महाभारतम्-02-सभापर्व-033
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जनमेजयप्रश्नानुरोधेन सहदेवस्य द्राविडपाण्ड्यदेशगमनकथनम्।। 1।।
`जनमेजय उवाच।। | 2-33-1x |
इच्छाम्यागमनं श्रोतुं हैडिम्बस्य द्विजोत्तम। लङ्कायां च गतिं ब्रह्मन्पौलस्त्यस्य च दर्शनम्।। | 2-33-1a 2-33-1b |
कावेरीदर्शनं चैव आनुपूर्व्या वदस्व मे। | 2-33-2a |
वैशम्पायन उवाच। | 2-33-2x |
शृणु राजन्यथा वृत्तं सहेदवस्य साहसम्।। | 2-33-2b |
कालनद्वीपगांश्चैव तरसाऽजित्य चाहवे। दक्षिणां च दिशं जित्वा चोलस्य विषयं ययौ।। | 2-33-3a 2-33-3b |
ददर्श पुण्यतोयां वै कावेरीं सरितां वराम्। नाजापक्षिगणैर्जुष्टां तापसैरुपशोभिताम्।। | 2-33-4a 2-33-4b |
साललोध्रार्जुनैल्वैर्जम्बूशाल्मलकिंशुकैः। कदम्बैः सप्तपर्णैश्च कश्मर्यामलकैर्वृताम्।। | 2-33-5a 2-33-5b |
न्यग्रोधैश्च महाशाखैः प्लक्षैरौदुम्बरैरपि। शमीपलाशवृक्षैश्च अश्वत्थैः खदिरैर्वृताम्।। | 2-33-6a 2-33-6b |
बदरीभिश्च सञ्छन्नामश्वकर्णैश्च शोभिताम्। चूतैः पुण्ड्रकपत्रैश्च कदलीवनसंवृताम्।। | 2-33-7a 2-33-7b |
चक्रवाकगणैः कीर्णं प्लवैश्च जलवायसैः। समुद्रकाकैः क्रौञ्चैश्च नादितां जलकुक्कुटैः।। | 2-33-8a 2-33-8b |
एवं खगैश्च बहुभिः सङ्घुष्टां जलवासिभिः। आश्रमैर्बहुभिः सक्तां चैत्यवृक्षैश्च शोभिताम्।। | 2-33-9a 2-33-9b |
शोभितां ब्राह्मणैः शुभ्रैर्वेदवेदाङ्गपारगैः। क्वचित्तीररुहैर्वृक्षैर्मालाभिरिव शोभिताम्।। | 2-33-10a 2-33-10b |
क्वचित्सुपुष्पितैर्वृक्षैः क्वचित्सौगन्धिकोत्पलैः। कह्लारकुमुदोत्फुल्लैः कमलैरुपशोभिताम्।। | 2-33-11a 2-33-11b |
कावेरीं तादृशीं दृष्ट्वा प्रीतिमान्पाण्डवस्तदा। अस्मद्राष्ट्रे यथा गङ्गा कावेरी च तथा शुभा।। | 2-33-12a 2-33-12b |
सहदेवस्तु तां तीर्त्वा नदीमनुचरैः सह। दक्षिणं तीरभासाद्य गमनायोपचक्रमे।। | 2-33-13a 2-33-13b |
आगतं पाण्डवं तत्र श्रुत्वा विषयवासिनः। दर्शनार्थं ययुस्ते तु कौतूहलसमन्विताः।। | 2-33-14a 2-33-14b |
द्रमिडाः पुरुषा राजन्स्रियचश्च प्रियदर्शनाः। गत्वा पाण्डुसुतं तत्र ददृशुस्ते मुदाऽन्विताः।। | 2-33-15a 2-33-15b |
सुकुमारं विशालाक्षं व्रजन्तं त्रिदशोपमम्। दर्शनीयतमं लोके नेत्रैरनिमिषैरिव।। | 2-33-16a 2-33-16b |
आश्चर्यभूतं ददृशुर्द्रमिडास्ते समागताः। महासेनोपमं दृष्ट्वा पूजां चक्रुश्च तस्य वै।। | 2-33-17a 2-33-17b |
रत्नैश्च विविधैरिष्टैर्भोगैरन्यैश्च संमतैः। गतिमङ्गलयुक्तार्भिः स्तुवन्तो नकुलानुजम्।। | 2-33-18a 2-33-18b |
सहदेवस्तु तान्दृष्ट्वा द्रमिलानागतान्मुदा। विसृज्य तान्महाबाहुः प्रस्थितो दक्षिणां दिशम्।। | 2-33-19a 2-33-19b |
दूतेन तरसा चोलं विजित्य द्रमिडेश्वरम्। ततो रत्नान्युपादाय पाण्डस्य विषयं ययौ।। | 2-33-20a 2-33-20b |
दर्शने सहदेवस्य न च तृप्ता नराः परे। गच्छन्तमनुगच्छन्तः प्राप्ताः कौतूहलान्विताः।। | 2-33-21a 2-33-21b |
ततो माद्रीसुतों राजन्मृगसङ्घान्विलोकयन्। गजान्वनचरानन्यान्व्याघ्रान्कुष्णमृगान्बहून् ।। | 2-33-22a 2-33-22b |
शुकान्मयूरान्दृष्ट्वा तु गृध्रानारण्यकुक्कुटान्। ततो देशं समासाद्य श्वशुरस्य महीपतेः।। | 2-33-23a 2-33-23b |
प्रेषयामास माद्रेयो दूतान्पाण्ड्याय वै तदा। प्रतिजग्राह तस्याज्ञां सम्प्रीत्या मलयध्वजः।। | 2-33-24a 2-33-24b |
भार्या रूपवती जिष्णोः पाण्ड्यस्य तनया शुभा। चित्राङ्गदेति विख्याता द्रमिडी योषितां वरा।। | 2-33-25a 2-33-25b |
आगतं सहदेवं तु सा श्रुत्वाऽन्तः पुरे पितुः। प्रेषयामास सम्प्रीत्या पूजारत्नं च वै बहु।। | 2-33-26a 2-33-26b |
पाण्ड्योऽपि बहुरत्नानि दूतैः सह मुमोच ह। मणिमुक्ताप्रवालानि सहदेवाय कीर्तिमान्।। | 2-33-27a 2-33-27b |
तां दृष्ट्वाऽप्रतिमां पूजां पाण्डवोऽपि मुदा नृप। भ्रातुः पुत्रे बहून्रत्नान्दत्वा वै बभ्रूवाहने।। | 2-33-28a 2-33-28b |
पाण्ड्यं द्रमिडराजानं श्वशुरं मलयध्वजम्। स दूतैस्तं वशे कृत्वा मणलूरेश्वरं तदा।। | 2-33-29a 2-33-29b |
ततो रत्नान्युपादाय द्रमिडैरावृतो ययौ। अगस्त्यस्यालयं दिव्यं देवलोकसमं गिरिम्।। | 2-33-30a 2-33-30b |
स तं प्रदक्षिमं कृत्वा मलयं भरतर्षभ। लङ्घयित्वा तु माद्रेयस्ताम्रपणीं नदीं शुभाम्।। | 2-33-31a 2-33-31b |
प्रसन्नसलिलां दिव्यां सुशीतां च मनोहराम्। समुद्रतीरमासाद्य न्यविशत्पाण्डुनन्दनः।। | 2-33-32a 2-33-32b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि दिग्विजयपर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।। 33।। |
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