महाभारतम्-02-सभापर्व-031
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प्राचीं दिशं निर्जित्य भीमस्य प्रतिनिवर्तनम्।।1।।
वैशम्पायन उवाच। | 2-31-1x |
ततः कुमारविषये श्रेणिमन्तमथाजयत्। कोसलाधिपतिं चैव बृहद्बलमरिन्दमः।। | 2-31-1a 2-31-1b |
अयोध्यायां तु धर्मज्ञं दीर्घयज्ञं महाबलम्। अजयत्णण्डवश्रेष्ठो नातितीव्रेण कर्मणा।। | 2-31-2a 2-31-2b |
ततो गोपालकक्षं च सोत्तरानपि कोसलान्। मल्लानामधिपं चैव पार्थिवं चाजयत्प्रभुः।। | 2-31-3a 2-31-3b |
ततो हिमवतः पार्श्वं समभ्येत्य जलोद्भवम्। सर्वमल्पेन कालेन देशं चक्रे वशं बली।। | 2-31-4a 2-31-4b |
एवं बहुविधान्देशान्विजिग्ये भरतर्षभः। भल्लाटमभितो जिग्ये शुक्तिमन्तं च पर्वतम्।। | 2-31-5a 2-31-5b |
पाण्डवः सुमहावीर्यो बलेन बलिनां वरः। स काशिराजं समरे सुबाहुमनिवर्तिनम्।। | 2-31-6a 2-31-6b |
वशे चक्रे महाबाहुर्भीमो भीमपराक्रमः। ततः सुपार्श्वमभितस्तथा राजपतिं क्रथम्।। | 2-31-7a 2-31-7b |
युध्यमानं बालत्सङ्ख्ये विजिग्ये पाण्डवर्षभः। ततो मत्स्यान्महातेजा मलदांश्च महाबलान्।। | 2-31-8a 2-31-8b |
अनघानभयांश्चैव पशुभूमिं च सर्वशः। निवृत्य च महाबाहुर्मदधारं महीधरम्।। | 2-31-9a 2-31-9b |
सोमधेयांश्च निर्जित्य प्रत्ययावुत्तरामुखः। वत्सभूमिं च कौन्तेयो विजिग्ये बलवान्बलात्।। | 2-31-10a 2-31-10b |
भर्गाणामधिपं चैव निषादाधिपतिं तथा। विजिग्ये भूमिपालांश्च ममिमत्प्रमुखान्बहून्।। | 2-31-11a 2-31-11b |
ततो दक्षिणमल्लांश्च भोगवन्तं च पर्वतम्। तरसैवाजयद्भीमो नातितीव्रेण कर्मणा।। | 2-31-12a 2-31-12b |
शर्मकान्वर्मकांश्चैव व्यजयत्सान्त्वपूर्वकम्। वैदेहकं च राजानं जनकं जगतीपतिम्।। | 2-31-13a 2-31-13b |
विजिग्ये पुरुषव्याघ्रो नातितीव्रेण कर्मणा। शकांश्च बर्बराश्चैव अजयच्छद्मपूर्वकम्।। | 2-31-14a 2-31-14b |
वैदेहस्थस्तु कौन्तेय इन्द्रपर्वतमन्तिकात्। किरातानामधिपतीनजयत्सप्त पाण्डवः।। | 2-31-15a 2-31-15b |
ततः सुह्यान्प्रसुह्यांश्च सपक्षानतिवीर्यवान्। विजित्य युधि कौन्तेयो मागधानभ्यधाद्बली।। | 2-31-16a 2-31-16b |
दण्डं च दण्डधारं च विजित्य पृथिवीपतीन्। तैरेव सहितैः सर्वैर्गिरिव्रजमुपाद्रवत्।। | 2-31-17a 2-31-17b |
जारासन्धिं सान्त्वयित्वा करे च विनिवेश्य ह। तैरेव सहितैः सर्वैः कर्णमब्यद्रवद्बली।। | 2-31-18a 2-31-18b |
स कम्पयन्निव महीं बलेन चतुङ्गिणा। युयुधे पाण्डवश्रेष्ठः कर्णेनामित्रघातिना।। | 2-31-19a 2-31-19b |
स कर्णं युधि निर्जित्य वशे कृत्वा च भारत। ततो विजिग्ये बलवान्राज्ञः पर्वतवासिनः।। | 2-31-20a 2-31-20b |
अथ मोदागिरौ चैव राजानं बलवत्तरम्। पाण्डवो बाहुवीर्येण निजघान महामृधे।। | 2-31-21a 2-31-21b |
ततः पुण्ड्राधिपं वीरं वासुदेवं समाययौ। `इदानीं वृष्णिवीरेण न योत्स्यामीति पौण्ड्रकः।। | 2-31-22a 2-31-22b |
कृष्णस्य भुजसंत्रासात्करमाशु ददौ नृपः'। कौशिकीकच्छनिलयं राजानं च महौजसम्।। | 2-31-23a 2-31-23b |
उभौ बलभृतौ वीरावुमौ तीव्रपराक्रमौ। निर्जित्याजौ महाराज वङ्गराजमुपाद्रवत्।। | 2-31-24a 2-31-24b |
समुद्रसेन निर्जित्य चन्द्रसेनं च पार्थिवम्। ताम्रलिप्तं च राजानं कर्वटाधिपतिं तथा।। | 2-31-25a 2-31-25b |
सुह्यानामधिपं चैव ये च सागरवासिनः। सर्वान्म्लेच्छगणांश्चैव विजिग्ये भरतर्षभः।। | 2-31-26a 2-31-26b |
एवं बहुविधान्देशान्विजित्य पवनात्मजः। सु तेभ्य उपादाय लौहित्यमगद्बली।। | 2-31-27a 2-31-27b |
स सर्वान्म्लेच्छनृपतीन्सागरानूपवासिनः। करमाहारयामास रत्नानि विविधानि च।। | 2-31-28a 2-31-28b |
चन्दनागुरुवस्त्राणि मणिमौक्तिककम्बलम्। काञ्चनं रजतं चैव विद्रुमं च महाधनम्।। | 2-31-29a 2-31-29b |
ते कोटीशतसङ्ख्येन कौन्तेयं महता तदा। अभ्यवर्षन्महात्मानं धनवर्षेण पाण्डवम्।। | 2-31-30a 2-31-30b |
इन्द्रप्रस्थमुपागम्य भीमो भीमपराक्रमः। निवेदयामास तदा धर्मराजाय तद्धनम्।। | 2-31-31a 2-31-31b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि दिग्विजयपर्वणि एकत्रिंशोऽध्यायः।। 32।। |
2-31-16 सुह्या राढाः मागधानभ्यधाद्बली करं प्रयच्छतेत्युक्तवान्। पूर्वमेव पराकान् तत्वात्।।
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