महाभारतम्-02-सभापर्व-084
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शकुनियुधिष्ठिरयोः संवादः।। 1।। द्यूतनिर्धारणम्।।2।।
वैशम्पायन उवाच।। | 2-84-1x |
प्रविश्य तां सभां पार्था युधिष्ठिरपुरोगमाः। समेत्य पार्थिवान्सर्वान्पूजार्हानभिपूज्य च।। | 2-84-1a 2-84-1b |
यथावयः समेयाना उपविष्टा यथार्हतः। आसनेषु विचित्रेषु स्पर्द्ध्यास्तरणवत्सु च।। | 2-84-2a 2-84-2b |
तेषु तत्रोपविष्टेषु सर्वेष्वथ नृपेषु च। शकुनिः सौबलस्तत्र युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-84-3a 2-84-3b |
शकुनिरुवाच।। | 2-84-4x |
उपस्तीर्णा सभा राजन्सर्वे त्वयि कृतक्षणाः। अक्षानुप्त्वा देवनस्य समयोऽस्तु युधिष्ठिर।। | 2-84-4a 2-84-4b |
युधिष्ठिर उवाच। | 2-84-5x |
नितिर्देवनं पापं न क्षात्रोऽत्र पराक्रमः। न च नीतिर्ध्रुवा राजन्किं त्वं द्यूतं प्रशंससि।। | 2-84-5a 2-84-5b |
हि मानं प्रशंसन्ति निकृतौ कितवस्य हि। शकुने मैवं नोऽजैषीरमार्गेण नृशंसवत्।। | 2-84-6a 2-84-6b |
शकुनिरुवाच। | 2-84-7x |
यो वेत्ति सङ्ख्या निकृतौ विधिज्ञ- श्चेष्टास्वखिन्नः कितवोऽक्षजासु। महामतिर्यश्च जानाति द्यूतं स वै सर्वं सहते प्रक्रियासु।। | 2-84-7a 2-84-7b 2-84-7c 2-84-7d |
अक्षग्लहः सोऽभिभवेत्परं न- स्तेनैव दोषो भवतीह पार्थ। दीव्यामहे पार्थिव मा विशङ्कां कुरुष्व पाणं च चिरं च मा कृथाः।। | 2-84-8a 2-84-8b 2-84-8c 2-84-8d |
युधिष्ठिर उवाच। | 2-84-9x |
एवमाहायमसितो देवलो मुनिसत्तमः। इमानि लोकद्वाराणि यो वै भ्राम्यति सर्वदा।। | 2-84-9a 2-84-9b |
इदं वै देवनं पापं निकृत्या कितवैः सह। धर्मेण तु जयो युद्धे तत्परं न तु देवनम्।। | 2-84-10a 2-84-10b |
नार्या म्लेच्छन्ति भाषाभिर्मायया न चरन्त्युत। अजिह्यमशठं युद्धमेतत्सत्पुरुषव्रतम्।। | 2-84-11a 2-84-11b |
शक्तितो ब्राह्मणार्थाय शिक्षितुं प्रयतामहे। तद्वै वित्तं मातिदेवीर्माजैषीः शकुने परान्।। | 2-84-12a 2-84-12b |
निकृत्या कामये नाहं सुखान्युत धनानि वा। कितवस्येह कृतिनो वृत्तमेतन्न पूज्यते।। | 2-84-13a 2-84-13b |
शकुनिरुवाच। | 2-84-14x |
श्रोत्रियः श्रोत्रियानेति निकृत्यैव युधिष्ठिर। विद्वानविदुषोऽभ्येति नाहुस्तां निकृतिं जनाः।। | 2-84-14a 2-84-14b |
अक्षैर्हि शिक्षितोऽभ्येति निकृत्यैव युधिष्ठिर। विद्वानविदुषोऽभ्येति नाहुस्तां निकृतिं जनाः।। | 2-84-15a 2-84-15b |
अकृतास्त्रं कृतास्रश्च दुर्बलं बलवत्तरः। एवं कर्मसु सर्वेषु निकृत्यैव युधिष्ठिरः। विद्वानविदुषोभ्येति नाहुस्तां निकृतिं जनाः।। | 2-84-16a 2-84-16b 2-84-16c |
एवं त्वं मामिहाभ्येत्य निकृतिं यदि मन्यसे। देवनाद्विनिवर्तस्व यदि ते विद्यते भयम्।। | 2-84-17a 2-84-17b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-84-18x |
आहूतो न निवर्तेयमिति मे व्रतमाहितम्। विधिश्च बलवान्राजन्दिष्टस्यास्मि वशे स्थितः।। | 2-84-18a 2-84-18b |
अस्मिन्समागमे केन देवनं मे भविष्यति। प्रतिपाणश्च कोऽन्योस्ति ततो द्यूतं प्रवर्तताम्।। | 2-84-19a 2-84-19b |
दुर्योधन उवाच। | 2-84-20x |
अहं दातास्मि रत्नानां धनानां च विशाम्पते। मदर्थे देविता चायं शकुनिर्मातुलो मम।। | 2-84-20a 2-84-20b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-84-21x |
अन्येनान्यस्य वै द्यूतं विषमं प्रतिभाति मे। एतद्विद्विन्नुपादत्स्व काममेवं प्रवर्ततम्।। | 2-84-21a 2-84-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि चतुरशीतितमोऽध्यायः।।84 ।। |
2-84-5 पापं पापहेतुः।।
2-84-8 पाणं पणनीयद्रव्यम्।।
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