सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-02-सभापर्व-078

विकिस्रोतः तः
← सभापर्व-077 महाभारतम्
द्वितीयपर्व
महाभारतम्-02-सभापर्व-078
वेदव्यासः
सभापर्व-079 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103

दुर्योधनेन धृतराष्ट्रसमीपे युधिष्ठिराय नानादेशीयराजोपाहृतोपायनवर्णनम्।। 1।।

दुर्योधन उवाच।। 2-78-1x
यन्मया पाण्डवोयानां दृष्टं तच्छृणु भारत।
आहृतं भूमिपालैर्हि वसु मुख्यं ततस्ततः।।
2-78-1a
2-78-1b
नाविदं मूढमात्मानं दृष्ट्वाहं तदरेर्धनम्।
फलतो भूमितो वाऽपि प्रतिपद्यस्व भारत।।
2-78-2a
2-78-2b
और्णान्बैलान्वार्षदंशान् जातरूपपरिष्कृतान्।
प्रावाराजिनमुख्यांश्च काम्भोजः प्रददौ बहून्।।
2-78-3a
2-78-3b
अश्वांस्तित्तिरिकल्माषांस्त्रिशतं शुकनासिकान्।
अष्ट्रवामीस्त्रिगर्ताश्च पुष्टाः पीलुशमीङ्गुदैः।।
2-78-4a
2-78-4b
गोपाः स्वीयेन सहितास्तदादाय चतुष्पदम्।
वसातयोऽन्यद्द्रव्यं द्वारि तस्यावतस्थिरे।।
2-78-5a
2-78-5b
कमण्डलूनुपादाय जातरूपमयञ्छिवान्।
रत्नानि च हिरण्यं च सुवर्णं चैव केवलम्।
2-78-6a
2-78-6b
प्रीयमाणः प्रसन्नात्मा स्वयं स्वजनसंवृतः।
त्रैखर्वो रथमुख्येशः पाण्डवाय न्यवेदयत्।।
2-78-7a
2-78-7b
यश्च स द्विजमुख्येन राज्ञः शङ्खो निवेदितः।
प्रीत्या दत्तः कुविन्देन धर्मराजाय धीमते।।
2-78-8a
2-78-8b
तं सर्वे भ्रातरो भ्रात्रे ददुः शङ्खं किरीटिने।
तं प्रत्यगृह्णाद्बीभत्सुस्तोयजं हेममालिनम्।।
2-78-9a
2-78-9b
चित्रं निष्कसहस्रेण भ्राजमानं स्वतेजसा।
रुचिरं दर्शनीयं च पूजितं विश्वकर्मणा।।
2-78-10a
2-78-10b
अधारयच्च धर्मश्च तं नमस्य पुनः पुनः।
योऽनादनेऽपि नदति स ननादाधिकं तदा।।
2-78-11a
2-78-11b
प्रणादाद्भूमिपास्तस्य पेतुर्हीनाः खतेजसा।
धृष्टद्युम्नः पाण्डवाश्च सात्यकिः केशवोऽष्टमः।।
2-78-12a
2-78-12b
सत्वेन स्वेन सम्पन्ना अन्योन्यप्रियकारिणः।
विसञ्ज्ञान्भूमिपान्दृष्ट्वा मां च ते प्राहसंस्तदा।।
2-78-13a
2-78-13b
ततः प्रहृष्टो बीभत्सुरददाद्धेमशृङ्गिणः।
शताननडुहान्पञ्च द्विजमुख्याय भारत।।
2-78-14a
2-78-14b
सुमुखेन बलिर्मुख्यः प्रेषितोऽजातशत्रवे।
कुविन्देन हिरण्यं च वासांसि विविधानि च।।
2-78-15a
2-78-15b
काश्मीरराजो मार्द्वीकं शुद्धं च सरसं मधु।
बलिं च कुत्स्नमादाय पाण्डवायाभ्युटपागमत्।।
2-78-16a
2-78-16b
यवना हयानुपादाय पार्वतीयान्मनोजवान्।
आसनानि महार्हाणि कम्बलांश्च महाधनान्।।
2-78-17a
2-78-17b
नवान्सूक्ष्मांश्च हृद्यांश्च परार्थ्यान्सुप्रदर्शनान्।
अन्यच्च विविधं रत्नं द्वारि ते न्यवतस्थिरे।।
2-78-18a
2-78-18b
श्रुतायुरपि कालिङ्गो मणिरत्नमनुत्तमम्।
अङ्गः स्त्रियो दर्शनीया जातरूपविभूषिताः।।
2-78-19a
2-78-19b
वङ्गो जाम्बूनदमयान्पर्यङ्गाञ्छतशो नृप।
दक्षिणात्सागराभ्याशात्प्रावारांश्च परश्शतम्।।
2-78-20a
2-78-20b
औदकानि सरत्नानि बलिं चादाय भारत।
अन्येभ्यो भूमिपालेभ्यः पाण्डवाय न्यवेदयत्।।
2-78-21a
2-78-21b
दार्दुरं चन्दनं मुख्यं भारं षण्णवति द्रुतम्।
पाण्डवाय ददौ पाण्ड्यः शङ्खांस्तावत एव च।।
2-78-22a
2-78-22b
चन्दनागरु चानन्तं मुक्तावैडूर्यचित्रिताः।
चोलश्च केरलश्चोमौ ददतुः पाण्डवाय वै।।
2-78-23a
2-78-23b
अश्मको हेमशृङ्गीश्च दोग्ध्रीर्हेमविभूषितः।
सवत्साः कुम्भदोहाश्च सहस्राण्यददाद्दश।।
2-78-24a
2-78-24b
सैन्धवानां सहस्राणि हयानां पञ्चविंशतिम्।
अददात्सैन्धवो राजा हेममाल्यैरलङ्कृतान्।।
2-78-25a
2-78-25b
सौवीरो हस्तिभिर्युक्तान्रथांश्च त्रिशतं परान्।
जातरूपपरिष्कारान्मणिरत्नविभूषितान्।।
2-78-26a
2-78-26b
मध्यन्दिनार्कप्रतिमांस्तेजसा ज्वलितानिव।
बलिं च कृत्स्नमादाय पाण्डवाय न्यवेदयत्।।
2-78-27a
2-78-27b
अवन्तिराजो रत्नानि विविधानि सहस्रशः।
हाराङ्गदांश्च मुख्यान्वै विविधं च विभूषणम्।।
2-78-28a
2-78-28b
दासीनामयुतं चापि बलिमादाय भारत।
सभाद्वारि नरश्रेष्ठ दिदृक्षुरवतिष्ठते।।
2-78-29a
2-78-29b
दशार्णश्चेदिराजश्च शूरसेनश्च वीर्यवान्।
वस्त्राणि मुख्यान्यादाय रत्नानि विविधानि च।
बलिं च कृत्स्नमादाय पाण्डवाय न्यवेदयत्।।
2-78-30a
2-78-30b
2-78-30c
काशिराजेन हृष्टेन बली राज्ञि निवेदितः।
अशीतिगोसहस्राणि शतान्यष्टौ च दन्तिनाम्।।
2-78-31a
2-78-31b
अयुतं च नदीजानां हयानां हेममालिनाम्।
विविधानि च रत्नानि काशिराजो बलिं ददौ।।
2-78-32a
2-78-32b
कृतक्षणश्च वैदेहः कौसलश्च बृहद्बलः।
ददतुर्वाजिमुख्यांश्च सहस्राणि चतुर्दश।।
2-78-33a
2-78-33b
शैब्यो वसादिभिः सार्धं त्रिगर्तो मालवैः सह।
तेभ्यो रत्नानि ददतुरेकैको भूमिपोऽमितम्।।
2-78-34a
2-78-34b
हारान्मुख्यान्परार्ध्यांश्च विविधं च विभूषणम्।
शतं दासीसहस्राणि कार्पासिकनिवासिनाम्।।
2-78-35a
2-78-35b
श्यामास्तन्वीर्दीर्घकेशीर्हेमाभरणभूषिताः।
बलिं च कृत्स्नमादाय भारुकच्छो नरर्षभ।।
2-78-36a
2-78-36b
शुद्धान्विप्रोत्तमार्हांश्च कम्बलप्रवरान्ददौ।
ते सर्वे पाण्डुपुत्रस्य द्वार्यतिष्ठन्दिदृक्षवः।।
2-78-37a
2-78-37b
उपायनं यदा दद्युस्तदा द्वारमलभ्यत।
इन्द्रकृष्टैर्वर्धयन्ति धान्यैर्नदमुखैस्तु ये।।
2-78-38a
2-78-38b
समुद्रनिकटे जाताः परिसिन्धुनिवासिनः।
ते वै द्रुमाः पारदाश्च काश्यकैरातकैः सह।।
2-78-39a
2-78-39b
बलिं विविधमादाय रत्नानि विविधानि च।
अजाविकं गोहिरण्यं खरोष्ट्रं फलवन्मधु।।
2-78-40a
2-78-40b
कम्बलान्विविधांश्चैव द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः।
प्राग्ज्योतिषपतिः शूरो म्लेच्छानामधिपो बली।।
2-78-41a
2-78-41b
यवनैः सहितो राजा भगदत्तो महाबलः।
आजानेयान्हयाञ्छीघ्रमादायानिलरंहसः।।
2-78-42a
2-78-42b
बलिं च कृत्स्नमादाय द्वारि तिष्ठति वारितः।
अश्वसारमयान्भाण्डाञ्छुभान्दन्तत्सरूनसीन्।।
2-78-43a
2-78-43b
प्राग्ज्योतिषाधिपो दत्त्वा भगदत्तोऽव्रजत्तदा।
व्यक्षाङ्ख्यक्षांल्ललाटाक्षान्नानादिग्भ्यः समागतान्।।
2-78-44a
2-78-44b
औष्णीषआनहयांश्चैव बाहुकान्पुरुषादकान्।
एकपादांश्च तत्राहमपश्यं द्वारि वारितान्।।
2-78-45a
2-78-45b
बल्यर्थं ददतस्तस्य हिरण्यं रजतं वसु।
इन्द्रगोपकसङ्काशाञ्छुकवर्णान्मनोजवान्।।
2-78-46a
2-78-46b
तथैवेन्द्रायुधनिभान्सन्ध्याभ्रसदृशानपि।
अनेकवर्णानारण्यान्गृहीत्वाश्वांस्तथा बहून्।।
2-78-47a
2-78-47b
जातरूपमनर्घ्यं च ददुस्तस्यैकपादकाः।
सिंहलश्च तदा राजा परिगृह्य धनं बहु।।
2-78-48a
2-78-48b
गोशीर्षं हरितश्यामं चन्दनप्रवरं महत्।
भाराणां शतमेकं तु द्वारि तिष्ठति वारितः।।
2-78-49a
2-78-49b
ये नग्नविषया राजन्बर्बरेयाश्च विश्रुताः।
शतं दासीसहस्राणां कम्बलांश्च सहस्रशः।
परिगृह्य महाराज द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः।।
2-78-50a
2-78-50b
2-78-50c
पौण्ड्राश्च दामलिप्ताश्च यथाकामकृतो नृपाः।
कालेयकं च रूप्यं च परिगृह्य परिच्छदान्।।
2-78-51a
2-78-51b
अगरून्स्फाटिकांश्चैव दन्ताञ्जातीफलानि च।
तक्कोलांश्च लवङ्गाश्च कर्पूरांश्च महाबल।।
2-78-52a
2-78-52b
अन्यांश्च विविधान्द्रव्यान्परिगृह्योपतस्थिरे।
एते सर्वे महात्मानो द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः।।
2-78-53a
2-78-53b
शैलेयश्च ततो राजा पत्रोर्णान्परिगृह्य सः।
द्वारि तिष्ठन्महाराज द्वारपालैर्निवारितः।।
2-78-54a
2-78-54b
चीना हूणाः कषाः काचाः पर्वतान्तरवासिनः।
आहार्षुर्दशसाहस्रान्विन्नीतान्दिक्षु विंश्रुतान्।।
2-78-55a
2-78-55b
औष्णीकं कम्बलं चैव कीटजं मणिजं तथा।
प्रमाणरागस्पर्शाढ्यं बाह्वीचीनसमुद्भवम्।।
2-78-56a
2-78-56b
रसान् गन्धान्प्रशंसन्तस्ततो द्वारमलभ्यत।
खर्वटास्तोमराश्चैव शूरा वर्धनकास्तथा।।
2-78-57a
2-78-57b
चेलान्बहुविधान्गृह्य द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः।
प्राक्कोटा नाटकेयाश्च नन्दीनगरकास्तथा।।
2-78-58a
2-78-58b
नापितास्त्रैपुराश्चैव पञ्चमेयाः सहोरुजाः।
तथा चाटविकाः सर्वे नानाद्रव्यपरिच्छदान्।।
2-78-59a
2-78-59b
परिगृह्य महाराज द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः।
शकास्तुषाराः कौरव्य रोमकाः शृङ्गिणोश्मकाः।।
2-78-60a
2-78-60b
बलादूरुगमा राजन्गणितं चार्बुदं मया।
कूटीकृतं सुवर्णं च पद्मकिञ्जल्कसंनिभम्।।
2-78-61a
2-78-61b
शितान्दीर्घानसीनन्यान्यष्टिशक्तिपरश्वथान्।
श्लक्ष्णं वस्त्रमकार्पसमाविकं मृदु चाजिनम्।।
2-78-62a
2-78-62b
बलं मत्तं समादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः।
आसनानि महार्हाणि यानानि शयनानि च।।
2-78-63a
2-78-63b
मणिकाञ्चनचित्राणि गजदन्तमयानि च।
रथांश्च विविधाकाराञ्जाम्बूनदपरिष्कृतान्।।
2-78-64a
2-78-64b
हयैर्विनीतैः सम्पन्नान्वैयाघ्रपरिवारितान्।
विचित्रान्सपरिस्तोमांश्चापानि विविधानि च।
2-78-65a
2-78-65b
नाराचानर्घनाराचाञ्छस्त्राणि विविधानि च।
एतद्द्रव्यं महद्गृह्य पूर्वदेशाधिपो नृपः।।
2-78-66a
2-78-66b
प्रविष्टो यज्ञसदनं पाण्डवस्य महात्मनः।
जन्तुचेलान्द्विसाहस्रान्दुकूलान्ययुतानि च।।
2-78-67a
2-78-67b
कांस्यानि चैव भाण्डानि महार्हाणि कुथानि च।
एतान्यन्यानि रत्नानि ददौ पार्थस्य वै मुदा।।
2-78-68a
2-78-68b
अन्यान्बहुविधान्राजन्नरः सागरमाश्रिताः।
रत्नानि विविधान्गृह्य ददुस्ते पाण्डवाय तु।।
2-78-69a
2-78-69b
मालवाश्च ततो राजन्रत्नानि विविधानि च।
गोधूमानां च राजेन्द्र द्रोणानां कोटिसंमितम्।।
2-78-70a
2-78-70b
अन्यांश्च विविधान्धान्यान्परिगृह्य महाबलः।
पाण्डवाय ददौ प्रीत्या प्रविवेश महाध्वरम्।।
2-78-71a
2-78-71b
नानारत्नान्बहून्गृह्य सुराष्ट्राधिपतिर्नृपः।
तैलकुम्भान्महाराज द्रोणानामयुतानि च।।
2-78-72a
2-78-72b
गुडानपि स तान्स्वादून्सहस्रशकटैर्नृपः।
एतानि सर्वाण्यादाय ददौ कुन्तीसुताय सः।।
2-78-73a
2-78-73b
अन्ये च पार्थिवा राजन्नानादेशसमागताः।
रत्नानि विविधान्गृह्य ददुस्ते कौरवाय तु।।
2-78-74a
2-78-74b
जम्बूद्वीपे समस्ते तु सराष्ट्रवनपर्वते।
करं तु न प्रयच्छेत नास्ति पार्थस्य पार्थिवः।।
2-78-75a
2-78-75b
नरः सप्तसु वर्षेसु तद्यज्ञे नास्ति नागतः।
क्रतुर्नानागणैः कीर्णो बभौ शक्रसदो यथा।।
2-78-76a
2-78-76b
इमांश्च दायान्विविधान्निबोध मम पार्थिव।
यज्ञाप्थे राजभिर्दत्तान्महतो धनसञ्चयान्।।
2-78-77a
2-78-77b
मेरुमन्दरयोर्मध्ये शैलोदामभितो नदीम्।
ये ते कीचकवेणूनां छायां रम्यामुपासते।।
2-78-78a
2-78-78b
खषा एकासनाद्यर्हाः प्रदरा दीर्घवेणवः।
पारदाश्च कुलिन्दाश्च तङ्कणाः परतङ्कणाः।।
2-78-79a
2-78-79b
तद्वै पिपीलिकं नाम उद्धृतं यत्पिपीलिकैः।
जातरूपं द्रोणमेयमहार्षुः कुञ्जशो नराः।।
2-78-80a
2-78-80b
कृष्णवालांश्च चमराञ्छुक्लवालांस्तथा परान्।
हिमवत्पुष्पजं चैव स्वादुक्षौद्ररसं बहु।।
2-78-81a
2-78-81b
उत्तरेभ्यः कुरुभ्यश्च व्यूढमाल्यैर्महात्मभिः।
उत्तरादपि कैलासादोषधीः सुमहाबलाः।।
2-78-82a
2-78-82b
पार्वतीयाश्चराजान आहृत्य प्रणताः स्थिताः।
अजातशत्रवे राजन्द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः।।
2-78-83a
2-78-83b
ये परार्घ्या हिमवतः सूर्योदयगिरेरनु।
एवंरूपाः समुद्रान्ते लौहित्यमभितश्च ये।।
2-78-84a
2-78-84b
फलमूलाशना ये च किराताश्चर्मवाससः।
चन्द्नागरुमुख्यानि महार्हान्कम्बलानि च॥
2-78-85a
2-78-85b
चर्मरत्नसुवर्णानि गन्धानुच्चावचानि च।
कैरातकीनामयुतं दासीनां च विशंपते ॥
2-78-86a
2-78-86b
आहृत्य रमणीयार्थान्दूरगान्मृगपक्षिणः।
निचितं पर्वतेभ्यश्च हिरण्यंभूरिवर्चसम्॥
2-78-87a
2-78-87b
बलिं च कृत्स्त्रमादाय द्वारि तिष्टन्ति वारिताः।
कापव्या दरदा दर्वाः शूरा वै यमकास्तथा॥
2-78-88a
2-78-88b
औदुम्बरा दुर्विभागा द्वारि तिष्टन्ति वारिताः।
काश्मीराश्च कुमाराश्च गौरका हंसकास्तथा॥
2-78-89a
2-78-89b
शिबित्रैगर्तयौधेया राजन्या मद्रकैः सह।
वसुतेयाः समौलेया दाहक्षुद्रकमालवैः।।
2-78-90a
2-78-90b
चौण्डिकाश्चौदकाश्चैव साल्वाश्चैव विशम्पते।
अङ्कवङ्काश्च यवना अनवद्या गयैः सह।।
2-78-91a
2-78-91b
सुजातयः श्रेणिमन्तः श्रेयांसः शस्त्रधारिणः।
आहार्षुः क्षत्रिया वित्तं शतशोऽजातशत्रवै।।
2-78-92a
2-78-92b
वङ्काः कलिङ्गा मगधास्ताम्रलिप्ताः सपुण्ड्रकाः।
दुकूलं कौशिकं चैव पत्रोर्णं चैव भारत।।
2-78-93a
2-78-93b
उपावृत्ता नृपास्तस्य ददुः प्रीतिं न चागमन्।
उच्यन्ते तत्र हि द्वार्स्थैर्बलिमादाय विष्ठिताः।।
2-78-94a
2-78-94b
ईषादन्तान्हेमकक्ष्यान्पद्मवर्णान्कुथावृतान्।
शैलाभान्नित्यमत्तांश्चाप्यभितः काम्यकं सरः।।
2-78-95a
2-78-95b
क्षमावतः कुलीनांश्च कुञ्जरान्सपरिच्छदान्।
दत्त्वैकैको दशशतान्द्वारेण प्रविशन्त्विति।।
2-78-96a
2-78-96b
वैदेहकाश्च पुण्ड्राश्च गौलेयास्ताम्रलिप्तकाः।
मरुकाः काशिका दर्दा भौमेया नटनाटकाः।।
2-78-97a
2-78-97b
कर्णाटाः कांस्यकुट्टाश्च पद्मजालाः सतीनराः।
दाक्षिणात्याः पुलिन्दाश्च शवेरास्तङ्कणाः शषाः।।
2-78-98a
2-78-98b
बर्बरा यवनाश्चैव गर्गराभीरकास्तथा।
पल्लवाः शककारूशास्तुम्बकाः काशिकास्तदा।।
2-78-99a
2-78-99b
एते चान्ये च बहवो नानादिगभ्यः समागताः।
अन्यैश्चोपहृतान्यत्र रत्नानि हि महात्मभिः।।
2-78-100a
2-78-100b
समुद्रसारवैडूर्यान्मुक्ताः शङ्खास्तथैव च।
शुभावर्ताञ्छुभाञ्छुक्तीः सिंहलाः समुपाहरन्।।
2-78-101a
2-78-101b
सम्भृतान्मणिचीरैश्च श्यामांस्ताम्रान्तलोचनान्।
राजा चित्ररथो नाम गन्धर्वो वासवानुगः।
शतानि चत्वार्यददद्धयानां वातरंहसाम्।।
2-78-102a
2-78-102b
2-78-102c
तुम्बुरुस्तु प्रमुदितो गन्धर्वो वाजिनां शतम्।
आम्रपत्रसवर्णानामददद्धेममालिनाम्।।
2-78-103a
2-78-103b
कृती राजा च कौरव्य शूकराणां विशाम्पते।
अददद्गजरत्नानां शतानि सुबहून्यथ।।
2-78-104a
2-78-104b
विराटेन तु मत्स्येन बल्यर्थं हेममालिनाम्।
कुञ्जराणां सहस्रे द्वे मत्तानां समुपाहृते।।
2-78-105a
2-78-105b
पांसुराष्ट्राद्वमुदानो राजा षड्विंशतिं गजान्।
अश्वानां चसहस्रे द्वे राजन्काञ्चनमालिनाम्।।
2-78-106a
2-78-106b
जवसत्वोपपन्नानां वयस्थानां नराधिप।
बलिं च कृत्स्नमादाय पाण्डवेभ्यो न्यवेदयत्।।
2-78-107a
2-78-107b
यज्ञसेनेन दासीनां सहस्राणि चतुर्दश।
दासानामयुतं चैव सदाराणां विशाम्पते।।
2-78-108a
2-78-108b
गजयुक्ता महाराज रथाः षड्विंशतिस्तथा।
राज्यं च कृत्स्नं पार्थेभ्यो यज्ञार्थं वै निवेदितम्।।
2-78-109a
2-78-109b
वासुदेवोऽपि वार्ष्णेयो मानं कुर्वन्किरीटिनः।
अददद्गजमुख्यानां सहस्राणि चतुर्दश।।
2-78-110a
2-78-110b
आत्मा हि कृष्णः पार्थस्य कृष्णस्यात्मा धनञ्जयः।
यद्ब्रूयादर्जुनः कृष्णं सर्वं कुर्यादसंशयम्।।
2-78-111a
2-78-111b
कृष्णो धनञ्जयस्यार्थे स्वर्गलोकमपि त्यजेत्।
तथैव पार्थः कृष्णार्थे प्राणानपि परित्यजेत्।।
2-78-112a
2-78-112b
सुरभींश्चन्दनरसान्हेमकुम्भसमास्थितान्।
मलयाद्दर्दुराच्चैव चन्दनागुरुसञ्चयान्।।
2-78-113a
2-78-113b
मणिरत्नानि भास्वन्ति काञ्चनं सूक्ष्मवस्त्रकम्।
चोलपाण्ड्यावपि द्वारं न लेभाते ह्युपस्थितौ।।
2-78-114a
2-78-114b
समुद्रसारं वैदूर्यं मुक्तासङ्घांस्तथैव च।
शतशश्च कुथांस्तत्र सिंहलाः समुपाहरन्।।
2-78-115a
2-78-115b
संवृता मणिचीरैस्तु श्यामास्ताम्रान्तलोचनाः।
ता गृहीत्वा नरास्तत्र द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः।।
2-78-116a
2-78-116b
प्रीत्यर्थं ब्राह्मणश्चैव क्षत्रियाश्च विनिर्जिताः।
उपाजह्रुर्विशश्चैव शूद्राः शुश्रूषवस्तथा।।
2-78-117a
2-78-117b
प्रीत्या च बहुमानाच्चाप्युपागच्छन्युधिष्ठिरम्।
सर्वे म्लेच्छाः सर्ववर्णा आदिमध्यान्तजास्तथा।।
2-78-118a
2-78-118b
नानादेशसमुत्थैश्चन नानाजितिभिरेव च।
पर्यस्त इव लोकोऽयं युधिष्ठिरनिवेशने।।
2-78-119a
2-78-119b
उच्चावचानुपग्राहान्राजभिः प्रापितान्बहून्।
शत्रूणां पश्यतो दुःखान्मुमूर्षा मे व्यजायत।।
2-78-120a
2-78-120b
भृत्यास्तु ये पाण्डवानां तांस्ते वक्ष्यामि पार्थिव।
येषामामं च पक्वं च संविधत्ते युधिष्ठिरः।।
2-78-121a
2-78-121b
अयुतं त्रीणि पद्मानि गजारोहाः ससादिनः।
थानामर्बुदं चापि पादाता बहवस्तथा।।
2-78-122a
2-78-122b
प्रमीयमाणमां च पच्यमानं तथैव च।
विसृज्यमानं चान्यत्र पुण्याहस्वन एव च।।
2-78-123a
2-78-123b
नाभुक्तवन्तं नापीतं नालङ्कृतमसत्कृतम्।
पश्यं सर्ववर्णानां युधिष्ठिरनिवेशने।।
2-78-124a
2-78-124b
अष्टाशीतिसहस्राणि स्नातका गृहमेधिनः।
त्रिंशद्दासीक एकैको यान्बिभर्ति युधिष्ठिरः।
सुप्रीताः परितृष्टाश्च ते ह्याशंसत्त्यरिक्षयम्।।
2-78-125a
2-78-125b
2-78-125c
दशान्यानि सहस्राणि यतीनामूर्ध्वरेतसाम्।
भुञ्जते रुक्मपात्रीभिर्युधिष्ठिरनिवेशने।।
2-78-126a
2-78-126b
अभुक्तं भुक्तवद्वापि सर्वमाकुब्जवामनम्।
अभुञ्जाना याज्ञसेनी प्रत्यवैक्षद्विशाम्पते।।
2-78-127a
2-78-127b
द्वौ करौ न प्रयच्छेतां कुन्तीपुत्राय भारत।
साम्बन्धिकेनपाञ्चालाः सख्येनान्धकवृष्णयः।।
2-78-128a
2-78-128b
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
द्यूतपर्वणि अष्टसप्ततितमोऽध्यायः।।78।।

2-78-2 नाविदमिति सम्बन्धः। अपि तथापि मुख्यतो वक्ष्यमाणं धनं प्रतिपद्यस्वेत्यर्थः। फलतो जातं वस्त्रादि। भूमितो जातं हीरादि ।। 2-78-5 वस्त्राणि धान्यद्रव्यं च घ.पाठः ।। 2-78-104 शूकराणां देशविशेषाणाम्॥ 2-78-22 नीपादयो राजानः। आवर्जिता दासवदूशगाः॥ 2-78-23 पर्युदस्ता दूरक्षिप्ताः॥ 2-78-26 न समभवत् समर्थो नाभवन्॥

सभापर्व-077 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सभापर्व-079
"https://sa.wikisource.org/w/index.php?title=महाभारतम्-02-सभापर्व-078&oldid=50524" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्