महाभारतम्-02-सभापर्व-073
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व्यासम्प्रति युधिष्ठिरेण उत्पातफलप्रश्ने व्यासेन तत्कथनपूर्वकं कैलासगमनम ्।। 1।। व्यासोक्तं भ्रातृषु निवेद्य शोचतो युधिष्ठिरस्य अर्जुनेन समाश्वासनम्।। 2। । युधिष्ठिरेण समयकरणम्।। 3।।
वैशम्पायन उवाच।। | 2-73-1x |
`अनुसंसार्य नृपतीन्पाण्डवाः पाण्डवाग्रजम्। अभिजग्मुर्महेष्वासा धर्मराजं युधिष्ठिरम्।। | 2-73-1a 2-73-1b |
सोऽनुमेने महाबाहुर्भातॄंश्च सुहृदस्तथा'। शिष्यैः परिवृतो व्यासः पुरस्तात्समपद्यत।। | 2-73-2a 2-73-2b |
सोऽभ्ययादासनात्तूर्णं भ्रातृभिः परिवारितः। पाद्येनासनदानेन पितामहमपूजयत्।। | 2-73-3a 2-73-3b |
अथोपविश्य भगवान्काञ्चने परमासने। आस्यतामिति चोवाच धर्मराजं युधिष्ठिरम्।। | 2-73-4a 2-73-4b |
अथोपविष्टं राजानं भ्रातृभिः परिवारितम्। उवाच भगवान्व्यासस्तत्तद्वाक्यविशारदः।। | 2-73-5a 2-73-5b |
दिष्ट्या वर्धसि कौन्तेय साम्राज्यं प्राप्य दुर्लभम्। वर्धिताः कुरवः सर्वे त्वया कुरुकुलोद्वह।। | 2-73-6a 2-73-6b |
आपृच्छे त्वां गमिष्यामि पूजितोऽस्मि विशाम्पते। एवमुक्तः स कृष्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः।। | 2-73-7a 2-73-7b |
अभिवाद्योपसङ्गृह्य पितामहमथाब्रवीत्।। | 2-73-8a |
युधिष्ठिर उवाच। | 2-73-8x |
संशयो द्विपदां श्रेष्ठ ममोत्पन्नः सुदुर्लभः। तस्य नान्योऽस्ति वक्ता वै त्वामृते द्विजपुङ्गव।। | 2-73-9a 2-73-9b |
उत्पातांस्त्रिविधान्प्राह नारदो भगवानृषिः। दिव्यांश्चैवान्तरिक्षांश्च पार्थिवांश्च पितामह।। | 2-73-10a 2-73-10b |
`सुमहच्च फलं तेषां भवितेति न संशयः'। अपि चैद्यस्य पतनाच्छान्तमौत्पातिकं महत्।। | 2-73-11a 2-73-11b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-73-12x |
राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा पराशरसुतः प्रभुः। कृष्णद्वैपायनो व्यास इदं वचनमब्रवीत्।। | 2-73-12a 2-73-12b |
त्रयोदश समा राजन्नुत्पातानां फलं महत्। सर्वक्षत्रविनाशाय भविष्यति विशाम्पते।। | 2-73-13a 2-73-13b |
त्वामेकं कारणं कृत्वा कालेन भरतर्षभ। समेतं पार्थिवं क्षत्रं क्षयं यास्यति भारत। दुर्योधनापराधेन भीमार्जुनबलेन च।। | 2-73-14a 2-73-14b 2-73-14c |
स्वप्नं द्रक्ष्यसि राजेन्द्र तस्मिन्काल उपस्थिते। तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि तन्निबोध युधिष्ठिर।। | 2-73-15a 2-73-15b |
यान्तं द्रक्ष्यसि राजेन्द्र क्षपान्ते त्वं वृषध्वजम्। नीलकण्ठं भवं स्थाणुं कपालिं त्रिपुरान्तकम्।। | 2-73-16a 2-73-16b |
उग्रं रुद्रं पशुपतिं महादेवमुमापतिम्। हरं शर्वं वृषं शूलं पिनाकिं कृत्तिवाससम्।। | 2-73-17a 2-73-17b |
कैलासकूडप्रतिमे वृषभेऽवस्थितं शिवम्। निरीक्षमाणं सततं पितृराजाश्रितां दिशम्।। | 2-73-18a 2-73-18b |
एवमीदृशकं स्वप्नं द्रक्ष्यसि त्वं विशाम्पते। मा तत्कृते ह्यनुध्याहि कालो हि दुरतिक्रमः।। | 2-73-19a 2-73-19b |
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि कैलासं पर्वतं प्रति। अप्रमत्तः स्थितो दान्तः पृथिवीं परिपालय।। | 2-73-20a 2-73-20b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-73-21x |
एवमुक्त्वा स भगवान्कैलासं पर्वतं ययौ। कृष्णद्वैपायनो व्यासः सह शिष्यैः सहानुगैः।। | 2-73-21a 2-73-21b |
गते पितामहे राजा चिन्ताशोकसमन्वितः। निः श्वसन्नुष्णमसकृत्तमेवार्थं विचिन्तयन्।। | 2-73-22a 2-73-22b |
कथं तु दैवं शक्येत पौरुषेण प्रबाधितुम्। अवश्यमेव भविता यदुक्तं परमर्षिणा।। | 2-73-23a 2-73-23b |
ततोऽब्रवीन्महातेजाः सर्वान्भ्रातॄन्युधिष्ठिरः। श्रुतं वै पुरुषव्याघ्रा यन्मां द्वैपायनोऽब्रवीत्।। | 2-73-24a 2-73-24b |
तदा तद्वचनं श्रुत्वा मरणे निश्चिता मतिः। सर्वक्षत्रस्य निधने यद्यहं हेतुरीप्सितः।। | 2-73-25a 2-73-25b |
कालेन निर्मितस्तात को ममार्थोऽस्ति जीवतः। एवं ब्रुवन्तं राजानं फाल्गुनः प्रत्यभाषत।। | 2-73-26a 2-73-26b |
मा राजन्कश्मलं घोरं प्रविशो बुद्धिनाशनम्। सम्प्रधार्य महाराज यत्क्षमं तत्समाचर।। | 2-73-27a 2-73-27b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-73-28x |
ततोऽब्रवीत्सत्यधृतिर्भ्रातॄन्सर्वान्युधिष्ठिरः। द्वैपायनस्य वचनं तत्रैव समचिन्तयत्।। | 2-73-28a 2-73-28b |
अद्यप्रभृति भद्रं वः प्रतिज्ञां मे निबोधत। त्रयोदश समास्तात को ममार्थो ऽस्ति जीवतः।। | 2-73-29a 2-73-29b |
न प्रवक्ष्यामि परुषं भ्रातॄनन्यांश्च पार्थिवान्। स्थितो निदेशे ज्ञातीनां योक्ष्ये तत्सुमुदाहरन्।। | 2-73-30a 2-73-30b |
एवं मे वर्तमानस्य स्वसुतेऽष्वितरेषु च। भेदो न भविता लोके भेदमूलो हि विग्रहः।। | 2-73-31a 2-73-31b |
विग्रहं दूरतो रक्षन्प्रियाण्येव समाचरन्। वाच्यतां न गमिष्यामि लोकेषु मनुजर्षभाः।। | 2-73-32a 2-73-32b |
भ्रातृर्ज्येष्ठस्य वचनं पाण्डवाः संनिशम्य तत। तमेव समवर्तन्त धर्मराजहिते रताः।। | 2-73-33a 2-73-33b |
संसत्सु समयं कृत्वा धर्मराड्भ्रातृभिः सह। पितॄंस्तर्प्य यथान्यायं देवताश्च विशाम्पते।। | 2-73-34a 2-73-34b |
कृतमङ्गलकल्यामो भ्रातृभिः पिरवारितः। गतेषु क्षत्रियेन्द्रेषु सर्वेषु भरतर्षभ।। | 2-73-35a 2-73-35b |
युधिष्ठिरः सहामात्यः प्रविवेश पुरोत्तमम्। दुर्योधनो महाराज शकुनिश्चापि सौबलः। सभायां समणीयायां तत्रैवास्ते नराधिप।। | 2-73-36a 2-73-36b 2-73-36c |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।। 73 ।। |
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