महाभारतम्-02-सभापर्व-021
दिखावट
← सभापर्व-020 | महाभारतम् द्वितीयपर्व महाभारतम्-02-सभापर्व-021 वेदव्यासः |
सभापर्व-022 → |
|
जरासन्धसमीपं गतानां श्रीकृष्णभीमार्जुनानां जरासन्धेन सह विवादः।। 1।।
वासुदेव उवाच।। | 2-21-1x |
एष पार्थ महान्भाति पशुमान्नित्यमम्बुमान्। निरामयः सुवेश्माढ्यो निवेशो मागधः शुभः।। | 2-21-1a 2-21-1b |
वैहारो विपुलः शैलो वाराहो वृषभस्तथा। तथा ऋषिगिरिस्तात शुभाश्चैत्यकपञ्चमाः।। | 2-21-2a 2-21-2b |
एते पञ्चमहाशृङ्गाः पर्वताः शीतलद्रुमाः। रक्षन्तीवाभिसंहत्य संहताङ्गा गिरिव्रजम्।। | 2-21-3a 2-21-3b |
पुष्पवेष्टितशाखाग्रैर्गन्धवद्भिर्मनोहरैः। निगूढा इव लोध्राणां वनैः कामिजनप्रियैः।। | 2-21-4a 2-21-4b |
`यत्र दीर्घतमा नाम ऋषिः परमन्त्रितः'। शूद्रायां गौतमो यत्र महात्मा संशितव्रतः। औशीनर्यामजनयत्काक्षीवाद्यान्सुतान्मुनिः।। | 2-21-5a 2-21-5b 2-21-5c |
गौतमः प्रणयात्तस्माद्यथाऽसौ तत्र सद्मनि। भजते मागधं वंशं स नृपाणामनुग्रहः। | 2-21-6a 2-21-6b |
अङ्गवङ्गादयश्चैव राजानः सुमहाबलाः। गौतमक्षयमभ्येत्य रमन्ते स्म पुरार्जुन।। | 2-21-7a 2-21-7b |
वनराजीस्तु पश्येमाः पिप्लानां मनोरमाः। लोघ्राणां च शुभाः पार्थ गौतमौकः समीपजाः।। | 2-21-8a 2-21-8b |
अर्बुदः शक्रवापी च पन्नगौ शत्रुतापनौ। स्वस्तिकस्यालयश्चात्र मणिनागस्य चोत्तमः।। | 2-21-9a 2-21-9b |
अपारिहार्या मेघानां मागधा मनुना कृताः। कौशिको मणिमांश्चैव चक्राते चाप्यनुग्रहम्।। | 2-21-10a 2-21-10b |
`पाण्डरे विपुले चैव तथा वाराहकेऽपि च। चैत्यके चज गिरिश्रेष्ठे मादङ्गे च शिलोच्चये।। | 2-21-11a 2-21-11b |
एतेषु पर्वतेन्द्रेषु सर्वसिद्धसमालयाः। यतीनामाश्रमाश्चैव मुनीनां च महात्मनाम्।। | 2-21-12a 2-21-12b |
वृषभस्य तमालस्य महावीर्यस्य वै तथा। गन्धर्वरक्षसां चैव नागानां च तथाऽऽलयाः।। | 2-21-13a 2-21-13b |
कक्षीवतस्तपोवीर्यात्तपोदा इति विश्रुताः। पुण्यतीर्थाश्च ते सर्वे सिद्धानां चैव कीर्तिताः। मणेश्च दर्शनादेव भद्रं शिवमवाप्नुयात्'।। | 2-21-14a 2-21-14b 2-21-14c |
एवं प्राप्य पुरं रम्यं दुराधर्पं समन्ततः।। अर्थसिद्धिं त्वनुपमां जरासन्धोऽभिमन्यते।। | 2-21-15a 2-21-15b |
वयमासादने तस्य दर्पमद्य हरेम हि। | 2-21-16a |
वैशम्पायन उवाच। | 2-21-16x |
एवमुक्त्वा ततः सर्वे भ्रातरो विपुलौजसः।। | 2-21-16b |
वार्ष्णेयः पाण्डवौ चैव प्रतस्थुर्मागधं पुरम्। हृष्टपुष्टजनोपेतं चातुर्वर्ण्यसमाकुलम्।। | 2-21-17a 2-21-17b |
स्फीतोत्सवमनाधृष्यमासेदुश्च गिरिव्रजतम्। ततो द्वारमनासाद्य पुरस्य गिरिमुच्छ्रितम्।। | 2-21-18a 2-21-18b |
बार्हद्रथैः पूज्यमानं तथा नगरवासिभिः। मागधानां तु रुचिरं चैत्यकान्तरमाद्रवन्।। | 2-21-19a 2-21-19b |
यत्र मांसादमृषभमाससाद बृहद्रथः। तं हत्वा मासतालाभिस्तिस्रो भेरीकारयत्।। | 2-21-20a 2-21-20b |
स्वपुरे स्थापयामास तेन चानह्य चर्मणा। यत्र ताः प्राणदन्भेर्यो दिव्यपुष्पावचूर्णिताः।। | 2-21-21a 2-21-21b |
भङ्क्त्वा भेरीत्रयं तेऽपि चैत्यप्राकारमाद्रवन्। द्वारतोऽभिमुखाः सर्वे ययुर्नानायुधास्तधा।। | 2-21-22a 2-21-22b |
मागधानां सुरुचिरं चैत्यकं तं समाद्रवन्। शिरसीव समाघ्नन्तो जरासन्धं जिघांस्वः।। | 2-21-23a 2-21-23b |
स्थिरं सुविपुलं शृङ्गं सुमहत्तत्पुरातनम्। अर्चितं गन्धमाल्यैश्च सततं सुप्रतिष्ठितम्।। | 2-21-24a 2-21-24b |
विपुलैर्बाहुभिर्वीरस्तेऽभिहत्याभ्यपातयन्। ततस्ते मागधं हृष्टाः पुरं प्रविविशुस्तदा।। | 2-21-25a 2-21-25b |
एतस्मिन्नेव काले तु ब्राह्मणा वेदपारगाः। दृष्ट्वा तु दुर्निमित्तानि जरासन्धमदर्शयन्।। | 2-21-26a 2-21-26b |
पर्युग्न्यकुर्वंश्च नृपं द्विरदस्थं पुरोहिताः। ततस्तच्छान्तये राजा जरासन्धः प्रतापवान्। दीक्षितो नियमस्थोऽसावुपवासपरोऽभवत्।। | 2-21-27a 2-21-27b 2-21-27c |
स्नातकव्रतिनस्ते तु बाहुशस्त्रा निरायुधाः। युयुत्सवः प्रविविशुर्जरासन्धेन भारत।। | 2-21-28a 2-21-28b |
भक्ष्यमाल्यापणानां च ददृशुः श्रियमुत्तमाम्। स्फीतां सर्वगुणोपेतां सर्वकामसमृद्धिनाम्।। | 2-21-29a 2-21-29b |
तां तु दृष्ट्वा समृद्धिं ते वीथ्यां तस्यां नरोत्तमाः। राजमार्गेण गच्छन्तः कृष्णभीमधनञ्जयाः। बलाद्गृहीत्वा माल्यानि मालाकारान्महाबलाः।। | 2-21-30a 2-21-30b 2-21-30c |
`कर्पूरशृङ्गं कोष्ठं च सफलं चान्तरापणे। वैश्याद्बलाद्गृहीत्वा ते विहृत्य च महारथाः'।। | 2-21-31a 2-21-31b |
विरागवसनाः सर्वे स्रग्विणो मृष्टकुण्डलाः। निवेशनमथाजग्मुर्जरासन्धस्य धीमतः।। | 2-21-32a 2-21-32b |
गोवासमिव वीक्षन्तः सिंहा हैमवता यथा। शालस्तम्भनिभास्तेषां चन्दनागुरुरूषिताः।। | 2-21-33a 2-21-33b |
अशोभन्त महाराज बाहवो युद्धशालिनाम्। तान्दृष्ट्वा द्विरदप्रख्याञ्शालस्कन्दानिवोद्गतान्।। | 2-21-34a 2-21-34b |
व्यूढोरस्कान्मागधानां विस्मयः समपद्यत। `अद्वारेणाभ्यवस्कन्द्य विविशुर्मागधालयम्'।। | 2-21-35a 2-21-35b |
ते त्वतीत्य जनाकीर्णाः कक्षास्तिस्रो नरर्षभाः। अहङ्कारेण राजानमुपतस्थुर्गतव्यथाः।। | 2-21-36a 2-21-36b |
`भो शब्देनैव राजानमुचुस्ते तु महारथाः'। तान्पाद्यमधुपर्कार्हान्गवार्हान्सत्कृतिं गतान्। प्रत्युत्थाय जरासन्ध उपतस्थे यथाविधि।। | 2-21-37a 2-21-37b 2-21-37c |
उवाच चैतान्राजाऽसौ स्वागतं वोस्त्विति प्रभुः। मौनमासीत्तदा पार्थभीमयोर्जनमेजय।। | 2-21-38a 2-21-38b |
तेषां मध्ये महाबुद्धिः कृष्णो वचनमब्रवीत्। वक्तुं नायाति राजेन्द्र एतयोर्नियमस्थयोः।। | 2-21-39a 2-21-39b |
अर्वाङ्निशीथात्परतस्त्वाया सार्धं वदिष्यतः। यज्ञागारे स्थापयित्वा राजा राजगृहं वदिष्यतः। | 2-21-40a 2-21-40b |
ततोऽर्धरात्रे सम्प्राप्ते यातो यत्र स्थिता द्विजाः। तस्य ह्येतद्व्रतं राजन्बभूव भुवि विश्रुतम्।। | 2-21-41a 2-21-41b |
स्नातकान्ब्राह्मणान्प्राप्ताञ्श्रुत्वा स समितिञ्जयः। अप्यर्धरात्रे नृपतिः प्रत्युद्गच्छति भारत।। | 2-21-42a 2-21-42b |
तांस्त्वपूर्वेण वेषेण दृष्ट्वा स नृपसत्तमः। उपतस्थे जरान्धो विस्मितश्चाभवत्तदा।। | 2-21-43a 2-21-43b |
ते तु दृष्ट्वैव राजानं जरासन्धं नरर्षभाः। इदमूचुरमित्रघ्नाः सर्वे भरतसत्तम।। | 2-21-44a 2-21-44b |
स्वस्त्यस्तु कुशलं राजन्निति तत्र व्यवस्थिताः। तं नृपं नृपशार्दूल प्रेक्षमाणाः परस्परम्।। | 2-21-45a 2-21-45b |
तानब्रवीञ्जरासन्धस्तथा पाण्डवयादवान्। आस्यतामिति राजेन्द्र ब्राह्मणच्छद्मसंवृतान्।। | 2-21-46a 2-21-46b |
अथोपविविशुः सर्वे त्रयस्ते पुरुषर्षभाः। सम्प्रदीप्तास्त्रयो लक्ष्म्या महाध्वर इवाग्नयः।। | 2-21-47a 2-21-47b |
तानुवाच जरासन्धः सत्यसन्धो नराधिपः। विगर्हमाणः कौरव्य वेषग्रहणवैकृतान्।। न स्नातकव्रता विप्रा वहिर्माल्यानुलेपनाः।। | 2-21-48a 2-21-48b 2-21-48c |
भवन्तीति नृलोकेऽस्मिन्विदितं मम सर्वशः। के यूयं पुष्पवन्तश्च भुजैर्ज्याकृतलक्षणैः।। | 2-21-49a 2-21-49b |
बिभ्रतः क्षात्रमोजश्च ब्राह्मण्यं प्रतिजानथ। एवं विरागवसना बहिर्माल्यानुलेपनाः।। | 2-21-50a 2-21-50b |
`क्षत्रिया एव लोकेऽस्मिन्विदिता मम सर्वशः'।। सत्यं वदत के यूयं सत्यं राजसु शोभते।। | 2-21-51a 2-21-51b |
चैत्यकस्य गिरेः शृङ्गं भित्त्वा किमिह सद्मनि। अद्वारेण प्रविष्टाः स्थ निर्भया राजकिल्विषात्।। | 2-21-52a 2-21-52b |
वदध्वं वाचि वीर्यं च ब्राह्मणस्य विशेषतः। कर्म चैतद्विलिङ्गस्थं किं वोऽद्य प्रसमीक्षितम्।। | 2-21-53a 2-21-53b |
एवं च मामुपास्थाय कस्माच्च विधिर्नाहणाम्। प्रणीतां नानुगृह्णीत कार्यं किं वाऽस्मदागमे।। | 2-21-54a 2-21-54b |
वैशम्पायन उवाच। | 2-21-55x |
एवमुक्ते ततः कृष्णः प्रत्युवाच महामनाः। स्निग्धगमभीरया वाचा वाक्यं वाक्यविशारदः।। xकृष्ण उवाच। | 2-21-55a 2-21-55b 20506 |
स्नातकान्ब्राह्मणान्राजन्विद्ध्यस्मांस्त्वं नराधिप। स्नातकव्रतिनो राजन्ब्राह्मणाः क्षत्रिया विशः।। | 2-21-56a 2-21-56b |
विशेषनियमाश्चैषामविशेषाश्च सन्त्युत। विशेषवांश्च सततं क्षत्रियः श्रियमृच्छति।। | 2-21-57a 2-21-57b |
पुष्पवत्सु ध्रुवा श्रीश्च पुष्पवन्तस्ततो वयम्। क्षत्रियो बाहुवीर्यस्तु न तथा वाक्यवीर्यवान्।। अम्प्रगल्भं वचस्तस्य तस्माद्बार्हद्रथेरितम्।। | 2-21-58a 2-21-58b 2-21-58c |
स्ववीर्यं क्षत्रियाणां तु बाह्वोर्धाता न्यवेशयत्। तद्दिदृक्षसि चेद्राजन्द्रष्टास्यद्य न संशयटः।। | 2-21-59a 2-21-59b |
अद्वारेण रिम्पोर्गेहं द्वारेण सुहृदो गृहान्। प्रविशन्ति नरा धीरा द्वाराण्येतानि धर्मतः।। | 2-21-60a 2-21-60b |
कार्यवन्तो गृहानेत्य शत्रुतो नार्हणां वयम्। प्रतिगृह्णीम् तद्विद्वि एतन्नः शाश्वतं व्रतम्।। | 2-21-61a 2-21-61b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि जरासन्धवधपर्वणि एकविंशोऽध्यायः।। 21।। |
सभापर्व-020 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-022 |