ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५६३ कालिक ग्रह में गति का चतुर्थांश घटाने से अस्तकालिक एवं चतुर्थांश भाग से हीनगति को निशीथकालिक ग्रह में घटाने से शेष उदयकालिक ग्रह होता है । इस तरह साधित ग्रहों के मध्य में चरकर्म करना चाहिये । उदयकाल या अस्तकाल में ग्रह में चरकर्म करना चाहिये । दिनार्ध और राज्यघं में चरकर्म नहीं करना चाहिये, यह बांत सिद्धान्त वेत्त | स्पष्ट रूप से जानते ही हैं । चरदलविनाडिकागतिकलावधात् खखरसाग्नि ३६०० लब्धकलाः । ऋणमुदयेऽस्तमये धनमुत्तरगोले ऽन्यथा याम्ये ॥ ६४ ॥ । सु० भा०-स्पष्टार्थम् । उपपत्तिश्च ‘चरघ्नभुक्तिषु निशासु भक्ततेत्यादिना भास्करोक्तन स्फुटा ।।६४। हि. भा.-चरदल घटी और गतिकला के गुणनफल में खखरसारित (३६००) से भाग हैं । फल कलात्मक होगा । उत्तर गोल में सूर्य हो तो उस फल कला को उदयकाल में ऋण और अस्तकाल में धन करना चाहिये । याम्य गोल में सूर्य हो तो फलकला को उदय- काल में धन और अस्तकाल में ऋण करना चाहिये। पंचदश हीनयुक्ताश्चरार्थनाडीभिरुत्तरे गोले । याम्ये युक्तविहीना द्विसङ्गणा रात्रिदिननाडघः ६५ सु. भा–स्पष्टार्थेन । उपपत्तिश्च ‘चरघटीसहिता रहित क्रमात् तिथि मिता घटिका खलु गोलयोरि' त्यादिना भास्करविधिना स्फुटा ॥६५॥ हि- भा.–पञ्चदश (१५) से युत चरघटी उत्तर गोल में दिनार्ध होता है । पञ्चदश (१५) से हीन चरघटी रायचं होता है । दक्षिण गोल में पञ्चदश (१५) से युत चरघटी रायचं तथा (१५) से हीन चरघटी दिनार्ध होता है । दिनार्वे और रायर्षों को दूना करने से दिनमान और रात्रिमान होता है । उपपति । वरधी सहिता रहिता क्रमात् तिथिमिता घटिका खलु गोलयोरित्यादि भास्करोक्त श्लोक की उपपत्ति से स्पष्ट ही है । मिष्टान्तरगुणिता भुक्तिदवसे निशादले प्रथमे । घट्टधा विभज्य लब्धं विशोष्य तात्कालिको भवति ॥ ६६ ॥ सु. भा.–दिवसे दिनेष्टकाले वा प्रथमे निशादले निशीथतोऽर्वाक् चेष्ट
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