१५९२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ६ ५ ५० =¥ ई । द्विखं=हैं। तृखं ° । आचार्यों ने स्वीकार किया है। भारकराचार्य ने ५ई, ६४ इन दोनों के क्रम से १०, ८ को ग्रहण किया है । इसलिये "दिग् नाग सयंशगुणैविनिघ्नीपलप्रभे’ इत्यादि में कहा गया है । उपरोक्त चरखण्ड को अपने-अपने देश की पलभा से गुणने पर अपने-अपने देश का चरखण्ड होता है । इसकी उपपति स्पष्ट ही है । ज्याः केन्द्र स्फुटभानु' कृत्वा ये राशयश्चरार्धानि । भुक्तानि भोग्यगुणिता च्छेषाद् खखषुतिहुतात् तु फलम् ॥ ६२ ॥ सु. भा—स्फुटभानु केन्द्र कृत्वा तस्य तस्य सृजः साध्यस्तत्र चर।र्धानि ज्या ज्या खण्डानि प्रकल्प्य केन्द्रभुजे ये राशयस्तन्मितानि भुक्तानि ज्याखण्डानि भवन्ति । शेषात् केन्द्रभुजशेषकलामानाद्भोग्यचरखण्डगुणात् खखषंति १८०० हृतात् फलं च गतचरखण्डयोगे क्षेप्यमेवमभीष्टपलात्मक चरमानं भवेत् । अत्रो पपत्तिस्त्रं राशिकेन स्फुटा ।६२।। पलात्मक चरमान को कहते हैं । हि. भा–स्पष्टसूर्य का केन्द्र को भुज बना लें, वहां चरखण्डज्या को ज्या खण्ड कल्पना करें । केन्द्र भुज में जितनी राशियां हों उनके तुल्य व्यतीत ज्याखण्ड होते हैं । भुज शेषकला के मान से भोग्य चरखण्ड से गुणा करेंउसमें खख धृति (१८००) से भाग दें, फल को गत चरखण्ड योग में जोड़ दें तो अभीष्ट पलात्मक चरमान होता है । उपपति । यहां चरानयन की उपपत्ति बैराशिक गणित द्वारा स्पष्ट ही है । गतिपावं पादोनां गीत विशोध्यास्तकाल उदये च। संसाधितस्य तस्य ग्रहस्य चरकर्म चान्यस्य ॥ ६३ ॥ सु. भा-निशीयकालिकग्रहे गतिचतुर्थाशं चतुर्थाशोनां गत च विशोध्य क्रमेणस्तकाले उदये च ग्रहो भवति । एवं तस्य रवेर्वाऽन्यस्य ग्रहस्य संसाधितस्य मध्ये चरकमे कार्यम् अस्ते उदये वा ग्रहे चरकर्म देयं न दिनाघं निशीथे चेति स्फुटं सिद्धान्तविदामिति ।।६३।। हि. भा-निशीथ कालिक ग्रह में गति का चौथे भाग और चौथा भाग से हीन गति को घटाने पर क्रम से प्रस्तकाल तथा उदयकाल में ग्रह होता है । जैसे-निशीथ
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