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महाभारतम्-02-सभापर्व-034

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स्मृतिमात्रागतघटोत्कचलङ्काप्रेषणवृत्तान्तस्य विस्तरेण कथनम्।।1।।
कृष्णगौरवेण विभीषणेन करदानम्।। 2।।

विभीषणात्करणाहृतवता घटोत्कचेन सह सहदेवस्य प्रतिनिवर्तनम्।। 3।।

वैशम्पायन उवाच।। 2-34-1x
सहदेवस्ततो राजा मन्त्रिभिः सह भारत।
सम्प्रधार्य महाबाहुः सचिवैर्बुद्धिमत्तरैः।।
2-34-1a
2-34-1b
स विचार्य तदा राजन्सहदेवस्त्वरान्वितः।
चिन्तयामास राजेन्द्र भ्रातुः पुत्रं घटोत्कचम्।।
2-34-2a
2-34-2b
ततश्चिन्तितमात्रे तु राक्षसः प्रत्यदृश्यत।
अतिदीर्घो महाबाहु सर्वाभरणभूषितः।।
2-34-3a
2-34-3b
नीलजीमूतसङ्काशस्तप्तकाञ्चनकुण्डलः।
विचित्रहारकेयूरः किङ्किणीमणिभूषितः।।
2-34-4a
2-34-4b
हेममाली महादंष्ट्रः किरीटी कुक्षिबन्धनः।
ताम्रकेशो हरिश्मश्रुर्भीमाङ्गः कटकाङ्गदः।।
2-34-5a
2-34-5b
रक्तचन्दनदिग्धाङ्गः सूक्ष्माम्बरधरो बली।
बलेन स ययौ तत्र चालयन्निव मेदिनीम्।।
2-34-6a
2-34-6b
ततो दृष्ट्वा जना राजन्नायान्तं पर्वतोपमम्।
भयाद्धि दुद्रुवुः सर्वे सिंहात्क्षुद्रमृगा यथा।।
2-34-7a
2-34-7b
आससाद च माद्रेयं पुलस्त्यं रावणो यथा।
अभिवाद्य ततो राजन्सहदेवं घटोत्कचः।।
2-34-8a
2-34-8b
प्रह्वः कृताञ्जलिस्तस्थौ किं कार्यमिति चाब्रवीत्।
तं परिष्वज्य बाहुभ्यां मूर्ध्न्युपाघ्राय पाण्डवः।।
2-34-9a
2-34-9b
तं मेरुशिखराकारमागतं पाण्डुनन्दनः।
पूजयित्वा सहामात्यः प्रीतो वाक्यमुवाच ह।।
2-34-10a
2-34-10b
गच्छ लङ्कां पुरीं वत्स करार्थं मम शासनात्। ।।
तत्र दृष्ट्वा महात्मानं राक्षसेन्द्रं बिभीषणम्।।
2-34-11a
2-34-11b
रत्नानि राजसूयार्थं विविधानि बहूनि च।
उपादाय च सर्वाणि प्रत्यागच्छ महाबल।।
2-34-12a
2-34-21b
वैशम्पायन उवाच। 2-34-13x
पाण्डवेनैवमुक्तस्तु मुदा युक्तो घटोत्कचः।
तथेत्युक्त्वा महाराज प्रतस्ये दक्षिणां दिशम्।।
2-34-13a
2-34-13b
प्रययौ दक्षिणं कृत्वा सहदेवं घटोत्कचः।
लङ्कामभिमुको राजन्समुद्रं स व्यलोकयत्।।
2-34-14a
2-34-14b
कूर्मग्राहझषाकीर्णं मीननक्रैस्तथाऽऽकुलम्।
शुक्तिव्रातसमाकीर्णं शङ्कानां निचयाकुलम्।।
2-34-15a
2-34-15b
स दृष्ट्वा रामसेतुं च चिन्तयन्रामविक्रमम्।।
गत्वा पारं समुद्रस्य दक्षिणं स घटोत्कचः।।
2-34-16a
2-34-16b
ददर्श लङ्कां राजेन्द्र नाकपृष्ठोपमां शुभाम्।
प्राकारेणावृतां रम्यां शुभद्वारैश्च शोभिताम्।।
2-34-17a
2-34-17b
प्रासादैर्बहुसाहस्रैः श्वेतरक्तैश्च सङ्कुलाम्।
दिव्यदुन्दुभिनिर्ह्रादामुद्यानवनशोभिताम्।।
2-34-18a
2-34-18b
सर्वकालफलैर्वृक्षैः पुष्पितैरुपशोभिताम्।
पुष्पगन्धैश्च सङ्कीर्णां रमणीयमहारथाम्।।
2-34-19a
2-34-19b
नानारत्नैश्च सम्पूर्णामिन्द्रस्येवामरावतीम्।
विवेश स पुरीं लङ्कां राक्षसैश्च निषेविताम्।।
2-34-20a
2-34-20b
ददर्श स पुरीं लङ्कां राक्षसैश्च निषेविताम्।।
नानावेषधरान्दक्षान्नारीश्च प्रियदर्शनाः।।
2-34-21a
2-34-21b
दिव्यमाल्याम्बरधरा दिव्यभूषणभूषिताः।
मदरक्तान्तनयनाः पीनश्रोणिपयोधराः।।
2-34-22a
2-34-22b
भैमसेनिं ततो दृष्ट्वा हृष्टास्ते विस्मयं गताः।
आससाद गृहं राज्ञ इन्द्रस्य सदनोपमम्।।
2-34-23a
2-34-23b
स द्वारपालमासाद्य वाक्यमेतदुवाच ह। 2-34-24a
घटोत्कच उवाच।। 2-34-24x
bकुरूणामृष्टबो राजा पाण्डुर्नाम महाबलः।।
aकनीयांस्तस्य दायादः सहदेव इति श्रुतः।
bतेनाहं प्रेषितो दूतः करार्थं कौरवस्य च।।
2-34-24
2-34-25
2-34-25
द्रष्टुमिच्छामि राजेनद्रं त्वं क्षिप्रं मां निवेदय। 2-34-26a
वैशम्पायन उवाच।। 2-34-26x
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा द्वारपालो महीपते।। 2-34-26b
तथेत्युक्त्वा विवेशाथ भवनं स निवेदकः।
प्राञ्जलिः स्रवमाचष्ट स्रवां दूतगिरं तदा।।
2-34-27a
2-34-27b
द्वारपालवचः श्रुत्वा राक्षसेन्द्रो विभीषणः।
उवाच वाक्यं धर्मात्मा समीपं मे प्रवेश्यताम्।।
2-34-28a
2-34-28b
एवमुक्तस्तु राज्ञा स धर्मज्ञेन महात्मना।
अथनिष्कम्य सम्भ्रान्तो द्वार्स्थोहैडिम्बमब्रवीत्।।
2-34-29a
2-34-29b
एहि दूत नृपं द्रष्टुं क्षिप्रं प्रविश च स्वयम्।
द्वारपालवचः श्रुत्वा प्रविवेश घटोत्कचः।।
2-34-30a
2-34-30b
स प्रविश्य ददर्शाथ राक्षसेन्द्रस्य मन्दिरम्।
ततः कैलाससङ्काशं तत्पकाञ्चनतोरणम्।।
2-34-31a
2-34-31b
प्राकारेण परिक्षिप्तं गोपुरैश्चापि शोभितम्।
हर्म्यप्रासादसम्बाधं नानारत्नोपशोभितम्।।
2-34-32a
2-34-32b
काञ्चनैस्तापनीयैश्च स्फाटिकै राजतैरपि।
वज्रवैडूर्यजुष्टैश्च स्तम्भैश्च सुमनोहरैः।।
2-34-33a
2-34-33b
नानाध्वजपताकाभिर्युक्तं मणिविचित्रितम्।
चित्रमाल्यावृतं रम्यं तप्तकाञ्चनवेदिकम्।।
2-34-34a
2-34-34b
स दृष्ट्वा तत्र सर्वं च भैमसेनिर्मनोहरम्।
प्रविशन्नेव हैडिम्बः शुश्राव मधुरस्वरम्।।
2-34-35a
2-34-35b
तन्त्रीगीतसमाकीर्णं समतालमिताक्षरम्।
दिव्यदुन्दुभिनिर्ह्रादं वादित्रसततं शुभम्।।
2-34-36a
2-34-36b
स श्रुत्वा मधुरं शब्दं प्रीतिमानभवत्तदा।
ततो विगाह्य हैडिम्बो बहुकक्ष्यां मनोरमाम्।।
2-34-37a
2-34-37b
स ददर्श महात्मानं द्वार्स्थेन सह भारत।
तं विभीषणमासीनं काञ्चने परमासने।।
2-34-38a
2-34-38b
दिवि भास्करसङ्काशं मुक्तामणिविभूषितम्।
दिव्याभरणचित्राङ्गं दिव्यरूपधरं विभुम्।।
2-34-39a
2-34-39b
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धोक्षितं शुभम्।
विभ्राजमानं वपुषा सूर्यवैश्वानरप्रभम्।।
2-34-40a
2-34-40b
उपोपविष्टं सचिवैर्देवैरिव शतक्रतुम्।
यक्षैर्महात्मभिर्दिव्यनारीभिर्हृद्यकान्तिभिः।।
2-34-41a
2-34-41b
गीतैर्मङ्गलयुक्तैश्च पूज्यमानं यथा दिवि।
चामरे व्यजने चाग्र्ये हेमदण्डे महाधने।।
2-34-42a
2-34-42b
गृहीते वरनारीभ्यां धूयमाने च मूर्धनि।
अर्चिष्मन्तं श्रिया जुष्टं कुबेरवरुणोपमम्।।
2-34-43a
2-34-43b
धर्मे चैव स्थितं नित्यमद्भुतं राक्षसेस्वरम्।
राममिक्ष्वाकुनाथं वै स्मरन्तं मनसा सदा।।
2-34-44a
2-34-44b
दृष्ट्वा घटोत्कचो राजन्ववन्दे तं कृताञ्जलिः।
प्रह्वस्तस्थौ महावीर्यः शक्रं चित्ररथो यथा।।
2-34-45a
2-34-45b
तं दूतमागतं दृष्ट्वा राक्षसेन्द्रो विभीषणः।
पूजयित्वा यथान्यायं सान्त्वपूर्वं वचोऽब्रवीत्।।
2-34-46a
2-34-46b
विभीषण उवाच।। 2-34-47x
कस्य वंशे स सञ्जातः करमिच्छन्महीपतिः।
तस्यानुजान्समस्तांश्च पुरं देशं च तस्य वै।।
2-34-47a
2-34-47b
त्वां च कार्यं च तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि तत्वतः।
विस्तरेण मम ब्रूहि सर्वानेतान्पृथक्पृथक्।।
2-34-48a
2-34-48b
वैशम्पायन उवाच। 2-34-49x
एवमुक्तस्तु हैडिम्बः पौलस्त्येन महात्मना।
कृताञ्जलिरुवाचाथ समर्थमिदमुत्तरम्।।
2-34-49a
2-34-49b
घटोत्कच उवाच। 2-34-50x
सोमवंशोद्भवो राजा पाण्डुर्नाम महाबलः।
पाण्डोश्च पुत्राः पञ्चासञ्छक्रतुल्यपराक्रमाः।।
2-34-50a
2-34-50b
तेषां ज्येष्ठस्तु नाम्ना वै युधिष्ठिर इति श्रुतः।
अजातशत्रुर्धर्मात्मा धर्मो विग्रहवानिव।।
2-34-51a
2-34-51b
ततो युधिष्ठिरो राजा प्राप्य राज्यमकारयत्।
गङ्गाया दक्षिणे तीरे नगरे नागसाह्वये।।
2-34-52a
2-34-52b
तद्दत्वा धृतराष्ट्राय शक्रप्रस्थं ययौ ततः।
भ्रातृभिः सह राजेन्द्र शक्रप्रस्थेऽन्वमोदत।।
2-34-53a
2-34-53b
गङ्गायमुनयोर्मध्ये ते उभे नगरोत्तमे।
नित्यं धर्मे स्थितो राजा शक्रप्रस्थे प्रशास्ति नः।।
2-34-54a
2-34-54b
तस्यानुजो महाबाहुर्भीमसेन इति श्रुतः।
महातेजा महाकीर्तिः शक्रतुल्यपराक्रमः।।
2-34-55a
2-34-55b
दशनागसहस्राणां बले तुल्यः स पाण्डवः।
तस्यानुजोऽर्जुनो नाम महाबलपराक्रमः।।
2-34-56a
2-34-56b
सुकुमारो महासत्वो लोके वीर्येण विश्रुतः।
कार्तवीर्यसमो वीर्ये सागरप्रतिमो बले।।
2-34-57a
2-34-57b
जामदग्न्यसमश्चास्त्रे सङ्ख्ये रामसमोऽर्जुनः।
रूपे शक्रसमः पार्थस्तेजसा भास्करोपमः।।
2-34-58a
2-34-58b
देवदानवगन्धर्वैः पिशाचोरगराक्षसैः।
मानुषैश्च समस्तैस्तु अजेयः फल्गुनो रणे।।
2-34-59a
2-34-59b
तेन तत्खण्डवं दावं तर्पितं जातवेदसे।
विजित्य तरसा शक्रं युधि देवगणैः सह।।
2-34-60a
2-34-60b
लब्धान्यस्त्राणि दिव्यानि तर्पयित्वा हुताशनम्।
तेन लब्धा महाराज दुर्लभा दैवतैरपि।।
2-34-61a
2-34-61b
वासुदेवस्य भगिनी सुभद्रा नाम विश्रुता।
अर्जुनस्यानुजो राजन्नकुलश्चेति विश्रुतः।।
2-34-62a
2-34-62b
दर्शनीयतमो लोके मूर्तिमानिव मन्मथः।
तस्यानुजो महातेजाः सहदेव इति श्रुतः।।
2-34-63a
2-34-63b
तेनाहं प्रेषितो राजन्कुमारेण समो रणे।
अहं घटोत्कचो नाम भीमसेनसुतो बली।।
2-34-64a
2-34-64b
मम माता महाभागा हिडिम्बा नाम राक्षसी।
पार्थानामुपकारार्थं चरामि पृथिवीमिमाम्।।
2-34-65a
2-34-65b
आसीत्पृथिव्याः सर्वस्या महीपालो युधिष्ठिरः।
राजसूयं क्रतुश्रेष्ठमाहर्तुमुपचक्रमे।।
2-34-66a
2-34-66b
सन्दिदेश च स भ्रातृन्करार्थं सर्वतोदिशम्।
वृष्णिवीरेण सहितः सन्दिदेशानुजान्नृपः।।
2-34-67a
2-34-67b
उदीचीमर्जुनस्तूर्णं गत्वा मेरोरथोत्तमः।
गत्वा शतसहस्राणि योजनानि महाबलः।।
2-34-68a
2-34-68b
त्वा सर्वान्नृपान्युद्धे हत्वा च तरसा वशी।
स्वर्गद्वारमुपागम्य रत्नान्यादाय वै भृशम्।।
2-34-69a
2-34-69b
अश्वांश्च विविधान्दिव्यान्सर्वानादाय फल्गुनः।
धनं बहुविधं राजन्धर्मपुत्राय वै ददौ।।
2-34-70a
2-34-70b
भीमसेनो हि राजेन्द्र जित्वा प्राचीं दिशं बलात्।
वशे कृत्वा महीपालान्पाण्डवाय धनं ददौ।।
2-34-71a
2-34-71b
दिशं प्रतीचीं नकुलः करार्थं प्रययौ तथा।
सहदेवो दिशं याम्यां जित्वा सर्वान्महीक्षितः।।
2-34-72a
2-34-72b
मां सन्दिदेश राजेन्द्र करार्थमिह सत्कृतः।
पार्थानां चरितं तुभ्यं सङ्क्षेपात्समुदाहृतम्।।
2-34-73a
2-34-73b
तमवेक्ष्य महाराज धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
पावनं राजसूयं च भगवन्तं हरिं प्रभुम्।
एतानवेक्ष्य धर्मज्ञ करं दातुमिहार्हसि।।
2-34-74a
2-34-74b
2-34-74c
वैशम्पायन उवाच।। 2-34-75x
तेन तद्भाषितं श्रुत्वा राक्षसेन्द्रो बिभीषणः।
शासनं प्रतिजग्राह धर्मात्मा राक्षसैः सह।।
2-34-75a
2-34-75b
तच्च कृष्णकृतं धीमानित्यमन्यत स प्रभुः।
ततो ददौ विचित्राणि कम्बलानि कुथानि च।।
2-34-76a
2-34-76b
दान्तकाञ्चनपर्यङ्कान्मणिहेमविचित्रितान्।
भूषणानि महार्हाणि प्रवालानि मणींश्च सः।।
2-34-77a
2-34-77b
काञ्चनानि च भाण्डनि कलशानि घटानि च।
कटाहानि विचित्रानि द्रोण्यश्चैव सहस्रशः।।
2-34-78a
2-34-78b
राजतानि च भाण्डानि रत्नगर्भांश्च कुण्डलान्।
हेमपुष्पानि चान्यानि रुक्ममुख्यानि चापरान्।
2-34-79a
2-34-79b
शङ्खांश्च चन्द्रसङ्काशांश्चित्रावर्तविचित्रितान्।
यज्ञस्य तोरणे युक्तान्ददौ तालांश्चतुर्दश।।
2-34-80a
2-34-80b
रुक्मपङ्कजपुष्पाणि शिबिका मणिभूषिताः।
मुकुटानि महार्हाणि रत्नगर्भांश्च कङ्कणान्।।
2-34-81a
2-34-81b
चन्दनानि च मुख्यानि वासांसि विविधानि च।
स ददौ सहदेवाय तदा राजा विभीषणाः।।
2-34-82a
2-34-82b
तानि सर्वाणि रत्नानि आजह्रुस्ते निशाचराः।
अष्टाशीतिसहस्राणि समदा रक्तलोचनाः।।
2-34-83a
2-34-83b
रत्नान्यादाय सर्वाणि प्रतस्थे स घटोत्कचः।
विभीषणं च राजानमभिवाद्य कृताञ्जलिः।।
2-34-84a
2-34-84b
प्रदक्षिणं परीत्यैव निर्जगाम घटोत्कचः।
ततो रत्नान्युपादाय हैडिम्बो राक्षसैः सह।।
2-34-85a
2-34-85b
जगाम तूर्णं लङ्कायाः सहदेवपदं प्रति।
आसेदुः पाण्डवं सर्वे लङ्घयित्वा महोदधिम्।।
2-34-86a
2-34-86b
सहदेवो ददर्शाथ रत्नाहारान्निशाचरान्।
आगतान्भीमसङ्काशान्हैडिम्बं च तथा नृप।।
2-34-87a
2-34-87b
द्रमिला नैऋतान्दृष्ट्वा दुद्रुवुस्ते भयार्दिताः।
भैमसेनिस्ततो गत्वा मार्देयं प्राञ्जलिः स्थितः।।
2-34-88a
2-34-88b
प्रीतिमानभवद्दृष्ट्वा रत्नौधं तं च पाण्डवः।
तं परिष्वज्य पाणिभ्यां दृष्ट्वा तान्प्रीतिमानभूत्।।
2-34-89a
2-34-89b
विसृज्य द्रविडान्सर्वान्गमनायोपचक्रमे।
न्यवर्तम ततो धीमान्सहदेवो नराधिपः।।
2-34-90a
2-34-90b
एवं विजित्य तरसा सान्त्वेन विजयेन च।
करदान्पार्थिवान्कृत्वा प्रत्यागच्छदरिन्दमः।।
2-34-91a
2-34-91b
रत्नसालमुपादाय ययौ सहनिशाचरः।
इन्द्रप्रस्थं विवेशाथ कम्पयन्निव मेदिनीम्।।
2-34-92a
2-34-92b
दृष्ट्वा युधिष्ठिरं राजन्सहदेवः कृताञ्जलिः।
प्रह्वोऽभिवाद्य तस्थौ स पूजितश्चापि तेन वै।।
2-34-93a
2-34-93b
लङ्काप्राप्तान्धनौघांश्च दृष्ट्वा तान्दुर्लभान्बहून्।
प्रीतिमानभवद्राजा विस्मयं परमं ययौ।।
2-34-94a
2-34-94b
धर्मराजाय तत्सर्वं निवेद्य भरतर्षभ।
कोटीसहस्रमधिकं हिरण्यस्य महात्मने।।
2-34-95a
2-34-95b
विविधानि च रत्नानि गोजाविमहिषांस्तथा।
कृतकर्मा सुखं राजन्नुवास जनमेजय।।
2-34-96a
2-34-96b
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
दिग्विजयपर्वणि चतुस्त्रिंसोऽध्यायः।। 34।। ।।
सभापर्व-033 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सभापर्व-035
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