महाभारतम्-02-सभापर्व-080
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दुर्योधनम्प्रति धृतराष्ट्रेण पाण्डवेषु द्वेषनिषेधनम्।। 1।।
त्वं वै ज्येष्ठो ज्यैष्ठिनेयः पुत्र मा पाण्डवान्द्विषः। द्वेषा ह्यसुखमादत्ते यथैव निघनं तथा।। | 2-80-1a 2-80-1b |
अव्युत्पन्नं समानार्थं तुल्यमित्रं युधिष्ठिरम्। अद्विषन्तं कथं द्विष्यात्त्वादृशो भरतर्षभ।। | 2-80-2a 2-80-2b |
तुल्याभिजनवीर्यश्च कथं भ्रातुः श्रियं नृप। पुत्र कामयसे मोहान्मैवं भूः शाम्य मा शुचः।। | 2-80-3a 2-80-3b |
अथ यज्ञविभूतिं तां काङ्क्षसे भरतर्षभ। ऋत्विजस्तव तन्वन्तु सप्ततन्तुं महाध्वरम्।। | 2-80-4a 2-80-4b |
आहरिष्यन्ति राजानस्तवापि विपुलं धनम्। प्रीत्या च बहुमानाच्च रत्नान्याभरणानि च।। | 2-80-5a 2-80-5b |
अनार्याचरितं तात परस्वस्पृहणं भृशम्। स्वसन्तुष्टः स्वधर्मस्थो यः स वै सुखमेधते।। | 2-80-6a 2-80-6b |
`मही कामदुघा सा हि वीरपत्नीति चोच्यते। तथा वीरस्य भार्या श्रीस्ते इमे हि कलत्रवत्।। | 2-80-7a 2-80-7b |
तवाप्यस्ति हे चेद्वीर्यं भोक्ष्यसे हि महीमिमाम्।। | 2-80-8a |
अयुक्तमिदमेतत्तु परस्वहरणं भृशम्। उभयोर्लोकयोर्दुःखं सुहृदां काङ्क्षतोऽनयम्।। | 2-80-9a 2-80-9b |
अव्यापारः परार्तेषु नित्योद्योगः स्वकर्मसु। रक्षणं समुपात्तानामेतद्वैभवलक्षणम्।। | 2-80-10a 2-80-10b |
विपत्तिष्वव्यथो दक्षो नित्यमुत्थानवान्नरः। अप्रमत्तो विनीतात्मा नित्यं भद्राणि पश्यति।। | 2-80-11a 2-80-11b |
बाहूनिवैतान्मा च्छेत्सीः पाण्डुपुत्रास्तथैव ते। भ्रातृणां तद्धनार्थं वै मित्रद्रोहं च मा कुरु।। | 2-80-12a 2-80-12b |
पाण्डोः पुत्रान्मा द्विषस्वेह राजं- स्तथैव ते भ्रातृधनं समग्रम्। मित्रद्रोहे तात महानघर्मः पितामहा ये तव तेऽपि तेषाम्।। | 2-80-13a 2-80-13b 2-80-13c 2-80-13d |
अन्तर्वेद्यां ददद्वित्तं कामाननुभवन्प्रियान्। क्रीडन्स्त्रीभिर्निरातङ्कः प्रशाम्य भरतर्षभ।। | 2-80-14a 2-80-14b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि अशीतितमोऽध्यायः।।80 ।। |
2-80-1 ज्येष्ठाया अपत्यं ज्यैष्ठिनेयः।। 2-80-2 अव्युत्पन्नं परकपटानभिज्ञम्। समानार्थं तुल्यधनम्। तुल्यमित्रं त्वन्मित्रा द्रोहिणम् अद्विषन्तं च त्वामपीति शेषः।।
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