. त्रि त्रि. बिम्बीयद्यु दृक्कर्मासु=-मयम्-आन्दोलन, यहां स्वल्पान्तर से बिम्बीययु=स्थानीयट्ट=यु इस फल को ग्रह संस्कार योग्यत्व ‘यदि गृहाश्रित राशि के निरक्षोदय सु में राशिकला १८०० पाते हैं तो इत असुश्रों में क्या इससे आयनदृक्कर्म कला आती है उसका स्वरूप मध्यशरK१८०० । आयनवलन किया है इससे भास्करोक्त ‘आयनं वलनमस्फुटेषुणा। द्यु, नि सङगुणं’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित पद्य उपपन्न होता है । सिद्धान्तशेखर में विक्षेप सत्रिभ खगौत्क्रमज्याऽपभज्य’ इत्यादि से श्रीपति प्रकार आचायक्त प्रकार से भिन्न है । लल्लाचार्य ने सत्रिभग्रह क्रान्तिज्या स्थान में उसकी उच क्रममज्या ली है श्रीपति ने भी लल्लो सत्रिभग्रह क्रान्तिज्या स्थान में उसकी उत्क्रमज्या को स्वीकार किया है। बहुत स्थानों में आचार्यमत को अनुसरण करते हुए कहीं कहीं लल्लोक्त को भी श्रीपति ने स्वीकार किया है यहां भी लल्लोक्तवत् सत्रिभग्रहक्रान्तिज्यास्थान उसकी उत्क्रमज्या को स्वीकार किया है । यदि क्रान्ति और वलन की एक दिशा हो यथा क्रान्ति और शर यदि उत्तर दिशा का है । वा दक्षिण दिशा का तब शर से उन्नामित ग्रह जब क्षितिज में आते हैं तावत् क्रान्तिवृत्त अह स्थान से पृष्ठ ही क्रान्तिवृत्त क्षितिज में लगता है वहां फल ऋण होता है । शर भर बर्लन की दिशा भिन्न रहने से विपरीत होता है अतः वहां फल घन होता है इति ।।६६। गोलबन्धाधिकारः १४१५ इदानीं ग्रहसँगोलयोः स्थिरवृत्तान्याह । कक्षा मण्डलतुल्यं प्राच्यपरं दक्षिणोतरं क्षितिजम् । उन्मण्डलविषुवन्मण्डले स्थिराणि ग्रहक्षणाम् ।।६७।। सु- भा–पूर्वापरम् । दक्षिणोत्तरम् । क्षितिज । उन्मण्डलम् । विषुवन्म ण्डलम् । सर्वे कक्षामण्डलतुल्यं समानं महद्वृत्तं च ज्ञेयम् । ग्रहर्भाणां गोलयोरेता नि स्थिराणि वृत्तानि सन्तीति ॥६७॥ वि. भा.-प्राच्यपरं (पूर्वापरल्), दक्षिणोत्तरं (याम्योत्तरम्), क्षितिज, उन्मण्डलम्, विषुवन्मण्डलम् (नाडीवृत्तम्) सर्वे कक्षामण्डल (क्रान्तिवृत्त) तुल्यं महतृत्त चेति, ग्रहाणां-नक्षत्राणां चैतानि पञ्चवृत्तानि स्थिराणि कथि तानि ।।६७। अब प्रहगोल और नक्षत्र गोल में स्थिर वृत्तों को कहते हैं। हि. भा.-पूर्वापरवृत्त, याम्योतवृत्त, क्षितिजवृत्त, उन्मण्डल, नाड़ीव्रत्त ये सब (पांच) वृत्त कक्षावृत्त (क्रन्तिवृत्त के बराबर महबूत हैं) ग्रहों के और नक्षत्रों के ये पांच स्थिरवृत्त कथित हैं इति ॥६७॥ • इदानों ग्रहाणां चलवृत्तान्याह । सन्दोच्चानां सप्तोच्चनीचवृत्तनि पञ्चशीघ्राणाम् । प्रतिमण्डलानि चैवं प्रत्येकं भास्करादीनाम् ॥६८॥ इग्मण्डलविक्षेपापममण्डलानि क्षपाकरादीनाम् । षट्कं विमण्डलानां चलवृत्तान्येकपञ्चाशत् ॥६॥ सु. भा–मन्दनीचोच्चवृत्तानि भौमादीनां शीघ्रनीचोच्चवृत्तानि=५ मन्दप्रतिवृत्तानि शीघ्रप्रतिवृत्तानि दृग्मण्डलं दृक्क्षेपमण्डलं कक्षामण्डलं चेति सप्तानां ग्रहाणाम् =२१ चन्द्रादीनां षड़विमण्डलानि =६_ ५१ एवं चलवृत्तान्येकपञ्चाशत् सन्तीति ॥६८-६९॥ वि. भा.-रव्यादिग्रहाणां मन्दोच्चनीचवृत्तानि = ७, भौमादिपञ्चकाना- मेव ग्रहाणां शीघ्रोच्चत्वात् शी घनीचोच्चवृत्तानि पञ्च=५, ग्रहाणां मन्दप्रति १४१६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते वृत्तान्=ि७शीघ्रप्रतिवृत्तानि=५, दृग्वृत्त, वृक्क्षेपवृत्त कक्षावृत्त चेति रव्यादि ग्रहाणामेकविंशतिः=२१, रविं विनैव चन्द्रादिग्रहाणां विमण्डलानि=६, सर्वेषां योग एकपञ्चाशत् ५१ संख्यकानि चलवृत्तानि सन्तीति । सिद्धान्तशेखरे "मन्दोच्च नीचवलयानि भवन्ति सप्त शैघ्र्याणि पञ्च च तथा प्रतिमण्डलानि । इक्क्षेप दृष्टघ पमजानि च खेचराणामकं विनैव खलु षट् च विमण्डलानि । पञ्चदशेकसहितानि च मण्डलानि पूर्वापरं वलयमुत्तरदक्षिणंच । माजं तथा विषुवदुद्वलयाभिधाने पञ्चस्थिराणि कथितान्युडु खेचराणाम् ।’ इत्यनेन श्रीपतिनाऽऽचार्योक्तानुरूपमेव कथितम् ॥६९॥ अब ग्रहों के चलवृत्तों को कहते हैं । हि. भा.-रव्यादि ग्रहों के मन्दोचनीच वृत्त सात ७ हैं, भौमादि पांच ग्रहों के शीघ्रनीचोचवृत्त=५, रव्यादि ग्रहों के मन्दप्रतिवृत्त=७, भौमादिग्रहों के शीनप्रतिवृत्त=५, दृग्वृत्त, वृक्षेपवृत्त, और कक्षावृत्त ये सात ग्रहों के=२१, चन्द्रादिग्रहों के विमण्डल= ६, सबों के योग=५१, एतत् संख्यक चलघूत्त है सिद्धान्तशेखर में ‘मन्दोच्च नीचवलयानि भवन्ति सप्त' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से श्रीपति ने आचायक्त के अनुरूप ही कहा है इति ॥६८-६६।। इदानीमध्यायोपसंहारमाह । यत् स्पष्टीकरणञ्च गोलादुत्प्रेक्ष्य तत् कृतं सर्वम् । गोलाध्यायः सप्तत्यार्याणामेकवशोऽयम् ॥७०। सु-भा-इह मया यत्स्पष्टीकरणाचं सर्वं कृतं तदूगोलादुत्प्रेक्ष्यावगम्य कृतमतः सर्वे सयुक्तिकं ज्ञेयमिति । शेषं स्पष्टार्थम् । मधुसूदनसूनुनोदितो यस्तिलकः श्रीपृथुनेह जिष्णुजोक्त । हृदि तं विनिधाय नूतनोऽयं रचितो गोलविधौ सुधाकरेण । इति श्रीकृपालुदत्तसूनुसुधाकरद्विवेदिविरचिते ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तनूतनति लके गोलाध्यायो नामैकविशोऽध्यायः ॥२१॥ वि. भं-“मया स्पष्टीकरणाचं यत् सर्वं कृतं तद्गोलादवगम्य कृतम् । अयमार्याणां सप्तत्यैकविशो गोलाध्यायोऽस्तीति ॥७०॥ इति ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते गोलाध्यायो नामैकविंशतितमोऽध्यायः ॥२१॥ अब अध्याय के उपसंहार को कहते हैं । हि. भा–स्पष्टीकरण आदि जो कुछ हमने किया है वह सब गोल से समझ कर किया है, इसलिये इन सबों कों युक्तियुक्त समझना चाहिये । सत्तर आयश्रों का यह इक्कीसवां गोलाध्याय है इति ॥७०॥ इति ब्राह्मस्फुटसिद्धांत में गोलाध्याय नामक इक्कीसवां अध्याय समाप्त । टसिद्धान्त पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/३२९ ब्राह्मस्फटसिद्धान्तः अथ यन्त्राध्ययः प्रारभ्यते । तत्र प्रथमं गोल प्रशंसामाह । मध्याद्यमिह यदुक्त तत् प्रत्यक्षमिव दर्शयति यस्मात् । तस्मादाचार्यत्वं गोलविदो भवति नान्यस्य ॥ १ ॥ सु. भा–यस्मादिह सिद्धान्ते यन्मध्याधं गणितमुक्तमस्ति तत् सर्वं गोल वित् प्रत्यक्षमिव दर्शयति तस्मादुगोलविद एवाचार्यत्वं भवति नान्यस्येति u१ ।।। वि. भा---यस्मात् कारणादिह सिद्धान्तग्रन्थे ग्रहाणां मध्याधं गणितं यदुक्त (कथित) मस्ति तत्सर्वं गोलवित् प्रत्यक्षमिव दर्शयति, तस्मात्कारणाद् गोलविद आचार्यत्वं भवति, अन्यस्य नेति ।। १ ।। अब यन्शष्याय प्रारम्भ किया जाता है । उसमें पहले गोल प्रशंसा कहते हैं । हि. भा--जिस कारण से इस सिद्धान्त ग्रन्थ में ग्रहों के मध्यादि गणित को कथित है उन सबों को गोलवेता (गोल को जानने वाले ) प्रत्यक्ष के तरह दिखलाते हैं, इस कारण से गोलवेत्ता ही को आचार्यत्व होता है, अन्य किसी को आचार्यत्व नहीं होता है अर्थात् गोल को जानने वाले ही आचार्य होते हैं दूसरे नहीं ।। १ ।। इदानीं स्वगोलग्रथने कारणं कथयति । आचार्योनं आतः श्रीषेणायंभविष्णुचन्द्रार्धेः । गोलों यस्मात् तस्मात् ब्रावो गोलः कुतः स्पष्टः ॥ २ ॥ सु० भा०. -यस्मात् श्रीषेणार्यभटविष्णुचन्द्राद्यगलो न ज्ञातस्तस्मान्मयाऽयं
ब्राह्मो गोलः स्पष्ट कृत इति ॥ २ ॥१४२०
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते
वि. भा.-–यस्मTद्ध तोः श्रीषेणार्यभटविष्णुचन्द्रार्दूराचार्योगोंलो न ज्ञात-
स्तस्मान्मयाऽयं ब्राह्मो गोलः स्पष्टः कृत इति ॥ २ ॥
अब अपनी गोल रचना के कारण कहते हैं ।
हि. भा.- क्योंकि घर्षण-आर्यभटविष्णु-चन्द्र आदि आचायं गोल को नहीं समझे
इसलिये हमने इस ब्राह्म गोल को स्पष्ट किया है इति ॥ २ ॥
इदानीं गणित गोलयोः प्रशंसामाह ।
गणितज्ञ गोलज्ञ गोलज्ञो ग्रहगतिं विजानाति ।
यो गणितगोलबाह्यो जानाति ग्रहगत स कथम् ॥ ३ ॥
सु. भा-यो गणितज्ञः स गोलज्ञो भवति (गोलस्य गणितक्षेत्रान्तर्गतत्वाव)।
यो गोलज्ञः स एव ग्रहगति विशेषेण जानाति । तस्माद्यो गणितगोलबाह्योऽस्ति स
कथं ग्रहगतिं जानाति । न जानातीत्यर्थः ॥ ३ ॥
वि. भा.ज्यो गोलज्ञो भवति (गोलस्य गर्णितान्तर्गतत्वात्),
गणितज्ञः स
यो गोलज्ञः स ग्रहगति विजानाति । सिद्धान्तशिरोमणेगलाध्याये “दृष्टान्त एवा-
वनिभग्रहाणां संस्थानमानं प्रतिपादनार्थम् । गोलः स्मृतः क्षेत्रविशेष एषः प्रागै-
रतः स्याद् गणितेन गम्यः । “ भास्कराचार्येणाप्येवमेव कथ्यते । यो गणितगोल
बाह्योऽर्थाद गणितं गोलं च न जानाति स प्रहर्गात ’ कथं जानाति । कथमपि न
जानातीति ॥ ३ ।
अब गणित और गोल की प्रशंसा करते हैं ।
हि.भा-शो गणित जानते हैं वे गोल को भीं जानते हैं क्योंकि गोल-गणितक्षेत्र
परिधि के अन्तंगत है जो गोल जानते हैं वे ग्रहगति को जानते हैं सिद्धान्तशिरोमणि
के. गोलाध्याय में ‘द्दष्टान्त एवावनिभग्रहाणां’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित इलोक से
भास्कराचार्य ने भी आचार्योंक्त के अनुरूप ही कहा है, जो गणित और गोल नहीं जानते हैं।
वे ग्रहगति को कैसे जानेंगे अर्थाद् दि सी तरह भी नहीं जान सकते हैं इति ।। ३ ।।
इदानीं यन्त्राध्यायारम्भप्रयोजनमाह ।
गोलस्य परिच्छेदः कर्तुं यन्त्रैर्विना यतोऽशक्यः ।
संक्षिप्तं स्पष्टार्थं यन्त्राध्यायं ततो वक्ष्ये ॥ ४ ॥ ॥
सु. भा--यतो यन्त्रैवना गोलस्य परिच्छेदः सम्यग्विचारः कर्तुं गणकोऽ-
१४२१
शक्यो भवति ततो गोलस्य स्पष्टार्थे संक्षिप्तं यन्त्राध्यायमहं वक्ष्य इत्याचार्योक्तिः॥ ४॥
वि. भा“यतो यन्त्रैविना ज्यौतिषिको गोलस्य परिच्छेदः (यथार्थरूपेण विचारः) कत्तुमसमर्था भवति, तस्माद्ध तोर्गालस्य स्पष्टार्थे संक्षिप्तं यन्त्राध्यायमहं वक्ष्ये ॥ सिद्धान्तशेखरे “शक्यः परिच्छेदविधिविधातु ऍन्त्रंविना नो समयस्य तनूः । तेषां स्वयंवाहक पूर्वकाणामतः प्रवक्ष्ये खलु लक्षणानि ।।” श्रीपतिनैवं यन्त्राध्यायारम्भप्रयोजनं कथ्यते । सिद्धान्त शिरोमणेगलाध्याये भास्कराचार्योऽपि श्रीपत्युक्तसदृशमेव कथयति-
- "दिनगतकालावयवा ज्ञातुमशक्या यतो विना यन्त्रैः ।
- वक्ष्ये यन्त्राणि ततः स्फुटानि संक्षेपतः कतिचित् ।”
- सर्वस्मिन् ज्यौतिषसिद्धान्तग्रन्थे यन्त्राध्यायो भवत्येवेति ॥ ४ ॥
अंब यन्त्राध्याय प्रारम्भ करने के कारण कहते हैं ।
हि- भा–यन्त्रों के बिना ज्यौतिषिक लोग गोल का विचार अच्छी तरह करने में असमर्थ होते हैं । इसलिए गोल की स्पष्टता के लिए संक्षेरूप से यन्त्राध्याय को मैं कहता हूँ। सिद्धान्त शेखर में "शक्यः परिच्छेदविधिवधातु यन्त्रैर्विना नो समयस्य तञ्चैः ' इत्यादि विज्ञानभाष्य में लिखित श्लोकोक्त अनुसार यन्त्राध्याय आरम्भ करने के कारण कहते हैं । सिद्धान्त शिरोमणि के गोलाध्याय में भास्कराचार्य भी श्रपयुक्त के सदृश ही कहते हैं । ‘दिनगत कालावयवा ज्ञातुमशक्या यतो विना यन्त्रैः’ इत्यादि । सब ज्यौतिष सिद्धान्त ग्रन्थों में यन्त्राध्याय होता ही है। इति ॥ ४ ।।
इदानीं तन्त्राणि यन्त्रोपकरणानि चाह ।
- सप्तदश कालयन्त्राण्यतो धनुस्तुएँगोलकं चक्रम् ।
- यष्टिः शङकुर्घटिका कपालकं कर्तरी पीठम् ॥५॥
- सलिलं भ्रमोऽवलम्बः कर्णश्छाया दिनार्धमर्कोऽक्षः ।
- नतकालज्ञानार्थं तेषाँ संसाधानान्यष्टौ ।।६॥
सु. भा–यतो धनुर्न्त्रम् । तुयेंगोलं तुरीयम् । चक्रयन्त्रम् । यष्टिः। शङ्कुः घटिका घटीयन्त्रम् । कपालियन्त्रम्। कर्तरी। पीठसंशं यन्त्रम् । सलिलं जलम् । भ्रमः शाणः । अवलम्बोऽवलम्बसूत्रम् । कर्णश्छायाकर्णः । छाया शङ्कुच्छाया। दिनाउँ दिनर्धमानम् । अर्कः सूर्यः। अक्षः पलांशाः । अतो नतकालज्ञानार्थं सप्त- दश कालयन्त्राणि सन्ति । तेषां यन्त्राणां मध्ये सलिलादीन्यष्टौ यन्त्रसंसाधनानि यन्त्ररचनामूलभूतानि सन्ति ।५-६। १४२२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते
वि. भा. -यतोघनुयन्त्रम्तुर्यगोलकं (तुरीययन्त्रम्), चक्र (चक्रयन्त्रम्), यष्टिः, शङ्कुःघटिका (घटीयन्त्रम्, कपालकं (कपालयन्त्र), कर्तरी यन्त्रम् । पीठ संज्ञकं यन्त्रम् । सलिलं (जलन), भ्रमः शाणः), अवलम्बः (अवलम्बसूत्रम्), कर्णः (छायाकर्णः, छाया (शङ्कुछाया), दिनार्ध (दिनार्धमानम्, अर्कः (सूर्यः), अक्षः (अक्षांशाः, नेतकालज्ञानार्थं सप्तदशकाल यन्त्राणि सन्ति, तेषां यन्त्राणां मध्ये सलिलं भ्रम इत्यादीनि-अष्टौ यन्त्रसंसाधनानि (यन्त्र निर्माणोपकरणानि) सन्तीति ॥५-६॥
अब यन्त्र और यन्त्रोपकरण कहते हैं ।
हि. भा.- घनुयंत्र, तुर्यगोलक (तुरीय) यन्त्र, चन (चक्र) संज्ञक यन्त्र, यष्टि, शङ्कु, घटिका (घटी) यन्त्र, कपाल यन्त्र, कर्तरीयन्त्र, पीठसंज्ञकयन्त्र, सलिल (जल), नम (शाण), अवलम्ब (अवलम्ब सूत्र), छायाकर्ण, शङ्कुच्छाया, दिनार्धमान, सूर्य, अक्षांश, नतकलज्ञान के लिये सत्रह काल यन्त्र हैं, उन यन्त्रों में जल, श्रम आदि आठ यन्त्ररचना- मूल भूत हैं इति ॥५-६।
इदानीं सलिलादीनां क प्रयोजनमित्याह ।
- सलिलेन समं साध्यं भ्रमेण वृत्तमब्रलम्बकेनोर्वम् ।
- तिर्यक् कर्णेनान्यैः कथितैश्च नव प्रवक्ष्यामि ॥७॥
सु० भा०-सलिलेन समं साम्यं साध्यम् । भ्रमेण शाणेन वृत्तं साध्यम् । अवलम्बकेनोर्ध्वमूर्वाधरत्वं साध्यम् । कर्णानान्यैः कथितैश्छायादिभिश्च यन्त्रस्य तिर्यक् तिर्यक्त्वं साध्यम् । एवमवशिष्टानि नव यन्त्राणि प्रवक्ष्याम्यहमित्याचा यक्तिः ॥॥७॥
वि. भा-सलिलेन (जलेन), समं ( भुवः साम्यं ) साध्यम् । भ्रमेण (शाणेन), वृत्तं साध्यम् । अवलम्बकेन यन्त्रे उध्वधरत्वं साध्यम् । कर्णेन, अन्यैः कथितैश्छायादिभिश्च यन्त्रस्य तिर्यत्वं साध्यम् । एवमवशिष्टानि नव यन्त्राण्यहं प्रवक्ष्यामि । सिद्धान्तशेखरे-
- “अद्भिः समार्वलयं भ्रमात्तु यत्र च कर्णाच्चतुरस्त्रयुक्तम् ।
- लम्बोऽध ऊध्र्वार्जवसिद्धये स्यात् बीजानि तैलाम्बुरसा: ससूत्राः ।” यन्त्राध्यायः
१४२३ श्रीपतिनैवं कथ्यते । ससूत्राः तैलाम्बुरसा बीजानि भवन्ति, तत्र सूत्रं मुख विवराद्वालुकादिनिःसरणार्थं लोहतन्तुरूपम् । तैलं तथा अम्बु (जल), रसा: (पारदाः), एतानि बीजानि आदि कारणानि सन्तीति । शिष्य धीवृद्धिद तन्त्रे “इष्टं सुवृत्तवलयं लघुशुष्कदारु निर्मापितं विविध शिल्पवदाततक्षणा । गोलं समं सलिल तैलवृषाक़बीजैः कालानुसारिणममुं भ्रमयेत् स्वबुद्धचा शित्पलं तरति यद्रसतैलकेषु तत्सार्यते त्रिभिरिदं स्ववहस्य बीजम् वृत्ते भ्रमात् त्रिचतुरस्त्रमुपैतिकणैर्लम्बाच्च सिद्धिमघऊध्र्वमिला समाद्भिः यान्युपकरणानि तंदुशेन यथैव स्वयंवहयन्त्रनिर्माणं च प्रतिपादयतस्ता न्येवोपकरणानि तथैव स्वयंवहयन्त्रनिर्माणं च श्रीपतेरभिप्रतमिति स्फुटं प्रतीयमानेऽपि तदुक्तया न सर्वे स्फुटीभवतीति विवेचकविवेचनीयम् ।। ७ ॥ । अब सलिला (जल) दि से क्या किया जाता है कहते हैं। हि. मा-जल से पृथ्वी को बराबर करना चाहिये । शाण से वृत्त साधन करना चाहिए । अवलम्ब सूत्र से यन्त्र में ऊध्र्वाघो भाव विदित होता है । कर्ण से और कथित आयादियों से यन्त्र का तिर्यक्त्व (तिरछापन) साधन करना चाहिये । एवं अवशिष्ट नौ यन्त्रों को मैं कहता हूँ । सिद्धान्त शेखर में 'अद्भिः समा भूवंलयं भ्रमात्तु' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित इलोकोक्त के अनुसार श्रीपति ने कहा है । शिष्य श्रीवृद्धिवतन्त्र में लल्लाचार्यं—‘इष्टं सुवृत्त वलयं लधुशुष्कदारु निर्मापितं’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों के अनुसार कहा है इति ।। ७ ॥ इदानीं धनुयन्त्रमाह । धार्य धनुस्तथाऽन्यत् छाया साम्यं ययोन्नता भागाः। दिनगतशेषाः घटिकाः स्वलम्बमुक्ता धनुर्मध्या ॥ ८ ॥ सु. भा:-घनुर्यन्नं तथा घायं यथाऽन्यत् छायासाम्यं भवेत् । अत्रैतदुक्त भवति । यस्मिन् दिने धनुर्न्त्रेण कालज्ञानमभीष्टं तद्दिनसम्बन्धिक्रान्तिचरादिना प्रतिघटिकोन्नत कालवशेन घनुयन्त्रकेन्द्रस्थापितेष्टप्रमाणकीलस्य छायाः प्रसाध्य स्वस्वोन्नतकालसम्मुखेऽक्षयाः । इष्टदिने तथा धनुर्धार्यं यथा जीलच्छायाधनुरप्रयो- रन्तरे परिधौ कीलच्छायासंबंघि गणितागंतशङ्कभागसमा भागाः स्युस्तथा धृते वाऽवलम्बोऽपि दैत्रुसूत्राकारो लगति । अतो धनुर्मध्यात् स्वलम्बभुक्ता भागा रवे १४२४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते रुन्नता भागास्तथा तत्राङ्कित उन्नतकालश्च पूर्वापरकपालयोर्दिनगतशेषा घटिकाः स्युः । अत्रोपपत्तिः। गोलयुक्त्यैव स्फुटा ॥८॥ वि. भा.-धनुर्न्त्रं तथा धार्यं यथाऽन्यत् छायासाम्यं भवेदर्थात् क्रान्तिवशेन ‘अक्षप्रभासंगुणितापमज्या तद्द्वादशांशो भवति ! क्षितिज्येत्यादिना चरज्या साध्या, तथेष्टशकोरिष्टहृतेर्धानम्, इष्टहृतेरिष्टान्त्या, ततश्चरज्या संस्कारेण सूत्रज्ञानं तत उन्नतकालावबोधः सम्यग्भवत्येवं प्रतिघटिकोन्नतकालवशेन धनु- र्यन्त्रकेन्द्र स्थापितस्येष्टप्रमाणकीलस्य छ याः असाध्य स्वस्वोन्नतकाल- संमुखेऽङ्कनीयाः । धनुर्न्त्रमभीष्टदिने तथा धार्यं यथा कीलच्छाया धनुरग्रयो रन्तरे परिधौ कीलच्छायासम्बन्धिगणितागतशङ्कुभाणूसमा भागाः स्युस्तथा धृते सति--अवलम्बोऽपि दृक्सूत्रकारो लगति, धनुर्मध्यात् स्वलम्बभुक्ता भागा रवेरुन्नतभागास्तत्राङ्कित उन्नतकालश्च पूर्वापरकपालयोदिनगतशेषघटिकाः स्युरिति ॥ सिद्धान्तशेखरे गोलयन्त्रेण दिनगतघटिका दिनशेषघटिकाश्च निम्न लिखित प्रकारेण श्रीपतिना आनीतः चक्रशार्क क्रान्तिवृत्तं विधेयं उर्वीवृत्तं याम्यवृत्तं च तद्वत् । नाडीवृत्तं षष्टिभागाङ्कितं हि याम्योदक्स्था यष्टिरुर्वीजमध्ये । कार्यं खगोलस्य दृढ़स्य मध्ये भगोलमेतत् परितस्तथा च । यन्त्रांशके तिग्मकरो ऽपवृत्ते क्षिपेच्छलाकामिह तत्र भागे । तान्नाड़िकावृत्तगतां विधाय समुद्गमात् सूर्यवशेन भूजात् । तदीयभा केन्द्रगता यथा स्यात् स खम्बुनाडया भ्रमयेत्तथैव । पातङ्गचिह्नक्षितिजान्तरस्थाः समद्गतांशा गणकनिरुक्ताः । नाडयः शलाका कुजयोस्तु मध्ये समुन्नतास्ता नियतं भवन्तीति ॥ व्याख्या-षष्ट्यविकशतत्रयांशैः समानैरिचह्नितं क्रान्तिवृत्तं विधेयम् । तद्वत् ३ समषष्ट्यधिकशतत्रयांशैश्चिह्नितमेव क्षितिजवृत्तं याम्योत्तरवृत्तं च विधे यस्। नाडीवृत्तं षष्टिभागाङ्कितं विधेयम् । क्षितिजवृत्तस्य केन्द्र दक्षिणोत्तर बिन्द्वर्गाता यष्टि ( सुसरलससारदारुनिमिता यष्टिका ) धैर्या, गोलकेन्द्ररूपे क्षितिजवृत्तकेन्द्र दक्षिणोत्तरसमस्थानरूपयोगंता च यष्टिः कार्येत्यर्थः। दृढ़स्य (कठिनमाबद्धस्य) खगोलस्य (सममण्डल-याम्योत्तर मण्डलादिनिमितस्य गोलस्य) केन्द्र तथा समन्ततः एतत् अनन्तरोक्त क्रान्तिवृत्त-क्षितिजवृत्तभ्याम्योत्तरवृत्त, नाडीवृत्तांत्मकं भगोलं कार्यम् । इह भगोले क्रान्तिवृत्ते यत्रांशके (यस्मिन्नंशे) सूर्य यन्त्राध्यायः १४२५ स्तस्मिन्नंशे शलाकां (दारवीं लोहसंभवां वा) क्षिपेत् (दद्यान्) । तां शलाकां वृत्तसंलग्नां कृत्वा कथमित्याह। उदयक्षितिजा सूर्यवशेन । तस्याः शला- कायाश्छाया यथा केन्द्रगतास्यात् तथा यन्त्रं भ्रमयेत् । पातङ्ग चिह्न (शलाकया क्षिप्तं रविचिह्नमिति तथा क्षितिजं च तयोरन्तरस्था अंशा गणकैः क्षितिजादुन्न- तांशाः कथिताः । शलाकाक्षितिजयोर्मध्ये शलाकासंसक्तनाडीवृत्तस्य क्षितेज वृत्तस्य च मध्ये नाडयो घटिकायास्ता समुन्नता नाड्यो भवन्ति । दिनगत घटिका दिनशेषा वा घटिका भवन्तीत्यर्थः । श्रीपयुक्त गोलयन्त्रद्वारेण रवेरुन्नतांशज्ञानं-उन्नतघटिकाज्ञानं च लल्लोक्तस्य अथ लग्नकाल सिद्धथ पूर्वापर परिकरोत्तरैर्नवभिः। निर्मापयेद् भगोलं प्राग्विधिना क्रान्तिवृत्तमिह ॥ तस्य बहिश्व खगोलं समवृत्तक्षितिजदक्षिणोत्तरगैः । उन्मण्डलेन च तथा ध्रुवयष्टया पूर्ववत् सभुवा ॥ षष्टशङ्कयेद् भगोलं प्रागपराणीतराणि चक्रांशैः । कुर्याद् दृढं खगोलं इलथं भगोलं च नलिकाभ्याम् । यस्मिन्नंशे सविता तत्र शलाकां क्षिपेदपमवृत्ते । नाडीवृत्तस्थां तामृदयक्षितिजाद्रविवशेन ।। भ्रमयेच्छश्वत्तद् यथा न केन्द्र त्यजेच्छलाकाभा । रविचिन्हक्षितिजान्तरमुदितांशास्तृणकुजान्तरं घटिकाः । अस्य सर्वथव समानार्थकमिति ॥ गोलाध्याययन्त्राध्याये भास्कराचारेणाऽप्येवमेवेदं गोलयन्त्रमभिहितम् । “अपवृत्तगरविचिन्हं क्षितिजे धृत्वा कुजेन संसक्ते । नाडीवृत्ते बिन्दु कृत्वा धूत्वाऽथ जलसमं क्षितिजम् । रविचिन्हस्य च्छाया पतति कुमध्ये यथा तथा विधृते। उडुगोले कुजबिन्द्वोर्मध्ये नाडयो युयाताः स्युः । यथोक्तविधिना खगोलान्तर्भगोलं बद्ध्वा तत्र क्रान्तिवृत्ते मेषादेरारभ्य रविमुक्तराशिभागाधं दत्त्वा तदग्र यच्चिन्हं तदपवृत्तगरविचिन्हमुच्यते । भगोलं चालयित्वा रविचिन्हं क्षितिजे धार्यम् । तथा धृते सति क्षितिज प्राच्यां विषुवन्मण्डले यत्र लग्नं तत्र खटिकया बिन्दुः कार्यः । ततः क्षितिजवृत्तं जलसमं यथा भवति तथा गोलयन्त्रस्थिरं कृत्वा भगोलस्तथा चाल्यो यथा रविचिन्हस्य छाया भूगर्भ पतति तथा कृते सति विषुववृत्ते क्षितिजविन्द्वोर्मध्ये यावत्यो घटिकास्तावत्यस्तस्मिन् काले दिनगता नेयाः इति ॥८॥ १४२६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अब धनुर्न्त्र को कहते हैं । हि- भा-घनुयंत्र को इस तरह धारण करना चाहिये जिससे अन्य छाया साम्य हो अर्थात क्रान्तिवश से ‘अक्षप्रभा सङ्गुणितापमज्या तद्दशांशो भवति क्षितिज्या' इत्यादि से चरज्या साधन करना तथा इष्टशङ्कु से इष्टहृति का ज्ञान, उससे इष्टान्त्या का ज्ञान कर उसमें चरज्या संस्कार से सुत्रज्ञान कर उस से उन्नत काल का ज्ञान होता है। एवं प्रत्येक घटकोन्नत काल वश से धनुर्न्त्र केन्द्र में स्थापित इष्ट प्रमाण कील की छाया साधन कर अपने अपने उन्नत काल के संमुख अङ्कित करना। धनुर्न्त्र को इष्ट दिन में ऐसे धारण करना जिससे कील की छाया धनुष के दोनों अम्र के अन्तर में कीलच्छाया सम्बन्धी गणिता गतशङ्कुभाग के बराबर भाग (अ श ) हो, ऐसे धरने से अवलम्ब भी दृक् सूत्राकार लगता है । धनुष के मध्य से अपने लम्बभुक्त भाग रवि के उन्नत भाग (उन्नतांश) होते हैं, वहां अङ्कित उन्नतकाल पूर्व कपाल और पश्चिम कपाल में दिनगत घटी-दिन शेष घटी होती है । सिद्धान्तशेखर में ‘गोलयन्त्र से दिनघत नटी और दिन शेष घटी का ज्ञान अधोलिखित प्रकार से श्रीपति ने किया है जैसे ‘चक्रांशाङ्क क्रान्तिवृत्तं विधेयं विदध्यादुववृत्तं याम्यवृत्तं च तद्व' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित पद्यों से, श्रीपयुक्त पद्यों का अर्थी यह है क्रान्तिवृत्त क्षितिजवृत्त और याम्योत्तरवृत्त में तीन स साठ अंश अङ्कित करना चाहिये । नाडीवृत्त को साठ अंशों से अङ्कित करना। क्षितिज वृत्त के केन्द्र में गोलकेन्द्र में दक्षिण सम स्थान और उत्तर समस्थानगत यष्टि स्थापन करना; दृढ़ (मजबूती से बन्धा हुआ) खगोल (पूर्वापरवृत्त याम्योत्तर वृत्तादि से निर्मित गोल) के केन्द्र में तथा चारों तरफ क्रान्तिवृत्त क्षितिजवृत्त याम्योत्तरवृत्त नाडीवृत्त त्मक भगोल को करना, इस भगोल में क्रान्तिबृत्त में जिस अंश में सूर्य है उस अंश में लकड़ी की वा लोहे की शलाका देनी चाहिये । उस शलाका को उदय क्षितिज से सूर्यवश से नाडीवृत्त से संलग्न कर शलाका की छाया जैसे केन्द्रगत हो वैसे यन्त्र को भ्रमण कराना चाहिये। शलाका से क्षिप्त रवि चिन्ह तथा क्षितिज के अन्तर में जो अंश है वह उन्नतांश कथित हैं । शलाका और क्षितिज के मध्य में शलाका संसक्त नाडीवृत्त और क्षितिजवृत्त के मध्य में उन्नत घटी होती है अर्थात् दिनगत घटी और दिनशेष घटी होती है । श्रीपति कथित गोलयन्त्र द्वारा रवि का उन्नतांश ज्ञान और उन्नत घटिका ज्ञान लल्लोक्त "अथ लग्नकाल सिद्धं पूर्वापरपरिकरोत्तरैर्नवभिः’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित प्रकार के सर्वया समानार्थक है, गोलाध्याय के यन्त्राध्याय में भास्कराचार्य ने भी ‘अपवृत्तग रविचिन्हं क्षितिजे धृत्वा कुजेन संसक्त’ इत्यादि से इसी तरह कहा है इति ॥८॥ इदानीं प्रकारान्तरेण यन्त्र सूर्याभिमुखे कथं समं धार्यमित्येतदर्थमाह । आयं समं तथा वा ज्या छाया मध्यगा यथा भवति । अग्नाविष्ट घटिका ज्यामध्यच्छायया भुक्ताः ।e सु. भा–यथा ज्याछाया धनुषो ज्यायाः पूर्णज्यायाश्छाया मध्यगा धनुषो यन्नाध्यायः १४२७ मध्यगा भवति तथा वा यन्त्रं समं धार्यम् । दृग्मण्डलाकारं घार्यं यथा तत्पाश्र्वयो रवेस्तुल्यं तेजो लगतीत्यर्थः। एवं ज्यामध्यच्छायया ज्याया धनुः पूर्णज्याया मध्ये ऽर्थात् केन्द्र स्थापित यः कीलस्तस्य छायया भुक्ता या अग्राद्धनुः कोटयग्रादङ्किता घटिकास्ता इष्टा घटिकाः स्युः । गोलयुक्तिरेव वासनाऽत्र ज्ञेया ॥९॥ वि. भा.-- यथा ज्याछाया (घनुषो ज्यायाः पूर्णज्यायाश्छायाः) धनुषो मध्यगा भवति तथा वा यन्त्रं समं घापें । दृग्मण्डलाकारं धार्यं यथा तत्पार्श्वयो रवेस्तेजो तुल्यं लगतींत्यर्थः। एवं ज्यामध्यच्छायया (ज्याया धनुः पूर्णज्याया मध्ये ऽर्थात् केन्द्र स्थापितो यः कीलस्तस्य छायया) भुक्ता अग्नान (चनुः कोटचग्रा दङ्किता) या घटिकास्ता इष्टा घटिकाः स्युः ।।९।। अब प्रकारान्तर से सूर्याभिमुख यन्त्र को कैसे रखा जाता है इस के लिये कहते हैं। हि. भा–जैसे धनुष की पूर्णज्या की छाया धनुष के मध्यगत होती है वैसे यन्त्र को समरूप से धारण करना । दृग्मण्डलाकार धारण करना जिससे उसकी दोनों बगल में रवि का तेज बराबर (तुल्य) लगता है । एवं धनुष की पूर्णज्या के मध्य में अर्थात् केन्द्र में स्थापित जो कील उसकी छाया से मुक्त जो धनुष के कोटघम्र से अङ्कित घटी है वह इष्टघटी है इति ।। इदानीं प्रकारान्तरेणेष्टघटिकां धनुः स्वरूपं चाह । घटिका स्वशङकुभागैः पृथगतैर्लम्बभूसमज्यार्धात् । साशीतिशतांशाझचास्यार्थे धनुर्न्त्रम् ॥१० सु. भा.-पृथग्गतैः स्वशङ्कुभागैलॅम्बभूसमज्यार्धाद्वा घटिकाः साध्याः। अत्रैतदुक्तं भवति । यदि स्वाभीष्टदिनेष्टकाले शङ्कुभागा एव विदितास्तदा धनुः कोट्घग्रात् तान् भागान् दत्त्वा तदग्राद्धनुज्र्या या भूमिस्तस्या उपरि लम्ब एव यो ज्यार्धात् ज्याखण्डतो भवति स शकुस्तस्मात् त्रिप्रश्नविधिनेष्टक्रान्तिचरादिनेष्टा न्यामवगम्य घटिका ज्ञेया इति । चक्रस्य वृत्तस्याधं साशीतिशताङ्क चार्जाशाङ्क धनुर्न्त्रं भवति ।। १० ।। वि. भा.-पृथग्गतैः स्वशङ्कुभागैर्लम्बसमज्याधं घटिकाः साध्याः । अर्थाद्यदीष्टदिनेष्टकाले शङ्कुभागा एव विदितास्तदा धनुःकोटयग्रात् तान् भागान् दत्वा तदग्राद्धनुज्र्या या भूमिस्तदुपरि लम्व एव यो ज्याखण्डतो भवति स शङ्कुस्तस्मात् त्रिप्रश्नाधिकार विधिनेष्टान्त्यां ज्ञात्वा घटिता ज्ञेयाः । चक्रHfiRrar ?nf^r: sre?«n 1 ff . fl?. — iffer 3 Sg+M if W^pTTT ft fafar ft rTST spT:fr^?T % wff (?reff) 5ft H^r % ?nr % eftt ^ srtt ft % g?n: fi" |, ^ar% Pw«iir*M>iO<* ftfw % ^6di«^ri «rw'+'< fg^rst' ?tr tf^dfckwMld^dl ^fcfT ^ffcT ^ ^stf: 1 JRT $8Hd*M *rfir यन्त्रध्यायः १४२९ दिनाघं घटिकाभिर्मध्योन्नतांशास्तदेष्टघटिकाभिः किमित्यनुपातेन य इष्टोन्नतांश आयान्ति तच्छाया वेधोपलब्धेष्टकालिकच्छाया समा न भवन्तीति तेषामानयन मसत् ॥ ११ ॥ वि. भा. - ये मध्यान्हकालिकोन्नतांशैदिनार्धनाड़ीतुल्या इष्टघटिकाः प्रकल्प्याभीष्टोन्नतांशैरनुपातेनेष्टा घटिका वदन्ति ते मूढः सन्ति । यतो यदि दिनार्धघटींभिर्मध्योन्नतांशास्तदेष्टघटीभिः किमित्यनुपातेन य इष्टोन्नतांश आयान्ति तच्छाया वेघोपलब्धेष्टकालिकच्छाया समान भवत्यतस्तदानयनं न समीचीनमिति । सिद्धान्तशिरोमणौ । चक्र चक्रांशाङ्क परिधः श्लथश्टङ्खलादिकाधारम् । धात्री त्रिभ आधारात कल्प्या भाषीऽत्र खाड़ी च ।। तन्मध्ये सूक्ष्माकं क्षिप्त्वाकभिमुखनैमिकं धार्यम् । भूमेरुन्नतभागास्तत्राक्षच्छायया भुक्ताः । तत्खार्धान्तश्च नता उन्नतलवसंगुणीकृतं युदलम् । युदलोन्नताँशभक्त नाडयः स्थूलाः परैः प्रोक्ताः ॥ व्याख्या-धातुमयं दारुमयं वा समं चक्र कृत्वा तन्नेम्यां शृङ्खलादिराधारः शिथिलः कार्यः । चक्रमध्ये सूक्ष्मं सुषिरमाधारात् सुषिरोपरिगामिनी लम्बवद्ध्वैरेखा कार्या । तन्मत्स्यतोऽन्या तिथंग खा च कार्या । तच्चक्रे परिधौ भगणांशैरञ्जयित्वाधारात् त्रिभ इति नवतिभागान्तरे तिर्यग्र खा तत्परिधि सम्पाते धात्री क्षितिः कल्प्या । भार्धेऽन्तर ऊध्र्वरेखा नेमिसम्पाते खाधं कल्प्यम् । सुषिरे सूक्ष्मा शलाका प्रदातव्या । सा चक्षसंज्ञा तच्चक्रमर्काभिमुखनेमिकं च यथा भवति तथाधारे धार्यम् । तथा श्रुतेऽक्षस्य छाया परिघो यत्र लगति तत्कुज चिन्हयोरन्तरे येऽशास्तेरवेरुन्नतांशाः। ये छायाखड्डयोरन्तरे ते नतशा ज्ञेयाः । एवमत्र नतोन्नतांशज्ञानं भवति । अतोऽन्यैर्घटिका अप्यानीताः । तस्मिन् दिने गणितेन मध्यदिनोन्नतांशान् दिनार्धमानं च ज्ञात्वानुपातः कृतः । यदि मध्यदिनो न्नतांशैदिनार्धनाड्यो लभ्यन्ते तदैभिः किमित्येवं स्थूला घटिकाः स्युः । अत्र पर वाकयम् । इष्टोन्नतांशा युदलेन निघ्ना मध्योन्नतांशैर्विदृचाश्च नाड्यः। दिनस्य पर्वापरभागयोश्च याताश्च शेषाः क्रमशो भवन्ति । वस्तुत एतस्य खण्डनमाचार्येण भास्कराचार्येण च यत् क्रियते तत्समीचीन मेवेत्याचार्योक्तरलोकव्याख्यायां द्रष्टव्यमिति ॥११॥ अब दूसरों के घनयन का खण्डन करते हैं । हि. भा.जो लोग मध्याह्नकालिक उन्नतांश से दिनार्ध घटी तुल्य इष्ट घटी १४३० कल्पना कर अभीप्ट उन्नतांश से अनुपात द्वारा इष्ट घटी कहते हैं वे भूखें हैं। क्योंकि यदि दिनार्ध घी में मध्योन्नतांश पाते हैं तो इष्ट घटी में क्या इस अनुपात से जो इष्ट उन्नतांश आते हैं उसकी छाया वेधोपलब्ध इष्ट कालिक छाया के बराबर नहीं होती है इस लिये उनका आनयन ठीक नहीं है इति । सिद्धान्त शिरोमणि में ‘उन्नतलवसंगुणीकृतं युदलम् शूदलोन्नताशभक्त नाङघः स्थूलाः परेः प्रोक्ताः’ इससे भास्कराचार्य ने भी अन्यों के घटिका नयन का खण्डन किया है। अन्य के वाक्य इष्टोन्नतांशा युदलेन निघ्ना मध्योन्नतांशुविह्वः नाश्व नाडयः’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित के अनुसार है । वस्तुतः इसका खण्डन आचार्य और भास्कराचार्य भी जो करते है सभीचीन है यह आचार्योक्त श्लोक के उपरिलिखित भाष्य से स्पष्ट है इति ।।११।। , । इदानीं यन्त्रेण नतोन्नतकालज्ञानमाह जीवां स्वाहोरात्रे परिकल्प्याग्रान्नतोन्नतत्रिज्याः अनुपातात् कार्यास्तुर्यगोलके चक्रके चैवम् ॥१२॥ सु. भा--स्वाहोरात्रे द्युज्यावृत्तेऽनुपाताद् द्वादश कोट्या पलकणंस्तदा शङ्कुकोटघा किमित्यनुपातात् जीवामिष्टहृतं प्रकल्प्य ततोऽग्राद्धनुः कोटघग्रान्न तत्रिज्याः कार्यास्त्रिज्यावशेन नतोन्नतकालौ कार्यो । अत्रैतदुक्तं भवति । इष्टहृति वोन त्रिज्यानुपातेनेष्टान्त्याः कार्याः । तत्र चरसंस्कारेण सूत्रमुत्पाद्य तत्सम ज्यां धनुषि दत्त्वा धनुरग्राद्या घटिकास्ताश्चरसंस्कृतोन्नतकालघटिकाः । ज्याया धनुर्यंन्त्राधरभागपर्यन्तं या घटिकास्ता नतकालघटिकाः। एवं गोलयुक्तिवशा न्न तोन्नतकालौ तुर्यगोलके तुरीये चक्र च भवत इति ॥ १२ ॥ वि. भा–स्वाहोरात्रे (युज्यावृत्ते) अनुपातात् द्वादशाङगुलशङ्कुना पलकर्णरत देशंकुना किमित्यनुपातेन समागतां हृतं जीवां परिकल्प्य ततोऽग्रात् (धनुःकोट्य ग्रा)नतोन्नतत्रिज्याः कार्याः। त्रिज्यावशेन नतोन्नतकाल काय, अर्थादिष्टहृतिवशेन त्रिज्यानुपातेने( इति त्रि इष्टान्या)धान्याः कार्या, तत्र वरज्या संस्कारेण सूत्रं ‘इष्टाष्टाचरज्या = सूत्रम्’ भवति । तत्तयां जीवां धनुषि दत्वा धनुरग्राद्य। घटिकास्ताक्षर संस्कृतोन्नतकाल घटिका भवंति । जवाया धनुः (चापं) यन्त्राघो भागपर्यन्तं या घटिकास्ता नतकालघटिकाः । एवं नतोन्नतकालौ तुरंगोलके (तुरीय यन्त्रे) चक्र (चक्रयन्त्रे) च भवत इति ॥१२॥ अब यन्त्र से नतकालज्ञान और उन्नतकालज्ञान को कहते हैं। हि. भा–युज्यावृत्त में अनुपात से ‘वादश कोटि में यदि पलकर्ण-कणं पाते हैं तो यन्त्राध्यायः १४३१ इष्टशङ्कुकोटि में क्या इससे इष्टहृति आती है, इष्टहृति को जीवा कल्पना कर तब धनुष के कोटयग्र से त्रिज्यावश से नतकाल और उन्नत काल साधन करना अर्थात् इष्टहृतिवश से त्रिज्यानुपात से इकृत्रित्रि =इष्टान्या' इष्टान्त्या लानी चाहिये, उसमें चरज्या संस्कार से इष्टान्या + चरज्या ==सुत्र, सूत्र होता है, एतत्तुल्यज्या को धनुष (चाप) में देकर धनुष के अग्र से जो घटी होगी वह चर संस्कृत उन्नतकाल घटी होती है, इससे उन्नत काल धटी का ज्ञान स्पष्ट हो है । ज्या के चाप यन्त्र के अधोभाग पर्यन्त जो घटी है वह नतकाल घटी है । इस तरह तुर्य यन्त्र में और चक्र यत्र में भी नतकाल और उन्नत काल विदित होते हैं इति ॥१२॥ इदानीं यन्त्रादेव नतीम्नतकालज्ञानमाह । दिनघटिकाद्वितयष्टेव्यंस्त नतज्याप्रमुन्नतज्यां च । दिङमध्ये च शलाक तच्छायाग्रान्नता नाडयः ॥१३॥ सुभाइ-दिनघटिकाङ्कितयष्टिद्युज्या तस्याः सकाशात् प्रतिघटिकं दिङ्- मध्यस्थापितशलाकाछाया प्रसाध्या सा रवितो व्यस्तदिक्का भवति । तत्र प्रति घटिकोन्नतकालसम्बंधिच्छायाग्रे तात्कालिकं नतज्यागं नतज्यामुन्नतज्यां नतकाल- मुन्नतकालं चाङ्कयेत् । एवमेकस्मिन् फलके प्रतिद्युज्यासम्बन्धिनीं नतकालाद्यङ्कितां भाभ्रमरेखामुत्पादयेत्। इष्टदिनेष्टकाले समधरातले यथा दिक्के स्थापिते फलके दिङ्मध्यशलाकाछायाग्रं तद्दिनसम्बन्धि भाभ्रमरेखायां यत्र लग्नं तत्राङ्किता नाडयो नता नाडघः स्युः । एवं तत्राङ्कितोन्नत कालादित उन्नतकालादिज्ञानं भवतीति गोलयुक्तितः स्फुटम् ।। १३ ।। विभादिनघंटिकाक्तियष्टिः (धुज्या) तस्याः सकाशात् प्रत्येकघटिकायां दिङ्मध्यस्थापित शलाकायाश्छायाः सध्यास्ता रवितो व्यस्ता (विपरीतदिक्कः) भवन्ति । तत्र प्रतिघटिकोन्नतकालसम्बन्धिछायाग्रे न तज्यागं नतज्यामुन्नतज्यां नत काल मुन्नतकालं चाङ्कयेत् । एव मेकस्मिन् फलके प्रतिद्युज्यासम्बन्धिनीं नतकाला- ङ्कितां भाभ्रमरेख रचयेत् । इष्टदिने इष्टकाले समधरातले यथादिक्के स्थापिते फलके दिङ मध्यशलाका छायाग्र तद्दिनसम्बन्धि भाभ्रमरेखायां यत्र लगति तत्राङ्किता नाडयो (घटिकाः) नता नाड्यः (नतघटिका) भवन्ति एवमेव तत्राङ्कितोन्नतकालादित उन्नतकालादिज्ञानं भवतीति ॥१३॥ अब यन्त्र ही से नतकलज्ञान और उन्नत कालज्ञान को कहते हैं । हि. भा–दिन घटी से अङ्कित यष्टि (युज्य) से प्रत्येक घटी में दिङ्मध्य (वृत्त १४३२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते केन्द्र) स्थापित शलाका की छायाएँ साधन करनी चाहिये । वे रवि से विरुद्ध दिशा की होती हैं । वहां प्रत्येक घटी के उन्नतकाल सम्वन्धी छायाग्र में नतकाल और उन्नतकाल को अङ्कित करना । एवं एक फलक में प्रति युज्या सम्बन्धी नतकाल से अङ्कित (चिन्हित) भाभ्रम रेखा बनानी चाहिये । इष्टदिन में इष्टकाल में समधरातल में यथादिशा में स्थापित फलक में दिङ,मध्यशलाका का छायाग्र उस दिन सम्वन्धी भाभ्रमरेखा में जहां लगता है वहां अङ्कित नाड़ी (घटीं) नतनाड़ी (नतबट) होती है । इसी तरह उसमें अङ्कित उन्नतकालादि से उन्नत कालादि ज्ञान होता है इति ।१३। इदानीं धनुर्यन्ने विशेषमाह । धनुषः पृष्ठे द्रष्ट्रा वेध्या ज्यामध्य संस्थया दृष्टया । इष्टान्तरं नतज्या धनुषि च्छायोन्नतज्यायाः ॥१४॥ ज्यार्धे दृष्टेर्ह' ग्ज्यां नतजीवांशं कुमुन्नतज्यां च। षि प्रकल्प्य योज्यं यद्युक्त' नाडिकाडु च ।१५।। सु. भा.- द्रष्ट्रा पुरुषेण धनुषः पृष्ठे ज्यामध्यसंस्थया पूर्णज्यो परिस्थापित नलकरन्ध्रगतया दृष्टया इष्टग्रहयोरन्तरम् । उन्नतज्यायाः सकाशात् धनुषि यन्त्रे नतज्या छाया चेत्यादि सर्वं पदार्था वेध्याः। एवं धनुषि धनुर्यन्त्रे दृष्टेज्यार्धमेव दृग्ज्यां नतजीवांशं नतभागान्। कु भूमिपर्यन्तमर्थात् यन्त्रे कल्पितक्षितिज पर्यन्त मुन्नतज्यां च प्रकल्प्य यन्नाडिकाद्यमुपयुक्तमस्ति तत् सर्वं योज्यं गोलयुक्तितः। तथैव यन्त्रचिन्तामण्यादौ तुरीययन्त्रेऽतािश्चोन्नतांशादयः प्रसिद्धाः सिद्धान्त विदास् ॥ १४-१५॥ वि भान्द्रष्टु (दर्शकेन पुरुषेण) धनुषः पृष्ठे, ज्यामध्यसंस्थया (पूर्ण- ज्योपरिस्थापितनलकरन्ध्रगतया) दृष्टया, इष्टान्तरम् (इष्टग्रयोरन्तरम्), उन्नतज्यायाः सकाशात् धनुषि (घनुणैन्) नतज्या, छाया चेत्यादयः सर्वे पदार्थों ज्ञातव्याः । एवं धनुर्यंन्त्रे दृष्टेज्यर्धमेव दृग्ज्यां-नतजीवांशं नतांशान् कुं (भूमिपर्यन्त मर्थात् यन्त्रे कल्पितक्षितिजपर्यन्तं) उन्नतज्यां च प्रकल्प्य यन्नाडिकाद्यमुपयुक्त तत्सर्वं गोलयुत्तथा योज्यम् । तुरीययन्त्रे तथैवोन्नतांशादयोऽङ्किता यन्त्रचिन्ता मण्यादि ग्रन्थे सन्तीति ॥ १४-१५॥ अब घनुयन्त्र में विशेष कहते हैं । हि- भा.-दर्शक पुरुष को वनुष के पृष्ठ में पूर्णज्या के ऊपर रथापित नलकरन्ध्रगत दृष्टि से इष्ट दो ग्रहों का अन्तर तथा घनुयंत्र में उन्नतज्या से नतज्या-छाया इत्यादि सब पदार्थ जानने चाहियें । एवं धनुर्न्त्र में दृष्टि से ज्यार्घ को दृष्या नतांश को यत्र में यन्त्रध्यायः १४२३ कल्पित क्षितिज पर्यन्त उन्नतज्या मानकर जो नाडिकादि उपयुक्त हैं उन सबों को काम में लाना चाहिये । तुरीय यन्त्र में उसी तरह उन्ततांशादि अति है यन्त्र चिन्तामणि आदि ग्रन्थों में स्फुट है इति ॥१४-१५॥ इदानीमन्यं विशेषमाह । अबलम्बनं शलाकांज्यार्थं यष्ट प्रकल्प्य वा धनुषि । भूम्युच्छायाल्लम्बो यष्टयुक्तं रानयेत् करणैः ॥१६॥ सु. भा–वा धनुषि धनुर्मेन्द्र केन्द्रगां शलाकामवलम्वनमवलम्वसूत्रे ज्याउँ चापानां ज्यार्धानि शलाकाप्रोत यष्टिं च प्रकल्प्य यष्टयुक्त यंष्ट्यादिभिरुदितैः करणैः साधनैभृम्युच्छायात् क्षितिजोच्ङ्गायाल्लम्बः शङ्कुभागादीन् गणक आन- येव । आचार्योक्तित एव तथैव भास्करेण फलकयन्त्रे सर्वे रचितमिति ।। १६ ।। वि. भा--वा धनुर्न्त्रे केन्द्रगतां शलाकामवलम्बसूत्रचापानां ज्यार्धानि शलाकां श्रोतां यष्टि च प्रकल्प्य यथ्यादिभिः कथितैः साधनैः क्षितिजोङ्काया लम्बः शङ्कुभागादीन् गणक आनयेत् । सिद्धान्तशिरोमणौ ‘कर्तव्यं चतुरस्रकं सुफलक' मित्यादि फलकयन्त्ररचनावैशद्यमाचार्योक्तमिदं संक्षिप्तमादर्शमादाय भास्कराचार्येण प्रतिपादितमिति ॥१६i। अब अन्य विशेष कहते हैं । भा-अथवा बनुयंत्र में केन्द्रगतशलाका को अवलम्बसूत्र, चाप के ज्यार्ष शलाका श्रोत (पहराई हुई) यष्टि मान कर यष्टघादि से कथित साधनों से क्षितिज के उच्ज्ञा य से उन्नतांशादि को गणक लावेसिद्धान्तशिरोमणि में ‘कर्तव्यं चतुरस्रकं सुफलकं’ मित्यादि फलकयन्त्र रचना का स्पष्टीकरण भास्कराचार्य ने आचयोंक्त इस संक्षिप्त आदर्श को लेकर किया है इति ॥१६॥ इदानीं तुचेंगोलमाह । अन्तिमंशनवत्या धनुषोऽधं तुर्यगोलकं यन्त्रम् । घटिकानतोन्नतांश प्रहान्तरार्धे घनुर्वेदिह ॥१७॥ सुः भा--धनुषोऽधै कोदण्डखण्डमंशनवत्याङ्कितं तुर्यगोलकं यन्त्रं भवति । इहात्रापि धनुर्न्त्रवघटिकानतोन्नतांशग्रहान्तराञ्च सिध्यति ।। १७ ।। वि. भा.- धनुषोऽर्ध (कोदण्डखण्डं) अंशनवत्याऽङ्कितं कार्यं तत्तुर्यगोलकं यन्त्रं भवति, अत्रापि धनुर्न्त्रवत् घटिकानतोन्नतांशग्रहान्तरात्रं सिध्यतीति । १४३४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते कथमेतेन यन्त्रेण नतोन्नतांश ज्ञानं भवतीति प्रतिपाद्यते । नतोन्नतांशज्ञानार्थमुपपत्तिः । केन्द्ररन्ध्रद्वारा कजरनम्र रविकिरणो यथा ॐ विशेत्तथा यन्त्रं धार्यम् । है (का र= रविबिम्वम् । तत्तेजः ‘के’ बिन्दु द्वारा 'कु' दृष्टिबिन्दौ निर्गच्छति । तथा यन्त्रे स्थिरीकृते ग्रहें क्षितिजस्थे सति, यदि कु दृष्टिस्थानमपि क्षितिजस्थं ॐ भवेत्तदा केग ऊध्र्वाधरसूत्रमवलम्बसूत्रम् । कुजादू गN + ध्र्वस्थे ग्रहे तथोक्तबद्यन्त्रे स्थिरीकृते केग ऊध्र्वाधर रूपं न भवेदपि-ऊध्र्वाधररूपं= केप, तत्समानान्त रम्=कुछ सूत्रमप्यूध्वाधररूपम् । ततः उकुके=<कुकेच, परं< ऊचुके = नतांशाः, अतः <पकेग = उन्नतांशाः। सिद्धान्ततत्त्वविवेके "धातुजं दारुजं वा यत् यन्त्र बुद्धिमता कृतम् । तस्य केन्द्रकुजोध्वेस्थे रन्धे कार्ये समान्तरे ।। कुजरन्ध्रस्थदृष्टयवं केन्द्ररन्ध्रगतं ग्रहम्। खस्थं विध्वाऽथ तद्यन्त्र कार्यं दृग्वृत्तवदबुधैः । व्याख्या—तस्य यन्त्रस्य केन्द्रकुजबिन्द्वोरुर्वेस्थे समान्तरे रन्नै (छिद्र) कायें, अर्थात् कुजरेखा तु नलिकारूपा कार्या, तथा कृते कुजरन्थे दृष्टिं निवेश्य दृग्वृत्तधरातले तथैतद्यन्त्र धार्यं, यथा सा नलिकारूपा कुजरेखा, ग्रहगर्भ दृष्टिसूत्रं भवेत्तदैव आकाशस्थं ग्रहं केन्द्ररन्ध्रगतं पश्येदिति । अत्र यन्त्रमधोमुखं परिवर्षे निवेशितम् । अथवा केन्द्ररन्त्रेण माजरन्तुं विशेद्यथा । अर्कतेजस्तथा यन्त्र धार्यंमर्कमुखं सदा । अर्कोदये भवेत् खस्थं लम्बसूत्र यथा यथा ।। वियत्यर्कः कुजस्थानादुन्नतरच तथा तथा । यन्त्रे खतश्च तत्सूत्र ' नेम्यंशैश्चलितं भवेत् ।। अतः खदुन्नतांशाश्च ज्ञेया भजानतांशकाः। तज्ज्यके शङकुदृग्ज्ये व यन्त्रे दृग्वृत्तवत् स्थिते ।” कमलाकरेणैवं यन्त्रद्वारोन्नतांशनतांशयोर्जानं प्रतिपादितम् । तथा यन्त्रचिन्तामणौ "केन्द्रोध्र्वरन्भेण यथाऽर्कतेजः क्ष्माजोध्र्वरन्तुं प्रविशेत्तथैव । घार्यं तु केन्द्रादवलम्बभागज्या दृग्ज्यका स्यान्नतशिञ्जिनी वा ।" कमलाकरोक्तसदृशमेवोक्तमस्तीति ॥१७॥ यन्त्राध्यायः १४३५ अब तुर्यगोल को कहते हैं । हि- भा-धनुष (चक्रार्ध) के आधे भाग (कोदण्डखण्ड) को नब्बे अंश से अङ्कित करने से वह तुर्यगोलक नाम का यन्त्र होता है यहां भी धनुर्न्त्र की तरह घटी, नतांश, उन्नतांश’ ग्रहान्तरादि सिद्ध होता है । इस यन्त्र से नतांश और उन्नतांश ज्ञान कैसे होता है उसके लिये उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये । केन्द्र छिद्र द्वारा क्षितिजस्थ रन्ध्र (छिद्र) में रविकिरण जिस तरह प्रवेश करे उस तरह यन्त्र को धारण करना चाहिये। र=रवि बिम्ब । उनके तेज ‘के’ बिन्दु द्वारा 'कु' दृष्टि बिन्दु में निकलता है । यन्त्र को स्थिर करने से ग्रह के क्षितिजस्थ रहने पर यदि 'कु' दृष्टिस्थान भी क्षितिजस्थ हो तब केग ऊर्वाधर सूत्र अवलम्ब सूत्र होगा । क्षितिज से ग्रह के ऊपर रहने से पूर्ववत् यन्त्र को स्थिर करने से केग ऊध्र्वाधर रूप न हो तथापि ऊध्र्वाधररूप=कैप, उसके समानान्तर=कुक सूत्र भी ऊध्र्वाधर रूप है तब <अङ्के=<ङ्केचलेकिन अकुके=नतांश, अत:<पकेग = उन्न तांश । सिद्धान्त तत्त्व विवेक में ‘घतुजं दारुजं वा यत् यन्त्र बुद्धिमता कृतम्’ इत्यादि तथा "अथवा केन्द्ररन्ध्रण क्षमाजरन्थं विशेद्यथा । अर्कतेजस्तथा यन्त्र धार्यमर्कमुखं सदा’ इत्यादि श्लोकों से कमलाकर ने उपर्युक्त उपपत्ति से यन्त्र द्वारा नतांश और उन्नतांश का ज्ञान कहा हैं। तथा यन्त्र चिन्तामणि में ‘केन्द्रोर्वरन्भेण यथाऽर्कतेजः क्ष्माजोध्वंरन्त्रं प्रविशेत्तथैव' इत्यादि से कमलाकरोक्त के सदृश ही कहा गया है इति ।।१७। । इदानीं चक्रयन्त्रमाह । परिघो भगणांशाहू मनान्तं चक्रतो विद्ध वा। चक्रकयन्त्र मध्याल्लम्बोऽत्र फलं धनुस्तुल्यस् ।१८।। सु. भा–चक्रकयन्त्रं परिधौ मीनान्तं द्वादशराश्यकं भगणशाङ्क च कार्यम् । अत्र परिधौ कल्पिताधरमध्याल्लम्बः कार्यः। अस्माच्चतश्चक्रयन्त्रा दुग्रहादीन् विद्ध वा फलं धनुस्तुल्यं धनुर्न्त्रसमं भवति । विशेषार्थं भास्करचक्रयन्त्रं तदीयगोलयन्त्राध्याये चिन्त्यम् ॥ १८॥ वि. भा. चक्रकयन्त्रपरिघौ भगणांशाङ्क मीनान्तं (द्वादशराश्यह्) च कार्यम् । अत्र (चक्रकयन्त्र) परिधौ कल्पिताऽधारमध्याल्लम्बः कार्यः । अस्माच्चक्रतः (चक्रयन्त्रात्) ग्रहादीन् विद्ध्वा फलं धनुस्तुल्यं (घनुयन्त्र सम ) भवतीति । सिद्धा ‘कृत्वा सुवृत्तं फलकं हि षष्टया चक्रांशकैश्चाङ्कितमत्र मध्ये । लम्बस्तश्राव सुषिरेण यद्वत् केन्द्रोऽर्करश्मिः पततीति दध्यात् । १४३६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते लम्बेन मुक्ता रविभागतोंऽशास्तत्रोदितास्ते घटिकास्तु याताः। चक्रारव्यमेतद्दलमस्य चापं ज्यामध्यरन्ध्र स्थित लम्बमेतत् ।” श्रीपतिनैवमुक्तम् । सुवृत्तं फलकं षष्ट्या चक्रांशैश्चाङ्कितं कृत्वा । अयमर्थः-सुसरलससारदारुजातं वर्तुलं पीठाकारं यन्त्र निर्माय तत्र (यन्त्रे) घटिकाज्ञानार्थं षष्टिविभागाः । अंशादिज्ञानार्थं च षष्ट्यधिकशतत्रयं ३६०विभागाः कार्याः । अस्मिन् यन्त्रे मध्ये (केन्द्रबिन्दौ) अवलम्बयष्टिः—देयः । यद्वत् अवलम्ब यष्टिमूलगतयन्त्रच्छिद्रण, अर्करश्मिः (सूर्यबिम्बकेन्द्रतेजः) यन्त्रकेन्द्र पतति इत्यनेन विधिना यन्त्र स्थापयेत् । लम्बेन (अवलम्बषष्टया) मुक्ताः (त्यक्ता) ये भागास्ते सूर्याधिष्ठितांशात् उदिता भागाः स्युः । घटिकास्तु अवलम्बभुक्ता व्यतीता घटिकाः स्युः । अनेन प्रकारेण निमितं यन्त्र चक्रयन्त्र स्यात् अस्य चक्र- यन्त्रस्याधं चापसंज्ञकं यन्त्र भवति । एतच्चापयंत्र ज्यामध्यरन्ध्रस्थितलम्बं कार्यं चक्रयन्त्ररूप वृत्तस्यार्धभागझरिण्या व्यासरेखाया मध्ये रन्तुं तत्र लम्बश्च देयः। वृत्ताकारकाष्ठयन्त्र षष्टिघटीभिः षष्ट्यधिकशतत्रयां ३६० शैश्चाङ्कितं कृत्वा मध्ये स्वल्परन्थं तद्गतावलम्बयष्टिकं च सूर्याभिमुखं तथा स्थापितं यथैतद्यन्त्र वधतं सत् सूर्यबिम्बकेन्द्रगतं भवेत् । तत इदं हवृत्तानुरूपं जातम् । एतत्केन्द्र लम्बरूपाया यष्टेछाया तत्परिधौ यत्र लगति स बिन्दुः सूर्यकेन्द्रविन्दोः षड्भान्तरे भवेत् । अत्र सूर्योदयकाले सूर्याधिष्ठितांशात् षड्भान्तरे पश्चिम बिन्दावेवावलम्बच्छाया यन्त्रपरिधौ लगति । ततोऽनन्तरं सूर्यो यथा यथोपरि गच्छति तथा तथा लम्बच्छाया पश्चिमबिन्दोरघो गच्छति, त एव लम्बमुक्ता अशास्ते सूर्याधिष्ठितांशात् आरभ्योन्नतांशा एव । घटिकाभिश्चाङ्कितं यन्त्रमिति यन्त्रमुक्ता घटिकाः सूर्योदयाद् गतघटिका इति । एतचक्रयन्त्रस्याधं वृत्तार्घरूप चापयन्त्रमिति । तत्रापि वृत्तार्धकरिष्या व्यासरेखाया मध्ये सूक्ष्मं छिद्र चक्रयन्त्र वल्लम्बश्च देयः । चक्रयन्त्रवदेवेहोन्नतांशानामुन्नतघटिकानां च ज्ञानं वृत्तावुदेव क्रियते । अत्र लल्लोक्तम् “वृत्तं कृत्वा फलकं षड्वर्गाङ्क तथा च षट्चकम् । मध्यस्थितावलम्बं मध्यस्थित्या प्रविष्टोष्णम् । तदधो लम्बविमुक्त गृहादि यत्तदुदितं दिनकरांशात् । नाडयः पूर्वकपाले घुगतास्ताः पश्चिमे युदलात् ।। चक्राख्यं यन्त्रमिदं दल धनुर्न्त्रमाहुरस्यैव । ज्याकार्मुकभृच्छिद्रप्रविष्टदिनकरकरें घायम् ॥ यन्त्राध्यायः १४३७ मध्यस्थ लम्बमुक्ताः कोटेरारभ्य नाडिका थुगताः । उदितारच दिनकरांशादारभ्य भवन्ति गृहभागाः ॥ “ इति श्रीपतिना छन्दोऽन्तरेणोक्तमिति स्फुटमेव गणकानाम् । भास्कराचा येणापि “‘चक्र चक्रांशाङ्क परिघौ श्लथभृङखलादिकाधारम् । धात्रीत्रिभ आधारात् कल्प्या भाधऽत्र खाधं च । तन्मध्ये सूक्ष्माकं क्षिप्ताऽकभिमुखनेमिकं धार्यम् । भूमेरुन्नतभागास्तत्राक्षच्छायया भुक्ताः । तत्सार्धान्तश्च नता उन्नतलवसंगुणीकृतं युदलम् । द्यदलोन्नतांशभक्त नाडयः स्थलाः परैः प्रोक्ताः । “ इत्युत्तया चक्रयन्त्र तथैव कथितं सिद्धान्तशिरोमणेर्वासनाभाष्यान्मिताः क्षराच्ीपतेराशयोऽपि विविच्य विज्ञनिरूपणीय इति ।१८। अब चक्र यन्त्र को कहते हैं । हि. भा–चक्रयन्त्र परिधि में भगणांश को अङ्कित करना चाहिये, और द्वादश राशि (बारहों राशि) को भी अङ्कित करना चहिये । इस चक्रयन्त्र परिचि में कल्पित आधार मध्य से लम्व करना चाहिये । इस चक्रयन्त्र से ग्रहादियों को वेध कर फल धनुर्न्त्र के बराबर होता है । सिद्धान्तशेखर में “कृत्वा सुवृत्तं फलकं हि पङ्घा चांशकैश्चाङ्कित मत्र मध्ये’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों के अनुसार कहा है, श्लोकों का अर्थ यह है--सरल सार वाली लकड़ी के वर्तुलाकार यन्त्र बनाकर उस यन्त्र में घटी ज्ञान के लिये साठ विभाग और अ श ज्ञान के लिये तीन सौ साठ विभाग करना चाहिये। इस यन्त्र के केन्द्रबिन्दु में अवलम्ब यष्टि देनी चाहिये जैसे अवलम्बयष्टिमूलगत यन्त्रछिद्र से सूर्य बिम्ब के तेज यन्त्र केन्द्र में पतित हो इस तरह से यन्त्र को स्थापन करना चाहिये। अवलम्ब यष्टि से व्यक्त जो भाग वे सूर्याधिष्ठित अंश (जिस अंश में सूर्य है) से उदित भाग होते हैं । और घटी व्यतीत (गत) घटी होती है । इस चक्रयन्त्र का आधा चाप संज्ञक यन्त्र होता है । चक्रयन्त्ररूप वृत्त को आधा करने वाली व्यास रेखा के मध्य में रन्ध्र (छिद्र) करना और उसमें लम्ब देना। उपपत्ति । वृत्ताकार काष्ठ के यन्त्र में साठ घटी को और तीन सौ साठ अंश को अङ्कित मच्य में छोटा छिद्र कर तद् गत अवलम्बयष्टि को सूर्याभिमुख इस तरह रखना चाहिये जिससे यन्त्र को बढ़ाने से सूर्यबिम्ब के केन्द्र में चला जाय । इखलिये वह डमण्डलाकार १४३८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते हुआ । इसके केन्द्र में लम्बरूपयष्टि की छाया उसकी परिधि में जहां लगती है वह बिन्दु सूर्यकेन्द्र बिन्दु से षड्भान्तर (छः राशि अन्तर) पर होता है । सूयोदयकाल में सूर्याधिष्ठित अंश (जिस अंश में सूर्य है) से षडभान्तर (छः राशि अन्तर) पर पश्चिम बिन्दु ही में अवलम्ब की छाया यन्त्र परिधि में लगती है, उसके बाद ज्यों-ज्यों सूर्यं ऊपर जाते हैं त्यों त्यों लम्ब की छाया पश्चिम बिन्दु से नीचे जाती है । वही लम्ब से त्यक्त अ श है, वह सूर्याधिष्ठित अंश से लेकर (आरम्भकर) उन्नतांश ही है । यह यन्त्र घटिकाओं से अङ्कित है । इसलिये यन्त्रमुक्त (यन्त्र से त्यक्त) घटी सूर्योदय से गत घटी है । इस चक्रयन्त्र का श्राधा वृत्तार्ध रूप चाप यन्त्र होता है । उस चाप यन्त्र में भी वृत्त की अधंकारिणी व्यास रेखा के मध्य में सूक्ष्म छिद्र और तगत लम्ब चक्र यत्र ही की तरह देना चाहिये चक्र यत्र के । अनुसारीही इस चाप यन्त्र में भी वृत्तार्घ ही से उन्नतांश और उन्नतांश और उन्नत घटी का ज्ञान करते हैं । शिष्यधीवृद्धिद तन्त्र में वृत्तं कृत्वा फलकं षड्बर्गाङ्क तथा च षष्टधकम्’ इत्यादि विज्ञान में लिखित, लल्लाचार्योक्त श्लोकों के आशय को श्रीपति ने श्लोकान्तर भाष्य से कहा है । सिद्धान्तशिरोमणि के गोलाध्याय में ‘चक्र चक्रांशाक परिधौ श्लथश्रृंखला चिकाधारम्’ इत्यादि श्लोकों से भास्कराचार्य ने भी चक्रयन्त्र उसी तरह कहा है इति ॥१८॥ इदानीं यष्टयाशङीबाद्याह यष्टिस्तिर्यग्धार्या नष्टच्छायावलम्बकः शङ्कुः । दृग्ज्यान्तरममुपातात् स्वहोरात्रार्धमग्ना च ।१e सु. भा.–क्षितिजवृत्तकेन्द्रगता यष्टिस्तथा धार्या यथा सा नष्टच्छाया स्यात् । एवं यष्टिव्यासार्धभवगोले यष्टघग्रे रविकेन्द्र भवति तस्मात् क्षितिजोपरि योऽवलम्बकः स शङ्कुरैवति । यष्टिमूलाच्छङ्कुमूलपर्यन्तमन्तर दृग्ज्या भवति । अनुपातात् यष्टेरनुपातात् स्वाहोरव्यासाधं द्यज्या तथाऽग्रा च साध्या । उदयकाले रविकेन्द्रोपरि यष्टयनुपातेनार्थाद्यष्ट्यग्रप्रपातेन क्षितिजे तत्प्राग् बिन्द्वन्तरमग्नांशाः ततः पलकर्णेन द्वादशकोटिस्तदाऽग्रया कि जाता क्रान्तिज्या। तत्कोटिज्या युज्या प्रसिद्धेव । ‘यष्टयग्राल्लम्बोना ज्ञेया दृग्ज्या मॅकेन्द्रयोर्मध्ये' इति तथा उदयेऽस्ते यष्टयग्रप्राच्यपरा मध्यमग्रा स्यात् --इति च भास्करोक्त चिन्त्यम् ॥ १६ ॥ वि.भा.-क्षितिजवृत्तकेन्द्रगता यष्टिस्तथा धार्या यथा सा नष्टद्युतिर्भवेत् । एवं यष्टिव्यासाधत्पन्नगोले यष्ट्यग्र रविर्भवति, रविकेन्द्रात् क्षितिज धरातलो परि योऽवलम्बकः सशङ्कुर्भवति । यष्टिमूलाच्छङ,कुसूल पर्यन्तं दृग्ज्या भवति । यष्टेरनुपातात् स्वाहोरात्रार्थं (द्युज्या) अग्रा च साध्या। यष्टयग्रपूर्वापर रेखयो रन्तरं त्रिज्यावृत्ते ज्यार्धवत् स्थितम् ।साग्रा ज्ञेया। ततः पलकर्णेन द्वादशकोटि स्तदाऽग्रया कि जाता क्रान्तिज्या, ततः त्रि’ –क्रांज्या'=द्युज्या, “थट्याग्राल्ल ff. >7r.— f^%3r|rT^OT?r *rfe ercf wrr ^Tfp fsra% §5Fnr%f §Ht 1 1 sfe % srt^t (t^t) % ?sn$kMi«r ott snrc ^rht 5# ft*§ ?f^n; ?i?rr |, era - m<h+^ t qfe st^r ^fife <tt% | €t mrr if wr w
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^ *re*?rt ?i^prr ^rr <tc!]Nt crar feffaft st^tti^ «re^ff^ ?rf^ ittRWik i T^f^ *rfe ^rr fern s*n^ crt^?r fata" १४४० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते यष्टिव्यासार्धगोले यत्र यष्टिर्नष्टशूतिर्जाता तत्र यष्टिः स्थिरा कार्या । क्षितिजेऽग्रायास्त द्यष्ट्यग्रस्य च यदन्तरं तत्समा या पूर्णज्या तया द्वितीयवृत्ते (युज्यावृत्ते) यद्धनु (चापं) र्भवेत्तस्मिन् धनुषि (चापे) या घटिकास्ताः पूर्वकाले गताः, अपरतः पश्चिमकपाले) शेषाः (दिनशेषाः) घटिकाः स्युः । यद्येकस्मिन् दिने द्युज्या स्थिरा भवेत्तदैवानेन विधिना कालज्ञानं भवितुमर्हतीति । सिद्धान्तशेखरे ‘संसाधिताशं कृतचक्रभागं विधाय वृत्तं समभूप्रदेशे त्रिज्याङगुलाङ्कां सुसमां च यष्टिं नष्टद्युत तज्जठरे निदध्यात् । तदग्रलम्बः खलु शङ्कुरुक्तस्तन्मूलकेन्द्रस्तरमत्र दृग्ज्या । पूर्वापरात्तद्विरं भुजः स्याछ वग्रमस्तोदयसूत्रमध्यात् । शङ्क, वग़मीर्गुणितं विभक्त तल्लम्बकेन स्फुटमक्षभा स्यात् । अग्राग्रभागान्नतकालमौवीं कार्यंहे खल्वङ,गुलवृत्तजाता श्चोपतिनैवं कथ्यते; एतेषामयमर्थः-समपृथिव्यां पूर्वादिदिशां ज्ञापकंधिन्हैः सहितं षट्यधिकशतत्रयमिताः समाना भागाः कृता यस्मिन् तत्-एतादृशं वृत्तं विधाय तज्जठरे (मध्ये-केन्द्र वा) स्वेच्छानुसारं यावदङ,गुलतुल्या त्रिज्या कल्पिता भवेत्तावद्भिरङ्गुलचिन्हैलिन्हितां सर्वतोऽपि निम्नोन्नतभावरहितां छायाहीनाम थत् सूर्याभिमुखं यष्टिस्तथा स्थापिता भवेद्यथा स्वमार्गे वर्धिता सती सूर्यबिम्ब केन्द्र गच्छेत्तादृशीं यष्टि धारयेत् । यष्टयग्रात् भूपरि पात्यमानोलम्बः शङ्कुः। अस्मिन् वृत्ते शङ्कुसूलकेन्द्रान्तरं दृग्ज्या (नतांशज्या) भवति । पूर्वापरस्त्राच्छ कुमूलस्यान्तरं भुजसंज्ञको भवति । उदयास्तस्त्राच्छङ्कुमूलं यावच्छङ क्वग्र संज्ञकस । अस्य नाम भास्करेण शङकुतलं कथ्यते । शङ् वन (शङ्कृतलं) द्वादशभिर्गुणितं पूर्वकथितलम्बेन (, कुना) विभक्त तदा स्फुटा पलभा स्यात् । स्वदेशसम्बन्धिनी पलभा भवतीति । अग्राग्रबिन्दोरत्र अङ गुलवृत्तजाता नतांशज्या कार्या । प्रथमं त्रिज्यारूपा यष्टिर्यावन्मिताङ्गुला रचिता तदङ्गुलव्यासार्घवृत्त सम्बन्धिनी इग्ज्या कर्तव्येति समायां भुवि कृतदिचिन्हं भगणांशाङ्कितं च यद्वैतं तत् क्षितिजवृत्तम् त्रिज्याङगुला यष्टिस्त्रियास्वरूपा । सा नष्टद्युतिर्यथा भवेत्तथा घार्या, येन यष्टवर्गों वधतं सद्रविबिम्बकेन्द्र गच्छेत् । नष्टद्युतेयंष्टेरग्रादधो यावान् लम्बस्तावांस्तस्मिन् समये शङ्कुः। त्रिज्यारूपाया यष्टेः शङ्कुरूपलम्बस्य च वर्णान्तरमूलं नतांशज्ये (दृग्ज्या) ति शङ् कृमूवुलत्तकेन्द्रयोरन्तररूपेति । शङ्कुसूलपूर्वापररेखयोरन्तरं भुजः । अग्राग्रयोः (पूर्वापर दिग्गतयोरुपरिगता रेखोदयास्तसूत्रम्) उदयास्तसूत्रस्य शङ्कुमूलस्य चान्तरं शङ् वन शङकुतलनाम्ना प्रसिद्धम् । तदा शंङ कुना यन्त्राध्यायः १४४१ यदिशङकुतलं भुजो लभ्यते तदा द्वादश शङ्कुना किमित्यनुपातेन समागच्छति पलभा । अग्नाग्नबिन्दोरङशुलवृत्तजाता नतज्या उन्नतज्या वा कायंत्यस्यायमाशयः। शङ कुमूलयष्टिमूलयोरन्तरं दृग्ज्या तत्स्वरूपं प्रथममुक्तम् । अत्र तु नतांशज्या, अग्राग्रबिन्दोः यष्टचङ गुलमानानुसारेणाङ्गुलात्मकप्रमाणवती आनेया । शङ्कु- मूलयष्टिमूलयोरन्तरे एक सरलशलाकां धृत्वा तामङ्गुलेन मापयित्वा तन्मानं ज्ञेयमिति । अत्र लल्लोक्तम् दिङ्मध्यस्थितमूला यष्टिनंप्रभा त्रिगुणतुल्या । धार्या तदीयलम्बककाष्ठांशा वोदिता भागाः । यष्टिस्त्रिज्याकणं लम्बोना कृतिविशेषपदमनयोः। दृग्ज्या छाया प्राक्पर लम्बनिपातान्तरं वाहः । । प्रागपराग्रासक्त सूत्रं शवन्तरं हृतं सूर्यः । यष्टयवलम्बवभक्त यष्टयवलम्बेन विषुवद् भा।।' इति । भास्करोक्त च “त्रिज्याविष्कम्भाषं वृत्तं कृत्वा दिगकितं तत्र । दत्वाऽग्रां प्राक् पश्चाद् युज्यावृत्तं च तन्मध्ये ।। तत्परिधौ षष्टघ' यष्टिर्नष्टद्युतिस्ततः केन्द्र । त्रिज्याङगुला निघेया यष्ठयाग्रान्तरं यावत् । तावत्या मौव्यं यद् द्वितीयवृत्ते धनुर्भवेत्तत्र । दिनगतशेष नाडयः प्राक् पश्चात् स्युः क्रमेणवम् ।। ’ इति सर्वथा श्रीपयुक्तसममेवेति ।२०-२१॥ अब यष्टियन को कहते हैं। हि. भा–समान पृथ्वी में यष्टि व्यासाधे से वृत्त लिखकर इसके मध्य में खुल्या व्यासार्ध से एक केन्द्रिक अन्यद्युज्या वृत्त लिखकर इसकी परिधि में साठ घटी अङ्कित करनी चाहिये । अनन्तर यष्टिच्यासार्धगोले जहां यष्टि नष्टद्युति (छाया रहित) हुई है वहां यी को स्थिर करना। क्षितिज में उस यष्टघम का और अग्रा का जो अन्तर है तत्तुल्य पूर्णज्या से द्वितीयवृत्त (द्यज्यावृत्त) में जो चाप हो उस चाप में जो घटी है वह पूर्वेपाल में दिनगत घटी होती है और पश्चिमकपाल में दिनशेषघटी होती है । यदि एक दिन में युज्या स्थिर मानीय अर्थव एक दिन में रवि की क्रान्ति स्थिर हो तब ही इस विधि से कालज्ञान हो सकता है । सिद्धान्तशेखर में ‘संसाधिताशं कृतचनभागं विधायवृतं समभूप्रदेशे । त्रिज्या हुकुलाङ्गांइत्यादि श्लोकोक्त के अनुसार कहते हैं । इन श्लोकों का . यथै यह है कि समान १४४२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते पृथिवी प्रदेश में वृत्त लिखकर उसमें पूर्वादि दिशाओं के सूचक चिन्ह अङ्कित करना तथा तीन सौ साठ समान भाग कर देना, उसके मध्य (कन्द्र) में अपनी इच्छा के अनुसार जितने अङ्गुल की त्रिज्या हो उतनी अङ्गुल संख्या से चिन्हित और सब तरह से समान छायाहीन अर्थात् सूर्याभिमुख यष्टिं इस तरह रखी जाय जिससे स्वमार्गों में यष्टि को बढ़ाने से सूर्यबिम्ब केन्द्र में चली जाय । यष्टघम्र से (क्षितिज) के ऊपर लम्बशङ्कु होता है । इस वृत्त (झर्व लिखितवृत) में शङ्कुसूल और केन्द्र के अन्तर दृग्ज्या (नतांशष्या) होती है शङ्कुसूल से उदयास्त सूत्रपर्यन्त लम्बरूप अन्तर भुज है। शंकुसूल से उदयास्त सूत्रपर्यन्त लम्बरूपरेखा शङ्कवग्र संज्ञक है यही शकुंतल हैं । शकु वग्र (शकुतल) को बारह से गुणाकर पूर्वकथित लम्ब (शङ्कु) से भाग देने से स्फुट पलभा होती है । पहले त्रिज्यारूप यष्टि जितनी अङ्गुल की बनाई गई तदङ्गुल व्यासार्घवृत्त सम्बन्धिनी दृग्ज्या करनी चाहिये इति । उपपत्ति । समान पृथिवी में इष्ट त्रिज्या से वृत्त बनाकर उसमें दिशाओं के चिन्ह अङ्कित कर देना तथा भगणांश अङ्कित कर देना चाहिये वह क्षितिज वृत्त है । त्रिज्याङ्गुल यष्टि को इस तरह रखना चाहिये जिससे उसकी छाया नष्ट हो तथा उसको बढ़ाने से यष्टयग्र रवि बिम्बकेन्द्र में चला जाय । नष्टद्यति (छाया रहित) यष्टघम्र से नीचे जितना लम्ब है उतना उस समय में शङ्कु है । त्रिज्यारूप यष्टि और शङ्कुरूप लम्ब का वर्गान्तरमूल नतांशज्या (दृग्ख्या) शङ्कुसूल और वृत्तकेन्द्र का अन्तर रूप होता है । शङ्कुसूल से पूर्वापर रेख के ऊपर लम्ब भुज है । अग्राग्रगत (पूर्व पश्चिम दिग्गत अत्राद्वयगत) रेखा उदयास्तसूत्र है। उदयास्तसूत्र और शङ्कुसूल का लम्बरूप अन्तर शङ्कवम् ( शकुंतल ) है । तब अनुपात करते हैं यदि शङकु में शङ,कुतल भुज पाते हैं तो द्वादशाङ,गुल शङ्कु में क्या इस अनुपात से स्फुट पलभा आती है। शङ्कुसूल और यष्टिमूल का अन्तर दृग्ज्या है इसका स्वरूप पहले कहा गया है । यहां नतज्या--अग्राग्र बिन्दु से यष्टयङ,गुल मान के अनुसार अङ्गुलात्मक प्रमाण वाली लानी है । शङ कुसूल और यष्टिमूल के अन्तर में एक सरल शलाका रख कर उसको अङ्गुल से मापन कर उसका मान समझना चाहिये। यहां लल्लाचार्ये "दिङ मध्य स्थित मूला यष्टिर्नष्प्रभा त्रिगुणतुल्या" इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों के अनुसार कहते हैं सिद्धान्तशिरोमणि के गोलाध्याय में” त्रिज्या विष्कम्भाषं वृत्तं कृत्वा दिगतिं तत्र" इत्यादि विज्ञानभाष्य में लिखित श्लोकों से भास्कराचार्यं सर्वथा श्रीपयुक्त के समान ही कहा है इति ॥२०-२१॥ इदानीं प्रकारान्तरेण घटिकानयनमाह। यष्टेः स्वाहोरात्रार्धभाजिताऽन्तरदलाहता त्रिज्या । फलचापांशा द्विगुणाः षभिर्वा भाजिता घटिकाः ॥२२॥ यन्त्राध्यायः १४४३ सु. भा.-पूर्वमग्रा यष्टयग्नयोरन्तरं मित्वा यद्गृहीतं तस्य दलं कार्यम् । तेनान्तरदलेन त्रिज्याऽऽहता यष्टेः स्वाहोरात्रार्धेन यष्टिव्यासार्धभवद्युज्यया भाजिता फलचापांशा द्विगुणाः षभिर्भाजिता वा घटिकाः स्युरिति । अन्तरं घटथ शपूर्णज्याऽतस्तदर्धे तदर्धज्या युज्याच्यासाठं ततोऽनुपातेन त्रिज्यावृत्ते परिणता कृता तस्याश्चापं द्विगुणमंशात्मकं तत् षभिवभज्य घटिकाः कृता इति स्फुटम् ॥ २२ ॥ वि. भा.-पूर्वमग्राग्रयष्ट्योरन्तरं मित्वा यद् गृहीतं तस्याधं कार्यम् । त्रिज्या तेनान्तरार्धेन गुणिता यष्टेः स्वाहोरात्रार्जुन ( यष्टिव्यासावुत्पन्नयुज्यया ) भक्ता फलचापांशा द्विगुणाः षडभिर्भक्ता वा घटिकाः स्युरिति । अत्रोपपत्तिः । अन्तरं घटय शपूर्णज्या, एतस्या अघं घटय शाखूज्या द्युज्याव्यासाउँ, ततोऽनुपातेन ‘युज्याव्यासवें यदीयं घटय शाखूज्या लभ्यते तदा त्रिज्याव्यासार्थं किं समागच्छति त्रिज्यव्यासाध घटय शार्धज्या तत्स्वरूपम् = ज्या ३ घटच श. त्रि . अस्याश्चापं द्विगुणमंशात्मकं तत् षभिर्भक्त तदा घटिकाः स्युरिति । “भ्यस्येदग्रां प्राक् प्रतीच्यग्रतोऽत्र याम्योदक्स्था मध्यदेशान्नतज्या । साध्यः शङकुस्तन्मितिभ्यां भ्रमस्तु देयस्तस्मिन् स्वोदयात् स्वाग्नकाग्नात् । । विरचित समयांशस्तन्मितंशङ्कुमस्मि तदुदरगतभागं स्थापयेदग्रकाग्रात् । तदवधि विगतास्ते कालभागा भवेयुदिनगतघटिकाः स्युः कालभागारसाप्ताः ।।' श्रीपतिनैवं कथ्यते । अस्यार्थः-अत्रास्मिन् पूर्वलिखितवृत्ते प्राक् प्रतीच्य ग्रतः (पूर्वापरबिन्दुभ्यां) अग्नां न्यस्येत् । मध्यदेशात् (वृत्तकेन्द्रबिन्दोः) याम्योदक् स्था (दक्षिणदिक्स्था, उत्तर दिक्स्था वा) नतज्या देया । तन्भितिभ्यां (अग्रान्तज्ययोर्मानाभ्यां) शङ्कुः साध्यः । तस्मिन् वृत्ते भ्रमः-अहोरात्रवृत्तं विरचितसमयांशः (विरचिताश्चिन्हिताः ) षष्टिघटीभिरहोरात्रवृत्तं समयांशा यस्मिन् चिन्हितं (अक्कित) भवति, अत्राहोरात्रवृत्तमंशात्मकमर्थात् षष्ट्यधिकशतत्रय भागात्मकं । तच्च स्वोदयात् (स्वोदयबिन्दो;) स्वाग्रका (अग्राग्रबिन्दोः) कार्यम् दातव्यः । अस्मिन् षष्ट्यधिकशतत्रयभागाङ्कितेऽहोरात्रवृत्ते तन्मितंशङ्कु (अग्नानत १४४४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ज्ययोर्मानानुसारेण मापितमङ्गुलात्मकं शङ्कुं तदुदरगतभाग्नी यथा स्यात्तथा स्थापयेत् । अग्रकाग्रात् तदवधि (अग्राग्रबिन्दोः) शङ्कुमूलपर्यन्तमहोरात्रवृत्ते येंऽशस्ते गतो कालभागाः स्युः । ते कालभागाः षड्भर्भक्ता सन्तो दिनगत घटिका भवेयुरिति । तिः । समभूमौ वृत्तकरणं यष्टेः शोश्च स्वरूपादिकं कथितमेव । अत्र पूर्वापर बिन्दुभ्यामङ्गुलात्मिकाऽग्रा वृत्तकेन्द्रबिन्दोश्च नतज्या दत्ता, यष्टचग्रबिन्दोलॅम्बरू- पोऽड्गुलात्मकः शङ्कुस्तदनुसारिमानेन मापितश्चक्रभागाङ्कितेऽहोरात्रवृत्ते यष्टि संलग्नस्तथा स्थापितो । यथा छायाग्नवृत्तीन्द्रपतेत् । एवमग्राग्रबिन्दोः शङ्कमूल पर्यन्तमहोरात्रवृत्तीयमंशादिमानं कालभागाः स्युरिति । अत्र श्री भास्कराचार्येण “अग्राग्रउदितो रविर्यथा यथाऽहोरात्रवृत्त गत्योपरि गच्छति तथा तथा केन्द्र निवेशितमूलाया यष्टेरग्र भ्राम्यमाणे यष्टिनष्टद्युतिः स्यात् । यतो यष्टयग्रे रविः। अग्राग्रादर्कं यावदहोरात्रवृत्ते यावरयो घटिकास्तावत्यो दिनगता भवन्ति । तत्राकाशे द्युज्यावृत्तं लेखितु नायाति अतोऽग्राग्र यष्टयग्रयोरन्तरं शलाकया मित्वा गृहीतम् । ततो भुवि लिखिते द्युज्यावृत्ते तया शलाकया ज्यारूपया धनुषि घटिकाज्ञानं युक्तियुक्तम् ।। इत्युच्यते, अनयोर्भावनया श्रीपत्युक्तो भास्करोक्तौ च सर्वमुपपद्यते । अत्र कलांशाः षड्भक्ता घटिका भवन्त्यहोरात्रवृत्ते शष्टयधिकशतत्रयमंशा अङ्किताः सन्ति तेन षष्टिघटिकानुसारेण षभिरंशैरेका घटिका भवतीति । श्रीपत्युक्तमिदं यष्टियन्त्रेण समयज्ञानं भास्करोक्त च लल्लोक्तस्य "अग्राग्राच्छङ्कृभ्रमवृत्ते कालांशकॅलिखेद्राशिम्। दिङ्मध्यच्छायाग्र कृत्वाऽत्र स्थापयेच्छङ्कुम् । अग्राग्राच्छङकृतलान्तरस्थिता वा समुद्गता भागाः । कालांशाः षट्कहृता भवन्ति धटिका दिनस्य गताः । इत्यस्यैवानुरूपमिति विज्ञविवेच्यम् ॥२२॥ अब प्रकारान्तर से घटिकानयन को कहते हैं । हि. भा.--पहले अग्राग्र और यष्टधग्र के अन्तर को मापन कर जो लिया गया है । उसके आधे को त्रिज्या से गुणाकर यष्टि व्यासार्त्पन्न द्यज्या से भाग देने से जो फल हो उसके चापांश को दो से गुणा कर छः से भागदेने से वा (प्रकारान्तर से) घटी होती है इति । यन्त्राध्यायः १४४५ उपपत्ति । अग्राग्र और यष्टधग्र के अन्तर घटच श की पूर्णज्या है। इसका आधा छ ज्याच्यासार्ध में घटय शाखूज्या होती है । तब अनुपात करते हैं यदि वा ,ज्याच्यासार्ध में यह घटघ शाखूज्या पाते हैं तो त्रिज्या व्यासार्ध में क्या इस अनुपात से त्रिज्याव्यासार्श्व में घटध शाखंज्या आती है। उसका स्वरूप = ज्या ३ घटय श.त्रि इसके चाप को दो से गुणा करने से अंशात्मक होता है उसको छः से भाग देने से घटी होती है इति । सिद्धान्तसर में “न्यसेदग्नां प्राक् प्रतीच्यग्रतोऽत्र याम्योकस्या मध्यदेशान्नतज्या’ यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोकों के अनुसार श्रीपति कहते हैं । इन श्लोकों का अथै यह है--इस पूर्वलिखित वृत्त में पूर्वबिन्दु और पश्चिम बिन्दु से अया का न्यास करना चाहिये । वृत्त के केन्द्र बिन्दु से दक्षिण दिशा में वा उत्तर दिशा में नतज्या दान देना चाहिये अग्र और नतज्या के मानों को शड्कु स.घन करना। उस वृत्त में अहोरात्रषुत्त पाठ घटी से अङ्कित होता है यहां अहोरात्रवृत्त को अंशात्मक अर्थव तीन सौ साठ अंशात्मक करना चाहिये । वह अप्राग्र बिन्दु से देना चाहिये अर्थात् अहोरात्रवृत्त में अंश बिभाग स्वोदयबिन्दु (अग्राग्रबिन्दु) से करना चाहिये । इस तीन सौ साठ अंश से अङ्कित अहोरात्रवृत्त में अग्रा और नतज्या के मानानुसार मापित शङ्कु को उसके मध्यनंत छायाग्र में जैसे हो वैसे स्थापन करना चाहिये । अग्राग्र बिन्दु से शङ: कुमूल पतंन्त अहोरात्रवृत्त में जो अंश है वे गतकलांश है, उन गतकलांश को छः से भाग देने से दिनगत घटी होती है इति । इसकी उपपति । समान पृथिवी में वृत रचना और यष्टि-शङ्कु के स्वरूपादि पूर्व में कथित ही है । इस वृत्त में पूर्व बिन्दु और पश्चिम बिन्दु से अग्रा दान देना तथा वृत्त केन्द्र बिन्दु से नतज्या देनी चाहिये । यष्टचद्र बिन्दु से लम्बरूप अङ्गुलात्मकशङ्कु को चक्रभाग (३६० अंश) से अङ्कित अहोरात्रधृत में यष्टि से संलग्न उस तरह स्थापना करना चाहिये जिससे छायाग्र वृत्तकेन्द्र में पतित हो । इस तरह अग्राग्र बिन्दु से शङकृमूल पर्यन्त अहोरात्रवृत्तीय अंशादिमान कालभाग होते हैं। यहां भास्कराचार्य संस्कृतोपपति में लिखित ‘अग्रागडदितो रविः यहां से लेकर घटिकज्ञानं युक्ति युक्त पर्यन्त’ कहते हैं, इन दोनों का विचार करने से श्रीपत्युक्त और भास्करोक्त भी उपपन्न होता है । यहां काचांश को छः से भाग देने से घटी होती है । अहोरात्रवृत्त में तीन सौ साठ अंश अक्कित है इसलिये साठ घटी के अनुसार छः अंश में एक घटी होती है । यह द्वीपयुक्त यद्यिन्त्र से समय ज्ञान भास्करोक्त भी शिष्यधी वृद्धिद तन्त्र में लल्लोक्त ‘अग्राग्राच्छङ्कुभ्रमवृत्ते कालांशकॅलिखेद्राशिम्’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित इन श्लोकों के अनुरूप ही इसको विवेचक लोग विचार कर देखें इति ।।२२। १४४६ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त अथवा घटिकानयनमाह । यष्टिध्यासाधं वा घटिका श वङगुलादितो मूलात् । अवलम्ब सूत्र युत्तञ्च घटिका दिवसस्य गतशेषाः ॥२३॥ सु. मा--वा यष्टिव्यासार्थं गोले शङ्क्वङ्गुलादितो मूलात् शङ्कृतलाञ्च घटिकाः साध्याः । शकुतलात् शङ्कोचेष्टहृतिमानीय ततो द्यज्यानपातेनष्टान्त्य सूत्रं चानीय त्रिप्रश्नोक्तया घटिका साध्या इत्यर्थः । अर्थाद् गोलरचनां विनैव नष्टद्युतेर्यष्टेरग्रादवलम्बकं कृत्वा शङ्कु विज्ञाय १९ सूत्र युक्तंथा युज्येष्टान्त्या दिना त्रिप्रश्नक्तया गतशेषा घटि ज्ञेयाः ॥ २३ ॥ वि. भा.-वा यष्टिव्यासाधे गोले शङ् वङगुलादितो मूलात् (शङ्कृत- ल्लाच्च ) घटिकाः साध्याः। अर्थात् /शङ्कु'+शंतल'=इहृति ततो युज्ययेष्टहृति लभ्यते तदा त्रिज्यया कि समागतीष्टान्त्याः = इहृति.त्रि ततभ्रज्या संस्कारेण सूत्रज्ञानं ततः ‘अथोन्नतादूनयुताच्चरेणेत्यादि’ भास्करोक्तविधिनोन्नतकालाववोधः सम्यग्भवतीति । वा ऽवलम्वसूत्रयुत्तया दिवसस्य गतशेषा घटिकाः साध्या अंधाद् गोलरचनां विनैव नष्टद्युतेयंष्टेरग्रादवलम्बकं कृत्वा शङ्कुं ज्ञात्वा १९ सूत्रयुत्तया द्युज्यां तत इष्टान्यां ज्ञात्वोपभुक्तरीत्या दिनस्य गतघटिकाः शेषघटिकाश्च विज्ञा तव्या इति ।।२३।। अव पुन: घटिकानयन को कहते हैं । हि. भा.- वा यष्टिव्यासार्धगोल में शङ्कवङ,गुल और शकुतल से इटी साधन करना चाहिये अथवVशङ्कु'+शंतल' = इहति । तब अनुपात द्यज्या में इष्टहृति पाते हैं तो त्रिज्या में क्या' से इष्टान्त्या का ज्ञान होता है इसमें चरज्या संस्कार करने से सूत्र का ज्ञान होता हैं तब ‘अयोस्तादृगनयुताश्चरेणेत्यादि' भास्करोक्त सूत्र से उन्नतकल ज्ञान होता हैं । अथवा अवलम्बसूत्र युक्ति से दिनगतघटी और दिनशेष "घटी साधन करना चाहिये अर्थात् बिना गोल रचना के नष्ट छ ति यष्टि के अग्र से अवलम्बसूत्र कर शङकु को जानकर १€ सूत्र युक्ति से शू ज्या ज्ञान से इष्टान्त्या जानकर त्रिप्रश्नोक्त विधि से दिनगतघटी और दिनशेष घटी का ज्ञान सुलभ ही है इति ।२३।। इदानीं यष्टियन्त्रेण वेधेन रविचन्द्रान्तरांशानाह । यष्टिव्यासार्धाद् भुवि वृत्तं भगणांशकं कृत्वा । यष्टिीलप्रोते मूले पृथगग्रयोबं ।।२४। यन्त्राध्याय १४४७ ताभ्यां सूयंशशाङ्कौ वेध्यावग्रस्थितेन सूत्रेण । सूत्रज्ययाऽमरांशा ये तेऽर्कविभाजिता स्तिथयः ॥२५॥ सु० भा०–यष्टिव्यासार्धात् समभुवि भगणांशकं चक्रांशातिं वृत्तं कृत्वा केन्द्रगतः कीलः कार्यः । कीलप्रोते है यी वृत्तव्यासार्थं प्रमाणे कार्यं । किंविशिष्टे यष्टी मूले पृथगग्रयोर्बद्ध । यत्र कीले यष्टिमूलाग्र ते एकत्र मिलिते कार्यं इत्यर्थः । ताभ्यां मूलमिलिताभ्यां यष्टिभ्यां मूलस्थदृष्टया युगपदेकैकयष्टयग्रगतौ सूर्येश- शाङ्कौ गणकेन यष्टधग्रयोगतं यत् सूत्रं तेन सूत्रेण वेध्यौ । तत् सूत्रं च रविचन्द्रा न्तरांशपूर्णज्या गोलयुक्तया भवति । अतस्तत्सूत्रज्यया पूर्णज्यया क्षितिजवृत्तं यद्धनुस्ते रविचन्द्रयोरन्तरांशा भवन्ति । एवं येऽन्तरांशास्तेऽर्कविभाजिता द्वादश भक्तास्तिथयः स्युरिति ।। २४-२५ ।। वि. भा–समपृथिव्यां यष्टिव्यामार्धात् वृत्तं कार्यं तच्च चक्राशाङ्कितं कृत्वा तत्केन्द्रगतः कील कार्यः। कीलप्रोते वृत्तव्यासार्थं प्रमाणे द्रुयष्टी कार्ये । मूले पृथगग्नयोर्वद्ध (कीले यष्टिमूलाग्रे एकत्र मिलिते कायं) ताभ्यां मूलमिलिताभ्यां यष्टिभ्यां मूलस्य दृष्टया युगपदेकैक यष्टधग्रगतौ सूर्य चन्द्रौ यष्टयग्रयोगतेन सूत्रेण वेध्यौ । तद्यष्ट्यग्रगतं सूत्रं रविचन्द्रन्तरांश पूर्णज्या भवति अतस्तत् सूत्रज्यया (पूर्णज्यया) क्षितिजवृत्ते यच्चापं ते रवि चन्द्रान्तरशा भवति। तेऽन्तराशा द्वादश भक्ता स्तदा तिथयो भवन्तीति । सिद्धान्तशेखरे "वृत्ते चक्रव लाङ्कितेऽक्ष शकटाकारं शलाकाद्वयं । कृत्वा तेन विवेचयेद्रविविक्षु लम्बस्य पातस्तयोः यावन्तः परिधौ तदन्तरलवाः सूर्योदभक्ता गताः शुक्ले स्युस्तिथयो भवन्ति बहुले पक्षे च भोग्याः स्फुटम् । श्रीपतिनोक्तमाचार्योक्तानुरूपमेव । अस्य सूत्रस्यायमर्थं-भगणांशांङ्किते ऽत्रवृत्ते शकटाकारं शलाकाद्वयं मूले’ दृढ़विद्ध यष्टिद्वयं विधाय तेन शलाकाद्वयेन सूर्यचन्द्रौ वेधयेदर्थात् यष्टयोर्मुले एकत्र कृत्वा मूलमिलिताभ्यां तभ्यां यष्टिभ्यां मूलस्थ दृष्टया यष्टयग्रगतौ सूर्यचन्द्रौ वेधयेत् (तयोर्युष्टग्रगतयो रविचन्द्रयो लम्बस्य पातः कार्यार्थाद्रविवेचकारि यष्टयग्रादेको लम्बश्चन्द्रवेधकारि यष्टयग्राच्चान्योलम्बः कार्यः। यावन्तः परिधौ तदन्तरलवा । अयमर्थाः लम्बयोरन्तरं यत् तत्परिधौ तस्य येऽन्तरांशा अर्थाज्ज्यावत्सम्पादितस्य लम्बान्तरस्य परिधौ यावन्मिता अंशाः स्युस्ते द्वादशभिर्भाजिताः सन्तः शुक्लपक्षे गतास्तिथयः स्युः ।बहुले पक्षे (कृष्णपक्षे) भोग्या अवशेषास्तिथयो भवन्तीति । तत्र लम्बनिपाताभ्यां तयोरन्तरं ज्यावद्यद् भवति शकटाकारेण घृतं शला १४४४८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते काद्यं तथैव तस्मिन् वृत्ते स्थापितं सद्वा येऽशस्ते रविचन्द्रयोरन्तरांशा एव भवन्ति । सूर्यचन्द्रयोरन्तराशा द्वादशभक्तास्तिथयो भवन्तीति स्फुटमेव । केवलं गणितेन तिथ्यानयने सयनचन्द्रांशाः क्रियन्ते ते द्वादशभक्तास्सदा शुक्लप्रतिपदादि- कास्तिथयो भवन्ति । अत्र तु अन्तरांशा आयान्तीति चन्द्रोनसूयशस्थले तदन्तरांशा द्वादशभक्ता इति चन्द्रतो रविपर्यन्तमर्थाद्रविचन्द्रयोः पुनयगात्मकमावास्यापर्यं न्तं तिथयो भवन्ति ता एव भोग्यास्तिथय इति । अत्र लल्लश्च- “शकटाकृतियष्टिभ्यां विद्ध वा रविशीतगू तदवलम्बे । भगणांशके वृत्ते मुक्त वा संलक्षयेत् स्थाने । अन्तरमनयोर्भागा हि सूर्यंशशिनोदिवाकरन्निभक्ताः। तिथयः शुक्ले याताः कृष्णे शेषाः फलं भवति ।” इत्येतदनुरूपमेव श्रीपत्युक्तमिति ।२४-२५।। अब यष्टि यन्त्र द्वारा बेध से रवि और चन्द्र के अन्तरांशानयन को कहते हैं । हि. भा.- समान पृथिवी में यष्टि व्यासrधं से वृत्त बनाकर चक्रांश से अङ्कित कर उसको केन्द्रगत कील करना चाहिये । कीलगत वृत्त के व्यासध तुल्य दो यष्टि करना, कील में दोनों यष्टियों के मूल को मिलाकर रखना चाहिये । उन मूल मिलित यष्टिद्वय से मूलस्य दृष्टि द्वारा एक ही समय में एक एक यष्टघग्रगत सूर्य और चन्द्र को यट्घ प्रगत सूत्र से वेध करना चहिये । वह यष्टघग्रगत सूत्र रवि और चन्द्र को अन्तरांश पूर्णज्या होती है । अतएव उस पूर्णज्या से क्षितिज वृत्त में जो चाप होता है वह रवि और चन्द्र का अन्तरांश होता है । उस अन्तरांश को बारह से भाग देने से तिथि होती है। सिद्धान्तशेखर में “वृत्ते चक्रलवांछितेऽत्र शकटाकारं शलाकाद्वयं" इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक के अनुसार श्रीपति कहते हैं । इस श्लोक का अर्थ यह है भगणाङ्कित वृत्त में शकटाकार मूल में मिली हुई दो यष्टियों से सूर्य और चन्द्र को वेध करना अर्थात् दोनों यष्टियों के मूल मिलाकर मूलस्थ दृष्टि से यष्टिद्वय द्वारा यष्टधग्रगत सूर्य और चन्द्र को वेध करना चाहिये। यष्टधग्रगत रवि और चन्द्र से लम्ब गिराना चाहिये । परिधि में लस्बान्तर के जितने अंश हैं उनको वारह से भाग देने से शुक्लपक्ष में गत तिथि होती है । कृष्णपक्ष में भोग्य (अवशिष्ट) तिथि होती है इति । उपपत्ति । मूल में मिली हुई दो यष्टियों से सूर्य और चन्द्र को वेध करना चाहिये, वेध करने से यष्टयग्रगत सूर्य और चन्द्र से लम्ब गिराने से लिखित वृत्त में लम्बान्तर के जितने अंश हैं वे सूर्य और चन्द्र के अन्तरांश होते हैं । उनको बारह से भाग देने से तिथि होती हैं । केवल गणित से तिथि साधन में चन्द्र में सूर्य को घटाने से जो अन्तरांश होता है उस को बारह से यन्त्राध्यायः १४४९ भाग देने से शुक्ल प्रतिपदादिक तिथि होती है। यहां तो अन्वरांश आते हैं इसलिये चन्द्र रहित सूयं (अन्तरांश) को बारह से भाग देने सेच न्द्र से रवि पर्यन्त अर्थात् रवि और चन्द्र की पुनः योगात्मक अमावास्या पर्यंन्त तिथि होती है वे ही भोग्य तिथियां हैं । यहां लल्लाचार्य ने~"शकटाकृति यष्टिभ्यां विद्ध्वा रविशीत चूतदवलम्" इत्यादि संस्कृतो पपत्ति में लिखित श्लोकों के अनुसार कहा है । लल्लोक्त के अनुरूप ही श्रीपयुक्त है इति ।२४२५।। इदानीं प्रकारान्तरेणान्तरांशानयनमाह । सूत्रार्धगुणा त्रिज्या यष्टिहृता फलधनुद्विगुणितं वा । रविचन्द्रान्तरमिष्टव्यासाल्लिखितवृत्तस्य ॥२६॥ सु. भा-पूर्वं यत् पूर्णज्यासमं सूत्रमागतं तस्यार्चने त्रिज्या गुणा यष्टिहृता फलधनुदृगुणितं वा रविचन्द्रान्तरं भवति । इष्टव्यासाघल्लिखितवृत्तस्याग्रे सम्बन्धः । सूत्राघं यष्टिव्यासार्ध रविचन्द्रान्तरार्धज्या सा त्रिज्या व्यासाध परिणता । तद्धनुगुणमन्तरांशा भवन्ति ॥२६॥ वि. भा-पूर्वश्लोकोपपत्तो रविचन्द्रान्तरपूर्णज्यासमं यत्सूत्र समागत तेन त्रिज्या गुणिता यष्टया भक्ता लब्धस्य चापं द्विगुणितं बा रविचन्द्रान्तरांशा भवन्तीति । इष्टव्यासावुल्लिखितवृत्तस्याग्र सम्बन्धः । सूत्र अथ सूत्रम्= रविचन्द्रान्तरांश पूर्णज्या, अतः =ज्या? -रविवन्द्रान्त रांश, इयं यष्टिव्यासार्थोऽस्ति, ततो ऽनुपातेनेष्ट त्रिज्या व्यासाशं समानीयते, यदि यष्टि व्यासायै इयं रविचन्द्रान्तरार्धज्या लभ्यते तदा त्रिज्या व्यासायै किं समागच्छति सूत्र त्रि त्रिज्या व्यासार्थं रविचन्द्रान्तरार्धज्या तत्स्वरूपम् २ अस्याश्चापं रवि चन्द्रान्तरार्धम् । द्विगुणितं तदा रविचन्द्रान्तरांशा भवन्तीति ॥२६॥ १४५ अब प्रकारान्तर से अन्तरांशानयन कहते हैं । हि. भा.-पूर्वश्लोक में रविचन्द्रान्तरांश की पूर्णज्या तुल्य जो सूत्र आया है उससे त्रिज्या को गुणा कर यष्टि से भाग देने से जो लब्ध हो उसके चाप को द्विगुणित करने से रविचन्द्रान्तरांश होता है इति । उपपत्ति । सूत्र= रविचन्द्रान्तरांश पूर्णज्या, अतः ज्या ३ रविचन्द्रान्तरांश, यह यष्टि २ व्यासार्धगोलीय है । इसको त्रिज्याच्यासार्ध में परिणत करते है । यदि यष्टि व्यासार्ध में यह रवि चन्द्रान्तरापुंज्या पाते हैं तो त्रिज्या व्यासार्ध में क्या इससे त्रिज्या व्यासार्ध में रवि चन्द्रान्तराधेज्या आती है । इसके चाप को द्विगुणित करने से रविचन्द्रान्तरश होती है इति ॥२६॥ इदानीं यष्टियन्त्रेण दिक्साधनमाह। मध्यधृताया यष्टेर्लम्बकशङ, प्रवेशनिर्गमने क्रान्तिवशात् प्राच्यपरे मत्स्याद्याम्योत्तरे साध्ये ।।२७। $ सु. भा. धेन लिखितस्य वृत्तस्य मध्ये स्थापित कीलस्य छाया पूर्वेकपालस्थे रवौ यत्र प्रतीच्यां परिधौ लगति स प्रवेशबिन्दुः यत्र च पश्चिमकपालस्थे रवौ प्राचि लगति स निर्गमनबिन्दुः । तत्र प्रवेशनिर्गमने समये मध्यमृताया यष्टेनष्टद्यतेरग्राल्लम्बं विधाय द्वौ समौ शंकु साध्यौ । ताभ्यां तत्तत्कालक्रान्तिवशात् त्रिप्रश्नोत्तथा भुजान्तरं विधाय प्राच्यपरे साध्ये ताभ्यां मत्स्याद्याम्योत्तरे च साध्ये इति सर्वं त्रिप्रश्नाधिकारतः स्फुटम् ।।२७। वि. भा. न लिखितवृत्तस्य केन्द्र स्थापितस्य कीलस्य छाया पूर्वेकपालस्थे रवौ यत्र पश्चिमदिशि वृत्तपरिधो लगति स छाया वेशबिन्दुः । पश्चिमकपालस्थे रवौ कीलच्छाया पूर्वदिशि वृत्तपरिधौ यत्र लगति स छायानिर्गमनबिन्दुः । तत्र प्रवेशनिर्गमनसमये केन्द्रस्थयष्टे (कीलस्य) नंष्टद्युतेरग्राल्लम्बं विधाय द्वौ समौ शङसाध्यौ, ताभ्यां (शङ्कुभ्यां) तत्तत्काल क्रान्तिवशाद् भुजान्तरं कृत्वा पूर्वापरे साध्यें ताभ्यां मत्स्योत्पादनेन याम्योत्तरे साध्ये इति । यन्त्राध्यायः १४५१ तदा ‘‘ छायाप्रवेशनिर्गमनसमये केन्द्रस्थयष्टेरग्राल्लम्बं विधाय द्वौ समौ शंकु साध्यौ शङ्कृतल ४१२ ==पलभा । ततः Vपलभा'+१२ =पलकर्णः। क्रान्ति- शङ, ञ् ज्ञानं तु वर्तत एवातः पलक.झांज्या =प्रवेश कालिकाग्रा=प्रग्रा । पकxांज्या १२ १२ =निर्गमनकालिकाग्रा=अग्रा। क्रांज्या= छायाप्रवेशकालिक क्रान्तिज्या। क्रेज्या =ायानिर्गमनकालिक क्रान्तिज्या । शङ्कवोस्तुल्यत्वाच्छंतकुलमपि तुल्यमस्ति । अग्रा +शंतल=भुजः प्रवेशकालिकः । अग्रा+भूतल=भुजः = निगैमनकालिकः । अनयोरन्तरम् । अग्रान्तर=भुजान्तरम् । एतद्भुजान्तर वशेन वास्तवपूर्वापर रेखायाः समानान्तररेखाया ज्ञानं भवेत् । वृत्तकेन्द्रबिन्दुतस्तत्समानान्तरा रेखा वास्तव पूर्वापररेखा भवेत् । केन्द्रबिन्दुतस्तदुपरिलम्बरेखा दक्षिणोत्तरा रेखा भवेत् । प्राचीन रेखोपरिलम्बकरणथं मत्स्योत्पादनं क्रियते स्म । एतावता दिग्ज्ञानं जातमिति ।।२७।। अब यष्टियन्त्र से दिक्साधन को कहते हैं। हि. भा-समान पृथिवी में इष्टव्यासार्ध से लिखित वृत्त के केन्द्र में स्थापित कोल की छाया पूर्वकपाल में रवि के रहने से पश्चिम दिशा में वृत्त परिधि में जहां लगती है वह बिन्दु छायाप्रवेश बिन्दु है । पश्चिम कपाल में रवि के रहने से कील की छाया पूर्वदिश में वृत्तपरिधि में जहां लगती है वह छाया निर्गमबिन्दु है । छायाप्रवेश समय में और निर्गमन समय में नष्ट ति यष्टि के अग्र से लम्ब करके दो समानशङ्कु का साधन करता । उन दोनों शङ्कुओं से तत्तत्कालिक (प्रवेशकालिक और निर्गमनकालिक) क्रान्तिवश से भुजान्तर लाकर पूर्वापर दिशा साघन करना, उन दोनों से मत्स्योत्पादन से दक्षिणदिक्षर और उत्तर दिशा साघन करना चाहिये इति ।।२७। उपपत्ति । छाय प्रवेश समय में और निगैमन समय में केन्द्रस्थ यष्टि के अग्र से लम्ब करके दो शंतल ४१२ षलभा । +१२९ समन शङ्कु का साधन करना चाहिये। तब = पलभा' शङ्कु १४५२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते .फ्रांज्या पलक.फ्रांज्या = पलकर्ण । क्रान्ति के ज्ञान सेपलक=प्रवेशकालिक अग्रा=अग्रा । १२ १२ =निर्गमनकालिक अग्रा=अग्रा । फ्रांज्या = छायाप्रवेशकालिक क्रान्तिज्या । फ्रांज्या =च्या निर्गमन कालिक रान्तिज्या । दोनों शङ्कुसों के बराबर रहने से शङ्कृतल भी बराबर है । •.अग्रा +शंतल=प्रवेशकालिक भुज । अग्रा+ शंतल=भुज=निर्गमनकालिक भुज दोनों के अन्तर करने से अग्रान्तर-भुजान्तरइस भुजान्तर वश से वास्तव पूर्वापर रेखा की समानान्तर रेखा का ज्ञान होता है! वृत्त के केन्द्रबिन्दु से उसकी समानान्तरा रेखा वास्तव पूर्वापर रेखा होती है । केन्द्र बिन्दु से उसके ऊपर लम्बरेखा दक्षिणोत्तरा रेखा होती है । प्राचीनाचार्य रेखा के ऊपर लम्ब करने के लिये मत्स्योत्पावन करते थे । इससे दिक् साधन हो गया इति ॥२७॥ इदानीं भुजकोटिसाधनमाह शङकृतलाग्रान्तरयुतिरन्यैकदिशोभं जो भुजस्य कृतिम् । दृग्ज्याकर्णकृतेः प्रोह्य पवं पूर्वापरा कोटिः ॥ २८॥ सु. मा--स्पष्टार्थमु । त्रिप्रश्नाधिकारे सर्वे स्फुटमेव प्रतिपादितम् ।।२८॥ वि. भा-अन्यदिशि शकुंकुतलस्याग्रायाश्चान्तरमेकदिशि तयोयगो भुजो भवति । दृग्ज्यारूपकर्णवर्गाद् भुजस्य कृतिं (वर्ण) प्रोह्य (हित्वा) पूर्वापरानुकारा कोटिर्भवेदिति ॥ अत्रोपपतिः। यष्ट्यग्रादवलम्बसूत्रं शङ,कु: । शङकुमूलात्पूर्वापरसूत्रोपरिलम्बो भुज- संज्ञकः । स्वोदयास्तसूत्रपूर्वापरसूत्रयोरन्तरमग्रा । शङ्कुमूलात्स्वोदयास्तसूत्रो- परिलम्बः शङ्कुतलम् । एतेषां भुजाग्राशङकुंतलानां स्वरूपदर्शनेन स्फुटमस्ति यदग्राशङ्कुतलयोर्भिन्नदिक्कयोरन्तरमेकदिक्कयोर्योगो भुजो भवति । शङ्कुमूलाधू त्तकेन्द्रपर्यन्तं दृग्ज्याकर्णः। भुजाग्रावृत्तकेन्द्रपर्यन्तं प्र्वापरसूत्रखण्डं कोटिः। भुज सज्ञको भुजः । एतैः कर्णकोटिभुजैरुत्पन्नत्रिभुजे Vदृग्ज्या'-भुज=कोटिः । एतेनाचार्योक्तमुपपन्नम् ।२८। १४५३ अब भुज और कोटि के साधन को कहते हैं । हि- भा.-अग्रा और शङ्कृतल की भिन्न दिशा रहने से दोनों का अन्तर भुज होता है । तथा दोनों की दिशा एक रहने से योग करने से भुज होता है । दृग्ज्यारूप कर्णे वर्गों में भुज वर्ग को घटाकर मूल लेने से पूर्वापरानुकार कोटिसंज्ञक होता है । इति ।।२८॥ । उपपत्ति । यष्टयन से अबलम्ब सूत्र शङ्कु है । शङ्कुसूल से पूर्वापर सूत्र के ऊपर लम्ब भुज संज्ञक है स्वोदयास्त सूत्र और पूर्वापर सूत्र का अन्तर अग्रा है । शङ्कुसूल से स्वोदयास्त सूत्र के ऊपर लम्ब शकुतल है । इन भुज, अग्रा शङ्कृतल का स्वरूप देखने से स्पष्ट है कि भिन्न दिशा का शंकुतल और अग्रा का अन्तरभुज होता है, तथा एक दिशा का शंकुतल और अग्रा योग करने से भुज होता हैं । याङ, कुमूलं से वृतकेन्द्रपर्यन्त दृग्ज्याकर्ण, भुजसंज्ञक का भुज, भुजाग्र से वृत्त केन्द्रपर्यन्त कोटि, इन कर्णभुज और कोटि से उत्पन्न जात्यत्रिभुज में Vदृग्ज्या' -भुज' = कोटि । इससे आचायक्त उपपन्न हुआ इति ॥२८॥ इदानीं यष्टियन्त्रेण पलभाज्ञानमाह। उदयास्तसूत्रशङ, क्वन्तरं हुतं शङ्कुनाऽर्कसङ्गशुणितम् । विषुवच्छायैवं वा विनोदयास्तमयसूत्रेण ॥।२॥ सु. भा.-उदयास्तसूत्रशंक्वन्तरं शंकुतलं तदर्कसंगुणितं शंकुना हृतं फलं विषुवच्छाया पलभ भवति । उदयास्तसूत्रेण विनाऽपि वा पल भाज्ञानमेवं वक्ष्यमाणेन विधिना भवतीत्यस्याग्र सम्बन्धः। अत्रोपपत्तिः । अक्षक्षेत्रानुपातेन स्फुटा ॥२९॥ वि. भा–उदयास्तसूत्रशंक्वन्तरं (शंकुतल ) तद्वादशभिर्गुणितं शंकुना भक्त लब्धं बिषुवच्छाया (पलभा) भवति उदयास्तसूत्रेण विनाऽपि वा पलभाज्ञान मेवमग्रिमश्लोकेन भवतीति । अत्रोपपत्तिः । पूर्वं समभुवि लिखितं वृत्तं क्षितिजवृत्तम् । त्रिज्याङ्ग ला यष्टिः स्वत एव त्रिज्यारूपा। सा नष्टद्युतिर्यथा भवति तथा धार्या, येन यष्टयम् वधितं सद्रविबिम्ब केन्द्र गच्छेत् । यष्टधग्रादधो यावान् तस्मिन् काले शंकुः । अथ लम्बस्तावान् त्रिज्यारूपाया यष्टेः शङ,रूपलम्बस्य वर्गान्तरमूलं नतांशज्या (दृग्ज्या) शंकृमूल वृत्तकेन्द्रयोरन्तररूपेति । शंकमूलपूर्वापररेखयोरन्तरं भुजः। पूर्वापरदिग्गतयोर् १४५४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ग्राग्रयोरुपरि गता रेखोदयास्तसूत्रस् । उदयास्तसूत्रस्य शंकुमूलस्यान्तरं शंकृतलम् । तदाऽक्षक्षेत्रानुपातेन यदि शंकुना शंकुतलं लभ्यते तदा द्वादशशंकु शंतल ४१२ ना किमिति समागच्छति पलभा तत्स्वरूपम् = एतावताऽऽचार्योक्तमु पपन्नम् ।।२६। शक अब यष्टियन्त्र से पलभाज्ञान कहते हैं । हि. भा–उदयास्तसूत्र और शत्रु कुल के अन्तर (शङ,कुंतल) को बारह से गुण कर शङ्कु ले भाग देने से पसभा होती है। बिना उदयास्तसूत्र के भी पलभा ज्ञान आगे कहते हैं इति ॥२६॥ उपपत्ति । पूर्व में समान पृथिवी में लिखित वृत्त क्षितिजवृत्त है । यष्टि त्रिज्या के बराबर है । यष्टि को इस तरह धारण करना चाहिये जिससे यष्टयग्र को बढ़ाने से रवि बिम्बकेन्द्र में जाययष्टयग्र से नीचे जो लम्ब होगा वह शड्कु है । त्रिज्यारूपयष्टि और शङ,कुरूप लम्ब का वर्णान्तरमूल नतशज्या (दृग्घ्या) शङ,कुमूल और वृत्तकेन्द्र का अन्तररूप है । शङ्कु- मूल से पूर्वापरसूत्र पर्यन्त लम्बरूपभुज है । शङकुमूल से उदयास्तसूत्रपर्यन्त लम्बरूप शङ्कृतल है। तब अनुपात करते है यदि शक में शर्कतल पाते हैं तो द्वादशा (बारह अङ्गुल) इशुल शङ,कु में क्या इस अनुपात से पलभा आती है, इसका स्वरूप शंतल ४१२ =पलभा । इससे आचार्योक्त उपपन्न हुआ इति ॥२८॥ शङञ् इदानीं भुजद्वयतः पलभाज्ञानमाह । प्राच्यपराशङ कृतलान्तरद्वयान्तरयुतिः समान्यविंशोः । द्वावशगुणिता विषुवच्छाया शवन्तर विभक्ता ॥३०॥ सु. आ--शकुमूलप्राच्यपरान्तरं भुजः। एवमेकस्मिन् दिने भुजद्वयं ज्ञयश्च तयोः समान्यदिशोरन्तरयुतिः कार्या सा द्वादशगुणिता शंक्वन्तरविभक्ता विषुव- च्छाया भवति । ‘सुजयोरेकान्यदिशोरन्तरमैक्य रविक्षुण्णभि-दयादिभास्करोक्त मेतदनुरूपमेव अत्रोपपत्तिः । भास्करविधिना स्फुटा सजातीयक्षेत्रयोर्युजयोः कोट्योः कर्णयोरन्तरतो योगाद्वा तथैव सजातीयक्षेत्रोत्पन्नत्वात् ॥३०१ ! यन्त्राध्याय १४५५ वि. भा.-शङकुतलम् (शङकुमूलम्), प्राच्यपरा (पूर्वापररेखा) । शङ्कु मूल पूर्वापररेखयोरन्तरं भुजः। एकस्मिन् दिने भुजद्वयं ज्ञेयम् । तयोर्युजयोरेकदि शायां वियुतिः (अन्तरं) भिन्न दिशायां युतिः कार्या, सा द्वादशगुणिता शंक्वन्त रेण विभक्ता तदा विषुवच्छाया (पलभा) भवतीति । अग्राशङकुतलयोः संस्कारेण भुजः=अग्रा +शंतल । तथा अग्रा +गुंतलं -भुजः, अनयोरन्तरम्=शङ्कुतलान्तरम् = भुजान्तरम् । तदा शङकुतलान्तरं भुजः । शङ् वन्तरं कोटिः । हृत्यन्तरं कर्णः, इति भृजत्रयैरुत्पन्नत्रिभुजमप्यक्षेत्र सजातीयमतोऽनुपातः शङ् : =पलभा। कृतलान्तरॐ१२ = भुजान्तरx१२ शंक्वन्त¥ सिद्धान्तशिरोमणेर्गालाध्याये भास्करोक्त ‘भुजयोरेकान्यदिशोरन्तरमैक्य रवि क्षुण्ण ' मित्याचार्योक्तानुरूपमेवास्तीति ।।३०॥ अब भुजद्वय से पलभाज्ञान को कहते हैं । हि. भा.-शङ,छुमूल और पूर्वापररेखा का अन्तरभुज है । एक दिन में दो भुजों को जानना चाहिये । एक दिशा में दोनों भुजों के अन्तर को और भिन्न दिशा में दोनों भुजों के योग को बारह से गुणाकर शंक्वन्तर से भाग देने से पलभा होती है इति ॥३०॥ उपपत्ति । अग्रा और शङ्कुतल के संस्कार से भुज होता है । अग्रा +र्शतल=भुज । तथा अग्रा +शंतल=भुज दोनों का अन्तर करने से शंकुतलान्तर= भुजान्तर । शंकुतलान्तरभुज, शंक्वन्तरकोटि, ह्त्यन्तर कणं इन तीनों अवयवों से उत्पन्न त्रिभुज अक्ष क्षेत्र के सजातीय हैं, इसलिये अनुपात करते हैं। शंतलान्तर x १२ = ! भुजान्तरx१२ पलभा, इससे शवन्तर आचार्योक्त उपपन्न होता है। सिद्धान्तशिरोमणि के गोलाध्याय में ‘भुजयोरेकान्यदिशोरन्त मैक्यम्' इत्यादि भास्करोक्त आचार्योंक्त के अनुरूप ही है इति ।।३०॥ शकुवन्तर इदानीं रचिज्ञानमाह । शङ,कुप्राच्यपरान्तर शवप्र घमुदगन्तरं याम्ये । लम्बगुणं यष्टिहृतं क्रान्तिज्याऽतो रविः साध्यः ॥३१॥ १४५६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते सु• भा.-शंकुप्राच्यपरान्तभुजः। शंक्वग्र शंकुतलम् । उदग्भुजेऽनयोरैक्य याम्ये भुजेऽन्तरमग्ना भवति । एवमैक्थान्तरं लम्बगुणं लम्बज्यया गुणं यष्टिहृतं त्रिज्याहृतं फलं क्रान्तिज्या भवति । अतः प्राग्वत् त्रिपुरनोक्तिवद्रविः साध्यः । अत्रोपपत्तिः। त्रिज्याकर्णेन लम्बज्या कोटिस्तदाऽग्राकणेन किं जाता क्रान्तिज्या । शेष वासना स्फुटा ॥३१॥ वि. भा.शङ्कुप्राच्यपरान्तरं भुजः । शंक्वग्र' शङ्कुतलम् । उत्तरे भुजेऽनयो (शकुंकुतल भुजयोः) योगः, दक्षिणे भुजेऽन्तरं कार्यं तदाऽग्रा भवति । तद्योगान्तरं लम्ब (लम्बज्यया) गुणं यष्टि (त्रिज्या) भक्त तदा क्रान्तिज्या भवति । अतः पूर्ववत् (त्रिप्रश्नोक्तवत्) रविः : साध्य इति ।। अत्रोपपत्तिः । अग्राशङ. कुतलयोः संस्कारेण भुजो भवत्यत एतद्विलोमेन शङकुंतलभुजयोः संस्कारेणाग्रा भवेत् । ततोऽनुपातो यदि त्रिज्यया लम्बज्या लभ्यते तदाऽग्रया कि त्रि.क्रांज्या समागच्छति क्रान्तिज्या तत्स्वरूपम् ="3* त्रि रविभुजज्या अस्याश्चापं रविभुजांशाः स्युरिति ॥३१॥ लंघ्या.=क्रांज्या, ततः त्रिज्या
अब यष्टियन्त्र से रविज्ञान कहते हैं। हि- भा.-शङ,छुमूल और पूर्वापर सूत्र का अन्तरभुज है। शङ्कवग्र शकुंतल), उत्तरभुज में शङ्कृतल और भुज का योग अम्रा होती है । दक्षिणभुज में शङ,कुतल और भुज का योग अग्रा होती है । उस योगान्तर (अग्रा) को लम्बज्या से गुणाकर यष्टि (त्रिज्या) से भाग देने से क्रान्तिज्या होती है। इससे पूर्ववद् (त्रिप्रश्नाधिकारोक्त विधि से) रवि का साधन करना चाहिये ॥३१॥ उपपत्ति । अग्रा और शङ्कृतल के संस्कार से भुज होता है, इसके विलोम से ,कुंतल और भुज के संस्कार से अग्रा होती है। तब अनुपात करते हैं, यदि त्रिज्या में लम्बज्या पाते हैं तो लंघ्या.अग्रा अग्रा में क्या इस अनुपात से क्रान्तिज्या आती है उसका स्वरूप== - =ञ्ज्यात अतः किया = -भुजज्या इसके चाप करने से भुजांश होता है इति ॥३१॥ s^T^nfeM^f^rT fa^+i wren - mr ^rki q^T s?r ^ t M^wraWr p^j fag^ i adrift ^rar^iwRf jfcra[ i %sr^rnT «i^i«n-^" ^fcfd U १४५८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अत्रोपपत्तिः । प्रग=यष्टि:= द्विर । प्र=प्रथमवेधस्थानम् । द्वि=द्वितीयवेधस्थानम् प्रथमवेघ स्थानेशलाका= गन=श। द्वितीयवेध स्थाने शलाका ( =रम=श प्रद्वि=अपसृतिः । के कप्र=भूः । कद्वि=*=+अपति । तदा प्रकप्र, नगप्र त्रिभुजयो सजातीयत्वादनुपातः शये . =अक=गृहाद्यौ च्च्यम् । तथा प्रकटि, मरद्वि त्रिभुजयोः साजात्यादनुपातेन = 1। शश्न यष्टि _ श' (+अपति) -गृहाद्यौच्यख। अतः-शथळे . = श (+अपति) यष्टि यष्टि पक्षौ 'यष्टि गुणितौ तदा श.भू=श (+अपति) =g.भू-+श.अपसति, समशोधनेन श.भ--श.भ=भ शश) = श अपचति पक्षौ श~शं भक्तौ तदा अपति श-अपचति शअपचति = । एवं =x, एतेनोपपन्नमाचार्योक्तमिति ॥३२॥ श–२ श-श अब यष्टि से ग्रहादि की ऊंचाई का आनयन कहते हैं। हि. भा.-एक इष्ट प्रमाण की यष्टि ग्रहण कर उसके एक अग्न में उस के ऊपर लम्बरूप अङ्गुलादि से अङ्कित एक विपुल (मोटी) शलाका खूब दृढ़ता से बाँधनी चाहिये। यष्टि के अन्य अग्र स्थित दृष्टि से समधरातलस्थित ग्रहादि की ऊंचाई को वेध करना शलाका प्रमाण को भी जान कर प्रथमवेधस्थान से उसी सरल रेखा में कुछ दूर जाकर द्वितीय स्थान से भी ग्रहादि की ऊंचाई को वेध करना चाहिये। वहां भी शलाका प्रमाण जान लेना चाहिये । दोनों वेध स्यानों का अन्तर अपमृति कहलाती है । अपसूति को अन्यशलाका से गुणाकर शलाकान्तर से भाग देने से खू (वेध स्थान और ग्रहादि का अन्तर) प्रमाण होता है। भू को अपनी शलाका से गुणाकर यष्टि से भाग देने ये ग्रहादि की ऊंचाई होती है इति ॥३२॥ यन्त्राध्यायः १४५९ उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपति में लिखित (१) क्षेत्र को देखिये । प्रग= यष्टि=द्विर । प्र=प्रथम वेघस्थान । हि= द्वितीय वेघस्थान । प्रथम वेधस्थान में शलाका==गन= श । द्वितीय वेध स्थान में शलाका=रम=श । प्रद्वि= अपसति । कप्र=भ् । कद्वि=भु=+अपसूति, तब अकप्र, नगप्र दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं -४=अक= गृहादि की । । ऊंचाईतथा अकड़ि, मरहि दोनों त्रिभुणों के सजातीयत्व के द्वारा अनुपात करने से पू.8–
श (स्+प्रपति) =गृहादि की ऊचाईअतः समीकरण से या . -
[सम्पाद्यताम्]यष्टि _- ओ (स्+अपघाति) दोनों पक्षों को 'यष्टि' से गुणा करने से श.भू= (q+अपसृति),= सा.श्रु+श.अपघ्रति, समशोधन करने से श.भू-आ.भू==~(श-श)=-वा श.अपमृति श.अपति अपचति, दोनों पक्षों को श~श इससे भाग देने से - =- ङ्। एवं - _ श~श शु-- = धै, इससे आचायत उपपन्न हुआ ।३२।। इदानीं प्रकारान्तरेण गृह्यद्यौच्च्यानयनमाह । दृष्टयों गुणिताऽपसृतिी ष्टि विशेषेण भाजिता भूमिः। भूमिः स्वदृष्टिभक्ता शलाकया सड्गुणोच्छायः ॥३३॥ सु. भा. –समघरातले यष्टिरूध्र्वा धरा लम्बरूपा धार्या । धरातले दृष्टि स्तथा चालनीया यथा दृष्टिर्यष्टेरग्न' गृहाद्यग्र चें कसरलरेखायां स्युः। एवं कृते दृष्टियष्टिमूलयोरन्तरं यत् तदेवेह दृष्टिरित्युच्यते । अथ पुनः संव यष्टिस्तस्यामेव सरलरेखायां तथैवोध्वधरा स्थाप्या । तद्वशतो द्वितीयवेऽपि दृष्टिस्थानं निश्चेयं तथा दृष्टियष्टिमूलान्तरं द्वितीयदृष्टिश्च ज्ञातव्या भी। द्वयोर्हष्टिस्थानयोरन्तरं चात्रापतिरुच्यते । अपसृतिदृष्टया स्वदृष्टया गुणिता दृष्टयोविशेषेणान्तरेण भाजिता स्वभूमिः स्यात् । सा भूमिशलाकया यष्टया संगुणा स्वदृष्टिभक्ता गृहा द्युच्छ्ायः स्यादिति । १४६० स्फुटसिद्धान्ते क्षेत्रं १४५७ { तमे पृष्ठे गृउ=गृहौच्च्यम् । मूअ,=अ,=यष्टिः । मूप्र=प्रथमदृष्टिः=ट्ट, । मूद्वि=द्वितीय दृष्टिः = इ, । प्रद्वि =अपसृतिः=अ । प्रगृ=प्रथमभूमिः =भू । द्विगृ=द्वितीयभूमिः==+अ। द्रष्टव्यम् । ततः सजातीयक्षेत्रतः । गृउ= यु.भू. = (भ,+अ).य ततः भू-,= भू-दृ +E.अ दृ.
- मुं- ,'एवं भू-द-छू । ततोऽनुगतेनोच्त्यािनयनं
सुगममिति ॥३३॥ वि. भा---समघरातले ऊध्र्वाधरा लम्बरूपा च यष्टिः स्थाप्या, समधरातले दृष्टिस्तथा स्थाप्या यथY दृष्टिर्यष्टेरगं गृहाद्यग्र चैकस्यां सरलरेखायां भवेयुः । एवं करणेन दृष्टियष्टिमूलयोरन्तरं यत्तदृष्टिः कथ्यते । पुनः सैव यष्टिस्तस्यामेव सरल रेखायां पूर्ववदेवोधरा-लस्बरूपा च स्थाप्या, तद्वशेन द्वितीय वेधेऽपि प्वंबदेव दृष्टिस्थानस्य निश्चयः कार्यः । तथा दृष्टियष्टिमूलान्तरं ज्ञातव्यं द्वितीयदृष्टिश्च ज्ञेया । दृष्टिस्थानयोरन्तरमपतिः कथ्यते । अपचति स्वदृष्टया गुणिता दृष्टघोर न्तरेण भक्ता तदा स्वभूमिर्भवेत् । सा भूमिः शलाकया (यष्टया) संगुणितां स्वदृष्टिभक्ता तदोच्छायः (ग्रहादेरुच्छायः) भवति ।। कन == पश = यष्टिः । स नम्र =प्रथमदृष्टिः= इ । v शद्वि = द्वितीय दृष्टि:=वं । मर= गृहाद्योच्यम् । प्रद्वि=अपसृतिः । प्रर=प्रथम भूमिः= भू । द्विर=द्वितीयभूमिः= = भू-+अपस्मृतिः । यन्त्राध्यायः १४६१ तदा कनप्र, मरष त्रिभुजयोः साजात्यादनुपातेन यx झ = गृहाद्यौच्च्यम् य x तथा पशद्वि, मरद्वि त्रिभुजयोः सजातीयत्वादनुपातः = य (+अपति), -हाद्यौच्च्यम् । अतः यX _ = य (+अपसुति) पक्ष (य) भक्तौ तदा = भू+अपस्मृति छेदगमेन भूx)==(+अपसूति) =ह.भ्+दृअपसृति, समशोचनेन भू.ई-ह.भू= (इ-ड)=इनपचति पक्षौ ३–दृ भक्तौ तदाहअE अपमृति = भू एवमेव -ई.अपस्मृति =भू, एतेनोपपन्नं सूत्र- दृ-द् दृ-दृ मिति ॥३३॥ अव प्रकारान्तर से गृहादि की ऊचाई का आनयन कहते हैं। हि. भा.-सम घरातल में ऊध्र्वाघर लम्बरूप यष्टि स्थापन पर करना, समधरातल में दृष्टि को उस तरह रखना चाहिये जिस से दृष्टि, यष्टि का अग्र और गृहादि का अग्र एक ही सरल रेखा में हो । इस तरह करने से दृष्टि और यष्टि के मूल का अन्तर यहां दृष्टि कहलाती है । पुन: उसी यष्टि को उसी सरल रेखा में पूर्ववत् ऊध्र्वाधर-लस्वरूप स्थापन करना। उसके वश से द्वितीय वेध में भी पूर्ववव ही दृष्टिस्थान निश्चित करना चाहिये । तथा दृष्टि और यष्टि मूल का अन्तर जानना चाहिये । द्वितीय दृष्टि भी ज्ञातव्य है, दोनों दृष्टि स्थानों का अन्तर यह अपसृति कथित है अपति को अपनी दृष्टि से गुणाकर दोनों दृष्टि के अन्तर से भाग देने से अपनी भू (भूमि) होती है । भूमि को शलाका (थष्टि) से गुणाकर अपनी दृष्टि से भाग देने से ग्रहादि की ऊंचाई होती है इति ।।३३।। उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (१) क्षेत्र को देखिये । कन=पश= यष्टि । नम्र =प्रथमदृष्टि=टु । शद्वि=द्वितीयदृष्टि=ट्टी । भर=गृहादि की ऊंचाई । प्रद्वि=अपसति । प्रर=प्रथम भूमि=भ् । द्विर=द्वितीयभूमि==भू=भू+अपछति । तब कनभ, मरप दोनों १४६२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करने से यx =गृहादि की ऊंचाई । एवं पचाद्धि, मरद्वि दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करने से यः ई = य (भू+अपसूति) यसँ य (+अपसृति) =गृहदि की ऊंचाई, अत: समीकरण करने से = दोनों + पक्षों को (य) भाग देने से - ई = प्रवहति । छेदगम से भू-दृ=ढी (भू+अपसूति) = ह.भू+अपसूति, समशोधन करने से भू-टू-दृ. भू= * (ई-ड)= दृअपति दृ.अपसृति दोनों पक्षों को ई-ह्व इससे भाग देने से भू= ६अभवत् ; एवं ह.अपति =x, इस दृ-दृ दृ--ड से आचार्योक्त सूत्र उपपन्न हुआ ।३३। इदानीं गृहादिमूलवेधेन भूमिज्ञानमाह । लम्बनिपातान्तरकं लम्बौच्च्यान्तरविभक्तमधिकगुणम् । भूलंम्बान्तगुणिता लम्बनिपातान्तरविभक्ता ।।३४। सुभा-इष्टप्रमाणा या यष्टेर्सेलस्य दृष्टया यष्टयग्रगं गृहादिमूलं विध्येत् । यष्टिमूलाग्राभ्यां द्वौ लम्बौ काय तयोर्लम्बनिपातंयोरन्तरकं लम्वौच्च्ययोरन्तरेण विभक्तमधिकेन लम्बमानेन गुणभूः स्यात् । लम्बान्तरगुणितेत्यादेरग सम्बन्धः । अत्रोपपत्तिः । यष्टिमूलाद्गृहादिमूलपर्यन्तं रेखाकर्णः । यष्टिमूलादधिको लम्बः कोटिः । अधिकलम्बगृहादिमूलयोरन्तरभूमिभुजः । इदमेकं त्रिभुजम् । लम्बौच्च्यान्तरं कोटिः। यष्टि: कर्णः। लम्वनिपातान्तरभूमिभुजः । इदं द्वितीयं त्रिभुजं प्रथमसजातीयमतोऽनुपातेन भूम्यानयनं सुगममिति ॥३४॥ । वि. भा. -इष्टयष्टेर्सेलस्थदृष्टया यष्टघग्रगं गृहादिमूलं विध्येत् । यष्टि लाग्राभ्यां लम्बौ कायौ, तयोर्लम्वयोर्गुलान्तरं अधिकेन लम्बेन गुणं लम्बौच्च्ययोर न्तरेण विभक्त तदा भूर्भवेत् । लम्बान्तर गुणितेत्यादेरने सम्बन्ध इति ।। यन्त्राध्यायः १४६३ यष्टिमूलादधिको लम्बः कोटि: । अघिकलम्वगृहादिमूलयोरन्तरं भुजः। यष्टिमूलाद्गृहादिमूलपर्यन्तं कर्णाः । एतैः कोटिभुजकणैरुत्पन्नमेकं त्रिभुजम् । लम्वौच्च्यान्तरं कोटिः। लम्बमूलयोरन्तरं भुजः यष्टिः कर्णः। एतैः कोटिभुज । कणैरुत्पन्नं द्वितीयं त्रिभुजम । त्रिभुजयोः साजात्यादनुपातो यदि लम्बौच्च्यान्तरकोटौ लम्बमूलान्तरं भुजो लभ्यते तदा ऽधिकलम्बकोट कि समागच्छति, अधिकलम्ब गृहादिमूलयोरन्तरभूमिस्तत्स्वरूपम्= लम्बमूलान्तर x अघिकलम्ब माचार्योक्तमिति ।३४।। अव गृहादि मूलवेध से भूमिज्ञान कहते हैं । हि. भा-इष्टयष्टि की मूलस्थ दृष्टि से यष्टघण्गत गृहादि के मूल को वध करन । यष्टि के मूल और अग्र से लम्ब करना, इन दोनों लम्बमूलान्तर को अधिक लम्ब से गुणाकर लम्बौच्च्यान्तर से भाग देने से भूमि होती है ।।३४।। उपपत्ति । यष्टि के मूल से अधिक लम्बकोटि । अधिकलम्ब ग्रहादि मूल के अन्तरभुज । यष्टि के मूल से ग्रहादिमूलपर्यन्त कथं इन कोटि भुज कर्णा से उत्पन्न एक त्रिभुज । तथा लम्बौक्या न्तर कोटि, लम्बमूलान्तरभुज । यष्टि कथं इन कोटिभुज कणों से उत्पन्न द्वितीय त्रिभुज इन दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं यदि लम्बौच्च्यान्तर कोटि में लम्बमू लान्तर भुज पाते हैं तो अधिक लम्बकोटि में क्या इस अनुपात से अधिकलम्ब गृहादिं मूल का लम्बम्लान्तर. अघिकलम्ब अन्तर भूमि प्रमाण आता है उसका स्वरूपः = आ -इससे आचायों लम्बच्यान्तर क्त उपपन्न हुआ इति ॥३४॥ इदानीं भूमिज्ञाने वंशौच्च्यज्ञानमाह । लब्धोनो इग्लम्बो दृग्लम्बादग्रलम्बके हीने । अधिकेऽघिको गृहौच्च्यं तलाग्रके विद्धया दृष्ट्या ३५॥ सु० भा०-इष्टप्रमाणयष्टेरॉलस्थदृष्ट्या गृहाद्यग्र विध्येत् । यष्टिमूलाग्रा स्यां भुवि लम्ब कार्यो। मूलाल्लम्बो दृग्लम्ब इत्युच्यते । भूर्लम्बौच्च्ययोरन्तरेण गुणिता लम्बनिपातयोरन्तरेण भक्ता लब्धेन दृग्लम्बो हीनः कार्यो दृग्लम्बादग्र १४६४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते लम्बके हीने सति । अधिके चाधिकः कार्यंस्तदा गृहाद्यौच्च्यं भवेत् । एवं तलाग्रके ये तयोविद्धया दृष्टया भूम्योच्च्ये भवतः । भूमिज्ञानं तलवेधेनौच्च्यज्ञानं चाग्रवेधेन भवतीत्यर्थः। अत्रोपपत्तिः । लम्बनिपातान्तरेण लम्बौच्च्ययोरन्तरं तदा ऽऽत्मगृहाद्यन्तरभूम्यां कि लब्धेन हीनो युतश्च इग्लन्बो दृग्लम्बादग्रलम्बे हीनाधिके गृहाद्यौच्च्यं भवतीत्यत्र स्थितिद्वये क्षेत्रे विरचय्य सर्वं स्फुटं निरीक्षणीयस् ।३५। वि. भा.–इष्टयष्टेरॉलस्थदृष्टया गृहाद्यम् विध्येत् । यष्टिमूलाग्राभ्यां भुवि लम्बी काय, मूलाल्लम्बो दृग्लम्बः कथ्यते । भूर्लम्बौच्च्ययोरन्तरेण गुणिता लम्बनिपातयोरन्तरे भक्ता लब्धेन दृग्लम्बो हीनः कार्यो यदि दृलम्बादग्रलम्बो हीनो भवेत् । अग्रलम्बाद् दृग्लम्बो हीनश्चेत्तदाऽधिकः (युक्तः) कार्यंस्तदा गृहाद्यौच्च्यं भवेत् । एवं तलाग्रके ये तयोविद्धया दृष्टचा भूम्यौच्च्ये भवतोऽथत्तलवेधेन भूमि ज्ञानमग्नवेधेन चौच्च्यज्ञानं भवतीति । अत्रोपपत्तिः । ० इन=यष्टिः । ड = दृष्टि स्थानम् । रम = गृहाद्यच्च्यम् । दृच = दृष्टश्ायः = दृग्लम्बः । नप = यष्टयग्राल्लम्बः । नलः = लम्बान्तरम् । पच = लम्बनिपा- तान्तरम्=डल । ततः मशहू, नलदृ त्रिभुजयोः साजात्यात् :मरा । लम्बनिपातान्तर लम्बान्तरॐ भू= मश+शर=मश+ दृग्लम्ब=मर=गृहाद्यौच्च्यम् । दृश=आत्मगृहाः न्तरभूमिः= । अत्र ऽधिकोस्ति। डग्लस्बांदग्रलम्बेडूनेऽप्येवमेवो भ् दृग्लम्बादग्रलम्ब पपत्तिरिति ॥३५॥ अब भुमिज्ञान से वंशौच्च्यज्ञान को कहते हैं। हि- भा.-इष्ट यष्टि की मूलस्थ दृष्टि से हादि के अभ को वैध करना । यष्टिं के मूल और अग्न से भूमि के ऊपर लम्ब करना । यष्टि के मूल से जो लम्ब होता है वह यन्त्राध्यायः १४६५ दृग्लम्ब कहलाता है । ध्रु को लम्वौच्च्य के अन्तर से गुणा कृर लम्ब निपातान्तर से भाग देने से जो लब्ध हो उसको दृग्लम्ब में से हीन करना यदि दृग्लम्ब से अग्रलम्ब हीन हो तन । अग्रलम्ब से हुगलम्व हीन हो तब जोड़ने से गृहादि का औौच्य (ऊंचाई) प्रमाण होता है। एवं तल वेध से भूमिज्ञान और अग्रवेध से औच्च्यज्ञान होता है ।३५। उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित(१) क्षेत्र को देखिये । दृन =यष्टि । दृ=दृष्टिस्थान । रम = गृहाद्यौच्च्य। दृच= दृष्टपूच्छाय = दृग्लस्ब । नप= यष्टघम से लम्ब । नल =-लम्ब-मूलान्तर । पच=लम्वनिपातान्तरभू=बूल तव मशहू, नलदृ दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं लम्वान्त xभूर =मश। अतः श+यार=मश लम्बनिपातान्तर +दृग्लम्ब= मर=गृहाद्यौञ्च्य । दृश= आत्मगृहान्तर भूमि=छु । यहां दृगलम्ब से अग्र लम्ब अधिक है । दृगलम्ब से अग्रलम्ब के हीन रहने पर भी इसी तरह उपपति समझनी चाहिये इति ॥३५॥ इदानीं प्रकारान्तरेण भूम्यौच्च्यानयनमाह । दृष्टिइंग्लम्बगुण विभाजिताऽघः शलाकया भूमिः । सकलशलाका गुणिता भूमिर्दू ष्टया हृतोच्छायः ॥३६।। सु. माध्यस्मि धरातले गृहाद्यौच्यं वस्तु वर्तते तस्मिन् धरातले ऊध्र्वा धर लम्बरूपैकेष्टप्रमाणा शलाका स्थाप्या। ततो दृष्टिस्तथा चाल्या यथा दृष्टि शलाकाग्र' गृहादिमूलं चैकरेखायां स्युः । एवं तत्र दृगच्च्यं दृग्लम्बः । दृगौच्च्य शलाकामूलयोरन्तरं भूमिदृष्टिरित्युच्यते । सा शलाका चाधः शलाका ज्ञेया । दृष्टिर्दू ग्लम्बगुणऽधः शलाकया विभाजिता भूमिः स्यात् । एवं तस्मिन्नेव घरातले तथा दृष्टिनियोज्या यथा दृष्टिः शलाकाग्रं गृहाद्यग्न चैकरेखायां स्युः । अत्र शलाका सकलशलाका। दृष्टिशलाकामूलयोरन्तरं दृष्टिरित्युच्यते । भूमिः सकलशलाकागुणा दृष्टया हृतोच्छायो भवति । अत्रोपपत्तिः । सजातीयक्षेत्रानुपातेन स्फुटा ॥३६॥ विभान्यत्र भूमौ गृहाद्यच्व्यं वस्तु वर्तते तत्रैव घरातले ऊर्धरा लम्बरूपैका शलाका स्थाप्या । ततो दृष्टिस्तथा चालनीया यथा दृष्टिः शलाकाग्र गृहादिमूलं चैकस्यां रेखायां भवेयुः । तत्र हंगच्च्यं दृग्लम्बः दृगच्च्यशलाका मूलयोरन्तरं भूमिदृ ष्टिः कथ्यते । सा शलाकाऽधः कालाका बोध्या । दृष्टिर्ड ग्लम्ब १४६६ गुणाऽधःशलाकया विभाजिता तदा भूमिः स्यात् । एवं तत्रैव धरातले तथा दृष्टिः स्थाप्या यथा दृष्टिः शलाकाग्र' गृहाद्यग्र' चैकस्यां रेखायां भवेयुः । अत्र शलाका सकल शलाका ज्ञेया। दृष्टिशलाकामूलयोरन्तरं दृष्टिः कथ्यते । भूमिः सकलशलाका गुणा दृष्ट्वा भक्तोच्छूायो भवतीति । क्षेत्ररचनयाऽनुपातेन च स्फुटेति ॥३६॥ अब प्रकारान्तर से भूमि और अल्च्य (ऊंचाई) के आनयन को कहते हैं । हि. भा.-जिस धरातल में ग्रहादि उच्च वस्तु है उसी धरातल में ऊध्र्वाधर सम्बरूप एक यष्टि स्थापन करना । दृष्टि को उस तरह चलाना जिससे दृष्टि, शलाका का अग, और गृहादि का मूल एक ही रेखा में हो । वहां दृगौञ्च्य दृग्लम्ब है । हुगच्च्यमूल और शलाका मूल का अन्तर भूमि दृष्टि संजक है । उस शलाका को अधः शलाका समझना चाहिये । दृष्टि को दृग्लम्ब से गुणा कर अघः शलाका से भाग देते से भूमि होती है । एवं उसी धरातल में दृष्टि को उस तरह चलाना जिससे दृष्टि, शलाका का अग्र और गृहादि का अग्र एक ही रेखा में हो । यहां शलाका सकल (सम्पूर्ण) शलाका समझनी चाहिये । दृष्टि शलाका मूल की अन्तर दृष्टि संज्ञक है। भूमि को सकल शलाका से गुणा कर दृष्टि से भाग देने से गृहदि का उच्छाय होता है । उपपति । क्षेत्ररचना से अनुपात द्वारा स्फुट है इति ।३६। इदानीं प्रकारान्तरेण गृहौच्च्यानयनमाह । मित्वा गृहेकदेशे विद्वेष्टशलाकया गृहं सर्वम्। प्रथमशलाकाभक्त मितं द्वितीयागुणितमौच्च्यम् ॥३७॥ सु. भा–यस्मिन् घरातले लम्बरूपं गृहादि वर्तते तस्मिन् धरातले लम्बरू पोध्वधरांगुलादिभिरङ्गितैका शलाका स्थाप्या। ततो दृष्टि तस्मिन्नैव धरातले कुत्रापि संस्थाप्य नलिकया वा ज्ञातौच्च्यं गृहेकवेशं विध्येत्। नलिका ऽन्ययष्टया वाऽन्ययष्टियंत्र शलाकायां लग्ना तस्मात् शलाकामूलपर्यन्तं प्रथमा शलाका शलाकामूलदृष्टिस्थानान्तरं च दृष्टिर्जातव्या । पुनस्तत्रस्थचैव दृष्टया गृहाग्न चैकयष्टया विध्येत् । इयं यष्टियंत्र पूर्वंशलाकायां लग्ना तस्मात् शलाकामूलपर्यन्तं द्वितीया शलाका ज्ञेया । अथ व्याख्या । गृहैकदेशं प्रथमशलाकावशेन मित्वा गणयित्वा धार्यम्। इष्टशलाकया च सर्वे गृहौच्च्यं विद्ध ,वा द्वितीया शलाका यन्त्राध्यायः १४६७ ज्ञातव्या । ततो गृहैकदेशौच्च्यं मितं गणितं द्वितीयशलाकया गुणितं प्रथमज्ञाला कया भक्त गृहौच्च्यं स्यात् । अत्रोपपत्तिः । प्रथमशलाकया दृष्टितुल्यो भुजस्तदा ज्ञातौच्च्येन किं जाता भूमिः ज्ञाश्चौ शश्न.ड । ततो दृष्ट्या द्वितीयशलाका तदा भूम्या किं जातं गृहौच्च्यं - _ । ॥ द्विश.ज्ञाश्रौढ द्विशगृही । अत उपपन्नम् ३७। प्रश-ट्ट वि. भा–यस्मिन् धरातले लम्बरूपं गृहादि वर्तते तस्मिन् धरातले लम्बरूपोधराङ्ग लादिभिरङ्गितैका शलाका स्थाप्या । ततो दृष्टिं तस्मिन्नेव धरातले कुत्रापि संस्थाप्य नलकयाऽन्ययष्टया वा ज्ञातौच्च्यं गतैकदेश विध्येत् । नलिकाऽन्ययष्टिर्वा शलाकायां यत्र लग्ना तस्माच्छलाकामूलपर्यन्तं प्रथमा शलाका, शलाकमूल दृष्टिस्थानान्तरं च दृष्टिशंतव्या । पुनस्तत्रस्थयैव दृष्ट्या गृहाग्न चैकयष्टया विध्येत् । इयं यष्टियंत्र पूर्वंशलाकायां लग्ना तस्माच्छ- लाकामूलपर्यन्तं द्वितीया शलाका ज्ञेया। गृहैकदेशं प्रथमशलाकावशेन गणयित्वा धार्यम्। इष्टशलाकया च सर्वे गृहौच्यं विड् वा द्वितीया शलाका ज्ञेया, ततो गृहेकदेशौच्च्यं द्वितीयशलाकया गुणितं प्रथमशलाकया भक्त गृहौव्यं भवेत् । (९) अक=गृहाद्यच्च्यम् । गप=शलाका । दृ =दृष्टिस्थानम् । कन =ज्ञातौच्च्यम् । कटुः भूमिः। मग=प्रथम शलाका । चग=द्वितीय शलाका । गदृ= दृष्टि संज्ञकः=ङ तदा कनट्स गढी गमदृ त्रिभुजयोः सजातीयत्वादनुपातेन जातौच्च्यx@ =भूमिः । ततः अकडचगह त्रिभुजयोः साजात्यादनुपातः प्रयमशलाक ही द्वितीयशलाका. भूमि = गृहाचौर्य= द्विशलाकासातौच्च्य-इ प्रथमशलाकाद् द्वितीयशलाकाज्ञातौच्य - एतेनोपपन्नमाचार्योक्तमिति ।३३७ । - प्रयमरालाका १४६८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अब प्रकारान्तर से गृहौच्च्यानयन को कहते है। हि. भा.-जिस धरातल में लम्बरूप ग्रहादि है उस धरातल में ऊध्र्वाधराकार अंगुलादि से अकुित एक शलाका स्थापन करना । दृष्टि को उसी धरातल में कहीं पर रखकर नलिका से या अन्य यष्टि से ग्रहादि का एक प्रदेश (जिसकी ऊँचाई विदित है) को वेध करना । नलिका वा अन्ययष्टि शलाका में जहां लगती है वहां से शलाका मूलपर्यन्त प्रथम शलाकां संज्ञक है । शलाका मूल दृष्टि स्थान का अन्तर दृष्टि समझनी चाहिये । पुनः उसी स्थान स्थित दृष्टि से ग्रहण को एक यष्टि से वेध करना। यह यष्टि पूर्व शलाका में जहां लगती है वहां से शलाकामूल पर्यन्त द्वितीय शलाका संज्ञक है । गृहादि के एक प्रदेश को प्रथम शलाकावश से गणना कर धारण करना ! इष्टशलाका से गृहौच्य को वेध कर द्वितीयशलाका समभनी चाहिये। तब ग्रह के प्रदेश के औच्च्यको द्वितीय शलाका से गुणा कर प्रथम शलाका से भाग देने से ग्रहौच्य होता है इति ॥३७॥ उपपत्ति । यहां संस्कृतोपमति में लिखित (१) क्षेत्र को देखिये । प्रक =गृहादि का औच्च्य (ऊंचाई, गप= शलाका। दृ=दृष्टिस्थान । कन=ज्ञातौच्च्य= (विदित ऊचाई) । कडू=भूमि=भू। मग=प्रथमशलाका। चग=द्वितीयशलाका । गदृ=दृष्टि संज्ञक==इह । ज्ञातौच्च्य.ट्ट तब कनट्सगमदृ दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं । प्रयमशलाका द्वितीयशलाका. =भ् । :. अकट्ट, चगद्द दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं । भूम द्वितीयशलाका. ज्ञातौञ्च्य. द्वितीयशलाका.ज्ञातौच्च्य प्रथमशलाकाद् प्रथमशलाका.ठ आचार्याक्त उपपन्न हुआ इति ।३७।। इदानीं परमतं खण्डयति यष्टधा हृताच्छलाका त्रिज्याघाताद्धनुर्गुहान्तरकम् । यैरुक्त मूखस्ते यतो न दृष्टान्तरं इया ॥३८॥ सु. भा--पूर्वश्लोकोक्तविधिना गृहाप्रवेषे ऽन्ययष्टिचैत्र शलाकायां लग्ना , तस्माद् दृष्टिस्थानपर्यन्तं कथं एव यष्टिः । द्वितीयशलाका कोटिः। दृष्टिभुजः । शलाकां त्रिज्यागुणा यष्टिहृता । फलस्य धनुदृष्टिस्थानाद्गृह मूलाग्ररेखयोरन्तरगः कोणो गृहान्तरांशाभिधस्त्रिकोणमित्या वास्तव एव सिध्यति । गृहाग्ररूपग्रह १४६४ स्य दृष्टान्तरं दृष्टिसंज्ञसमं दृग्ज्या भवेद्वा न । अतो ‘यैराचार्यः पूर्वफलचापसमं गृहान्तरकमुक्त ते मूर्धः सन्ति यतो दृष्टान्तरं दृग्ज्या नास्तीति वाग्बैलमेतदूषण- मिति सुधीभिश्चिन्त्यम् ॥३८॥ विभा---शलाका त्रिज्यागुणा यष्टिहृता फलस्य धनुः (चापं) गृहान्तरकं . यैराचार्योरुक्त ते मूर्खाः सन्ति । यतो दृष्टान्तरं दृग्ज्या नास्तीति । पूर्वश्लोकोक्तविधिना गृहाग्रवेधेऽन्ययष्टियंत्रशलाकायां लग्ना तस्माद् दृष्टि स्थानपर्यन्तं यष्टिः कर्णः। द्वितीयशलाक्र कोटिः । दृष्टिभुजः । पूर्वोक्तश्लोको पपत्तौ लिखितं क्षेत्र द्रष्टव्यम् । दृच=यष्टिः कर्णः । चग=शलाका कोटिः। गदृ= दृष्टिभुजः । अत्र त्रिभुजे । कोणानपातः क्रियते यदि यष्टया तत्संमुख कोणज्या त्रिज्या लभ्यते तदा शलाकया किं समागच्छति दृष्टिस्थानाद्गृहाग्रमूलयो त्रि xशलाका गंतरेखयोरुत्पन्नकोणज्या तत्स्वरूपम्= =ज्या<गदृच, अस्या इचापम्=<गढच=गृहान्तराशा वास्तवाः। गृहाग्ररूपग्रहस्य दृष्टान्तरं दृष्टिसंज्ञ समं दृग्ज्या भवेदेव । आचार्येण व्यर्थमेव खण्डनं क्रियते इति ॥३८॥ अब अन्यों के मत का खण्डन करते हैं । हि- भा-शलाका को त्रिज्या से गुणाकर यष्टि से भाग देने से जो फल प्राप्त हो उसके चाप को जो आचार्यं कहते हैं वे सुखं हैं, क्योंकि दृष्टान्तर दृग्ख्या नही है गृहान्तर इति ॥३८ उपपति । पूर्वश्लोकोक्त विधि से गृहाग्रवेष करने से अन्य यष्टि शलाका में जहां लगती है, वह से दृष्टि स्थान पर्यन्त यष्टिकणं, द्वितीयशलाका कोटि, दृष्टिभुज, पूर्वोक्तश्लोकोपपत्ति में लिखित क्षेत्र को देखना चाहिये । दृच-यष्टिकर्ण, चग=शलाका कोटि, गदृ= वृष्टिभुज, इस त्रिभुज में कोणानुपात करते हैं, यदि यष्टि में तत्संमुख कोणज्या त्रिज्या पाते हैं तो शलाका में क्या इस अनुपात से दृष्टि स्थान से गृह के अग्र और चूंलगत रेखाद्वय से उत्पन्न त्रि.शलाका कोणज्या आती है उसका स्वरूप=. ॥ ==ज्या>गदृच, इसका चाप=<गदृच यष्टि १४७० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते =वास्तव गृहान्तरांश, गृहाग्ररूपग्रह का दृष्टान्तर (दृष्टि संज्ञतुल्य) दृग्ज्या होती है, आचार्य का यह खण्डन ठीक नहीं है इति ।३८।। इदानीं शंकुमाह। मूले द्वघड,गुल विपुलः सूच्यग्रो द्वादशाङगुलोच्ह्वायः । शंकुस्तलाग्रविद्धोऽग्रवेधलम्बादृजुर्जेयः ॥३॥ सु. भूम -(शकुस्तलाग्रविद्धोऽग्रवेधलम्बादृजुसँयः ।३९॥ । अग्रवेधलम्बादग्ररन्ध्रगतावलम्वादृजुर्लम्बाकारो ज्ञेयः। तलादाधारवृत्तकेन्द्रादग्रपर्यन्तं विद्धः सरन्ध्र इत्यर्थः। शेषं स्पष्टार्थो ।।३८॥ वि. भा.-मूले (तले) द्वयङ्गुलपिण्डःअग्र सूच्याकारः । द्वादशाङ्गुल मुच्छुितिः । अग्रवेधलम्बात् (अग्ररन्ध्रगतावलम्बात्) ऋजुः (सरलाकारो लम्बा- कारो वा), तलाग्रविद्धः (आधारवृत्तकेन्द्रादग्रपर्यन्तं विद्धः सरन्ध्र इतिः) शंकुङ्यः । सिद्धान्त शेखरे । "भ्रमविरचितवृत्तस्तुल्यमूलाग्रभागो द्विरदरदन जन्मा सारदारूद्भवो वा । गुरु ऋजुरवलम्बादव्रणः षट्कवृत्तः समतल इह शस्तः शंकुरकङगुलः स्यात् । “ अस्यार्थ –भ्रमेण (शाणेन) विरचितं कृतं वृत्तं यस्मिन् सः। अत एव तुल्यमूलाग्रभागः ( समानो मूलभागोऽग्रभागश्च यस्य सः ) घर्षण शिलया तथा धृष्टो यथा सर्वत्रैव कृतानां वृत्तानां परिधयस्तुल्या भवेयुः। गजदन्तसम्भवः । वा सारवत्काष्ठेन निर्मितः । गुरुः (अलघुतौल्यः)। अवलम्ब सूत्रतः सरलाकारः । प्रणरहितः । षड्वृत्तसहितः । समतलः (समीकृतस्तल भागो यस्य), द्वादशाङगुलप्रमाणः । इह यत्रोपयोगे एतादृशः शंकुः प्रशस्तः स्यात् । ज्योतिषसिद्धान्ते दिग्देशकालज्ञानार्थं सर्वत्रैव शंकुरुपयोगित्वेन प्रसिद्धोऽस्ति । परं स कीदृशो निर्मापयितव्यस्तदेवानेन श्लोफेन श्रीपतिना कथ्यते, अतः कथित बक्षणयुक्तः शंकुरेव प्रशस्तस्तद्भिन्नश्चाशोभन इति । अत्र लल्लोक्तम् "भ्रमसिद्धः सममूलाग्रपरिघिरतिसुगुरुसारदारुमयः। रज्जुव्रणराजिलाञ्छनस्तथा च समतलः शंकुः ।।” इति लल्लोक्तमेव श्रीपतिना छन्दोऽन्तरेणोक्तमिति स्फुटमेव विदुषाम्। भास्कराचायऽपि "समतलमस्तकपरिधिभ्रमसिद्धो दन्तिदन्तजः शंकुः । तच्छायातः प्रोक्त ज्ञानं दिग्देशकालानाम् ॥“ १४७१ इत्यनेन लल्लोक्त श्रीपर्युक्त च विविच्य स्पष्टाशयं शंकुयन्त्रं कथयतीति । सूर्य सिद्धान्ते “‘नरयन्त्रं तथा साधु दिवा च विमले रवौ । छायासंसाधनैः प्रोक्त कालसाधनमुत्तमम् ।” एवं कथ्यते ।। इति ३९ ॥ अब शंकु को कहते हैं । हि- भा.-मूल (नीचे) में दो अंगुल मोटा, अग्र में सूची (सूई) के आकार का, बारह अंगुल ऊचा, अग्र में जो रन्ध्र (छिद्र) तगत अवलम्ब से ऋजु (लम्बाकार), प्राधारवृत्त केन्द्र से अग्रपर्यन्त रन्ध्र में मिला हुआ शंकु समझना चाहिये इति । सिद्धान्त शेखर में ‘भ्रम विरचितवृत्तस्तुल्यमूलाग्र भागो । द्विरदरदनजन्मा सारदारुभवो वा' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक से श्रीपति कहते हैं कि शाण से विरचित है वृक्ष जिसमें अत एव समान है मूल भाग और अग्र भाग, अर्थात् घिसने वाले पत्थर से इस तरह घिसा गया है जिससे सब जगह किये हुये वृत्तों की परिधि तुल्य है । हाथी दांत के या सार वाले काष्ठ क बना हुआ, गुरु (भारी), सरलाकारव्रण (प्रवड़ खुवड़) से रहित, तत्व भाग जिसका समान है, ऐसे बारह अंगुल के शंकु प्रशस्त है । ज्यौतिष सिद्धान्न ग्रन्थों में दिशा देश और काल के ज्ञान के लिये सब स्थानों में शंकु उपयोगिता के कारण प्रसिद्ध है अर्थात् हर जगह शंकु की जरूरत होने से शंकु प्रसिद्ध है लेकिन वह शंकु कैसा होना चाहिये वही बात श्रीपति ने उपर्यु क्त श्लोक से कही है: उपयुक्त लक्षणों से युक्त शंकु से भिन्त शंकु प्रशस्त (शोभन) नहीं है । यहां लल्लाचार्य ने "भ्रम सिद्धः सममूलाग्रपरिधिरतिसूगुरु सारदारुमयः’ इत्यादि विज्ञानभाष्य में लिखित श्लोक के अनुसार कहा है, लल्लोक्त का ही ने श्रीपति अनुवाद किया है । सिद्धान्त शिरोमणि के गोलाध्याय में "समतल मस्तक परिधिश्न मसिद्धो दन्तिदन्तजः शंकुः" इत्यादि | से भास्कराचार्य भी लल्लोक्त और श्रीपयुक्त को ही सोच विचार कर स्पष्ट रूप से शंकु यन्त्र को कहते हैं । सूर्य सिद्धान्त में ‘नरयन्त्रं तथा साधु दिवा च विमले रवौ । छाया संसाधनैः’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक के अनुसार कहा गया है, बांकुच्छाया से कालज्ञान होता है जैसे छाया ज्ञान से छाया'+शंकु= w छाय'+१२' =छायाकणें । तब छायाकxशं= इहति । इटुहृति से इष्टहृति.त्रि ==इष्टान्त्या । इस १२ में चरज्या संस्कार करने से सुत्र ज्ञान होता है, इससे उन्नत काल का ज्ञान सुलभता ही से होता है, सिद्धान्त शिरोमणि आदि देखने से स्फुट है इति ॥३८॥ D इदानीं शंकुयन्त्रेण कालज्ञानमाह । छायां दृग्ज्यां दृष्टिं छायाकर्मवलम्बकं शंकुम् । परिकल्प्य शंकुयन्त्रे योज्यं घटिकादि यष्टधक्तम् ॥४० ॥ १४७२ सु. भा.-शंकुयन्त्रे छायाँ दृग्ज्यां दृष्टि छायाग्रशंक्वग्रसूत्रं छायाकर्ण शंकुमवलम्बकं प्रकल्प्य यष्टियुक्त यष्टियन्त्रोक्त घटिकादिसर्वं योज्यम् । यष्टि यन्त्रात् सर्वं यथा साधितं तथाऽस्मादपि साधनीयमित्यर्थः ।।४०।। वि-भा-शंकुयन्त्रे छायां दृग्ज्यां दृष्टि छायाग्रशक्वग्रगत सूत्र छायाकर्ण शंकुमवलम्बकं प्रकल्प्य यष्टियन्त्रोक्त घटिकादिसर्वं योज्यमर्थाद्यष्टियन्त्राद्यथा सर्व साधितं तथाऽस्मादपि साधनीयमिति ॥४० अब शंकृयन्त्र से कालज्ञान को कहते हैं । हि. भा.-शंकुयन्त्र में छाया को दृग्ज्या, दृष्टि (छायाग्रशक्वग्रगतसूत्र) को छाया क्रणं, शंकु को अबलम्वसूत्र कल्पना कर यष्टि यन्त्र में कथित घटिकादि सब साधन करना चाहिये अर्थात् यष्टि यन्त्र से जैसे सब कुछ साधन किया गया है वैसे इससे भी साधन करना चाहिये इति ।।४०।। इदानीं घटीयन्त्रमाह । कलशार्वाकृति ताम्रम् पात्रं तलेऽपृथुच्छिन्नम् । मध्ये तज्जलमज्जनषष्टया द्युनिशं यथा भवति ॥४१॥ सु. भा.-ताम्र ताम्रभवं पात्रं कलसार्धाकृतिघटार्धप्रतिमं घटिका घटीयन्त्रं भवति । अस्य पुत्रस्य तले मध्ये तथाऽपृथुच्छिद्र कार्यं यथा यज्जलमज्जनषष्टया द्युनिशमहोरात्रमानं भवति । एवमेकनिमज्जनेनैका घटी भवतीति सर्वं स्फुटम् ।।४१॥ वि. भा.-ताम्रभवं पात्रं घटार्धानुकारं घटिका (घटी यन्त्रं) भवति । अस्य ताम्रपात्रस्य तले तथा ऽपृथु (लघु) च्छिद्र कार्यं तथा तज्जलमज्जनषष्टया ऽहोरात्रमानं भवति-अर्थादेकनिमज्जनेनैका घटी भवतीति । सिद्धान्तशेखरे शुल्बस्य दिभेिवहितं षडङगुलोच्चं द्विगुणांयतास्यम् । पलंयंत तदम्भसा षष्टिपलैः प्रपूर्य पात्र घटार्धप्रमितं घटी स्यात् । सत्यंशमाषत्रय निमिता या हेम्न: शलाका चतुरङ ,गुला स्यात्। विद्ध ' तया प्राक्तनमत्र पात्र प्रपूर्यते नाड़िकयाऽम्बुना तव ।" श्रीपतिनैवमुच्यते । अस्यायमर्थः--शुल्बस्य ताम्रस्य) दिग्भिः (दशभिः) प्रश्न-"पैश्चतुभिश्चपलं तुलाज्ञा” इति भास्करोक्तचा चत्वारिंशद्भिः कणैः । विहितं (निमित)षड़ङ्गुलोच्छ्ायम्, (द्वादशाङ्गुलदीर्घमुखम्), घटार्श्वप्रमितं (कलशार्धरूपम्) अम्भसा (जलेन) षष्टिपलैः पूर्णं यत्पात्रमर्थाज्जलपात्र निक्षिप्तं सत् -एकघटचा S) १४७३ जलपूर्णं भूत्वा यत्पात्र निमज्जति तत् घटीसंज्ञकं यन्त्र स्यात् । अथानया रीत्या निर्मितं घटीयन्त्र यथा जलपात्रे षष्टिपलैनिमज्जेत्तदर्थं तस्य तले छिद्रकरणरीतिं कथयति । सश्यंशमापत्रयनिमितेत्यनेन, तुल्या यवाभ्यां कथिताऽत्र गुञ्जा, दशाउँ गुञ्जं प्रवदन्ति माषस्" इत्युक्तलक्षणेन सयंशमाषत्रयेण निमिता चतुरङ्गुला सुवर्णशलाका या स्यात्तयाविद्ध (भेदितं) पूर्वकथितं घटीयन्त्ररूपं पात्रमेकेन दण्डेन जलेन पर्यो भवतीति । अत्र लल्लाचार्योक्तम् “दशभिः शुल्बस्य पलैः पात्र कलशधं सन्निभं घटितम् । हस्ताधंमुखव्यासं समघटवृत्तं दलोच्छूायम् ।। संयंशमाषकत्रयनलया समसवृत्तया हेम्न:। चतुरंगुलया विद्ध' मज्जति विमले जले नाड्याः ॥“ इत्येवानूदितं श्रीपतिना, अत्र भास्कराचार्येण । ‘‘घटदलरूपा घटिता घटिका तापं तलेऽप्युच्छिद्रा। द्यनिशनिमज्जनमित्या भक्त द्युनिशं घटीमानम् ॥“ दशभिः शुल्बस्य पलैरित्यादि यद् घटीलक्षणं कैश्चित् कृतं तद्युक्तिशून्यं दुर्घटं चेत्येतदुपेक्षितम् । इष्टप्रमाणाकारसुषिरं पात्र घटीसंज्ञमीकृतम् । यदि युनिशनिमज्जनसंख्यया षत्रिशच्छता ३६०० नि पलानि लभ्यन्ते तदैकेन निमज्ज- नेन किमिति रीत्या घटीयन्त्रप्रमाणनिरूपणं लल्लश्रीपत्याद्युत्तथा षष्टिपल प्रपूर्यघटीयन्त्रनिर्माणस्य युक्तिशून्यत्वं च यत्कथ्यते तत्समीचीन मेवेति (क) ॥४१॥ अब घटीयन्त्र को कहते हैं । हि.भा-आधा घट (घड़ा) के सदृश ताम्र (तांबा) का पात्र घटीयन्त्र होता है । इसके तल के मध्य में छोटा छिद्र (सूराख) ऐसा करना चाहिये जिससे जलपात्रस्य पल में साठ बार उसके बने से अहोरात्रमान हो अर्थाव एक बार इबने से एक घटी हो इति । सिद्धान्तशेखर में ‘शुल्वस्य दिभिविहितं पलैणैव इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से श्रीपति कहते हैं कि दशपल अर्थव ‘कर्षेश्चतुभश्च पल’ इस भास्करोक्त सूत्र के अनुसार चालीस करें तान (तांबां) से बनाया हुआ छः अंगुल ऊचाईबारह अंगुल चौड़े मुख को लम्बाईआधे घट (पड़े) के सदृश साठ पल में जल से पूर्ण जलपात्र में देने से एक घटी में जल से पूर्ण हो कर लो पात्र डूबता है वह घटी नाम का यन्त्र (घटीयन्त्र) है । इस तरह निमित घट यन्त्र जैसे साठ पल में जलपात्र में इबे, उसके लिये उसके तल के मध्य में (क) सूर्यसिद्धान्ते ताम्रपात्रमधचिञ्चद् न्यस्तं कुण्डेऽभलाम्भसि । षष्टिपुंज्यत्यहोरात्रे स्फुटं यन्त्रं कपालकम्' इत्यनेन घटी यन्त्रमेव कपालयन्त्र कथ्यते १४७४ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते छिद्र करने के प्रकार कहते हैं। तुल्या यवाम्यां कथिताऽत्र गुञ्जा, दशार्ध गुञ्जं प्रवदन्ति माषस्” इस लक्षण से तृतीयांश सहित तीन माषा से निमत चार अंगुल सुवर्णं शलाका से विड (भदित) पूर्वकथित घटी यन्त्र रूप पात्र जल से एक दण्ड में पूर्ण होता है । यहां लल्लाचार्याक्त है "दशभिः शुल्बस्य पलैः पात्र कलशार्घसन्निभं घटितम्" इत्यादि विशान भाष्य में लिखित श्लोकों का अनुवाद श्रीपति ने 'शुल्बस्य दिग्भिर्थिहितं’ इत्यादि से किया है । भास्कराचार्य के गोलाध्याय में "घटदल रूपा घटिता धटिका तानी तलेऽपृथुच्छिद्रा’ इत्यादि दशभिः शुल्बस्य पलैः इत्यादि घटी लक्षण जो किसी ने किया है वह युक्ति शून्य और दुर्घट है इसलिये वह उपेक्षा के योग्य है । इष्ट प्रमाण आकार छिद्र वाला पात्र घटी संज्ञक स्वीकार किया गया है । यदि चुनिश (अहोरात्र) निमज्जन संख्या में छत्तीस सौ ३६०० पल पाते हैं तो एक निमज्जन में क्या इस रीति से घटी यन्त्र प्रमाण निरूपण किया है । लल्ल और श्रीपति आदि आचायक्ति से साठ पल में जल से भरने योग्य घटीयन्त्र के निर्माण को युक्ति शून्य और दुर्घट जो कहते हैं तो समीचान ही है' इति ॥४१॥ इदानों कपालमन्त्रमाह । मध्याद्य स्वनतशैः कपालकं दिक्स्थ सूत्रमध्याग्रात् । व्यस्तोन्नतांश विवरे सूर्येक्यापाततो नाडघः॥४२॥ सु. भा-मध्याद्यस्वनताँशैः कपालकं कपालयन्त्रं भवति । क्षिति- जानुकारं दिगर्छितं फलके वृत्तं विरचय्य इष्टदिने द्यज्याचरज्यादेना प्रत्यंशं नतांशं प्रकल्प्योन्नतघटिका मध्यनताँशावधि प्रसाध्य व्यस्तकपाले ता घटिकाः स्वस्वनतांशाग्रे वृत्तपालावंक्याः। एवं कपालयन्त्रं भवति । इष्टकाले दृग्मण्डलाकारे धृते कपालयन्त्रे केन्द्रस्थकीलच्छायानुसारि केन्द्रगतं सूत्रं यत्र परि धौ लगति तत्राझिता नाडय इष्टघटिका भवन्ति । एवं दिक्स्थसूत्रमध्याग्रात् सूत्रैक्यापाततः सूत्रभयोर्युदैक्यं तस्यापाततो वृत्तपरिधौ संयोगतो व्यस्तोन्नताँश विवरे व्यस्तकपालस्थोन्नताँशान्तरे नाडयो भवन्ति गोलयुक्तितः ।।४२॥ वि. भा-मध्याद्यस्वनतरः कपालयन्त्र भवति । फलके दिगङ्कितं क्षितिजानुकारं वृत्तं कृत्वाऽभीष्टदिने घृज्या चंरज्यादिना प्रत्यंशं प्रकल्प्योन्नत घटिका मध्यनतांशावचि साधयित्वा ता घटिका व्यस्तकपाले स्वस्वनतांशाग्रे वृत्त पालावङ्कथाः एवं कपालयन्त्र ’ भवति । इष्टकाले कपालयन्त्रे दृग्मण्डलाकारे धृते केन्द्रस्थकीलछायानुसारि केन्द्रगतं सूत्र वृत्तपरिधौ यत्र लगति तत्राङ्किता नाडघ (१) सूर्यसिद्धान्त में तानपात्रमधविछद्र’ इत्यादि से पूर्व कथित घटी यन्त्रं को ही कपाल यन्त्र कहते हैं । यन्त्राध्यायः १४७५ इष्टघटिका भवन्ति । एवं दिक्स्थसूत्रमध्याग्रात् सूत्रंक्चापाततः सूत्रयोर्यदैक्च तस्यापाततो वृत्तपरिधौ संयोगतो व्यस्तोन्नतांशविवरे (व्यस्तकपालयस्थोन्नतांशा- न्तरे) घटयो भवन्ति । सिद्धान्तशेखरे । “इदं भवेद्ध्वंशलाकमुव्र्यां स्थितं कपालं धृतिदिक् च चापम् । मध्यस्थकीलप्रभया विमुक्ताः प्रत्यगतास्ता घटिकानिरुक्ताः । ” श्रीपतिनैवं कथ्यते—अस्यार्थे–इदं चापयन्त्रमूवंशलाकं (ऊध्वंगलम्बं वा) द्युतिदिक् उव्य स्थितं (छायादिशि समभूमौ स्थितं) कपालयन्त्र भवेत् । कपाल यन्त्रे व्याससूत्रमध्यबिन्दौ स्थापितस्य कीलस्य छायया विमुक्तास्त्यक्ता घटिका प्रत्यग्गता भवन्तीति । आचार्योक्तसूत्रोपपत्तिरपि भाष्यरूपैवास्तीति । श्रीपयुक्त सूत्रार्थमुपपत्तिः । वृत्तार्घस्वरूपं चापयन्त्र यस्यां दिशि ऊध्वंगशलाकायाश्छाया पतति तस्यां दिशि चापं स्थितमर्थात् याम्योत्तरसूत्रधरातले यन्त्रस्य व्याससूत्र छायादिशि च तवृत्तार्धमिति रीत्या स्थापितं तद्वशतोऽपि तथैव भुक्ता लम्बच्छायया या घटिका- स्ताः प्रत्यग्गता दिनघटिका इति । शिष्यधीवृद्धिदतन्त्रे लल्लोक्तम् इदमेवोध्वंशलाकं भुवि स्थितं स्यात् कपालकं यन्त्रम् । अनयोः कीलच्छायामुक्ता घटिका भवन्ति वारुण्याः। इत्येव श्रीपतेर्दूलम् । सिद्धान्तशेखरे शिष्यधीवृद्धिदे चैकत्रैव कपालयन्त्र पीठयन्त्रयोरुल्लेखोऽस्ति । यथा सिद्धान्तशेखरे इदं भवेद्ध्वंशलाकमुव्र्यां स्थितं कपालं धृतिदिक् च चापम् । संसाधिताशं खलु चक्रयन्त्र पीठं भवत्यूध्वंशलाकमेव । मध्यस्थकीलप्रभया विमुक्ताः प्रत्यग्गतास्ता घटिका निरुक्ताः । पाठे तु सूर्योदयबिम्बवेषाद् भुक्तांशजीवा स्फुटमग्रका स्यात् । शिष्यधीवृद्धिदे च इदमेवोध्वंशलाकं भुवि स्थितं स्यात् कपालकं यन्त्रम् । चक्र चोवंशलाकं वदन्ति पीठं सुसिद्धाशम् ।। अनयोः कीलच्छायामुक्ता घटिका वदन्ति वारुण्याः। पीठाकोदयवेधादग्नाश्चापांशकाश्चापि ॥४२॥ १४७६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अब कपालयन्त्र को कहते हैं । हि. भा.-मध्यादि अपने नतांश से कपालयन्त्र होता है। फलक में दिशा से अङ्कित क्षितिजानुकार वृत्त बनाकर अभीष्ट दिन में वृज्या-चरज्या आदि से प्रत्येक अंश को कल्पनाकर मध्य नतांश पर्यन्त उन्नतघटी साधन कर उस घटी को व्यस्त कपाल में अपने अपने नतांशाग्र में वृत्तपाली में अङ्कित करना चाहिये, इस तरह से कपाल यन्त्र होता है । इष्टकाल में कपाल यन्त्र को हमण्डलाकार रखने से केन्द्रस्थ कीलच्छायानुसार केन्द्रगत सूत्र वृत्तपरिधि में जहां लगती है वहां अङ्कित नाड़ी इष्टघटी होती है । एवं दिक्स्थसूत्र मध्यान से सूत्रों का जो ऐक्ष (योग) है उसके आपात से अथवा वृत्तपरिधि के साथ संयोग ते व्यस्त (उल्टा) कपालस्य उन्नतांशान्तर में घटी होती है । सिद्धान्तशेखर में “इदं भवेद्ध्वं शलाकमु स्थितं कपालं धृतिदिक् च चाप’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों के अनुसार श्रीपति कहते हैं इस लोक का अर्थ यह है ऊध्र्वगत है शलाका वा लम्ब जिसमें ऐसा यह चाप मन्त्र समान पृथिवी में छाया दिशा में स्थित कपाल यन्त्र होता है । कपाल यन्त्र में व्यास सूत्र के मध्य बिन्दु में स्थापित कील की छाया से त्यक्तघटी पश्चिम दिशा में होती है इति ।।४२। आचार्योक्त सूत्र की उपपत्ति व्याख्यारूप ही । है । श्रीपयुक्त सूत्रोपपत्ति के लिये शिष्यधीवृद्धिद तन्त्र में "इदमेवोष्वंशलाकं भुवि स्थितं स्यात् कपालकं यन्त्रम् ’ इत्यादि लल्लोळ ही श्रीपयुक्त का मूल है, सिद्धान्तशेखर में और शिष्यधीवृद्धिद में भी कपालयन्म और पीठ यन्त्र का उल्लेख साथ साथ है। जैसे सिद्धान्त शेखर में इदं भवेद्ध्वंशलाकमुव्र्यां स्थितं कपालं धृतिदिक् च चापम् । संसाधिताशं खलु चक्रयन्त्र पीठं भवत्यूध्वंशलाकमेव । मध्यस्थ कीलप्रभया विमुक्ताः प्रत्यगतास्ता घटिका निरुक्तः । पीठे तु सूर्योदय बिम्बवेधा भुक्तांशजीवा स्फुटमग्रका स्यात् । शिष्यधीवृद्धिद तन्त्र में । इदमैवोष्वंशलोकं भुवि स्थितं स्यात् कपालकं यन्त्रम् । चत चोध्र्वंशलाकं वदन्ति पीठं सुसिद्धाशम् ॥ अनयोः कीलच्छायामुक्ता घटिा वदन्ति वारुण्याः । पीठाकोंदयवेषादग्राश्चापांशकाश्चापि । इदानीं विशेषमाह । अथवा कपालके नाडिकादि सवं यया धनुष्युक्तम् । कर्तरि यन्त्र स्थूलं कृतं यतोऽन्येवंवामि ततः ॥४३॥ ॥ १४७७ सु. भा-अथवा यथा धनुषि धनुर्यन्त्रे सर्वे नाडिकादि यथोक्तं तथैव कपालकेऽपि शेयम् । अथान्यैर्यतः कर्तुरियन्त्रं स्थूलं कृतं ततस्तस्मादहं सूक्ष्मं वदामीति ॥४३॥ वि. भा-–अथवा धनुर्यन्ते सर्वे नाडिकादियथोक्त कपालके यन्त्रेऽपि तथैव ज्ञेयम् । यतोऽन्यैराचार्यः कर्तरि यन्त्र' स्थूलं कृतं तस्मात्कारणादहं सूक्ष्मं बदामीति ॥४३॥ अब विशेष कहते हैं । हि. भा–अथवा धनुर्यंन्त्र में सब नाडिकादि वातें जैसी कही गयी है वैसी ही कपालयन्त्र में समझनी चाहिये । कभों कि अन्य आचार्य लोगों ने कर्तरी यन्त्र को स्थूलरूप से वर्णन किया है इस कारण से मैं सूक्ष्म कहता हूं इति ।।४३।। इदानीं कर्तरी यन्त्रमाह । द्विस्थितफलकद्वियुतिस्तले तदग्रस्थसूत्रयोर्मध्ये कीलस्तच्छायाग्रात् कर्तर्यो नाडिकाः स्थूलाः ॥४४॥ सु. भा.-अर्धवृत्तानुकारं फलकद्वयं कार्यम् । एकमधोऽधुनाडीव लयानुकारमन्यदधोऽर्धयाम्योत्तरवृत्तानुकारम् । ततस्तले यथादिस्थितयोर्दूयोः फलकयोर्युतिः कार्या यथक नाडोमण्डलधरातलेऽन्यत् स्वयाम्योत्तरमण्डलधरातले स्यात् । तदग्रस्थे ये पूर्वापरदक्षिणोत्तरानुकारे सूत्रे तयोर्मध्येऽर्थावृत्तयोः केन्द्र कीलः स्थाप्यो यथाऽयं कीलो ध्रुवयष्टिरेव भवेत्। एवमिदं कर्तरीयन्त्रं भवेत्। अस्यां कर्तर्या तच्छायाग्रात् कीलच्छायाग्रात् स्थूला नाडिका इष्टघटघो भवन्ति । इदमेव भास्करेण ‘भूस्थं ध्रुवयष्टिस्थं चक्रम्'-इत्यादिना नाडीवलयाख्यं यन्त्रमुदितं। भास्करविधिना यदि रविक्रान्तिरेकस्मिन् दिने स्थिरा तदैवोन्नत घटिका वास्तवा गोल युत्तया भवन्ति परन्तु रवेः क्रान्तेः प्रतिक्षणं चलत्वान्ना- डिकाः स्थूला भवन्तीत्याचार्योक्तं गोलयुक्तियुतं बुद्धिमद्भिश्चिन्त्यम् । अनेन यन्त्रेण नतकालज्ञानं सूक्ष्मं भवतीति सिद्धान्तविदां स्फुटम् ॥४४॥ वि. भाभाः -अर्धवृत्तानुकारं फलकद्वयं कार्यम् । एकमघोऽधैनाडीवृत्ताकारमन्य दधोऽर्ध याम्योत्तरवृत्तानुकारस् । ततस्तत्तले यथादिक् स्थितयोर्दूयोः फलकयोर्युतिः कार्या यथैकं नाडीवृत्तधरातलेऽन्यत् स्वयाम्योत्तरवृत्तधरातले स्यात् । तदग्रस्थे ये पूर्वापर दक्षिणोत्तरानुकारे सूत्रे तयोर्मध्येऽर्थावृत्तयोः केन्द्र कोलः स्थाप्यो यथाऽयं कीलो ध्रुवयष्टिरेव भवेत् । एवमिदं कर्तरीयन्त्रं भवेत् अस्यां कर्त कीलच्छाया pव स्थूला इष्ट नाड़िका भवंति । सिदान्तशेखरे १४७८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते "ज्यामध्यतिर्यस्थितकीलमेतत् पूर्वापरस्थं स्थिरझर्तरी स्यात् । प्रत्यग् धनुः कोटिमुखात् युनाडयः समुज्झिताः कीलरुचा भवन्ति श्रीपतिनैवं कथ्यते अस्यार्थः-एतच्चक्रयन्त्र ज्यामध्यतिर्यक् स्थितकीलकं व्यासरेखाया मध्यबिन्दौ तिर्यगाकारेण निवेशितलोहादिकीलं पूर्वापरंस्थं (पूर्वप श्विमानुरूपेण स्थापितं) स्थिरकर्तरोति कर्तर्याख्यं यन्त्र स्यात् । प्रत्यग्धर्तुः कोटिमुखात् पश्चिमबिन्दो यद्धनुः या च कोटिः (धनुषः प्रान्तः) तदारभ्य कीलरुचा (ज्यामध्यस्थापित कोलच्छायया) समुज्झिताः (मुक्ताः) नाडयः युनाडयः (दिनगत घटिका) भवन्ति । अत्रोपपत्तिः। चक्र यन्त्रस्यैव भेदान्तरं कर्तरीयन्त्रम् । चक्रयन्त्रे नाडीवृत्तानुसारेण स्थापिते पूर्ववदेव पश्चिमबिन्दोः कीलच्छायावधिका घटिकाः सूर्योदयतो दिनगता घटिकाः स्थूला भवन्ति । पूर्वबिन्दोः सुयों यथायथोपरि याति तथा तथा पश्चिम बिन्दोः कोलच्छायाऽध यातीति । अत्र ललोक्तम् "समपूर्वापरमेतत् स्थिरं स्थितं भवति कर्तरीयंन्त्रम् । ज्यामध्यस्थित तिर्यक्कीलच्छायोज्झिता घटिकाः ।।” इति श्रीपत्युक्तसदृशमेव । सिद्धान्तशिरोमणेर्लोलाध्याये इदमेव ‘भूस्थं ध्रुवयष्टिस्थम्’ इत्यादिना भास्करेण नाड़ीवलयाख्यं यन्त्रं कथितम् । भास्करोत्तया यद्येकस्मिन् दिने रविक्रान्तिः स्थिरा भवेतदैवोन्नतघटिका वास्तवा भवितुर्मोहन्ति परन्तु रवेः क्रान्तेः प्रतिक्षणं वैलक्षण्यान्नाडिकाः स्थूलाभवन्तीत्याचार्योक्त युक्तियुक्तम् । अनेन यन्त्रेण नतकालज्ञानं सूक्ष्मं भवतीति विज्ञेज्ञेयम् ।।४४। अब कर्तरी यन्त्र को कहते हैं । हि. मा.-एक नौचे में अर्थ नाडीवृत्ताकारदूसरा नीचे में अर्थयाम्योत्तरवृत्ताकार, इस तरह के अर्घवृत्तानुकार दो फलक करना चाहिये। उसके बाद उनके तल में दोनों फलकों को इस तरह योग करा देना जिस से एक नाडीवृत्त धरातल में हो और दूसरा याम्योत्तरवृत्त घरातलमें हो जाय । उन के अग्र में जो पूर्वापरानुकार औरं दक्षिणोत्तरानुकार सूत्र हो उन दोनों के मध्य में अर्थात् वृत्तद्वय के केन्द्र में कील को स्थापन करना जिससे यह कील घुवयष्टि हो, इस तरह यह कहॅरी यन्त्र होता है । इस कत्तंरीयन्त्र में कीलच्छायाग्र से स्थूल इष्टघटी होती है । सिद्धान्तशेखर में ज्यामध्यतियंस्थितकीलमेतत्' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक के अनुसार श्रीपति कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि यह चक्र यन्त्र व्यास रेखा के मध्य बिन्दु में तिर्यक् आकार से निवेशित लोह आदि कील यन्त्राध्यायः १४७३ को पूर्वापर रूप से स्थापन करने से कर्तरी संज्ञक यन्त्र होता है । पश्चिम बिन्दु में जो धनुष और उसका जो प्रान्त उससे आरम्भ कर ज्यामध्य स्थापित कीलच्छाया से मुक्त (त्यक्त) नाड़ी-घुनाडी (दिनगत घटी) होती है । इति ४४॥ ॥ उपपत्ति । चक्रयन्त्र ही का भेदान्तर कर्तरी यन्त्र है । नाडीवृत्तानुसार चक्रयन्त्र को स्थापन करने से पूर्ववत्र ही पश्चिम बिन्दु से कीलच्छायापर्यन्त घटी सूर्योदय से दिनगत स्थूल घटी होती है, पूर्व बिन्दु से ज्यों-ज्यों ऊपर जाते हैं त्यों त्यों पश्चिमबिन्दु से कीलच्छाया नीचे जाती है । यहां ‘समपूर्वापरमेतच स्थिरं स्थितं भवति कर्तरी यन्त्रम्' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित लल्लाचार्योक्त श्रीपयुक्त के सदृश ही है । सिद्धान्तशिरोमणि के गोलाघ्याय में ‘भूस्थं भुवयष्टिस्थम्' इत्यादि से श्रीभास्कराचार्य ने इसी को नाड़ीवलय संज्ञक यन्त्र कहा है । यदि एक दिन में रवि की क्रान्ति स्थिर मानी जाय तब ही भास्कराचायोंक्ति से उन्नत घटी वास्तव हो सकती है परन्तु रवि की क्रान्ति प्रतिक्षण विलक्षण होती है इसलिये नाडिकाः स्थुला भवन्ति' यह आचार्योंक्त युक्तियुक्त है। इस यन्त्र से नतकाल ज्ञान सूक्ष्म होता है इति ॥४४॥ इदानीं पीठयन्त्रमाह । दृष्टपच्यं समपीठं यष्टिब्यासार्धमन्तिकं परिधौ । दिग्भगणांवमूर्धन्यग्रा घटिकादिभिश्चाझ्यम् ।।४५।। सु. भा.-एकं दृचौल्यं दृषौ व्यसमे प्रदेशे खे गतं यष्टि व्यासार्धमन्तिक समपीठं समं चाक्राकारं फलकं कार्यं । परिभो दिग्भिर्भ गणांशैस्तथा मूर्धनि परिध्यग्रभागेऽग्राघटिकादिभिरग्नोन्नतघटादिभिश्चाक्य पोठसलं यन्त्रं चक्र- यन्त्राकारं भवतीत्यर्थे ः॥४५॥ तथा च लल्लः- चक्रे वोध्वंशलाकं वदन्ति पीठं सुसिद्धाशम् । (शिष्यधीवृ० यन्त्राध्यायइलोक २५ ) वि. भा.-दृष्टयौच्च्यसभे प्रदेशे खे गतं यष्टिव्यासार्धमन्तिकं समपीठं (समं चक्राकारं फलकं कार्यं ) परिधो दिग्भिशृगणांशैः, मूर्धनि (परिध्यग्रभागे) अग्राघटिकादिभिः (अग्रोन्नत घटिकादिभिः) अङ्घी पीठयन्त्रे चक्राकारं भवतीति । "संसाधिताशं खलु चक्रयन्त्र पीठं भवत्यूर्वेशलकमेव पीठे तु सूर्योदय बिम्बवेधाद् भुक्तांशजीवा स्फुटमग्रका स्यात् । D १४८० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते श्रीपतिनैवं कथ्यते । अस्यार्थः-संसाधिताशं चक्रयन्त्र (कृतदिक् साधनं पूर्वकथितंचक्रयन्त्र) ऊध्र्व शलाकमेव (उपरिगतलम्बमेव) पीठं (पीठ संज्ञक) यन्त्र भवेत् । पीठे यन्त्रे सूर्योदयबिम्बवेधात् (सूर्योदयसमये रविबिम्बवेधेन) भुक्तांशजीवा (भुक्तानामंशानां जीवा) ऽग्रका स्यात् । स्फुट (प्रत्यक्षमेव दृश्यते) मिति । अत्रोपपत्तिः । कृतदिक् साधनं वृताकारं पीठयन्त्र सूर्योदये सुर्याभिमुखं स्थापितं तेन पश्चिमबिन्दोर्यदन्तरेण छाया पतिता तदन्तरमग्रा चापशास्तज्ज्याङग्रा भवतीति यन्त्रस्थितिदर्शनेनैव स्फुटम् । शिष्यधीवृद्धिद तन्त्रे ‘चक्र चोध्र्वंशलाकं वदन्ति पीठं सुसिद्धाशम् । पीठाकदयवेधादग्राश्चापांशकाश्चापी ।।' ति लल्लोक्तमेव श्रीपत्युक्तस्य मूलमिति विज्ञविवेचनीयम् ॥४५॥ अब पीठ यन्त्र को कहते हैं । हि. भा.-दृष्टि की ऊंचाई के तुल्य प्रदेश में आकाशस्थ यष्टि व्यासार्बजनित चक्रा कार फलक करना चाहिये । परिधि में दिशा और भगणांश को अति करना चाहिये तथा परिधि के अग्रभाग में अग्राघटी को अङ्कित करना अर्थात् पीठ यन्त्र चक्राकार होता है । सिद्धान्तशेखर में ‘संसाधिताशं खलु चक्रयन्त्रं’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक के अनुसार कहते हैं, इसका अर्थ यह है-पूर्वकथित चक्रयन्त्र जिसमें दिक्साधन किया हुआ है उपरिगत लम्ब ही पीठ संज्ञक यन्त्र होता है, पीठ यन्त्र में सूर्योदयकाल में रविबिम्ब‘ वेध से भुक्त अंशों की जीवा (ज्या) अग्रा है इति ॥४५॥ उपपत्ति । जिस में दिक्साधन किया हुआ है ऐसे वृत्ताकार पीठ यन्त्र को सूर्योदयकाल में सूर्याभिमुख स्थापन करने से पश्चिम बिंदु से जितने अन्तर पर आया पतित होती है वह अग्रानुषांश है उसकी ज्या अग्रा होती है, यह यन्त्रस्थिति की भावना ही सै स्फुट है । शिष्यधीवृद्धिदतन्त्र में ‘चक्र चोध्र्वंशलाकं वदन्ति पीठं' इत्यादि लल्लोक्त ही औपत्युक्ति की मूल है इसको विज्ञलोग विचार कर देखें इति ॥४५॥ इदानीं यन्त्रान्तरमाह। नलको मूले विद्धस्तत्यु तिघटिकोवृतः समुच्श्रायः । लब्धाङगुलैस्तु तैर्नाड़िका दिया यन्त्रसिद्धिरतः।४६। यन्त्राध्यायः १४८१ सु० भा०-एक इष्टप्रमाणो नेलको मूले विद्धः कार्यः। स च जलैः पूर्णाः कार्यः। अधोरन्भैण यावतीभिर्घटीभिर्जलम्नतिः स्यात् ताः तु तिघटिका ज्ञातव्याः । नलकस्य समुच्ष्ट्रायस्तत्स्रतिघटिकोद्धतस्तैर्लब्धाङ्ग , लैनॅलके चैकैको विभागोऽङ्कनीयः । अत एभ्यो विभागेम्यो नाडिका क्रिया यन्त्र सिद्धिर्भवति । नाडिकाक्रियया यन्त्रसिद्धिर्भवतीत्यर्थः। एकविभागपर्यन्तं जलनुत्यैका घटी द्वितीयभागपर्यंतं जलस्र,त्या घटीद्वयम्। एवमत्र कालज्ञानं भवति । अत्रोपपत्तिः। यदि स्र तिघटिकाभिर्नलकोच्छुितिसमा जलस्तृति- स्तदैकया घटथा कि जातैकघटी समकालजलम् तावुच्छुितिरिति ।n४६॥ । वि. भा.-एक इष्टप्रमाणो नलको ग्राह्यस्तन्मूले विद्धः कार्यः । स जलैः पूर्णः कार्यः। अधोरन्ज़ेण यावतीभिघंटीभिर्जलम्नतिः स्यात् ताः तु तिघटिका बोद्धव्याः । तत्तु तिघटिकया नलकोट्टायोभक्तं लंब्धांगुलैर्नेलके एकैको विभागश्चि न्हितः कार्यः। अत एभ्यो विभागेभ्यो नाड़िकाक्रियया यन्त्रसिद्धिर्भवत्यर्थादेक चिन्हपर्यन्तं जलस्रत्येका घटिका, द्वितीयचिन्हपर्यन्तं जलस्र त्या घटिकाद्वयम् । एवमग्रे ऽपि, अनया रीत्यात्र कालज्ञानं भवतीति । यदि जलस्र तिघटिकाभिर्नलकोच्छुितितुल्या जलस्र तिर्लभ्यते तदेकया घटया कि जातंकघटीतुल्यकालजनितस्तु तानुच्छुितिरिति । सिद्धान्तशेखरे श्रीपतिनैतद्भिन्नमेव यन्त्रान्तरं कालज्ञानार्थं कथ्यते यथा “नीरनु त्या चिन्हिते नाड़िकाञ्चमूलच्छिद्रवारिपूर्णे च पात्रे । गोलं तुम्बं पारताढ्यं गुणेन बद्ध केन प्रक्षिपेत्तत्र युक्तं । यथा यथाऽम्बु स्रवति क्रमेण तथा तथाऽधो ब्रजदत्र तुम्बम् । गोलं परिभ्रामयति स्वयं तव सूर्यांशभुजान्तरगास्तु नाडयः ।” अस्यार्थः-मूलच्छिद्र (अघोरन्ध्रवति) वारिपूर्णं पात्रे (जलपूर्णं कांस्या दिभाजने) नीरनु त्या (जलप्रस्रवणेन) नाड़िकाङ्कः (घटीपलविपलार्धेः) चिन्हिते पारतसहितं गोलं तुम्बं (वर्तुलाकारमलावु) तत्र जलपूर्णपात्रे गुणेन (रश्मिभिः) बद्ध, केन (जलेन) युक्ते प्रक्षिपेत् । अम् (तद्भाजनजलं) यथा यथा स्रवति (प्रस्रवितं भवति) तथा तथा अत्र अधो ब्रजत् तुम्बं स्वयं (अनन्यसापेको) गोलं परिभ्रामयति । तत्र सयशभुजान्तरगाः -क्रान्तिवृत्ते यस्मिन्न शे सूर्यो वर्तते तस्य क्षितिजवृत्तस्य चान्तरे गता नाड्यो भवन्ति । अत्र लल्लोक्तम् जलकुण्डेऽधछिद्र घटिकाकालाङ्किते जलस्र त्या । गोले वेष्टनसूत्राग्रबढतुम्बं क्षिपेत् सरसम् ॥ १४८२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते स्रवति च यथा यथाऽम्भस्तथा तथाऽलाबु गच्छमानमघः । भ्रमयति गोलकमंभो भुक्ताह्वा नाडिका ज्ञेयाः । इदमेव श्रीपत्युक्तस्य मूलम् । सूत्रानुसारेण गोलनिर्माणं अधश्छिद्रजल कुण्डे मूलच्छिद्र जलपूर्णपात्रे वा सपारदतुम्बप्रक्षेपेण नीचतो गच्छेत् तत्तुम्बं स्वयं गोलं भ्रामयतीति कारुकार्येनिपुणा एव तादृशं तुम्बयन्त्रमिदं निर्मातुमर्हन्ति । नाडीवृत्ते क्षितिजसूर्याभ्यन्तरगा अवयवाः सावनघटिका भवन्तीति ।४६।। अब यन्त्रान्तर को कहते हैं। हि. भा.- एक इष्ट प्रमाण नलक लेकर उसके मूल में छेद करना चाहिये । नलक को जल से भर देना चाहिये, नीचे के छेद से जितनी घटी में जलन्नति (जल का बहना) होती है, उसको जलस्र तिघटी समझनी चाहिये । उस जलस्र ति घटी से नलक के उच्ाय (ऊंचाई) में भाग देने से जो लब्ध अंगुल हो उसखे नलक में एक एक विभाग अङ्कित करना, इन विभागों से नाड़िका क्रिया द्वारा यन्त्र सिद्धि होती है अर्थात् एक विभाग पर्यन्त जलस्तुति से एक घटी, द्वितीय विभाग पर्यन्त जलन्नति से दो घटी, आगे भी इसी तरह, एवं काल ज्ञान होता है ।४६। उपपत्ति । यदि स्रति घटी में नलक की उच्छिति तुल्य जलस्रति पाते हैं तो एक घटी में क्या इससे एक घटी तुल्य काल जलस्र ति में उच्छुिति आती है इति ।।४६। इदानीं पुनर्यन्त्रान्तरमाह । घटिकाङ्गुलान्तरस्थैश्चरिबूटकंर्घटीधृतैरङ्घा। उपरिनरोऽधः सुषिरस्तिर्यक् कोलोऽस्य सुखमध्ये ॥ ४७ ॥ कीलोपरिगामिन्यां चीर्या धूतपारमलावु तस्मिन् । स्रवति जले क्षिपति नरो गुटिकां कूर्मावयश्चैवम् ॥ ४८ ॥ ॥ सु.भा.-अल्पविस्तारं विपुलदैध्यं वस्त्रखण्डं चीरिरित्युच्यते । एकस्य घटयां मनुष्यमुखद्यावद्वस्त्रखण्डं तदग्रबद्धसपारदालाबुना जलस्रावाघातेन बहिनः २. घटिकाङ्गलान्तरस्थैश्चीरिऍटकंर्घटीधृतैरकथा । उपरिनरोऽध:सुषिरस्तिर्यक् कीलोऽस्य मुखमध्ये ।।।४७। १. कीलपरिगामिन्यां चीर्णे धूतपारदमलाबु तस्मिन्। १४८३ सरति तद्घटिकाङ्गल मुच्यते । चीरिघंटिकाङ्गलान्तरस्थैर्टकैघंटीबँगैरङ्कया । घटिकाङ्गलान्तरस्थं रेकद्वित्र्यादिघटिकाङ्कितगुटिकास्तत्र योज्या इत्यर्थः। इयं चीरिर्नराकारस्य यन्त्रस्याधो रन्ध्रस्य मध्ये स्थाप्या तदुपरि च नरः स्थाप्यो यथा चीरिर्नराधो रन्ध्रतः प्रविष्टा नरमुखस्थतिर्यक्कीलोपरिगा भवेत् । नरमुखाने कीलोपरि यच्चीरिखण्डं तदने पारदपूर्णमलावुतुम्बं वध्नीयात् । तस्मिन् तथा जलधरा नलकादिना देया यथाधो गच्छताऽलाबुना घटिकया नर मुखादेकां गुटिकां बहिर्गच्छेत् । एवं जले स्रवति नरो नराकारयन्त्रं घटिकयैकां गुटिकां मुखाद् बहिः क्षिपति । एवं नराकार यन्त्रस्थाने हर्मादयः कूर्मादीनामाकारा बुद्धिमता कार्या इत्यर्थः ।४७-४८॥ वि. भा. -अल्पविस्तारं विपुलदैर्ये वस्त्र खण्डमचीरिरित्युच्यते । एकस्यां घट्य मनुष्यमुखद्यावद्वस्त्रखण्डं तदग्रबद्धसपारदालाबुना जलधवाघातेन सहिनिःसरति तद्धटिकाङ्गुलमुच्यते । चरिघंटिकायुजान्तरस्यैगंटीवेटोवृतै रङ्कया, अर्थात् घटिकाङ्गुलान्तरस्थैरेकद्वित्र्यादिघटिकाकितगुटिकास्तत्र देयाः । इयं चीरिर्नराकारस्याधोरन्ध्रस्य यन्त्रस्य मध्ये स्थाप्या यथा चीरैिर्नराघोरन्ध्रतः प्रविष्टा नरमुखस्थ-तियें कीलोपरिगता भवेत् । नरमुखाने कीलोपरि यच्चीरिखण्डं तदग्रे पारदपूर्णामलाबुतुम्बं बध्नीयात् तस्मिन् तथा जलधारा नलकादिना देया यथाऽधो गच्छताऽलाबुना घटिका बहिर्गच्छेत् । स्रवति घटिकां गुटिकां मुखाद्वहिःक्षिपति एवं नराकारयन्नं । नराकारयन्त्रस्थाने जुर्मादीनामाकारा विचैः कार्येति । सिद्धान्त शेखरे "ची प्रकुर्याद् घटिकाङ्गुलाङ्कमेतेन मुक्त्वा वदनेन धार्या । तां निक्षिपेत् काष्ठनरोदरे तु तदाऽस्य तिरैस्थितकीललग्नम् ॥ चीरीसूत्र छोड़काचोगतं स्यात् तस्मिंस्तुम्बं पूर्ववद्वद्धमुच्चैः। पात्रेऽघोऽघस्तद्भजेत् कर्णयन्त्रान्लाड़ीभुक्तामुन्रजत्येष नाडयाः ।।” श्रीपत्युक्तमस्ति । लल्लोक्त च “कटिकाङ्गुल संख्याँ बद्ध्वा चीय निवेशयेद् घटिकाः । यदनेन ता निरुध्यादुदरे नतवदनमनुजस्य ।। चीयंत बद्धसूत्रे तिर्यकथितवदनकीलकनलेन । नीत्वा जठरच्छिद्रण केनचित्तद्वहिः कुर्यात् तत्र निबद्धमलावु प्राग्वत् सलिलेन नीयमानमघः । परीमकृष्यान्यां जपत्यमुं नाडिकां गुटिकाम् । १४८४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते इति, आचार्योक्त लल्लोक्त च श्रीपत्युक्तेर्दूलमिति प्रतीयते । लल्लोक्त मायत्रयं बहुत्रैवाशुद्धमिव प्रतिभाति न चास्य किमपि व्याख्यानं सम्यक्-दृश्यते । एतयो (आचार्य लल्लयोः) रनुरूपरचनस्य श्रीपत्युक्तस्य नितरामेवाशयोऽशुद्ध त्वान्नावगम्यते । इति. ४७-४८ ॥ अब पुनः यन्त्रान्तर कहते हैं । हि. भा.-अल्प विस्तार और ज्यादा देयं (लम्बाईवाला वस्त्र खण्ड (कपड़ का टुकड़ा) चीरी कहलाता है। एक घटी में मनुष्य के मुख (मुंह) से जितना बड़ा वस्त्र खण्ड जलस्राव (जल का निकलना) के आधात (पक्का) से बाहर निकलता है वह वटिकां गुल कहलाता है। धटिकांगुलान्तरस्थित एक दो-तीन आदि घटी से अङ्कित (चिन्हित) गुटिका (गोली) चीरी में देनी चाहिये। इस चीरी को नरा (मनुष्य) कार यन्त्र के नीचे के छिद्र में रखना चाहिये, जिससे चीरी नर के नीचे छिद्र से प्रविष्ट होकर नर मुख में स्थित तिर्यक्रूप कील के उपरिगत हो जाय । नर मुखाग्र में कील के ऊपर जो चीरी का खण्ड है उसके अग्र में पारे से भरे हुए तुम्ब (तुम्बी) को बांधं कर, उसमें नलक आदि से जलधारा देनी चाहिये जिस से नीचे जाती हुई तुभ्बी से घटिका में नरमुख से एक गुटिका ( गोली) बाहर चली जाय । एवं जलस्राव से नराकार यन्त्र घटिका से एक गुटिका को मुख बाहर फेंकता (निकालता) हैं । इस तरह नराकार यन्त्र की जगह में (कछुआ) आदि आकार का यन्त्र भी समझना चाहिये। सिद्धान्तशेखर में “चीर्णं प्रकुर्याद् घटिकांगुलाङ्का मैतेन मुक्त वा वदनेन घाय’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकानुसार श्रीपति कहते हैं। "घटिकाङ्कांगुल संख्यां बद्ध्वा चीय' इत्यादि विज्ञान भाष्य में,लिखित लल्लोक्त श्लोक और आचार्योंक्त ही श्रीपत्युक्ति का मूल है । लल्लोक्त तीनों लोक बहुत जगह अशुद्ध मालूम होते है। इनकी सम्यक् व्याख्या कहीं पर कुछ भी देखने में नहीं आती है। आचार्योनॅक्त और लल्लोक्त के 'अनुरूप श्रीपयुक्त का आशय अशुद्धता के कारण समझ में नहीं आता है इति ॥४७-४८। इदानीं विशेषमाह। जलप्यंकृत घटीभिः स्तनास्यकणविभिर्जलं क्षिपति । पुरुषोऽन्यस्यासक्त वचन ' पुरुषस्य कृतमुपरि ॥४e॥ ' सु. मा--पुरुषो (नराकारयन्त्रम्) रचनीयः। जलपूर्णाकृता घटी घटीयन्त्र मस्य स्तने मुखे कर्णादौ वाऽन्तस्था योज्या यथाऽयं पुरुषः स्तनास्यकर्णादिभि रन्यस्य प्रतिपुरुषस्य तदासक्ते वक्त्रे मुखे घटीमितेन कालेन जलं क्षिपति । एवमप्युषरि पूर्वश्लोके प्रतिपादितं यन्त्र प्रकारान्तरेण कृतं भवेदित्यर्थः ॥४९॥ १:ः पुरुषोऽन्यस्याऽसक्ते वक्त्रं पॅरुषस्य कृतमुपरि ॥४९॥ यन्त्राध्यायः १४८५ वि. भा–पुरुषो (नराकार यन्त्रं) निर्मातव्यः । जलपूर्णकृतघटी (घटी यन्त्र') अस्य स्तने-आस्ये (मुखे) कर्णादौ वाऽन्तस्तथा प्रयोक्तव्या यथाऽयं पुरुषः स्तनास्यकर्णादिभिरन्यस्य पुरुषस्य तदासक्ते वक्त्रं (मुखे) घटीतुल्यकालेन जलं क्षिपति । एवमुपरि कथितं यन्त्र प्रकारान्तरेर कृतं भवेदिति ॥४९॥ अब विशेष कहते हैं । हि- भा.-नराकार यन्त्र बनाना चाहिये। जल से भरे हुए | घटीयन्त्र को इसके स्तन-मुख (मुंह) कर्ण (कान) आदि में भीतर इस तरह प्रयोग करना चाहिये जिस से यह पुरुष स्तन-मुख-क्रणं आदिओं से अन्य पुरुष के उससे आसक्त मुख (मुटुंह) में एक घटी तुल्यकाल में जल को निकाले । इस तरह पूर्वकथित यन्त्र प्रकारान्तर से किया हुआ होता हैं इति ॥४॥ इदानीं पुर्नावशेषमाह । एवं वधूवरं नाड़िकांगुलैः संयुता वरे योज्या। युद्धानि मल्लगजमहिषमेव विविधायुधभृतां च ॥५०॥ ॥ निगिरति गिरति घटिकांगुलातेिः खण्डकैर्मयूरोऽहिस् । चीयमेवं गुटिकोपरिस्थितैर्न ह्मचार्याद्यः ।५१।' सु. भां–एवं वधूवर मुखस्थतिर्यक् कीलोपरिंगचीरिगतनाडिकाङ्गुलैस्तथैव वरे वधूर्योज्या यथा वध्वघोरन्ध्रग्रचीयेंग्रबद्धालाबुनाऽधोगच्छता घटीमितेन कालेनैका गुटिका वरमुखाद्बहिर्निर्गत्य वसुंमुखे प्रविशेत् । एवमनेनैव बीजेन घटीमितेन कालेन मल्लगजमहिषमेषविविधायुधभृतां च युद्धानि स्युः । मयूरो घटिकाङ्गलालिः खण्डकंरहिं सर्प च निगिरति वा गिरति । एवं चर्चा गुटिकोपरिं स्थापितैब्रह्मचार्याद्याकारैः कीलोत्क्षेपाभिहतः पटहो वा घण्टाशब्दं । एवमत्र यन्त्र-सहस्राणि भवन्ति II५०-५२॥ वि. भा--एवं वधूवरमुखस्थतिर्यक्कीलोपरिगतचीरिगतनाडिकांगुलैस्तथैव वरे वधयज्या यथा वध्वधोरन्ध्रगचीयंभुवद्धालाबुनाऽघो गच्छता घटीमितेन कालेनैका गुटिका वरमुखाद्वहिनिर्गत्य वधूमुखे प्रविशेत् । एवमनेनैव बीजेन घटीमितेन कालेन मल्लगज-महिष-मेषविविधायुधभृतां च युद्धानि स्युः। मयूरो घटिकांगुलाङ्कितैः खण्डकैरहिं (सर्प) च निगिरति वा गिरति । एवं चीर्या गुटिकोपरि स्थापितैब्रह्मचार्याकाः कीलोत्क्षेपाभिहतः पटहो घण्टा वा शब्दं १. चीयमेवं गुटिकोपरिस्थितैब्रह्मचार्यायैः ॥५१॥ १४८' ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते 1 करोति । एवमत्र यन्त्रसहस्राणि भवन्तीति । सिद्धान्तशेखरे "इत्यं स्वबुद्धया गणकः प्रकुर्यान्मेषादियुद्धे गजयन्त्रमत्र। यत्र स्वयंवाहकनाभिमध्यात् बीजं दशाक्रेन हि कर्मणा यः ॥ “ श्रीपतिनैवं कथ्यते । अस्यार्थः - इत्थममुना विधिना मेषादियुद्ध यन्त्र तथा गजयन्त्र’ चात्र गणकः प्रकुर्यात् । अत्र श्लोकोत्तरार्द्ध मप्रासङ्गिकमर्थरहितं च प्रतिभाति । अत्र लल्लोक्त च "कुर्यादयोऽपि चैवं घटिका जन्हुर्यथेष्टकालेन । मेषादीनां युद्ध सूत्र सक्त भवेदुभयोः ॥ परिकल्पित कालाध्वनि युत्तया योगो भवेद्वधूवरयोः । घटिकांगुलाङ्कितं वा ग्रसति मयूरः क्रमादुरगस् ॥ हन्ति मनुष्यः पटहं छादयति छादकस्तथा छाद्यम् । एवं विधानि यन्त्राण्येवमनेकानि सिध्यन्ति ।” इति श्रीपतेर्सेलस् । आचार्यादीनां समये ईदृशानि यन्त्राणि साधारणजना- नामाश्चर्यं कराण्यासन्नित्यनुमीयते । श्रीपतिना त्वल्पान्येव यन्त्राणि सुगमोपायेनोप योगवन्ति तत एवादाय लिखितानोति ॥५०-५२॥ अब पुनः विशेष कहते हैं । हि. मा–एवं वधू-वर मुखस्थ तिर्यक्-कीलोपरिंगत चीरिगत नाड़िकांगुल से उसी तरह वर में वधं को जोड़ना (मिलाना) चाहिये जिससे वधू के नीचे रन्ध्र (छिद्र) गत चीरी के अग्र में बंधा हुआ नीचे जाते हुये अलाखु (तुम्बी) से एक घडीकल में एक गुटिका वर के मुख (मुह) से बाहर निकल कर वधू के मुख में प्रवेश करे। एवं इसी बीज (सूल) से एक घटीमितकाल में मल्ल (पहलवान) गज (हाथी) महिष (मैसा) मेष (मॅणा) और अनेक तरह के हथियार रखने वालों के युद्ध होते हैं । मयूर घटिकांगुल से अङ्कित खण्डों से सर्प को निगलता है । एवं चीरी में गुटिका के ऊपर स्थापित (खे हुए) ब्रह्मचारी आदि आकार से कोल के उत्क्षेपण के आघात से घण्टा शब्द करती है । इस तरह यह हजारों यन्त्र होते है । सिद्धान्तशेखर में ‘इत्यं स्वबुद्धघा गणकः प्रकुर्याव’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक के अनुसार श्रीपति कहते हैं । इसका अर्थ यह है—इस विधि से मैषा (मैंण) दि युद्धयन्त्र तथा गजयन्त्र की रचना गणक (ज्योतिषी) करें । इस इलोक का उत्तरार्ध बिना प्रसङ्ग का और बिना अर्थ का है । यहां "कुर्यादयोऽपि चैवं घटिका जन्डुरैये ष्टकालेन” इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित लल्लोक्त ही श्रीपत्युक्ति का मूल है । आचार्य (ब्रह्मगुप्त) आदि के समय में इस तरह के यन्त्र साधारण जनों के आचर्यं कारक थे ऐसा १४८७ मालूम होता है। श्रीपति ने सुगम उपाय से उपयोग के लायक थोड़े ही यन्त्रों को (आचार्योक्त और लल्लोक्त से) लेकर लिखा है इति ॥५०-५२ इदानीं स्वयवहयन्त्रमाह । लघुदारुमयं चन समसुषिरारान्तर पृथगराणाम् । अर्धेन रसेन पूर्ण परिधौ संदिलष्कृतसन्धिः ॥५३॥ तिर्यक्कीलोमध्ये द्वयाधारस्थोऽस्य पारदो भ्रमति । छिद्राण्यूर्ध्वमधोऽतश्चक्रमजस्र स्वयं भ्रमति ॥५४॥ सु- भा.-अराणामाराणाम्। संश्लिष्टकृतसन्धिः संश्लिष्टौ मुद्रितः कृतः सन्धिश्छिद्रम् यस्य चक्रस्य तत् । अस्य यन्त्रस्य मध्ये तिर्यक्कीलो मध्ये स्थाप्यश्चक्र श्चयस्कारशाणवद्द्वयाधारस्थः कार्यः । अस्य चक्रस्य पारदो रस आराणां छिद्राणि प्रति ऊध्र्वमधश्च यतो भ्रमति अतस्तदाकृष्टं चक्रे स्वयमेवाजस्र भ्रमति । ‘लघुदारुजसम चक्रे समसुषिराराः समान्तरा नेम्याम्-इत्यादि भास्करोक्तमेतद- नुरूपमेव ।५३-५४॥ वि. भा.–पृथक् आराणां समच्छिद्र समान्तरं लघुकाष्ठमयं चक्रविधेयम् । अर्जेन रसेन (पारदेन) पूर्णं परिधौ संश्लिष्टकृतसन्धिः (संश्लिष्टो मुद्रितः कृतः सन्धिश्छिद्रयस्य चक्रस्य तत्), अस्य यन्त्रस्य मध्ये तिर्यक्कीलः स्थाप्यःचक्रद्धा यस्कारशाणवद्द्वयाधारस्थः कार्यः। अस्य चक्रस्य पारदो (रसः), आराणां छिद्राणि प्रति ऊध्र्वमधश्च यतो भ्रमति, अतस्तदाकृष्टं चक्र’ स्वयमेवाजस्र (सततं) भ्रमति । यन्त्रपालिगता अंकुशकृतयो रसप्रक्षेपार्थं धातुजाः काष्ठजा वा रूपविशेषा आराः। आरादिषु कियत्पारादिदानेन तद्यन्त्र स्वयं भ्रमेदित्यस्य ज्ञानं दुर्घटं देशकालयन्त्रपरिमाणाधीनमीश्वरैकगम्यमिति । सिद्धान्तशिरोमणौ “लघुदारुजसमचक्र समसुषिराराः समान्तरा नेम्याम् । किञ्चिद्वा योज्या सुषिरस्यार्षे पृथक् तासाम् ॥ रसपूर्णं तच्चक्र द्वयाधाराक्षस्थितं स्वयंभ्रमतो" ति भास्करोक्तमाचार्योक्ता- नुरूपमेवास्ति । । अस्यार्थः-ग्रन्थि कीलरहिते लघुदारुमये भ्रमसिद्ध चक्र आराः किं विशिष्टाः-समप्रमाणाः समसुषिराः समतौल्याः समान्तरा नेम्यां योज्याः । ताश्च नद्यावतंचदेकत एव सर्वाः किञ्चिद्वक्र योज्याः । ततस्तासामाराणां सुषिरेषु पारदस्तथा क्षेप्यो यथा सुषिरार्धमेव पूर्णा भवति, ततो मूद्रिताराग्र तच्चक्रमयस्का- रशाणवद् द्वयाधारस्थ स्वयं भ्रमति। अत्र युक्ति-यन्त्रकभागे रसोह्यारामूलं १. छिद्राण्यूर्वमधोऽतश्चक्रमजघ्र स्वयं भ्रमति ॥५४॥ १४८८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते प्रविशति । अन्यभागे वाराग्रधावति । तेनाकृष्टं तत् स्वयं भ्रमतीति ।५३५४॥ अब स्वयंवहयन्त्र को कहते हैं । हि- भा.-घुकाष्ठमय चक्र यन्त्र बनाना चाहिये, जिसके आराओं में समान छिद्र हो तथा समान्तर हो, जिस चक्र यन्त्र के संश्लिष्ट (मुद्रित) छिद्र है । तथा आधे पारे से पूर्ण (भराहुआ) परिधि है । इस यन्त्र के मध्य में तिर्यक् रूप में कील स्थापन करना। चक्र को शाण चढ़ाने वाले चक्र की तरह दो आधार पर रखना चाहिये । क्यों कि आराओं के छिद्र में पारा ऊपर और नीचे से चूमता है इसलिये उससे प्रकृष्ट (खींचाहुआ) चक्र बराबर स्वयं (अपने ही आप) नमण करता है । यन्त्र की पालीगत अंकुश की आकृति (आकार स्वरूप की तरह पारे के प्रक्षेपण के लिये पारा ढालने के लिये धातु की वा काष्ट (लकड़ी) की बनी हुई चीज आरा शब्द से व्यवहृत है । सिद्धान्तशिरोमणि में ‘लघुदारुज समचक्र समसुषिराराः समान्तरा नेम्याम्'-इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित भास्करोक्त प्रकार आचार्योंक्त के अनुरूप ही है । भास्करोक्त श्लोक का तात्पर्य यह है । ग्रन्थि (गेठी-गिरह) लाथु दारु (लकड़ी) मय भ्रमसिद्ध (खरादा हुआ) चक्र में समप्रमाण के समछिद्र के सम तौल्य (सम वजन) के समान्तर पर आराओं को मेमी (परिधि) में जोड़ देना, वे नदी के हिलोड़ (पानी बहने के घुमाव) की तरह एक ही तरफ सबों को जोड़ना चाहिये । तब उन आराम के छिद्रो में पाराओं को उस तरह देना चाहिये जिससे छिद्र का आधा ही पूर्ण (g) हो, तब मुद्रित आरा के अग्र वाला वह चक्र शान चढ़ाने के चक्र के सदृश दो आधार पर स्थित होकर स्वयं घूमता है । यहां युक्ति यह है–पारा जहां एक भाग में आरा के मूल में प्रवेश करता है और अन्य भाग में आरा के अग्र में दौड़ता है, उससे आकृष्ट वह चक्र स्वयं भ्रमण करता है इति ।५३-५४ इदानीं विशेषमाह । छिद्र स्वधिया क्षिप्ता समं यथा पारदं भ्रमति । कालसममिष्टमानैश्चक्रसमुत्तानमूर्वं वा ॥५५।। सु. भा–छिद्र स्वबुद्ध्या समं पारदं क्षिप्त्वा तथा चक्रे स्थाप्यं यथा । कालसमं कालानुसारि समुत्तानं क्षितिजानुकारं वोध्र्वमूर्वाधारं जलयन्त्रवदिष्ट मानैभ्रमति । एकभ्रमणेन यथेष्टमानसमं कालमुत्पादयेत् तथा ऋतुविशेषे । लघुगुरुकाष्ठमयं चक्रम् स्वल्पाधिकपारदसहितारं विरचयेदिति ॥५५॥ वि. भा.–छिद्र स्वधिया (स्वबुद्धया), समं पारदं क्षिप्त्वा चक्र तथा स्थाप्यं यथा कालसमं (कालानुसारि) समुत्तानं क्षितिजानुकारं वोर्वे (ऊध्र्वाधरं जलयन्त्रवन्) इष्टमानैभ्रमति। एकभ्रमणेन यथेष्टमानसमं कालमुत्पादयेत्तथा यन्नाध्यायः १४८६ । ऋतुविशेषे लघुगुरुकाष्ठमयं चक्र . स्वल्पाधिकपारदसहितारं विरचयेत् । भास्कराचार्येण “उत्कीयं नेमिमथवा परितो मदनेन संलग्नस् । तदुपरि तालदलाधं कृत्वा सुषिरे रसं क्षिपेत् तावत् । यावद्रसंकपादेव क्षिप्तजलं नान्यतो याति । पिहितच्छिद्र तदतश्चक्र भ्रमति स्वयं जलाकृष्टस्। सिद्धान्तशिरोमणौ स्वयंवहमन्त्रसम्बन्धे एवमभिहितम् । अस्य व्याख्या यन्त्रनेमि भ्रमयन्त्रेण समन्तादुत्कीर्यं द्वचगुलमात्र सुषिरस्य वेधो विस्तारश्च यथा भवति ततस्तस्य सुषिरस्योपरि तालपत्रादिकं मदनादिना संलग्नं कार्यम् । तदपि चक्र द्वयाधाराक्षस्थितं कृत्वोपरि नेम्यां तालदलं विद्ध वा सुषिरे रसस्तावत् क्षेप्यो यावत् सुषिरस्याधोभागो मुद्रितः । पुनरेकपाश्र्वे जलं प्रक्षिपेत् । तेन जलेन रसेन द्रवोऽपि रसो गुरुत्वात् परतः सारयित; न शक्यते । अतो मुद्रितच्छिद्र तच्चक्र जलेनाकृष्टं स्वयं भ्रमतीति ।।५५।। अब बिशेष कहते हैं । हि. भा.-छिद्र में अपनी वृद्धि से पारा देकर चक्र को इस तरह स्थापन करना चाहिये जिससे कालानुसारी क्षितिजानुकार वा कध्वघर जलयन्त्रवत् इष्टमान से भ्रमण करता है । एक न्नभण से जैसे इष्टमान के तुल्यकाल को उत्पादन करे वेसे ऋतु विशेष में लघुगुरु काष्ठमय चक्र को जिसमें स्वल्प-अधिक पारे वाला आरा हो बनाना चाहिये। सिद्धान्तशिरोमणि में ‘उत्कीयं नेमिमथवा परितो मदनेन संलग्नस् । तदुपरिंतालदलाचं कृत्वा सुषिरे रसं क्षिपेच तावच' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकानुसार भास्कराचार्य स्वयं इस यन्त्र के विषय में कहते हैं । इसका अर्थी यह हैयन्त्र की परिधि को चारों तरफ भ्रम यन्त्र (खरादने के यन्त्र) से इस प्रकार ठीक करना चाहिये कि छिद्र की ऊंचाई और विस्तार दो अंगुल रह जाय । अनन्तर उस छिद्र के ऊपर तालपत्रादि को चिपक देना चाहिये चक्र को दो आधाराक्ष (माघार घु) स्थित करके ऊपर नेमि (परिधि) में ताल पत्र को वेष कर छिद्र में पारे को तब तक ढरना .चाहिये जब तक छिद्र का अधोभाग पारे से मुद्रित छिप जाय) हो । फिर एक पाश्वं (बगल) में बल देना उस जल से द्रव (तरल) भी पारा गुरुत्व (भारीपन) के कारण चारों तरफ निकल नहीं सकता है, अतः वह चक्र जिसमें छिद्र मुद्रित है जल से आकृष्ट (खींचा गया) हो कर स्वयं भ्रमण करता है इति इदानीं पुर्नावशेषमाह । कीलस्योपरिगामिनि तत्पर्यसूत्रके धूतमलाबु लग्वन्नखके प्रक्षिप्य नाडिका स्रवति पानीये ॥५६॥ १४९० ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते सु- भा.–येन तिर्यक्कीलेन सह चक्रमयस्कारशाणवधृतं तस्मिन् सूत्रस्यै- कमग्र बद्ध्वा विपुलदैर्यं सूत्रं वेष्टयेत् । तत् सूत्री च पर्यसूत्रकमुच्यते । तस्मिन् कीलस्योरिगामिनि तत्पर्यायसूत्रकस्य द्वितीयाग्रे ऽलाबुतुम्बं बद्ध कार्यम् । ततः धतं प्राग्वतलकेऽधोरन्ज़े जलं प्रक्षिप्य तथा जलाधारा प्रयोज्या यथा तदाघाते नाधोगच्छताऽलाबुना नाडिकया चक्रस्यैकं भ्रमणं भवेत् । एवं पानीये जले स्रवति नाडिकोत्पद्यते इत्याचार्याभिप्रायः ।५६। वि. भा.-येन तिर्यक् कीलकेन सह चक्रमयस्कारशाणवधृतं तस्मिन् सूत्रस्यैकमग्न' बद्ध्वा विपुलदैध्यं सूत्रं वेष्टयेत् तत्सूत्रं पर्येयसूत्रकं कथ्यते । तस्मिन् कीलस्योपरिगामिनि तत्पर्यायसूत्रद्वितीयाग्रेऽलाबु ( तुम्बं ) बद्ध कायंस् ततः पूर्ववन्नलकेऽघोरथं जलं प्रक्षिप्य जलाधारा तथा प्रयोक्तव्या यथा तदाघातेनाधो गच्छताऽलाबुना नाड़िकया चक्रस्यैकं भ्रमणं भवेत् । एवं पानीये (जले) स्रवति नाडिकोत्पद्यते इत्याद्याभिप्राय इति । शिद्धान्तशिरोमण "ताम्रादिमयस्यांकुशरूपनलस्याम्बुपूर्णस्य । एकं कुण्डजलान्तद्वितीयमग्नत्वधोमुखं च बहिः । युगपन्मुक्त चेत् कं नलेन कुण्डाद् बहिः पतति । नेम्यां बध्वा घटिकाश्चक्र जलयन्त्रवत्तथा धार्यम् ॥ नलकप्रच्युतसलिलं पतति यथा तद्घटीमध्ये । भ्रमति ततस्तत् सततं पूर्णघटीभिः समाकृष्टम् ।। चक्रच्युतं तद्वंदकं कुण्डे याति प्रणालिकया ।" भास्कराचार्येणैवं स्वयंवहयन्त्र विषये कथ्यते । अस्य व्याख्या-ताम्रादिधातुमयस्यांकुशरूपस्य वक्रीकृतस्य नलस्य जलपूर्ण स्यैकमग्न जलभाण्डेऽन्यदग्र बहिरधोमुखं चैकहेलया यदि विमुच्यते तदा सकलमपि भाण्डजलं नलेन बहिः क्षरति। तद्यथा। छिन्नकमलस्य कमलिनी नलस्य जलभृद्भाण्डे क्षिप्तस्य जलपूर्णसुषिस्यैकमूप्रभाण्डाद्बहिषोमुखं दूतं यदि ध्रियते तदा सकलमपि भाण्डजलं नलेन बहिर्याति । अथ चक्रनेभ्यां घटीबैद्ध वा जलयन्त्रवत् वृथाधाराक्षसंस्थितं तथा निवेशयेद्यथा नलकप्रच्युतजलं तस्य घटीमुखे पतति । एवं पूर्णघटीभिराकृष्टं तद्भ्रमत् केन निवार्यते । चक्रच्युतस्य जलस्याधः प्रणालि कया कुण्डगमने कृते कुण्डे पुनर्जलप्रक्षेपणैरपेक्ष्यमिति ॥५६॥ अव पुनः विशेष कहते हैं । हि- भा.-जिस तिर्यक् रूप कील के साथ चक्र शाण देने के यन्त्र की तरह रक्खा यन्त्राध्यायः १४९१ T गया है उसमें सूत्र के एक अग्र को बांध कर बहुत लम्बे सुत्र को वेष्टित (लपटाना) करना वह सूत्र पर्यय सूत्र कहलाता है। उसमें कील के ऊपर गया हुआ उस पयंयसूत्र के द्वितीयाग्र में अलाबु (तुम्ब) को बाँध देना। तब पूर्ववत् नलक के नीचे छेद में जल देकर जल धारा का उस तरह प्रयोग करना चहिए जिससे उसके आघात से नीचे जाने वाले तुम्ब से एक नाड़ी में चक्र का एक भ्रमण हो । एवं जलस्राव से नाड़िका उत्पन्न होती है यह आचार्य का अभिप्राय है । सिद्धान्तशिरोमणि में "ताम्रादिमयस्यांकुशरूपनलस्याम्बुपूर्णस्य । एकं कुण्डजलान्तद्वितीयमगं त्वधो मुखो च बहिः" इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से भास्कराचार्य ने स्वयं वह यन्त्र के सम्बन्ध में अपना विचार व्यक्त किया है । । इसका अर्थ ताम्बा आदि धातुमय अंकुशरूप टेढ़ा किये हुए जलसे भरे हुए नल के एक सिरे को जल भाण्ड (वर्तन) में और दूसरे सिरे को बाहर यदि एक ही समय में खोल देते हैं तब सम्पूर्ण में भाण्ड बर्तन) स्थित जल नल के द्वारा बाहर गिर जाता है । जैसे कमल के नल को जलकुण्ड में छोड़ने से जलपूर्णछिद्र के एक अग्र को अधोमुख भाण्ड से बाहर यदि शीघ्र धरते हैं तो सम्पूर्ण भाण्डस्थित जल नल के द्वारा बाहर चला जाता है । चत नेमी (परिधि) में घटी को बांध कर जलयन्त्रवल दो आषाराक्ष संस्थित उस तरह रखना चाहिये जिससे नलक से गिरा हुआ जल उस के घटी मुख में पतित हो । एवं पूर्णघटी से आकृष्ट उसके भ्रमण को कौन रोक सकता है ।५६। इदानीं पुनविशेषमध्यायोपसंहारं चाह । करणैज्र्याक्षिप्रचलनमेवं शरमोक्षणं खशब्दाश्च । अध्यायो द्वाविशो यन्त्र ष्वाद्यास्त्रिपञ्चाशत् ॥५७ सुभएवं करणैर्जलधारा प्रवाहसाधनैर्धनुज्र्यायाः क्षिप्रचलनं शीघ्र- चलनं भवति येन शीघ्र शरमोक्षणं शरप्रक्षेपणं च भवति । जलधाराप्रवाह विकारेणैव खशब्दा मेघगर्जनानि भवन्तीति । शेषं स्पष्टार्थम् ॥५॥ मधुसूदनसूनुनोदितो यस्तिलकः श्रीपृथुनेह जिष्णुजोक्ते हृदि तं विनिधाय नूतनोऽयं रचितो यन्त्रविधौ सुधाकरेण । इति श्रीकृपालुदत्त सूनुसुधाकरद्विवेदिविरचिते ब्राह्मस्फुटसिद्धांतनूतनतिलके यन्त्राध्यायो द्वाविंशः ॥२२॥ वि. भा–एवं करणैः (जलधाराप्रवाहसाधनैः) धनुज्र्यायाः शीघ्रचलनं भवति येन शरमोक्षणं (शरप्रक्षेपणं) च भवति । जलधाराप्रवाहविकारेणैव खशब्दाः (मेघगर्जनानि भवन्ति । यन्त्राध्याये त्रिपञ्चाशदाद्याः सन्ति । अयं १४९२ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते (यन्त्राध्यायःद्वाविशोऽध्यायः समाप्तिमगादिति |५७|। इति ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते यन्त्राध्यागो नाम द्वाविंशोध्यायः समाप्तः ।।२२। अब पुन: विशेष और अध्याय के उपसंहार को कहते हैं । हि भा–एवं करण (जलधारा प्रवाहसाधन) से धनुष की ज्या (डोरी) का शीघ्रचलन होता है जिससे शर प्रक्षेपण (शेरका छोड़ा जाना) होता है । जलधारा प्रवाह विकार ही से खशब्द (आकाश में शब्द-मेध गर्जन) होता है । यन्त्राध्याय में तिरपन आर्याएँ हैं । यह बाईसवां अध्याय (यन्भाष्याय) समाप्त हुआ इतेि ॥५७॥ ॥ इति ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त में यन्त्राध्याय नामक बाईसवां अध्याय समाप्त हुआ ॥२२। ब्रह्मस्टसन्तः ब्राह्मस्य्फुटसिद्धान्तः अथ मनाध्ययः आरभ्य । तत्र केन केन मानेन के के पदार्थो गृह्यन्त इत्याह । सरेणाब्दा मासास्तिथयश्चन्द्र ण सवनैदिवसाः । विनमासाब्वपमध्यां न तद्विनाऽर्केन्दुमानाभ्याम् ॥१॥ सु० भा०–सौरेणाब्दाः । चान्द्रण मासास्तिथयश्च । सावनैदिवसा दिनमासाब्दपा मध्या ग्रहाश्च गृह्यन्ते । तत् सावनमानं चार्कोन्दुमानाभ्यां विना न भवति । सौरचान्द्राभ्यां विनाऽहगंणसाधनं न भवतीत्यर्थः ॥१॥ ॥ वि'.भार-सौरेण मानेनाब्दा अर्थादहर्गणानयने सौरमानेन वर्षाणि गृह्यन्ते। तेषां (सौरवर्षाणां) द्वादश गुणनानन्तरं यदा मासा युज्यन्ते तदा चान्द्रमास गृह्यन्ते । ततस्त्रिशद् गुणनानन्तरं चान्द्रमानादेव तिथयोऽपि ग्राह्या भवन्ति । पुन रानीतेऽहर्गणे सावनमानाद्दिनानि गृह्यन्ते । सावनेरेव वर्षांपतिमासपतिज्ञानम् । तथा चोक्तम् अहर्गणात् कल्पगतादवाप्तं खषड्गुणं ३६० लॅब्धमथ त्रि३ निघ्नस् । रूपाधिकं भूधर ७ भक्तशेषं रवेर्भवेत् सायनहायनेशः । एवं वर्षाधिपतिज्ञानम् । तथा अहर्गणात् खाग्नि ३० हतादवाप्तं द्विघ्नं सरूपं नगभक्तशेषम् । वदन्ति तं सावनमासनाथं क्रमेण सूर्यादिह वर्तमानस् । एवं मासाधिपतिज्ञानर । मध्यमग्रहाश्च सावनमानैरेव गृह्यन्ते । तत् सावनमानं च सौरचान्द्रमानाभ्यां विना न भवत्यर्थात् सौरचान्द्राभ्यां विनाऽहर्गेणसाधनं न भ नतीति । सिद्धान्तशेखरे ‘वषf सौरास् प्रवदन्ति १४९६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते चान्द्रात् मानात्तिथि सावनतो दिनानि । सौरैन्दवाभ्यां तु विना न तत्स्यात्” इति श्रीपत्युक्तमाचार्योक्तानुरूपमेव । एकराशिं हित्वा यावता कालेन रवी राश्यन्तरं याति स सौरोमासस्तत्त्रिशद्भागः सौरं दिनं भवतीति सौरमानम् । त्रिशत्तिथिभिश्चान्द्रो मासो भवति । रविचन्द्रयोर्युतिरमावस्यान्ते भवति ततो यावता कालेन पुनस्तद्युतिर्भवति स एव चान्द्रमासः । एकस्मिन् चान्द्र मासे त्रिशत् तिथयस्तदा रविचन्द्रयोरन्तरं च चक्रांशा ३६० अतोऽनुपातेनैकस्यां तिथौ रवि चन्द्रयोरन्तरं द्वादशभागाः इति चान्द्रमानम् । सूर्योदयद्वयान्ती रबिसावनदिनं तेषां त्रिशता सावनमासो मासो भवतीति सावनमानम् । नाडीनां षष्ट्या नाक्षत्रमहोरात्र भवति । एकनक्षत्रस्योदयानन्तरं यावता कालेन तस्य पुनरुदयः स नाक्षत्राहोरात्र कालः। तेषामहोरात्राणां त्रिंशता नाक्षत्रमासो भवतीति नाक्षत्रमानम्। नाडीषष्टचा तु नाक्षत्रमहोरात्र प्रकीत्तितम् । तत्त्रिशता भवेन्मासः सावनोऽर्कोदयैस्तथा। ऐन्दवस्तिथिभिस्तद्वत् संक्रान्त्या सौर उच्यते । मसैद्वादशभिर्वर्षमिति’ एवं प्रतिपादितमस्ति । सिद्धान्त शेखरे ‘दर्शावधि मासमुशन्ति चान्द्र सौरं तथा भास्करराशिभोगम् त्रिशद्दिनं सावनसंज्ञमार्या नाक्षत्रमिन्दोर्भगणभ्रमश्च ’ शुक्लप्रतिपदा- दिदंर्शान्तश्चान्द्रो मासः। रवेः स्फुटगत्या त्रिशद्भागभोगः सौरमासः। त्रिशद्दिनं सावनमासः । चन्द्रस्य द्वादश राशिभोगो नाक्षत्रमास इति ॥।१॥ । अब मानाध्याय प्रारम्भ किया जाता है । उसमें पहले किस किस मान से कौन कौन पदार्थो ग्रहण किये जाते हैं कहते हैं । हि. भा–सौर मान से (अहर्गणानयन में सौरमान से) वर्षे ग्रहण किये जाते हैं । उन सौर वर्षों को बारह से गुणा करने के बाद जब मास जोड़ते हैं तो चान्द्रमास ग्रहण करते हैं। उसको तीस से गुणा करने के बाद तिथि जोड़ने के समय चान्द्रमान ही से तिथि ग्रहण करते हैं । पुनः साधित अहर्गण में सावन मान से दिन ग्रहण करते हैं । सावनमान ही से वर्षपति और मासपति का शन होता है। जैसे ‘अहर्गणाव कल्पगताववाप्त' मित्यादि चिशन भाष्य में लिखित श्लोक से वंर्षाधिपति न सावनमान ही से है तथा 'अहर्गणाव साग्नि ३० हतादवाप्त' मित्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक से मासाधिपतिज्ञान भी सावनमान ही से है । मध्यम अहसाघन सावनमान ही से होने से मध्यम ग्रह सावनमान ही से ग्रहण किये जाते हैं। वह सावनमान सौरमान और चान्द्रमान के बिना नहीं होता है । अर्थात् सौर और चन्द्र के बिना अहर्गण साधन नहीं होता है । सिद्धान्तशेखर में “वर्षाणि सौरात् प्रवदन्ति चान्द्राव” इत्यादि विज्ञानभाष्य में लिखित श्लोक से श्रीपति ने आचायक्त मानाध्यायः १४९७ के अनुरूप ही कहा है । एक राशि को छोड़ कर जितने काल में रवि राश्यन्तर(दूसरी राशि) में जाते हैं वह सौर मास है, उसक। तीसवां अ श एक सौर दिन होता है, बारह सौर मासों का एक सौर वर्ष होता है, यह सौरमान है । तीस तिथि का एक चान्द्रमास होता है । रवि और चन्द्र का योग अमावस्यान्त में होता है, उसके बाद जितने काल में पुनः (फिर) उन दोनों का योग होगा वह चान्द्र मास है, एक चान्द्रमास में तीस तिथियां होती हैं तब रवि और चान्द्र का अन्तरांश चक्रांश ३६० के बराबर होता है इस से अनुपात द्वारा एक तिथि में रवि और चन्द्र का अन्तरांश वारह अ श होता है, यह चान्द्रमान है, दो सूर्योदय का अन्तरकाल एक रवि सावन दिन होता है, तीस सावन दिनों का एक सावन मास होता हैं, यह सावन मान है, साठ नाड़ी (दण्ड) का एक नाक्षत्र अहोरात्र होता है, एक नक्षत्र के उदय के बाद पुन: जितने काल में उसका उदय होता है वह नाक्षत्राहोरात्र काल है । तीस नाक्षत्राहोरात्र का एक नाक्षत्र मास होता है, यह नाक्षत्र मान है। सूर्य सिद्धा न्त में नाडीषष्टघा तु नाक्षत्रमहोरात्र प्रकीत्तितम्' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से सौरादि मान वणित है । सिद्धान्तशेखर में ‘दर्शावघ मासमुशन्ति चान्द्रं सौरं तथा भास्करराशिभोगम्' इत्यादि से श्रीपति ने भी सूर्य सिद्धान्तोक्त के अनुरूप ही कहा है इति ॥१॥ इदानीं मानान्याह । मानानि सौरचान्द्राद्भुसावनानि ग्रहानयनमेभिः। मानैः पृथक् चतुर्भिः संव्यवहारोऽत्र लोकस्य ॥२॥ सु- भा–सौरं चान्द्रमाक्षी सावनमिति मानानि सन्ति । एभिर्मानैरौहानय नमेभिश्चतुभिः पृथक् पृथगत्र भुवि लोकस्य प्राणिनो व्यवहारो भवति । ‘ज्ञेयं विमिश्री तु मनुष्यमानम्न'-इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूपमेव ॥२ ॥ वि. भा.-सौरं चान्द्र नाक्षत्र सावनमिति मानानि सन्ति । एभिर्मानैर्गुहा नयनं भवति, तथैभिश्चतुभिः पृथक् पृथक् अत्र पृथिव्यां लोकस्य व्यवहारो भवति । सर चान्द्रमससावनमानैः सौड़वैर्गुहगतैरवबोधः। एभिरत्र मनुजव्यवहारो दृश्यते च पृथगेव चतुभिः। उडूनि नक्षत्राणि तत्संम्बन्धीन्यौड़वानि तैः सह वत्तन्त इति सड़वानि तैरित्यर्थः । न केवलं शास्त्रव्यवहारसिद्धत्वं किन्तु लोक व्यवहारसिद्धत्व- मप्यस्त्येभिः। श्रीपत्युक्तमिदमाचार्योक्तानुरूपमेव । सिद्धान्तशिरोमणौ ‘ज्ञेयं विमिश्न तु मनुष्यमानम्’ भास्करोक्तमपीदमाचायोंक्तानरूपमेवेति ॥२॥ अब मानों को कहते हैं । हि. भा.- सौरचान्द्रनक्षत्र-सावन ये मान हैं, इन मानों से ग्रहानयन होता है, १४९८ तथा इन चारों से पृथक् पृथक् इस पृथिवी में लोगों का व्यवहार होता है, सिद्धान्तशेखर में ‘सौर चान्द्रमससावनमानैः सौड़वैर्हगतैरवबोधः इत्यादि श्रीपयुक्त आचार्योंक्त के अनुरूप ही है । में शयं विमिषं तु मनुष्यमानम्’ यह भास्कराचायोंक्त भी आचार्योंक्त के अनुरूप ही है इति ॥२॥ ३ , इदानीं विशेषमाह। युगवषं विषुवदयनर्वहनिशोधं द्धिहानयः सौरात् । तिथिकरणाधिकमासोनरात्रपर्वक्रियाश्चान्द्रात् ।।३।। जसवनप्रमाणग्रहगत्युपवाससूतकचिकित्साः सावनमानाज ज्ञयाः प्रायश्चित्तक्रियाश्चात्र ॥४॥ । सु. भा.-पर्वक्रिया पूर्णान्तदर्शान्तक्रिया दर्शयागादि । सवनं पुंसवनादि । प्रमाणं द्रव्यदानादौ प्रमाणदिनादि । शेषं स्पष्टम् । ‘वर्षीयनत्तुंयुगपूर्वकम्’ इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूपमेव ॥३-४॥ वि. भा.-युगानि कृतादीनि तेषां या वसंख्या सौरेण मानेन ग्राह्या, तथा वर्षाश्रितमपि यत् कार्यं तदपि सौरेण मानेन । विषुवदपि सौरेणैव तत्र यदा रवेर्मेषादिप्रवेशस्तदोत्तरं विषुवत्, यदा तुलादिप्रवेशस्तदा दक्षिणे विषुवत् । अयनमप्युत्तरं दक्षिणं च सूर्यस्य मकरसंक्रान्तेः सकाशात् सौराः षण्मासा उत्तरायणं भवति, तथैव ककसंक्रान्त्यादेः सौराः षण्मासा दक्षिणायनं भवति, ऋतवोऽपि सौरेण मासद्वयेन भवन्त्यर्थान्मकरसंक्रान्तेर्दूयोर्दूयोराश्योरेकंक ऋतुनाथः स्यात् मकरकुभ्भयोः शिशिरः मीनमेषयोर्वसन्तः । वृषमिथुनयोगं ष्मः । कर्कासिहयोर्वर्षाः । कन्यातुलयोः शरत्, वृद्धि हुधन्वोहंमन्तः । तथा श्रीपतिना सिद्धान्तशेखरे लिखितम् । मृगादि राशिद्वयभानुभोगात् षट् चत वः स्युः शिशिरो वसन्तः । ग्रीष्मश्च वर्षाश्च शरच्च तद्वद्धेमन्तनामा कथितोऽत्र षष्ठः । दिनरात्र्योरपि वृद्धिहानी सौरादेव ज्ञेये। तिथिः, करणं, बवादिःअधिकमासाःऊनरात्राण्यमदि नानि, पर्वक्रिया पूर्णान्त दर्शान्त क्रियादशं यागादि, एतत्सर्वं चान्द्रमानादेव ज्ञेयम् । सवनं (पुसवनादि) प्रमाणं (द्रव्यदानादो प्रमाणदिनानि) ग्रहाणां वक्रानुवक्राद्या गतयः, उपवासाः सूतकं शावाद्युत्पन्नमाशौचं, चिकित्सारोगप्रतीकाराः द्वादशदिनानि निवंत्यं चरकसुश्रुतायुक्त प्रायश्चित्तं (कृच्छू-चान्द्रायणादि) । तथा चोक्तम् श्यहं नक्तस्त्र्यहं प्रातस्त्र्यहमद्यादयाचितम् श्यहं चोपवसेदेवं प्राजापत्यं चरन् द्विजः । चान्द्रायणं त्रिशद्रात्रनिवंत्य्म् । एते सावनमानाज् ज्ञेयाः । सिद्धान्तशेखरै ‘युगायनर्गुप्रभृतीनि सौरान्मानाद् धुरायोरपि वृद्धिहानी नि चान्द्रात् तथा तिथेरर्धमपि प्रदिष्टम् । मानाध्यायः १४९९ प्रायश्चित्तं सूतकाद्याश्चिकित्ता यस्यादन्यत् सवन तच्च कर्म । शास्त्रे चास्मिन् खेचराणां च राशिविज्ञातव्याः सावनाद् भास्करीयात्। " श्रीपत्युक्तमिदमाचार्योक्तानुरूपमेवास्ति, सिद्धान्तशिरोमण “वर्षायनबृयुगपूर्वकमत्र सौरान्मासास्तथा च तिथयस्तुहिनांशुमानात् यत् कृच्छ्सूतक चिकित्सितवासरातुं तत्सावनाच्चे’ ति भास्करोक्तमष्याचार्योक्तानुरूपमेव । सूर्यसिद्धान्ते ‘सौरेण द्युनिशोर्मानं षड़शीतिमुखानिच । अयन विषुवच्चैव संक्रान्तेः पुण्यकालता ।” अहोराध्योर्मानं षड़शीतिमुखानिअयनं दक्षिणमुत्तरं वा, विषुवत् सयनमेषतुलदिमानं, संक्रान्तेः पुण्यकालता चैतत्सर्वं सौरेण प्रत्यहं सूर्यगतिभोगे नोत्पद्यते । रविकेन्द्र यस्मिन् समये राश्यादौ याति स संक्रान्तेर्मध्यहाल उच्यते । अथ यावद्रबिबिम्बाधंकलातुल्यमन्तरं केन्द्रात् प्रागनन्तरं च स्यात् तावद्विम्बैक देशस्य राश्यादौ संचारात् संक्रान्तेः कालो भवति । तत्कालानयनार्थमनुपातः । यदि रविगतिकलाभिः षष्टिघटिकास्तदा रविबिम्बमानकलाभिः क जाताः संक्रान्ति नाडयः केन्द्राभिप्रायेण संकान्तेः प्राक् तथा परे च यास्तत्र स्नानदानादौ पुण्यं भवतीति । - च तिथिः करणमुद्वहः क्षौरं सर्वक्रियास्तथा। व्रतोपवासयत्राणां क्रिया चान्द्रेण गृह्यते । तिथिः। करणं बवादि । उद्वाहो विवाहः । क्षौरं क्षुरकर्म, व्रतवन्धादिकाः सर्वक्रियाः । व्रतोपवासयात्रणषं मध्ये या क्रिया तत्सर्वं चान्द्रण मानेन गुह्यते । उदयादुदयं भानोः सावनं तत्प्रकोfत्ततम् । सावनानि स्युरेतेन यज्ञकालविधिस्तु तैः । सूतकादि परिच्छेदो दिनमासाब्दपास्तथा । मध्यमर ग्रहभुक्तिस्तु साचनेनैव गृह्यते । सूर्यस्योदयद्वयान्तरकालेनैकं सावनदिनमितिगणनया पूर्वे मध्यमाधिकारे युगसावनानि कथितानि, । अत्र भानोरुदयेन नाडीवृत्तस्थकल्पितभानोरुदयो ग्राह्यो ॐयथा विलक्षणसवनदिनमानानि पाठायोग्यान्यहर्गणादावनुपयुक्तानि च भवन्तीति । तैः सावनदिनैर्यज्ञकालविधिः कार्यः। तथा सूतकादीनां जननमरण सम्बन्धि सूतकानमादिशब्देन चिकित्स्रचान्द्रायणादीनां च परिच्छेदः (निर्णयः) १५ ०७ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते तथा दिनमासवर्षपतयश्च ग्रहाणां मध्यमा गतिश्च सावनेनैव दिनेन गृह्यते इति । सूर्यसिद्धान्तकारेण कथ्यते ॥३-४ ॥ अब विशेष कहते हैं । हिभा–कृतादि(सत्ययुगादि)युगों की वर्षा संख्या सौरमान से ग्रहण करनी चाहिये । तथा वर्षाश्रित कार्यों को भी सौर मान ही से लेना चाहिये । विषुवत् (जब रवि का मेषादि में प्रवेश होता है तब उत्तर विषुवत्तुलादि में प्रवेश होने से दक्षिण विषुवव) सौर मान ही से समझना चाहिये । अयन भी (उत्तर और दक्षिण) (सूर्य की मकर संक्रान्ति से सौर छः महीना उत्तरायण होता है, ककं संक्रान्ति से सौर छः महीना दक्षिणायन होता है) सौर मान ही से ग्रहण करना चाहिये। ऋतु भी दो दो सौर महीनों से होता है अर्थात् मकर संक्रान्ति से दो दो राशियों का एक एक ऋतुनाथ होता है मकर और कुम्भ का शिशिरमीन और मेष का वसन्त, वृष और मिथुन का ग्रीष्म, कर्क और सिंह की वर्षा, कन्या और तुला का शरत्, वृश्चिक और धनु का हेमन्त, सिद्धान्तशेखर में ‘मृगादि राशिद्वयभानुभोगात् षट् चर्तवः ’ इत्यादि से श्रीपति ने कहा है । दिन और रात्रि की वृद्धि और हास (बढ़ना घटना) सौर ही से समझना चाहिये । तिथि करण (बवादि), अधिकमास (मलमास, अवमदिन, पर्वक्रिया (पूर्णान्तक्रिया-दर्शान्त क्रिया) ये सब चान्द्रमान से ग्रहण करना चाहिये। यज्ञ, पु सवनादिप्रमाण (द्रव्यदानादि में प्रमाण दिनादि), ग्रहों की वक्र अनुवक्र आदि गतियां, व्रत-उपवास, सूतक (जन्म-मरण सम्बन्धी अशौच), चिकित्सा (रोग प्रतीकार के लिये औष घि सेवन), प्रायश्चित्त (छुच्छुचान्द्रायणादि), ये सब सावनमान से समझता चाहिये । सिद्धान्तशेखर में ‘युगायनी प्रभृतीनि सौरान्मानाद्धूरायोरपि वृद्धिहानी' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्रीपयुक्त आचार्योंक्त के अनुरूप ही है । सिद्धान्तशिरोमणि में "वषयनलैं युगपूर्वकमत्र सौरा’ इत्यादि भास्करोक्त आचार्योंक्त के अनुरूप ही है । सूर्यसिद्धान्त में ‘सौरेण द्युनिशोर्मानं षड़शीति मुखानि च । अयनं विषुवच्चैव संक्रान्तेः पुण्यकालता' ये सब प्रत्येक दिन संयंगतिभोग (सर) से उत्पन्न होते हैं । रवि केन्द्र जिस समय राश्यादि में जाता है। वह संक्रान्ति का मध्य काल कहलाता है । केन्द्र से पहले और पीछे जब तक रविबिम्ब कलातुल्य अन्तर होता है तबतक बिम्ब के एक प्रदेश के राश्यादि में संचार से संक्रान्ति काल होता है, उस काल के आनयन के लिये अनुपात करते हैं । यदि रवि गतिकला में साठ घटी पाते हैं । तो रवि बिम्बमानकला में क्या इस अनुपात से केन्द्राभिप्रायिकसंक्रांति से पहले और पीछे संक्रांतिघटी आती है। इस संक्रान्ति कालमें स्नान दानादि करने से अतिशय पुण्य होता है । ‘तिथिः करणमुद्वाहः क्षौरं सर्वक्रियास्तथा। व्रतोपवासयात्राणां क्रिया चान्द्रेण क्षु- झते ।” तिथि करण (बवबालव आदि) उद्वाह (विवाह), क्षौर (क्षुरकर्म), सर्वक्रिया (व्रत बन्धादिक), व्रत उपवास यात्रा सम्बन्धी क्रिया, ये सब चान्द्रमान से ग्रहण करनी चाहिये । "उदयादुदयं भानोः सावनं कल्कीfततस् । सावनानि स्युरेतेन यज्ञ काल विधिस्तु तैः" इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों का अर्थ यह है कि सावन दिनों से यज्ञकाल विधि करंनी मानाध्यायः १५०१ चाहियेतथा जन्म-मरण सम्बन्धी अशौच, चिकित्सा-चान्द्रायणादि का निर्णय, मासपति और वर्षपति का ज्ञान, ग्रहों की मध्यमा गति ये सब सावनमान से ग्रहण करनी चाहिये, यह सूर्यसिद्धान्तकार कहता है इति ॥३-४॥ इदानीं नक्षत्रसावनप्रशंसासाह । नक्षत्रसावनदिनात् सूर्यादीनां स्वसावनदिनानि । यस्मात् तस्मादाचें दुरधिगसं मन्दबुद्धीनाम् ॥५॥ सु. भा–यस्मात् सूर्यादीनां स्वस्वसावनदिनानि नक्षत्रसावनदिनादेव सिद्धानि भवन्ति(भभ्रमास्तु भगणैविवजिता यस्य तस्य कुदिनानि तानि वा'-इति भास्करोत्तया स्फुटम्) । तस्मान्मन्दबुद्धीनां मध्ये ह्याचें मानं दुरधिगममतीव कठिनमित्यर्थः । तदेव सूक्ष्मं विवेचनीयमन्यथा ग्रहासावनानि न भवन्तीत्याचार्या- शयः ॥५॥ वि. भा-–यस्मात् कारणात् सूर्यादीनां ग्रहाणां स्वस्वसावनदिनानि नक्षत्रसावनदिनादेव सिध्यन्ति, तस्मात् कारणान्मन्दबुद्धीनां मध्ये हि आर्भ नाक्षत्र) मानं दुरंधिगमम् (अति कठिनं) । तदेव सूक्ष्म विचारणीयमन्यथा ग्रहसावनानि समीचीनानि न भवन्तीति । ग्रहाणां सावनदिनानि नक्षत्रसावन- दिनादेव सिध्यन्ति, सूर्यसिद्धान्ते ‘भोदया भगणैः स्वैः स्वैरूनाः स्वस्वोदया युगे’ इत्युक्तेः। सिद्धान्तशेखरे “यस्य यस्य भगणैर्विवजिता ज्योतिषां भगणसंहतिः स्फुटम् । तस्य तस्य दिवसांस्तु सावनान् विद्धि तामरसजन्मनो दिने ।’ इत्यनेन श्रीपतिना ग्रहसावनदिनानयनमुक्त वा पुनरग्रे ‘भभ्रमोष्णकरमण्ड लान्तरं सावनानि कुदिनानि तानि वा' ऽस्य प्रतिपादनं कृतमित्यनेन नक्षत्रसावनेन बहूनि प्रयोजनानि सन्तीति सूच्यते । तेनैव हेतुनाऽऽचार्येणाप्य ‘तस्मादाक्षी दुरधिगमं मन्दबुद्धीनाम्नेन नक्षत्रसावनसम्बन्धे तस्यातीवोपयोगित्वं प्रतिपादितम् । सिद्धान्तशेखरे ‘नाक्षत्रमानाघटिकादिकालःइत्यनेन श्रीपतिना नाक्षत्रेण प्रयोजनं कथितमर्थात्-अनेन ग्रहेणास्मिन्नक्षत्रे इयत्यो घटिका भुक्ता इति ज्ञानं नाक्षत्रमाने नैव सिध्यति । सूर्य सिद्धान्ते "भचक्रभ्रमणं नित्यं नाक्षत्रं दिनमुच्यते । नक्षत्रनाम्ना मासास्तु ज्ञेयाः पर्वान्तयोगतः। कातिक्यादिषु संयोगे कृत्तिकादिद्वयं द्वयम् । अन्त्योपान्त्य पञ्चमश्च त्रिधा मासत्रयं स्मृत । मित्युक्तम् । अस्यार्थी नित्यं प्रवहवायुना भचक्रस्यैकं भ्रमणं यद् भवति तदेव नाक्षत्र दिनमुच्यते १५०२ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते प्राचीनैरिति । पर्वान्तः पूणिमान्तस्तत्र नक्षत्रयोगेन चान्द्रमासानां संज्ञा यथा कृत्तिका सम्बन्धात् कात्तिकः । मृगशीर्षसम्बन्धान्मार्गशीर्षः । पुष्य सम्बन्धात् पौषः । मघासम्बन्धान्माघः । फाल्गुनी सम्बन्धात् फाल्गुनः । चित्रासम्बन्धाच्चैत्रः । विशाखासम्बन्धाद्वैशाखः । जेष्ठासम्बन्धाज्ज्यैष्ठः । आषाढासम्बन्धादाषाढ़। श्रवणसम्बन्धाच्छावणः । भाद्रपदसम्बन्धाद् भाद्रपदः। अश्विनीसम्बन्धादाश्विन इति । ननु पूणिमान्ते तत्तन्नक्षत्राभावे कथं तत्संज्ञा मासानामुवितेत्यत आह । कातक्थादिषु-कातिकमासादीनां पौर्णमासीषु कृत्तिकादि द्वयं द्वयं नक्षत्र कथितम् । यथा कृत्तिकारोहिणीभ्यां कातकः । मृगाद्भ्यां मार्गशीर्षेः । पुनर्वसुपुष्याभ्यां पौषः । आश्लेषामघाभ्यां माघः । चित्रास्वातीभ्यां चैत्रः । विशाखानुराधाभ्यां वैशाखः । ज्येष्ठमूलाभ्यां ज्येष्ठः । पूर्वोत्तराषाढाभ्यामाषढ़ः । श्रवणधनिष्ठाभ्यां श्रावणः । इति फलितार्थः । अवशिष्टमासार्थं कथ्यते । अन्त्योपान्त्याविति । कात झस्यादित्वेन ग्रहणादन्त्य आश्विनः । उपान्त्यो भाद्रपदः । पवमश्च फाल्गुनः । इति मासत्रयं त्रिधा नक्षत्रत्रयवरातः स्मृतम् । रेवत्यश्विनीभरणीभिराश्विनः । शततारापूर्वोत्तराभद्र पदैर्भाद्रपदः । पूर्वोत्तराफाल्गुनीहस्तैः फाल्गुन इति । एवं निरयणमानागतनक्षत्र मासानां संज्ञा लिखिता, अथर्ववेदेऽपि तथैव मासान संज्ञा । सायनमानवशेन तत्तन्नक्षत्राणां सम्बन्धाभावात् संज्ञास्वनर्थापत्तिरतो निरयणमानेनैव व्यवहारः समुचित इत्येव प्राचीनानां वैदिकानां सम्मतिरिति ।।५।। अब नक्षत्र सावन की प्रशंसा को कहते हैं। हि- भा–क्यों कि सूर्यादि प्रहों का अपना अपना सावन दिन नक्षत्र सावन दिन ही सै सिद्ध होता है। इसलिये मन्दबुद्धियों के लिये नाक्षत्रमान अत्यन्त कठिन है । उसी को सूक्ष्मंरीति से विचार करना चाहिये। नहीं तो ग्रह सावन समी बीन नहीं होते है । ग्रहों का सावनदिन नक्षत्र सावन दिन ही से सिद्ध होता है जैसे सूर्यसिद्धान्त में ‘भोदया भगणैः स्वैः स्वैरूनाः स्व स्वोदयायुगे’ कहा है । सिद्धान्तशेखर में यस्य यस्य भगणैविर्वाजता ज्योतिष भगणसंहतिः स्फुटम्’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक से श्रीपति ने ग्रह सावन दिनानयन कहकर फिर आगे ‘भभ्रमोष्णकरमण्डलान्तरं' इत्यादि कहा है, इससे सूचित होता है कि नक्षत्र सावन से बहुत प्रयोजन सिद्ध होते हैं, इसीलिये 'आचार्य भी तस्मादाओं दुरधिगमं मन्दबुद्धीनाम्’ इससे नक्षत्र सावन का अतिशय उपयोगित्व कहा है । सिद्धान्त शैखर में नाक्षत्रमानाद् घटिकादिकालःइससे श्रीपति ने नाक्षत्र के प्रयोजन कहे हैं । अर्थाव अमुक ग्रह ने अमुक नक्षत्र में इतनी घटी भोग की हैं इसका ज्ञान नाक्षत्रमान ही से सिद्ध होता है । सूर्य सिद्धान्त में ‘भचक्र भ्रमणं नित्यं नाक्षत्रं दिनमुच्यते’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से नाक्षत्र दिन की परिभाषा और नक्षत्रों के सम्बन्ध से कात्तिकादि मासों की संज्ञा कही है । उन श्लोकों का अर्थ यह है-नित्य प्रवह वायु के द्वारा भचक्र का एक मानाध्यायः १५०३ भ्रमण जो होता है उसी को प्राचीन लोग नाक्षत्र दिन कहते हैं और पूणिमान्त में नक्षत्र योग से चन्द्रमासों की संज्ञा कहते हैं जैसे कृत्तिका के सम्बन्ध से कfतत । मृगशीर्षे के सम्बन्ध से मार्गशीर्ष (अग्रहण) । पुष्य के सम्बन्व से पौप । मघा के सम्बन्ध से माघ । फाल्गुनी के सम्बन्ध से फाल्गुन । चित्रा के सम्बन्ध मे चैत्र । विशाखा के सम्बन्ध से वैशाख । ज्येष्ठा के सम्बन्ध से ज्येष्ठ । आषाढ़ा के सम्बन्ध से आषाढ़ । श्रवण के सम्बन्ध से श्रावण । भाद्रपद के सम्बन्ध से भाद्रपद (भादों) । अश्विनी के सम्बन्ध से आश्विन । यदि पूणिमान्त में उपर्युक्त नक्षत्र न हो तब मासों की संज्ञा कैसे उचित होगी इस के लिये कहते हैं । कात्ति आदि मासों की पौर्णमासी में कृतिकादि दो दो नक्षत्र लेना चाहिये । जैसे कृत्तिका-रोहिणी के सम्बन्व से कातिक्र । मृगशीर्ष और आद्र के सम्बन्ध से मार्गशीर्षे । पुनर्वसु और पुष्य के सम्बन्ध से पौष । आश्लेषा और मघा के सम्बन्ध से माघ । चित्रा और स्वाती के सम्बन्ध से चैत्र । विशाख और अनुराधा के सम्बन्ध से वैशाख । ज्येष्ठा और मूल के सम्बन्ध से ज्येष्ठ पूर्वाषाढ़ और उत्तराषाढ़ के सम्बन्ध से आषाढ़। श्रवण और धनिष्ठा के सम्बन्ध से श्रावण । अवशिष्ट मासों के लिये कहते हैं, आश्विन-भाद्रपद और फाल्गुन के तीनों मास तीन नक्षत्र वश से होते हैं जैसे रेवती- अश्विनी-भरणी के सम्बन्ध से आश्विन । शतभिषपूर्वभाद्रउत्तर भाद्र के सम्बन्ध से भाद्रपद । पूर्वफल्गुनी-उत्तरफल्गुनी-हस्त नक्षत्रों के सम्बन्ध से फाल्गुन इस तरह निरयण नक्षत्रमानों से मासों की संज्ञा कही गई है। अथर्व वेद में भी ऐसी ही मासों की संज्ञा है । सायनमान वश से पूर्वकथित नक्षत्रों के सम्बन्धाभाव से मासों की संज्ञाओं में आपत्ति होती है इसलिये निरयणमान ही से व्यवहार उचित है-यही प्राचीन वैदिकों की सम्मति है इति ॥५॥ इदानों नवमानान्याह । मानुष्यदिव्यपिध्यब्राह्मण्यष्टावमुत्तंकालस्य । उक्तानि ज्ञानार्थं बार्हस्पत्यं नवममन्यत् ॥६॥ सु. भा–अमूर्तीकालस्याव्यक्तात्मककालस्य ज्ञानार्थं मानुष्यं मानचतुष्ट यम् । दिव्यं दैवं पित्र्यं ब्राह्ममन्यच्च बार्हस्पत्यमिति नवमानान्युक्तानीति ॥६॥ वि. भा–‘लोकानामन्तकृत् कालः कालोऽन्यः कलनात्मक:। स द्विधा स्थूलसूक्ष्मत्वान्मूर्तश्वामूर्त उच्यते’ इति सूर्यसिद्धान्तोक्तरिह ज्यौतिषसिद्धान्ते गणनात्मक काल एवामूर्तसंज्ञकःएतस्यामूर्तसंज्ञकस्याव्यक्तात्मककालस्य ज्ञानार्थं मानुष्यं मान (सौरमानस् । चान्द्रमानय । सावनमानघ । नाक्षत्रमानम्) चतुष्टयम् । दिव्यं मानं दैवं (प्राजापत्यं), पियं, ब्राह्म, अन्यद्वार्हस्पत्यमिति नव मानानि कथितानि सन्तोति । सूर्य सिद्धान्ते १५०४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ‘ब्राह्म' दिव्यं तथा पित्र्यं प्राजापत्यं गुरोस्तथा । सौरं च सावनं चान्द्रमाक्षी मानानि वै नवेति” नवमानानि तथा सिद्धान्तशेखरे ‘पैतामहं दिव्यमथासुरं च पित्र्यं तथा मानुषमानमन्यत् । सौरा“हैमांशवसावनानि जैवं तथैवं नव कीतितानि' श्रीपत्युतानि नव मानानि । सिद्धान्तशिरोमणौ 'एवं पृथग् मानवदैवजैवपैत्रायैसौरेन्दवसावनानि ब्रह्म च काले नवमं प्रमाणं ग्रहास्तु साध्या मनुजैः स्वमाना' भास्करोक्तनवमानानि चाचायक्तसदृशान्येवेति विज्ञेज्ञेयानीति ।।६।। अब नव मानों को कहते हैं । हि. भा. –‘लोकानामन्तकृत् कालः' इत्यादि सूर्य सिद्धान्तोक्त मूर्त और अमूर्त कालों में ज्यौतिष सिद्धान्तीय गणनात्मक काल ही अमूर्त संज्ञक है । इस अमूर्त संज्ञक अव्यक्तात्मक काल के ज्ञान के लिये मानुष्य मान (सौरमान, चान्द्रमान, सवनमान, नाक्षत्रमान) । दिव्य- मान, दैव (प्राजापत्य) मान, पिय (पितृ सम्बन्धी) मान, ब्राह्म (ब्रह्म सम्बन्धी) मान अन्य बार्हस्पत्य (वृहस्पति सम्बन्धी) मान ये नव मान कथित हैं । सूर्य सिद्धान्त में ‘ब्राह्मो दिव्यं तथा पित्र्यं प्राजापत्यं इत्यादि मानाध्यायोक्त नौ मान तथा सिद्धान्तशेखर में ‘पैतामहं दिव्यमथासुरं च पित्र्यं तथा मानुषमानमन्यत्र ’इत्यादि श्रीपयुक्त नौ मान तथा सिद्धान्तशिरो मणि में ‘एवं पृथग् मानव देव जैव पैत्राभं सौरैन्दव सावनानि' इत्यादि भास्करोक्त नौ मान ये सब मान आचार्योंक्त नौ मानों के सदृश ही हैं इति ।।६। इदानीमृतूनाह द्वौ द्वौ राशी मकरादृतवः षट् सूर्यगतिवशाद् भाज्यः । शिशिरवसन्तग्रीष्मा वर्षाशरदः सुहेमन्ताः ।। ७॥ सु. भा--मकराद् द्वौ द्वौ राशी षट्ऋतवः सूर्यगतिवशाद्भाज्या विभाज- नीया इति शेषं स्पष्टार्थम् । ‘मृगादिराशिद्वयभानुभोगात् षट् चर्तवः स्युः’ इत्यादि श्रीपत्युक्तमेतदनुरूपमेव ।।७। वि. भा--मकराद् द्वौ द्वौ राशी षड् ऋतवः सूर्यगतिवशाद्विभाजनीयाः । ते च ऋतवो हेमन्तसहिता: शिशिरवसन्तग्रीष्मवर्षाशरद् इति नामका भवन्ती- ति । सिद्धान्तशेखरे ‘मृगादिराशिद्वय भानुभोगात् षट् चत्तंवः स्युरिति’ श्रीपत्युक्तः माचायक्तानुरूपमेवेति । ७॥ ॥ मालाध्यायः १५०५ अब ऋतुओं को कहते हैं। हि. भा-मकर संक्रान्ति से दो दो राशि छः ऋतु सूर्यगति वश से विभाग करने के योग्य है। वे छः ऋतुएं शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वष, शरद्, हेमन्त, इन नामों की हैं । सिद्धान्तशेखर में ‘मृगादि राशिद्वय भानु भोगाव' इत्यादि श्रीपयुक्त आचार्योंक्त के अनुरूप ही है इति ।।७। इदानीं भूभादैयै भूभामानं चाह । भूव्यासगुणो भक्तः बर्कव्यासान्तरेण रविकर्णः। भूमध्याद्भूछाया दीर्घत्वं चन्द्रकर्णनम् ।।८ शेषं भूव्यासगुणं दीर्घत्वहृतं शशाङ्ककक्षायाम् । तमसो व्यासः शशिकरणंहृतस्त्रिज्यागुण लिप्ताः । सु. भा--स्पष्टार्थस्। उपपत्तिश्च भूभासाचनक्षेत्रानुपातेन स्फुटा ॥८-९॥ विभारविकण भूव्यासेन गुणो भूव्यासरविव्यासयोरन्तरेण भक्त स्तदा भूकेन्द्रात् भूछायाया दीर्घत्वं भवति । तद्दत्वं चन्द्रकर्णाने हीनं शेषं यत्तद् भूव्यासेन गुणितं दीर्घत्वेन भक्त तदा चन्द्रकक्षायां तमसो (भूभायाःव्यास भवति । स च त्रिज्यया गुणश्चन्द्रकर्णभक्तस्तदा भूभामानकला भवन्तीति । अत्रोपपत्तिः । रविबिम्बबिम्बयोः क्रमस्पर्शरेखाचिंतरविकर्णेन साकमेकस्मिन्नेव बिन्दौ चन्द्रकक्षात उपरि मिलन्ति । स च बिन्दुः=यो, भूकेन्द्रात् स्पर्शरेखायाः समानान्तरा रेखा कार्या तदा रविकर्ण एको भुजः भूव्यासाघनरविव्यासार्थं द्वितीयो भुजः । भूकेन्द्रात्समानान्तरेखारविव्यासार्श्वयोयोगबिन्डै यावत्तृतीयो भुजः । इति कर्णभुजकोटिभिरेकं त्रिभुजम् । तथा केद्राद् यो बिन्द्वं यावदभूछाया दैघ्र्यमेको भुजः। भूव्यासार्धे द्वितीयो भुजः । भांबेम्बस्परांबेिन्दत यो बिन्द्वं याव तृतीयो भुजः । इति कर्णभुज कोटिभिंद्वितीयं त्रिभुजस् । अनयोस्त्रिभुजयोः साजा रविकर्ण x भूव्या विकुर्णाच्या = भूयो=भूछाया दैघ्र्येषु रव्या-भव्या रव्या-भूव्या वधतरविकर्णचन्द्रकक्षयोर्योगबिन्दुः=च, भू–भूकेन्द्रम् । भूच=चन्द्रकर्णः। भूयो-भूच=भूछाया दैघ्र्य-चन्द्रकर्ण=चयो । च बिन्दुतः स्पर्शरेखोपरिलम्बः = १५०६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते – चल=भूभा–ठ्यासार्धम् । बिम्बस्पर्श बिन्दुः=स्प, भूस्प= भूव्यासार्धम् । तदा भूस्पयो, चलयो त्रिभुजयोः साजात्यादनुपातः= चल भूस्प४चयो = भूब्याईx(भूछायादैर्यु-चन्द्रकर्णी) –भूभाव्यासार्धम् । द्विगुणीकरणेन भूछायादैर्भ भूव्या (भूछायादैर्य-चन्द्रकर्णी) = भूभाव्यासः। परमयं भूभाव्यासश्चन्द्रकक्षायां नहि भवति । किन्तु चन्द्रकक्षात उपरि भवतीति भासाधनक्षेत्रदर्शनेन स्फुटम् । ततः ‘सूर्येन्दुभूभातनुयोजनानी' त्यादिना भाव्यासxfत्र =साचायत भूभा भूछायाद्घ्यं चन्द्रक मानकलाःएतेनाचार्योक्तमुपपन्नमिति । भूभामानकलासाTधने या स्थूलता सा पूर्वमेव तत्साधनोपपत्तौ प्रर्दशितास्ति । सा तत्रव द्रष्टव्येति । अब भूभाईंध्यं और भूभामान को कहते हैं । हि- भा.- रबिकणं को भूव्यास से गुणाकर भूव्यासोन रविव्यास से ( भाग देने से भूकेन्द्र से भूछाया का दीर्घत्व (लम्बाई) होता है । उस दीर्घत्व में से चन्द्रकर्ण को घटाकर जो शेष रहता है उसको भूव्यास से गुणाकर दीर्घत्व से भाग देने से चन्द्रकक्षा में भूभाव्यास होता है । उसको त्रिज्या से गुणाकर चन्द्रकर्ण से भाग देने । से भूभामान कला होती है । इति ॥८-६॥ उपपत्ति । रविबिम्व और भूबिम्ब की क्रमस्पर्श रेखाएँ बघत रविकर्ण के साथ चन्द्रकक्षा से ऊपर एक ही बिन्दु में मिलती है, वह बिन्दु=यो, है । भूकेन्द्र से स्पर्श रेखा की समाना तर रेखा रवि व्यासार्ध में जहां लगती है वहां से रविकेन्द्र तक रेखा=रविव्याई-भूव्याने अब दो त्रिभुज बनते हैं जैसे रविकर्ण कर्ण एकभुजः । भूव्यासाधन रविव्यासाधे भुज द्वितीयभुज, केन्द्र से समानान्तर रेखा और रविव्यासार्थ के योग बिन्दु पर्यन्त कोटि तृतीय भुज, इन कर्ण-भुज कोटि से उत्पन्न एक त्रिभुज, तथा भ,केन्द्र से बिन्दु पर्यन्त भछायादैध्यं करौ एकभुज, भव्यासाचं भुज द्वितीयभुज भबिम्ब स्पर्श बिन्दु से यो बिन्दु पर्यन्त कोटि तृतीयभुज, इन कर्णभुजकोट से उत्पन्न द्वितीय त्रिभुज; इन दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं यदि शुध्यासापन रवि व्यासार्धभुज में रविकर्णकणं पाते हैं तो भूव्यासांचे भुज में क्या इस अनुपात से भूछाया दीर्घत्व आता है इसका स्वरूप= रविकणे. भूव्याई रव्याई भूव्याइ मानध्यायः १५०७ - रविकर्ण. भूव्या =भूछाया दीर्घव= भूयो । वधत रविकर्ण और चन्द्रकक्षा का योग रव्या-भूव्या बिन्दु=च । भू–भूकेन्द्र । भूच=चन्द्रकर्ण भूयो-भूच =चयो = भूछायादीर्घत्व-चन्द्रकर्णी च बिन्दु से स्पर्श रेखा के ऊपर लम्ब=चल=भूभाब्यासाधं भुबिम्ब स्पर्धा बिन्दु=स्प, भूस्प भूस्प. चयो = भूव्यासार्ध, तब धूपयो, चलयो दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं
चल
[सम्पाद्यताम्]भूव्याई (-चन्द्रकर्ण=करने भूछायादीर्घत्व) भूभाव्यासार्धद्विगुणित से भूभाब्यास भूव्यास (डायादीर्घत्व-चन्द्रकर्णी) यह भूभाब्यासा चन्द्र कक्षान्तर्गत , लेकिन नहीं भूछायादीर्घत्व प्रता है किन्तु चन्द्रकक्षा से ऊपर आता है यह भूभासाधन क्षेत्र देखने से स्फुट है । तब अनुपात करते है यदि चन्द्रकणं में त्रिज्या पाते हैं तो भूभाविम्ब व्यासार्ध में क्या इस अनुपात से फ्रभाबिम्बाधं कलाज्या आती है इसको द्विगुणित करने से आचायक्त भूभामान कला उसका स्वरूप त्रि, इससे आचायत उपपन्न हुआ । होती है = . भुभाबिम्बव्या लेकिन भूभामानकला साधन में जो स्थूलता है उसको साधनोपपत्ति में देखना चाहिये । इति ॥८-६॥ पुनः प्रकारान्तरेण तत्साधनमाह । रविकर्णहृता त्रिज्या वर्कव्यासान्तराहता शोध्या । त्रिज्या भूव्यासवशत् शशिकर्णहृतात् तमो व्यासः ॥१० सु. भा. -स्पष्टार्थों ॥ अत्रोपपत्तिः । योजनात्मकभाव्यासः= भूव्या= चक (= (रख्या-भूव्या) इयं त्रिज्यागुणा चन्द्रकर्णहृता जाता भूभाबिम्बकलाः = त्रिमूव्या त्रि (भूव्या)उपपन्नं यथोक्तम् ॥|१०॥ | व्या- । अत वि. भा-त्रिज्या भूव्यासोन रविव्यासेन गुणिता रविकर्णेन भक्ता लब्धिः त्रिज्या भूव्यासघातात् चन्द्रकर्णभक्तात् शोध्या तदा भूभाब्यासो भवतीति ॥१०॥ १५०८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त अत्रोपपत्तिः । भूव्यासहीनं रविबिम्बमिन्दुकर्णाहतमित्यादि भास्करोत्तया भूव्या चंक (रव्या-भूव्या). ~=भूभाव्यासः। ततः पूर्वप्रदर्शाितोपपत्त्या भूभा- बिम्बकलाः= भूव्या. त्रि - चंक (ख्या-भूव्या). त्रि= भूव्या. त्रि चंक चंक.रक चंक (व्याकुलय). त्रि, एतेनोपपन्नमाचार्योक्तमिति । भूव्या= भूव्यासः । चंक =चन्द्रकर्णः । रव्या= रविव्यासः। रक=रविकर्णाः इति ॥१०॥ अब प्रकारान्तर से भूभाबिम्बकला साधन को कहते हैं । हि: आ-त्रिज्या को भूव्यासोन रविव्यास से गुणा कर रविकर्ण से भाग देने से जो फल हो उसको त्रिज्या और भूव्यास घात में चन्द्रकर्ण से भाग देकर जो लठ्धि हो उसमें से घटाने से भूभाव्यास होता है इति ॥१०॥ भूव्या=भूव्यास । चंक=चन्द्रकर्ण । रक = रविकणें । रव्या = रविव्यास, तब ‘भूव्यासहीनं रविबिम्बमिन्दुकणहतं' इत्यादि भास्करोक्त प्रकार से भूव्या चंक (व्या–भूव्या). त्रि =भू भाव्यास, इसको त्रिज्या से गुणाकर चन्द्रकर्ण से भाग देने से भूभाबिम्बकला=[क- = भूव्या. त्रि - चंक. (रव्या-भूव्या)त्रि = भूव्यानि - चकरक च क त्रि (ब्या-भूव्य) इससे आचायाँक्त उपपन्न हुआ इति ॥१०॥ इदानीं प्रकारान्तरेण भूभामानमाह। भूव्यासेन्डुगतिवधाद् वर्जयासान्तराकभुक्तिवधम् । प्रोह्न्सुमध्यभूत्तथा तिथिगुणयाऽऽप्तं तमो व्यासः ॥११॥ सु. भा---स्पष्टार्थम् । त्रि.भट्या अत्रोपपत्तिः । पूर्वश्लोकेन भूभाबिम्बकला:मानाध्यायः १५०३ त्रि (रव्या-भूव्या ) =२ चान्द्र परलंबनकलाः रक त्रि.व्या (व्या-भूव्या) – २ चग–२ रग (रव्या-भू व्या) रक.भूव्या १५ १५ व्या । – २ चग.भूव्या–२ रग (रव्या-भूव्या) १५ व्या चग. भूव्या-रग (रख्या-भूया) –आचार्यमते भूव्यासदलं स्वल्पान्तराच्च १५ भूव्याद न्द्रमध्यगतिकलासममत उपपन्नो यथोक्तम् ॥११॥ वि. भा. - भूव्यासचन्द्रगतिघातात् भूव्यासरविव्यासयोरन्तरगुणित- रविगतिं विशोध्य पञ्वदशगुणितचन्द्रमध्यगत्या भक्त तदा भूभा व्यासो- भवेदिति ।।११। -- चंग = चन्द्रपरमल त्रि (व्या- पूर्वश्लोकेन भूभाविम्बकला= निगृया - –ऽव्य) = त्रि भूव्या३४२८त्रि (रव्या -भूव्या) : २ चन्द्र परमलम्बनकला त्रि (व्या=ड्या) द्वितीय खण्डे हरभाज्यौ भूव्यागुणितौ तदा २ चन्द्र परमलम्बन कला त्रि. भूव्या (रख्या- -भूव्या) यतः रकः भूव्या १५ २ चंग-त्रि- भूव्या (व्या-भूव्या) – २ चंग स्म्बनकला । अतः १५ रक. भूव्या १५ त्रि.व्या३४२ (व्या-भूव्या) – २ चंग क.भव्या १५ २ रविपरमलम्बन (रव्या-भू व्या) – २ चंग _२ रग (ख्या-भूव्यां) १५ १५x भूव्या समच्छेदेन २ चंग. भूव्या–२ रग (रव्या-भूव्या) =भभाबिम्बकला = १५४व्या -चंग. भूव्याकरण (रव्या-भव्या) पत्राचार्येण स्वल्पान्तरा भूव्यासाचे १५x भूव्या १५१० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते चन्द्रमध्यमगतिसमं तदा - . भूव्याकरण (रख्या-भूव्या) स्वीकृतं च- भूभा १५ चंग बिम्बकला, अत आचार्योक्तमुपपन्नमिति ॥११॥ अब प्रकारान्तर से भू भामान को कहते हैं । हि. भा-भ्यास और चन्द्रगति के घात में भूव्यास और रविव्यास के अन्तर से गुणित रविगति को घटाकर पन्द्रह से गुणित चन्द्रमध्यम गति से भाग देने से लब्ध भूभा- व्यास होता है इति ॥११॥ उपपत्ति । चक त्रि भूव्या त्रि (रख्याभूव्या) पूर्वश्लोक से भूभाबिम्बकलाः = -– = त्रि. भूव्या३४२ - त्रि (ख्या- भूव्या) L =२ चन्द्रपरमलम्बनकला चक २ चग ~:चन्द्रपरमलम्बनकला, अतः, - - १५ १५ ( - भ भा = • त्रिभूव्या (रव्या–भूव्या): बंग , रक.भूध्या त्रि-भृघ्या (ब्या-भूव्या), – २ च ग -त्रि-भूव्याईX२ (रख्या-भूव्या) रक-भूव्या १५ रक-भूव्या ८ २ यंग - २ रविपरमलम्बन (ब्या-भूव्या) = _२ च ग १५ १५ २ रण - भूव्या- (ख्याभूव्या) समच्छेद से २ च ग. २रग (रव्या- भूव्या) १५x भूव्या १५४ म व्या च ग. भव्या-रग (रव्या-- व्या) यहां आचार्यों ने स्वल्पान्तर से चन्द्र- १५४ व्याई मध्यमगति के बराबर भूव्यासार्थ को स्वीकार किया है । तत्र ण गव्यार्ग रष्या—भ.च्या .सू- () =भभाविस्वकला, इससे आचायक्त उपपन्न हुआ १५ चग इति ॥११॥ , इदानोमध्यायोपसंहारमाह । योऽधिकमासावमरात्रसम्भवज्ञः स वेत्ति मानानि । आर्याद्बशभिरयं मानाप्यायत्रयोविंशः ॥१२। मानाध्यायः १५११ सु.भा.-यो गणकोऽधिकमासावमरात्रसम्भवज्ञः स एव सौरादिमानानि वेत्ति यतः सौरचान्द्रमानाभ्यां सम्यग्ज्ञाताभ्यामधिमासज्ञानं चान्द्रसावनमानाभ्यां च क्षयाहज्ञानं भवति । शेषं स्पष्टम् ॥१२॥ मधुसूदनसूनुनोदितो यस्तिलकः श्रीपृथुनेह जिष्णुजोक्त । हृदि तं विनिघाय नूतनोऽयं रचितो मानविधौ सुधाकरेण । इति श्रीकृपालुदत्तसूनुसुधाकरद्विवेदिविरचिते ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तनूतनति लके मानाध्यायस्त्रयोविशः ॥१२॥ वि. भा-योऽघिमाससम्भवमवमसम्भवं च जानाति स मानानि (सौर चान्द्रमानादि) जानाति, यतो ज्ञाताभ्यां सौरचान्द्रमानाभ्यामघिमासज्ञानं भवति तथा चान्द्रसावनमानाभ्यां चावमदिनज्ञानं भवति । अयमार्याद्वादशभिस्त्रयो विशो मानाध्यायोऽस्तीति ॥१२॥ इति ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते मानाध्यायस्त्रयोविंशः अब अध्याय के उपसंहार को कहते हैं। हि- भा.- जो गणक अघिमास सम्भव को जानते हैं और अवम सम्भव को जानते हैं वे मान (सौर चान्द्रमानादि) को जानते हैं क्यों कि अच्छी तरह विदित सौरमान और चान्द्रमान से अधिमास शन होता है, तथा चान्द्रमान और सावनमान से क्षयाह ज्ञान होता है इति ।।१२॥ इति ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त में तेईसवां मानाध्याय समाप्त हुना । Seन् ब्राह्मस्फुफुटसिद्धान्तः अथ संज्ञाध्यायः प्ररभ्यते । तत्रादौ तदारम्भ प्रयोजनमाह। यस्मात्संप्रतिपतिनं संज्ञया संज्ञितो विना तस्मात् । लोके प्रसिद्धसंज्ञा रूपाबीन शशाङ्काद्य Tः ॥ १ ॥ सु. भा–यस्मात् संज्ञया विना यः संज्ञितः पदार्थस्तस्य संप्रतिपत्तिः प्राप्तिः परिचयो वा न भवति, तस्मात् लोके रूपादीनां रूपवतां पदार्थानां शशाकद्याः प्रसिद्धसंज्ञाः सन्ति ये ये रूपवन्तस्ते ते संज्ञांवन्तः । संज्ञा विना परिचयो न भवतो त्यर्थः ॥१॥ वि. भा.यस्मात् कारणात् यः संज्ञितः (संज्ञायुक्तो नामयुक्तोवा) पदार्थस्तस्य संप्रतिपत्तिः (परिचयः सम्यक् ज्ञानं वा) संज्ञया विना न भवति तस्मात् कारणात् लोके रूपादीनां (स्वरूपवतां पदार्थानां) शशाङ्काद्यः (चन्द्रादयः) प्रसिद्ध संज्ञाः सन्ति । अर्थाचे ये रूपवन्तः पदार्थास्तेते संज्ञावन्तः, संज्ञा (नाम ) विना तेषां परिचयो न भवतीति ॥ १ ॥ अब संशाध्याय प्रारम्भ किया । उसमें आरम्भ जाता है पहले करने का प्रयोजन कहते हैं । हि- भा–क्योंकि जो संयुक्त (नाम वाले) पदार्थ हैं उनका परिचय वा अच् तरह से ज्ञान बिना संज्ञा (नाम) के नहीं होता है$ इसलिये लोक में रूपवान् पदाथों की शशा (चन्द्र) आदि प्रसिद्ध संशा है । अर्थात् रूपवान् जितने पदार्थों है वे सब संज्ञावान है । संज्ञा (नामके बिना उनका परिचय नहीं होता है इति ।। १ । १५१६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते इदानीं सिद्धान्त एक एवेत्याह। युगपद्युगाविरुवयाद्यास्याय भास्करस्य वारुण्याम्। राज्यञ्चत् सौम्यायामस्तमयाद्दिनदलादैन्द्रयाम् ॥ २ ॥ अयमेव कृतः सूर्येन्दु पुलिश रोमक वशिष्ठ यवनाथ: । यस्मात्तस्मादेकः सिद्धान्तो विरचितो मान्यः ॥ ३ ॥ सु. भा.- कस्यचिन्मते भास्करस्य याम्यायां लङ्कायामुदयाद्युगपद्युगादिः। अन्यमते तदैव वारुण्यां रोमकपत्तने रात्र्यर्धाद्युगादिः । अन्यमते तदैव सौम्यायां सिद्धपुरेऽस्तमयाद्युगादिः । अन्यमते च तदेवंन्द्रयाँ यमकोटध दिनदलायुगादिः । एवं देशविशेषणोदयास्तादिकालः सूर्यस्य जातो वस्तुत आकाशे सूर्यस्य स्थितिश्च मेषादावेवातो ग्रहगणनायामेव सर्वत्र एक एवायं सिद्धान्तः सूर्येन्दुपुलिशरोमक वसिष्ठय वनाथैः कृतः। यस्मादै शविशेषस्य भिन्न-भिन्नकालग्रहणेन ग्रहगणनायां भेदो न भवति तस्मात् सूर्याचैर्वस्तुत एक एव सिद्धान्तो विरचितो नान्य इति सिद्धान्तविदां सर्वं स्फुटम् ॥२-३।। वि. भा--भास्करस्य (सूर्यस्य) याम्यायाँ (लङ्कायां) उदयादेकदैव युगादेः प्रवृत्तिर्बभूवेति कस्यचिन्मतम् । तदैव (लङ्कार्कोदयकाल एव) वारुण्यां (रोमक पत्तने) रात्र्यर्धात् (अर्धरात्रिकालाद) युगादिप्रवृत्तिः । तदैव सौम्यायां सिद्धपुरे) अस्तमयकालाद्युगादि प्रवृत्तिरिति कस्यचिन्मतम् । तदैवैन्द्रयास (यमकोटि पुर्या) दिनार्धकालांयुगादेः प्रवृत्तिरित्यन्यस्य मतम् । सिद्धान्त शिरोमणौ “लङ्का कुमध्ये यमकोटिरस्याः प्राक् पश्चिमे रोमकपत्तनं च । अधस्ततः सिद्धपुरं सुमेरुः सौम्ये च याम्ये वडवानलश्च । कुवृत्त पादान्तरितानि तानि स्थानानि षङ्गोलविदो वदन्ती’ तिभास्करोक्तपुरनिवेशस्थित्या गोलस्थितिदर्शनेन चाऽग्रे । “लङ्कापुरेऽर्कस्य यदोदयः स्यात्तदा दिनार्ध यमकोटिपुर्याम् । अधस्तदा सिद्धपुरेऽस्तकालः स्याद्रोमके रात्रिदलं तदैव ।। ” इति भास्करोक्तमस्ति, यदा लङ्कायां सूर्योदयस्तदैव यमकोटिनगरे दिनार्धेमधःसिद्धपुरेऽस्तकालः। रोमकपत्तने रात्र्यधं भवति, तेन लङ्कसूर्योदय कालेयमकोटिदिनार्धकाले, अधः सिद्धपुरेऽस्तकाले, रोमकपत्तनस्य रात्र्यर्धकाले एकदैव युगादि प्रवृत्तिर्बभूवेति कथने न कोऽपि दोषोऽस्ति । तथापि सिद्धान्तशेखरे “मधुसित प्रतिपदिवसादितो रविदिने दिनमासयुगादयः। दश शिरः पुरि सूर्यसमुद्गमात्रं समममी भवसृष्टिमुखेऽभवन् संज्ञाध्यायः १५१७ इत्यनेन श्री पतिना, सिद्धान्तशिरोमणौ “लङ्कानगर्यामुदयाच्च भानोस्तस्यैव वारे प्रथमं वभूव । मधोः सिताददनमासवर्दी युगादिकानां युगपत्प्रवृत्तिः । इत्यनेन भास्कराचार्येण, अन्येनाप्यनेकाऽऽचार्येण लङ्कायाः प्रधान त्वालङ्कासूर्योदयकालत एव युगाद्यारम्भः कथ्यते, यमकोटिसिद्धपुर रोमक्रपत्तननगराण्यप्रसिद्धानि सन्ति, वहुभिस्तेषां नामान्यपि न श्रुतानि, तस्मादेव कारणात्- बहुभिरेवाचार्योर्लङ्कासूर्योदयकालत एव युगादिप्रवृत्तिः स्वीक्रियते । वस्तुतस्तु-आकाशे मेषादावेव सूर्यस्य स्थितिरतो ग्रहगणिते सर्वत्रैक एवायं सिद्धान्तः सूर्य-चन्द्र-पुलिश-रोमक-वशिष्ट यवनाथैः कृतः । यस्मात्कारणात् देशविशेषाणां भिन्नभिन्नकालग्रहगणिते कोऽपि भेदो न भवत्यतः पूर्वोक्तराचा यैरेक एव सिद्धान्तो विरचितोऽन्यो नेति ।। २-३ ॥ अब सिद्धान्त एक ही है कहते हैं । हि- भा.- लङ्का सूर्योदय काल से एक ही समय में युगादियों की प्रवृति हुई यह किसी का मत है । उसी समय में (लङ्कोदयकाल ही में) रोमक पत्तन में अथै रात्रिकाल से युगाद्यारम्भ हुआ यह अन्य प्राचार्य का मत है । उसी समय में सिखपुर में सूर्यास्त काल से युगादियों की प्रवृत्ति हुई यह किसी दूसरे आचार्यों का मत है । उसी समय में यमकोटि पुरी में दिनार्ध काल से युगादियों की प्रवृत्ति हुई यह किसी अन्य आचार्यों का मत है । सिद्धान्त शिरोमणि में लझ कुमध्ये यमकोटिरस्याः प्राक्पश्चिमे रोमक पत्तनं च' इत्यादि भास्करा चापें कथित पुरों के निवेश की स्थिति से और गोल रिथति देखने से आगे ‘लङ्कापुरेऽर्कस्य यदोदयः स्यात्तदा दिनार्ध यमकोटि पुर्याम्' इत्यादि भास्करोक्त है अर्थात् जब लङ्का में सूर्योदय हुआ उसी समय यमकोटि पुरी में दिनार्ध होता है, सिद्धपुर में अस्तकाल होता है, और रोमकपत्तन में रायचं होता है, इसलिये लसूर्योदय काल में-यम कोटि दिनार्ध काल में सिद्धपुर के अस्तकाल में रोमक पत्तन में अर्धरात्रि काल में एक ही समय में युगादि प्रवृत्ति हुई इस कथन में कोई भी दोष नहीं है । तथापि सिद्धान्त शेखर में ‘मधुसित प्रतिपद् दिवसादितो रविदिने दिनमासयुगादयः इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्रीपत्युक्ति से सिद्धान्त शिरोमणि में लङ्कांनगर्यामुदयाच्च भानोस्तस्यैव वारे प्रथमं बभूव’ इत्यादि भास्करोक्ति से और अनेक आचायों के कथन के अनुसार प्रधाननगरी लङ्का के सूर्योदय काल ही से युगाद्यारम्भ माना जाता है । यमकोटिसिद्धपुर रोमकपत्तन नगर अप्रसिद्ध है, बहुत लोग उनके नाम भी नहीं जानते हैं लंका को आबाल वृद सब जाते हैं, इसीलिये बहुत से आचार्यों ने लङ्का में सूर्योदय काल ही से युगादि प्रवृति को स्वीकार किया है । १५१८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते वस्तुत: आकाश में मेषादि ही में सूर्य की स्थिति थी इसलिये प्रहगणना में सर्वत्र एक ही यह सिद्धान्त को सूर्य-चन्द्र-पुलिश-रोमक-वशिष्ठ-यवनादि आचार्यों ने स्वीकार किया है। क्योंकि देश विशेषों के भिन्न-भिन्न काल ग्रहण करने से ग्रहगणना में कोई भी भेद नहीं होता है अतः पूर्वोक्त आचार्यों ने एक ही सिद्धान्त बनाया, अन्य नहीं इति ।। २-३ ।। इदानीं कस्मिन्न शे सूर्यसिद्धान्तादयो भिन्न इति कथ्यते । यदि भिन्नाः सिद्धान्ताः भास्कर संक्रान्तयो विभेदसमाः । स स्पष्टः पूर्वस्यां विषुवत्यर्कादयो यस्य ॥ । ४ ॥ सु० भा०–यदि सौरादयः सिद्धान्ताः भिन्नास्तुह विभेदसमा भास्कर सङ क्रान्तयः सन्ति । रविसंक्रान्तिसमय एक एव तेषां सौरादीनां गणनया नायाति तेन हेतुना सिद्धान्ता भिन्नाः । तेषां कतमः स्फुट इत्याह स स्पष्ट इति । यस्य गणनया विषुवति मेषतुलादौ पूर्वस्यां दिश्येव प्राक् स्वस्तिकविन्दावकोंदयो वेधेनो पलभ्यते स एव स्पष्टः स्फुटो ज्ञेय इति । यद्युदयकाल एव रविर्मेषतुलादिगस्तदै वैवं भवत्यन्यथा तारतम्येन रव्युदयेन सिद्धान्तगणना परीक्षणीयेति ।।४।। , .. वि. भा.—यदि सूर्यसिद्धान्तादयः सिद्धान्ता भिन्नस्तहिं रविसंक्रातिसमय एक एव तेषां (सौरादीन) गणनया नायात्यतः सिद्धान्ता r भिन्ना सन्ति । तेषु सिद्धातेषु कतमःस्फुट इति कथ्यते । यस्य गणनया विषुवति (मेषादौ तुलादौ च) पूर्वस्यां दिश्येव (पूर्वस्वस्तिकविन्दावेव) रव्युदयो वेघेनोपलभ्यते स एव स्फुटः सिद्धान्तो बोद्धव्यः । यदि रविरुदय काल एव मेषतुलादिगतस्तदेवव भवितुमर्हति । अन्यथा रव्युदयेन सिद्धान्तगणनायास्तारतम्येन परीक्षणं कार्यमिति ॥ ४ ॥ अब किस अंश में सर्वे सिद्धान्तादि भिन्न हैं सो कहते हैं । हि. भा--यदि. सौरौदि सिद्धान्त भिन्न है तो रवि संक्रान्ति काल उन सबों की गणना एक ही से नहीं आता है अतः सिद्धान्त भिन्न हैं। उन सिद्धान्तों में कौन सिद्धान्त स्फुट है सो कहते हैं। जिसकी गणना से मेषादि और तुलादि में पूर्वंस्वस्तिक बिन्दु ही में वेध से रवि का उदय उपलब्ध हो उसी को स्फुट सिद्धान्त समझना चाहिये। यदि उदयकाल ही में रवि मेषादितुलादि गत हो तब ही ऐसा हो सकता है अन्यथा तारतम्य से रवि के उदय से सिद्धान्तगणना की परीक्षा करनी चाहिये इति ॥ ४ ॥ इदानीं स्व सिंद्धान्तस्योत्तरार्धे क्रमिकाध्यायसंख्यामाह । तन्त्र परीक्षा गणितं मध्यमगत्युत्तरादयः पञ्च । कुट्टाकारो छेडछन्दश्चित्युत्तरं गोलः ॥ ५ ॥ संशTध्यायः १५१९ यन्त्राणि मानसज्ञा ख्याताध्यायाश्चतुर्दश ब्राह्म । अध्यायचतुविंशतिराखी र्दशभिर्युताध्यायैः ॥ ६ ॥ चु. भा–उत्तरार्धे तन्त्रपरीक्षाध्यायः । गणितं गणिताध्यायः। पञ्च मध्यमगत्युत्तरादयोऽधिकाराः सन्ति । मध्यगत्युत्तराध्यायः । स्पष्टगत्युत्तराध्यायः । त्रिप्रश्नोत्तराध्यायः । छेद्यकाध्यायः । शृङ्गोन्नत्युत्तराध्यायः । कुट्टाकाराध्यायः। छन्दश्चित्युत्तराध्यायः । गोलो गोलाध्यायः । यन्त्राणि ,यन्त्राध्यायः । मानसंज्ञा- ध्यायः। ख्याताध्यायः संज्ञाध्यायोऽयमेव । एवमुत्तरार्धे ब्राह्मो सिद्धान्ते चतुर्दशाध्यायाः सन्ति । एत आधैर्दशभिरध्यायेयु“ता अध्यायचतुर्विंशतिरत्र ग्रन्थे ज्ञेयेति ॥५-६॥ वि. भा.-ब्राह्म सिद्धान्ते (ब्राह्मस्फुट सिद्धान्ते) उत्तरार्धे (१) तन्त्र परीक्षाध्यायः(२) गणिताध्यायःमध्यमगत्युत्तरादयः पञ्चाध्याया: (३) मध्य- गत्युत्तराध्यायः(४) स्फुटगत्युत्तराध्यायः(५) त्रिपुरनोत्तराध्यायः(६) अहणो त्तराध्यायः(७ ) भृङ्गोत्रत्युत्तराध्यायः(८) कुढाकाराध्यायः(e) छेद्यकाध्यायः (१०) छन्दश्चित्युत्तराध्यायः(११) गोलाध्यायः (१२) यन्त्राध्यायः, (१३) मान संज्ञाध्यायः(१४) ख्याताध्यायः (संज्ञाध्यायोऽयमेव) इतिचतुर्दशाध्यायाः सन्ति । एते चतुर्दशाध्याया आधैर्दशभिरध्यापैयुताश्चतुर्विंशति संख्यका अध्याया अत्र ग्रन्थे शैया इति ।। ५-६ ॥ अब अपने सिद्धान्त के उत्तरार्ध में क्रमिक अध्याय संख्या कहते हैं। हि. भा--इस ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के उत्तरार्ध में (१) तन्त्रपरीक्षाध्याय, (२) गणिताध्याय, (३) मध्यगत्युत्तराध्याय, (४) स्फुटगत्युत्तराध्याय, (५) त्रिप्रश्नोत्तराध्याय, (६) प्रहणोत्तराध्याय(७) ङ्गोप्रत्युत्तराध्याय, (८) कुढाकाराध्याय, (e) छेद्यकाध्याय, (१०) छन्दश्चित्युत्तराध्याय(११) गोलाध्याय(१२) यन्त्राध्याय(१३) मानसंज्ञाध्याय (१४) संशाध्याय, ये चौदह अध्याय है । इनमें पहले (पूर्वार्ध) के दश अध्याय जोड़ने से इत्र ग्रन्थ में चौबीस अध्याय समझने चाहिये इति ।। ५-६ ॥ इदानीं ग्रन्थग्रथनकालमाह । धे चापवंशतिलके श्रीव्याघ्रमुखे नृपे शकनृपाणाम् । पञ्चाशत्संयुक्तर्वर्षशतैः पञ्चभिरतीतेः ॥ ७ ॥ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तः सज्जनगणितगोलवित्प्रीत्यै । त्रिशद्वर्षेण कृतो जिष्णुसुतब्रह्मगुप्तेन ॥ ८ ॥ । सु. भाः-श्रीव्याघ्रमुखे नृपे पृथ्वीं शासति। कविशिष्टे नृपे श्रीचापवंश १५२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते तिलके । शकनृपाणां पञ्चाशत्संयुक्तः पञ्वभिर्वर्षशतैरतीतैरर्थात् पञ्चाशदधिक पञ्चशतशके शेषं स्पष्टम् ।I७-८॥ वि. भा.-श्रीचापवंशस्य तिलके (टीकारूपे) श्रीव्याघ्रमुखे (एतन्नामके) महीपाले पृथ्वों शासति, शकनृपाणां पञ्चाशत्संयुक्तः पञ्चभिर्वर्षशतैरर्थात् पञ्चाशदधिकपञ्चशतवर्षीः, अतीतैः (गतैः) अर्थात् पञ्चाशदधिकपञ्चशत- शकाब्दे सज्जनगणितगोलविदां विनोदाय त्रिशद्वर्षवयस्केन जिष्णोस्तनयेन ब्रह्मगुप्तेन ब्राह्मः स्फुटसिद्धान्तः कृत इति । ७८ ।। अब ग्रन्थ रचना काल कहते हैं । हिभाभचापवंश में तिलक (टीका) रूप श्री व्याघ्रमुख नामक राजा के शासन में पांच सौ पचास शक(शके ५५०) में सज्जन (दौgथादि दोष रहित) गणित और गोल के पण्डितों के हर्ष के लिये तीस वर्षे अवस्था के जिष्णुपुत्र ब्रह्मगुप्त ने ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त नामक इस ग्रन्थ को रचा अर्थाद् ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त को बनाया इति ।। ७-६ ।। इदानीमस्मिन् सिद्धान्ते गणितलाघवेन करणग्रन्थवत् फलसाधनं कथं न कृतमिति कथयति गणितेन फले सिद्धिब्रह्म ध्यानग्रहे यतोऽध्याये। ध्यानग्रहो द्विसप्ततिरायण न लिखितोऽत्र मया ।। e ॥ • सु. भा.-यातो ब्राह्म ब्रह्मकृते ध्यानग्रहे ध्यानग्रहनाम्न्यध्याये गणितेन फले मान्दादिफलसाधने लाघवेन सिद्धिः कृताऽतोऽत्रार्याणां द्विसप्ततिध्र्यानग्रहोऽध्यायः पुनरुक्तिदोषभयान्मया न लिखित इति ॥९॥ ॥ विभाज्यतो ब्राह्म (ब्रह्मगुप्तकृते) ध्यानग्रहेऽध्याये (ध्यानग्रहोपदेशाध्याये) मान्दादि फलसाधने गणितलाघवेन फलसिद्धिः कृता मयाऽतोऽत्रर्याणां द्विसप्तति ध्र्यानग्रहोऽध्यायः पुनरुक्तिदोषभयान्न लिखित इति ।। ९॥ अब इस सिद्धान्त में गणितलाघव से करण ग्रन्थ की तरह फलसाधन क्यों नहीं किया गया कहते हैं । हि. भा–क्योंकि ब्रह्मगुप्तकृत ध्यान ग्रह नामक अध्याय में गणित से मान्वादि फल साधन में लाघव द्वारा सिद्धि की गयी है इसलिये यहां बहत्तर आर्याओं का ध्यान ग्रहाध्याय पुनरुक्तिदोष के डर से नहीं लिखा गया इति ।। ६ ।। सध्यायः १५२१ इदानीं ग्रन्थ संख्यां कथयति । भटब्रह्माचार्येण जिष्णोस्तनयेन गणितगोलविदा । आर्यष्टसहसण स्फुटसिद्धान्तः कृतो ब्राह्यः ।। १० ।। सुः. भा–आर्याणामष्टाधिकैक सहसूण शेपं स्पष्टार्थम् ॥१०॥ वि भा. -गणितगोलज्ञेन जिष्णुपुत्रेण भटब्रह्माचार्येण मया, आर्याणामष्टा धिकैकसहसण ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः कृत इति ॥ अब ग्रन्थ संख्या (ग्रन्थ में श्लोक संख्या) कहते हैं । हि. भा-गणित और गोल के पण्डित जिष्णु के पुत्र भटब्रह्माचार्य ने एक हजार आठ आर्याओं के इस ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त ग्रन्थ को बनाया इति ॥ । १० ॥ इदानीं सूर्यग्रहणे चन्द्रशङ्कुः कौन कुत एतदर्थमाह । भग्रहयुतिवच्छङ्क वित्रिभलग्नाद्दविग्रहोक्तिसमः । शशिनः कर्मबहुत्वात् न कृतोऽतो भास्करग्रहणे ।। ११ ॥ सु. भा–भग्रहयुतिवद्रविग्रहोक्तिसमः शशिनो वित्रिभलग्नाच्छुः कर्मबहु- त्वात् महताऽऽयासेन भवति । अतो मया भास्करग्रहणे शशिशङ्कनं कृतः प्रयोजनाभावात् इयमार्या निष्प्रयोजना ॥११ वि. भा-–भग्रहयुतिवत् सूर्यग्रहणोक्तस्थितिरस्ति-अर्थात् भगृह योगे यया स्थिति रस्ति तथैव सूर्यग्रहणेऽपि विद्यते । वित्रिभलग्नाच्छङ्कुश्चन्द्रस्य क्रिया गौरवान्महता प्रयासेन भवत्यतो मया सूर्यग्रहणे चन्द्रशङ्कुर्न कृत इति ॥११॥ हि. भा–भग्रह (नक्षत्र और ग्रह) योग की तरह सूर्यग्रहण में कथित स्थित है। अर्थात् भगृह योग स्थिति के तुल्य ही सूर्यग्रहणोक्त स्थिति है, वित्रिभलग्न से चन्द्र शङ्कु क्रिया की अधिकता (कर्मबाहुल्य) से बहुत प्रयास द्वारा होता है इसलिये मैंने सूर्यग्रहण में चन्द्रशङ्कु नहीं किया इति ॥ ११ ॥ इदानीं प्रश्न विशेषमाह । आग्नेये नैऋत्येवेष्टदिने संस्थितस्य योऽर्कस्य। शङ् च्छाये कथयति वर्षादपि वेत्ति सूर्य सः ॥ १२ ॥ सु.भा.-इष्टदिने आग्नेये वा नेऋत्ये कोणवृत्ते संस्थितस्यार्कस्य वा यो १५२२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते वर्षादपि वर्षपर्यन्तकालेनापि शङ्कुच्छाये कययति स एव सूर्य वेत्तीति । अस्योत्तरं कोणशङ्करानयनेन स्फुटम् ॥१२॥ वि. भा–यो गणक इष्टदिने आग्नेये का नैऋत्ये कोणवृत्ते संस्थितस्यार्कस्य (रवेः ) शकच्छाये वर्षपर्यन्तकालेनापि कथयति स सूर्यं वेत्ति (जानाति, इति ॥ १२ ॥ अस्योत्तरार्थमुपपत्तिः सूर्यसिद्धांते । ‘त्रिज्यावर्गार्धतोऽग्राज्या वगनाद् द्वादशाहता । पुनर्दादश विघ्नाच्च लभ्यते यत् फलं बुधैः । शक वर्गार्धसंयुक्तविषुवद्वर्गभाजितात् । तदेव करणी नाम तां पृथक् स्थापयेद् बुधः । अर्कघ्नी विषुवच्छायाऽग्राज्यया गुणिता तथा। भक्ता फलाख्यं तद्वर्गेसंयुक्तकरणीपदम् ॥ फलेन हीनसंयुक्त दक्षिणोत्तर गोलयोः । याम्ययोविदिशोः शङ्करेव" इति कोणशङ्करानयनमस्ति । एतद्व्याख्या-त्रिज्यावर्गाचंव अग्राज्यावर्गहीनात्। शेषाद् द्वादशगुणात् पुनर्बादशगुणात् । द्वादशवर्गार्धसंयुक्त पलभावर्गेण भाजिताद्य फलं तदेव करणी नाम भवति । तां करणीं पृथगेकत्र स्थापयेत्, द्वादशगुणा पलभाऽग्रया गुणा तेनैव हरेण (द्वादशवर्गार्धसंयुक्त पलभावगैण) भक्ता लब्धं फलसंज्ञकम् । फलाख्यस्य वर्गेण संयुक्ता या करणी तत्पदं (वर्गमूलं) दक्षिणोत्तरगोलयोःक्रमेण फलाख्येन हीन संयुक्त कार्यंस् । दक्षिणगोले फलेन हीनमुत्तरगोले युक्तमित्यर्थः। एवं याम्ययोरग्निनैऋत्य कोणयोः शक: स्यादिति । एतदुपपत्तिदर्शनेन प्रश्नोत्तरं स्फुटमस्तीति ॥ १२ ॥ अब प्रश्न विशेष को कहते हैं । हि. भा—जो गणक इष्टर्लिन में आग्नेय वा नैऋत्य कोणवृत्त स्थित रवि के शङ्कु और छाया को एक वर्ष पर्यन्त समय में भी कहते हैं वे सूर्य को जानते हैं; इति ॥ १२ ।। इसकी उपपत्ति । सूर्य सिद्धान्त में ‘त्रिज्यावर्गार्श्वतोऽग्राज्यावगनाद्द्वादशाहतात् । पुनर्बादशनिध्नाच्च । सम्यते यत्फलं बुधैः' इत्यादि संस्कृतोपपति में लिलित लोकों में ‘फुलेन हीन संयुक्त संज्ञाध्यायः १५२३ दक्षिणोत्तर गौलयोः । याम्ययविदिशोः शङ्कु: ' इसमें उपयुक्त प्रश्न का उत्तर स्पष्ट है । उपयु' क्त सूर्य सिद्धान्तीय श्लोकों की उपपति देखने से स्फुट है इति । १२।। इदानीमध्यायोपसंहारमाह । अत्र मया यमोक्त गोलाङप्रेक्ष्य धीमता वोह्यम् । आर्यात्रयोदशोऽयं संज्ञाध्यायश्चतुविशः । १३ ॥ सु. भा.–अत्र मया यत् किञ्चिन्नोक्त तत्सर्वं धीमता गणकेन गोलादुत्प्र क्षां कृत्वोम् । गोलबोधे हीदमेव फलं यदनुक्तमपि बुद्धिमता ज्ञायते । शेषं स्पष्टम् ।१३।। मधुसूदनसूनुनोदितो यस्तिलकः श्रीपृथुनेह जिष्णुजोक्ते । हृदि तं विनिधाय नूतनोऽयंरचितो नामविध सुधाकरेण । इति श्रीकृपालुदत्तसूनुसुधाकरद्विवेदिरचिते ब्राह्फुटसिद्धान्तनूतनतिलके संज्ञाध्ययश्चतुर्विंशतितमः सम्पूर्णतामगमत् । वि. भा. -अत्र मया यत्किञ्चित् न कथितं तत्सर्वं बुद्धिमता गणकेन गोला- दुषा क्षां कृत्वा ज्ञेयम् । गोलज्ञानस्येदमेव फलं यदकथितमपि बुद्धिमद्भिर्जायत इति ।। १३ ।। इति ब्राह्मस्फुट सिद्धान्ते संज्ञाध्यायश्चतुर्विंशतितमः समाप्तिमगमत् ॥ २४ ॥ अब अध्याय के उपसंहार को कहते हैं। हि. भा.- इसमें हमने जो कुछ नहीं कहा है उन सबों को बुद्धिमान् गणक (ज्योतिषिक) गोल ज्ञान से समझे क्योंकि गोलबोध का यही फल है कि जो विषय नहीं कहे हैं उनको समझे इति ॥ १३ ॥ इति ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त में संज्ञाध्याय नाम का चौवीसवां अध्याय समप्त हुआ ।। २४ ।। ब्रह्मगुप्त कुतो ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः ब्रह्मगुप्त कुतो ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः तत्रादौ चैत्रादौ मासगणानयनमाह-- पञ्चाशत्संयुक्त वंर्षशतैः पंचभिबिना शाकः त्रिष्टोऽकॅवेंसुवेदैर्नवचन्द्रस्ताडितः क्रमशः ॥ १ ॥ पंचाब्घियुतोऽधः षष्टिभाजितो लब्धियुक् सरसवेदः । मध्यमराशिववैविभाजितोऽभ्यधिकमासाः स्युः । २ । तेरुपरितनो युक्तो मासगणोऽभ्यधिकशेषकः शुद्धः। घटिकादिको भचक्राद्रविरविशेषो भवेद्ददिः ॥ ३ । सु. भा--शाकः खपञ्चपञ्चोनस्त्रिधा स्थाप्यः । एको रविभिगु ' णः । द्वितीयो वसुवेदैस्तृतीयो नवचन्द्रश्च गुणः। अधोराशिः पञ्चाब्धि ४५ युतः षष्टि भाजितः फलं मध्यराशौ क्षेप्यम् । तत्र व रसवेदाश्च ४६ क्षेप्याः । एवं संस्कृती मध्यो मध्यमराशिः शशाङ्गविश्वे विभाजितोऽघिमासाः स्युः । तेरधिमासैरुपरितनो राशियु' क्तो मासगणश्चान्द्रो भवति । अत्रोपपत्तिः । १५६३३००००० एकस्मिन् वर्षोंऽघिमासः = ४३२००००००० ५३११x१३१ ४८१६ _५३११३००००० _५३११ -५३११४१३१-१४४०० -६० - १४४००४ ३००००० १४४०० १३१x१४४०० स्वल्पान्तरात् । अयमिष्टैः सौरवर्षागु' णोऽघिमासाः स्युः। शेषोपपत्तिः स्फुटा । ४५॥४६ अस्य क्षेपस्योपपत्तिग्रन्थान्ते द्रष्टव्या । १३१ १३१ १५२८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते सौरवर्षचैत्राद्योर्मध्येऽधिमासशेषो मासात्मकश्चान्द्रस्तच्चालनं कल्पचान्द्रमासैः ५१८४००००००० कल्पसौरमासास्तदाऽधिशेषेण लब्धं कि राश्यादिवालनमृणम्== ५३४३३३०००००
- अधिशे_१७२८०० X ३००००० अधिशे_-१७२८०० अधिशे
१३१ १७८१११ < ३००००० १३१ १७८१११ १३१ इदं नवगुणं चतुर्भक्त लब्धं नक्षत्रात्मकं चालनं षष्टिगुणं जातं घटयत्मकम् । = १७२८००४९४अधिशे ४६० - १७२८००x१३५४अधिशे १७८१११४४x१३१ १७८११८X१३१ =२३३२८०००४अधिशे=अधिशे । स्वल्पांतरात् । २३३३२५४१ सौरवर्षादौ रविर्भचक्र ण नक्षत्रसप्तविंशत्या समोऽतो भचक्रादधिशेषघटी. समचालनं विशोध्य चैत्रादौ भादी रविज्ञेये इति स्फुटम् ॥१-३॥ हि. भ-शाके में से ५५० घटाकर शेष को तीन जगह रखो, एक.को बारह (१२) से, दूसरे को अड़तालीस (४६. से तथा तीसरे को १e से गुणा करो। तीसरी राशि में ४५ जोड़कर ६० से भाग दो । लब्धि को दूसरी राशि में जोड़ दो, और उसी में रसवेद (४६) जोड़ दी। इस तरह करने पर मध्यमराशि होगी । उसको शशाङ्कविश्व (१३१) से भाग देने पर अधिमास होता है। अधिमास और उपरितन राशि का योग चान्द्रमास होता है । उपपत्ति । १५६३३००० ० ० एक वर्षों में अधिमास ४३२००००००० = - ५३११३ ३००००० ५३११ ५३११ ४ १३१ १४४०० x ३००००० १४४०० -१३१x१४४०० ५३११x१३१ १४ ४८+. १४४०० १३१ १३१ स्वल्पान्तर से । इसको इष्ट सौर वर्षे से गुणने पर अधिमास होता है, शेष की उपपत्ति स्पष्ट ही है । ४५ और ४६ के क्षेपक की उपपति ग्रन्थ के अन्त में देखें। चैत्रादि सौर वर्षे में अधिमास थेष मासात्मक चान्द्र होता है उसका चालन लाने की युक्ति यथा ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५२९ कल्प चान्द्रमास में कल्प सौरमासपाते हैं तो अधिशेष में क्या इस तरह लब्धि , अधिशे राश्यादिक ऋण चालन = ५१८४००००००० ५३४३३३००००० १३१
=
[सम्पाद्यताम्]= = = १७२८०० x ३००००० , अधिरो १७८१११३००००० १३१ - १७२८०० अधिशे । इसको € से गुणा कर ४ से भाग १७८१११ १३१ हैं तो लब्धि न क्षत्रस्मक चालन होगा, उसको ६० से गुणा करने पर धटघात्मक चालन होगा, यथा – १७२८००xexpशे ४६० = १७२८०० x १३५४अधिशे १७८१११४४x१३१ १७८१११x१३१ २३ ३२८००० xअधिशे = अधिशेष । स्वल्पान्तर से सौर वर्षादि में २३३३२५४१ रविका भचक्र २७ नक्षत्र के बराबर होता है इसलिए भचक्र में से अधिक शेष घटी के तुल्य चालन को घटाने पर चैत्रादि में राश्यादि रवि होता हैयह स्पष्ट है ।१-३। इदानों चैत्रादौ दिनादिकं तिथिर्भावसाधनमाह । रूपेण रूपरामैः खसायकैस्ताडितो गणो युक्तः । षभिर्देवैधृत्या वसरघटिकाविघटिकाः स्युः ॥ ४ ॥ खखरसलब्धं च गणाञ्च घटिकासु नियोजयेत् तिथिक्षुवकाः । रव्यादिकस्तदुदये चैत्रादावेकचन्द्रे च ॥ ५ ॥ सु. भा--गणो मासगणो रूपेण १ दिनेन रूपरामै-३१ घंटाभिः सायकैविघटीभिस्ताडितो दिनादिस्थाने क्रमेण षभि ६ वेंदें -४ धृत्या १८ युक्तः । गणान्मासगणात् व्रखरसे ६०० यंल्लब्धं घटयात्मकं फलं तघटिकासु नियोजयेत् तदा वासरघटिकाविषटिकाश्चैत्रादौ तिथिध्रुवकाः स्युः। वासरश्च रव्यादिको ज्ञेयस्तदुदपे च चैत्रादावर्कचन्द्रौ भवतः। नक्षत्रात्मको रविश्च मध्यम पूर्वं सधितो दर्शान्ते चैत्राग्दो तावानेव चन्द्रश्चेति । एकस्मिन् चन्द्रमासे सावनदिभाडि २& । ३१ । ५०। ६ सप्ततटं जातम् =१ । ३१ । ५० ६८१३१+३०५० । अनेन मासगणो गुणितो ग्रन्थारम्भ क्षेपयुक्तोऽभीष्टं चैत्रादो तिथिभुवो भवेदिति स्पष्टम् । क्षेपोपपतिर्गन्थान्ते द्रष्टव्या ॥४-५॥ १५३ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते हेि. भामास समूह को १ दिन, ३१ घटी, ५० विघटी से गुणा करो। दिन स्थान में क्रम से ६, ४, १८ जोड़दो । मास समूह को ६०० से भाग देकर जो लब्धि होगी उसको घटी में जोड़दो । तब दिन, घटी, विघटी, चैत्रादि में तिथि का ध्रुवा होता है । रवि आदि दिन जानना चाहिये, उसके उदयकाल अव चैत्रादि में सूर्य तथा चन्द्रमा मध्यम होता है, नक्षत्रात्मक सूर्य को पहले साधन कर चुके हैं, अमावस्या के अन्त में चैत्रादि में उतना ही चन्द्रमा होता है । उपपत्ति । एक चान्द्रमास में सावन दिन=२६ । ३१ । ५० । ६ इसको ७ से | भाग देने पर शेष=१ । ३१ । ५० । ६= १ । ३१+ व । ५०। इससे मास समूह को गुणाकर उसमें ग्रन्थारम्भ काल का क्षेप जोड़ दें तो चैत्रादि में अभीष्ट तिथि ध्रुवा होगी, क्षेपक की उपपत्ति ग्रन्थान्त में देखें । इदानीं चन्द्रकेन्द्रसाधनमाह मासगणो यमगुणितः पृथक् कुतस्वोद्धतः फलसमेतः । सार्धाष्टयुतो वसुयमविभक्तशेषो विधोः केन्द्रम् ॥ ६ ॥ सु. भा–यम-२ गुणितो मासगणः पृथक् स्थाप्यः कुतत्स्व २५१ भक्तः पृथक्स्थः फलेन सहितः कायंस्ततः सार्धाष्टयुतः। योगो वसुयमै-२८ विभक्तः शेषश्चन्द्रस्य केन्द्र भवति । एकस्मिन् चन्द्रकद्रभगणे वसुयमा २८ विभागाः कृताः । तद्विभागजातीय मेव केन्द्रमत्र साध्यते । कल्पे चन्द्रभगणाः=५७७५३३००००० चन्द्रोच्चभगणाः=४८८१०५८५८ केन्द्रभगणाः=५७२६५१e४१४२ एते कल्पचान्द्रमासभक्ता जातमेकस्मिन् चान्द्रमासे भगणात्मकं केन्द्रम्== =५७२६५१९४१४२= ३८३१८९४१४२ ॥ १ + ५३४३३३००००० ५३४३३३००००० अत्र प्रयोजनाभावाङ्गणं त्यक्त्वा भगणशेषं वसुयमैः संगुण्य हरेण विभज्यलब्ध मभीष्टभागामकं केन्द्रमेकस्मिन् चान्द्रमासे=२+१०६६०८६६४x४ २+ १३३५८३२५०००४४ २५१ ग्रहोपदेशाध्यायः १५३१ स्वल्पान्तरात् । सार्दष्टसंख्या ग्रन्थारम्भे क्षेपमानं तदुपपत्तिश्च ग्रन्थान्ते द्रष्टव्या अत उपपन्नं केन्द्रानयनम् ॥६॥ हि- भा.-दो से प्रति मास समूह को दो स्थान में रखो, एक स्थान में २५१ से भाग दो, लब्धि को दूसरे स्थान में जोड़ दो, फिर उसमें व+३ जोड़ दो, उस योग में २८ से भाग दो, जो शेष होगा वृहचन्द्रमा का केंद्र होता है । उपपति । एक चन्द्रभगण को २८ से विभाग करते असे . तव विभागजातीय केन्द्र यहां साधन करते हैं । कल्प में =। चन्द्रभगण=५७७५३३००००० चन्द्रोच्च भगण =४६८१०५८५८ । दोनों का अन्तर = ५७२६५१e४१४२=केन्द्र भगण । इसमें चान्द्रमास से भाग देने पर, एक चान्द्रमास | में भगणात्मक केन्द्र ५७२६५१९४१४२ __= १+ ३८३१८६४१४२ ५३४३३३००००० ५३४३३३०० ००० यह प्रयोजन नहीं है इसलिये भगण को छोड़कर भगण शेष को २८ से गुणाकर हार से भाग देकर लब्धि जो होगी वही अभीष्ट भगात्मक केन्द्र होगा, एक चान्द्र मास में १०६६०८६६४x४ =२ + २ + स्वल्पान्तर से । ग्रन्थारम्भ काल १३३५८३२५०००४ २५१ में व+३ क्षेप मान की उपपति ग्रन्थ के अन्त में देख । इससे केन्द्रानयन उपपन्न हुआ । 'T-– इदानीमिष्टमासादौ रव्यानयनमाह । चैत्राविमासगुणिते व नक्षत्रे क्षिपेत् सहस्रांशौ । घटिकैकावशयक्त साधेन फलेन सहित चें ॥ ७ ॥ सुः भाद् नक्षत्रे घटिकैज़ादायुक्त साधेनैकेन पलिंने ‘हिते च चैत्रादितो ये गतचान्द्रमासास्तैर्गुणिते चैत्राद्युद्वर्वी फलं क्षिपेतं तदेष्टमासादौ नक्षत्रादिको रविर्भवेत् । १f. अत्रोपत्ति: कल्परविभगणाः=४३२००००००० । कल्पचन्द्रमास--५३४३३३००००० भक्ता जातमेकस्मिन् चान्द्रमासे नक्षत्ररसकं रविमानम =४३२०००००००४२७-१४४००X३०००००४ -१४४०० ४. ४२७ ~वमान ५३४३३३dp००० ॥ १७८१११४ ३००००० ९ ५ १७६११६ १५३२ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते ३८८८०० .३२५७८ शेषं षष्टशगुणं हरभक्तमेवं नक्षत्रादिकं रविमानम् १७८१११ १७८१११ =-२१०५८३ स्वल्पान्तरात् । - घ तद्र पान्तरम्== १६ १ई) प. । इदमिष्टमासगुणं तज्जो नक्षत्रादिको रविर्भवेत् । शेषोपपत्तिः स्फुटा ।।७।। ए -(। हि- भा.-दो नक्षत्रों में ११ घटी जोड़ दें, और १+३ पल घटावें, चैत्रादि से जो गत चान्द्रमास हो उससे गुणा दें, फल को चैत्रादि में उत्पन्न सूर्य में जोड़ दें, वह इष्ट मासादि में नक्षत्रादिक रवि होता है । अत्रोपपतिः एक कल्प में सूर्य भगण = ४३२००००००० । एक कल्प में चान्द्रमास=५३४३३३ ३००००० । यहां कल्प सूर्य भगण को २७ से गुणाकर कल्प चान्द्रमास से भाग देने पर एक चान्द्रमास में नक्षत्रात्मक रवि का मान ४३२००० ००० ० X.२७ - १४४००X३०००००२७ ५३४३३३ ० ० ० ० १७८१११४ ३००००० १४४००४२७ – ३८८८०० = – । ३२५७८ २ +. १७८१११ १७८१११ १७८१११ शेष को ६० से गुणाकर हर से भाग देने परं नक्षत्रादिक रवि का मान=२ । १०५८+ है। इसका रूपानतर = '--(१+--) प, इसको इष्ट ११ भास से गुणाकर फ़ल नक्षत्रादिक रवि होता है । यहां अवशेष की उपपत्ति स्पष्ट ही है । स्वल्पान्तर इदानीं प्रतिमासं शशिकेन्द्रतिथिर्धवक्षेपावाह । नाडघधेन समैतं भद्वितयं प्रक्षिपेच्च शैशिकेन्द्र। रूपं रूपहुताशाः खशराश्च तिथिभ्रवे क्रमशः ॥ ८ ॥ मा–प्रतिमासं शशिकेन्द्र नक्षत्रद्वितयं नाडयद्धेन सहितं तिथिभुवे च क्रमशो दिनादौ रूपं १ रूपहुताशाः ३१ खशराश्च ५० इति प्रक्षिपेत् । अत्रोपपत्तिः। ६ श्लोकेनैकस्मिन् चान्द्रमासे शशिकेन्द्रमानम् २+ २५.१ १५३३ ग्रहोपदेशाध्यायः २ न+ - १- घ स्वल्पान्तरात् । अत्र कस्मिन् भचक्र अष्टाविंशति नक्षत्राणि कल्पितानीति शशिकेन्द्रानयन एव प्रतिपादितम् । तिथिथुवक्षेपमानं च सप्ततष्ट चान्द्रमाससावनमानं दिनादि १।३१।५० स्फुटमेव। अत्राधिकं ६ विपलमानं त्यक्त पलात्मकमानपर्यन्तमेव गणिते ग्राह्यत्वादिति स्फुटम् । ८॥ हि. भा.-प्रति मास शशि केन्द्र में आधा नाड़ी से युक्त दो नक्षत्र युक्त करो । एवं तिथिभुवा में क्रम से १, ३१, ५० युक्त करो । उपपत्ति । ६ इलोक के अनुसार एक चान्द्रमास में चन्द्रमा का केन्द्रमान = २ +२५१ = २ न + - घ, स्वल्पान्तर से ग्रहण किया । यहां एक भचक्र में २८ नक्षत्र की कल्पना की गई है, और चन्द्रमा का केन्द्रनयन भी कहा गया है, तिथि ध्रुव क्षेप मान को सात से शेषित करने पर चान्द्र मास सावन । मान दिन १ । ३१ । ५० होता है, यह स्पष्ट है गणित में पलमान का हीं ग्रहण होता है। इसलिये यहां अधिक ६ विपलभान को छोड़ दिया है । इदानीं प्रतिदिनचालनमाह । चारं दद्यात् प्रतिदिनमब्धिपलोनां परित्यजेत् नाडीस् । केन्द्र क्षिपेद्दमेकं भद्वितयफलं घटचतुष्कमिते ॥ ६ ।। सु० भा०-प्रतिदिनं प्रतिचन्द्रदिनं तिथिभुवे दिनमेकं दद्याद्योजयेत् । अब्धिपलोनामेकां नाडीं च परित्यजेत् । शशिनः केन्द्र च प्रतिचान्द्रदिनमेकं भं नक्षत्रं घटीचतुष्कमितं भूतत्स्वफलं घटीचतुष्कं भूतत्त्व २५१ हृतं फलं घटथामकं व क्षिपेत् । २९३१५० अत्रोपपत्तिः । त्रिशत्तिथ्यात्मके चान्द्रमासे सावनदिनादि २४३१५० इवं त्रिशद्भक्त जातमैकस्मिन् चान्द्रदिने तिथिभृवे क्षेपकमानसः ='RX'A°=०५४ ३० =१ दि०-५६ ५०=१ दिं०-(१ घ~~४५) । एवमेकस्मिन् चान्द्रम से शशिकेन्द्र नक्षत्रारमकरु= ३०१ (६ सूत्र भगणात्मक केन्द्र २५ संगुष्य नक्षत्रारमकं यदि क्रियते तदा १५३४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ३९ में समुत्पद्यते) इदं त्रिंशद्ध तं जातमेकस्मिन् चान्द्रदिने केन्द्र क्षेपकमानम
=
[सम्पाद्यताम्]२४६० ३० - २ ३०+२५१ १+. १+. घटी-१ न+ ४ घटी। अत ३०४२५१ ३०२५१ २५१ उपपद्यते यथोक्तम् । भद्वितयेन भद्वतयमानेन १२० घटिकामितेन हृते घटीचतुष्कमिते । यत्फलं घटयात्मकं तदपि क्षिपेदित्येके ‘भद्वितयफलं घटीचतुष्कमिते’ इति पाठानु सारेण व्याख्यां कुर्वन्ति । अनेन '२५१' स्थाने १२० इयं स्थूला सङ्ख्योत्पद्यतेऽत एव मया पाठान्तरमुपनिबद्धम् ।e हि. भा’ –हर चान्द्रदिन के तिथि ध्रुवा में एक दिन युक्त करें और चार पल कम एक नाड़ी घटा दें । चन्द्रकेन्द्र में, प्रति चान्द्र दिन में से एक नक्षत्र और ४ धटी को २५१ से भाग देने पर जो फल मिले वह युक्त करना चाहिये। उपपत्ति । तीस तिथ्यात्मक चान्द्रमास में सावदिन=२८ । ३१ । ५० इसको ३० से भाग देने २६ । ३१ । से एक चान्द्र दिन में–तिबिथुवा क्षेपमान= ५० ० । ५४ । ४ = = =१ दि–५६ प=१ दि--(१ घ–४ प) । . इस तरह एक चान्द्रमास में चन्द्रकन्द्र नक्षत्रात्मक - ३० +३, - । ६ श्लोक से - अगणात्मक केन्द्र को २८ से गुणाकर नक्षत्रमक यदि करते हैं तब (३०++) यह उपपन्न होता है । इसको तीस से भाग देने पर एक चान्द्र दिन में केन्द्र क्षेपक मान -4ी -- २X ६० = १ + ३०४२५१ ३० ४ २५१ = १ न + ४- घटी। इससे ४ श्लोक उपपन्न होता है। २५१ अद्वितीयेन अर्थात् १२० घटी के मान से हृत चार घटी का जो फलघटघात्मक हो यह भी ओोड़ दें यह किसी का मत है । दो नक्षत्र का फल चार घटी में जोड़ दें यह पाठ के अनुसार व्याख्या करते हैं, इससे २५१ की जगह १२० यह स्थूल संख्या उपपन्न होती है । इसलिये मैंने पाठान्तर कर दिया है। ग्रहोपदेशाध्यायः इदानीं देशान्तरसंस्कारमाह । उज्जयिनी याम्योत्तररेखायाः प्राग्धनं क्षयः पश्चात् । योजनषgया नाडी चरदलमपि सौम्यदक्षिणयोः ॥ १० ॥ सु. भा.-योजनषष्टच का नाडी उज्जयिनी याम्योत्तररेखायाः प्राग्धनं पश्चात् क्षयो भवति । एवं सौम्यदक्षिणयोर्लयोश्चरदलं चरासवोऽपि धनं क्षयश्च क्रमेण बोध्या इति । अत्रोपपत्तिः । यदि स्पष्टभूपरिधियोजनैः षष्टिघटिकास्तदा देशान्तरयोजनैः कि जाता देशान्तरनाडी=६० चैदेयो । आचार्येण स्थूलस्पष्टभूपरिविः= ३६०० योजनानि गृहीतः । ततो जाता देशान्तरनाडिका-य । घनणैवासना चरधनणं वासना च गोलयुक्त्या स्फुटा ॥१०।। हि. भा.- उज्जयिनी याम्योत्तर रेखा से षष्टि योजन पूर्व में एक नाड़ी धन तथा पश्चिम में एक नाड़ी ऋण होता है। इसी तरह उत्तर दक्षिण गोल में चरदल तथा चरासु भी क्रम से धन तथा ऋण होता है । उपति । स्पष्ट भूपरिधि योजन में ६० घटी मिलता है तो देशान्तर योजन में क्या इस अनु पात से देशान्तर नाड़ी = ६०४ देयो । यहां आचार्य ने स्थूल स्पष्ट भूपरिधिः ३६०० योजन स्वीकार किया है । १०xदेयो = देशान्तर नाड़ी। ३६०० अतः ' =वेशान्तर नाड़ी। इसकी धन और ऋण की युक्ति गोलाध्याय में स्पष्ट है। इदानीं चन्द्रसाधनमोदयिकरविसाधनं चाह । तिथयो वशंभागोना रविणा समन्विता शशी भवति मध्यः। तिथ्यंशत्रुघाः शोध्यास्तिथिभोगजनाडिकाः केन्द्रात् ॥ ११ ॥ ॥ १. तिथयो दशभागोना रविणा सहिताः शशी भवति मध्यः । तिथिभोगनाडिकाश्च द्विगुणोऽहृता रवेः शोध्याः । १५३६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते सु. भा-स्वदशभागोनास्तिथयो नक्षत्रात्मकं रविचन्द्रयोरन्तरं भवति । ता रविणा नक्षत्रात्मकसूर्येण सहिता नक्षत्रात्मको मध्यः शशी भवति । तिथिभोग नाडिका द्विगुणा उडु २७ हृताः फलं नक्षत्रघटिका भवन्ति । ता रवेः शोध्यास्तदा नक्षत्रादिको रविरुदये भवति । अत्रोपपत्तिः । तिथौ तिथौ रविचन्द्रयोद्वादशभागा अन्तरमतस्तिथयो द्वादशगुणा भागात्मक रविचन्द्रयोरन्तरम्=१२ ति । चक्रांशं सप्तविंशतिर्नक्ष आणि तदेष्टान्तरेण १२ति अनेन किम् । जातं नक्षत्रात्मकमन्तरम्=२७४१२ ति ३६ २७ ति_€ ति = ६- । एवं तिथ्यंते रविचन्द्रौ जातौ । तियन्तसूर्योदययो- ३० १० र्मध्ये तिथिभोगनाडिकास्तत्संबंधिनक्षत्रात्मकचालनेन रवी रहित उदये । रविर्भवति । तिथिभोगघटिकाश्च. सावनाः प्रसिद्धाः । एकस्मिन् सावनदिने रविगतिः=५९८=३५४८” । अतो नक्षत्रात्मिकागतिः= श३५४८ । यदि घटीषष्टघा रवेरियं नक्षत्रात्मिका गतिस्तदा तिथिभोगघटिकाभिः कि लब्धं नक्षत्रात्मकमणचलनं षष्टिगुणं जातं । घटयात्मकम् = ३५४८_.,भोघ६० _ ३५४८ __२४ १७७४xभोष_२ भोघ_२ भोघ स्वल्पान्तरात्। °° ४E००४८०० २७ ६०X ८००
- ६० X ८००
६०४८०० १७७४ अत उपपन्नो मच्छोधितः पाठः ॥११॥ हि. मा–अपने दसवें भाग से हीन तिथि नक्षत्रात्मक रविचन्द्रन्तर के बराबर होती है, उसको नक्षत्रात्मक सूर्य में जोड़ने से मध्यमचन्द्र होता है । द्विगुणित तिथिभो गक नाड़ी को २७ से भाग देने पर लब्घ नक्षत्र की घटी होती है, उस नक्षत्र घड़ी को रवि में घटाने से उदयकालिक नक्षत्रादिक रवि होता है। उपयति । रवि चन्द्रमा के अन्तर को १२ से भाग देने पर एक तिथि का मान होता है इसलिये १२xति=अंशांरमक रविचन्द्रान्तर, सब अनपात से--- २७ ४ १२ ति – = नक्षत्रात्मक अन्तर = - X - -१५३७ ध्यानग्रहपदेशाध्यायः इस तरह तिथि के अन्त में रवि और चन्द्र हुए । तियन्त सूर्योदय के बीच तिथि भोग नाड़िका से सम्बन्धित नक्षत्रात्मक चालन को सूयं में से घटाने से उदयकाल में सूर्य होता है । तिथि भोग घटी तो सावन होता है, यह प्रसिद्ध ही है । एक सावन दिन में रवि की गति=५e' । ८" =३५४८* इस पर से नक्षत्रात्मक गति =-।। ३५४८ ६०८०० यदि ६० घटी में रवि का नक्षत्रात्मक गति पाते हैं तो तिथि भोग घटिकाओं में क्या ३५४८ xभोध इस अनुपात से नक्षत्रात्मक ऋण चालन= । इसको ६० से गुणने पर ६० X ८०० ३५४८ भोध = ६ ३५४८ xभोध घटघात्मक चालन ६० X ८ ० ० ६०८०० २४ १७७४xभोध २ भोध २ भोध स्वल्पान्तरसे । यहां श्री ४८००० २७
४६०
[सम्पाद्यताम्]४८० ० ० १७७४ सुधाकरद्विवेदी का संशोधित पाठ उपपन्न हुआ ।११। इदानीमौदयिकाथं चन्द्रस्य तत्केन्द्रस्य च चालनमाह । तिथिभोगनाडिकासु द्विगुणा रसगुणोद्धताः शोध्याः । पंचाशीत्यधिकोनास्तिथिनाडधः शोधयेत् शशिनः ॥ १२॥ सु. भा–स्पष्टार्थेयमार्या । अत्रोपपत्तिः। रविचालनवदत्रापि चन्द्रगतिः=७६०।३५"=४७४३५”। नक्षत्रात्मिकागतिः= ४७४३५ । ६०४८०० अतो रविवन्नक्षत्रघटयात्मकं चालनं -' = ४७४३५ भोघ ४ ६० = ४७४३५भोध ६० ४८००x ६० ६०४८०० भोघ - ९४८७ भोध ९४८७ भोघ =भोघ ११३ भोध भोध १२४८०० ९६०० ९६०० ८५ स्वल्पान्तरात् । एवं चन्द्रकेन्द्रगतिः =७९०३५’-६”।४१’ =७८३५४=*63* चक्रकलाभिरष्टाविंशतिर्नक्षत्राणि तदा चन्द्रकेन्द्रकलाभिः किम् । जाता नक्षत्रा त्मिका चन्द्रगतिः= ४७०३४४२८ = ४७०३४४७ == २३५१७४७ ६०४२१६००६०४५४००६०४ २७०० १. पञ्चाशीतिलवोनास्तिथिनाडचस्ताश्च शोधयेच्छशिनः। षष्टय शाढ्याः शोध्यास्तिथिभोगजनाडिकाः केन्द्रात् ।१२। १५३८ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते २६१३४७ = ८७१X७ = ६०६७ । (यतश्चकेन्द्रसाधने चक्रकलास्व- ६०४३०० ६०X१०० ६००० ष्टाविंशतिनक्षत्राणि कल्पितानि) । ततो रविवन्नक्षत्रघटयात्मकं चालनम् ६०६७ भोघx६० ६०९७
भोच = +
[सम्पाद्यताम्]९७ भोघ भोध भोघ भोघ+. ०००४६० ६२ स्वल्पान्तरात् । इहाचार्येण सुखार्थं ६२ स्थाने ६० गृहीता अत उपपद्यते मच्छोषितः पाठः ।।१२॥ • ६००० हि. भा.- इसका अर्थ स्पष्ट ही है । उपपत्ति यहां चन्द्रगतिं:=७६० ’। ३५" अतः विकलात्मक चंग=४७४३५" नक्षत्रात्मकगतिं ४७४३५ ४७४३५xभोध ४६० । यहां रवि की तरह नक्षत्रघयात्मक चालन = ६० X ८०० ६० X ८० ० X ६० ४७४३५ भोष – e४८७ भोघ = e४८७ मोक्ष –भोध. - - > 0 0 =भोध भास्वल्पान्तर से । ८५ ४७० ३४ इस तरह चन्द्रकेन्द्रगति-७३०'। ३५-६' । ४१"=७८३ । ५४"= चन कला २८ पाते हैं तो चन्द्रकेन्द्रगतिकला | इस शैराशिक गणित से में नक्षत्र में क्या नक्षत्रात्मक चन्द्रकेन्द्रगति = ३४४७ ४७०३४४२८ - ४७० - २३५१७४७. ६०४२१६०० ६°x ५४०० ६० x २७०० २६१३X७ - ८७१७ - ६०६७ यहां चन्द्रकेन्द्र साधन के.हेतु चक्रकला ६० X ३०० ६० x १०० ६०० ० में २८ नक्षत्र स्वीकार किये गये है । उससे रवि की तरह नक्षत्रात्मक चालनघटी ८ ६०e७ x भोष ४६= ६०६७xभोध अमोघ+ ६७ भोध ६०००*६० ६००० भोध, स्वल्पान्तर से । यहां आचार्यों ने सुखायै ६२ के स्यानपर ६० को ग्रहण ६२ ०७० किया है । इससे उपपन्न होता है म. म. श्रीसुधाकर द्विवेदी जी का संशोधित प्रकार ॥ १५३९ ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः इदानीं रविचन्द्रकेन्द्राणां राशिमानमाह त्रिगुणं सप्तविभक्त' नगात्रयोऽशा रवेरुच्चम्। विकलाष्टकसंयुक्ता नवबाण लिप्तिका ५६।८ रवेर्मुक्तिः ॥ १३ ॥ विकलाष्टकसंयुक्ता नवबाणा लिप्तिका ५६।८ रवेर्मु' क्तिः । खनवनगाः शीतांशोः पंचैत्रशद्विलिप्ताश्च ॥ १४ ॥ स्वोच्चोनं केन्द्रमितो नवभिलिप्ताशतैस्ततो जीवाः। विषमे भुक्तस्य समे भोग्यस्य सदैव केन्द्रपदे ।। १५ ॥ ' सु. भा.-नक्षत्रात्मक रविचन्द्र वेद ४ गुण नव ९ भक्तो तदा राश्यादिको भवतः। चन्द्रकेन्द्र च त्रिगुणं सप्तहृतं राश्यादि भवेत् । नवभिलिप्ताशतैराचार्येण षोडशाय्यैकैका जीवा पठिता। अतः केन्द्रान्नवभिलिप्ताशतैस्ततो जीवाः साध्या इत्युक्तम् । विषमे केन्द्रपदे भुक्तस्य समे च सदैव भोग्यस्य जीवा कार्या । शेषं स्पष्टार्थम् । यदि सप्तविंशतिनक्षत्रैद्वादश राशयस्तदा नक्षत्रात्मकेन रविणा वा चन्द्र ण किम् । एवं द्वादशगुणः सप्तविंशतिर्भागहारः । गुणहरो त्रिभिरपर्वाततौ जाती गुणः ४। हरश्च ९। केन्द्रराश्यानयने चक्रकलास्वष्टाविंशति नक्षत्रात्मक विभाग- त्वात् । यदि वसुयमै २८ नक्षत्रीद्वादश राशयस्तदा नक्षत्रात्मककेन्द्रण किम् । अत्र गुण भागहारौ चतुभिरपर्वाततौ। जातो गुणः ३ । हरः ७ । अत उपपन्न' सर्वम् । शेष वासना चातिसरला ।१३-१५॥ हि- भा–नक्षत्रात्मक चन्द्ररवि को ४ से गुणाकर 6 से भाग देने से रोश्यादिक चन्द्र और रवि होता है । चन्द्र केन्द्र को ३ से गुणकर ७ से भाग देने पर राश्यदि केन्द्र होता है । ६०० कला पर एक जीवा पठित है इसलिये केन्द्र से ६०० कला पर से जीवा साधंन करने के लिये आचार्यों ने कहा है । विषम केन्द्रपद में भुतांश पर से तथा समकेन्द्रपद में भोग्यांश पर से जीवा साधन करना चाहिये । शेष शब्दों का अर्थ स्पष्ट ही हैं । उपपत्ति । २७ नक्षत्र में बारह राशि होती हैं वहां नक्षत्रात्मक सूर्य या चन्द्र में कितनी राशियां होंगी, इस तरह यह १२ तो गुणक और २७ भागहार होता है । गु=१२, हर==२७ यहां १. रविचन्द्रौ वेदगुणौ नन्दविभक्तौ गृहादिको केन्द्रम् । त्रिगुणं सप्तविभक्त नगाद्योऽशा खेरुस्चम् ॥१३॥ १५४० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते गुण और हर को ३ से अपवर्तन करने पर गु=४ हर=& । केन्द्रराशि के आनयन में चक्रकाल में नक्षत्रात्मक २८ भाग माना गया है। इसलिये अनुपात से १२ रानकेन्द्रमें २८ =तत् सम्बन्धी राशि का, यहां गुणभाग को ४ से अपवर्तन करने पर गुण८३ । हर =७ । इससे उपपन्न हुआ ।१३-१५ इदानीं ज्याखण्डानि केन्द्रज्यासाधनं चाह । त्रिशत्सनवरसेन्दुजनतिथिविषया गृहार्धचापानाम् । अर्धज्याखण्डानि ज्याभुक्तं वयं सभोग्यफलम् ॥ १६ ॥ गतभोग्यखण्डकान्तरदलविकलवधाच्छतैर्नवभिराप्तैः। तद्युतिदलं युतोनं भोग्याह्नाधिकं भोग्यम् ।। १७ ॥ सु- भा.-त्रिंशत् नवभिः षभिरिन्दुना सहिता ३९।३६।३१ जिन २४ तिथि १५ विषया ५३च गृहार्धचापानाँ पञ्चदशभागानां ज्याखण्डानि सन्ति । चापकला नवशतंविभक्ता फलसंख्यासमाना ज्याधंनामैक्यमेव ज्याभुक्तक्य ' क्षयम् । शेषकला भोग्यखण्डेन गुणा नवशतैर्भक्ताः फलमेव भोग्यफलं ज्ञेयम् । ज्याभुक्त क्य भोग्यफलेन सहितमभीष्टज्या भवति । अत्र स्फुटाभाग्यखण्डाज्ज्या सूक्ष्माऽन्यया स्थूला भवति । सूक्ष्मं भोग्यखण्डं कथं सिध्यतीत्याह गतभोग्येति । गतभोग्यखण्ड योरन्तरस्य दलमर्थं कार्यम् । तस्य विकलस्य शेषस्य च वधात् नवभिः शतैर्यानि आप्तानि तैस्तद्युतिदलं गतैष्यखण्डयोगदलं युतं कार्यं यदि तद्युतिदलं भोग्याह्नम। यदि तद्युतिदलं भोग्यादधिकं तदा तंराप्तैस्तद्युतिदलमूनं कार्यम् । क्रमज्याकरणे हीनमुत्क्रमज्या करणे युतं तद्युतिदलं कार्यं, तदैव तद्युतिदलस्य भोग्यादधिकाल्पत्वादिति । ‘यातैष्ययोः खण्डकयोर्विशेषःइत्यादि भास्करोक्तमेत दनुरूपमेव । भास्करेण साकं १२० मितेहाचार्येण च खतिथि - १५० मिता त्रिज्या गृहीता। अत्रोपपत्तिः। यदि ३००—५। ज्याप्र==३६ । चापस्=इ.प+शे । ज्या (इ.g)=ज्याग, तत्कोटिज्या च= कोज्याग। तदा ज्योत्पत्तिविधिना ज्याचा = -ज्याग. कोज्यादो+ज्याशे कोज्याग ... गतखण्डम् =ज्याग–ज्याग (ग-प्र) एछयखण्डम् =ज्या (ग+g)-ज्याग ज्या (ग.प्र)-ज्या (ग-प्र) - ज्या.प्र.कोज्याग त्रि तः। १५४१ २ ज्याग-{ज्या (ग+प्र)+ ज्या (ग-प्र)} तदन्तरदलम्= ज्याग- ज्याग-ज्याग:उज्याप्र कोज्याप्त त्रि LK .ज्याप्रशे 1ः स्वल्पान्तरात् । कोज्याशे =X/ त्रि-ज्याशे= /त्रि’- - ज्या प्र-शे =त्रि-ज्याप्रशे ' २ त्रि.प्र' स्वल्पान्तरात् । (१) समीकरणेऽनयोरुत्थापनेन - (। त्रि-' ज्याप्रशे ज्याग. 1-' ) ज्याप्रज्ञ २ कोज्याग. ज्याचा= ज्याग'त्रिप्र+ त्रि fत्र.प्र ज्याग.ज्या प्र.शेकोज्याग.ज्याश्र. शे =ज्याग- ' ' + अतोज्याचा–ज्याग २ त्रिप्र त्रिषु कोज्याग.ज्याप्रशे ज्यागज्या प्र.शे’ त्रिप २ त्रि' प्र' शे / कोज्यागज्याप ज्याग.ज्या' प्र.प्र.शे २ ’प्र’ जे (कद - ज्याग.उज्याप्रशे । अंद.शे - )
- (ख़ुद-- पं)
अत्र कोष्ठान्तर्गतसंख्या यदि भोग्यखण्डं स्फुटं कल्प्येत । तर्हि ज्याचा-ज्याग = शे.स्फुभोर्च । अत इदं सूक्ष्मं भोग्यफलं ज्याद्युक्त क्यु गतज्यामिते योज्यं तदा वास्तवासना सूक्ष्मज्या स्यात् । एतेन भास्करोक्तमुपपद्यते । उत्क्रमज्याकरणे भोग्यखण्डस्योपचयात् क्षयस्थाने धनं भवतीति स्फुटम् । जीवातश्चापानयने भोग्य खण्डस्फुटीकरणं च भास्करविधिना ज्ञेयम् । तथैव बापूदेवशास्त्रिकृतं गौरवाननं च विचिन्त्यमिति ॥१६-१७॥ | १५४२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते हि. भा-क्षीस में क्रम से ३, ६, १ युक्त करने पर ३e, ३६३१ हुआ । २४ । १५ । ५ यह हार्घ चाप का पञ्चदशभाग ज्याखण्ड है, चाप कला को ६०० सौ से भाग देने पर लब्धि के बराबर ज्यार्घ खण्ड के योग को ही ज्या का भुक्त क्य जानना चाहिये। ज्याभुक्त क्य और भोग्यफल का योग=इष्टज्या । यहां स्फुटभोग्यखण्ड से ज्या साधन सूक्ष्म होता है। अन्य प्रकार से स्थूल होता है । अब सक्ष्म भोग्यखण्ड की युक्ति को कहते हैं । व्यतीत दो भोग्यखण्ड के अन्तर को आधा करो । उसके और शेष के गुणनफल में (e००) से भाग देने पर जो फल मिले उस को गतैष्यखण्ड के योगदल में जोड़ दो, यदि युतिदलभोग्य खण्ड से अल्प हो । यदि योगदल भोग्यखण्ड से अधिक हो तो उसे योग दल में से घटा दो । क्रमज्या प्रकार में घटावें, और उत्क्रमज्या प्रकार में जोड़ दें। ‘यातेष्ययोः खण्ड कयोविंशेष’ इत्यादि भास्करोक्त इसके अनुरूप ही है। भास्कराचार्य के मत में १२० =:त्रि । आचार्य के मत में १५०= त्रिज्या । उपपत्ति । यदि e००=प्र । ज्या प्र=३ । चापम्=इ.प+शे । ज्या (इ.g)=ज्यागा। इसकी कोटि-कोज्यगा । यहां ज्योत्पत्ति से ज्याचा= ज्याग Xकोज्यारो+ज्यालोकोज्याग ....... (१) = गख = ज्या-ज्या (ग:प्र) ऐष्यखं= ज्या (ग+प्र)–ज्याग दोनों का योग दल । योदयो– ज्या (ग्र+ए)- ज्या (ग–अ) _ ज्याप्रX कोज्याग योदशे – २ ज्याग–{ज्या (त्र+g) +ज्या (ग्र-प्र) } ज्याग.कोज्याप्र ज्याग.उज्याप्र
ज्याग – UZ>
[सम्पाद्यताम्]ज्याचे= . ज्याप्रशे स्वल्पान्तर से । = - त्रि-ज्या'.प्र. कोज्या शेॐ त्रि-घ्या.ो ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५४३ - =(त्रि = ज्या .रो" २ त्रि.श) स्वल्पान्तर से । (१) एक समीकरण में उत्थापन देने से ज्याग (त्रि-ज्या'.प्र.शे) २ त्रि.प्र' कोज्याग.ज्याप्रशे ज्यचा त्रि.प्र = ज्यागज्याgशे' , ..शे . -ज्याग कोज्यागज्याप्र = ---------------- याग अतः ज्याच- त्रि.प्र. = = = = = = = = = = == त्रि’प्र’ = कोज्याग.ज्याप्रशे ज्याग x ज्या' प्र.रो' त्रि.प्र २त्रि.प्र २ २ _ शे / कोज्याग. ज्या शे ज्याग.ज्या.प्र.प्र.'शे ' त्रि . ज्याग.उज्या प्र.शे - * (ब्द – पद्ये ) यहां कोष्ठ के श्रन्तर्गत को यदि भोग्यखण्ड स्फुट मानते हैं तो ज्याचा--ज्याग शे.स्फुभो.खं । इस सूक्ष्म भोगफल को गतंज्या में जोड़वें तब चासवासन्न सूक्ष्मज्या ( २० == = = = == = होती है। इससे भास्करसूत्र उपपन्न होता है । इदानीं रविचन्द्रयोर्मन्दफलानयनमाह । स्वाष्टांशोना सवितुद्वगुणा ज्या शतगोः फलं लिप्ताः । स्वफलमृणं चक्रार्धादूने केन्द्रोऽघिके मध्ये ॥ १८ ॥ सु. भा–सवितुः सूर्यस्य केन्द्रज्या स्वाध्टांशोनां । शीतगोश्चन्द्रस्य च केन्द्रज्यां द्विगुणा तदा तयोः क्रमेण लिप्तारमकं मन्दफलं भवति । केन्द्र चक्र- चत् षड्राशित हुने मध्ये स्वफलं स्वमन्दफलमृणं कार्यम् । अघिके तुलादिकेन्द्र मध्ये घनं कार्यमित्यर्थत एव सिध्यति । १५४४ स्फुटसिद्धान्ते अत्रोपपत्तिः । रविपरममन्दफलकलाः =१३०६ स्वल्पान्तरात् । चन्द्रस्य च ३०० कलाः। ततोऽनुपातो यदि त्रिज्यातुल्यकेन्द्रज्यया परममन्दफलकलास्तदेष्ट केन्द्रज्यया कि जाता रविमन्दफलकलाः = , १३०४८+४ १३०३४ज्याके () ज्याके १५ १५०८ ७ ज्याके १०४४ ज्याके ज्याक स्वल्पान्तरात् । एवं चन्द्रमन्दफलकलाः १५०४८ ३०० ज्याके -२ ज्याके । अत उपपन्नम् ।। १८ ।। १५० = _
=
[सम्पाद्यताम्]हि. भा-रवि की केन्द्रज्या में से अपना अष्टमांश घटा दो, और चन्द्रकेन्द्रज्या को दो से गुणा करो । दोनों का लिप्तात्मक मन्दफल होता है । केन्द्र ६ राशि में कम हो तो मन्दफल को मध्यम में से घटा दें। जहां केन्द्र दो राशि से अधिक हो वहां मन्दफल को मध्यम में जोड़ दो, यह बात मूलोक्त में स्पष्ट ही है । उपपत्ति । रविपरममन्दफलकाला= १३०+३ स्वल्पान्तर से चन्द्रमा का मन्दफलका= ३०० कला । तब अनुपात से रविमन्दफलक == १३०३४ज्याके _ – (१३०४८+४) ज्या के १५॥ १५०४८ = १०४४ ज्याके = ज्याके ७ ३००ष्याके । स्वल्पान्तर से, एवं चन्द्रमन्द फलकलाः = १५०४८ १५॥ ==२ ज्या के। इससे उपपन्न हुआ ।१८।। इदानीं रविचन्द्रयोर्गतिफलसाधनमाह । नगमूद्द्रविभोग्यं खण्डं चन्द्र विवसुलवं द्विगुणम् भुक्तिफलं स्वमृणं स्यात् कुलीरमकरादिके केन्द्र ॥ १४ ॥ सु. भाः केन्द्रज्या करणे रवेर्युद्भोग्यखण्डं तन्नव १९ हद्भुक्तिफलं स्यात् । चान्द्र चन्द्रसम्बन्धि यदुभोग्यखण्डं तद्विवसुलवं स्वाष्टांशोनं द्विगुणं च चन्द्रमुक्तिफलं स्यात् । तद्गति फलं कुलीरमकरादौ केन्द्र क्रमेण स्वमृणं स्यात् । प्रथमचापेन नवशतमितेन भोग्यखण्डं तदा केन्द्रगत्या किमिति लब्घमद्यतध्यानग्रहपदेशाध्यायः १५४५ नरवस्तनकेन्द्रज्ययोरन्तरं तेन या मन्दफलकलास्तदेव गतिफलम् । तद्यथा रवेः केन्द्रगतिः=५६’ । ८” ॥ (५९’। ८") भोखं कन्द्रज्यान्तरम = । १८ सूत्रेणानेनान्तरेण मन्दफल = = कला एव रवेर्गतिफलम् = ७ (५९८) भोख _ _७४३५४८xभोख ८४९०० ७२००४ ६० __२४८३६ भोख भोख स्वल्पान्तरात् । ४३२००० १७ – = एवं चन्द्रस्य केन्द्रगतिः=७६० ' । ३५-६९ ।४१’=७८३' । ५४"=७८४
स्वल् ततो गतिफलं पूर्वोक्त न विधिना २४७८४ भोख १९६४४xभोख २२५४४ ___१६६ ४ ७x भाख ७ भोखं २ + = २ + २२१७ १५७५ १६६ ७ भोख =२ + स्वल्पान्तरात् । अत उपपन्नम् । धन“वासना भास्करविधिना स्फुटा ॥ १६ ॥ हि. भा--केन्द्रज्या करण में रवि का जो भोग्यखण्ड है उसको १% से भाग देने पर रवि का गतिफल होता है । चन्द्र सम्बन्धी भोग्य खण्ड का आठवां भाग भोग्यखण्ड में से घटाकर शेष को दो से गुणा करने पर चन्द्र का गतिफल होता है । उपपति । १०० मR पहलाचाप== १०० ॥ अनुपात से भोड्ड Xकग=ीअ । इस पर जो मन्दफ़त का होगा वह गतिफल है । ३०० रवि केन्द्र ग८५३' " 1 केन्द्रज्यान्तर=(५६°१८') भोर्च २०० ७ (५’ । ८") भखं १८ सूत्र से मन्दफलक = रविगफ= ८X१००० १५४६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते _ ७ ४३५४८xभोर्च _ २४८३६ भोखं भोख =- स्वल्पान्तर से । इस तरह चन्द्र ७२०० X ६० ४३२००० १७ की केन्द्रगति =७९०'। ३५' -६' । ४१’: ०७८३' । ५४" =७८४ स्वल्पान्तर से । २४७८४ भोखं अतः पहली तरह गफः भोखं २ + १६६x४x भोखं = २ + १९६४७४ २२५४४ २२५४ ७ ७ भोखं ७ भोखं २ + २+ – स्वल्पान्तर से । इससे उपपन्न हुआ । ००० १५७५ १९५ धन तथा ऋण की युक्ति भास्कर प्रकार से स्पष्ट ही है । इदानीं चन्द्र भुजफलसंस्कार fतथा फलसस्कार चाह । भशोऽर्कफलस्येन्दौ रविवद्दद्याद्विशोधिते तथा स्वोच्चे । रविफलमिनवच्च तिथौ चन्द्र व्यस्तं स्फुटाकप्तम् ॥ २० ॥ सु.भा.- इन्दौ मध्यचन्द्रो ऽर्कफलस्य यो भां २७ शः स रविवद्दयः । तथा इन्दौ स्वोच्चे विशोधितेऽर्थाच्चन्द्रमन्दकेन्द्र च स रविफलभांशो रविवह्नयः । तत: संस्कृतचन्द्रकेन्द्रात् मन्दफलमानेयं चन्द्रस्येत्यर्थः । इनवद्धनमृणं वा यथा रविमन्द फलमागतं तचन्द्र चन्द्रमन्दफले व्यस्तं संस्कार्यं संस्कृतमंशात्मकं फलमर्लप्तं द्वादशभक्त फलं तिथौ देयं तदा स्फुटं तिथिमानं भवेदिति । स्फुटाकोंदयतश्चन्द्रसाधनाथं रविडंजफलसंस्कार आनीतः । तदानयनोपप त्तिश्च ‘भाप्तं च द्युमणिफलं लवे’ इत्यस्य ग्रहलाघवस्य वासनायां मत्कृतोपपत्ति रवलोक्या। रव्यूनचन्द्रतस्तिथिसाधनं भवति । अतो मध्यमतिथौ रविफलोनचन्द्रफलं द्वादशभिविभज्य संस्कार्यम् । अतो रविफलव्यस्तसंस्कृतचन्द्रफलं द्वादशहृतमित्यु- पपद्यत ॥२०॥ हि. भा.-मध्यम चन्द्रमा में विफल का २७ वां भाग रवि की तरह जोड़ हैं या घटा दें । चन्द्रमा को उच्च में घटाकर जो केन्द्र हो उसमें रविफल का २७ वां भाग रवि की तरह धन या ऋण करें। तब संस्कृत चन्द्रकेन्द्र पर से चन्द्रमा का मन्द फल लाना चाहिये। सूर्य की तरह धन या ऋण ओ रविफल आ उसको चन्द्र मन्दफल में व्यस्त (उलटा ) संस्कार करें। संस्कृत अंशात्मक फल को १२ से भाग हैं। लब्धि को तिथि में संस्कार करने पर स्पष्ट तिथिमान होता है। ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५४७ उपपत्ति । स्पष्टार्कोदय पर से चन्द्र साधन के लिये रवि का भुजफल संस्कार माना गया है । उस आनयन की उपपति । ‘भाप्तं च द्युमणिफलं’ इस इलोक का आशय सुधाकर कृत प्रह लाघव की युक्ति से स्पष्ट ही है । रवि में से चन्द्र घटाकर तिथि साधन होता है। इसलिये रविफलोन चन्द्रफल को बारह से भाग देकर फल को मध्यमतिथि में संस्कार करने से मूलोक्त उपपन्न होता है । कn o इदानीं केन्द्रत एव तिथिसंस्कारयोग्यं घटिकात्मकं मन्दफलमाह । पंचेषुपंचयुगगुणयमचन्द्रश्चन्द्रकेन्द्रजफलानि । द्विकुभुवखरहितेMadhava char n (सम्भाषणम्)तथा सूर्ये ॥ २१ ॥ सु. भाः एकस्मिन् पादेऽष्टाविंशतिनक्षत्रात्मक केन्द्रसंख्या ७ तत्र प्रतिनक्षत्रं चन्द्रमन्दफलघटीभवान्यन्तरखण्डानेि पञ्चेषु पञ्चेत्यादीनि । एवं सूर्ये स्वोच्चविः रहिते तथैव चन्द्रकेन्द्रवत् केन्द्र क्रियमाणे प्रतिनक्षत्रं रविमन्दफलघटीभवान्यन्तर- खण्डानि द्विद्विीत्यादीनि ज्ञेयानि । अत्रोपपत्तिः । एकस्मिन् चक्र २८ चन्द्रकेन्द्रभानि पूर्वं कल्पितानि । अतो वृत्तपादे नवतिभागात्मके सप्त भानि । एकैकस्मिन् भे स्वल्पान्तरतस्त्रयोदशभागाः अतः भानि = १ २ ३ ४ ५ ६ ७ भागाः == १३ २६ ३९ ५२ ६५ ७८ ९० केन्द्रज्याः=३४ ५ ४ ११७ १३५ १४६ १५० कलाः =६८ १३० १८८ २३४ २७० २९२ ३०० द्वादशहृता घटिकाः =५४० १०५०- १५४० १६३० २२३७ २४I२० २५० अन्तराणि=५४० ५\१० ४५० ३५० ३० १५० ०४० आचार्येणैतेषां स्थाने स्वल्पान्तरात् क्रमेणै ५५५४३।२१ ता अन्तररूपा निरवयवघटिका गृहीताः । अत्र प्रथमस्थाने महती स्थूला तत्र वस्तुतोऽर्धाधिके रूपं १. द्विद्विद्विद्वि कुञ्जखान्युच्च विरहिते तथा सूर्ये ॥२१॥ १५४८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ग्राह्यमिति नियमेन षड़ घटयः समुचिताः । एवं तत्केन्द्रज्यावशतः क्रमेण रविमन्द फलकलाः स्वाष्टांशोना सवितु' रित्याचायक्तितः । मंफक =३० ५७ ८२ १०२ ११८ १२८ १३१ द्वादशहृता घटयः =२३० ४|४५ ६५० ८३० ९५० १०४० १०५५ अन्तराणि=२।३० २१५ २५ १४० १२० ०५० ०१५ आचार्येणैतेषां स्थाने स्वल्पान्तरात् क्रमेणै २२२२११० ता अन्तरा मका निरवयवघटिकाः पठिताः ।।२१।। हि. भा.-एक ( पाद में “ २८ नक्षत्रात्मक केन्द्र संख्या = ७, वहां प्रतिनक्षत्र चन्द्र मन्दफलघटी से प्राप्त अन्तरखण्ड 'पञ्चेषु पञ्च' इत्यादि पठित है । एवं सूर्य में सूर्याच्च घटाकर तथा चन्द्र के केन्द्र की तरह केन्द्र बनाने पर प्रतिनक्षत्र रविमन्दफल घटी से प्राप्त अन्तरखण्ड द्विद्विीत्यादि के बराबर समझना चाहिये। उपपत्ति । एक चक्र में २८ चन्द्रकेन्द्र नक्षत्र कल्पित हैं । इसलिये वृत्त के चतुर्थाश पाद ६० अंश के सात नक्षत्र हैं । हर एक नक्षत्र में स्वल्पान्तर के १३ भाग हैं । अतः भानि भागाः =१३ २६ ३६ - ५२ ६५ , ७६ - ४७ । केन्द्रज्या = ३४ ६५ ४ ११७ १३५ १४६ १५० मन्दफलकला ==६८ १३० १८८ २३४ २७० २४२ ३०० द्वादशहृताघटिका=४५० १०५० १५४० १९३० २२३० २४२० २५० अन्तराणि =५४० ५॥१० ४१० ३५० ३० १५० ०४० यहां आचार्यों ने इन स्थानों में स्वल्पान्तर से अन्तररूप निरवयव घटी को क्रम से ५ । ५ । ५ । ४ । ३ । २ । १ अहण किया है । पहले स्थान में बड़ी स्थूलता है। वस्तुतः अर्धाधिके रूपं ग्राह्य’ इस नियम से ६ घटी समुचित हैं । इस तरह केन्द्रज्या पर क्रम से 'विमन्दफल कला। स्वाष्टांशोन' इत्यादि आचार्य की उक्ति से जानना चाहिये। ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५४९ में. फक == ३० ५७ ८२ १०२ ११८ १२८ १३१ । द्वादशभक्त घटी = २३० ४४५ ६५० ८।३० ६५० १०४० १०५५ अन्तराणि = २३० २१५ २५ १४० १।३० ०५० ०॥१५ आचार्य स्वल्पान्तर से इन सबों के स्थान पर (२।२।२।२।११०) इतनी अन्तरघटो स्वीकार की है । इदानीं तिथिसाधनमाह। अकनचन्द्रलिप्ताः रवयमस्वरभाजिताः फलं तिथयः। गतगम्ये षष्टिगुणे भुक्तवन्तरभाजिते घटिकाः ॥ २२ ॥ सु. भा--स्पष्टार्थे । स्पष्टाधिकारेण स्फुटोपपत्तिश्च ।।२२।। हि. भा–चन्द्रकला में से रविकला को घटाकर ७२० से भाग देने से फल तिथि होती है । गत और गम्य तिथि को ६० से गुणाकर गत्यन्तर से भाग देने पर क्रम से गत और गम्य तिथि घटी होती है। उपपत्ति । उपपति स्पष्टाधिकार में कही गई है । इदानीं भयोगसाधनमाह । भान्यदिवन्यादीनि प्रहलिप्ताः खखवसूद्धृता लब्धम् । भुक्तिहृते गतगम्ये दिवसाः षट्चाहते घटिकाः ॥ २३ ॥ वचन्द्रयोगलिप्ताः खखवसुभिर्भाजिता फलं योगः गतगम्ये षष्टिगुणे गतयो निभाजिते घटिकाः ।। २४ ।। सु. भा–स्पष्टार्थमु स्पष्टाधिकारस्य ३३ श्लोकसमा प्रथमार्या । द्वितीयार्थी तथैव टीका विलोक्या ।।२३-२४॥ हि. भा–प्रह कला को खखवसूनृता (८००) से भाग देने पर लऊिध अश्विन्यादि नक्षत्र होता है । गत और गम्य नक्षत्र को साठ से गुणाकर भुक्ति से भाग देने पर लब्धि क्रम से गत और गम्यघटी होती है । २४ वें श्लोक का अर्थ स्पष्ट ही है । उपपति । यहां २३२४ दोनों श्लोकों की युक्ति स्पष्टाधिकारोक्त ६३ श्लोकों की सु० भा० या वि०भा० देखनी चाहिये। १५५० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते इदानीं करणानयनमाह। व्यर्केन्दुकला भक्ताः खरसगुणैर्लब्धमूनमेकेन । चरकरणानि ववादीन्यगताच्छेषात् तिथिवदन्यत् ॥ २५ ॥ सु. भा–अगताभोग्यात्। शेषाद्गतात् । अन्यद् भुक्तभोग्यधटिकादिकं तिथिवत्साध्यम् । शेषं स्पष्टार्थम् ॥२५॥ हि. भा–चन्द्रकला में से रविकला घटाकर साठ से भाग दें, लब्धि में से एक घटाकर शेष ववादिचरकरण होता है। तिथि की तरह इसकी गत और गम्य घटी का साघन करना चाहिये । और सब बातें स्पष्ट रूप से ज्ञात है । इदानों रव्यब्दान्ते भौमादिसाधनमाहतत्रादौ भौमसाधनम् । अङ्ग रुद्रः सिद्धेर्गजैर्यमैरकंवत्सरान् गुणयेत् । शैलै विदवैगुणितैरष्टवह्निभिर्योजयेद्भौमः ॥ । २६ ॥ सु. भा.-अत्रोपपत्तिः । भौमभगणविकलाः कल्पसौरवर्षाविहृता जातैकस्मिन् सौरवर्षी भौमविकलामितिः—२१६००४६०xभौम–५०४६० भौम–भौम ३ ४३२००००००० १००००००० १०००० =.३४२२६६५२८५२२_६८९०४८५५६६, -" _५५६६ -" ६८०४८ ६८०४८ १०००० १०००० १०००० +३३ ’ स्वल्पान्तराव=११४८४८१३३=१९१°२४८।३३= । ११° । २४८.३३ । एते राश्याद्या इष्टसौरवर्षेर् णाः क्षेपयुक्ता अभीष्टसौरवर्षे राश्याद्यो भमः स्यात् । अत्राचक्तलिखितसंख्याभिविलोमेन कल्पे कुश्च भगणाः स्वल्पान्तरात् २२६६८२६७७८ एते सिध्यन्ति । अत्र पाठपठितभगणेभ्यः कलिगताब्देभ्य ३७२६ एभ्यो विकलात्मकः कुजः = सुभ४१२+३०४६०४ गव = कुभ४३ गव = कुभ ११८७ ४३२००००००० १०००० १०००० १. अङ्ग ६ रुद्रः ११ सिद्घ २४ गंजैः ८ सुरैरर्कवत्सरान् गुणयेत् । शैले ध्वंसुभिः ८ कुगुणं ३१ रिभाग्निभि ३८ घंजयेद्भौमः ।।२६ ।। १५५१. =- २२९६८२८५२२४११८७ ०६७५६१४ १००%8=रा।e°२७°४८ १०००० ७ स्वल्पान्तरात् । अयं कल्यादिकुजेन रा।२e°1३'५०" अनेन युतोजातः क्षेपः=रा।८°। ५ १ ३१।३८।२६। हेि. भा.—व्याख्या स्पष्ट ही है, इस (अङ्गै रुद्धेः सिद्ध) से भौम का साघन किया गया है । उपपत्ति । भौम भगण बिकला का कल्प सौरवर्ष से भाग देने पर एक सौर वर्ष में भौम का विकला मान -२१६००४६०ॐ भौम ३२०० ० ० ० ० ० =५०४६०४ भौम ३ भौम x २२६६८२५२२ १०००० १ ० ० ० ० ० ० ० --- ६८ ६०४८५५६६– = ६८०४८" + १०००० ५५६६ १० ० ० ० = ६८०४८" +३३" स्वल्पान्तर से ११४८४। ८" । ३३: =१६१° । २४ ’ । ८* । ३३” =६ रा। ११°। २४ । ८* । ३३३ । राश्यादि भौम को इष्ट सौर रविवर्षे । से गुणाकर गुणनफल में क्षेप जोड़ने से इष्ट सौर वर्ष का भौम होता हैं । आचार्योक्तं लिखित संख्या के विलोम से भी कल्प में भौम भगण स्वल्पान्तर से (२२e६८२६७७८) के बराबर होता है । यहां पाठं पठित भगण से तथा कलिगताङ्क ३७२३ इससे विकलात्मक भौम= ॐ कुभ x १२ +३० ४६° ४६० xगप - कुभ x ३ गव ४३२००००००० ० ० ० ० ॐ कुंभ X ११८७ - ८ २२६८२८५२२ x ११८७ १०००० ७० ० ० ५६१४ = २५६६४६२०६७" + A१०- :७ रा. °। २७'। ४८ * स्वल्पा १०००० तर से ! एवं कल्पादि भौम ११ रा। २e'३। ५० से युक्त क्षेप= रा ७ । ८° । ३१'। ३८" इति । १५५२ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते इदानीं बुधशीघ्रोनयनमाह । शशिना जिनैः रः षड्वह्निभिर्हतावब्वात् । शशिना द्विपैरर्मैश्चतुरब्धिभिरन्वितं भवति बुधशीत्रम् ॥ २७ ॥ सु. भा.-अत्रोपपत्तिः । भौमवद्धशीमविकलामितिरेकस्मिन सौरवर्षे_३‘बुशीभ ०७० –३४१७६३६९६८९८४५३८१०&&६६५२, -"६६५२ ५३८१०६३। १०००० १०००० १०००० =५३८१०६e"+४१ = ८९६८४।५४"।४१" = १४६४°४४५e"|४१"=:रा। 1 ४ 8 २४°४४५९४१ी==रा।२४°४४५er४१।। आचायक्तलिखितसंख्याभिवलमेन कल्पे बुधशीघ्रभगणा १७६३७०३२००० एते सिध्यन्ति । अत्र भौ मसाधनवत् कलिगताब्देभ्य३७२९ एभ्यो मध्यमाधिकारे पाठपठित भगणेभ्यश्च विकलात्मकबुधशीघ्रम् । =बुभX३ गव_१७६३६९९८९८४x१११८७ ४००८ =२००६६१२०७६३ ” # १०००० १०००० १०००० =रा१।१२° २६' । ३“ अयं कल्पादिबुधशीघ्र णानेन रा । २७° । २४ । २e" १५ युतो जातः क्षेपः = १। °५०'। ३२ ” आचार्योक्तक्षेपः = १ । ८ । ३३ । ४४ इ १ १६ ४८ हि- भा.-वाशिना= १, जिन=२४, अङ्क=&, षवह्नि = ३६, इन अझ से अब्द गण को गुणा , और शशिना=१, द्विप==, अर्यमा = ३३ चतुरधि=४४, इन अकों को क्रम से युक्त करें तो बुध का शीघ्र केन्द्र होता है । १. शशिना १ जिनैः २४ शराब्दिभिः ४५ रॐ षड्वह्निभिर्हताब्दात् । शशिना १ द्विपैः सुरै ३३श्चतुरब्धिभि ४४ रन्वितं बुधशीघ्रम् i२७।। ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५५३ उपपत्ति । एक सौरवर्षों में बुधशीघ्र विकलाः =~ इसीत् – ३ X १७३६७९८४८४ ५३८१०६६९५२ १० ७ ७ ० ० ० ० ० ६६५२ = ५३८१०६e" + ४१ = ५३८१०६" + १०००० ५ = ८९६८४' । ५e” । ४१’ = १४४४°। ४४" । ५४ ” । ४१ "" == ४४ रा । २४ अं । ४४ क । ५& वि । ४१ प्र. वि । = १ । २४ ऑ। ४४ क । ५९ वि । ४१ प्र. वि । यहां आचार्योंक्त संख्या के विलोम से कल्प में बुधशीभगण १७४३७०३२००० होता है । अब कलिगताध्द ३७२४ इससे और मध्यमाधिकार में पाठ पठित भगण पर से विकला रमक बुधशीघ्रकेन्द्र १७३६९६८९८४ X १११८७ बुभ x १०००० ० ० ० ० = २००६६१२०७६३* +- ७०% --. = १ रा । १२° । २६’ । ३” इसका
= १०००० और कल्पादि बुधशीघ्र का योग क्षेप होता है । ममा (११ रा । २७° । २४ १ २e")+(१ रा । १२° २६।३") ८१ । ४ । ५० । ३२” । आचायक्त क्षेप =१ । ८ । ३३ । ४ । इन दोनों का अन्तर=० । १ । १६ । ४८ । इससे उपपन्न हुआ । र इदानीं गुरोरानयनमाह । रूपेण १ येन० कृयमै-२१ रङ्ग-६ नवभिश्च करणाब्दाः । गुणिता युक्ता वेवैः कृयमैस्त्रियमैश्च भवति गुरुः ॥ २८ ॥ सु. भा--अत्रोपपत्तिः । पूर्ववग्दुरुविकलामितिरेकस्मिन् सौरवर्षे = ,. ३ शुभ–३x३६४२२६४५५ १०००० १०००० १. रूपेण १ खेनः कुयमै २१ रश्वैरङ्गश्च करणाब्दाः । १५५४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ८ = %8 १०९२६७६३६५. ५ ९३६५ १०९२६७ ३% = १०९२६७' + ६" स्वल्पान्तराल =१८२१' । ७ । ६" = ३०°। २१। ७५ ६ “” -रा । ०° । २१’। ७” । ६" १०००० n आचार्योक्तसंख्याभिविलोमेन कल्पे गुरुभगणा ३६४२२०५०० एते सिध्यन्ति । मध्यमाधिकारे पाठपठितगुरुभगणेभ्यः कलिगताब्देभ्य ३७२६ एभ्यो भौमसाधनवदुग्रन्थारम्भे विकलात्मको गुरुः=गुभेॐ३ गव _== २२’। ३६४२२६४५५X१११८७ २०८५ ४०७४६०१३५४ रा। २३°। ०७७० १०००० ०००० १५” अयं कल्पादिगुरु णानेन रा। २६° । २७’ । ३६ १ १ युक्तो जातः क्षपः = ४ । २२ ।४ । ५१ आचायोंक्त क्षेपः = ४। २१ । २३ । ०० १ । २६ । ५१ - हि. मा.-रूप=१, खेम =० । कृयम=२१ । अङ्ग=६, नव=६ इन संख्याओं से करणाब्द से गुणा हैं । और क्रम से वेद=४, ज्यम—२१, त्रियम-२३ युक्त कर दें तो गुरु होता है । उपपत्ति । एक सौरवर्ष में गुरु का विकला मान = ३.शुभ - ६४३६४२२६४५ १०००० १०६२६७६३६५ .= १०४२६७ + -४००० ३६५ ' ७ ० ० ० =१०९२६७*+६*" स्वल्पान्तर से । १८२१’ । ७* । ६" =३०° । २१’ । ७ * । ६"" =१ रा । ०° । २१’ । ७ । ६ । यहां आचार्योंक्त संख्या के विलोम से कल्प में गुरु भगण = ३६४२२०५०० ॥ मध्यमाधिकारोक्त पाठ पठित भगण से तथा कलिगताब्द् ३७{& इस पर से ग्रन्था रम्म काल में विकलात्मक गुरु = शुभ X ३ गवL = ३६४२२३४५५X१११८७ = 9 co७ • १०००० ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५५५ = ४०७४६०१३५" + २०८५ -४ रा । २३° । २२ । १५” इसको कल्पादि गुरु । १००० ० से युक्त करने पर क्षेप=४ । २२ । ४ । ५१ । आचायत क्षेप =४ । २१ । २३ । ००। दोनों क्षेप का अन्तर= १ । २६ । ५१ । इससे उपपन्न हुआ । इदानीं शुक्रशीघ्रानयनमाह । श्लैस्तिथिभी रुद्र' यैर्मविषयैः सागरैगुणिताः। वसुभिरनिर्लजनैः षड्गुणैश्च युक्तं भृगोः शीघ्रम् ।। २४ ॥ सु.भा. -अत्रोपपत्तिः । पूर्ववदेकस्मिन् सौरवर्षे शुक्रशीघ्रोच्चविक्रममितिः = ३ शुशीभ १०००० = ७०२२३८९४६२४३ २१०६७१६८४७६ =८४७६ ८१°३७५१८५७६' २१०६७१६ =२१०६७१६" +५१ "=३५१११। ६६" । ५१": =५८५° १३' । ५६" । ५१ " =रा। ५१° । ११ । ५६” । ५१": =रा । १५°। ११ ’ । ५६" । ५१ ॥ ००० ० १०००० N १ 8 आचार्योक्तसंख्याभिर्विलोमेन कल्पे शुक्रशीत्रभगणा ७०२२३७३५५६ एते सिध्यति । मध्यमाधिकारं पाठपठितेभ्यः शुकशत्रभगणेभ्यः कालिगताब्देभ्य ३७२७ एभ्यो भौमसाधनवग्रन्थारम्भे शुक्रशीघ्रविक्रलामितिः = शुभ४३ गव_ ०७००० ७०२२३८६४२४१११८७८७८५५९४७१२y७००४० =रा। ७° । ३२ । ४ " १०००० १०००० ० अयं कल्पादिशुक्रशत्रणानेन रा । २८° ४२' । १४ ५ युतो जातः क्षेपः =रा । ६°१४। १८ आचार्योक्तक्षेपः =८ । ५ । २४ २. २६ अन्तरम् ० । ४ । ४२ १५५६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते हि. भा-अब्दगण को शैल=७, तिथि= १५, रुद्र = ११, यमविषय ५२ । सागर=४ इन अझ से गुणाकर वसु = ८ । अनिल=७, जिन=२४, षड्गुण=३६ इन अह्नों को उसमें जोड़ देने पर शुक्र का शीघ्रोच्च होता है । उपपत्ति । एक सौरवर्ष में शुद्ध शीघ्रोच्च विकला = ३ शुशीभ १०००० - ७२२२३८८४८२ X ३ २१०६७१६८४७६ १०००० १०००० = २१०६७१६+ – १७७६ – =२१०६७१६'+५१ * १००० =- ३५१११’ । ५६” । ५१"" =५८५° । ११’। ५६” । ५१* । =१e रा। ५१° । ११’ । ५६" । ५१ “=रा ७ । १५° । ११’ । ५६* । ५१* । आचायोंक्त संस्थाके विपरीत से कल्प में शीतशीघ्रभगण=७०२२३७३५५६ ।। मध्यमाधिकार में कहा हुआ शुक्रशीघ्र मगण से तथा कलिगताब्द ३७२e पर से ग्रन्था- शुभx३ गव __७०२२३८६४२१११८७ रम्भ में शुक्रशीत्र विकलामान १०००० १०००० ७००४० = ७८५५e४७१२४" + -८ रा । ७°। ३२ । ४” । १०००० = इसका और कल्पादि शुक्र शीघ्र का योग= क्षेपक =८ रा। ६° । १४ । १८’ साबित लैप और आचायक्त क्षेप का अन्तर=अन्तर=०। ४३ । ४२ । इति इदानीं शन्यानयनमाह । शून्येन द्वाबशभिर्बादशभिः खेषुभिस्त्रयोदशभिः। गुणिता युता रसैरन्धिभित्रिविषयैर्दशभिराकः । ३० ॥ सु. भा– अत्रोपपत्तिः पूर्ववदेकस्मिन् सौरवर्षे शनिविकलामितिः ३ शभ ०००० _१४६५६७२९८४३–४३९७०१८९४ -" १६९४ ४३९७० ४३९७० १०००० १०००० +११ " = ७३२’ । ५०” १ ११ " =१२° । १२ । ५०" । ११' =:रा । १२°। १२ ' ।
- -५.५° "
J ५०" । ११' ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५५७ आचार्योक्तसंख्याभिर्भाविलोमेन कल्पे शनिभगणा । १४६५६७३८६ एते सिध्यन्ति । ग्रन्थारम्भे कलिगताब्दाः=३१७३+५५०=३७२६ एभ्यः शनिविं- १४६५६७३८९४१२४३०६०४६०X३७२९ ४३२००००००० – १४६५६७३८९४३x३७२९_ १४६५६७३८ex१११८७ = १६३९६४६३८ कलात्मकः= = ” ७ ७०० १०००० ७४३ -३२७३२७४८'। ५८‘=४५५४५° । ४८ ’। ५८"=.रा_। ५° । ४८ ।। ७० ० ० ५१ = ५८' = रा।५°।४८’ ।५८। अयं " कल्पाविशनिना श। ३८ ।४६। ३४ युतो जातो ग्रन्थादौ क्षेपकः =रा। ४°। ३४ । ३२” आचायतः ६ । ४ । ५३ । १० = + १७ ' । ३८ ।। ३० । = हि. भा.-शून्येन=०, द्वादश=१२, द्वादश =१२, खेषुभिः = ५०त्रयोदश १३ इन अह्नों से अब्दगण को गुणाकर उसमें क्रम से रस =६, अधि=४, त्रिविषय=५३, दश=१०, इन सबों को जोड़ने पर शनि होता है । उपपत्ति । ३ शभ १४६५६७२६८३ एक = -८- सौरवर्ष में शनि त्रिकलामान १०००० १०००० L४३e७०१८e¥ =४३७७० ++१८६४ =४३६७०+११ १०००० - १०००० =७३२५ । ५०" । ११""; =१२° । १२’। ५०" । ११" ==राo १२°१२’ * । ११ । । । । ५०" यहां आचार्यो कथित संख्या के विलोम से कल्प में शनिभगण==१४६५६७३८७ ।। ग्रन्थारम्भ में कलिगतवर्षे =३१७e+५५०== ३७२e इस पर से विकलारमकशनि = १४६५६७ ३८४x१२x ३०४.६०४६० x ३७२६ _१४६५७३८३x३x३७२९ १०००० ४३२००००००० १५५८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते = १४६५७३८४x१११८७ ७४३ १६३६६४३८" + १००० ० =२७३२७४८’ । ५८ ^==४५५४५° । ४८’ । ५८"=१५१८ रा । ५°४८'.५८ ७० ० ० = ६ रा। ५° । ४८’ । ५८ इसको कल्पादि शनि में युक्त करने पर ग्रन्थाद में = ६ रा। ४°। ३५’ । ३२५ आचार्यं कथित क्षेप =६ । ४ । ५३ । १० इन दोनों का अन्तर =अं=० । ०।१७९ । ३८ ।। इससे उपपन्न हुआ । इदानीं राहोरानयनमाह। गगनेन नवचन्द्रः कुयमै रसाब्धिभिः संवरेण हृताः । रुद्रः खवेदैर्युक्ता राश्यादिकः पातः । ३१ ।।' सु. भा. अत्रोपपत्तिः । पूर्ववदेकस्मिन् सौरव चन्द्रपातविकलामितिः = ३ पाभ – २३२३१११६८३ ६९६६३३५०४-" ३५०४ १०००० ६६६९३ -६६६९३"+२१५ १०००० =११६१ । ३३" । २१ =१९° । २१ । ३३” । २१५: =इरा । १९°। २१’। ३३” । . १०००० ७० ० ० २१ " आर्यभटानसारेण ३ पाभ =२३२२२६००० x_६९६६७८००० १०००० १०००० १०००० = / w ८००० ६६६६७ १०००० =६६६६७“+४८ =११६१ ’ । ७५ ।४८ =१७° । २१ ।७ ।४८ ”’=रा। १९° । २१ ’ । ७ ” ।४८ " अत्रापि भौमसाधनवद् ग्रन्थारम्भे कलिगताब्दतः पातविकलाः=पाभ ४३गव = २३२३१११६८४१११८७ =- ६४१६ रा१०°। ४१। । २५८८८६५०३ " =। ’ १०००० १०००० १०००० १. गगनेन नन्दचन्द्रः कृयमै रसाग्निभिरम्बरेण हताः। रुद्र विश्वखवेदैर्यं क्ता रात्र्यादिकः पातः ।। ३१ ।। ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५५९ अय कल्पादिपातेनानेन रा । ३ । १२ । ५८’ युतो जातः क्षेपः =रा । १३°। ५४।४१५ आचार्योक्तक्षेपः ११ । १२ । ३० । ०० अन्तरम् १४ । ४१ ।। ३१ ।। हि- भा.-गगनेन =०, नवचन्द्रेः = १६, कुयमै = २१, रसाब्धि=४६, संवरेण =०, इन सबों से गताब्द को गुणकर और उसमें रुद=११, खवेद=४०, जोड़ दें तो राश्यादिक पात होता है । > उपपति । ३ पाभ एक सौरवर्ष में विकलामान चन्द्रपात = – १०००० २३२३१११६८३ . ६६६३३५०४ ३५०४ ६६६३" + १०००० १ ००० ० १०००० =६६६३"+२१": =११६१’ । ३३” । २१": =१e°। २१ ’ । ३३” । २१५ ==० रा । १९° । २१’ । ३३५ । २१५ = = ३ पाभ - २३२२२६००० x ३ आर्यभट के मत से पातविकला = १०००० १०००० ००.~~ = ६६६७८००० = + -२००८ ६६६६७" १ ००० = ६६६७९ + ४८' = ११६१ । ७५ ।४८""=१६° । २६। ७५४८ "=रा°१४°।२१'१७'४०" पाभ x ३ गब यहां कलिगताब्द से पातविकला = - - १०००० =_२३२३१११६८ x १११८७ १०००० === -~ ६४१६ २५६८८६५०३" + १०००० =६ रा । १०° । ४१’ । ४३" इसको कल्पादि पात में जोड़कर क्षेप =११ रा । १३°। ५४ । ४१॥ आचार्योंक्त क्षेप = ११ । १३ । ४०। ०० इन दोनों का अन्तर = अन्तर =००। ०। १४ ।४१ । इससे उपपन्न हुआ । 7ST«3T^ S^HMtt TsmrT: II ^ II 3. *refi% <iwi«flPr wrcTfa sew: ^r^wrf ^ i srfa- te?rr: ^rfspT: ^ f%* ^ng zfter^ i few: q-fe^rr: <w ^rrg iffaira ^ ?^t¥Tft rtferf: i top*; ii =R n fawr ^ s° *rnr f^rr sft? f i f^n nft % vffaf sjT5rr if sftf i ^rr q?t % ?tft for m tsftf ? i cpc| mmfk s+- * Vf— ? — —
e+-* — ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५६१ अस्मादासन्नमानानि के, ३, ३४, ६डॅ२ , ३४, ४३, ४४३••• • .आचार्येणेद ३३९ मासन्न गृहीतम् । अनेनाको गुण्यो भौमः स्यादतो भौमः=३४५४ रवि-३ रविx३३+==* रवि (१+३*)→ई रवि (३+'१०x१०)= ३ रवि (१+१६स्वल्पान्तरात् । २२१० अत उपपन्नम् । शेषवासना सुगमा ।। ३३ ।। अब प्रकारान्तर से भौमादिक ग्रहों का. आनयन करते हैं । हि- भा.- सूर्य को दो जगह रखें, एक जगह १० से गुणा हैं, और वसुशरचन्द्र (१५८) से भाग दें, लब्धि को प्रथम स्थान में जोड़ दें, उसका आधार करें। भौम का ध्रुवा उसमें जोड़ दें तो मध्यम भौम होता है । उपपत्ति । कल्प में रविभगण = ४३२००००००० । कल्प में भौमभगण ==२२१६८२८५२२ । २२ ६८२८५२२ दोनों का सम्बन्ध ४३२००००००० ११४८४१४२६१ - ११४८४१४२६१ =__४२ २१६००००००० ४२ २१६००००००० = १+. ---- १+ ७+
= =
[सम्पाद्यताम्]२+. १+. १+ ८९६६३८ ५+ ४७२६६१६ १५६२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते • • • • • • • • • • • • • • • • • • • इससे मान = रंथ पॐ ३ ४७ ४४२ आसन्न १, , , , ४३, ३३४, यहां आचार्यों ने ४३ ग्रहण किया । (३३५) इससे रवि को गुणने पर भौम होता है । भौम = ३४४ x रवि = ३ रवि x ३३४ = ई रवि (१+३३) = ’ रवि (१ +. ) १४x१० २२१० = रवि (१+पृथ) स्वल्पान्तर से । इससे उपपन्न हुआ । बाकी की उपपति स्पष्ट ही है । इदानीं बुधानयनमाह । चतुराहतोऽब्धिगुणितः पृथक् च सप्ताहतोऽब्धिधृतिभक्त फलसंयुतो विधेयो ज्ञचलध्रुवको ज्ञशीघ्र स्यात् ॥ ३४ ॥ सु. भू.- स्पष्टार्थम् । अत्रोपपत्तिः । कल्पबुधशीघ्रभगणः=१७९३६&&८६८४ रविभगणाः ४३२००००००० = तयोनिष्पत्तिः =४+ . ६५६६६८९८४ ४३२००००००० अथ ६५६४६८९८४-१६४२४६७४६ ४४ ४३२००००००० १०८०००००००४ _८२१२४८७३ ४२४x४_८२१२४८७३ ५४००००००० ४२४४ ५४०००००००
-- ६+ १+ २+१ १+१ ४+ १ २+. ६०९६० १०६७४४१ ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५६३ अत आसनमानानि ३ , ४, ३, ४, ऍड ४३ =इदमाचार्येण गृहीतम् । ७४ ततो निष्पत्तिमानम् = ४+” अनेन रविर् ण बुधशीघ्रमानम् । १४ ७४ र =४र+ १८४ शेषवासना च/तिसुगमा ॥ ३४ ॥ अब बुध का आनयन करते है । हि. भा–वि को चार से गुणा करें, उसमें चार से गुणित सात को एक सौ चौराशी देकर जो हो उसको जोड़ दो और बुध का चलथुवा जोड़ दें तो बुध से भाग फल का शीघ्रकेन्द्र होता है। उपपत्ति । कल्प में बुधशीघ्र भगण ==१७४३६६६८६८४ = ४३२००००००० । दोनों का सम्बन्ध = ४ + ६५६६६८३८४ ४३२००००००० अथ ६५६९६८६८४ - . १६४२४७४६४४ ४३२००००००० १०८०००००००४ ८२१२४८७३ X२४४ = ८२१२४८७३ १४०००००००४२४४५४००००००० १+ ६+ ४+ १+---- १+ ६०९६० २+ १०९७४४१ २+ १५६४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते यह आसन्न मार्गे = ३, ४, च, छ३५ छंद .........
- •
४६ = पदंदै यह आचार्य ने स्वीकार किया है । इसलिये निष्पत्तिमान = ४ + ७४४ १८४ इससे रवि को गुणने पर ७ सुषशीघ्रमानम् =४ र + ** ^ इससे उपपन्न हुआ । इदानों गुरुशनिराह्वानयनमाह । सप्तहतस्त्रिवसुहृतो गुरुः शनिद्वगुणितो नवेषु हृतः । विगुणितो रसशृतिहृद् राहोलिप्तासुकृतलिप्तः ॥ ३५ ॥ । सु- भा.-अत्रोपपत्तिः । गुभ __३६४२२६४५५ रभ ४३२००००००० ११ ६१ ११+१ – १+१ ६+१ ४६६२८५ &२०४२३५ अत आसन्नमानानि , , ६४ ........ १ ये कई इ5 इदमाचार्येण गृहीतम् । शभ१४६५६७२६८ =. रभ ४३२ २e+---- २७४७०५६२ + ६६५४८३२५८ ॐ २ = अत आसन्नमानानि, ५ , श्री. = इदमाचार्येण गृहीतम् । ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५६५ चं. पाभ_२३२३१११६८ = १ एवं । रभ ४३२००००००० १८+. १+ १+. ४९३८६२४ २+ ४४४८६७८४ १ ॥ १ अत आसन्नमाननि १८ , अ३ , उ७ , ३ ५--.५ == 'देव इदामाचार्येण गृहीतम् । अत उपपद्यते सर्वम् ।। ३५ ।। अब गुरु शनि और राहु क साधन करते हैं । हि. भा.-रवि को सात से गुणाकर ८३ से भाग देने पर गुरु होता है । दो से गुणाकर ५% से भाग देने पर शनि होता है । दश से गुणाकर रसभृति (१८६) से भाग देने पर राहु (पात) होता है । उपपत्ति । पूर्व की तरह -शुभ =-३६४२२६४५५ रभ ४३२००००००० ११+--- १+- ६+ ४६९६२८५ ५+ Madhava char n (सम्भाषणम्) २०४२३५ ५ • • • • • • • • • • • • • • • इस पर से आसंस्रमान=== २, ८s च परन्तु इडु को आचार्यों ने ग्रहण किया है । १५६६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते गर्भ - १४६५६७२६८ ४३२००००००० २९+------ ७४७०५८२ २+ ६९५४८३५८ ८ २ ० ० ० ० -० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० 98 ० ० ० ० ० ० ० ० ० इससे आसन्नमान= =ई यहां “ आचार्य ने ग्रहण किया है । चंपाभ – २३२३१११६८ ४३२००००००० १८+. ---- एवम्भ ( = १+ १+ ४६३८६२४ २+ ४+४+४८६७८४ . se इससे आसन्नमान पद , ,र इङ, इs ,'••••••••। ¥ =६ इसको आचार्यों ने ग्रहण किया । इससे (३५) श्लोक उपपन्न हुआ । इदानीं शुक्रचलानयनमन्येषां चलं चाह । त्रिगुणो वलितः स्वद्वादशांशयुक्तः सितचलं ध्रुवं स्यात् । तात्कालिकं चलं स्याद्वैविरन्येषां ज्ञशुक्रौ स्तः ॥ ३६ ॥ सु.भा.-अन्येषां भौगुरुशनीनां रविरेव तात्कालिकं चलं शीघ्रोच्चमस्ति । तथा रविरेव मध्यमौ ज्ञशुक्रौ स्तः। शेषं स्पष्टम् । पूर्ववत् शुशीभ _७०२२३८९४६२ ४३२००००००० ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५६७ १+ १+
--- ११ १ १+ २+ १९११५९३६ ५३२८३१५२४ अत आसन्नमानानि + . ३ * *Madhava char n (सम्भाषणम्)। ५=३३-५=३+३-+३*२ २४१२ इदमाचार्येण गृहीतम् । ततो जातं सितचलम् = र (३+३)= र+३ र २४१२ २ ९ २ य'अत उपपन्न सितचलानयनम् । शेषवासना स्फुटा ॥ ३६ ॥ अब शुक्र तथा अन्य ग्रहों का चलघ्वानय करते हैं । हि. भा. रविः को तीन से गुण हैं, उसका आधा करें उसमें त्रिगुणित रविं का धारहवां भाग जोड़ने से शुक्र का शैलोच्च होता है । अन्य ग्रह (भौम-गुरुशनि) का रवि ही तात्कालिक चल शीनोम होता है । रवि ही मध्यम शुक्र और भौम होता है । उपपत्ति । पूर्वयुक्ति से शुशीभ = ७०२२३८६४६२ रभ ४३२०००१००० १+ • • • १+ १+ १+ १११५६३६ २+ ५३२८३१५२४ इससे आसन्नमान" =है, ३, ३, ४, ६,००००००० १५६८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ३ २-४ - ३छे - हैं ' +=(.+) ) इसको प्राचार्य ने ग्रहण किया । अतशुक्र का शीघ्रोच=( ३ + ३ ३) इx + छेर x; इससे शुक्र शत्रोच्च उपपन्न हुआ। बाकी की युक्ति २ ९ २४. ३ २ स्पष्ट ही है ।। इदानीं भौमादीनां मन्दोच्चांशानाह । मन्वशा नगरवयो भयमाः खनगेन्दवः खनन्दानघ । यमतत्त्वानि तद्वनान्मध्याज्ज्या संयंवत् ग्राह्या ॥ ३७ ॥ सुभा-भौमादीनां मन्दांशा मन्दोच्चांशाः क्रमेश १२७° । २२७° । १७०•। ९०° । २५२° । एते सन्ति । तद्वनान्मध्यादुग्रहात् सूर्यवज्ज्या ग्राह्या । मन्दोच्चेन हीनो मध्यो मन्दकेन्द्रम् । सूर्यकेन्द्रवत् तस्य गतगम्यस्य ज्या केन्द्रभुजज्या ग्राह्यत्यर्थः। अत्रौपपत्तिः । मन्दोच्चानामल्पगतित्वात्.सुखार्थं बहुकालोपयोगित्वात् स्वसमये स्थिरांशाः पठिताः । शेषवासना चातिसुगमा ॥ ३७ ॥ अब भौमादि ग्रहों के मन्दोच्चांश को कहते हैं । हि. भा–भौमादि ग्रहों का मन्दवांश क्रम से पठित है यथा भमका १२७° । बुध का २२७° । गुरु का १७०°। शुक्र का ६०° । शनि का २२५° । इसको मध्यमग्रह में घटा कर सूर्य की तरह ज्या ग्रहण करें । मन्दोच्च मध्यमग्रह में घटाने से ( शेष मन्द केन्द्र होता हैं । सूर्य केन्द्र की तरह उसकी (गतगम्य की) ज्या तथा केन्द्रभुज ज्या । को ग्रहण करें ॥ उपपत्ति । मन्दोच की गति अल्प है, बहुत समय में जाना जाता है इसलिये सुखार्थी उसक स्थिरांश पब्ति कर दिया गया है । इदानीं भौमादीनां मन्दफलानयनमाह रबगुणिता सप्तहृता कुजस्य सौम्यस्य नागगुणा त्रिवृता । द्विगुणा हि फलं सूद्विगुणानिविभाजिता स्फुजितः ॥ ३८ ॥ ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५६४ त्रिगुणा त्रिशद्भक्ता रविजस्य फलस्य मन्वफललिप्ताः। मन्दफलयतोनं स्वशीघ्रोच्चाच्छोधयेन्मध्यम् ॥ । ३ ॥ सु. भा.-स्पष्टाधिकारोक्तमन्दपरिधिना भौमादीनां स्वल्पान्तरात् परममं दफल कलाः । भौ=६७०’ । बु=३६२’। गु= ३१४ । शु= १०५ । श८४७६ । ततो यदि त्रिज्यया परममन्दफलकलास्तदा केन्द्रज्यया किमु । जाता मन्द = = ज्याके ६७० ज्याके ६७ ६७४३२ ज्युके फलकलाः, भ= १५ १५ १५४३२ ६७३२ ३२ ज्याके ३२ ज्याके स्वल्पान्तरात् । ४८० ४८० ६७ – ३६२ ज्याके - ७ ज्यके स्वल्पान्तरात् । १५० गु= - =२ ज्याके स्वल्पान्तरात् । ३१४ ज्याके १५० = _ == = - - ३०५ ज्याके __२ ज्याके । श= ४७६ ज्याके =३ ज्याके+ २६ ज्याके १५० ८ ३ ज्याके+ ज्याके स्वल्पान्तरात् ॥३८-३९॥ । अब भौमादि ग्रहों का मन्दफलानयन करते हैं । हि. भा–फेन्द्रज्या को रद (३२) से गुणाकर सप्त (७) सात से भाग देने पर भम की मन्दफलकला होती है । केन्द्रज्या को नग (सात) से गुणकर तीन से भाग देने पर बुध की मन्दफलकला होती है। द्विगुणित को केन्द्र के गुरु की मन्दफल कला होती है। द्विगुणित केन्द्रज्या,को तीन से भाग देने पर शुरू की मन्दफलकला होती है । केन्द्रज्या को तीन से गुणकर तीस से भाग देने पर शनि की मन्दफल कला होती है। उपपत्ति । स्पष्टाधिकार में कही गई मन्दपरिधि से भौमादिग्रहों की स्वल्पान्तर से परम मन्द फलकला पठित है । भौम की=६७०बुध की= ३६२’ । गुरु की=३१४ । शुक्र की =t१०५’। शनि की=४७६’ इस पर से घी राशिक अनुपात से भोमादिग्रहों की मन्दफल १५७० ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते ४८० ३७० x ज्याके ६७ ज्याके _ ६७ ४३२ ज्याके - ६७ x ३२ ज्याके कलाभौम , =१० १५ १५ १५ X३२ ३२ ज्याके - ३२ ज्याके
- °R=स्वल्पान्तर से ।
४८० ६७ एवं बुध = ३६२४ ज्याके = ७ ज्याके, स्वल्पान्तर से । १५० ~= ३१४ ज्याके गुरु ==२ ज्या के, स्वल्पान्तर से । १५० १०५ ज्याके _ २ ज्याके , स्वल्पान्तर से। शुक्र = शनि = ४७६ ज्याके • =ज्याके + ' ', _= ज्याके + ? १५०ज्याके स्वल्पान्तरग्रहण से उपपन्न हुआ । इदानीं स्फुटग्रहार्थं संस्कारमाह । तस्माच्छीघ्रफलवलं स्वमृणं वा मन्दसंस्कृते दत्त्वा । प्राग्वन्मन्दफलमतः सकलं मन्दग्रहात् कुर्यात् ॥ ४० ॥ तस्मात् पृथक् सितादिशत्रोच्चविवर्जिता (स्फुटं केन्द्रम्) । तस्मात् शीघ्रफलेन् संस्कृतः स्फुटो जायते स्पष्टः ॥ ४१ ॥ सु” भा.-मन्दफलयुतोनं मध्यं शीघ्रोच्चाच्छोधयेदेवं शीघ्रकेन्द्र भवति । तस्माच्छीघ्रफलं कृत्वा तदर्धे स्त्री वा ऋणं यथागतं मन्दसंस्कृते मन्दफलसंस्कृते मध्यग्रहे दत्त्वा तं मध्यग्रहं प्रकल्प्यातः प्राग्वत्पुनर्मेदफलं साध्यं तद्यथागतं सकलं सम्पूर्णं मध्यग्रहे देयम् । एवं गणको मन्दग्रहं मन्दस्पष्टं कुर्यात् । तस्मात् पृथक् स्थापिता शुक्रदिशीघ्रोचविजिताव स्फुटं केन्द्र द्वितीयं शीघ्रकेन्द्र कुर्यात् । तस्मात् पुनः शीघ्रफलं साध्यस् तेन संस्कृतमन्दः पृथक् स्थापितो मन्दस्पष्ट संस्कृतः एवं स्पष्टो ग्रहो जायते । लाघवेन शीव्रफलसाधथुमश्रु खण्डानि वक्ष्यति । अत्रोपपत्तिः । उपलब्धिरेव ।४०-४१॥ अब स्पष्टग्रह के लिये संस्कार का नियम कहते हैं । हि- भा.-मन्दफल से सात या ऋण मध्यग्रह मन्दस्पष्टग्रह होता है। । मध्यमग्रह में से ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५७१ मन्दोच्च घटाने पर शेष मन्दकेन्द्र होता है । शीघ्रोश्च घटाने पर शीघ्र केन्द्र होता है शीघ्र केन्द्र से शीघ्रफलसाधन कर उसका आधा घन या ऋण जो हो उसको मन्दस्पष्ट ग्रह में देकर उसको मध्यमग्रह मानकर उस पर से फिर मन्दफल लाकर सम्पूर्ण फल मध्यमग्रह में घन था ऋण करदं । इस तरह गणक मन्दग्रह को मन्द स्पष्ट करें। पृथङ् स्थापित शुक्रादि शी प्रोच से वर्जित स्फुट केन्द्र दुसरा शीघ्रकेन्द्र होता है । उस पर से फिर शीव्रफल को साधन करें। उससे संस्कृत मन्दस्पग्रह स्पष्टग्रह होता है । लघुता से शीघ्रफल साधन के लिये आगे खण्डों को पठित किया गया है। उपपत्ति । उपलब्धि ही यहां उपपत्ति है । इदानीं लाघवेन शीघ्रफलानयनार्थं पिण्डमाह। भागीकृतचलकेन्द्र त्रिगुणे खाम्युद्भते फलं पिण्डः । षड्राश्यधिके चक्राद् विशोध्य शेषेण पिण्डः स्यात् ॥ ४२ ॥ सु. भा–चलकेन्द्रस्य भागाः कर्तव्याः । केन्द्र षड्राश्यधिके चक्रात् राशि द्वादशकात् केन्द्र विशोध्य शेषस्य भागाः कर्तव्याः । भागास्त्रिगुणाः खाब्ध्यु ४० द्धताः फलं फलसमो गतपिण्ड: स्यात् । अत्रोपपतिः । उच्चनीचयोः शीघ्रकर्णस्य वैलक्षण्यादाचार्येण केन्द्रषङ्गाशिमध्ये सत्र्यंशत्र योदशभागवृद्धञ्च भौमादीना चलकेन्द्राणि प्रकल्प्य तेभ्यः शी व्रफलान्यानीय तद्गा नवगुणाः पिण्डाङ्काः पठिताः। ते षट्साशिमध्ये सार्धत्रयोदश पिण्डाङ्का भवन्ति । श्रयोदश चतुर्दशपिण्डयोर्मध्ये च केन्द्रान्तर छं मस्य दल ४ मिदमस्तीति चिन्त्यम् । इष्टकेन्द्रभागेषु कियन्तः पिण्डाङ्का गता एतदर्थमनुपातः । यदि * केन्द्रभागैरेकः पिण्डस्तदेष्टकेन्द्रांशैः किम् । जातो गतपिण्डः। शेषफलानयनार्थमग्र वक्ष्यति ॥४२॥ अब लाघव से शीघ्रफल साधन के लिये पिण्ड को कहते हैं। हि- भा–शी त्रकेन्द्र का अंश करें, केन्द्र यदि ६ राशि से अधिक हो तो चक्र (१२) में घटाकर शेष को अंश करलें । अंश को त्रि (३) से गुणकर खारिन (३०) से भाग दें तो लब्धि के बराबर गतपिण्ड होगा । १. भागीकृत चलकेन्द्र त्रिगुणे खाब्ध्युद्धते फलं पिण्डः । १५७२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते 4 ।। उचनीच और शीघ्रकर्ण की विलक्षणता के कारण ६ राशि के मध्य में केन्द्र होने पर तृतीयांशयुक्त १३ भाग की वृद्धि से भौमादि ग्रहों को चल केन्द्र मानक, उस पर से शीव्रफल लाकर उसके भाग को 8 से गुणकर जो हो उसको पिण्डाः पठित किया है। वे ६ राशि के भीतर १३+३ पिण्डार्क होते हैं । तेरह और चौदह पिण्ड के मध्य में केन्द्रन्तर = डें इसका आघ ३ी यह होता है इसका विचार करें । इष्टकेन्द्र भाग में कितना पिण्डार्क बीतगया इसकी जानकारी के लिये अनुपात करते हैं जैसे - यदि (३) केन्द्र भाग में १ पिण्ड पाते हैं तो इष्टकेन्द्रभाग में क्या इस अनुपात से इष्ट केन्द्रांश सम्वन्धी गतपिण्ड होगा। शेष सम्बन्धी फलानयन प्रक्रिया की युक्ति आगे कहेंगे। इदानीं शेषसम्बन्धिपिण्डावयवानयनमाह । पिण्डान्तरेण गुणिते शेषे खाब्ध्युद्धृते क्रमाद्दयेयम् । उत्तमविधौ विशोध्यं गतपिण्डे शीघ्रफलमेतत् ।। ४३ ॥ सु. भा.-शेषे पिण्डान्तरेण गतैष्यपिण्डयोरन्तरेण गुणिते खाब्ध्यु ४० द्ध ते फलं क्रमादुपचयात् गतपिण्डत एष्यषिण्डेऽधिके गतपिण्डे देयम् । उरुक्रमविधावर्थाद् गतपिण्डत एष्यपिण्डेऽल्पे फलं गतण्डेि विशोध्यं तदेतत् संस्कृत शीघ्रफलं शीघ्र फलसंबन्धि पिण्डमानं भवेत् । अत्रोपपत्तिः । यदि चत्वारिंशत् समेन त्रिगुणशेषेण गतैष्यपिण्डयोरन्तरं लभ्यते तदाऽभीष्ट त्रिगुण शेषेण किमित्यनुपातेन स्फुटा धनणपपत्तिश्वातिसुगमा ।४३। अब शेष सम्वन्धी पिण्डके अवयव को लाने का नियम कहते हैं । हि. मा-- शेषको गतैष्यपंडान्तर से गुण हैं, खाडिंध (४०) से भाग दें, फल को ग्रहण करें। यदि गतपिण्ड से एष्यपिण्ड अधिक हो तो फल को गतपिण्ड में घन करने पर शीघ्र फल सम्बन्धी पिण्डमान होता है । यदि गतपिण्ड से एष्युपिण्ड अल्प हो तो पूवंसाधित फल को गतपिण्ड में घटा दें तो शीघ्र फल सम्बन्धी पिण्डमान होता है । उपपत्ति । यदि चत्वारिंशत् (४०) के वरावर त्रिगुण शेष में गतैष्यपिण्ड का अन्तर प्राप्त होता है तो इष्ट त्रिगुण शेष में क्या इस अनुपात से लाभ हुमा त सम्बन्धी पिण्डमान, यह धन और ऋण की वासना स्पष्ट ही है। ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५७३ इदानीं विशेषमाह। पिण्डाभावे विकलं गुणयेदाधेन पिंडकेन ततः । गण्यन्ते तु खवेदैस्तदेव फलमत्र बोद्धव्यम् ॥ ॥ ४४ सु० भा०ञ्चलकेन्द्र त्रिगुणे खाब्ध्युद्धते यदि फलं शून्यं पिण्डाभावः तदा स्यात् । तस्मिन् पिण्डाभावे विकलं शेषमाघेन पिण्डेन गुणयेत्, ततो गुणनफलानि खवेदै ४० गण्यन्ते विभज्यन्ते । अत्र यत् फल तदेव शीघ्रफलस-बन्धि पिण्डमानं बोद्धव्यं ज्ञातव्यमित्यर्थः। अत्र पपत्तिः । प्राग्वद्य दि खवेदमितेन त्रिगुणशेषेण प्रथमपिण्डमानं लभ्यते तदेष्टत्रिगुण शेषेण किं जातं शेषसंबन्धिफलं गत पिण्डाभावात् तदेव शम्रफलसंबन्धि पिण्डमानम् । एतदनुक्तमपि बुद्धिमता ज्ञायते । आचार्येण लावबोधार्थं लिखितम् ।४४। अब पिण्डानयन में विशेष कहते हैं । हि.भा-त्रिगुणित चलकेन्द्र को खब्घिते (४०) से भाग देने पर फल यदि शून्य हो तब वहां पिण्ड का अभाव होगा अर्थात् पिण्ड नहीं होगा । ऐसी अवस्था में विकल शेष को आञ्च पिण्ड से गुणा दें। गुणनफल को खवेद (४०) से भाग दें यहां जो फल (लब्धि) होगा वही पिण्डमान होगा, यह जानना चाहिये । उपपति । पूर्वे युक्ति से खंवेद (४०) के तुल्य त्रिगुण शेष में पहला पिण्ड मिलता है तो इष्ट त्रिगुणशेष में क्या इस अनुपात से शेष सम्बन्धी फल मिला, यहां गतपिण्ड का अभाव है । इसलिये वही फल शीघ्रफल सम्बन्धी पिण्डमान हुआ। इस तरह अनुक्त को भी विद्वान समवें । आचार्यों ने तो बालक के ज्ञान के लिये यह लिखा है । इदानीं विश्वमिते गतपिण्डे विशेषमाह। पिण्डे चतुर्वेश विश्वैगुणिते नखोल्ते विकलाः । लब्धेन विश्वपिण्डो रहितः शेषं फलं भवति ।। ४५ ॥ सु- भा.-चतुर्दश संख्यक एष्यपिण्डे सति विकले शेषे विश्वविगुणिते त्रयोदश संख्यकपिण्डेन गुणिते नखो २० द्ध ते यल्लब्धं भवेत् तेन लब्धेन विश्वपिण्डस्त्र १. पिण्डे चतुर्दशैष्येविश्वविगुणिते नखोद्धते विकले । १५७४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते योदशसंख्यकः पिण्डो रहितः शेषं फलं शीघ्रफलसम्बन्धि पिण्डमानं भवेत् । त्रयोदशचतुर्दशपिण्डयो रन्तरे ई केन्द्रान्तरमस्ति । इति पूर्वमेव ४२ सूत्र प्रतिपादितम् । चतुर्दशपिण्डमानं शून्यसमम् । अतोऽनुपातो यदि विंशतिमितेन त्रिगुणशेषेण विश्वचतुर्दश पिण्डयोरन्तरं विश्वपिन्डसमं लभ्यते तदेष्टशेषेण कि लब्धेन विश्वपिण्डो रहितश्चतुर्दशपिण्डस्याल्पत्वात् शेषं शीघ्रफलसम्बन्धि पिण्ड- मानं भवेत् ।४५॥ अब विश्व के बराबर गतपिण्ड में विशेष नियम कहते हैं । हि. भा–चतुर्दश (१४) संख्यक एष्य पिण्ड हो तो विकल शेष को त्रयोदश (१३) के बराबर पिण्ड से गुण’ । उसमें नख (२०) से भागदें जो हो, उसको तेरहवें । फल पिण्ड में से घटा देने पर शेष शीघ्रफल सम्बन्धी पिण्डमान होगा। उपपत्ति । तेरह और चौदह पिण्ड का अन्तर हुँ५ में केन्द्रान्तर है यह बात पहले ही ४२ सूत्र में कही गई है। चौदहवां पिण्डमानः =० । अब अनुपात करते हैं । बीस के तुल्य त्रिगुणशेष में तेरह चौदह पिण्ड का अन्तर तेरह पिण्ड के तुल्य मिलता है तो इष्टशेष में क्या लाभ जो हो उसको विश्व (१३) पिण्ड में घटा देने पर शेष शीघ्रफल सम्वन्धी पिण्डमान होगा। यहां चौदहवां पिण्ड छोटा है इसलिये १३वें पिण्ड में फल को घटा दिया गया है । इदानीं पिण्डतः शीघ्रफलमाह । पिण्डफलनवमभागो भागादिफलं ग्रहेषु वा स्वमृणम् । चलकेन्द्र मेषादौ तुलादिके कारयेत् क्रमशः ॥ ४६ ॥ सु. भा–पिण्डफलस्य नवमांशो भागादिशम्रफलं भवेत् शेषं स्पष्टार्थम् । नवगुणितं भागादि शीघ्रफलमेव पिण्डकाः पठिताः इति ४२ सूत्र प्रतिपादितम् । अतः पिण्डफलं नवहृतं भागादि शीघ्रफलं भवति धनर्णवासना स्पष्टाधिकारतः स्फुटा ।४६। अब पिण्ड पर से शी व्र फल लाते हैं । हि. भा.-पिण्ड फल का नवम भाग भागादि शीघ्र फल होता है । इस फल को ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५७५ केन्द्र के वश ग्रह में धन ऋण करना चाहिये । मेषादि केन्द्र हो तो शीन फल को प्रह में धन और तुलादि केन्द्र में फल को ग्रहण करना चाहिये । उपपत्ति । नव ( e) से गुणित भागादि शीघ्रफल ही पिण्डाकं पठित है। यह बात २४वें सूत्र में कही गई है। इसलिये पिण्डफल को नव (e ) से भाग देने पर फल भागादि शीघ्रफल होता है । धन और ऋण का नियम स्पष्टाधिकार से जानना चाहिये । इदानीं भौमस्य चतुर्दशपिण्डानाह । वसुवेदा युगनन्दाः खबेदचन्द्राः समुद्रवसुचन्द्राः । वसुयमयमा रसनभोरामा नन्दाग्भिरामाश्च ।। ४७ ।। मोक्षगुण रसरसरामा विलोचनाब्धिगुणाः । वसुवसुयमा वसुदिशो नभश्च कुजशप्रपिण्डाः स्युः ।। ४८ ।। सु. भा.-क्रमेण चतुर्दशपिण्डाः = ४८९४१४०।१८४।२२८।२७०॥३०६॥ ३३९।३५el३६६३४२२६८।१०८l०। अत्र महत्तमपिण्डो नवभक्तो भोमस्य परमं शीघ्रफलम् = ३वृ=४०° । ४० ।। अत्रोपपत्तिः । केन्द्रांशाः = १३°२०u२६°४०'४०°l०५३°२०'६६°४०'८०० ।। ९३°२०'१०६°४०'m१२०°१०'१३३°२०१४६°४०१६०°l०'१७३°२०' खार्कमिते व्यासार्धा केन्द्रज्या=२७|४०||५३|४०॥७७l००९६००॥११०००२१८००॥११६॥ १३।। केन्द्रकोटिज्या=११६२०।१०७l००९२l००lt७१२०॥४७२०२१०० ७००॥ अन्त्यफलज्या=:७८l००१७८००]७८००I७८००५७८/००ll७८l००७८ ७००॥ १. वसुवेदा युगनन्दाः खबेदचन्द्रा समुद्रवसुचन्द्राः । वसुयमयमा वियन्नगयमास्तथा रसनभरामाः ।४७।। २. गोऽग्निगुणा गोऽक्षगुणा रसरसरामा विलोचनाब्धिगुणाः । वसुरसयमा वसुदिशो नभश्च कुजशीघ्रपिण्डः स्युः ।।४८।। १५७६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते स्पष्टाकोटि:=१४२०।।१८५।००।१७०।००l१४।२०।१२५।२०l&& ००ll७१०० शीघ्रकर्णः=११७७६"m११५५८१११९८१०६५२।१०००६u२४२ ८३३२ शीघ्रफलज्या =१०५६२१७३१३२१८१४२१७८५१४४६। ५९७५३॥६७०२८ शीत्रफलम् =५:०५।१०°४॥१५°.६॥२०६२५°५२९.८।। ३४.१३।। exशीफ =४५४५॥९३६।१४०४॥१८५४२२६५॥२६८२।। ३०७२॥ केन्द्रज्या =११४।४०।१०४।००८७l००६५।४०४१ ४१००।।१४१००॥ केन्द्रकोटिज्या=३४|२०६००० ००ll८२००l१००००।११३।११८।४०।। । अन्यफलज्या=७८००॥|७८००७८l००ll७८००ll७८l००ll७८०० ॥ स्पष्टाकोटि. =४३।४०।१८००४००२२००३५००४००० शीघ्रकर्णः =७३४३॥६३३३५२२६।।४१५५।३२३५I२५०२ ।। शीघ्रफलज्या=७२.८६७६८५४७७९११७३६४५९°३१४। २६१८७ शीघ्रफलम् =३७°.६।।३६°४०°६३८°२२९°६१२.६।। ९४ शीफ =३३८४।।३५६°१॥३६५४३४३८I२६६४॥११३४। यथा पिण्डेषु महदन्तरं न भवेत्तथा साधितसूक्ष्मपिण्डसंख्या अवलम्ब्य मया पिण्डान् संशोध्य मूलायें संशोधिते आचार्यपिण्डाः=४८९४।१४०।१८४।२२८२७०॥३०६॥ मत्साधिताश्च =४६९४।१४०।१८५२३०२६८॥३०७ आचार्यपिण्डाः==३३९३५६।३६६।३४२२६८१०८|०। मत्साधिताश्च= ३३८।३५९।३६५॥३४४२६६११३० अब मौम का १४ पिण्डों को कहते हैं । भाभौम के क्रम से १४ पिण्ड =४८ । ६४ । १४०। १८४।२२८ । २७० । आ ३०६ । ३३ । ३५ । ३६६ ॥ ३४२ ॥ २६८ । १०८ । ७ । यहां सबसे बड़े पिण्ड ३६६ को ६ से भाग देने पर १६ ६ = ४०°। ४० ॥ ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५७७ = १३°। २०९ ॥ २६° । ४०९ ॥ ४०° । ०' ।। ५३’। २० ।। ६६° । ४०’।८०° ०' ।। ६३° । २० ॥१०६°। ४० ।। १२०° । ०' १३३°।२०।। १४६°।४०।। १६०°। ०॥ १७३°। २०' खर्क (१२०) व्यासार्ध में = २७४०।५३४०७७००e६००।११०।००ll ११८l००।। ११ । १४ ।। केन्द्रकोटिज्या =११६२०।१०७००।२००r७१।२०४७२०।२१।००।। ७०० प्रन्त्यफलज्या =७८००m७८००n७८००७८००॥७८००७८०७८॥ ७० स्पष्टा कटि = १६४२ ।।१८५।००१७००० ००१४ku२०a१२५।२०।। &&l००।।७१००॥ शीघ्रकर्षे = ११७७६' ११५५८।।१११६८m१०६५२॥।१०००६६२४२ ।। ८३३२ शीघ्रफलज्या = १०°५६n२१७३१३२-१८१४२-१७८५१-४४।। ५७५३६७°०२८॥ शन्नफलम् =५°-०५m१०°४१५९६२०°६२५°५२६°८३४.१३ &xशीफ ४५४५॥३-१४०-४॥१८५४॥२२४५NH२६८५२३० ६५२ केन्द्रज्या == ११४।४०।१०४।००८७००।६५०४०४११००१४०० केन्द्र कोटिज्या =३४1२० २०६०/००६२।७०।१००००।११३।७०।११८४०॥ । अन्यफलज्या = ७८००७८००१७८००१७८००॥७८००l७८१० ७॥ स्पष्टा कोटिः = ४३।४०।१८।०४००२२।७०।।३५।७०।३५००। ४००० शीघ्रकर्षे = ७३४३“t६३३३ ३३५२२६।।४१.५५A३२३५२५७२m शीघ्रफलज्या = ७२८६६७६८५४७७१११।।६३६६५e•३१४ २६°१८७॥ शेफ == ३७°५६॥३९°•em४०°५६।।३८°५२२°५६॥१२-६२॥ १५७८ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते exशीघ्रक =३३८०४३५-१॥३६५५४३४३८।२६६४।११३४। जिस लिये पिण्ड में अधिक अन्तर न हो इसलिये साधित सूक्ष्म पिण्डसंख्या को स्वीकार कर पिण्डों को शोधनकर मूल में पठित आर्या का मैंने संशोधन किया है । आचार्योक्त पिण्ड =४८४।१४०।१८४।२२८२७०॥३०६ श्री सुधाकरोक्त पिण्ड=४६८४१४०।१८५।२३०२६८३०७ आचायक्त पिण्ड-३३e३५६u३६६।३४२।२६८१०८० श्री सुधाकरोक्त पिण्ड=३३८।३५६३६५३४४२६६११३।० इदानीं बुधपिण्डानाह । गुणरामाः षट्करसा वसुनन्दागजविलोचनशशाङ्कः। सागरविषयशशाङ्क नगनगचन्द्राः कृताङ्भुवः ॥ ४८ ॥ |दनखा जलधिना वसुवसुचन्द्रास्तुरङ्गदविषयभुवः। तुरगविशो रसरामा नभश्च पिण्डाश्च शशिसूनोः ॥ ५० ॥ सु. भा–बुधस्य क्रमेण चतुर्दशपिण्डाः=३३।६६।८।१२८१५४१७७ १६४२०४|१८८|१५७१०७|३६०॥ अत्र महत्तमपिण्डो २०४ नवभक्तो बुधस्य परमं शीघ्रफल =२४४ =२२१°। ४०। अस्य ज्याऽन्त्यफलज्या=४६।४। खार्कमिते व्यासार्धे। अत्रोपपत्तिः । भौमपिण्डसाधनवदश्रापि- केन्द्रज्या=२७४०|५३४०||७७|००ll&&l००।११०।००l११८०० ११६२० केन्द्रकोटिज्या= ११६२०।१०७l००२००७१२०॥४७२०॥२१००॥ ७००॥ अन्त्यफलज्या =४६।४।४६४।४६।४।४६।४।।४६।४।४६।४।४६।४।। स्पको १६२।२४।।१५३।४।१३८।४।११७२४।६३।२४।।६७।४।। ३९४ शक =९८८४९७३२९४८५।९०९९८६५४॥८१४४७५३५॥ शीघ्रफलज्या=७७३१५:३३२२४४२६.१६।३५१३।४०°०५४३ ४३७८ ।। =३°७७°३॥१०१.७lu१४१.८|१७९.०६१९.५२॥ २१°५। ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५७६ ९x शीफ = १३°३६५७९६३॥१२६ ७२॥१५३५४।१७५६८।। १९३५।। केन्द्रज्या = ११४।४०।१०४।००८७l००।।६५।४०।।४१००॥१४०॥ केन्द्रकोटिज्या =३४२०॥६०l००८३१००१००००।११३। ।४०। ००l११८। अन्त्यफलज्या = ४६।४।।४६।४।।४६।४।४६ ॥४॥४६॥४॥४६४॥ स्पको =११।४४।।१३।५६।।३५।५६।५३५६।६६५६७२३६।। = ६८६६ ।।६२६६॥५६४८।५०६८।N४७०६।४६३३।। शीघ्रफलज्या =४५.६५४५६५४२५७३५-६०॥२४०७ll८३५॥ शीफ =२२१.६।।२२°५२०°.८lu१७९.३।११.५।।३°.।। exशीफ =२०३४२०२५॥१८७२॥१५५७१०३५३५८२।। आचार्यपिण्डाः =३३।६६६८|१२८|१५४|२७७१६४॥ मत्साधिताः =३३। ६६।४६।१२७।१५४।१७६।१६४ अचार्यपिण्डाः =२०४२०४|१८८|१५७|१०७३६०॥ मत्साधिता: =-२०३।२०३।१८७।१५६।१०४।३६०॥ अब बुध पिण्डों को कहते हैं । हि- भा.--बुध के क्रम से चतुर्दश (१४) पिण्ड= ३३६६८१२८१५४१७७॥ १e४२०४।२०४१८८।१५७१०७०। यहां सबसे बड़ा पिण्ड= २०४ को नौ (७) से भाग देने पर परमशीत्रफ=२० ४ =२२°४०, इसकी अन्त्यफलज्या=४६ ।४। खार्कीमित (१२०) व्यासावं में । उपपत्ति । भमपिण्ड साघन की तरह- =२७४०५३४०७७०० ००४६००।११०००/११८००॥ ११६॥२०॥ केन्द्र कोटिज्या =११६।२०।।१०७००e २००७१२०४७।२०।२११००॥ ७०७ अन्य फलज्या =४६४॥।४६।४।४६।४।।४६।४।४।।४६४४६४ । स्पष्ट कोटि =१६२।२४।१५३।४।१३८४।११०।२४।६३।२४६७४ । ३६॥४॥ १५८० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते शीघ्रकर्ण =६८८४॥e७३२॥e४८५।६०&&।८६५४८१४४७५३४। शीघ्रफज्या =७७३॥१५५३३।२२४४२६.१६।३५.१३।।४०°५४३७८। शत्रफल =३°७७°.३।।१०.७।।१४.८।१७९६१७°५२२१९.५ exशीफ =३३+३।।६५.७lue६°३१२६७२॥१५३५४१७५६८ । १६३५॥ = ११४।४०.१०४००८७००॥६५॥४०॥४१००।।१४।००॥ । केन्द्रकोटिज्या = ३४२०६०००।-२००१००००।११३००११ ११८४०॥ अन्त्यफलज्या =४६४४६।४।४६।४।।४६।४।।४६।४।४६।४।। = ११।४४॥१३५६।३५।५६५३५६।।६६।५६।७२।३६ शीक = ६८६६६२६६ ६२६६५६४८५०६८।।४७०६४६३। शीत्रफलज्या =४५६५४५६५॥।४२५७॥३५-६०॥२४७८३५।। शीफ = २२९.६।।२२५।२०°-८।१७°३।११°५॥३°e८। €x शीफ = २०३५४ ४२०५२ ५२१८७°२।।१५५७१०३५३५८२ ॥ आचार्यपिण्ड =३३।६६।८।१२८।१५४।२७७॥१६४॥ मैरे से साधितपिण्ड= ३ ३।६६।४६१२७१५४।१७६।१e४॥ आचार्यों का पिण्ड=२०४।२०४१८८१५७१०७३६०। मेरा पिण्ड =२०३।२०३१८७१५६१०४३६० इदानीं गुरोः पिण्डानाह । धृतिरसगुणाश्च खशराः षट्करसा गजनगा रसाधु च। खाश्च भुजगवसवः सागरवसवः समुद्भनगाः ॥ ५१ ॥ भुजगशरा रसरामा रसेन्दवः पिण्डकः सूरेः । चक्राद्विशुद्धशेषः स्फुटो भवेत् सहिकास्नुः ॥ ५२ ॥ सु. भाः--गुरोः क्रमेण चतुर्दशपिण्डाः=१८३६५०६६७८८६६०l८८ ८४I७४५८३६।१६०। अत्र महत्तमपिण्डो ६० नवभक्तः परमं शीघ्रफलम् =१०° अस्य ज्यान्यफलज्या= २१ खार्कमिते व्यासाचें । गगनेन नवचन्द्र रित्यादि ३१ श्लोकविधिना यः पातः स चक्राद्विशुद्धः शेषः सिंहिकांसून् राहुः स्फुटो भवे दिति । अस्योपपत्तिः । भौमपिण्डसाधन वदत्रापि ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५८१ केन्द्रज्या =२७४०५३४०lt७७l००me६००॥११०००:११८l००॥ ११६।२०।। केन्द्रकोटिज्या= ११६२०।१०७l००४२००lu७१॥२०॥४७l२०२१००॥ ७००।। अन्त्यफलज्या =२१००|।२१००।।२१००|२१००२१००२१००॥ २१००॥ स्पको = १३७।२०।१२८l००।।११३।७०।।२२०।६८२०।।४२।००१४००॥ शक ==१४०६/।८३२८।८२०४७९६२७७७oul७५१५७२१०॥ =४-१५॥८१२११८२१५-१३॥१७ ८३।१७८।।२०८३॥ = १६७३८७५६२।७२०ll८४८६४२॥६-६२॥ &xशीफ =१७७३।।३४ ८३५०५८।।६४८०।।७६३२८४‘७८।।८६-२८॥ केन्द्रज्या =११४।४०।।१०४I००८७००।।६५।४०।।४१।००।।१४।००ll केन्द्रकोटिज्या=३४I२०६०l००८२००१००००।११३।७०।११८।४०। अन्त्यफलज्या =२१००२१०० ।।२१००२१००l२१००२१००॥ स्पको = १३।२०।३६००६१।००७t•p&२००lle७४०॥ शीक ==६९०७६६६४॥६३७५॥६१६४॥६०४४॥५६२०॥ शीफज्या =२०६५॥।१६०६७।१७१८।।१३४२।।८५३।२८ शीफ &&२६°३७८१८६°३५।४०७ll१-४२॥ &xशीफ == ८६-२८८४°३३।।७३-६२५७१५॥३६६३।।१२७८॥ आचार्येषिण्डाः= १८३६l५०६६।७८।८६९०। मत्साधिताः =१८I३५।५१।६५।७६।८५८६। आचार्यपिण्डाः =८।८४I७४५८।३६।१६०।। मत्साधिताः = ८६८४I७४५७।३७।१३०॥ । अब गुरु के पिण्ड को कहते हैं । हि. भा.-गुरु के क्रम से चतुर्दश (१४) पिण्ड=१८३६५०॥६६॥७८८६॥४०॥ ८८।[४७४१५८।३६१६०यहां सबसे बड़ा पिण्ड= &०” १=१०°= शीघ्रफलपरम १५८२ ब्राह्मस्फटसिद्धान्ते इसकी ज्या अन्त्यफलज्या (१२०) व्यासार्ध में = २१ । ‘भगनेत नवचन्द्रेः’ इत्यादि लोक से जो पात (राहु) कहा गया है, उसको १२ में घटाने से स्पष्ट राहु होता हैं । उपपति । भमपिण्ड साधन की तरह यह भी केन्द्रज्या = २७४०।५३।४०७७०६००।११०००।११८००॥ ११६२०॥ केन्द्रकोटिज्या = ११६२०॥१०७I००६२ २००७१२०४७॥२०॥२१००।। ७००॥ अन्त्यफलज्या =२१००२१००२१००२१००२१००२१००॥ २१००॥ स्पको =१३७२०।१२८००११३।७०।६२।२०६८।२०।।४२।००।। १४००॥ = ८४०६/८३२८८२०४७९६२II७७७०७५१५॥७२१०। शक शीफज्या =४१५॥८'१२११ ८२१५-१३।।१७८३॥१७-७८२०-८३।। =१६७३°८७५६२७°२०८४८।६-४२६२९।। ex शीफ =१७७३३४८३।५०५८I६४ ६४८०७६*३२८४७८॥ ८९२६॥ केन्द्रज्या =११४४e॥१०४००६७१०० ।६५।४०४१००॥१४०॥ केन्द्रकोटिज्या =३४२०६०।०१८२।००।१००।०१११३।००।११८।४०।। अन्त्यफलज्या ==२१००।२१।०१२१००॥२१००२१००२१००॥ स्पकोटि = १३।२०।३el००।६१।००II७६००/&२००६७।४०।। =६६०७"६६६४६३७५६१६४॥६०४४५७२०।। शीफज्या =२०८५॥१e६७॥१७१८१३४२८५३२८ = &&२॥६-३७८१८६-३५॥४७१-४२॥ ex शीफ =८७२८८४°३३७३६२५७१५॥३६९६३।१२७८।। आचार्यों का पिण्ड=१८॥३६॥५०॥६६॥७८॥८६॥६०॥ अनुवादककापिण्ड=१८३५I५१।६५।७६८५।८।। आचार्यों का पिण्ड=८८८४७४५८५८३६१६० अनुवादककापिण्ड= ८६।८४।७४।५७३७१३०॥ = ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५८३ इदानीं शुक्रपिंडानाह । खशराः शतं खतिथ्यः सागरनन्देन्दवो ऽजिनाः । गुणगुणरमाः कुनगगुणः शून्यखाम्बुधयः ॥ ५३ ॥ कुञ्जरचन्द्रसमुद्रा गजाभ्रवेदा नभोऽम्बुधिज्वलनाः। गगनशिलीमुख चन्द्रावियव पिण्डाः सुरारिगुरोः ।। ५४ ।' सु. भा.-शुक्रस्य क्रमेण चतुर्दशपिण्डाः ५०१००।१५०।१&&u२४६२६० ३३३३७१।४००॥४१८।४०८३४०/१५०० । अत्र महत्तमपिण्डो ४१८ नवभक्तः परमफलम्=***=४६°२६'४०"। अस्य ज्या अन्त्यफलज्या =८६।४१। खार्कमि- तळ्यासाधु । भौमपिण्डसाधनवदत्रापि । केन्द्रज्या =२७।४०।५३।४०|।७७l००m&६००।११०००॥११८०० ।। ११६२० ॥ केन्द्रकोटिज्या = ११६२०१०७l००l&२००७१॥२०॥४७२०।२१००॥ ७०० अन्त्यफलज्या =-८६।४१।८६।४१।८६।४१।८६।४१।८६।४१८६।४१॥ । ८६।४१।। स्पको =२०३।१।१९३।४१।१७८।४१।११८।१।।१३४१। १०७॥४१॥७॥४१॥ शीक =१२२६४॥१२०६०११६७४।११०६४॥१०४०२६५८५॥ ८६०।। शीफज्या = १०७०।२३१३।३४३०४५००l५५००६४०२ ७२०८।। शीफ 4-.५.१७lu११९.७७१६१६६।२२°. ०२७.३७। ३२६.३७|३७११०॥ exशीफ =५०१३ee-६३।।१४.८५।१६८en२४६३३॥२६१३३।। ३३३ १. खशराः शतं खतिथ्यस्तथाङ्कनन्देन्दवोऽङ्गजिनाः। खाङ्कयमाः सुररामाःकुनगगुणः शून्यखाम्बुधयः ॥५३॥ । २:ः कुञ्जरचन्द्रसमुद्र गजाश्ववेदा नभो ऽम्बुधिज्वलनाः गंगनशिलीमुखचन्द्रा वियच्चपिण्डाः सुरारिगुरोः । ५४ १५८४ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते केन्द्रज्या =११४।४०।१०४।००ll८७l००।६५।४०।।४१००।१४।०० ।। केन्द्रकोटिज्या==३४।२०।६०००८८२००१००००।११३।००॥ ११८I४०॥ अन्त्यफलज्या =८६४१।८६।४१।।८६४१।।८६।४१८६।४१।८६४१।। स्पको =५२२१।२६।४१।।४।४१।१३१।।२६१८३१५ =७५४४६४४२।५२२७४०५१।२२३।२०६५ शोफज्या =७८८२८३६५।८६६५८४२५।।७२e५३४-७५॥ =४१°२२४४१.६२।४६°:४३॥४४.८३॥३७°.६२॥ ६११.८७। exशोफ =३७०६६।४०१.५८।।४१७८ell४०३°४७३३८५८॥ १५१५८३।। आचार्यपिण्डाः==५०१००|१५०१६६२४६॥२६०॥३३३।। मत्साधिताः =५०१००।१५०।१६६।२४६२९१३३४॥ आचार्यपिण्डाः=३७१I४००४१८४०८३४०॥१५०l०।। भत्साधिताः =३७१४०२४१८४०४॥३३६१२० यथा महदन्तरं न भवेत्तथाऽऽदर्शायें मया शोधिते षष्ठपिण्डखुटिश्च पूर्ण कृतेति ।५३-५४॥ अब शुक्रपिण्ड को कहते हैं। हि- भा.यहां मूलोक्त शुक्र के क्रम से चतुर्दश (१४) पिण्ड इस प्रकार है । ५०१००।१५०।१६२४६२०३३३३७१।४००॥४१८।४०८।३४०।१५०१०।। यहां सबसे बड़ा पिण्ड=४१।
- ?& =४६°२६°४०" = परमफल। इसकी ज्या (१२०) व्यासार्ध में ८६४१ ॥
अन्त्यफलज्या । उपपति । भौमपिण्ड साधन की तरह यहां— =२७४०।५३।४।।७७००॥&६००।११० ०००।११८००।। ११२० केन्द्र कोटिज्या =१६६२०।।१००००४२००७१२०४७।२०।२१।७०। ७००|| ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५८५ अन्यफलज्या = ८६४१८६।४१।८६।४१।८६।४१८६।४१।८६।४१ ।। ८६४१। * स्पको =२०३।१।१६३।४१।१७८।४१।१५८।१।१३४।१।१०७।४१॥ ७६४१ ॥ =१२२६४॥१२०६०॥११६७४।११०६४॥१०४०२॥६५८५। ८६० ।। फज्या =१०७० ७०२३.१३।३४-३०॥४५+१००॥५५००६४-२॥ ६२५८।। शीफ =५°५७॥११°-७॥१६-६५॥१११०२७°२३६।।३२°-७॥ ३७°२१०।। = ५०*१३।।&&६३।१४६५८५॥१६८eu२४६३३।२६१ ३३।। ३३३.३॥ = ११४N४०।१०४।० ०८७l००६५।४०।४१।००॥१४००॥ केन्द्रज्या केन्द्रकोटिज्या =३४।२०६०/००८२००१०००० ।११३०० ।११८४०॥ अन्त्यफलज्या = ८६४१।८६।४१८६४१।।८६४१८६।४१।८६।४१। स्पको = ५२।२१।२६।४१।४।४१।।१३।१६।।२६।१६।।३१।५६। = ७५४४६४४२५२२७४०५१।२२३।२०६५॥ शफज्या ७८८२८३.५८६६५८४-२५I७२.५३४ ७५॥ शी फ =४१°२२॥४४.६२॥४६°४४॥४३°८३३७°*६२१६८७ ९x शीफ = ३७०*६८४०१५८।।४१७८७४३८४७॥३३८.५८ ॥ १५१८३।। आचार्य का पिण्ड=५०१००।१५०११६२४६॥२६०३३३॥ संशोधक का पिण्ड=५०१००१५०।१९६।२४६२६१।३३४॥ आचार्यों का पिण्ड= ३७१४००४१८४०८।३४०१५०० संशोधक का पिण्ड=३७१।४०२।४१८४०¥।३३।१५२।० ॥ जिस तरह अधिक अन्तर न हो उस तरह मैने मूलोक्त आय का संशोधन कर छठेपिण्ड को पूरा क्रिया है । इदानीं शनिपिण्डानाह । रुद्रा द्वियमः कुगुणा वसुरामः सागराम्बुनिधयश्च । वसुवेदा गजवेदाः षडब्धयो लोचनाम्बुधयः ॥ ५५ ॥ पंचगुणा सप्तयमा रसचन्द्राः षड् नभश्च रबिसूनोः ॥ ॥ ५५३ ॥ १५८६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते सु. भा–शनैः क्रमेण चतुर्दशपिण्डाः=११।२२।३१३८४४४८४६४२।। ३५।२७१६।६०।अत्र महत्तमपिण्डो ४८ नवभक्तः परमं शीघ्रफल ==५°। २०'। अस्य ज्यान्त्यफलज्या=१११२ खर्कमिते व्यासाचें । अत्रोपपत्तिः भौमपिण्डसाधनवदत्रापि केन्द्रज्या =२७।४०।।५३।४०७७l००me६०० ool११००० ००u११८००| । ११६२०।। केन्द्रकोटिज्या=-११६।२०।।१०७l००४२००||७१|२०||४७२०२१००। ७l००।। अन्त्यफलज्या =१११२।११।१२।११।१२।११।१२।१११२॥११॥१२॥ १११२॥ स्पको = १२७।३२।११८।१२।।१०३।१२।।८२।३२।।५८।३२३२१२॥ । ४१२ शक =७८३०||७७८e७७२५७५e६।७४७६७३३६७१६५॥ शीफज्या ==२७३।॥४९६० ६०l६७ol८४८६८८।।१०८०११२०॥ =१°१३२°१८।३°१८४९.०३।।४१.७०..१२ ५°-३३॥ &xशीफ = १०१७॥१६६२२८६२३६२७ll४२३०४६०८। ४७६०॥ कॅन्द्रज्या = ११४|४०।१०४coll७lool६५४०४१lool१४००) केन्द्रकोटिज्या=३४२०६०००ll८२००१००००।११३।७०।। ११८४० अन्त्यफलज्या = १११२॥१११११११११११११११११११२॥ स्पको =२३let४८४८।।७०४८ll८८।४८।१०१।४८।।१०७।२८।। =&&&&l६८६३।६७३१६६२७६५e५६५०३॥ शीफज्या =१०६७ll१०१३८६८I६६५ ६५४२०॥१४३॥ =५°-२२४°.८३।४९.१३॥३°१७२°०००°.६८॥ ९xशीफ =४६.६८I४३.४gl३७ ३७९१७२८५३।१८००६५१२ ॥ आचार्येपिण्डाः=११२२३१।२८।४४४८४८ । ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५८७ मत्साधिताः =१०२०।२६।३६।४२।४६।४८।। आचार्येपिण्डाः=४६।४२।३५।२७१६६००।। जत्साधिताः =४७४३।३७२&|१८६०० ॥ पिण्डमानमिति साधितं मत्रा शीघ्रकर्णवशतः पराख्यया । जीवया लघुफलस्य विद्वरैश्चिन्तनीयमखिलं च चिद्वरैः ।५५३॥ अब शनिपिण्डों को कहते हैं। हि. भा.-शनि के क्रम से चतुर्दश (१४) पिण्ड =११।२२।३१३८४४४८४८ ४६४२।३५।२७१६।६०।। यहाँ सबसे बड़ा पिण्ड=४८॥*E =शीव्रफल=५°२०'। इसकी ज्या अन्त्यफलज्या =११यह ११ अन्त्यफलज्या १२० व्यासार्ध में होता है । उपपत्ति ॥ भोमपिण्ड साधन की तरह यहां भी =२७४०।५३।४०१७७००।६६।७०।११०००।११०७ ॥ ११६२० कैन्द्रकोटिज्या =११६२०।१०७००|&२००७ &।२०४७-२०।२१००॥ । ७०० अन्त्यज्याफलज्या । ==११।१२१११२११११२॥११॥१२॥११११२११।१२॥ ११११२॥ =१२७।३२।११८।१२।१०३।१२।८२।३२।५८।३२३२१२॥ ४११२॥ =७८३०७७८७७२५॥७५६६७४७६।७३३७१६५ शोफज्या = २३७॥४-६०॥६७०८४८॥६-८८१०८०॥११२० शोफ =१°१३२°१८३°१८४°३॥४°-७०५°१२५°३३॥ exशफ' = १०' १७।१९६२२८.६२।३६'२७४२'३०४६०८४७२६७ केन्द्रज्या =.११४४०॥१० ई००८७०० ००६५ ६५४०४१।००।१४।०१। केन्द्रकोज्या = ३४२०।।६०००।८२।०० १००००।११३।७०।११८४०॥ प्रत्यफलज्य =११।१२११।१२।।११।१२।११।१२।११।१२।।१११२ १५८८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते =२३।८।४८।४८।७०।४८।८८।४८।१०१।४८।१०७।२८। ==६६६६८ &३॥६७३१॥६६२७॥६४८५।६५०३। शीफज्या =१०•बृ७१०-१३।।८६८।६६५४२०॥१-४३। शीफ =५°-२२॥४° .८ ३४°१३॥३-१७।२°५०००० -६८॥ । xशीफ = ४३६८।।४३-४७॥३७१७२८५३॥१८००६१२॥ आचार्य का पिण्ड=११ । २२ । ३१ । ३८ । ४ । ४८ । ४८ संशोधक का पिण्ड= १० । २० । २४ । ३६ । ४२ । ४६ । ४८ आचार्य का पिण्ड =४६ । ४२ । ३५ । २७ । १६ । ६ । ०० संशोधक का पिण्ड=४७ । ४३ । ३७ । २ । १८ । ६ । ७० ।। इदानीं भौमादीनां मध्यगतीमृदुगतिफलानि चाह । रूपगुणा ३१ बाणजिनाः २४५ शर ५ षण्णव ६५ यम २ गुणाः ३ मशः ॥ ५६ ॥ मध्यमभुक्तिकलाः स्युः षड् द्वि २६ रवाः ३२ खंवसु ८ शका ११ विकलाः । मन्दगुणिता भुक्तिः खखनवविहृता भुक्तिः स्यात् ।। ५७ ।' ग्रहवत् तन्मन्वंफलं मृदुकेन्द्रवशात् स्वमृणं तदूनां च ।। ५७३ ॥ सु. भा.-भौमादीनां मध्यमागतिकलाः क्रमेण भ ३१ बुशी २४५गुए। शुशी &६। श २। रा ३। कलानामध एता विकलाश्च भ २६ खुशी ३२/ गु०। शुशी ८ ।श०। रा ११ ।। भुक्तिभमादीनां मृदुकेन्द्रगतिर्मन्दोच्चानामत्यल्पगतित्वादुग्रह- मध्यगतिरेव मन्दविगुणिता मन्दभोग्यखण्डेन विगुणिता खखनवो ६०० द्धता फलमद्यतनश्वस्तन मन्दकेन्द्रज्ययोरन्तरं स्यात् । इदमन्तरमेव केन्द्रज्यां प्रकल्प्य ग्रहवत् ३८-३६ सूत्रतस्तन्मन्दफलं साध्यं तच्च भुक्तेः फलं मृदुगतिफलं भवति । तच्च स्वमृदुकेन्द्रवशात् कुलीरादौ केन्द्र घनं मकरादावृणं कार्यं मध्यमगतौ । एवं मन्दस्पष्टा गतिः स्यात् । तदूनां शीघ्रगतिं शीघ्रोच्चगतिमित्यग्र सम्बन्वः । अत्रोपपत्तिः । खमन्दगतिफलसाधनवत् स्फुटा ५६-५७॥ १. मन्दविगुणिता भुक्तिः खखनविहृता स्वभुक्त स्यात् ॥|५७॥ पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/५०० पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/५०१ पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/५०२ पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/५०३ पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/५०४ पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/५०५ पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/५०६ 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- ↑ यंखा=१२ । गना=३० । तना=६० । तेना=६० द्वितीयार्यभट्कृत महासिद्धान्त में इसी तरह केरलमतानुसारी सब जगह संस्थानों के पाठ हैं ।