महाभारतम्-02-सभापर्व-044
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मधुकैटभवधकथनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 2-44-1x |
अव्यक्तो व्यक्तलिङ्गस्थो य एव भगवान्प्रभुः। नरनारायणो भूत्वा हरिरासीद्युधिष्ठिर।। | 2-44-1a 2-44-1b |
ब्रह्मा च शक्रः सूर्यश्च धर्मश्चैव सनातनः। बहुशः सर्वभूतात्मा प्रादुर्भवति कार्यतः। प्रादुर्भावांस्तु वक्ष्यामि दिव्यान्देवगणैर्युतान्। | 2-44-2a 2-44-2b 2-44-2c |
सुप्त्वा युगसहस्रं स प्रादुर्भवति कार्यवान्। अनेकबहुसाहस्रैर्देवदेवो जगत्पतिः।। | 2-44-3a 2-44-3b |
ब्रह्माणं कपिलं चैव परमेष्ठिं तथैव च। देवान्सप्तर्षिभिश्चैव शङ्करं च महायशाः।। | 2-44-4a 2-44-4b |
सनत्कुमारं भगवान्मनुं चैव प्रजापतिम्। पुरा चक्रे च देवादिः प्रदीप्ताग्निसमप्रभः।। | 2-44-5a 2-44-5b |
येन चार्णवमध्यस्थौ नष्टेस्थावरजङ्गमे। नष्टदेवासुरवरे प्रनष्टोरगराक्षसे।। | 2-44-6a 2-44-6b |
योद्धुकामौ सुदुर्धर्षौ भ्रातरौ मधुकैठभौ। हतौ भगवता तेन ततो दत्त्वा वरं परम्।। | 2-44-7a 2-44-7b |
भूमिं बद्ध्वा कृतौ पूर्वावजेयौ द्वौ महाऽसुरौ। तौ कर्णमलसंभूतौ विष्णोस्तस्य महात्मनः।। | 2-44-8a 2-44-8b |
महार्णवे प्रस्वपतः शैलराजसमौ स्थितौ। तौ विवेश स्वयं वायुर्ब्रह्मणा साधु चोदितः।। | 2-44-9a 2-44-9b |
तौ दिवं छादयित्वा तु ववृधाते महाऽसुरौ। वायुप्रमाणौ तौ दृष्ट्वा ब्रह्मा पर्यमृशच्छनैः।। | 2-44-10a 2-44-10b |
एकं मृदुतरं वेत्ति कठिनं वेत्ति चापरम्। नामनी तु तयोश्चके सविता सलिलोद्भवः।। | 2-44-11a 2-44-11b |
मृदुस्त्वयं मधुर्नाम कठिनः कैठभः स्वयम्। तौ दैत्यौ कृतनामानौ चेरतुर्बलगर्वितौ।। | 2-44-12a 2-44-12b |
तौ पुराऽथ दिवं सर्वां प्राप्तौ राजन्महासुरौ। प्रच्छाद्याथ दिवं सर्वां चेरतुर्मधुकैठभौ।। | 2-44-13a 2-44-13b |
सर्वमेकार्णवं लोकं योद्धुकामौ सुनिर्भयौ। तौ गतावसुरौ दृष्ट्वा ब्रह्मा लोकपितामहः।। | 2-44-14a 2-44-14b |
एकार्णवाम्बुनिचये तत्रैवान्तरधीयत। स पद्मात्पद्मनाभस्य नाभिदेशात्समुत्थितात्।। | 2-44-15a 2-44-15b |
आससाद स्वयं जन्म तत्पङ्कजमपङ्कजम्। पूजयामास वसतिं ब्रह्मा लोकपितामहः।। | 2-44-16a 2-44-16b |
तावुभौ जलगर्भस्थौ नारायणचतुर्मुखौ। बहून्वर्षायुतानप्सु शयानौ न च कम्पितौ।। | 2-44-17a 2-44-17b |
अथ दीर्घस्य कालस्य तावुभौ मधुकैठभौ। आजग्मतुस्तौ तं देशं यत्र ब्रह्मा व्यवस्थितः।। | 2-44-18a 2-44-18b |
तौ दृष्ट्वा लोकनाथस्तु रोषात्संरक्तलोचनः। उत्पपाताथ शयनात्पद्मनाभो महाद्युतिः।। | 2-44-19a 2-44-19b |
तद्युद्धमभवद्घोरं तयोस्तस्य च भारत। एकार्णवे तदा घोरे त्रैलोक्ये जलतां गते।। | 2-44-20a 2-44-20b |
तदभूत्तुमुलं युद्धं वर्षसङ्ख्यासहस्रशः। न च तावसुरौ युद्धे तदा श्रममवापतुः।। | 2-44-21a 2-44-21b |
अथ दीर्घस्य कालस्य तौ दैत्यौ युद्धदुर्मदौ। ऊचतुः प्रीतमनसौ देवं नारायणं प्रभुम्।। | 2-44-22a 2-44-22b |
प्रीतौ स्वस्तव युद्धेन श्लाघ्यस्त्वं मृत्युरावयोः। आवां जहि न यत्रोर्वा सलिलेन पिरप्लुता।। | 2-44-23a 2-44-23b |
हतौ च तव पुत्रत्वं प्राप्नुयाव सुरोत्तम। यो ह्यानां युधि निर्जेता तस्यावां विहितौ सुतौ।। | 2-44-24a 2-44-24b |
तयोस्तु वचनं श्रुत्वा तदा नारायणः प्रभुः। तौ प्रहस्य मृधे दैत्यौ दोर्भ्यां च समपीडयम्।। | 2-44-25a 2-44-25b |
ऊरुभ्यां निधनं चक्रे तावुभौ मधुकैठबौ। तौ हतौ चाप्लुतौ तोये वपुर्भ्यामेकतां गतौ।। | 2-44-26a 2-44-26b |
मेदो मुमुचतुर्दैत्यौ मज्जमानौ जलोर्मिभिः। मेदसा तज्जलं व्याप्तं ताभ्यामन्तर्दधे तदा।। | 2-44-27a 2-44-27b |
नारायणश्च भगवानसृजद्विविधाः प्रजाः। दैत्ययोर्मेदसा छन्ना सर्वा राजन्वसुन्धरा।। | 2-44-28a 2-44-28b |
तदाप्रभृति कौन्तेय मेदिनीति स्मृता मही। प्रभावात्पद्मनाभस्य शाश्वती च कृता नृणाम्।। | 2-44-29a 2-44-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि अर्घाहरणपर्वणि चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः।। 44।। |
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