सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-02-सभापर्व-089

विकिस्रोतः तः
← सभापर्व-088 महाभारतम्
द्वितीयपर्व
महाभारतम्-02-सभापर्व-089
वेदव्यासः
सभापर्व-090 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103

दुश्शासनेन द्रौपद्याः सभां प्रत्यानयनम्।। 1।। द्रौपद्या सभ्यान्प्रति प्रश्नः।। 2।।

दुर्योधन उवाच।। 2-89-1x
एहि क्षत्तर्द्रौपदीमानस्व
प्रियां भार्यां संमतां पाण्डवानाम्।
संमार्जतां वेश्म परैतु शीघ्रं
तत्रास्तु दासीभिरपुण्यशीला।।
2-89-1a
2-89-1b
2-89-1c
2-89-1d
विदुर उवाच।। 2-89-2x
दर्विभाषं भाषितं त्वादृशेन
न मन्द सम्बुद्ध्यसि पाशबद्धः।
प्रपाते त्वं लम्बमानो न वेत्सि
व्याघ्रान्मृगः कोपयसेऽतिवेलम्।।
2-89-2a
2-89-2b
2-89-2c
2-89-2d
आशीविषास्ते शिरसि पूर्णकोपा महाविषाः।
मा कोपिष्ठाः सुमन्दात्मन्मा गमस्त्वं यमक्षयम्।।
2-89-3a
2-89-3b
न हि दासीत्वमापन्ना कृष्णा भवितुमर्हति।
जनीशेन हि राज्ञैषा पणे न्यस्तेति मे मतिः।।
2-89-4a
2-89-4b
अयं दत्ते वेणुरिवात्मघाती
फलं राजा धृतराष्ट्रस्य पुत्रः।
द्यूतं हि वैराय महाभयाय
मत्तो न बुध्यत्ययमन्तकालम्।।
2-89-5a
2-89-5b
2-89-5c
2-89-5d
नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी
न हीनताः परमभ्याददीत।
ययास्य वाचा पर उद्विजेत
न तां वदेदुशती पापलोक्याम्।।
2-89-6a
2-89-6b
2-89-6c
2-89-6d
समुच्चरन्त्यतिवादाश्च वक्त्रा-
ध्यौराहतः शोचति रात्र्यहानि।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति
तान्पण्डितो नावसृजेत्परेषु।।
2-89-7a
2-89-7b
2-89-7c
2-89-7d
अजो हि शस्त्रमगिलत्किलैकः
शस्त्रे विपन्ने शिरसास्य भूमौ।
निकृन्तनं स्वस्य कण्ठस्य घोरं
तद्वद्वेरं मा कृथाः पाण्डुपुत्रैः।।
2-89-8a
2-89-8b
2-89-8c
2-89-8d
न किञ्चिदित्थं प्रवदन्ति पार्था
वनेचरं वा गृहमेधिनं वा।
तपस्विनं वा परिपूर्णविद्यं
भषन्ति हैवं श्वनराः सदैव।।
2-89-9a
2-89-9b
2-89-9c
2-89-9d
द्वारं सुघोरं नरकस्य जिह्यं
न बुध्यते धृतराष्ट्रस्य पुत्रः।
तमन्वेतारो बहवः कुरूणां
द्यूतोदये सह दुःशासनेन।।
2-89-10a
2-89-10b
2-89-10c
2-89-10d
मज्जन्त्यलाबूनि शिलाः प्लवन्ते
मुह्यन्ति नावोम्भसि शश्वदेव।
मूढो राजा धृतराष्ट्रस्य पुत्रो
न मे वाचः पथ्यरूपाः शृणोति।।
2-89-11a
2-89-11b
2-89-11c
2-89-11d
अन्तो नूं भवितायं करूणां
सुदारुणः सर्वहरो विनाशः।
वाचः काव्याः सुहृदां पथ्यरूपा
न श्रूयन्ते वर्धते लोभ एव।।
2-89-12a
2-89-12b
2-89-12c
2-89-12d
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-13x
धिगस्तु क्षत्तारमिति ब्रुवाणो
दर्पेण मत्तो धृतराष्ट्रस्य पुत्रः।
अवैक्षत प्रातिकामीं सभाया-
मुवाच चैनं परमार्यमध्ये।।
2-89-13a
2-89-13b
2-89-13c
2-89-13d
दुर्योधन उवाच।। 2-89-14x
त्वं प्रातिकामिन्द्रौपदीमानयस्व
न ते भयं विद्यते पाण्डवेभ्यः।
क्षत्ता ह्ययं विवदत्येव भीतो
न चास्माकं वृद्धिकामः सदैव।।
2-89-14a
2-89-14b
2-89-14c
2-89-14d
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-15x
एवमुक्तः प्रातिकामी स सूतः
प्रायाच्छीघ्रं राजवचो निशम्य।
प्रविश्य च श्वेव हि सिंहगेष्ठं
समासदन्महिषीं पाण्डवानाम्।।
2-89-15a
2-89-15b
2-89-15c
2-89-15d
प्रातिकाम्युवाच। 2-89-16x
युधिष्ठिरो द्यूतमदेन मत्तो
दुर्योधनो द्रौपदि त्वामजैषीत्।
सा त्वं प्रपद्यस्व धृतराष्ट्रस्य वेश्म
नयामि त्वां कर्मणि याज्ञसेनि।।
2-89-16a
2-89-16b
2-89-16c
2-89-16d
द्रौपद्युवाच।। 2-89-17x
कथं त्वेवं वदसि प्रातिकामि-
को हि दीव्येद्भार्यया राजपुत्रः।
मूडो राजा द्यूतमदेन मत्तो
ह्यभून्नान्यत्कैतवमस्य किञ्चित्।।
2-89-17a
2-89-17b
2-89-17c
2-89-17d
प्रातिकाम्युवाच।। 2-89-18x
यदा नाभूत्कैतवमन्यदस्य
तदाऽदेवीत्पाण्डवोऽजातशत्रुः।
न्यस्ताः पूर्वं भ्रातरस्तेन राज्ञा
स्वयं चात्मा त्वमथो राजपुत्रि।।
2-89-18a
2-89-18b
2-89-18c
2-89-18d
द्रौपद्युवाच।। 2-89-19x
गच्छ त्वं कितवं गत्वा सभायां पृच्छ सूतज।
किं तु पूर्वं पराजैषीरात्मानमथवा नु माम्।।
2-89-19a
2-89-19b
एतज्ज्ञात्वा समागच्छ ततो मां नयं सूतज।
ज्ञात्वा चिकीर्षितमहं राज्ञो यास्यामि दुःखिता।।
2-89-20a
2-89-20b
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-21x
सभां गत्वा स चोवाच द्रौपद्यस्तद्वचस्तदा।
युधिष्ठिरं नरेनद्राणां मध्ये स्थितमिदं वचः।।
2-89-21a
2-89-21b
कस्येशो नः पराजैषीरिति त्वामाह द्रौपदी।
किं नु पूर्वं पराजैषीरात्मानमथवापि माम्।।
2-89-22a
2-89-22b
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-23x
युधिष्ठिरस्तु निश्चेता गतसत्व इवाभवत्।
न तं सूतं प्रत्युवाच वचनं साध्वसाधु वा।।
2-89-23a
2-89-23b
दुर्योधन उवाच।। 2-89-24x
इहैवागत्य पाञ्चाली प्रश्नमेनं प्रभाषताम्।
इहैव सर्वे शृण्वन्तु तस्याश्चैतस्य यद्वचः।।
2-89-24a
2-89-24b
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-25x
स गत्वा राजभवनं दुर्योधनवशानुगः।
उवाच द्रौपदीं सूतः प्रातिकामी व्यथन्निव।।
2-89-25a
2-89-25b
सभ्यास्त्वमी राजपुत्र्याह्वयन्ति
मन्ये प्राप्तः संशयः कौरवाणाम्।
न वै समृद्दिं पालयते लघीयान्
यस्त्वां सभां नेष्यति राजपुत्रि।।
2-89-26a
2-89-26b
2-89-26c
2-89-26d
द्रौपद्युवाच।। 2-89-27x
एवं नूनं व्यदधात्संविधाता
स्पर्शावुभौ स्पृशतो वृद्धबालौ।
धर्मं त्वेकं परमं प्राह लोके
स नः शमं धास्यति गोप्यमानः।।
2-89-27a
2-89-27b
2-89-27c
2-89-27d
सोऽयं धर्मो मा त्यगात्कौरवान्वै
सभ्यान्गत्वा पृच्छ धर्म्यं वचो मे।
ते मां ब्रूयुर्निश्चितं तत्करिष्ये
धर्मात्मानो नीतिमन्तो वरिष्ठाः।।
2-89-28a
2-89-28b
2-89-28c
2-89-28d
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-29x
श्रुत्वा सूतस्तद्वचो याज्ञसेन्याः
सभां गत्वा प्राह वाक्यं तदानीम्।
अधोमुखास्ते न च किञ्चिदूचु-
र्निर्बन्धं तं धार्तराष्ट्रस्य बुद्ध्वा।।
2-89-29a
2-89-29b
2-89-29c
2-89-29d
युधिष्ठिरस्तु तच्छ्रुत्वा दुर्योधनचिकीर्षितम्।
द्रौपद्याः संमतं दूतं प्राहिणोद्भरतर्षभ।।
2-89-30a
2-89-30b
एकवस्त्र त्वधोनीवो रोदमाना रजस्वला।
सभामागम्य पाञ्चालि श्वशुरस्याग्रतो भव।।
2-89-31a
2-89-31b
अथ त्वामागतां दृष्ट्वा राजपुत्रीं सभां तदा।
सभ्याः सर्वे विनिन्देरन्मनोर्भिर्धृतराष्ट्रजम्।।
2-89-32a
2-89-32b
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-33x
स गत्वा त्वरितं दूतः कृष्णाया भवनं नृप।
न्यवेदयन्मतं धीमान्धर्मराजस्य निश्चितम्।।
2-89-33a
2-89-33b
पाण्डवाश्च महात्मानो दीना दुःखसमन्विताः।
सत्येनातिपरीताङ्गा नोदीक्षन्ते स्म किञ्चन।।
2-89-34a
2-89-34b
ततस्त्वेषां मुखमालोक्य राजा
दुर्योधनः सूतमुवाच हृष्टः।
इहैवैतामानय प्रातिकामिन्
प्रत्यक्षमस्याः कुरवो ब्रुवन्तः।।
2-89-35a
2-89-35b
2-89-35c
2-89-35d
ततः सूतस्तस्य वशानुगामी
भीतश्च कोपाद्द्रुपदात्मजायाः।
विहाय मानं पुनरेव सभ्या-
नुवाच कृष्णां किमहं ब्रवीमि।।
2-89-36a
2-89-36b
2-89-36c
2-89-36d
दूर्योधन उवाच। 2-89-37x
दुःशासनैष मम सूतपुत्रो
वृकोदरादुद्विजतेऽल्पचेताः।
स्वयं प्रगृह्यानय याज्ञसेनीं
किं ते करिष्यन्त्यवशाः सपत्नाः।।
2-89-37a
2-89-37b
2-89-37c
2-89-37d
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-38x
ततः समुत्थाय स राजपुत्रः
श्रुत्वा भ्रातुः शासनं रक्तदृष्टिः।
प्रविश्य तद्वेश्म महारथाना-
मित्यब्रवीद्द्रौपदीं राजपुत्रीम्।।
2-89-38a
2-89-38b
2-89-38c
2-89-38d
एह्येहि पाञ्चालि राजपुत्रीम्।
दुर्योधनं पश्य विमुक्तलज्जा।
कुरून्भजस्वायतपत्रनेत्रे
धर्मेण लब्धाऽसि सभां परैहि।।
2-89-39a
2-89-39b
2-89-39c
2-89-39d
ततः समुत्थाय सुदूर्मनाः सा
विवर्णमामृज्य मुखं करेण।
आर्ता प्रदुद्राव यतः स्त्रियस्ता
वृद्धस्य राज्ञः कुरुपुङ्गवस्य।।
2-89-40a
2-89-40b
2-89-40c
2-89-40d
ततो जवेनाभिससार रोषा-
द्दुःशासनस्तामभिगर्जमानः।
दीर्घेषु नीलेष्वथ चोर्मिमत्सु
जग्राह केशेषु नरेन्द्रपत्नीम्।।
2-89-41a
2-89-41b
2-89-41c
2-89-41d
ये राजसूयावभृथे जलेन
महाक्रतौ मन्त्रपूतेन सिक्ताः।
ते पाण्डवानां परिभूय वीर्यं
बलात्प्रमृष्टा धृतराष्ट्रजेन ।।
2-89-42a
2-89-42b
2-89-42c
2-89-42d
स तां पराकृष्य सभासमीप-
मानीय कृष्णामतिदीर्घकेशीम्।
दुःशासनो नाथवतीमनाथव-
च्चकर्ष वायुः कदलीमिवार्ताम्।।
2-89-43a
2-89-43b
2-89-43c
2-89-43d
सा कृष्णमाणा नमिताङ्गयष्टिः
शनैरुवाचाथ रजस्वलाऽस्मि।
एकं च वासो मम मन्दबुद्धे
सभां नेतुं नार्हसि मामनार्य।।
2-89-44a
2-89-44b
2-89-44c
2-89-44d
ततोऽब्रवीत्तां प्रसभं निगृह्य
केशेशु कृष्णेषु तदा स कृष्णाम्।
कृष्णं च जिष्णुं च हरिं नरं च
त्रायाय विक्रोशति याज्ञसेनि।।
2-89-45a
2-89-45b
2-89-45c
2-89-45d
रजस्वला वा भव याज्ञसेनि
एकाम्बरा वाप्यथवा विवस्त्रा।
द्यूते जिता चासि कृताऽसि दासी
दासीषु वासश्च यथोपजोषम्।।
2-89-46a
2-89-46b
2-89-46c
2-89-46d
वैशम्पायन उवाच। 2-89-47x
प्रकीर्णकेशी पतितार्धवस्त्रा
दुःशासनेन व्यवधूयमाना।
हीमत्यमर्षेण च दह्यमाना
शनैरिदं वाक्यमुवाच कृष्णा।।
2-89-47a
2-89-47b
2-89-47c
2-89-47d
द्रौपद्युवाच। 2-89-48x
इमे समायामुपनीतशास्त्राः
क्रियावन्तः सर्व एवेन्द्रकल्पाः।
गुरुस्थाना गुरवश्चैव सर्वे
तेषामग्रे नोत्सहे स्थातुमेवम्।।
2-89-48a
2-89-48b
2-89-48c
2-89-48d
नशंसकर्मंस्त्वमनार्यवृत
मा मा विवस्त्रां कुरु मा विकार्षीः।
न मर्षयेयुस्तव राजपुत्राः
सेन्द्रापि देवा यदि ते सहायाः।।
2-89-49a
2-89-49b
2-89-49c
2-89-49d
धर्मे स्थितो धर्मसुतो महात्मा
धर्मश्च सूक्ष्मो निपुणोपलक्ष्यः।
वाचापि भर्तुः परमाणुमात्र-
मिच्छामि दोषं न गुणान्विसृज्य।।
2-89-50a
2-89-50b
2-89-50c
2-89-50d
इदं त्वकार्यं कुरुवीरमध्ये
रजस्वलां यत्परिकर्षसे माम्।
न चापि कश्चित्कुरुतेऽत्र कुत्सां
ध्रुवं तवेदं मतमभ्युपेतः।।
2-89-51a
2-89-51b
2-89-51c
2-89-51d
धिगस्तु नष्टः खलु भारतानां
धर्मस्तथा क्षत्रविदां च वृत्तम्।
यत्र ह्यतीतां कुरुधर्मवेलां
प्रेक्षन्ति सर्वे कुरवः सभायाम्।।
2-89-52a
2-89-52b
2-89-52c
2-89-52d
द्रोणस्य भीष्मस्य च नास्ति सत्त्वं
क्षत्तुस्तथैवास्य चनास्ति सत्त्वं
क्षत्तुस्तथैवास्य महात्मनोपि।
न लक्षयन्ति कुरुवृद्धमुख्याः।।
2-89-53a
2-89-53b
2-89-53c
2-89-53d
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-54x
तथा ब्रुवन्ती करुणं सुमध्यमा
भर्तॄन्कटाक्षैः कुपितानपश्यत्।
सा पाण्डवान्कोपपरीतदेहा-
न्सन्दीपयामास कटाक्षपातैः।।
2-89-54a
2-89-54b
2-89-54c
2-89-54d
हृतेन राज्येन तथा धनेन
रत्नैश्च मुख्यैर्न तथा बभूव।
यथा त्रपाकोपसमीरितेन
कृष्णाकटाक्षेण बभूव दुःखम्।।
2-89-55a
2-89-55b
2-89-55c
2-89-55d
दुःशासनश्चापि समीक्ष्य कृष्णा-
मवेक्षमाणां कृपणान्पतींस्तान्।
आधूय वेगेन विसञ्ज्ञकल्पा-
मुवाच दासीति हसन्सशब्दम्।।
2-89-56a
2-89-56b
2-89-56c
2-89-56d
कर्णस्तु तद्वाक्यमतीव हृष्टः
सम्पूजयामास हसन्सशब्दम्।
गान्धारराजः सुबलस्य पुत्र-
स्तथैव दुःशासनमभ्यनन्दत्।।
2-89-57a
2-89-57b
2-89-57c
2-89-57d
सभ्यास्तु ये तत्र बभूवुरन्ये
ताभ्यामृते धार्तराष्ट्रेण चैव।
तेषामभूद्दुः खमतीव कृष्णां
दृष्ट्वा सभायां परिकृष्यमाणाम्।।
2-89-58a
2-89-58b
2-89-58c
2-89-58d
भीष्म उवाच। 2-89-59x
न धर्मसौक्ष्म्यात्सुभगे विवेक्तुं
शक्रोमि ते प्रश्नमिमं यथावत्।
अस्वाम्यशक्तः पणितुं परस्वं
स्त्रियाश्च भर्तुर्वशतां समीक्ष्य।।
2-89-59a
2-89-59b
2-89-59c
2-89-59d
त्यजेत सर्वां पृथिवीं समृद्धां
युधिष्ठिरो धर्ममथो न जह्यात्।
उक्तं जितोऽस्मीति च पाण्डवेन
तस्मान्न शक्नोमि विवेक्तुमेतत्।।
2-89-60a
2-89-60b
2-89-60c
2-89-60d
द्व्यूतेऽद्वितीयः शकुनिर्नरेषु
कुन्तीसुतस्तेन निसृष्टकामः।
न मन्यते तां निकृतिं युधिष्ठिर-
स्तस्मान् ते प्रश्नमिमं ब्रवीमि।।
2-89-61a
2-89-61b
2-89-61c
2-89-61d
द्रौपद्युवाच। 2-89-61x
आहूय राजा कुशलैरनार्यै-
र्दुष्टात्मभिर्नैकृतिकैः सभायाम्।
द्यूतप्रियैर्नातिकृतप्रयत्नः
कस्मादयं नाम निसृष्टकामः।।
2-89-62a
2-89-62b
2-89-62c
2-89-62d
अशुद्धभावैर्निकृतिप्रवृत्तै-
रबुध्यमानः कुरुपाण्डवाग्र्यः।
सम्भूय सर्वैश्च जितोऽपि यस्मा-
त्पश्चादयं कैतवमभ्युपेतः।।
2-89-63a
2-89-63b
2-89-63c
2-89-63d
तिष्ठन्ति चेमे कुरवः सभाया-
मीशाः सुतानां च तथा स्नुपाणाम्।
समीक्ष्य सर्वे मम चापि वाक्यं
विब्रूत मे प्रश्नमिमं यथावत्।।
2-89-64a
2-89-64b
2-89-64c
2-89-64d
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा
न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम्।
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति
न तत्सत्यं यच्छलेनानुविद्धम्।।
2-89-65a
2-89-65b
2-89-65c
2-89-65d
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-66x
तथा ब्रुवन्तीं करुणं रुदन्ती-
मवेक्षमाणां कृपणान्पतींस्तान्।
दुःशासनः परुषाण्यप्रियाणि
वाक्यान्युवाचामधुराणि चैव।।
2-89-66a
2-89-66b
2-89-66c
2-89-66d
तां कृष्यमाणां च रजस्वलां च
स्रस्तोत्तरीयामतदर्हमाणाम्।
वृकोदरः प्रेक्ष्य युधिष्ठिरं च
चकार कोपं परमार्तरूपः।।
2-89-67a
2-89-67b
2-89-67c
2-89-67d
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
द्यूतपर्वणि एकोननवतितमोऽध्यायः।। 89।।

2-89-17 कैतवं कितवेभ्यो देयं धनम्।। 2-89-27 स्पर्शो सुखदुःखे वृद्धबालौ स्पृशतः प्राप्नुतः । शमं स्वास्थ्यम्।। 2-89-41 ऊर्मिमत्सु प्रवहन्नदीजलवन्निम्नोन्नतेषु ।। 2-89-49 सेन्द्रपि सेन्द्रा अपि।। 2-89-64 विब्रूत विस्पष्ट ब्रूत नतु भईष्मवत्सन्दिग्धमिति भावः।।

सभापर्व-088 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सभापर्व-090
"https://sa.wikisource.org/w/index.php?title=महाभारतम्-02-सभापर्व-089&oldid=50568" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्