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महाभारतम्-02-सभापर्व-043

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श्रीकृष्णमहिम्नो विस्तरेण कथनाय भीष्मम्प्रति युधिष्ठिरप्रार्थना।। 1।। भीष्णेण विष्णोर्जगत्सृष्टिकथाकथनम्।। 2।।

वैशम्पायन उवाच। 2-43-1x
ततो भीष्मस्य तच्छ्रुत्वा वचः काले युधिष्ठिरः।
ज्ञापनार्थाय सर्वेषां भीष्मं पुनरथाब्रवीत्।।
2-43-1a
2-43-1b
विस्तरेणास्य देवस्य कर्माणीच्छामि सर्वशः।
श्रोतुं भगवतस्तानि प्रब्रवीहि पितामह।।
2-43-2a
2-43-2b
कर्मणामानुपूर्वा च प्रादुर्भावाश्च ये विभोः।
यथा च प्रकृतिः कृष्णे तन्मे ब्रूहि पितामह।।
2-43-3a
2-43-3b
एवमुक्तस्तदा भीष्मः प्रोवाच भरतर्षभ।
युधिष्ठिरममित्रघ्नं तस्मिन्त्राजसमागमे।।
2-43-4a
2-43-4b
समक्षं वासुदेवस्य देवस्येव शतक्रतोः।
कर्माण्यसुकराण्यन्यैराचचक्षे जनाधिप।।
2-43-5a
2-43-5b
शृण्वतां पार्थिवानां च धर्मराजस्य चान्तिके।
इदं मतिमतां श्रेष्ठः कृष्णं प्रति विशाम्पते।।
2-43-6a
2-43-6b
म्नैवामन्त्र्य राजेन्द्र चेदिराजमरिन्दमम्।
भीमकर्मा ततो भीष्णो भूयः स इतमब्रवीत्।।
2-43-7a
2-43-7b
करूणामपि राजानं युधिष्ठिरमभाषत। 2-43-8a
भीष्ण उवाच। 2-43-8x
वर्तमानामतीतां च शृणु राजन्युधिष्ठिर।। 2-43-8b
ईश्वरस्योत्तमस्यैनां कर्मणां गहनां गतिम्।
अव्यक्तो व्यक्तलिङ्गस्थो य एष भगवान्प्रभुः।।
2-43-9a
2-43-9b
पुरा नारायणो देवः स्वयम्भूः प्रपितामहः।
सहस्रशीर्षः पुरुषो ध्रवोऽनन्तः सनातनः।।
2-43-10a
2-43-10b
सहस्रास्यः सहस्राश्चः सहस्रचरणो विभुः।
सहस्रवाहुः सर्वज्ञो देवो नामसहस्रवान्।।
2-43-11a
2-43-11b
सहस्रमुकुटो देवो विश्वरूपो महाद्युतिः।
अनेकवर्णो देवादिरव्यक्ताद्वै परे स्थितः।।
2-43-12a
2-43-12b
असृजत्सलिलं पूर्वं स च नारायणः प्रभुः।
ततस्तु भगवांस्तोये ब्रह्माणमसृजत्स्वयम्।।
2-43-13a
2-43-13b
ब्रह्मा चतुर्मुखो लोकान्सर्वांस्तानसृजत्स्वयम्।
आदिकाले पुरा ह्येवं सर्वलोकस्य चोद्भवः।
पुरा यः प्रलये प्राप्ते नष्टे स्थावरजङ्गमे।।
2-43-14a
2-43-14b
2-43-14c
ब्रह्मादिषु प्रलीनेषु नष्टे लोके चराचरे।
आभूतसम्प्लवे प्राप्ते प्रलीने प्रकृतौ महान्।।
2-43-15a
2-43-15b
एकस्मिष्ठति सर्वात्मा स तु नारायणः प्रभुः।
नारायणस्य चाङ्गानि सर्वदैवानि भारत।।
2-43-16a
2-43-16b
शिरस्तस्य दिवं राजन्नाभिः खं चरणौ मही।
अश्विनौ कर्णयोर्देवौ चक्षुषी शशिभास्करौ।।
2-43-17a
2-43-17b
इन्द्रवैश्वानरौ देवौ मुखं तस्य महात्मनः।
अन्यानि सर्वदैवानि सर्वाङ्गानि महात्मनः।।
2-43-18a
2-43-18b
सर्वं चापि हरौ संस्थं सूत्रे मणिगणा इव।
आभूतसम्प्लवान्तेऽथ दृष्ट्वा सर्वं तमोन्वितम्।।
2-43-19a
2-43-19b
नारायणो महायोगी सर्वज्ञः परमात्मवान्।
ब्रह्मभूतस्तदात्मानं ब्रह्मणमसृजत्स्वयम्।।
2-43-20a
2-43-20b
सोऽध्यक्षः सर्वभूतानां प्रभूतप्रभवोऽच्युतः।
सनत्कुमारं रुद्रं च सप्तर्षीश्च तपोधनात्।।
2-43-21a
2-43-21b
सर्वमेवासृजद्ब्रह्मा तथा लोकांस्तथा प्रजाः।
ते च तद्व्यसृजंस्तत्र प्राप्तकाले युधिष्ठिर।।
2-43-22a
2-43-22b
तेभ्योऽभवन्महात्मभ्यो बहुधा ब्रह्म शाश्वतम्।
कल्पानां बहुकोट्यश्चसमतीतास्तु भारत।।
2-43-23a
2-43-23b
आभूतसम्प्लवाश्चैव बहुधाऽद्धाऽपचक्रमुः।
मन्वन्तरयुगा राजन्सङ्कल्पो भूतसम्प्लवाः।।
2-43-24a
2-43-24b
चक्रवत्परिवर्तन्ते सर्वं विषमुखं जगत्।
सृष्ट्वा चतुर्मुखं देवं देवो नारायणः प्रभुः।।
2-43-25a
2-43-25b
स लोकानां हितार्थाय क्षीरोदे वसति प्रभुः।
ब्रह्मा च सर्वलोकानां लोकस्य च पितामहः।।
2-43-26a
2-43-26b
ततो नारायणो देवः सर्वस्य प्रपितामहः। 2-43-27a
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
अर्घाहरणपर्वणि त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः।। 43 ।।

2-43-25 विषमुखं जलादिकम्।।

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